तितलियों की तलाश में
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दरवाज़ा अंदर से बंद करने पर ही सारिका की जान में जान आई. घर में घुप्प अँधेरा था. अँधेरे और मौन का मिला-जुला डरावना स्वरूप. शाम को गई थी तो सब बत्तियाँ बुझा गई थी. तब खिड़की से डूबते सूरज का चटक-लाल प्रकाश कमरे को दीप्त कर रहा था.
अनुभव उसका हाथ छुड़ाकर अंदर भागा. बाहर लॉबी के हल्के प्रकाश में कुछ क्षणों के लिए वह दिखा था, फिर जैसे ही अँधेरे में गायब हुआ उसे लगा वह कहीं गुम हो गया है.
उसने तुरंत स्विचबोर्ड के सभी बटन दबा दिए. घर सफेद और पीली रोशनी से जगमगा गया.
“स्लो मन्चकिन” सारिका ने हाथ बढ़ाते हुए कहा. “अदरवाइज़ यू विल फॉल!”
“आईं हैव टू कंप्लीट माय वर्क. वेन विल पॉपी कम?” उसने बैग से किताबें निकालकर काँच की मेज़ पर फैला दीं.
“मम्मा विल हेल्प यू!” वह सोफे पर बैठकर गणित की किताब पलटने लगी थी.
“डोंट टच! ऑनली पॉपी!” अनुभव ने उसके हाथों से किताब छीन ली.
वह आहत हुई. जब पाँच साल की बायोटेक स्कॉलरशिप पर पी.एचडी. करने के लिए इंग्लैंड गई थी, जब अनुभव केवल डेढ़ साल का था. उसका मंचकिन. वह सारा दिन उसके चारों ओर घूमता. रिमोट कंट्रोल गाड़ी, लेज़र गन, रुई के बंदर से खेलता. गिर जाता तो अपने पोपले मुँह से मम्मा-मम्मा चिल्लाता. तब सुधीर काम में बिज़ी था, उसने नया स्टार्टअप शुरू किया था, और वह तीन साल के मेटरनिटी ब्रेक पर थी-आनंद उठाती हुई अनुभव के अविभाजित प्रेम का.
वह किचन में अनुभव की पसंद के बेसन के गट्टे और भरवा भिंडी बनाने लगी. पर लॉन में हुआ वाकया उसके दिमाग में फिर-फिर चक्कर काटता. कैसे चॉकलेट देखते ही अनायास अनुभव का हाथ अपने निक्कर के बटन की ओर चला गया था…क्या जो वह सोच रही है उसमें ज़रा-भी कोई सच है? या अंग्रेज़ी क्राइम थ्रिलर और डिटेक्टिव फिल्में देखते-देखते उसका दिमाग ही कोई गल्प गढ़ रहा है?
नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है?
नहीं! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!
नहीं! नहीं! नहीं! हो ही नहीं सकता ऐसे!
पर क्यों?- दिमाग की एक दलील और मन बेचारा फिर शिकस्त.
उसने फ्रिज़ से चॉकलेट निकाली. “सी चॉकलेट! कम हेयर!”
अनुभव ने उसके हाथ में फाइव स्टार देखी, फिर कुछ सोचकर उसने फिर अपनी निक्कर उतारना शुरू कर दिया.
“व्हाट हैप्पेन्ड?” सारिका ने भागकर उसे फिर गले लगा लिया.
“चॉकलेट!” मासूमियत से अनुभव ने चॉकलेट की तरफ अपना हाथ बढ़ाया.
उसका मन हुआ सब तोड़-फोड़-मरोड़ दे पर अनुभव डर जायेगा इसलिए अपने आपको रोक लिया.
“व्हू आस्केड यू दिस?” वो पूछने को हुई फिर सच की निष्ठुरता से घबराई वह उसके बालों में हाथ फिराकर किचन में वापिस चली गई.
मिक्सी में टमाटर पीसने के लिए डाले, पर बिना ढक्कन पर हाथ रखे, मिक्सी चला दी. सारी प्यूरी उछलकर उसके चेहरे पर छलक आई. स्लैब से लेकर दीवार पर लगी सफेद टाइल्स गुद्दे से चटक लाल हो गईं. घबराकर उसने स्विच बंद कर दिया. अपने हाथ से माथे, चेहरे, बाल पोंछने लगी. तभी कुकर की सीटी बेतहाशा बजी. साथ ही फोन की घंटी भी.
वह ज़मीन पर निढाल पड़ गई. अपने घुटनों के बीच अपना सना चेहरे रखकर रोने लगी.
अपनी पुरानी बात याद आई- मैं सब कुछ अच्छा बनकर दिखाऊँगी…सब कुछ मतलब सब कुछ.
2. |
पैंट से बाहर निकली कमीज़, जूतों के कोनों पर जमी धूल, पसीने से तर जब सुधीर पौने ग्यारह बजे घर आया, तब तक सोफे पर लेटी सारिका सो चुकी थी. उसके चेहरे पर कहीं-कहीं टमाटर के निशान अभी भी थे. सामने टी.वी. पर झगड़ते पति-पत्नी का शोर था. कंधे पर टाँगे लैपटॉप बैग को मेज़ पर रखकर वह अनुभव के कमरे में चला गया.
“भवू, व्हेयर आर यू?” कमरे के नज़दीक जाकर धीमे-से उसने पुकारा.
बिस्तर पर ताश के पत्तों की तरह बिखरे कॉपी-किताबों के अलावा कमरे में कोई नहीं था. उसने हड़बड़ाकर पहले बाथरूम, फिर सारी की सारी अलमारियाँ खोल दीं. फिर अपना कमरा, स्टोररूम, रसोई, हर जगह ‘भवू भवू’ चिल्लाता हुआ वह अनुभव को ढूँढता रहा पर वह उसे कहीं नहीं मिला.
उसने सारिका को झिंझोड़ कर उठाया. “अब घर पर हो तब भी भवू को नहीं सँभाल पातीं?”
वह झटके से उठी, “क्या हुआ…चिल्ला क्यों रहे हो?”
“भवू कहाँ है?”
“अपने कमरे में होगा न. तुमने देखा?” सारिका ने बेतकल्लुफ़ी से कहा.
“जैसे मैं बिना वहाँ देखे ही चिल्लाने लगूँगा…” उसने डायनिंग टेबल की एक कुर्सी को कसकर भींच लिया.
“बाथरूम में होगा.” सारिका अपना जूड़ा बाँधकर अनुभव के कमरे की ओर बढ़ी.
कमरे के सारे दरवाज़े खुले हुए थे. वह मंचकिन कहती, अनुभव की आवाज़ न आने पर दरवाज़ा एक-एक कर बंद करती जाती.
“कहाँ गया…यहीं तो था…पता नहीं कब आँख लग गई…”
“तुम्हें अपने आप से फुर्सत मिले तब तो…”
“बालकनी चेक की तुमने?” वह कुर्सी से उठकर तुरन्त बालकनी की ओर भागी.
दोनों बालकनी में गए तो देखा लैंप के नीचे ज़मीन पर घुटने टिकाए बैठा अनुभव अपनी ड्रॉइंग नॉटबुक में पेंसिल से कुछ बना रहा था. शायद पेंसिल की नोक कच्ची थी इसलिए बार-बार टूट जाती. उसके चेहरे पर चिड़चिड़ाहट के निशान उभरते, फिर वह पास में रखे नीले शार्पनर से पेंसिल गढ़ता और जब सलेटी नोक पैनी होती दिखाई देती, फिर खुश हो जाता. एक बार फिर वह ड्रॉइंग नॉटबुक की ओर देखने लगता और पेंसिल के बारे में भूल जाता. तब तक तीखी हुई नोक फिर टूट जाती. चिड़चिड़ेपन का फिर एक दौर-अनुभव को यूँ देखकर सारिका की रुलाई फूटने को हुई पर उसने कसकर अपनी मुट्ठियाँ भींचकर सारी रुलाई को ज़ज़्ब कर लिया.
सारिका ने पुकारा-मंचकिन-पर अनुभव का ध्यान उड़ती तितली पर ही लगा रहा.
सुधीर ने पुकारा-भूवी बेबी, माय बेबी-और उसने तुरंत मुड़कर देखा.
“पॉपी, सी व्हाट हैव आई ड्रॉन?” बोलते हुए वह सुधीर के पास आ गया. सुधीर ने ड्रॉइंग नोटबुक को इस तरह पकड़ा कि चित्र सारिका को ना दिखाई दे. उसने अनुभव के सिर पर हाथ रखकर कहा, “वेरी गुड!”
दर्प-भरी मुस्कान से सुधीर ने फिर सारिका को देखा. नोटबुक वहीं छोड़कर वह अनुभव को हाथ पकड़ अंदर ले गया. सारिका ने हड़बड़ाकर वह नोटबुक उठाई और चित्र को देखते ही अंदर दबी हुई रुलाई हिंस्र वेग से फूट पड़ी. वहाँ एक फूल बना हुआ था-जैसे बच्चों के अनगढ़ हाथ बना देते हैं-लेकिन उसने पाँच पंखुड़ियों की बजाए केवल चार ही थीं. बिना रंग की, टेढ़ी-मेढ़ी, चार पंखुड़ियाँ. और गोले के सीधी तरफ बची एक पंखुडी की खाली जगह.
वह खाली जगह जो उसकी बेचारगी की खिल्ली उड़ा रही थी. उसने चर्र-से ड्रॉइंग नोटबुक का पन्ना फाड़ दिया. तब तक फाड़ती रही जब तक उसके इतने छोटे टुकड़े नहीं हो गए कि उन्हें और न फाड़ा जा सके. पसीने से तर हुई अपनी हथेलियों से रिहा कर उन टुकड़ों को हवा में उड़ाते हुए उसकी तिड़कती नसों को कुछ राहत महसूस हुई. वह सोचने लगी कि टुकड़े हवा के साथ उड़ते हुए कहीं दूर चले जाएंगे, या नीचे पार्क की घास में पड़े हुए रात की ठंड और ओस से गल जाएंगे.
लेकिन न जाने कहाँ से हवा का एक वहशी झोंका आया और सारे टुकड़े उसके चेहरे पर एक तमाचे की तरह आकर ढह गए.
3. |
जब तक वह अंदर पहुँच पाई थी, सुधीर और अनुभव सोफे पर आमने-सामने बैठे मंद-मंद मुसकुरा रहे थे. टी.वी. पर डोरेमॉन ने अपने जादुई पिटारे से बाईसवीं सदी का कोई गैजेट निकाला था जिसे देखकर अनुभव तालियाँ बजा रहा था. सारिका कुछ कहने को हुई थी पर फिर उसे अवांछित-सा महसूस हुआ था और वह कुछ बोली नहीं पाई थी. उन दोनों के बीच घनिष्ठता थी, एक परिवार होने का सामीप्य, जिसे देखकर वह खुश हुई थी, पर उस घेरे का हिस्सा खुद न होना उसे खूब अखर भी गया था.
सुधीर छोटी मेज़ पर रखे डोंगों से निकालकर सब्ज़ी अपनी और अनुभव की प्लेट में डालता जा रहा था.
सारिका ने तीसरी प्लेट उसकी ओर बढ़ाई तो उसने जीभ काटी. “आए एम सो सॉरी. वो हैबिट…”
सुधीर ने पहला निवाला लिया, गट्टे की सब्ज़ी में डुबाया, और अनुभव की ओर बढ़ा दिया.
सारिका को लगा कि काँच की भारी प्लेट पकड़ने में अनुभव को मुश्किल हो रही है. “स्टील की प्लेट ला दूँ?” वह बोलने को हुई थी जब अनुभव ने उसकी बात बीच में काटी.
“व्हाट इज़ दिस?”
“बेसन के गट्टे” सारिका पीछे-से अकस्मात बोली. “यू विल लाइक इट.”
“फनी नेम” अनुभव ने पहला गस्सा खाते हुए कहा था. “बट दिस इज़ यम्मी. बैटर दैन ज़ोमैटो.”
अनुभव ने डोरेमोन देखते हुए बड़े मनोयोग से फुल्का खत्म किया. जब दूसरा माँगा, वह अनायास ही मुस्कुराने लगी थी.
“अरे…यू नेवर ईट मोर दैन वन.”
“फिर क्या हुआ…टेक दिस.” सारिका जैसे रोटी देने के बहाने से उस पारिवारिक घेरे में घुस गई.
“हमेशा अपनी मर्ज़ी क्यों चलाने की कोशिश करती हो?” सुधीर ने रूखे स्वर में कहा जैसे जता देना चाहता हो कि उससे ज़्यादा वह अनुभव के बारे में नहीं जानती. “फिर उसका पेट खराब हो गया तो?”
परिवार-नामक लक्ष्मण रेखा से जैसे वह दूर खदेड़ दी गई थी.
4. |
सारिका और सुधीर एक-दूसरे की तरफ़ पीठ किए हुए लेटे थे. सारिका पलटी थी और उसने सुधीर के गर्दन के पीछे के मस्से को छुआ था. प्रेम के उत्तप्त क्षणों में कैसे वो उसकी खुरदुरी सतह पर हाथ फिराती थी और सुधीर आनंद की कैसी आहों से भर जाता था. लेकिन अब उस मस्से के ऊपर सफेद बाल उग आए थे.
“तुमसे कुछ बात करनी है.” सारिका ने हौले-से कहा.
“जल्दी बताओ कल ऑफिस में मीटिंग है.” सुधीर वैसे ही लेटा रहा.
“वो भवू…”
“क्या हुआ भवू को?” सुधीर ने मुड़कर उसे घूरा.
“कुछ नहीं…तुम उसका होमवर्क कराना भूल गए.”
“अब इतनी लेट आकर होमवर्क भी मैं करवाऊँ?”
“मुझे उसने कहा कि पॉपी से ही करूँगा.”
“इतने सालों में अब उसे मेरी आदत पड़ गई है.” विजयी भाव से सुधीर बोला.
“अच्छा…” प्रतिकार करने का सारिका का मन नहीं हुआ. सुधीर ने लैंप बुझा दिया और चादर अपनी आँखों तक खींचता हुआ सोने की कोशिश करने लगा. तकिया का सहारा अधलेटी सारिका उसे वैसे ही एकटक देखती रही.
“सो जाओ.” सुधीर ने आँखों पर दोनों बाज़ू रख लीं.
“यार…ओवररीएक्ट मत करना…आज जब गीता ने भवू को चॉकलेट दी…” वह अटकते हुए बोलती जा रही थी. “भवू अपनी निक्कर खोलने लगा.”
“तो…उसे वॉशरूम जाना होगा.”
“पर ऐसा दो बार कैसे हो सकता है? मैंने घर आकर फिर फाइव स्टार दी थी…उसने अपना अंडरवियर भी उतार लिया था.”
“क्राइम पेट्रोल देखते-देखते तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.”
“जरूर किसी ने चॉकलेट के बहाने से…” सारिका की सिसकी निकल गई.
“पॉसिबल ही नहीं…मेरे बच्चे के साथ…नॉट एट ऑल.”
“पिछले हफ्ते पेरेंट्स टीचर मीट में मैडम शिकायत भी कर रही थीं कि भवू क्लास में बिल्कुल अटेंटिव नहीं रहता. कुछ भी पूछो तो अजीब-सा ब्लैंक लुक.”
“पर ये तो अदरवाइज़ भी हो सकता है.”
“मैंने भी यही सोचा था…पर अब डॉट्स कनेक्ट करो तो…”
“नहीं…नहीं हुआ है…ये सब तुम्हारे दिमाग का फितूर है.”
“पैनिक मत करो. सब ठीक हो जाएगा.”
“बिल्कुल चुप हो जाओ. एकदम चुप.” सुधीर की आवाज़ अचानक तुर्श हो गई. उसने दाँत पीस लिए. गर्दन की धमनियों में खून थक-थक बहने लगा. साइड टेबल पर रखे काँच के गिलास को वह सामने की दीवार पर – जहाँ उन तीनों की आदमक़द तस्वीर लगी हुई थी – मारने को हुआ था जब सारिका ने उसका हाथ कसकर भींच लिया था.
“पागल हो गए हो क्या? सुबह भवू से पूछने की कोशिश करते हैं.”
“नहीं…नहीं…उससे कुछ नहीं पूछना. इस बात को बिल्कुल भूल जाओ.” सुधीर ने थोड़ी देर रुककर फिर कहा, “मैं एक अच्छा पापा हूँ.”
“हाँ हाँ” न जाने क्यों सारिका को अपनी ही सांत्वना खोखली जान पड़ी.
5. |
तलवों पर होती गुदगुदी से सुधीर की नींद टूटी l पहले एक दो-बार तो उसने पैर हटाए, लेकिन जब गुदगुदी नहीं रुकी, तब उबासी लेते हुए उसने आँखें खोलीं, और चिड़चिड़ाकर कहा, “लेट मी स्लीप.”
उसे सारिका और अनुभव के धुँधले अक्स दिखाई दिए. दोनों ठठाकर हँस रहे थे.
“मम्मा डिड इट!”
“लायर! यू डिड इट!” सारिका ने अनुभव के गाल खींचते हुए बड़े लाड़ से कहा.
“पॉपी ड्रॉप मी टू स्कूल!” सारिका ने अनुभव की आवाज़ में कहा. फिर उसके खाने का डब्बा बस्ते में डालते हुए बोली, “आई एम गेटिंग लेट!”
“नहीं…आज स्कूल नहीं जाना.” सुधीर ने अधिकार से कहा. “टुडे इज़ अ हॉलीडे.”
“यिप्पी! हॉलिडे!” अनुभव टाई का नॉट ढीला करता कमरे से बाहर दौड़ गया.
“स्कूल न भेजना कोई सॉल्यूशन थोड़ी है?”
“क्यों नहीं?” सुधीर ने चादर तह करते हुए कहा, “क्या पता स्कूल में ही कोई…”
“इम्पोसिबल”
“इतने यकीन से तुम कैसे कह सकती हो…और फिर किसी और के सामने उसने ऐसा किया…गीता ने सबको बता दिया तो…बाकी बच्चे मज़ाक बनाने लगे…नहीं स्कूल तो ये नहीं जाएगा…” सुधीर ने अंतिम निर्णय के अंदाज़ में कहा.
“तब फ़ुज़ूल का बीमारी का बहाना बनाना पड़ेगा.” सारिका ने स्कूल बैग उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “क्या पता घर में ही…”
“तुम पूनम पर शक कर रही हो…तुम्हारा दिमाग ठीक है? वो भवू को अपने बच्चों से भी ज्यादा प्यार करती है.”
“और तुम्हें?”
“क्या…मैं समझा नहीं. अच्छा मैं इसे स्कूल छोड़ आऊँ.”
पूनम का नाम यूँ ही अनायास निकल पड़ने से वह सकपका गई थी. यही शुक्र मना रही थी कि जिस समय उसने सुधीर पर वह आरोप मढ़ा था तब कुकर की सीटी ज़ोर से बजी थी जिससे उसकी आवाज़ दब गई थी. अटपटा ज़रूर लगा था कैसे अचानक पूनम का नाम सुनते ही वह अनुभव को स्कूल छोड़ने जाने के लिए तैयार हो गया था. जैसे इस बात को बिल्कुल न खींचना चाहता हो. और उसकी आँखों में तैर आया पूनम के लिए विश्वास…कैसे तुरंत उसने उसकी बात काटी थी? तब क्या सचमुच गीता सच बोल रही थी?
6. |
पी.एचडी का वाइवा देकर जब अपनी यूनिवर्सिटी से हॉर्सफोर्थ-स्थित अपने दो कमरों के अपार्टमेंट में लौट रही थी, तब उसने संतुष्टि महसूस की थी. एक अजीब-सी संतुष्टि कि दुनिया उसकी मुट्ठी में कैद एक गेंद है. फॉल का सीज़न था, हवा में हल्की ठंडक घुली हुई थी, ओक के घनछत पेड़ हरे से पीले से लाल होते हुए, उनके तिकोने, लंबे पत्ते ज़मीन पर ढेर में इकट्ठे होते हुए, पीली साइकिलों पर सवार प्रेमी, भारी बर्फबारी की बेबसी से पहले का खुशगवार मौसम. उसने अपने हाथ फैलाए थे और सड़क पर गोल-गोल तब तक घूमती रही थी जब तक चक्कर नहीं आ गए थे. उस एक क्षण के लिए उसके पास सब कुछ था-विदेशी यूनिवर्सिटी, दो दवाइयों के पेटेंट, बैंक बैलेंस, प्यार करने वाला पति और बच्चा. जैसे उसके जीवन के डीएनए की अंकोइलिंग खुद-ब-खुद होती चली गई थी और सब कुछ सीधा-सपाट था. बिना किसी कॉम्प्लिकेशन के.
दो दिन बाद भारत वापिस लौटने की उसकी फ्लाइट थी. उसने मार्टिन को घर बुलाया था. वह अपना खाखी रंग का ओवरकोट और भूरे ढीले ट्राउजर्स पहन कर आया था. उसकी चौड़ी नाक और मोटे गालों पर हमेशा की तरह गुलाबीपन. बाल एक छोटी चोटी में बँधे हुए. उसने अपना ओवरकोट हैंगर पर टाँगा था और तुरंत सारिका को गोद में उठा लिया था-यू डिड इट. आई एम सो हैप्पी फॉर यू.
सारिका ने उसके पसंदीदा सॉसेज तल रखे थे हुए और रेड वाइन दो कप में उडेल रखी थी. दोनों खाने लगे थे जब सारिका अचानक उदास हो गई थी. “दो दिन में फ्लाइट है. हम पहले मिले होते तो कितना अच्छा होता.”
“मन नहीं भरता तभी तो इसे प्यार कहते हैं.”
सारिका ने उस दिन ज़िद करके मार्टिन को रात में रोक लिया था.
मार्टिन ने हमेशा की तरह घर जाने की कोशिश की थी, पर सारिका ठहरी जिद्दी, पप्पी आईज़ बनाकर इमोशनल ब्लैकमेल किया, दो दिन बाद वापिस लौट जाने का हवाला दिया, तब वह मान गया. सारिका के शरीर से अपना शरीर सटाए मार्टिन ने उसे एक शिशु की तरह कसकर थाम लिया.
“चलो सो जाओ. कल से पैकिंग भी करनी है तुम्हें.” मार्टिन ने आँखें बंद करते हुए कहा.
लेकिन सारिका ने आँखें खोली रखीं. बड़ी शरारत से वह उसकी छाती पर अपनी अँगुलियाँ फिराने लगी. उसका हाथ अपनी उभरे स्तनों पर रख गोल-गोल घुमाने लगी.
“क्या कर रही हो?” मार्टिन ने अपना हाथ हटा लिया.
“एक बार…प्लीज़…” सारिका एक बच्ची की तरह मिमियायी थी.
“सेक्स से मुझे घिन्न आती है.”
“पर मेरे शरीर पर तुम्हरे प्रेम के कोई चिह्न नहीं.”
“मन पर तो हैं…”
सुबह जाते हुए मार्टिन ने उसे लकड़ी का एक चौकोर डिब्बा दिया. ऊपर के काँच से अंदर चिपकी हुई तितलियाँ उसने एक बच्चे के कौतुक से देखी. सींक से काले शरीर पर रंगों से सराबोर बड़े पंख, उन पर गोल-चौकोर-तिकोनों के सम्मिश्रण से बने पैटर्न्स-ब्लू मोनार्क, पेंटेड लेडी, रेड एडमिरल, कैबेज व्हाइट-दस तितलियाँ क्रम में लगी हुई, नीचे लगी पर्ची पर काले मार्कर से बड़े अक्षरों में लिखा उनका नाम-“वाओ” सारिका के मुँह से निकला. कुछ देर वैसे ही मुँह खोले, भौंए चढ़ाए वह खड़ी रही.
मार्टिन उसे धूप के नजदीक ले गया. ब्लू मोनार्क को जैसे ही सूरज की रोशनी के सामने रखा, उसका नील शरीर नीलम की तरह झिलमिलाया था.
“सँभाल कर रखना…मेरी बीस साल की मेहनत है.”
“पर ये तो मरी हुई हैं.” सारिका को बहुत बाद में ध्यान आया.
“ज़िंदा चीज़ों की शेल्फ लाइफ बहुत कम होती है.” फिर अपना कोट पहनकर दरवाज़े से निकलते हुए कहता गया, “तुम्हें अपने शरीर से बड़ी चीज़ देकर जा रहा हूँ.”
7. |
“भाभी टोस्ट जल रहा है.” पूनम की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. “भैया को जले हुए टोस्ट बिल्कुल पसंद नहीं.”
“मुझे मत सिखाओ भैया को क्या पसंद है और क्या नहीं. जाओ कमरा ठीक करो.” सारिका का कड़क स्वर.
“भैया के खाने की चिंता आप मत करिए…मैं नाश्ता बना दूँगी.”
“जितना काम कहा है, उतना करो.”
सारिका ने टोस्ट का पहला टुकड़ा ही मुँह में डाला था जब सुधीर की गाड़ी का हॉर्न बजा था. उसने दरवाजा खोला था, टोस्ट और मौसंबी का जूस सुधीर के लिए भी परोसकर फिर खाने बैठ गई थी.
“गीता मुझे और भवू को घूर रही थी.” गाड़ी की चाबी टाँगते हुए उसने कहा.
“मैं दोपहर में उससे बात करती हूँ.” ब्रेड पर छुरी से बटर लगाते हुए वह बोली थी. “वैसे तुम्हें किस पर डाउट लग रहा है?”
“कोई भी हो सकता है. स्कूल में. क्रेच में. क्रेच में अभी उन लोगों ने नया केयरटेकर रखा है…नदीम…मुझे उस पर पूरा शक है.”
“मैं जानती हूँ क्यों…हर चीज़ को एक ही एंगल से देखना बंद करो.” फिर थोड़ी देर बाद आँखें सिकोड़ कर बोली, “घर में भी तो हो सकता है?”
“फिर वही बात. गलती तो सबसे बड़ी तुम्हारी ही है.” सुधीर झल्ला पड़ा.
“हर बात की गलती तो मेरी ही है जबकि उसके साथ रह तो तुम रहे थे न.” सारिका अपनी कुर्सी से खड़ी हो गई और गरज कर सुधीर पर पड़ी. “इसलिए मना किया था इतनी जल्दी बच्चे के लिए. दिन भर बच्चे-बच्चे की रट लगाकर रखी थी.”
“साफ-साफ बोलो न तुम्हें भवू बोझ लगता है.”
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है…” सारिका ने मेज़ पर अपनी तश्तरी पटक दी. “पाँच बजे का थेरेपिस्ट से अपॉइंटमेंट है. उसे लेकर टाइम पर पहुँच जाना.”
“मुझसे बिना पूछे क्यों ले लिया अपॉइंटमेंट? कैंसल कर दो. मुझे लगता है हम ओवररीएक्ट कर रहे हैं. यूँ ही राई का पहाड़ बना रहे हैं.”
“तुम्हें समझ भी आ रहा है क्या बोल क्या रहे हो?”
“कितने केसेस में मैंने देखा है कि इन थेरेपिस्ट के सवालों के कारण लोग वो घटनाएँ भूल नहीं पाते.”
“ये सब बेकार की बातें हैं. ऐसा कुछ नहीं होता.”
“फिर भी मैं नहीं चाहता कि यह बात हमारे अलावा किसी को पता चले.”
पूनम जब झाड़ू मारकर निकल रही थी, तब उन दोनों की बात सुनकर वहीं खड़ी रह गई. वह सुधीर से बात पूछने लगी, जब तक सारिका बोल पड़ी.
“हम में कौन-कौन आता है? सारिका ने पूनम को वहाँ ठिठका हुआ दिखा, तो आग बबूला हो गई. “थेरेपी में जाना तो ज़रूरी है.”
जाते-जाते सारिका पूनम के काम का जायज़ा लेने के लिए अपने कमरे में जाना नहीं भूली. कमरा बिल्कुल साफ, सूरज की रोशनी से चमचमाता हुआ. फर्श पर धूल-मिट्टी नहीं, पैरों के निशान नहीं. चादर करीने से बिछी हुई. केवल पलंग पर बिछी हुई लाल पोल्का डॉट्स वाली चादर में उसे सिलवटें नज़र आईं और तंज भरी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई थी.
वह पूनम पर गुर्राई थी, “काम मन लगाकर करो नहीं तो कल से छुट्टी.”
8. |
शाम को थेरेपिस्ट डॉक्टर आहूजा के क्लिनिक की ओर जाते हुए जब सारिका ने लाल बत्ती पर गाड़ी रोकी, उसे पूनम की याद आई. समझ नहीं पाई क्यों पूनम पर सुबह इस तरह झल्ला पड़ी थी?
फिर वह मध्यवर्गीय कंडीशनिंग जो चीखचीख कर उसे दोषी करार दे रही है- नाम के आगे डॉक्टर लगने से क्या उखाड़ लिया जब बच्चा और पति दोनों ही हाथ से बाहर चले गए?
लेकिन फिर वह वही तर्क देकर अपने को शांत करने की कोशिश करने लगी जो मार्टिन के समय देकर उसने अपने आपको फुसला लिया था- ऐसे ही थोड़ी वैज्ञानिकों ने इंसान को एनिमेलिया में शुमार किया है. चाहे हम जितनी मर्ज़ी जिरह करें कि मन स्पिरिचुअल बीइंग है, मेटाफिसिकल है, ट्राँसकेंडेंटल है, फलाँ-ढिमकाँ है; शरीर तो ठहरा बेचारा जानवर, जो केवल भूख की कुलबुलाहट समझता है, और उसे मिटाकर चैन की झपकी लेने के तरीके. वो कैसे नहीं लपकेगा सामने पड़े ताज़ा, गर्म गोश्त पर?
कितना मुश्किल रहा था लीड्स तक का उसका यह सफर- तीन सालों से हर साल कितने कॉलेजों के एप्लीकेशन फॉर्म भरती रही थी जब अंत में उसे यह ऑफर मिला था. उसने सुधीर को बताया था तो उसे पहले यह मज़ाक लगा था, फिर जब उसने दोबारा गंभीरता से दोहराया था, तब वह बिफर गया था- जब परमानेंट नौकरी है तब एक और डिग्री बढ़ा लेने से क्या फर्क पड़ता है? उसकी बात ठीक थी, वो ठहरा कॉरपोरेट का मँझा हुआ खिलाड़ी, जिनका दिमाग धीरे-धीरे नफा-नुकसान तोलने वाला तराज़ू हो जाता है. फिर उसने जोड़ा था-हाँ, बात अलग होती अगर बाहर नौकरी करने जाना होता. ये क्या कि अपने पल्ले से पैसे खर्च करके डिग्री करो, फिर भी तनख्वाह उतनी-की-उतनी. तब तो यह निरी बेवकूफी है, प्योर सेंटिमेंटेलिटी.
सास-ससुर, माँ-बाप ने बच्चे का हवाला दिया था. बच्चा-सब-कुछ-होता-है का महामंत्र उन्होंने बार-बार, हर शाम दोहराया था. लेकिन औरतों को घर की चौहद्दी में कैद करने में आदिम समय से सौ प्रतिशत कारगर वह महामंत्र उस पर नहीं चला था और उसने कह दिया-अगर सुधीर को बाहर जाना होता तो? इस तर्क का भला कोई क्या जवाब देता, तब सबने यही कह कर पिंड छुड़ाया-तुम जानो, तुम्हारा पति जाने.
अनायास ही वह सुपरमार्केट में मार्टिन से टकरा गई थी. वे सर्दी के दिन थे, बर्फबारी के मनहूस दिन, दिन-रात धड़-धड़-धड़ ओले गिरने के दिन, जब आकाश मटमैले रंग का हो चला था, और सूरज कोहरे की मोटी परत को भेदने को कोशिश करता-करता हर रोज़ परास्त हो रहा था. लैब की भी छुट्टी हो गई थी, और वह गहरे अवसाद में डूबती जा रही थी. सुबह चार बजे नींद खुल जाती पर न दोबारा नींद आती और न ही बिस्तर से खड़े होने का मन करता- वह बिस्तर पर लोटती रहती, करवटें बदलती रहती, कभी कोई किताब खोलती, कभी कोई गाना सुनती- और ऐसे ही बिना खाए-पिए घंटों पड़ी रहती.
तब मार्टिन लाल लपटदार सूरज-सा उसके जीवन में आया था. पेट शॉप का मालिक, तीस साल का मार्टिन, काम से जल्दी आकर उसे अपनी गोद में बिठा लेता, उसके ठंडे हाथों को अपने हाथों में लेकर रगड़ता, और तितलियों के जीवन का कोई रहस्यात्मक तथ्य उसे सुनाता-ये पत्तों पर इसलिए बैठी रहती हैं ताकि अपना खून गर्म करके उड़ सकें. तितलियाँ अपने पैरों से सूँघती है, फिर उन्हीं पत्तों पर अंडे देती हैं जिन्हें प्यूपा खा सके. यह सुनते ही अनायास उसे अनुभव और सुधीर की याद आ जाती. मार्टिन का अँगुलियाँ जो उसकी कलाइयों पर बटर की टिकिया से फिसल जाया करतीं, अचानक चीड़ की लकड़ी जैसी खुरदुरी हो जातीं. विरक्ति और वितृष्णा का मिला-जुला भाव उसमें पैंठ जाता. न जाने कहाँ से सुर्ख़ लाल, बड़ी-बड़ी आँखें, जिनकी भूरी पुतलियाँ फैली हुई होतीं, उसके दिमाग में टँक जाती. मन में क्यों-क्या-कैसे-किसलिए के अनवरत सवाल गूँजने लगते और वह मार्टिन से छिटक कर अलग हो जाती.
उसकी कल्पना में जो घर बसा रहता, जिसमें केवल वे तीनों थे, जो उदास दिनों में उसे जीवन के प्रति लालायित रखता, जिसकी याद हर कठिन समय में उसका ढाँढस बँधाती, वह घर अचानक भरभराकर टूट जाता. क्या वह यह घर नहीं चाहती? भला क्यों नहीं चाहेगी एक घर की सुरक्षा और स्थायित्व! लेकिन केवल तब ही न जब मन विकल हो, संशय से पटा पड़ा, नियाग्रा फॉल्स-सा हहराता हुआ! लेकिन जब मन तालाब-सा शांत होता, तब इस घर की कल्पना उसे कोनों में जमती जाती चटक हरी काई के लिजलिजेपन से भर देता. मार्टिन में वह घर नहीं ढूँढ़ पाती, न ढूँढना चाहती, उसे तो एक खूँटे की तरह चाहती, जिस पर कुछ देर तक वह टँगी रह सके. शरीर से ज्यादा वह इस आज़ादी को भोगना चाहती, पूरी तरह से, अल्हड़पन से, एक टीनेजर की तरह! पर घर? उसकी सुरक्षा, स्थायित्व और उससे बढ़कर सुधीर का प्रेम?
और विश्वास की चौहद्दी? वो तो शायद वह कभी बना ही नहीं पाई थी. कितनी कोशिश करती लेकिन हमेशा एक कोना छूट ही जाता जहाँ से समाज की सारी नसीहतें, सारे उलाहने कानों में बजते रहते. पति ऐसे, पति वैसे-धोखेबाज़, जालसाज़, लंपट. फिर हर रोज़ कितने-कितने बेवफाई के कितने वाकये-दोस्तों के, ऑफिस में, अख़बारों में. इन सब बातों को सुनकर हैरान होती लेकिन सुधीर के सोते हुए शिशुवत कोमल चेहरे को याद कर आश्वस्ति की गहरी साँस अपने फेंफड़ों में भर लेती.
मन होता सबको जता दे कि सुधीर वैसा नहीं है, फिर दिमाग तर्क से पटखनी देता- क्या सच में? अचानक लेडीज़ परफ्यूम से महकता कोई रुमाल तुम्हारे हाथ लग जाएगा और तुम्हारा सारा का सारा विश्वास धाराशाई हो जाएगा. ये अजीब-सा डर हर वक्त उसके अंदर कुलाँचे भरता जब भी सुधीर विदेश यात्रा के लिए जा रहा होता. पर ऑफिस के काम से वह इतनी यात्राएँ किया करता था कि डरना एक सतत क्रिया हो चली थी. एक आदत बन पड़ी थी. उसने मान लिया था कि कुछ ऐसा होगा भी तो जब तक उसे नहीं पता चल रहा तब तक उसे कोई परेशानी नहीं होनी चहिए. और यही तर्क-जो वह जानती है तर्क न होकर उसकी इंसिक्योरिटी है जिसे वह सब पर आरोपित कर रही है-रोज़ अपने-आप को दिया करती-अगर मार्टिन की बात सुधीर को नहीं पता चलती, तब उसे भी इससे क्यों फ़र्क पड़ना चाहिए.
दोनों ने मिलकर सोचा था कि वो अगली सर्दियों में मैक्सिको जाएंगे, उन ओयामेल फर पेड़ों को देखने, जहाँ ढेरों भूरे-काले पंखों वाली मोनार्क तितलियाँ तीन हज़ार किलोमीटर उड़कर पहुँचती हैं, और पेड़ों की डालियों पर रंग-बिरंगा छत्ता बना लेती हैं. फिर महीने बीतते गए थे, लेकिन सारिका की बहुत कोशिश के बावजूद, उनके बीच शरीर नहीं आया था. मार्टिन किसी न किसी बहाने से टालता रहा था जब सारिका एक दिन खीझ गई थी.
मार्टिन ने तब कहा था, “मैं ऐस हूँ.”
“मतलब?”
“एसेक्सुअल”
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ लेकिन मन से”
“बिना शरीर के कौन-सा प्रेम होता है?”
बत्ती जैसे ही हरी हुई, उसने घड़ी देखती आहूजा के क्लिनिक की ओर अपनी गाड़ी बढ़ा ली. अगर पूनम और सुधीर हमबिस्तर हुए भी होंगे, तो उसे क्यों फर्क पड़ रहा है जबकि वह भी तो लीड्स में मार्टिन के साथ थी? वह इतना क्यों कुढ़ रही है जब चीटिंग तो उसने भी की है? क्या केवल प्रेम में शरीर होने से सुधीर की चीटिंग उसकी चीटिंग से ज्यादा बड़ी है?
9. |
पौने पाँच बज चुके होने के बावजूद डॉक्टर आहूजा के हस्पताल में सुधीर का कोई नामों-निशान नहीं था. सुधीर को तो अनुभव को स्कूल से लेकर अब तक वहाँ पहुँच जाना चाहिए था? यह अपॉइंटमेंट मिस हुआ, तो दूसरा दो हफ्ते बाद मिलेगा. कॉल मिलाने पर सुधीर उठाता नहीं. दूसरी बार मिलाया, जब अचानक कुछ याद कर उसने पूनम को फोन मिला दिया.
“भैया कहाँ है?” सारिका ने हेलो के जवाब में सख़्ती से पूछा.
“मैं उनकी पी.ए. नहीं हूँ.”
“तमीज़ से बात करो.”
“आप भी.”
सारिका ने तुरंत फोन काट दिया. आवेग से जैसे उसका पूरा शरीर काँपने लगा. वह ई-लॉक का बटन दबाकर गाड़ी खोलने लगी, पर जैसे ही अंदर बैठने के लिए मुड़ने को हुई, तभी उसे सामने से आती सुधीर की गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया.
वह मुट्ठियाँ भींचती हुई, दाँत किटकिटाती हुई, जमकर वहीं खड़ी हो गई. सुधीर उसके सुर्ख लाल हुए कानों को देखकर पहले ही गुस्सा भाँप गया, और गाड़ी से उतरते ही उसने कान पकड़ कर सॉरी-सॉरी-सॉरी की झड़ी लगा दी.
जब उसे सारिका चेहरे के हाव-भाव नर्म होते नहीं दिखाई पड़े, तब घड़ी देखकर हड़बड़ाकर कहा, “वी आर वेरी लेट.”
“थैंक्स टू यू.”
अंदर लाल कोट वाली रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें वेटिंग रूम में इंतज़ार करने के लिए कहा. वेटिंग रूम में तीन लोग-सफेद बालों वाला आदमी, नाइक के हरे फ्लोरोसेंट जूते पहने बीस-बाइस साल का लड़का, और बिंदी लगाए औरत-पहले से बैठे हुए थे, जिनसे बिना नज़रें मिलाए तीनों उन ठंडी कुर्सियों पर बैठ गए. सारिका तो पहले ही काला चश्मा लाई थी, सुधीर ने उन लोगों की नज़रों से बचने के लिए अपना चेहरा अख़बार में गड़ाए रखा. इट्स ओके टू नॉट बी ओके-सामने के लाल नोटिस बोर्ड पर लिखा हुआ था.
घंटे बाद उन्हें डॉक्टर आहूजा के कमरे में बुलाया गया. कमरे की सफेद दीवारों पर इंद्रधनुष बने हुए थे. आड़े-तिरछे. अनेकानेक. निचले हिस्से पर शेर-चीता-लोमड़ी के कार्टून.
एक कोने में सॉफ्ट टॉयज़ का अंबार लगा हुआ था.
मधुबनी प्रिंट की हरी साड़ी पहने डॉक्टर आहूजा ने उनका स्वागत किया. “हाय क्यूटी” उन्होंने अनुभव से हाथ मिलाया.
उनकी असिस्टेंट भूरे रंग का गुड्डा उसके पास लाई-जो उससे कद में बड़ा था, और जिसके कान हल्के-गुलाबी थे-और अनुभव को अपने साथ ले गई.
“आपने अनुभव से कुछ पूछने की कोशिश की?”
“हमें समझ ही नहीं आया हम कैसे और क्या पूछें.”
“आप लोगों को किसी पर शक है?”
“पूनम”
“नदीम”
दोनों की आवाज़ एक साथ कानों में पड़ी. एक-दूसरे को काटती हुई. पूनम का नाम सुनकर सुधीर सारिका को अविश्वास से घूरने लगा जब डॉक्टर आहूजा दूसरे सवाल की ओर बढ़ गईं.
“स्कूल में बात की आपने?” उन्होंने चश्मा पहना और डायरी खोलकर नोट्स बनाने लगीं.
“जी मैम” सारिका की आत्मविश्वास-भरी मुखर आवाज़. सुधीर ने उसे टेढ़ी नज़रों से घूरा.
“और क्रेच में…या और कहीं अकेला जाता हो?”
“नहीं…अभी नहीं…”
“आप यहीं रुकिए. मैं एग्ज़ामिन कर लूँ.”
10. |
“दीदी ने आपका ख्याल रखा?” डॉक्टर आहूजा ने अपनी असिस्टेंट की तरफ इशारा कर अनुभव से पूछा.
“येस”
“आप मेरे कुछ क्वेश्चंस के आँसर दोगे?”
“येस”
“स्कूल कैसा है आपका”
“गुड”
“कोई आपको तंग करता है?”
“नो”
“आपके कितने फ्रेंड्स हैं?”
“मैनी”
“आपको अपना क्रेच अच्छा लगता है?”
“येस”
“लेट्स प्ले ए गेम. मैं आपको अपना एक सीक्रेट बताऊँगी. आप मुझे अपना एक बताना. ओके?”
“ओके”
“इस ड्रॉअर में सबसे पीछे एक बार्बी है. पिंक ड्रेस में. देखो…शी इज़ माई बेस्ट फ्रेंड.” दराज़ खोलकर उन्होंने बार्बी निकाल ली.
“शी इज़ सो प्रिटी.” उसने बार्बी उनके हाथों से छीन ली.
“अनुभव, ये बताओ यहाँ आपको कौन छूता है? हू टचेस यू हेयर?” उन्होंने जाँघों की ओर इशारा करके पूछा.
अनुभव ने कोई जवाब नहीं दिया. वह केवल बार्बी के साथ खेलता रहा.
“बताओ बेटा…?”
“नॉबडी” उसने बार्बी को अपने सीने से लगा लिया.
“अच्छा अनुभव आपको ड्रॉइंग पसंद है? आप मुझे किसी अंकल का चेहरा बनाकर दिखाओगे?”
बार्बी से खेलने में मशगूल अनुभव ने फिर कोई जवाब नहीं दिया.
“वो मेरी बेस्ट फ्रेंड है. लाओ मुझे वापिस दो” मिसेज़ आहूजा ने उससे बार्बी लेते हुए कहा.
अनुभव ने बार्बी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया, तब मिसेज़ आहूजा ने फिर उससे मनुहार की, “ड्रॉइंग बनाओगे तभी बार्बी मिलेगी.”
अनुभव ने सामने रखे पैड पर आड़ी-तिरछी शक्ल बनाना शुरू कर दी. मिसेज़ आहूजा डॉल को हाथ में पकड़े उसे निर्निमेष देखती रहीं. उसने सबसे पहले चेहरा बनाया था, आँख, नाक, कान के बिना-केवल छितरे बाल और मूँछों की पतली-सी रेखा. फिर धड़, हाथ और मोटी, बेढप अँगुलियाँ. लेकिन जैसा उन्होंने अनुमान लगाया था, पैर बनाते हुए उसके हाथ काँप गए थे. उसके आगे उसने कुछ नहीं बनाया था और पैड वहीं भूरे काउच पर छोड़ बार्बी को लपक लिया था.
“कौन हैं ये अंकल?” मिसेज़ आहूजा ने पूछा था लेकिन बार्बी को गले से लगाए अनुभव ने कोई जवाब नहीं दिया था.
11. |
मिसेज़ आहूजा के अनुसार अधोभाग के आस-पास किसी चोट या खरोंच के निशान न होने से दोनों ने जहाँ राहत की साँस ली थी, वहीं उस आदमी को पहचानने की कशमकश में उनका दिमाग फिर घिर गया था. कैसे मिसेज़ आहूजा ने अनुभव द्वारा बनाया चित्र उनके सामने लहराया था और बड़े इनफॉर्मल अंदाज़ में उनसे उस आदमी के बारे में ऐसे पूछा था-क्या नदीम यही है?
“कुछ उसके जैसा लग रहा है.” अनुभव ने दृढ़ता से कहा.
“नहीं सुधीर…अभी पिछले हफ्ते ही तो देखा है मैंने उसे…यह वह तो बिलकुल नहीं हो सकता.”
“अच्छा फिर और? वैसे कौन?”
दोनों के दिमाग में कोई नाम नहीं कौंधा था और वे एक-दूसरे का चेहरा ताकने लगे थे. सुधीर ने तो कुछ बोलने को भी कोशिश की थी, पर सारिका तो एकदम चुप जैसे साँप सूँघ गया हो.
तब मिसेज़ आहूजा के चेहरे पर उनके लिए बेचारगी के भाव तैर गए थे और उन्होंने बड़े हौले के सहानुभूति पगे शब्दों में कहा था, “आई अंडरस्टैंड हाओ बिज़ी बॉथ ऑफ यू मस्ट बी.”
“स्कूल से ज़रूर पता चल जाएगा.” सारिका ने तुरंत बात संभालने की कोशिश की थी.
“यह जाना पहचाना चेहरा है…पता नहीं क्यों ठीक से याद नहीं रहा.” सुधीर ने पहले गियर में गाड़ी डालते हुए कहा.
“आराम से सोचो…ज़रूर याद आ जाएगा.”
“मंचकिन, हू इज़ ही?” सारिका ने हाथ में पकड़े चित्र को अनुभव को दिखाया. बार्बी से खेलने में मग्न पीछे बैठे अनुभव ने कोई जवाब नहीं दिया.
“मैंने कहा था थैट दिस विल बी वेस्ट ऑफ टाइम.” सुधीर ने एक्सीलेटर दबाते हुए कहा.
“ये तो सोहन है…” सारिका चिल्लाई, “बिल्कुल वैसा ही फेसकट है ना…देखो…या शायद नहीं.”
“तुम ठीक कह रही हो.” सुधीर ने गाड़ी रोकी और तुरंत ही जोड़ दिया, “देखो मूँछें भी बिल्कुल वैसी ही लग रही हैं.”
“हाँ… शायद तुम ठीक कह रहे हो.” सारिका की संशय भरी आवाज़.
बार-बार सोहन भैया का नाम लिए जाने से तंग आकर अनुभव सुधीर से मुखातिब हुआ,”पॉपी, व्हाय आर यू टेकिंग हिस नेम?”
“ही इज़ बैड अंकल.” सारिका ने उसे समझाना चाहा.
“ही इज़ वेरी गुड. ही गिव्स मी चॉकलेट.”
“व्हाय डज़ ही गिव यू चॉकलेट?” सुधीर ने पूछना चाहा पर सारिका ने उसका हाथ पकड़ लिया.
तभी उनकी गाड़ी के सामने से एक बाइक गुज़री जिस पर माँ और बाप सवार थे. उनके बीच में दोनों हाथ फैलाए, हवा में झूमता, खिलखिलाता बच्चा जिसके आगे के दाँत टूटे हुए थे.
“सब कुछ कब नॉर्मल होगा?” सुधीर ने एक टीनेजर की तरह शिकायत करती आवाज़ में लटपटा कर कहा था. सारिका ने शीशे में उसकी शक्ल देखी थी, और फिर एक विश्वास भरी मुस्कान का लच्छा उसकी ओर बढ़ा दिया था. बिल्कुल उसी तरह जैसे वह शादी के पहले साल में हँसती थी जब सुधीर की बाँहों में उसे लगने लगा था कि जीवन में उसे और कुछ नहीं चाहिए.
“स्कूल से जवाब आया है.” गाड़ी जब हाईवे पर पहुँच गई थी, तब सारिका के मोबाइल पर मेल आया.
लिखा था-
इतने सालों में कभीं इस तरह की शिकायत हमें नहीं मिली. इतनी कड़ी देख-रेख के बावजूद ऐसा हुआ यह हमारे लिए शर्म की बात है. हमें खेद है. हम माफ़ी चाहते हैं. आप कल ही मिलने आ जाइए.
“इनके माफी से कुछ बदल जाएगा क्या?” सारिका की आवाज़ सड़क के शोर में गुम हो गई.
घर आकर सारिका ने देखा कि बालकनी का दरवाज़ा खुला हुआ है. पर जब वह घर से निकली थी, तब तो दो बार ताला चेक कर के निकली थी? क्या सचमुच?
उसने देखा एक काली तितली मुँडेर पर बैठी है. उसे मार्टिन की याद आती है. तितलियों से भरे उस काँच के डिब्बे की जो-मार्टिन की बीस साल की मेहनत-जो आखिरी दिन किसी आदिम डर के वशीभूत वह अपने अपार्टमेंट में ही छोड़ आई थी.
मार्टिन को कॉल करने का मन करने का मन होता है, पर उसका नंबर? वह भी तो टेकऑफ से पहले उससे आखिरी बार बात करके डिलीट कर दिया था.
वह तितली को हाथ में भरने की कोशिश करती है, पर तितली उसके सिर के ऊपर से उड़कर सी.एफ.एल के चारों ओर मँडराने लगती है. गोल-गोल चक्कर काटती है. कभी दूर, कभी पास. फर्श पर उसकी परछाई घटती-बढ़ती हुई. उसकी आँख से एक आँसू टपकता है.
वह चप्पल उठाकर तितली की ओर निशाना लगाती है. तितली फिर बचकर निकल जाती है. गोली की तरह उड़ती चप्पल से ट्यूब ज़मीन पर आ गिरती है.
वह एक कोने में सिमटी बैठी रहती है. ऊहापोह से भरे इन दिनों में वह चाहे शारीरिक रूप से वह वहाँ होती है, लेकिन मन ख्यालों के वर्तुल में गोल-गोल चक्कर काटता रहता है. इन दिनों उसे लगता है शरीर में जैसे थकान पैंठ गई है-पूरा दिन खाली बैठी वह अपने हाथ-पैर मसलती रहती है, लेकिन फिर भी उसका जोड़-जोड़ दुखता है, चेहरा तना रहता है, हमेशा लगता रहता है कि नींद से भरी पलकें अब झुकीं या तब.
लीड्स में बिताए उन दिनों को याद करती है जब दुगुना-तिगुना काम करके भी वह थकती नहीं थी. घंटों चकरघिन्नी की तरह काम करने के बावजूद क्या वह इसलिए नहीं थकती थी क्योंकि जिम्मेदारियों के बोझ ने एक कछुए की तरह उसके दिमाग की नर्म कोशिकाओं को दबाया नहीं था. कभी मन करता तो खूब सारा खाना बनाकर फ्रिज में रख लेती, फिर हफ्तों भर वही गर्म करके खाती रहती. उसकी लैब में जितनी भी भारतीय मूल की औरतें थीं, वह हमेशा इस बात पर इठलाया करतीं कि वे हमेशा ताजा खाना बनाती हैं. कभी वह भी तंज़ कस देती-पूरा भारत यहीं तो ले आए तुम लोग.
नताशा ने तो एक बार आँखें गोटियों की तरह गोल करके कहा भी था- ये गोरों में इतने कैंसर का कारण तो ये डीप फ्रॉस्ट खाना ही है. सारिका के दिमाग में यह बात घूमती रही थी, फिर भी वह जब शाम को लौटी थी, तब उसका मन ही नहीं हुआ था रसोई में घुसने का. बहुत बचपन से रसोई से उसे चिढ़ होती थी, फिर सुधीर और अनुभव उसके जीवन में आए और न जाने कैसे सारा चिड़चिड़ापन छूमंतर हो गया! अब न जाने फिर वही तुनुकमिज़ाज़ी को वह अपने अंदर डैने फैलाते पाती है, तो काँप जाती है. पर कर भी क्या सकती है, समय तो तेल चिपुड़ी रस्सी ठहरी, उसके हाथ से लगातार फिसलती हुई
12. |
सारिका अंदर गई तो सामने लगी घड़ी पर बैठी छिपकली को घूरने लगी. कैसे उसके लंबोतरे, चिपचिपे, धूसर शरीर के नीचे घड़ी की सुइयाँ छिप गई हैं. जैसे मानो वह समय-समय को रोकने की कोशिश कर रही हो. समय-जो एक घबराए चूहे- सा उसकी हथेलियों से दौड़कर दूर किसी खोह में छिप गया था. और जैसा अमूमन होता ही है-उसके लिए छोड़ गया था-पश्चाताप का लिजलिजा-बोध. उससे ऐसी क्या गलती हुई कि उसके खुद के दिमाग की अदालतें उस पर तोहमतें लगाने से बाज़ नहीं आतीं?
लीड्स क्यों गई-वह घंटों यही सोचती रहती. मैटरनिटी लीव तो उसे मिल गई थी, फिर जब सुधीर ने तकाज़ा किया, तब उसने नौकरी भी छोड़ दी थी. और रुपए की तो फ़िक्र उसे कब रही? सुधीर ने तो स्टार्टअप का अकाउंट भी उसके नाम कर दिया था. फिर भी साल भर के बाद जब दिन छोटे और ठंडे होने लगे थे, और सूरज का अस्तित्व आसमान में एक मोटी, पीली बिंदी भर रह गया था, वह अजीब से क्षोभ से घिर गई थी. ऐसी अजीब-सी उदासी की आहटें तो वह हमेशा से सुनती रही थी, पर उन सर्दियों उसे लगा था जैसे छाती के बीचोबीच कोई खाई हो-जो न तो उसे अथक प्रयासों के बावजूद भरती है, न ही उसमें छलाँग मारकर जान दे पाना ही संभव है.
उस उदासी का कारण? ठीक-ठीक तो नहीं जानती थी, लेकिन उसके मध्य में भवू था, रात-बिरात बिसूरने की उसकी आवाज़ें, दूध के लिए लपलपाती उसकी जीभ और उन सबके बीच गहरा होता बेचारगी का बोध. उसे लगता जैसे उसके चारों ओर का जीवन चलायमान है, लेकिन जैसे वह ही रुकी रहने को अभिशप्त है. बार-बार वह सुधीर से सवाल करती कि क्यों दूसरी औरतों की तरह बच्चा पालने में वह जीवन का सत्व नहीं खोज पा रही? जैसा सुनती समझती आई थी, माँ बनने के बाद होना तो पूरा चाहिए था, जबकि वह तो अधूरेपन के दलदल में धँसती जा रही थी. तब जब अचानक स्कॉलरशिप की खबर उसे मिली थी, तब उसने और कुछ नहीं सोचा था, केवल अपना स्वार्थ, मुक्ति का मार्ग, और चुपचाप वहाँ से निकल आई थी.
काँच के ग्लास की छनछनाहट से उसका ध्यान टूटा. लॉबी की तरफ गई तो देखा सफेद कुर्ता-पजामा पहने सुधीर सामने बैठा विहस्की पी रहा था. पनीली हुई आँखें, आवाज़ में लड़खड़ाने के चिह्न, चेहरे पर पश्चाताप के असंख्य रेखाएँ.
“तुम रो रहे हो?”
सुधीर अचानक मुस्तैद हो गया मानो किसी ने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो. “…नहीं तो…नहीं…नहीं…तुम अभी तक सोई नहीं…”
सारिका के कुछ जवाब न देने पर उसने फिर खुद हो जोड़ दिया, “कुछ दिनों से कितना तनाव चल रहा है…है ना?”
“जब बच्चा हमारा है कष्ट भी तो हमें ही झेलना होगा. मुझे न जाने क्यों बार-बार लग रहा है कि वह चित्र वाला आदमी सोहन नहीं है.”
“वो चित्र छोड़ो यार…तुमने नोटिस किया आजकल हम कितना लड़ रहे हैं.”
“एक बात पूछूँ…बिल्कुल हाइपर मत होना…तुम केस को लेकर इतने ठंडे क्यों होते जा रहे हो?”
“इसलिए क्योंकि मुझे लगता है कि इन सब चीजों से अनुभव के दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है. याद नहीं कल कैसे रात में अचानक भैं भैं करके रोने लगा था.”
“और तो कोई बात नहीं?” सारिका ने उसके कंधे पर सिर रखते हुए कहा. ” लेकिन जब तक भवू को न्याय नहीं मिल जाता, क्या तब तक हम चुप ही बैठ पाएँगे? मानो भवू को सब कुछ याद रहा, तब बड़ा होकर क्या वह हम सबको दोषी नहीं समझेगा?”
“क्या यह भवू से ज्यादा तुम्हारा न्याय है?” सुधीर ने तंज़ कसा.
“हम सबका…मेरा, तुम्हारा, भवू का…” सारिका ने एक गहरी साँस अंदर खींची. “अगर कल स्कूल में तुम भी मेरा साथ दोगे, तभी कल यह बात हमेशा के लिए खत्म हो सकती है.”
13. |
प्रिंसिपल के ऑफिस में उन्हें बुलाया गया. नीला कोट पहने अपनी मोहित रैना के खिचड़ी बाल पंखे की हवा में उड़ रहे थे. चेहरे पर इतनी झुर्रियाँ जैसे कोई मुसी हुई लिनन की शर्ट.
पीछे काँच की अलमारी चमचमाती ट्रॉफी, शील्ड, मेडल्स से
ठसाठस भरी हुई. दीवार पर दोनों तरफ कथककली के हरे चेहरे वाले मुखौटे. वाइस प्रिंसिपल माधवी गुप्ता भी उनके पीछे वहाँ पहुँच गई.
“आइए मिस्टर अग्रवाल. प्लीज़ हैव ए सीट.” माधवी गुप्ता ने अपनी पतली आवाज़ में कहा.
“दिस इज़ मेडिकल रिपोर्ट.” सुधीर ने चेहरा सख़्त बनाए रखा. “मैंने आपको इसकी कॉपी सुबह मेल भी कर दी थी.”
“आप बताइए चाय लेंगे या कॉफी?” माधवी गुप्ता ने बेल बजाकर चपरासी को बुलाया.
“नहीं हमें कुछ नहीं पीना…आप बस ये देखिए. आई एम श्योर दिस इज़….”
“कोई फॉर्मेलिटी की बात ही नहीं. आप बेहिचक बताइए.” रैना ने उसकी बात काटते हुए हस्तक्षेप किया.
“कॉफी” सारिका ने बात खत्म करने के इरादे से कहा.
“अब बताइए. एक्चुअली दीज़ थिंग्स स्प्रेड लाइक वाइल्डफायर!” चपरासी के चले जाने पर माधवी गुप्ता ने कहा.
“फर्स्ट ऑफ ऑल वी आर वेरी सॉरी थाट यू हेड टू अंडरगो दिस.” मोहित रैना ने सफाई पेश की. “स्पेशल मीटिंग की जाँच चल रही है.”
“आपने शायद ये ड्रॉइंग ढंग से नहीं देखी. ये बस कंडक्टर सोहन है.” सुधीर गुर्राया.
“विच इज़ नॉट पॉसिबल. सोहन लाल हमारे साथ तब से है जब से यह ब्राँच खुली थी. ये देखिए उसके पेपर.” रैना ने फाइल उनकी ओर सरकाई.
“यह तस्वीर तो थेरेपिस्ट के कहने पर भवू ने ही बनाई है.” सुधीर का स्वर.
“स्पेशल कमेटी को अपना काम करने दीजिए.” माधवी गुप्ता ने ग्रीन टी का घूँट भरते हुए कहा.
“क्या मैं जान सकता हूँ कि अब तक आपकी स्पेशल कमेटी ने क्या-क्या सबूत इकट्ठे किए?” सुधीर के स्वर के तीव्रता बढ़ती हुई.
“सॉरी, हम डिस्कलोज़ नहीं कर सकते.”
“…आप ये बताइए…” सारिका कुछ बोलने को हुई लेकिन सुधीर ने अपनी आवाज़ तेज़ करके उसे काट दिया. जब से वे आए थे, सुधीर तीसरी बार उसे काट चुका था, लेकिन चिढ़ जाने की बजाए सारिका इस बात से खुश थी कि सुधीर पर पिछली रात की बात का असर हुआ था.
“पर मिस्टर रैना चॉकलेट्स?”
“मिस्टर अग्रवाल चॉकलेट तो हम हर बस में रखते ही हैं. कई बार बच्चे बहुत रोते हैं.”
“चलिए तसल्ली के लिए अनुभव से ही खुद पूछते हैं.” रैना का शांत स्वर.
अनुभव अभी तक पीछे लगे सोफे पर बैठा हुआ था. रैना उसके साथ सोफे पर बैठ गए.
“अनुभव, माय डियर, आपको सोहन अंकल कैसे लगते हैं?”
“गुड”
“वो आपको तंग करते हैं?”
“नो”
“पक्का…”
“डरो नहीं भवू…सर को सच-सच बताओ.” सारिका ने उसकी पीठ थपथपाई.
“येस”
“आप खुद ही देख लीजिए मिस्टर अग्रवाल. बिना बात का बतंगड़ बना रहे हैं.” माधवी गुप्ता आखिरी लंबा घूँट लेकर बोली.
“बतंगड़ तो आप लोग बना रहे हैं.” सुधीर गरजा. वह झटके से कुर्सी से उठा और कमरे से बाहर निकलने लगा. मन हुआ कि दरवाजा भाड़ से मार दे लेकिन फिर स्कूल का ध्यान कर वह चुपचाप वहाँ से निकल गया.
“मिस्टर अग्रवाल आप बात तो सुनिए.” रैना ने सुधीर को रोकने की कोशिश की. “मिसेज़ अग्रवाल आप रोकिए उन्हें. स्कूल की इज़्जत का सवाल है.”
“इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी आपको स्कूल की इज़्जत की पड़ी हुई है?”
“काम डाउन. लेट्स आस्क अनुभव.” माधवी गुप्ता भी अनुभव के बगल में आकर बैठ गई. “बेटा, व्हेयर डिड सोहन भैया टच यू?”
“हाओ डेयर यू! आप डॉक्टर हैं?” सारिका तमतमा गई. उसने अनुभव का हाथ पकड़ा और कमरे से बाहर निकल गई.
14. |
सुधीर गाड़ी में बैठा था. स्टीयरिंग पर अपना सर झुकाए. सारिका ने जब गाड़ी का शीशा खटखटाया तब वह अकबका कर उठा.
“हो गई संतुष्टि?” उसने शीशा नीचे कर सारिका को घूरा.
“नहीं! हम उस सोहन के खिलाफ एफ.आई.आर. करेंगे.”
“ऐसे ही लाउडस्पीकर लगाकर सबको बता दो न.”
“कल वो किसी और बच्चे के साथ कुछ करेगा…तब?”
“और अनुभव से वही सवाल बार-बार पूछे जाएँगे उसका क्या…” सुधीर एक बार फिर आग-बबूला हो गया.
“अनुभव ने बड़े होकर अगर सवाल किया कि हमने क्यों कुछ नहीं किया?”
“पता तो उसे तब चलेगा न जब हम बताएँगे.”
“और अगर उसने खुद ही पूछा, तब भी क्या झूठ बोल देंगे?”
“इस अगर-मगर का तो कोई अंत नहीं…तब की तब सोचेंगे.
तुमने देखा नहीं कैसे माधवी और रैना बिहेव कर रहे थे. तुम्हें क्या लगता है कोर्ट में इतनी जल्दी सब कुछ हो जाएगा. सालों साल लग जाएँगे? उसका क्या ट्रॉमा नहीं होता?”
“तुम अनुभव की छोड़ो…अगर सोहन ने दूसरे बच्चों के साथ ऐसा किया?”
“शेषाद्रि स्कूल का फॉर्म तुरंत ही भर देते हैं. अब इस सबके बारे में कोई बात नहीं होगी.”
“क्यों बात नहीं होगी?”
“हर बात तुम्हारे बारे में नहीं होती.”
“हर बात तुम्हारे बारे में भी नहीं होती.” थोड़ी देर की शांति के बाद वह फिर बोली, “यहाँ से पहले चलो. रास्ते में बात करते हैं.”
अनुभव को पीछे बिठाकर दोनों आगे बैठ गए. सारिका ने हाथ में अनुभव द्वारा बनाया गया चित्र पकड़ा हुआ था. सुधीर गाड़ी चला रहा था- सामने की गाड़ियों को बार-बार हॉर्न की कर्कश आवाज़ से चेताता, स्पीडब्रेकर पर गाड़ी धीमी करने की बजाए उछलने देता.
“थोड़ा आराम से चलाओ.”
“लो तुम ही चला लो.” सामने जाती लाल ऑल्टो को ओवरटेक करने के लिए उसने ज़ोर से हॉर्न दबाया.
“ओवररिएक्ट क्यों कर रहे हो?”
“मुझसे इतनी परेशानी है तो मुझे छोड़ दो. भवू को भी ले जाओ. जाओ. चली जाओ.” बार-बार सुधीर ओवरटेक करने की कोशिश करता पर सामने से हमेशा कोई गाड़ी आ रही होती.
“शांत हो जाओ…” सारिका ने उसका कंधा सहलाते हुए कहा.
मैं एक अच्छा फादर हूँ. अच्छा फादर.”
“किसने कहा तुम नहीं हो?” सुधीर ने गाड़ी रोक ली. वह सारिका के गले लग गया और बच्चे की तरह फफक-फफक कर रोने लगा.
“मैं एक अच्छा फादर हूँ.” सुधीर की आँखों में बेचारगी के असंख्य भाव तैर गए. उसने सारिका के हाथों से वह चित्र झपटा और तुरंत गाड़ी से बाहर उड़ा दिया.
उसकी आँखें पनीली हो गईं. न जाने कैसे आँखों के सामने वह डोरेमोन के एक एपीसोड के चित्र तैरते रहे जिसमें बाईसवीं सदी का चित्रण करने के लिए अचानक धरती बदरंग हो गई थी. पेड़ों का हरा रंग पलक झपकते ही गायब हो गया. नीला-नीलभ्र आकाश स्याह पड़ गया था. खेत-खलिहान धूल-धूसरित हो चले थे. उन सबके बीच एक तितली बैठी थी जिसके रंग उड़ने लगे थे तो भवू चिल्लाया था- पॉपी, पॉपी! व्हेयर आर इट्स कलर्स?
सुधीर अपने हथेलियों को घूरने लगा. मुट्ठी खोली और बंद की. बार-बार. आँखों से आँसू झर-झर बहने लगे. बार-बार उसे लगता रहा जैसे तितली के रंग उसकी हथेली पर दाग की शक्ल में जम गए हैं.
किंशुक गुप्ता मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ लेखन से कई वर्षों से जुड़े हुए हैं. अंग्रेज़ी के प्रमुख अखबारों जैसे द हिंदु, द हिंदु बिज़नेस लाइन, द हिंदुस्तान टाइम्स, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, द डेक्कन हेराल्ड, टाइम्स ऑफ इंडिया, द क्विंट, स्क्रॉल, आउटलुक, लाइव मिंट, द कारवाँ के लिए स्वतंत्र लेखन. यूनिवर्सिटी ऑफ पेनिस्लीवेनिया, स्पॉल्डिंग यूनिवर्सिटी केंटकी की पत्रिकाओं में प्रकाशित. रैटल, द इंकलैट, द पेन रिव्यू, हंस, पाखी इत्यादि में प्रकाशित. बेस्ट एशियन पोएट्री 2021 के लिए दो कविताएँ चयनित. हाइकु के लिए रेड मून एंथोलॉजी और टचस्टोन अवार्ड्स के लिए मनोनीत. डॉक्टर अनामिका पोएट्री प्राइज़ (2021), रवि प्रभाकर स्मृति लघुकथा सम्मान (2022), निशा गुप्ता अखिल भारतीय युवा कहानी प्रतियोगिता (2022) से पुरस्कृत. जैगरी लिट और द मिथिला रिव्यू के कविता संपादक और उसावा लिटरेरी रिव्यू के सहायक संपादक के तौर पर कार्यरत. दूरभाष: 9560871782 |
फूट फूट कर रोने का मन हो आया
तकलीफदेह कहानी ।लेकिन यह एक बढ़ती हुई समस्या है।माता पिता दोनों के कामकाजी होने से यह संकट बढ़ रहा है।प्रतीकात्मक कहन प्रभावशाली है।
कहानी एक सांस में पढ़ा लेने की कुव्वत रखती है। आधुनिक समाज के कई झमेलों में एक झमेला यह भी है। हम बड़ों की आपाधापी में पिसता बचपन है। शानदार कहानी। कहीं-कहीं अनावश्यक विस्तार से बचा जा सकता था।
एक अत्यंत संवेदनशील विषय पर उतने ही संवेदनशील तरीक़े से लिखी गयी बेहतरीन कहानी। लेखक और सम्पादक का हार्दिक आभार।
सधी हुई बढ़िया कहानी है। जटिल परिस्थितियों का सूक्ष्मता से बयान किया गया है। और काला/सफ़ेद न करते हुए कई स्तरों पर ambiguity को तरजीह दी गयी है। यह इस कहानी की सबसे ख़ास बात है।
अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई। बेहद संवेदनशील मुद्दे को और इसके इर्दगिर्द विभिन्न सूत्रों को इस संतुलन से साधा गया है कि कहानी पढ़ना शुरू करने पर ख़त्म किए बिना आप रुक नहीं पाते और अन्त में हाथ लगता है चिंताग्रस्त सन्नाटा।
आधुनिक समाज में सबसे ज्यादा नुकसान बचपन को ही हो रहा है. अपने सपनों के पीछे भागते समाज को इस समस्या का समाधान सुझाई नहीं दे रहा है.
एक बढ़ियां कहानी के लिए लेखक को बधाई, शुभकामनाएं.
कहानी का विषय और उसका ट्रीटमेंट बहुत ठीक है पर बाल यौन दुराचार पर आधारित इस कहानी की अंतर्वस्तु में कथ्य के स्तर पर कसाव और संवेदना का स्पर्श वैसा नहीं है जिसकी कहानी से अंत-अंत तक अपेक्षा थी। भारतीय संदर्भ में पति-पत्नी के अलावे इतर यौनिकता अभी भी इतनी बेलगाम नहीं है।कथा में इसकी मांग भी नहीं थी। वैसे, कहानी की भाषा और भंगिमा ठीक-ठाक है।
ये कहानी शहरी मिडिल क्लास की जटिलताओं की कहानी है। जहां सबकी अपनी जद्दोजहद है,एक अकेलेपन से जूझते लोग हैं। जहां परिवार में नैनी, डे केयर या क्रैच ऎक सपोर्ट सिस्टम की तरह है लेकिन ये सपोर्ट सिस्टम कितना फ्रेजाइल है ये भी समझ आता है। बच्चों पर इस आधुनिक जीवन की सबसे बड़ी मार पड़ी है। वो सामंती समाज से ज्यादा वलनरेबल हो जाते हैं। किंशुक ने एक सघन तनाव बनाया है और अंत तक पाठक उस कशमकश से जूझता है।
एक लंबे समय बाद एक ऐसी कहानी पढ़ी है जो शिल्प , भाव और भाषा के स्तर पर मुकम्मल और सधी हुई कहानी है । वह पात्रों के साथ पाठक को बहा ले जाते हैं। उनके पास अलग विषय हैं और वह अपने विषय पर खूब काम करते हैं और उसे विस्तार देते हैं । किंशुक में एक समर्थ कथाकार होने के सब गुण हैं।
यथार्थ का सटीक चित्रण, स्कूल में काम करती हूं ऐसे बहुत किस्से आते हैं, न्याय तो कभी नहीं मिलता। किंशुक जी ने बहुत साहस से सभी पक्षों की मजबूरी , विवशता और व्यवहारिक सच शब्द शब्द सामने रख दिया है।
थीम महत्वपूर्ण है लेकिन लिखाई क्लीशेड। सारे किरदार प्रचलित खाँचों में ही रखे गए हैं। ऐसा ही अभी एक तेलुगू फिल्म में दिखा, गार्गी में, जहाँ नायिका के संघर्ष को बड़ा दिखाने के लिए सुरक्षाकर्मी की मामूली नौकरी कर रहे पिता को अपराधी बता दिया गया था। एक इसी बिंदु पर प्रचलित खाँचे से अलग हटती है कहानी यानी प्रचलित खाँचा यह है कि बच्चों का शोषण उनके माता पिता के परिचित रसूखदार लोग या शिक्षक अधिक करते हैं लेकिन यहाँ बस कंडक्टर पर बात चली जाती है।
माता पिता दोनों के कामकाजी होने से बच्चों का बचपन छिन रहा है और सही तरीके से पालन -पोषण नहीं हो पा रहा, जो बेहद विचारणीय है।
एक बहाव में पढ़ा ले जाती है कहानी , किसी भी बनावटी भार से मुक्त । समस्या जानकर भी कुछ भी न कर पाने की असहाय स्थिति की बेबसी तकलीफ पहुंचाती है । माता-पिता दोनों का काम पर जाना इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी समाज की घिनोनि मानसिकता में इसके तार छिपे हैं । होता तो ये सदा से ही आया है ।
अब तक नए रचनाकारों को प्रकाश में लाने का श्रेय साहित्य की पत्रिकाओं और उनके संपादकों को रहा है।लेकिन बदलते समय के अनुसार आपने समालोचन के माध्यम से किंशुक गुप्ता जैसे नए कथाकार को सामने लाने का उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्य किया है।किंशुक की यह कहानी और इससे पहले की दोनों कहानियां भी अपने ढंग की खास कहानियां हैं।अपनी अलग पहचान बनाती हुई।मेरा साधुवाद और शुभकामनाएं।
साहित्य लेखन में आज के युवा का प्रशंसनीय प्रयास।
शुभपन्था: ते।
अच्छी कहानी! तरल भाषा, अपने ही वृत्त में घूम कर अंतर्द्वंद्व को मुखर करता शिल्प और ट्रीटमेंट चरित्र के भीतर उतर कर हौले से मन की उलझी परतों को खोलता है।
किंशुक के भीतर स्त्री मन है – जिसका एक सिरा स्त्री को पितृसत्ता द्वारा दी गई अपराध-ग्रंथियों से जुड़ा है तो दूसरा सिरा मातृत्व को यशोदा सरीखे महिमामंडन से बचा कर स्त्री के सार्थकता बोध की तलाश करता है.
बेहद संश्लिष्ट कहानी है तितलियों की तलाश में. कितने-कितने कोणों-आयामों से युक्त – चाइल्ड एब्यूज से लेकर फाल्स मेल ईगो तक, स्कूल जैसी संस्थाओं के सत्ता संस्थानों में ढलते चले जाने से सेक्सुएलिटी को नई स्त्री दृष्टि से देखे जाने तक. यह कहानी एक नज़रिए से पाठ किए जाने से इंकार कर बार-बार नई पगडंडियों पर ले चले तो वह जीवन के साथ लेखक के गहरे आलोचनात्मक लगाव को ही दर्शाती है.
‘रिबन’ फिल्म ऐसे ही मुद्दे पर बनी थी| नहीं जानती कि कहानीकार ने फिल्म से कोई प्रेरणा ली है या नहीं लेकिन कुछ दृश्य और संवाद मिलते जुलते प्रतीत होते हैं| किंशुक की कहानियां पसंद है मुझे पर ये कहानी पढ़कर बार- बार रिबन फिल्म का दुहराव लग रहा था| उम्मीद करती हूँ कि कहानीकार ने मौलिक ही लिखा होगा|