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समालोचन

Home » आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा : प्रेमकुमार मणि

आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा : प्रेमकुमार मणि

बांग्ला देश में अभी जो कुछ हुआ है उससे बरबस ही गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ की याद आ गई. इसमें बांग्ला देश के मुक्ति संग्राम के बीच एक बंगाली हिन्दू परिवार के घिर जाने और फिर उसके बिखर जाने की मार्मिक कथा भी है. प्रेमकुमार मणि ने इस उपन्यास के बहाने हिंदी उपन्यासों की परम्परा पर भी विचार किया है. आलेख प्रस्तुत है.

by arun dev
August 16, 2024
in आलेख
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आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा :  प्रेमकुमार मणि
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आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा
प्रेमकुमार मणि

1950 के दशक में बांग्ला के मशहूर लेखक बुद्धदेव बासु (1904-1974) ने भारतीय उपन्यास के दरिद्रता को चिह्नित करते हुए बताया था कि इसका कारण इस उपमहाद्वीप में उस पीड़ा के अनुभव का अभाव है, जिसे यूरोप ने झेला है. बासु का संकेत विशेषकर बीसवीं सदी के दो विश्वयुद्धों की ओर था, जो यूरोप की छाती पर हुए थे. बासु की बात यूँ ही रह जाती, यदि उस समय के समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने उस पर त्वरित टिप्पणी न की होती.

लोहिया ने कहा, जिस बंगाल में एक दशक पूर्व भयावह अकाल पड़ा हो, जहाँ राजनीतिक बंटवारे के कारण हुई हिंसा में लाखों लोग बेघरबार हुए हों, हजारों मारे गए हों, बलात्कार और लूट-पाट की बेतहाशा घटनाएं हुई हों, जहाँ प्रतिवर्ष अकाल, महामारी, भूख और बेबसी से लाखों की मौत होती हो, वहाँ का लेखक यदि पीड़ा के अनुभव का अभाव देखता है, तब मुझे कहना पड़ेगा, हमारे देश में लिखने वाले और दुःख भोगने वाले अलग-अलग समूह से आते हैं. जो पीड़ा भोगते हैं, उनके बीच से लेखक नहीं हैं और जो लेखक हैं वे पीड़ा भोगने वाले नहीं हैं. अभी स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ, लेकिन उनकी ज़ोरदार टिप्पणी कुछ इसी आशय की थी .

अभी गरिमा श्रीवास्तव का उपन्यास “आउशवित्ज़ : एक प्रेमकथा” पढ़ते हुए बासु और लोहिया की टिप्पणियां मेरे स्मृति-पटल पर बारी-बारी से उभरीं. गरिमा श्रीवास्तव की कोई पहली किताब मैं पढ़ रहा था. वह भी उपन्यास. मैं इनकी लेखकीय पृष्ठभूमि से बहुत अवगत नहीं हूँ. लेकिन मैं नहीं समझता इससे कोई फर्क पड़ता है. पत्रिकाओं और अन्य संचार माध्यमों पर इस किताब की चर्चा जरूर देखी है, लेकिन किसी लेख को पढ़ नहीं पाया. उपन्यास के नाम से मेरे मन पर यही भाव आया था कि यह आजकल लिखे जा रहे स्त्री-लेखन का एक विस्तार भर होगा. आउशवित्ज़ पोलैंड का एक ऐसा शहर, जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी खूनी दास्ताँ से जुड़ा है, जहाँ सबसे बड़ा नात्सी प्रताड़ना केंद्र था और यहीं लाखों यहूदियों को गैस चैम्बर में झोंक कर मार दिया गया था.

आयरिश लेखक जॉन बोयने के उपन्यास ‘The Boy in the Striped Pajamas’ और इस पर इसी नाम से बनी लोमहर्षक फिल्म जिन्होंने देखी है, वे होलोकास्ट और यातना शिविरों को समझ सकते हैं. (गरिमा श्रीवास्तव  भी अपने इस उपन्यास में होलोकास्ट की झांकी प्रस्तुत करती हैं.) मुझे लगा लेखिका ने कोई बौद्धिक फंडा गढ़ने की कोशिश की होगी कि देखो इन सब से मैं परिचित हूँ. मेरे अनुत्साह का कारण यही था. लेकिन जब मैंने इसे पढ़ना आरम्भ किया तो लगा मैं गलत था. यहाँ कुछ अलग है. कुछ  भीतर उतरते  ही मैं उसी दुनिया में खो गया और फिर उपन्यास समाप्त होने के बाद ही मुक्त हो सका.

शायद यह सही होगा कि इसकी कथावस्तु संक्षेप में रख दूँ. उपन्यास की नायिका प्रतीति सेन अपने शोध के सिलसिले में आउशवित्ज़ जाती है, जो पोलैंड का एक शहर है, उसकी राजधानी वारसा के पास अवस्थित. दरअसल उसे क्राकोव में हो रहे सेमिनार में भाग लेना है. इसके लिए जादवपुर युनिवर्सिटी में कार्यरत डॉ. प्रतीति सेन को ड्यूटी लीव मिल जाती है. वहाँ प्रतीति की दोस्त सबीना स्केवित्ज़ है, जो कभी इंडिया टूर पर आयी थी और प्रतीति से घुल-मिल गई थी. वह वारसा शहर में अपने पति और शिशु बेटे के साथ रहती है. आउशवित्ज़ वहाँ से दूर है. प्रतीति जाते ही अपने काम में जुट जाती है. वहाँ उसे होलोकास्ट, यातना कैंप और उससे जुड़े मसलों पर काम करना था. भारत से गई हुई इस लड़की के लिए यूरोप की इस भयावह घटना के साक्ष्य को देखना-समझना एक अजीब अनुभव है.

जब वह भारत में थी, अपने सहपाठी अभिरूप के प्रेम में कुछ समय तक डूबी रही थी. लेकिन अभिरूप का विवाह अन्यत्र हो गया, जैसे भारत में माता-पिता द्वारा प्राय: कर दिया जाता  है. अब टूटे दिल और भग्न मन के साथ प्रतीति अपने काम में जुटी है. वह अपने प्रेम और उससे जुड़ी तमाम स्मृतियों को भूलना चाहती है. लेकिन यह सब इतना आसान नहीं होता. लेकिन वह कई वर्षों से कोशिश तो कर रही है. वहाँ उसकी दोस्त सबीना है, जिस से खुल कर वह बात कर सकती है. उसके माध्यम से यूरोपीय घरेलू  जीवन को कुछ समझती भी है. युद्ध और होलोकास्ट की भयावह स्मृतियों के बीच भी पोलैंड और उसके इर्दगिर्द का मानवीय जीवन अपने अंदाज में खिल रहा है. लोगों के चेहरे और दिलों में गहरी उदासी है, लेकिन अपने वर्तमान जीवन को वे पूरी जिम्मेदारी से संभाल रहे हैं. उन्हें एक सुन्दर दुनिया की ओर जाना है यह उनकी जिद है. वे जायेंगे.

लेकिन यूरोप के ऐसे जख्मी शहर में आई इस हिंदुस्तानी लड़की की भी एक दुनिया है. वह समझ नहीं पाती आखिर वह है कौन ! प्रतीति सेन, अभिभावक रहमाना खातून. यह क्या है? रहमाना खातून को वह अम्मा कहती रही है. वही है एक जो उसकी सब कुछ है. लेकिन उसके बारे में भी वह कितना जानती है! धीरे-धीरे उसकी दुनिया खुली है, उसका इतिहास और परिचय भी धीरे-धीरे खुलता है. फिर है एक ऐसी कहानी जिसे दिल थाम कर ही सुनना पड़ेगा.

कलकत्ते शहर का कपड़ा व्यापारी बिराजित सेन और उसकी पत्नी द्रौपदी देवी की  एक खुशहाल दुनिया है. द्रौपदी देवी की गहरी अभिरुचि बंगला साहित्य में है. बिराजित और द्रौपदी का दाम्पत्य सुन्दर तो है ही, सुखद भी है. बिराजित कपड़ों खासकर साड़ियों  और कसीदों के पारखी हैं. अपने व्यापार  में खूब डूबे हुए. लेकिन ज़िन्दगी जीना भी खूब जानते हैं. कपड़ों के सौदे के लिए उनका पूर्वी पाकिस्तान प्रायः जाना होता है. इस बार वह पत्नी द्रौपदी और छोटी बेटी टिया के साथ आये हैं. पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की बड़ी आबादी थी. कुल आबादी के लगभग 28 फीसद. भारत में मुस्लिम आबादी आज भी 14 फीसद है. बिराजित अपनी मौसी के यहाँ ठहरता रहा है. लेकिन यह 1970 है. पाकिस्तान में चुनाव हुए हैं और शेख मुजीब की पार्टी अवामी लीग को पाकिस्तानी पार्लियामेंट में बहुमत मिला है. (दोनों हिस्से के पाकिस्तान की कुल 313 और पूर्वी पाकिस्तान की कुल 169 में से 167 सीटें.) लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों याहिया खान और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उन्हें सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया है. पूर्वी पाकिस्तान में जनविद्रोह हो जाता है. पाकिस्तान की फ़ौज, जमायते इस्लामी और बिहारी मुसलमानों ने अखंड पाकिस्तान और इस्लाम खतरे में’ का झंडा बुलंद किया हुआ है.

पाकिस्तानी फ़ौज क्रूरता से लगभग तीन लाख लोगों को मौत के घाट उतार देती है. दो लाख से अधिक स्त्रियों  के साथ बलात्कार होता है. यह सब शुरू होता है बिराजित के पूर्वी पाकिस्तान में आने के तुरंत  बाद. वह  हसनपुर के पास अपनी मौसी के घर में घिर गए हैं. बिहारी मुसलमानों, जो पाकिस्तान समर्थक हैं, को जानकारी मिली है कि इंडिया से कुछ लोग आए हुए हैं. इंडिया को सबक सिखाने का एक मौका है. उनकी नजर में इंडिया से आए लोग अवामी लीग के समर्थक हैं मुक्ति योद्धा. बिराजित की मौसी के घर में आठ-दस लोग घुसते हैं.उसे बुरी तरह पीटते हैं. जब उसकी पत्नी द्रौपदी देवी उसके बचाव के लिए बढ़ती है तो उसे पकड़ कर लोग उसके साथ सामूहिक बलात्कार करते है, सब के सामने. क्षण भर में बिराजित और द्रौपदी की दुनिया विनष्ट हो जाती है. हमलावर लात मार कर बिराजित को धमकाते हैं, ‘जल्दी भागो अन्यथा मार देंगे’. गिरते-पड़ते बिराजित किसी तरह कलकत्ता  लौटता है अपनी पत्नी और बेटी के बिना.

द्रौपदी देवी को जबरन रहमाना खातून बनाया जाता है और निकाह द्वारा वह एक मौलवी की आठवीं बीवी बनती है. टिया का पता महीनों बाद चलता है. उसके साथ भी कैम्प में सामूहिक बलात्कार होता है और जब मिलती है वह एक गर्भवती लड़की है, जो ठीक से जानती नहीं कि उसके साथ हुआ क्या है . रहमाना पत्र लिख कर किसी तरह बिराजित सेन को खबर देती है कि वह कम से कम अपनी बेटी को तो ले जाय. हावड़ा स्टेशन के बड़े घड़ियाल के नीचे  बिराजित  को टिया सौंप देती है, टिया कुछ मंदबुद्धि है, पिता को देख कर आल्हादित हो जाती है, रहमाना को मन में उम्मीद है कि बिराजित उससे कलकत्ता लौटने का इसरार करेंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं . बिराजित अपने रिश्तेदार के यहाँ टिया  को  रख कर उसका विवाह करा देते हैं और अंततः अपने पति के साथ वह कनाडा के एक शहर टोरंटो चली जाती है. लोगों से उसकी बेटी का होना छुपा लिया गया है. यही बच्ची प्रतीति सेन है. द्रौपदी देवी जो अब रहमाना खातून है, उसकी अभिभावक है.

इंदिरा गाँधी के शासनकाल में पूर्वी पाकिस्तान से आए लाखों हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता दे दी गयी थी. इसी का लाभ ले कर रहमाना खातून प्रतीति सेन को भारतीय नागरिकता दिलाने में सफल हुई थी. अब वह भारतीय नागरिक है. न माँ का पता, न पिता का. नानी मुस्लिम रहमाना खातून और वह हिन्दू प्रतीति सेन. रवीन्द्रनाथ टैगोर होते तब शायद उसकी नागरिकता और राष्ट्रीयता ठीक से तय करते. उनके उपन्यास गोरा का नायक गौरमोहन मुखोपाध्याय भी तो कुछ ऐसा ही है. ब्राह्मणत्व के गहरे अहसास में डूबे गौरमोहन को एक पड़ाव पर मालूम होता है, वह ब्राह्मण नहीं, आयरिश मूल का है. उसके माता-पिता आयरिश थे, जो 1857 के विद्रोह में मारे गए. भागने के पूर्व आयरिश दम्पति ने अपने शिशु को एक हिंदुस्तानी माँ की गोद में दे दिया था. यही माँ गौरमोहन की माँ है. 1909 में रवीन्द्रनाथ द्वारा लिखा गया यह उपन्यास बंगभंग के बाद देश में उभरे प्रथम राष्ट्रवादी उच्छवास और बंग्ला नवजागरण की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है. नायक है गौरमोहन. जिसकी कोई जाति नहीं. विदेशी मूल का वह हिंदुस्तानी रवींद्र का नया नायक है.

हिन्दी साहित्य में विमर्श की कोई सम्यक पृष्ठभूमि नहीं रही. इसीलिए उपन्यास साहित्य के अध्ययन की स्थिति यहाँ बहुत समृद्ध नहीं है. मार्क्सवादी दौर में प्रगतिशील साहित्यालोचकों ने कूड़े का पहाड़ खड़ा करने के अलावा कुछ नहीं किया. हजारीप्रसाद द्विवेदी भक्तियुग में रह गए. नामवर सिंह कुल मिला कर कविता के आलोचक बन सके. उपन्यासों पर लोगों ने केवल प्रेमचंद की प्रदक्षिणा की. उससे आगे बढ़ ही नहीं सके. नलिनविलोचन शर्मा न होते तो रेणु को किनारे लगाने में लोगों को देर न लगी होती. यूँ भी आंचलिक कह कर रेणु को समेटने की भरसक कोशिश की गई. कहा गया यह विरुद तो अपने साहित्य के लिए उन्होंने स्वयं चुना था. अज्ञेय और यशपाल को अलग-अलग कारणों से किनारे कर दिया गया. फिर उपन्यास साहित्य के नाम पर कृत्रिम क्रांति और यथार्थ का कबाड़ और कुछ ऐसा ही खड़ा किया जाता रहा. आज तक हिन्दी साहित्य शीत युद्ध के मायाजाल से मुक्त नहीं हुआ है. प्रगतिशीलता की दुहाई देने वाले लेखक कुछ अधिक ज़िद्दी और झक्की हैं. विचारवाद जो इनके यहाँ पार्टीवाद हो गया है, से बाहर आना इनके लिए संभव नहीं है. हिन्दी का दुर्भाग्य कि यहाँ किसी महाश्वेता देवी का होना भी संभव नहीं हो सका. बहुत सारे क्रांतिकारी प्रगतिशील साहित्य लेखन के बीच हिन्दी में कोई ‘1084 वे की माँ’ भी नहीं लिखा गया. गरिमा श्रीवास्तव के इस उपन्यास को पढ़ते हुए ये सारे प्रश्न  मन में उठते हैं.

गौर किया जाना चाहिए प्रेमचंद अपने उपन्यास ‘गोदान’ में एक नए किस्म के नायक होरी को सामने लाये थे. सीमान्त किसान होरी कठिनाइयों  से जूझता हुआ अंततः दिहाड़ी मजदूर बन जाता है. यह एक युग की कथा है. फिर सामने आता है जैनेन्द्र का ‘त्यागपत्र.’ मृणाल के रूप में एक नए अंदाज की नायिका. जिसकी अपनी नैतिकता है और अपनी ही पवित्रता. इसकी सम्यक व्याख्या करना साहित्यालोचकों के लिए अब तक संभव नहीं हुआ है. तीसरे क्रम पर ‘ शेखर: एक जीवनी.’ हिन्दी में पहली बार एक नायक आया है, जिसकी घोषणा है वह नास्तिक है. वह क्रांति और जीवन के अंतर्विरोधों को समझने की कोशिश करता है. यह प्रश्न भी उठाता है कि जीवन के लिए क्रांति है या क्रांति के लिए जीवन. फिर आता है रेणु का ‘ मैला आँचल,’ जिसका नायक प्रशांत निर्जात है. उसकी जाति का कुछ पता नहीं. बारहों बरन से भरे मेरीगंज में वह नायक बन कर उभरता है. देश में लोकतंत्र स्थापित हो गया है, हर बालिग को मताधिकार मिल गया है, लेकिन किसी पिछड़े हुए समाज में इसकी चुनौतियाँ क्या हो सकती हैं, इस पर विचार करना  शेष है.

प्रगतिशील आलोचकों ने रेणु की उपेक्षा की उसके कारण थे. ये आलोचक स्वयं उन चुनौतियों से अनजान थे, जिनकी फ़िक्र कभी लंदन में बैठे कार्ल मार्क्स ने की थी और अपने भारत सम्बन्धी लेखों में अभिव्यक्त किया था. काव्यमयी भारतीय ग्रामीण बस्तियों के जिस स्वरूप को मार्क्स ने आधुनिक समाज केलिए अवरोधक माना था, उन्हीं के बीच से रेणु नए लोकतान्त्रिक समाज की संभावना ढूंढ़ रहे थे.

क्या होरी, मृणाल, शेखर और प्रशांत की कतार में मैं प्रतीति सेन को रख सकता हूँ? ऐसी नायिका जो बलात्कार से पैदा हुई, जो माँ को नहीं जान सकी, नानी के साथ पली-बढ़ी. हिन्दू-मुसलमान-इंडिया -पाकिस्तान-बांग्लादेश की राष्ट्रीयता और धर्म उससे गुत्थमगुत्था हो गए हैं. कहा न, रवीन्द्रनाथ टैगोर ही उसकी नागरिकता-राष्ट्रीयता तय कर सकते थे. प्रतीति सेन के माथे पर हाथ रख कर वह कहते     ‘मैं कहता था न राष्ट्रवाद की बेदी पर मैं मानवतावाद की बलि नहीं दे सकता.’

आउशवित्ज़ में कुछ दिनों के लिए गयी  प्रतीति सेन होलोकास्ट और यहूदियों के दमन के बीच अपने भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा देख रही है. तीन लाख लोगों का कत्लेआम और दो लाख से अधिक स्त्रियों  के बलात्कार की घटनाओं ने किसी को लिखने के लिए विवश  क्यों नहीं किया. यह उपन्यास दिवंगत बुद्धदेव बासु से सवाल करता है- बाबू मोशाय ! मैं प्रतीति सेन कौन हूँ? क्या आप ने मुझे पहचाना ! नहीं, आप नहीं पहचान पाएंगे. कोलकाता का भद्रलोक अपने हिसाब से देखता-बूझता है. आप जैसे लोग, जिन्हें टैगोर बड़ा-बड़ा छोटा लोग कहते थे, दुनिया जहान की बात करेंगे, लेकिन प्रतीति सेन को कभी नहीं पहचानेंगे.

 

The shoes of Holocaust victims in a room at the Auschwitz concentration , courtesy – dvidshub.net

(2)

उपन्यास में भाषा और कथा का निश्चय ही महत्त्व है, लेकिन केवल वही उपन्यास नहीं है. उपन्यास का केन्द्रक है विमर्श. लेकिन इसे महाकाव्य जैसी विश्वसनीयता की दरकार होती है. इसके अभाव में विमर्श की विश्वसनीयता भी संभव नहीं होती. इसलिए उपन्यास अपने अर्थों में इतना गझिन है कि इसकी कोई सरल और तय व्याख्या नहीं हो सकती. हमें यह स्वीकार करना होगा कि इस विधा का जन्म ही उस दौर में हुआ जब समाज में विमर्श की जरूरत थी. मध्ययुगीन सामाजिक मान्यताओं को नकारने और नए अंदाज में सोचने का सिलसिला आरम्भ हो गया था. एक मुकाम पर आकर उपन्यास इसका एक कलात्मक मंच बना. यह खुली, लेकिन अपने चरित्र में बेहद जटिल भद्र संसद थी. इसलिए उपन्यास लेखन केवल यथार्थ का प्रदर्शन भर नहीं है. लेखक को यह स्पष्ट करना है कि उसके इस यथार्थ का निहितार्थ क्या है; यानी इसके माध्यम से वह कहना क्या चाहता है. उसका वक्तव्य यदि विशेष नहीं है, तो फिर लिखने का कोई अर्थ नहीं. यह श्रम और स्याही की बर्बादी है.

उपन्यास लिखने में हमें व्यक्ति नहीं, सामाजिक दृष्टिकोण का ख्याल रखना चाहिए. जिस किसी जुबान में उपन्यास आए वहाँ के उस दौर और सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को देखेंगे तो यह पाएंगे कि इस विधा की एक अलग भूमिका थी. यह साहित्य तो है, लेकिन कविता से इस रूप में अलग है कि उस तरह कला केन्द्रित नहीं है. महाकाव्य से यह इस रूप में अलग है कि इसे पौराणिकता से परहेज है,अपने मूलचरित्र में यह लौकिक है, सच्चे अर्थों में सेकुलर. यही नहीं, इस में राजनीति, दर्शन, समाजविज्ञान सब गुत्थम-गुत्थ हैं. जो इन सब के संतुलन को नहीं संभाल सकते उन्हें उपन्यास-लेखन से दूर रहना चाहिए.

हिंदी में प्रेमचंद ने उपन्यास लेखन की जमीन तैयार की. उन्होंने ही इसे पहचान भी दिलाई. ऊपर जिन प्रतिनिधि उपन्यासों की चर्चा मैंने की है वे सब और कुछ अन्य उपन्यासों ने हमारे सामाजिक विमर्श को प्रगल्भता दी. लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर ही कहा है शीतयुद्ध के दौर में जब हिंदी पर मार्क्सवादियों का प्रभाव दूसरों से कुछ अधिक गहरा था, एक व्याधि यह विकसित हुई कि आत्मालोचना का स्पेस सिमटता चला गया. पार्टी और विचारधारा इतने महत्वपूर्ण घोषित कर दिए गए कि उनका एक देवत्व विकसित हो गया. विचार ईश्वर की तरह अनालोच्य होता चला गया. इससे गड़बड़ी यह विकसित हुई कि अन्तर्विरोधों को नजरअंदाज किया जाने लगा. एक जमाने में, मनुष्य क्या सोचता है, यह नहीं, बल्कि चर्च क्या सोचता है यह महत्वपूर्ण था. नए अर्थ में चर्च का स्थान पार्टी ने ले लिया. नेतागण नए पुरोहित-पादरी होते चले गए. रेणु की चर्चित कहानी ‘आत्मसाक्षी’ में यही तो होता है. पार्टी का पुराना कार्यकर्ता कॉमरेड गणपत एक रोज अपने को पार्टी और जमात से अलग अनुभव करता है. वह बहिष्कृत कर दिया गया है. एक राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर आउटडेटेड हो चुका है गणपत. उसकी पीड़ा हमारे लोकतान्त्रिक जीवन की पीड़ा है, जिस पर ध्यान कम लोगों का गया.

इस कहानी के जर्मनी भाषा में अनुवादक लोठार लुत्से ने इसे भारत में लोकतंत्र की समस्या से जोड़ कर देखा था. इसीलिए मैंने रेणु में प्रेमचंद की परंपरा का विकास जब चिह्नित किया, तो कुछ मित्रों को असहज लगा. प्रेमचंद का देवत्व वह इतना सुरक्षित-संरक्षित देखना चाहते हैं कि उससे कदम भर आगे बढ़ना उन्हें विचलन लगता है. इन्हीं कारणों से हिंदी में उपन्यास आलोचना की कोई बेहतर परंपरा नहीं विकसित हो पाई. लकीर के फ़कीर बनने के अपने मजे होते हैं. प्रेमचंद के ठीहे पर जमे रहने के भी बहुतेरे लाभ हैं. यूँ ही पुरोहितवाद आज तक नहीं जमा हुआ है. गुरुडम जब एक बार विकसित कर लिया जाय तब कई नालायक पीढ़ियां गुलछर्रे उड़ाती रह सकती हैं .

गरिमा श्रीवास्तव का यह उपन्यास इस पूरे विमर्श का एक मौन प्रत्युत्तर  है. यह कुछ नए प्रश्न  उठाता है और कुछ पुराने प्रश्नों  के उत्तर चिन्हित करता है. मुझे इस बात का पूरा अहसास है कि वर्तमान हिंदी उपन्यास आलोचना इसे नजरअंदाज कर जाएगी, क्योंकि यह उसके तय मानकों पर शायद खरा नहीं उतरे. लेकिन मुझे इस बात की उम्मीद भी है कि अंततः इसे समझा जाएगा. आलोचक भले नहीं समझें, पाठक अवश्य समझेगा. इसलिए कि एक नया पाठक वर्ग उभर रहा है, जो स्वतंत्र रूप से विचार करता है. वह आलोचकों के भरोसे अपनी राय नहीं बनाता, जैसे नया मनुष्य पादरी पुरोहित के बूते कोई राय नहीं बनाता.

उपन्यास बहुत सहज अंदाज में आरम्भ होता है-

‘सबीना स्केवित्ज़ से मिलना आकस्मिक नहीं था, उसका भारत आना और पोलैंड लौटना किसी भी अन्य सैलानी की तरह साधारण ही रहता, यदि मैंने उससे अपने शोध के बारे में बात नहीं की होती.’

यह चुस्त आरम्भ कहा जाएगा. कथावाचक ने सबीना, पोलैंड और शोध को पहले ही वाक्य में रख कर एक जिज्ञासा पैदा कर दी है. बिना किसी तामझाम के. कहीं  भी जटिल और काव्यात्मक शैली का प्रयोग नहीं किया गया है. उपन्यासों में काव्यात्मकता पेलने की एक प्रवृत्ति  आजकल विकसित हुई है. यह प्रवृत्ति उपन्यास और उसके लेखक दोनों को प्रभावहीन बनाती  है. प्रस्तुत उपन्यास इस दोष से पूरी तरह मुक्त है. भाषा की कोई जगलरी यहाँ उपलब्ध नहीं है. दरअसल लेखक के पास कहने के लिए बहुत कुछ है और उसके पास  पाठक को बांधे रखने  के लिए समृद्ध कथावितान है. इसलिए कहीं भी लेखक अवांतर प्रसंग उपस्थित करने की कोशिश नहीं करता. कुल सवा दो सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में फालतू प्रसंग पूरी तरह अनुपस्थित है, सिवाय कुछ काव्य-पंक्तियों के, जिनमें कुछ को तो सम्पादित किया ही जा सकता था.

लेखक के लिए आवश्यक होता है कि जो वह कहने जा रहा है, उसका सब कुछ नहीं भी, तो बहुलांश अनुभूत हो, केवल देखा गया नहीं. मैं नहीं कह सकता कि वर्णित प्रसंग और स्थान को लेखक ने कितना देखा है, किन्तु उपन्यास के वर्णन में कहीं कोई बनावटीपन या कृत्रिमता नहीं दीखती .वह चाहे बिराजित और द्रौपदी का दाम्पत्य प्रसंग हो अथवा हसनपुर का जीवन, जिसमें द्रौपदी देवी रहमाना खातून बन कर रह रही हैं.बरसात में तालाब से मछलियों का निकल कर भागना और उसमें रहमाना को जीवन की मुक्ति का दिखना ऐसा प्रसंग है, जो उसे विश्वसनीय बनाता है. बांग्ला जुबान, वहाँ की संस्कृति और सामाजिक राजनीतिक घटनाक्रम को लेखक ने किसी भावावेग में नहीं, पूरी स्थितप्रज्ञता से समझने और रखने की कोशिश की है. बंगला संवादों ने कथाक्रम को काफी हद तक विश्वसनीय बनाया है. कहीं ऐसा नहीं प्रतीत होता कि कुछ गढ़ा गया है. पश्चिम और पूर्वी बंगाल के भाषाई अंतर को इस उपन्यास के संवादों में चिन्हित किया जा सकता है .

उपन्यास में द्रौपदी देवी,टिया और प्रतीति सेन एक तरफ खड़े हैं तो दूसरी तरफ बिराजित,अभिरूप और मौलवी. बहुत संभव है कि किसी को बिराजित,मौलवी और अभिरूप  तीनों निर्दोष दिखें. लेकिन, द्रौपदी ,टिया और प्रतीति का ही दोष क्या है. अपनी नातिन प्रतीति जो उसके लिए खुकु भी है, को द्रौपदी देवी आख़िरी खत में लिखती है

“औरत का शोषण होता है उसकी कोख के कारण. नवजीवन का निर्माण करने वाली कोख ही उसकी सबसे बड़ी ताकत और कमजोरी है. क्या सोचती हो !टिया यदि लड़की न होती तो उसके साथ वह सब कुछ होता जो हुआ ! “ (पृष्ठ 217)

टैगोर के ख्यात उपन्यास ‘गोरा’ का गौरमोहन उपन्यास के अंत  में उद्विग्न है. ब्रह्म समाज के परेश बाबू, जिनका वह मौन किन्तु गहरा आलोचक रहा है, उनके पास वह मन की मुक्ति के लिए जाता है. आज उनकी प्रासंगिकता वह समझ पाया है. गोरा परेश बाबू से कहता है

“आज मैं मुक्त हूँ परेश बाबू ! अब मुझे यह याद नहीं है कि मैं पतित हो जाऊंगा या ब्रात्य हो जाऊंगा. अब मुझे पग-पग पर धरती की ओर देखते हुए अपनी शुचिता की रक्षा करते हुए नहीं चलना होगा.”

‘आउशवित्ज़ एक प्रेमकथा’ की प्रतीति सेन कथा के अवसान पर कुछ इसी तरह स्थितप्रज्ञ है. किसी पर उसका क्रोध नहीं है. बिराजित, अभिरूप और तमाम सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के प्रति उसमें शांत  भाव है.

“मेरी शिकायतें एक-एक कर के तिरोहित हो रही हैं. बचपन की कमी,टूटन सब मन पर निशान छोड़े हुए थी, तमाम प्रसंग मसलन अम्मा ने मुझे तब क्यों नहीं बताया कि वह मेरी माँ नहीं नानी है. स्कूल में मेरे नाम को लेकर कितने लोग मजाक बनाते थे. रहमाना खातून की बेटी प्रतीति सेन… डरती थी अम्मा से कुछ कहने से. और जब पता चला सच, तब फर्क पड़ने की उम्र जा चुकी थी. मुझ में आया कोई फर्क? आना चाहिए था क्या? जीवन भर कितने ही शिकवे शिकायतें चले आते हैं,पर उसका कोई अर्थ है घुटने मोड़ कर अपने पूर्वजों के अकथ अनंत दुखों की स्मृति में प्रार्थना करते आउशवित्ज़ के सैकड़ों लोगों के सामने? दर्द की राख से ही हमें वह दृष्टि मिलती है जब हम खुद को दर्द के सामने खड़ा कर डालते हैं कभी न्यायाधीश नहीं बनते.”

प्रतीति आउशवित्ज़ में प्रताड़ित लोगों की पीड़ा के सामने अपने दुःख को रख कर देखती है. और फिर अनुभव करती है कि केवल वही दुखी नहीं है. उसे एक नजरिया मिलता है, दृष्टि मिलती है. बरस जाने के बाद जैसे आकाश साफ़ हो जाता है, कुछ वैसा ही अनुभव कर रही है. अब वह जीवन को कुछ अधिक गहरे और पवित्र अर्थों में देख पा रही है. हम सीधे उसके ही शब्दों में देखें –

“अब जान पायी हूँ कि अभिरूप की सीमा को न समझ पाना दरअसल मेरी अपनी सीमा थी. जब हम किसी के साथ हँसते और रोते हैं, उसके साथ दिन-रात रहना चाहते हैं, समझते हैं कि यही प्रेम है और यहीं से अधिकार भाव शुरू हो जाता है. प्रेम वह नहीं कि दूसरे के साथ हम नम्र और मधुर रहें. किसी के जाने के बाद भी जो बच रहता है वह प्रेम है. उसी का विस्तार सब ओर है. बस देखने की आँख की जरूरत है. प्रेम और घृणा का उत्स एक ही है. घृणा प्रेम को बरजती है, प्रेम घृणा पर हावी होने की कोशिश करता है. प्रेम हमें वह ऊर्जा देता है  जिससे हम जीवन-सत्य का सामना कर सकते हैं. प्रेम व्यक्ति को स्वच्छंद उड़ान देता है, उसके पंख कतरता नहीं. प्रेम की ऊर्जा हमें दूसरों के दुःख में दुखी और सुख में सुखी होने की नीयत प्रदान करती है. …”

(पृष्ठ 219)

आउशवित्ज़ की प्रेमकथा प्रेम के मुक्त होने, उसके उन्मुक्त उड़ान भरने और अधिक मानवीय और वैश्विक होने की कथा है. युद्ध, नफ़रत, अलगाव और संत्रास से भरी इस दुनिया को नए दृष्टिकोण से अनुभव करने का एक फलसफा देता है. इसलिए यह उपन्यास बनता है. यहाँ कथा है, सन्देश है, विमर्श के तंतु हैं जिन पर हम  विचार कर सकते हैं. कोई बिराजित आखिर क्यों कायर बनता है ? कोई द्रौपदी क्यों रहमाना बना दी जाती है, प्रतीति की पहचान आखिर क्या हो सकती है? और आउशवित्ज़ के कंकालों से हसनपुर और कोलकाता की पीड़ा का कैसा अन्तर्सम्बन्ध है. ऐसे कुछ सवाल हमारे सामाजिक विमर्श को अधिक मानवीय बनाते हैं. इस उपन्यास का यदि अंग्रेजी या फ्रांसीसी अनुवाद हुआ तो इसे अधिक प्रबुद्ध पाठक मिलेंगे और इसका सम्यक मूल्यांकन हो सकेगा.

प्रेमकुमार मणि

बिहार के किसान पृष्ठभूमि के एक स्वतन्त्रता सेनानी पिता और शिक्षिका माँ के घर 25 जुलाई 1953 को जन्मे मणि ने विज्ञान विषयों के साथ स्नातक किया और फिर नवनालन्दा महाविहार में भिक्षु जगदीश काश्यप के सान्निध्य में रह कर बौद्धधर्म दर्शन की अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त की. छात्र जीवन में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, कुछ समय तक सरकारी नौकरी की और छोड़ी, राजनीतिक आन्दोलनों और सक्रियताओं से जुड़े, कथाकार, उपन्यासकार और प्रतिनिधि लेखक के रूप में पहचान बनाई और कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया. निरन्तर समसामयिक विषयों पर भी लिखते रहे. पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और लेखों के पाँच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं एवं अनेक कहानियों के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रांसिसी, उर्दू, तेलगु, बांग्ला, गुजराती और मराठी आदि भाषाओं में हो चुके हैं. लेखन के साथ वह अपनी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं.

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Comments 3

  1. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    9 months ago

    यह अदभुत उपन्यास है जिस पर प्रेम कुमार मणि ने विस्तार से लिखा है. मैंने इस उपन्यास को रूक रूक कर पढ़ा है.उपन्यास के विवरण इतने दारूण है कि एक साथ पढना सम्भव नही है.यह
    एक अनोखे विषय पर लिखा गया उपन्यास

    Reply
  2. रवि रंजन says:
    9 months ago

    रचनाकारों की आलोचना में प्राय: कृति के मर्म को उजागर करने की जो विलक्षण क्षमता होती है उसका बेहतरीन उदाहरण प्रेमकुमार मणि का यह आलेख है, जिसमें हिंदी उपन्यास -लेखन की परंपररा में विवेच्य कृति को रखकर उसका सम्यक मूल्यांकन किया गया है.
    इस गुण की वजह से ही आलोचना में रचनात्मकता आती है जो उसे पठनीय बनाती है और आम पाठकों को रचना के प्रति उन्मुख भी करती है.
    ‘आलोचना’,तद्भव और वागर्थ समेत अनेक पत्रिकाओं में इस उपन्यास पर लिखित कई पुस्तक -समीक्षाओं में यह आलेख संभवत : सबसे अधिक दृष्टि सम्पन्न है.
    रेणु पर लिखित मणि जी के दो-तीन निबंधों में जितनी व्यापकता और गहराई है उसकी कोरे आलोचकों से उम्मीद करना बेमानी है.
    उपन्यास पढ़ते हुए विक्टर फ्रैंकल की कृति ‘Man’s search for meaning’ के साथ ही अडॉरनो की पुस्तक ‘नेगेटिव डायलिक्टिक्स’ की बार बार याद आती है जो एक ऐसे दर्शन को प्रस्तावित करता है जो अवधारणाओं, वस्तुओं, विचारों और भौतिक जगत के बीच प्रचलित परस्पर संबंध को पुन:समायोजित करता है. वैसे तो आउशवित्ज़ एक स्थान है, पर यहूदी समुदाय के साथ साथ मानवतावाद के बुनियादी सिद्धांतों के पैरोकारों की क्षत -विक्षत् चेतना में यह होलोकास्ट से जुड़ा है जिसकी ख़ौफ़नाक छाया गरिमा श्रीवास्तव के इस उपन्यास में अपनी सारी त्रासद सघनता के साथ अनुस्यूत है. बांग्लादेश की मुक्ति के दौरान हुए अत्याचार का वर्णन इसे एशियाई सन्दर्भ प्रदान करता है.
    उपन्यासकार और आलोचक, दोनों को मुबारकबाद और इसे प्रकाशित करने के लिए सम्पादक को साधुवाद.

    Reply
  3. Anonymous says:
    9 months ago

    प्रेमकुमार मणि जी की पुस्तक -समीक्षा हिंदी के किसी भी श्रेष्ठ आलोचनात्मक निबंध के टक्कर की है.
    इसका कारण उनका प्रोफेसर होने के बजाय एक स्वतंत्र लेखक होना है. प्रोफ़ेसरों की आलोचना प्राय: बोझिल होती है. इसका अपवाद कम मिलेगा.
    पिछले साल एक सांस में यह उपन्यास पढ़ गया था. इसमें यहूदियों को दी गई यातना के चित्रण विचलित कर देने वाले हैं. इसे पढ़ते हुए प्रसिद्ध जर्मन उपन्यास The City without Jews की याद ताज़ा हो आती है जिसके प्रकाशन के बाद नाज़ी पार्टी के कार्यकर्ता द्वारा लेखक की हत्या कर दी गई थी.
    इस उपन्यास पर बाद में फ़िल्म भी बनी जो सफल हुई और इससे उपन्यास और ज़्यादा चर्चित हुआ.
    बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम के दौरान हिन्दुओं के साथ हुई बर्बारियत को पहले वर्णित कथा -सूत्र में सफलता के साथ पिरो देना उपन्यास की विशिष्टता है.
    विद्वान् समीक्षाक ने दुरुस्त फरमाया है कि यह कृति अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रांसीसी आदि भाषाओं में अनूदित होने पर ज़्यादा पढ़ी जाएगी. मैं इसमें हिब्रू और बांग्ला को भी जोड़ना चाहूंगा.

    Reply

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