आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा
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इतिहास की छाती पर आउशवित्ज़ वस्तुतः मर्दवाद के अहंकार से पैदा हुए राष्ट्रवाद का वह घिनौना ज़ख्म है जिसे कई साहित्यकारों ने अपने-अपने नज़रिए से देखा और समझा है . पर गरिमा श्रीवास्तव के ‘आउशवित्ज़ : एक प्रेम कथा’ उपन्यास से गुजरने के बाद हमारी आँखों में एक अतिरिक्त लेंस लग जाता है जो दृष्टि का दायरा बड़ा करता है. बारीक भी. इतना कि हम अपने भीतर झाँककर देखने लगते हैं. एक राष्ट्र का जन्म किन परिस्थितियों में होता है? क्या पश्चिम के राष्ट्रवाद को को हम पूरब के राष्ट्रवाद से अलग करके देखते हैं ? नि:संदेह इस विषय पर सैकड़ों किताबें और सिद्धान्त पढ़ने-समझने को मिल सकते हैं. लेकिन जब हम सवाल करते हैं कि पूरब और पश्चिम इन दोनों तरह के राष्ट्रवाद में औरत के साथ क्या होता है या क्या हुआ है ? तब एक सिहरन होती है. एक ऐसी सिहरन जो कभी चीखकर तो कभी हौले से अपने ज़ख्म दिखाती है. इन्हीं ज़ख़्मों की मुसलसल पड़ताल है यह उपन्यास.
जब हम इस उपन्यास को शुरू करते हैं तब लगता है कि इसके दो कथानक हैं, दो भूगोल हैं और दो तरह के इतिहास हैं. फिर लग सकता है कि ये जोड़े जा रहे हैं. पर जब आप इसे खत्म करते हैं तब महसूस होता है कि ऊपर से दो अलग-अलग दिखने वाली कथाएँ उन दो तरह के टैक्टोनिक प्लेट्स की तरह हैं जो एक ही धरती की हैं और उनके आपसी टकराव की वजह से जिस तर्क और तकलीफ़ का सैलाब उठता है वही वस्तुतः राष्ट्रवाद है जिसका गर्भ-गृह अंततः मर्दवाद है.
यहाँ प्रतीति सेन है जिसका वर्तमान और अतीत बांग्लादेश से आउशवित्ज़ तक फैल हुआ है और उसकी स्मृति में तरह–तरह के तर्क, बिम्ब, अवधारणाएँ और इतिहास की गुत्थियाँ हैं. हम धीमी रफ्तार से उनसे होते हुए गुजरते हैं और पाते हैं कि तीन स्तरों की प्रेम कथा है- बिराजित सेन और रहमाना ख़ातून ऊर्फ़ द्रौपदी देवी की, अभिरूप और प्रतीति सेन की और अंत में रेनाटा और सबीना की. यह तीन भूगोल, तीन तरह के इतिहास और तीन तरह के वर्तमान की कथा होने के बावजूद एक ही तरह के सवाल से टकराती है “हमारा क़सूर क्या है ? यह हमारे साथ क्यों हो रहा है ?”
इस उपन्यास की ताकत कुछ चिट्ठियाँ और आँकड़े हैं जिनका संबंध बिराजित सेन और रहमाना खातून से है, तो रेनाटा और सबीना से भी. इन दो तरह की कथाओं की कड़ी है प्रतीति सेन और अभिरूप, जो कहने को आज के जोड़े हैं पर जोड़े होने से वंचित रह जाते हैं, इनकी भी एक अलग ही त्रासदी है. दूसरा विश्व-युद्ध, भारत-पाकिस्तान का बंटवारा और फिर 1971 में बांग्लादेश का जन्म और वर्तमान विश्व , यही दुनिया है इस उपन्यास की. उपन्यास लेखन में आउशवित्ज़ से जुड़े कई सारे आँकड़े तो लेखिका ने सीधे-सीधे उठा लिए हैं पर वह सांस लेने वाले, बोलते, जीवंत आँकड़े हैं जिसका विवरण बहुत तकलीफ़ देता है, यहाँ तक कि मनुष्य होने पर शर्मसार कर देता है, विशेषकर “नो अंडरवियर” अध्याय पढ़ते हुए आँखें नम हो जाती हैं. हिटलर और उसके गेस्टापो की यातनाओं का असर आने वाली वहाँ की पीढ़ियों तक में कितनी महीनी से पैवस्त है, यह रेनाटा और सबीना के रिश्ते को देखकर परखा जा सकता है.
यातना की कथा और इतिहास के दृश्यों ने इतने कथोपकथन तैयार किए हैं कि उपन्यास पढ़कर एकबार आप दंग हो सकते हैं. यहाँ जो विवरण हैं उनमें से कई सारे ऐसे हैं जो हिन्दी जगत में ना तो कभी अनूदित होकर सिनेमा के माध्यम से आए हैं और संभवतः कथा में भी होंगे तो ऐसे नहीं होंगे. रोंगटे खड़े करने वाले ऐसे दृश्य जो केवल भाषा में ही व्यक्त हो सकते हैं वे सिनेमा या डॉक़युमेंट्री के बूते से बाहर हैं. ऐसे दृश्य केवल तकलीफ़ के पदबंध में भाषा में अवधारणा के जरिये ही विन्यस्त हो सकते हैं.
एकबारगी लग सकता है कि इसका संबंध हम एशियाई लोगों से कहाँ है ? पर रहमाना ख़ातून की ज़िंदगी, बांग्ला-देश का जन्म, मुक्ति-वाहिनी का गठन, तीन लाख बिहारी मुसलमानों का क़त्ल इत्यादि अंतिम अध्याय में जब खुलता है तब सारा का सारा आउशवित्ज़ उठकर आपके पड़ोस में खड़ा हो जाता है. पड़ोस में क्या बल्कि सर पर. हिंसा, रेप, स्त्रियों का धर्म-परिवर्तन सब के सब राष्ट्रवाद के संदर्भ में एक झटके में सामने आ जाते हैं. एक दृश्य है- भूख से बिलबिलाती बच्ची टिया को नंगा किया जाना :
“जब टिया का इलाज़ शुरू हुआ तो वह अक्सर डॉक्टर के बेड पर चौपाए जैसी खड़ी हो जाती. उसे डांटकर नीचे उतारना पड़ता. वह चड्डी नहीं पहनना चाहती. बाद में टिया ने ही बताया कि एक उम्रदराज़ व्यक्ति ने नज़दीक बुलाकर नाम-पता पूछा और उसे भरोसा दिलाया कि माँ के पास लेकर जाएगा यदि टिया उसकी बात माने तो.
वे कैम्प में मूढ़ी-बताशा जमीन पर बिखेर कर लड़कियों को खाने को कहते. बेचारी भूखी-लाचार एक-दूसरी के ऊपर गिरती-पड़ती. मूढ़ी के दाने दोनों हाथों से बटोर कर भकोसने लगती, जिसकी जितनी क्षमता. एक तनाव भरे युद्ध के माहौल में यह एक सायंकालीन मनोरंजन हुआ करता. वह आदमी प्लेट में पानी डाल कर जमीन पर रख देता और टिया को बकरी की तरह पानी पीने को कहता. कैम्पवासियों के अट्टहास का ठिकाना नहीं रहता जब एक पन्द्रह वर्षीया मानवी चौपाया बन झुक जाती पीछे से सैनिक उसमें लिंग घुसाता…”
(पृष्ठ.218)
टिया उपन्यास के पार्श्व में एक गहरी सिसकी के साथ मौजूद है. औरत के लिए जो यूरोप है वही बांग्लादेश. फ़र्क करने वाले पूरब और पश्चिम के राष्ट्रवाद पर बहस करते रहें पर मुक्तिवाहिनी के मुकुल की आत्म-स्वीकृति सारा भेद खोल देती है
“हत्या करते-करते मुझ जैसे लोग साँप की तरह ठंडे पड़ गए थे, सोचता हूँ कि मैं क्या से क्या हो गया ? क्या राष्ट्र की चिंता ने मुझे मनुष्य से क़ातिल में तब्दील कर दिया, मुझे बर्बाद कर दिया….अपने किए की ग्लानि मन से जाती नहीं.”
इस उपन्यास में ज़ोसेफ़ मेंगले का जिक्र है. स्वाभाविक है कि वह उपन्यास का पात्र नहीं बल्कि नर-पिशाचों के इतिहास का का सबसे घिनौना रूप है जो ज़िंदा बच्चों पर और खासकर जुड़वा बच्चों पर जैव-वैज्ञानिक प्रयोग करता था. ज़ोसेफ़ मेंगल ने हिटलर से इजाज़त लेकर यह शुरू किया था-
“नाज़ियों ने ज़ोसेफ़ मेंगले को शोध के लिए, धन, प्रयोगशाला, बच्चे और क़ैदी मुहैया करवाए, क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि वंशानुगतता के रहस्यों को खोज लिया जाये तो जर्मनों की सुंदर, शक्तिशाली पीढ़ी तैयार हो सकती है जिसकी नस्ल सर्वश्रेष्ठ हो.”
पर यह हो न सका. हजारों-हज़ार बच्चों जिनमें अधिकांश जुड़वा थे उनको तड़पाकर मारने के बावजूद कोई निष्कर्ष न निकल पाया और इसी बीच हिटलर हार गया. यह इतिहास के पात्र हैं, पर उपन्यास में ज़ोसेफ़ मेंगले को जिन संदर्भों में और जिस तरह से याद किया गया उससे उसका एक मिथकीय रूप सामने आता है और दुनिया भर एक उन आतताइयों के चेहरे आँखों के सामने नाच जाते हैं जो ज़ोसेफ़ मेंगले और हिटलर के सपनों को अब भी जी रहे हैं. जिन्हें आज भी लगता है कि रेस और जेंडर में श्रेष्ठता बचती है और उग्र-राष्ट्रवाद से ही उनकी रक्षा हो सकती है. ज़ोसेफ़ मेंगले एक सनक का नाम है जिसके विस्तार की संभावना से लेखिका ने कहीं इंकार नहीं किया है बल्कि वह चिंतित हैं.
करुणा को उपन्यास की ताक़त बना लेना आसान काम नहीं. वह व्यवहार में हमेशा से कविता के लिए आरक्षित समझी जाती है. पर गरिमा श्रीवास्तव ने इस उपन्यास में यह कर दिखाया है. हालांकि एकाध जगहों पर बौद्धिकता का आग्रह शुष्कता भी ले आता है, पर अगर हम प्रतीति सेन को ध्यान से देखें तो पढ़ी-लिखी स्त्री की त्रासदी का ही एक रूप वहाँ देखने को मिलता है. शुष्कता की वजह ज्ञान या चेतना है. वह ज्ञान जो धीरे-से पुरुष-मन के चोर दरवाजों को जान लेता है और असलियत समझ जाता है. तब सूख जाता है प्रेम. मृगमरीचिका का भेद खुल जाता है. पर उससे घृणा पैदा नहीं होती, बल्कि एक खास तरह की उदासी और अकेलापन पैदा होता है जिसकी पूर्व सूचना उपन्यास के शुरुआती हिस्से में ही है
“जिन्होंने तुम्हारे अकेलेपन को एकांत में तब्दील करने का हुनर सिखाया , सुनी है वेदना की आवाज़ इस अकेले तानपुरे ने, जिसका हरेक सुर तुम्हारी अपनी ही कथा कहता है.”
यह उस ज्ञान या बौद्धिकता की भी त्रासदी है. चेतना की भी. शर्तिया न जीने की और अपने शर्त पर चलने की. यहाँ भी स्त्री को अकेले ही पड़ जाना है. पुरुष मन कहाँ छिटकता है ? क्या उसकी मर्दवादी आदतें बदल नहीं सकती ? उसकी क्रूरता तो खत्म हुई दिखती है, पर उसकी विनम्रता और संवेदनशीलता के अकथ प्रदेश में कहीं काई की तरह जमा हुआ है ‘मर्द’. ‘पुरुषार्थ’ की प्रैक्टिस ने क्या मनुष्यत्व का डीएनए बदल डाला है ? कि समता की राह पर सहज नहीं हो पाया है अब तक पुरुष ? इन्हीं सवालों से, प्रेम से, युद्ध से, राष्ट्रवाद से टकराते हुए इस उपन्यास का सृजन हुआ है. यह उपन्यास अपने कलेवर में जितना बौद्धिक है उतना ही कारुणिक. यह बुद्धि और करुणा की भी प्रयोगशाला है.
आउशवित्ज़
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1
मानव इतिहास की सबसे क्रूर त्रासदी स्थली आउशवित्ज़ के साथ “एक प्रेम कथा” जोड़ने की वजह क्या है ?
इसके पीछे रचनात्मक मांग एकमात्र वजह है. इतिहास गवाह है कि क्रूरता का मुकाबला क्रूरता से करने की जब कभी और जहाँ कहीं कोशिश हुई है वह अपनी परिणति में असफल और त्रासद होने के लिए अभिशप्त रही है. गार्सिया मार्खेज़ का उपन्यास है-‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’. प्राचीन भारतीय साहित्य भी ‘प्रेमा पुमर्थो महान’ की घोषणा करता है.एक रचनाकार के पास क्रूरता का सामना करने के लिए प्रेम से बड़ा कोई ब्रह्मास्त्र हो नहीं सकता.
2
अचानक से उपन्यास विधा का चुनाव क्यों ? जबकि आपके शोधपरख और विचारोत्तेजक लेखन का लोहा सभी मानते हैं और आप उसमें सिद्ध भी हैं?
असल में शोधपरक लेखन ने ही सर्जनात्मक साहित्य लेखन की ओर मुझे प्रवृत्त किया. आउशवित्ज़ ने रचनाकारों के साथ ही शोधप्रज्ञों एवं विचारकों को बैचैन किया है. उपन्यास-लेखन के क्रम में मैंने भी पर्याप्त शोध किया है जिसमें फील्ड वर्क भी शामिल है. यह विश्लेषण से संश्लेषण की यात्रा है. आलोचनात्मक निबन्धों में विश्लेषण की दरकार होती है, जबकि रचना में संश्लिष्ट अनुभव रूपायित होता है. शोध के क्रम में ऐसा प्रतीत हुआ कि मुद्दे को गहराई से समझने के लिए केवल ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय कल्पना काफी नहीं है. इसके लिए साहित्यिक कल्पना की भी ज़रुरत है. इसी का परिणाम यह उपन्यास है. बात चूँकि संक्षेप में कही नहीं जा सकती, इसलिए उपन्यास के व्यापक फलक पर समस्या को रचा-बुना गया है.
बावजूद इसके कथाकार काशीनाथ सिंह की एक पुस्तक का शीर्षक याद रखा जाना चाहिए-‘आलोचना भी एक रचना है.’
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बौद्धिकों की दुनिया में एक स्त्री की बौद्धिकता और संवेदनशीलता किसी घटना या इतिहास की सापेक्षता में अलग हो जाती है ? सवाल अंतर्दृष्टि का है?
बेशक सवाल अंतर्दृष्टि का ही है. पर मामला बोध का भी है. इसमें इतिहास-बोध से लेकर सौन्दर्य-बोध तक शामिल है. यहाँ जब सौंदर्य-बोध की बात की जा रही है तो याद रखना होगा कि ‘कुरूपता का सौंदर्यशास्त्र’(एस्थेटिक्स ऑफ़ अग्लिनेस) भी होता है. स्त्रीवादी विचारकों ने पुरुष और स्त्री को दो भिन्न जैविक इकाई के साथ ही दो भिन्न संस्कृति माना है. और, यदि जयशंकर प्रसाद को याद करें तो ‘संस्कृति सौन्दर्य-बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है.’ एक ऐतिहासिक घटना किसी पुरुष लेखक को जैसी प्रतीत होगी, ज़रूरी नहीं कि वैसी ही स्त्री-लेखक को भी लगे. इसलिए कुछ बुनियादी समानताओं के बावजूद स्त्री-लेखक के भाव, विचार, सौंदर्यबोध आदि का पुरुष लेखक से भिन्न होना स्वाभाभिक है. परिणामत: रचना-दृष्टि और अंततः रचना का स्वर अलग होना लाजिमी है.
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इस उपन्यास में एक ‘सफरिंग’ है, जाहिर है इसमें आत्मानुभूति की एक लम्बी यात्रा भी है. जिसे आपने डायरी की जगह उपन्यास का रूप देना चाहा और सफल भी हैं, इस उपन्यास की लेखन प्रक्रिया पर कुछ बताएं.
एक शब्दकर्मी और ख़ास तौर से ‘अमर देसवा’ के रचनाकार के रूप में यह तो आप भी महसूस करते होंगे कि रचना करना रचनाकार का काम है और रचना-प्रक्रिया का उद्घाटन करना आलोचना का दायित्व.
डायरी निजी होती है और उससे भिन्न उपन्यास एक साहित्यिक संरचना के साथ एक सामाजिक संरचना के रूप में विचारकों के बीच मान्य है. इस उपन्यास का फलक वैश्विक है जो अनेक पात्रों और जीवनस्थितियों के चित्रण की मांग करता है. इसे उपन्यास के रूपबंध में ही रचना संभव था.
‘सफरिंग’ की जो बात आपने की है वह तो आदि कवि वाल्मीकि से लेकर हमारे ज़माने के लेखकों का बीज भाव रहा है. वाल्मीकि रामायण के बारे में आनंदवर्धन ने कहा था कि इसमें कवि का शोक ही श्लोक बन गया है.जिस मनुष्य को दुःख, त्रासदी आदि की पहचान नहीं है वह साहित्य-सृजन तो छोड़िये, उसकी कायदे से आलोचना भी नहीं नहीं लिख सकता.
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आपके यात्रा वृत्तांत “देह ही देश” ने हिंदी पाठकों का खूब आकर्षित किया. इस उपन्यास को आप ‘देह ही देश’ से क्या कुछ अलग मानती हैं?
जैसा कि पिछले प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा कि ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ की अंतर्वस्तु का फलक वैश्विक है जिसे केवल उपन्यास विधा में ही रचना संभव था.
कई बार एक कृति लेखक की पहचान बन जाती है. ‘देह ही देश’ के साथ कुछ ऐसा ही हुआ है. अंग्रेज़ी, कन्नड़, बांगला समेत अनेक भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद भी हुआ है और उसके पाठकों के पत्र आज भी मुझे मिलते रहते है.
दोनों कृतियों में केवल विधागत भिन्नता ही नहीं, बल्कि उनकी वैधानिक एवं भाषिक संरचना और पाठकों पर पड़ने वाले उनके प्रभाव भी अलग-अलग हैं.
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अभी क्या लिख रही हैं ?
यक्ष प्रश्न है यह. ‘रामचरितमानस’ में केवट का कहना है कि ‘नहि जानउं कछु अउर कबारू.’ बहरहाल, कुमकुम सांगरी के एक लम्बे अंग्रेज़ी आलेख ‘जेंडरड वायलेंस, नेशनल बाउन्डरीज़ एंड कल्चर’ का हिन्दी तर्जुमा करने बैठी हूँ और कुमकुम सांगरी को विस्तार से पढ़ रही हूँ.
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स्त्री-आलोचना जैसे पदबंध को क्या आप मानती हैं? उसे आप हिंदी की पारम्परिक आलोचना से किसी मुकाम पर अलग करेंगी ?
जिस प्रकार भावभूमि की कुछ बुनियादी समानताओं के बावजूद स्त्री-दृष्टि से रचित सर्जनात्मक साहित्य अपने आस्वाद एवं प्रभाव में पुरुषों द्वारा रचित साहित्य से भिन्न होता है उसी प्रकार स्त्री-आलोचना की पद्धति और प्रक्रिया में भी कुछ ऐसे कोण स्वभावतः प्रयुक्त होते हैं जो उसे परम्परागत आलोचना से अलग मुकाम पर खड़ा करते हैं.
स्त्री-आलोचना लिखने के लिए स्त्री-दृष्टि बुनियादी शर्त है और यह किसी सचेतन पुरुष रचनाकार और आलोचक में भी संभव है. इसी के साथ यह भी कि केवल स्त्री शरीर धारण करने से स्त्री-चेतना या अन्तर्दृष्टि का उदय नहीं हो जाता. इसे अर्जित करना पड़ता है.
पिछले अनेक दशकों से पश्चिम ही नहीं, बल्कि भारत में भी स्त्री-दृष्टि को जितने कोणों से देखा-परखा गया है वह समाजविज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में ज्ञान के नये क्षितिज को सामने लाता है. केवल ‘काली फॉर वीमेन’ से छपी किताबें यदि देखी जाएं तो इनकी संख्या सैकड़ों में है. बावजूद इसके हिन्दी में स्त्री-आलोचना अभी निर्माण की प्रक्रिया में है. इसे पूर्ण विकास में अभी समय लगेगा.
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आपकी दृष्टि से इतिहास-केन्द्रित उपन्यासों-लेखन के क्रम में रचनाकार के सामने सबसे बड़ी मुश्किल क्या आती है ?
इतिहास केन्द्रित उपन्यास लेखन के क्रम में लेखक के समक्ष सबसे बड़ी मुश्किल यह आती है कि उसकी कृति कहीं ऐतिहासिक घटनाओं की सूची और इतिहास में ख्यात महापुरुषों की गौरव गाथा बनकर न रह जाए.
सच तो यह है कि इतिहास से उपन्यास का नाभिनाल सम्बन्ध हुआ करता है. जिन उपन्यासों में इतिहास प्रकट रूप में नहीं झलकता उनमें भी वह समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता की दृष्टि से मौजूद अवश्य होता है. लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती इतिहास द्वारा पैदा किए प्रसंगों को कथा के शिल्प में ढालने की होती है और हर लेखक इसे अपने ख़ास अंदाज़ में अंजाम तक पहुंचाता है.
अपने उपन्यास में मैंने ऐतिहासिक इतिवृत्त के दोहराव से बचने के लिए पात्रों के बीच पत्र शैली का उपयोग किया है.पत्र चूंकि गहन अनुभव से लबरेज और निजी हैं, इसलिए उनमें ऐतिहासिक इतिवृत्त पात्रों के तरल अनुभव में पिरोये हुए हैं. ऐसा करने से कोई रचना इतिहास से होती हुई इतिहास-प्रक्रिया से बाहर निकल जाती है और कलाकृति का दर्जा प्राप्त करती है. मेरा प्रयास कितना सार्थक बन पड़ा है उसके बारे में कोई बयानबाजी अनुचित है. यह मैं आलोचकों और ख़ास तौर पर पाठकों के विवेक पर छोड़ती हूँ.
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आपके इस उपन्यास की एक प्रमुख पात्र प्रतीति सेन को बड़े जतन से रचा गया है. तात्कालिक रूप में उसके व्यक्तित्व में आपकी छवि दिखाई पड़ती है. इस बारे में आपका क्या कहना है ?
एक रचनाकार के रूप में यह तो आप भी महसूस करते होंगे कि साहित्य सृजन में निर्वैयक्तिकता का बड़ा महत्त्व है. जब हम किसी रचना में अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए पात्रों का सृजन करते हैं तो सारे पात्रों की अंतरात्मा में हम प्रवेश करते हैं और फिर उससे बाहर आ जाते हैं और इस प्रकार कथा-निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है. संभव है इस क्रम में किसी एक पात्र में हम अपने अनुभव का बड़ा भाग डाल देते हैं और पाठक को उसमें रचनाकार की छवि दिखाई देने लगती है. किन्तु, यह एक तरह की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर है.
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बिलकुल सही है, किसी पाठक को रहमाना खातून या पोलिश सैलानी सबीना में भी आपकी छवि दिखाई दे सकती है.
संभव है. किन्तु, फिर वही बात कहूँगी कि इन सारे स्त्री पात्रों के साथ ही पुरुष पात्र विराजित सेन को भी मैंने अपने ढंग से रचा है.उद्देश्य मुद्दे के संवेदनात्मक पक्ष को सामने लाना रहा है न कि अपने व्यक्तित्व का प्रक्षेपण करना. बावजूद इसके यह पाठकों के अवबोध पर निर्भर है कि वे किस पात्र में किसकी छवि ढूंढते हैं. इस मामले में हर पाठक का अवबोध या परसेप्शन एक ही जैसा हो यह ज़रूरी नहीं- ‘जाकि रही भावना जैसी.’
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बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम पर हिन्दी में महुआ माजी का उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ बहुत पहले छपा था. फिर आपको इस विषय को अपने उपन्यास में लेने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?
महुआ जी का उपन्यास बहुत अच्छा है, पर उससे अलग मैंने साम्प्रदायिकता को स्त्री के नज़रिए से देखने –दिखाने की कोशिश की है.
हसनपुर में दंगे के समय अपने पति को दंगाइयों से बचाने के लिए द्रौपदी देवी का खुद को बलिदान कर देना और उसी को बाद में विराजित सेन द्वारा स्वीकार न किया जाना आदि दिल दहला देने वाले प्रसंग हैं. वजह है मजबूरन धर्म परिवर्तन करके उसका रहमाना ख़ातून बन जाना. संभवत: महुआ जी के उपन्यास में इस कोण से विचार नहीं किया गया है.
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किन्तु, आपने विराजित सेन को एकतरफ़ा दोषी नहीं ठहराया है. जबकि वह दोषी है. कई बार लगता है कि आपने उसे भी सहानुभूतिपूर्ण निगाह से देखा-दिखाया है. उपन्यास के अंत में तो वह ‘गीत वितान’ को याद करते हुए लगभग पश्चाताप की मुद्रा में है.
कला और साहित्य की दुनिया इसी मायने में राजनीति से भिन्न ही नहीं, बल्कि विपरीत है. साहित्य-सृजन में सफ़ेद-स्याह या दो-टूकपन से भले ही तात्कालिक रूप में जीवन की जय दिखाई पड़े, पर कला की पराजय होती है.
किसी पात्र को खलनायक बना देना लेखक के लिए बहुत कठिन नहीं होता. पर उससे बात नहीं बनती. व्यक्ति में अंतस में प्रवेश कर उसकी मानसिक संरचना को समझना-समझाना और सबसे बढ़कर पाठकों को उसे अनुभव करा देना लेखन का मक़सद हुआ करता है.जब विराजित सेन हसनपुर से जान बचाकर भाग आते हैं तो वे सुखी-संतुष्ट नहीं हैं. वे लगातार आत्ममंथन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं. इस आत्ममंथन में आत्मभर्त्सना भी है. धर्मांतरण की वजह से मुसलमान बन चुकी अपनी पत्नी को वे पहले की तरह स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पाते. विराजित सेन अपने संस्कारों के अधीन हैं. वे कोई इक्कीसवीं सदी के युवा पात्र नहीं हैं. उनकी मानसिक संरचना अभिरूप वाली नहीं है. इसलिए उनसे ज्यादा उम्मीद बेमानी है. उन्हें उसी रूप में स्वीकार करना रचनात्मक तटस्थता की मांग है.
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शिल्प की दृष्टि से आपने इस उपन्यास को पारम्परिक औपन्यासिक रूप से अलगाते हुए कुछ नये प्रयोग किए हैं. बंगला कविताओं और कबीर के साथ जायसी की काव्यपंक्तियों को उपन्यास के विभिन्न अध्यायों के शीर्षक बना देने के पीछे कलात्मक युक्ति क्या है ?
सच तो यह है कि प्रत्येक सार्थक लेखन अपने पूर्ववर्ती लेखन से अंतर्वस्तु और शिल्प, दोनों ही दृष्टियों से अलग होता है. जैसे विषयवस्तु एक होने के बावजूद रचना की अंतर्वस्तु अलग हो सकती है, और होती है उसी प्रकार कुछ बुनियादी बातों को छोड़कर शिल्प में भी बदलाव स्वाभाविक है. कारण यह कि हर नया अनुभव नयी जीवन-दृष्टि को जन्म देता है जिसे पुराने शिल्प में ढाल देना असंभव है. जार्ज लुकाच ने फॉर्म को ‘फ्रीज्ड कंटेंट’ कहा है.
इस उपन्यास का एक लोकेल बंगलाभाषी क्षेत्र रहा है जहाँ गीत-संगीत के प्रति हिन्दी क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा जुड़ाव है. मैं खुद बंगाल में लगभग साथ-आठ साल रह चुकी हूँ और इसे बहुत करीब से देखा-परखा है मैंने. विश्वभारती में जे.एन.यू. की तरह अंग्रेज़ी का वर्चस्व नहीं है. आम दुकानदार से लेकर पढ़े-लिखे लोग बात-बात में ‘गुरुदेव बोले छिलेन !’ के बाद टैगोर की कोई काव्य पंक्ति उद्धृत करते पाए जाते हैं. ऐसे में यदि विराजित सेन, द्रौपदी देवी या प्रतीति सेन बार-बार बंगला कवियों को याद करें तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है. दूसरी बात यह कि उपन्यास में जिन पंक्तियों को लिया गया है उनका हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है.यह बात दूसरी है कि हिन्दी का प्रबुद्ध पाठक अनुवाद के बगैर भी केवल बंगला काव्य पंक्ति से गुजरकर उसका आशय समझ सकता है. भारतीय भाषाओं में उर्दू के बाद बंगला इस अर्थ में हिन्दी के बहुत करीब है.
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प्रवीण कुमार रुझान से इतिहास, अवधारणा और साहित्य के गंभीर शोधार्थी प्रवीण कुमार की उच्च शिक्षा हिन्दू कॉलेज और दिल्ली विश्वविद्यालय से संपन्न हुई है. पहले कहानी-संग्रह ‘ छबीला रंगबाज़ का शहर’ से चर्चित, जिसे 2017 का ‘डॉ. विजय मोहन सिंह युवा कथा-पुरस्कार’ और 2018 का ‘अमर-उजाला शब्द-सम्मान (थाप) मिला है. दूसरा कहानी संग्रह-‘ वास्को डी गामा की साइकिल’ 2020 में राजपाल से प्रकाशित हुआ है. हाल में ही में प्रकाशित उपन्यास “अमर देसवा” चर्चा में है.
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पढ़ गया यह लेख…उपन्यास तक पहुँचने की एक राह यह लेख है… शीर्षक (आउशवित्ज़ में प्रेम) चौंकाने के लिए काफ़ी है…
आउशवित्ज़ उपन्यास मैंने भी कुछ दिनों पहले ही पढा है और उसके प्रभाव में हूँ। प्रवीण जी ने सार्थक लिखा है और कई कोणों से पड़ताल की है। संवाद भी महत्वपूर्ण है जहाँ गरिमा जी ने स्त्री आलोचना, स्त्री लेखन और उपन्यास लेखन की प्रक्रिया पर कुछ ज़रूरी और बेबाक बातें कहीं हैं।
प्रवीण जी के संक्षिप्त पर धारदार आलेख से गुजरते हुए फिर से यह बात पुष्ट होती है कि एक रचनाकार ज़ब किसी रचना पर कलम चलाता है तो कुछ ऐसे बिंदु उभरकर सामने आते हैं जो ‘विशुद्ध’ आलोचक के वश की बात नहीं.
प्रवीण कुमार जी द्वारा लिया गया प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव का उपन्यास केंद्रित साक्षात्कार उपन्यास को समझने में बहुत सहायक है.
उपन्यासकार और समीक्षक, दोनों को साधुवाद.
उपन्यास की समीक्षा वाकई उपन्यास में एक उत्सुकता पैदा कर जाती है । उपन्यास की विषय – वस्तु चुनौती से भरी और जटिल है। चुनौती और जटिलता का सघन ताना – बाना ही उपन्यास को श्रेष्ठ बना जाता है। राष्ट्रवाद और स्त्री- विमर्श के अंतर्संबंध और खींचतान को लेकर एक वैचारिक मुहाने पर पहुँचना बहुत ही दुःसाध्य कार्य है। यह एक अस्पृष्ट कोना था जिसे शायद उपन्यासकार ने रोशन किया है। मुझे लगता है यह उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए ।
उपन्यास की समीक्षा वाकई उपन्यास में एक उत्सुकता पैदा कर जाती है । उपन्यास की विषय – वस्तु चुनौती से भरी और जटिल है। चुनौती और जटिलता का सघन ताना – बाना ही उपन्यास को श्रेष्ठ बना जाता है। राष्ट्रवाद और स्त्री- विमर्श के अंतर्संबंध और खींचतान को लेकर एक वैचारिक मुहाने पर पहुँचना बहुत ही दुःसाध्य कार्य है। यह एक अस्पृष्ट कोना था जिसे शायद उपन्यासकार ने रोशन किया है। मुझे लगता है यह उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए ।
अच्छा लिखा है प्रवीण कुमार ने। गरिमा जी का पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। समीक्षा और साक्षात्कार की ऐसी संयुक्त प्रस्तुति वागर्थ में नियमित होती है, जिसे शंभुनाथ जी समीक्षा संवाद कहते हैं। आलोचक के साथ लेखक का पक्ष समझने में यह प्रारूप सहायक है। लेकिन लिखित बातचीत के कारण साक्षात्कार में स्वतःस्फूर्त प्रतिप्रश्न का अभाव भी दिखाई पड़ता है। एक अच्छी प्रस्तुति के लिए प्रवीण कुमार और गरिमा श्रीवास्तव को बधाई। समालोचन का आभार।
गरिमा जी का यह उपन्यास मैंने भी पढ़ा है और कह सकता हूँ कि यह अतीत,वर्तमान और शाश्वत के रास्तों का तिराहा है।कई बार बेचैन,संत्रस्त करता ,अँधेरों से घेरता।लेकिन मानव प्रेम और करुणा क्षितिज को आलोकित करती है।कविताओं के खंड अनुभवों को वृहत्तर और सघन करते हैं।एक गहरे रोमान और लालसा से संतृप्त यह गाथा अप्रमेय है—
जानि तोमार अजाना नाहि गो,कि आछे मने
आमि गोपन करिते चाहि गो धरा पड़े
दूनयने.
आप सभी विद्वतजनों का बहुत आभार
प्रवीण सर को एक अध्यापक और कथाकार के रूप में ही जानता था. लेकिन इसको पढ़ने के बाद यह कह सकता हूँ कि आप एक अच्छे समीक्षक भी हैं. गरिमा श्रीवास्तव का यह उपन्यास कई मायनों में महत्वपूर्ण है जिसकी तरह आपने बखूबी इशारा किया है. वास्तव में युद्ध को केवल प्रेम से ही जीता जा सकता है.
साक्षात्कार बहुत सटीक है. लेखक और समीक्षक को बधाई.
एक अच्छी पुस्तक की अच्छी समीक्षा प्रवीण सर द्वारा। आप एक अच्छे अध्यापक ही नहीं गंभीर रचनाकार भी हैं, इसका अनुमान इस समीक्षा से बखूबी लगाया जा सकता है। प्रश्नोत्तरी बेहद मानीखेज़ है। शीर्षक और उपशीर्षक को लेकर जिनके मन में भी द्विविधा रही होंगी, इसे पढ़ने के बाद उन्हें निश्चय ही उत्तर मिल गया होगा। पढ़ने में और भी आनंद आता यदि कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति एवं टाइपिंग संबंधी त्रुटियां न होतीं तो। बेशक यह कार्य एवं दायित्व संपादक महोदय का ही होना चाहिए। बाक़ी बहुत ही महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित समीक्षा । लेखक और समीक्षक , आप दोनो को बहुत बहुत धन्यवाद एवं बधाई।
आउश्वित्ज़ में प्रेमकथा ढूंढ लेना ही गरिमा श्रीवास्तव की सर्जनात्मक मौलिकता है और संभवतः लेखकीय धर्म भी।सृष्टि में अमीबा की तरह ही लेखक विध्वंश की राख से जीवन के अंगार कण चुन लेता है।यहां इस लेखकीय पक्ष को प्रवीण कुमार ने भी अपनी रचनात्मक प्रतिभा की विशेषता के साथ बखूबी उभारा है।यह उपन्यास वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आलोच्य होना ही चाहिए ,प्रवीण कुमार ने इसकी ऐसी तमाम विशेषताओं को बखूबी उभारा है।
राष्ट्रवाद हो या कोई भी युद्ध वह स्त्रियों की आजीवन शहादत लेता है ,यह उपन्यास इस तथ्य को भी सक्षमता पूर्वक प्रस्तुत करता है ,मेरी समझ से आलोच्य दृष्टि में उपन्यास का यह पक्ष भी उभारा जाना चाहिए।