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Home » बाहुबली : रवीन्द्र त्रिपाठी

बाहुबली : रवीन्द्र त्रिपाठी

जिन्होंने बाहुबली देख रखी थी उनमें से बहुत बाहुबली-२ देख कर निराश हुए पर जिस निर्मित और नियंत्रित उन्माद में इसे प्रस्तुत किया गया उसने आर्थिक रूप से इसे सफल फ़िल्म सिद्ध कर दिया है. क्या यह समय भव्य झूठ का है? चाहे सिनेमा हो या राजनीति हर जगह ‘निर्मित’ और ‘नियंत्रित’ भव्यता अपने को ‘सफल’ सिद्ध करा रही है. कुछ लोग बाहुबली श्रृंखला से इस लिए आनंदित है कि देखो प्राचीन भारत कितना महान था तो कुछ इस लिए कि अब हम भारत में भी हालीवुड सदृश्य भव्यता रच सकते हैं. पर जो लोग सिनेमा को गम्भीर कला माध्यम के रूप में लेते हैं और उसकी सार्थकता भी देखते हैं वे नाराज़ और निराश भी क्यों न हों. वर्तमान में भूत (काल) के आह्वान के कुछ अपने कारण और तर्क तो होते ही हैं. पर भव्यता के सामने तर्क निस्तेज दिखता है. और यही इस समय का संकट है. प्रसिद्ध कला आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठी ने बाहुबली जैसी घटना को हर तरह से देखने और समझने का गम्भीर प्रयास किया है. अब आह और वाह से आगे बढ़कर इसकी जरूरत भी है. यह ख़ास लेख समालोचन के पाठकों के लिए.

by arun dev
May 25, 2017
in फिल्म
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बाहुबली : रवीन्द्र त्रिपाठी
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‘बाहुबली’ – व्याख्याओं का लोकतंत्र (!) या अतिव्याख्या के खतरे         

रवीन्द्र त्रिपाठी

अब जब `बाहुबली’ श्रृंखला की दोनों फिल्में  (Baahubali: The Beginning),  (Baahubali 2: The Conclusion)  आ चुकी हैं और आम दर्शकों से लेकर बॉक्स ऑफिस पर   भी उसके निर्देशक केएस राजामौली का सिक्का जम चुका है तो समय आ गया है कि इसके बारे में कुछ ऐसी बातें भी की जाएं तो इसके बारे में हमारे परिप्रेक्ष्य का विस्तार करें.

ये तो सभी जानते हैं कि `बाहुबली’ `अमर चित्रकथा’ वाली कला शैली का ही फिल्मीकरण है. `अमर चित्रकथा’उस तरह की कॉमिक्स रही है जो बच्चों  (और बड़ों को भी) कल्पित प्राचीन युग में ले जाती हैं. अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी कहानियां किसी यथार्थ पर आधारित नहीं होती हैं. और ऐसा सिर्फ अमर चित्रकथाओं के साथ ही नहीं होता. दुनिया में जितने कॉमिक्स रहे हैं उनमें कल्पना की अतिरंजना होती है. `सुपरमैन’से लेकर `बैटमैन’या `कैप्टेन अमेरिका’श्रृंखला की फिल्मों में भी यही है. इसलिए `बाहुबली’ में जो अतिरंजनाएं या अतिशयोक्तियां दीखती हैं, जैसे कि बाहुबली अकेले हाथी के उत्पात को रोक देता है या महेंद्र और अमरेंद्र बाहुबली (दोनों ही भूमिकाओ में प्रभाष) युद्ध में ऐसे ऐसे कौशल दिखाते है जो आम आदमी के लिए संभव नहीं है, वह सब दुनिया भर में प्रचलित फिल्मी युक्तियों की कड़ी में है. 

नायकों का मिथकीकरण या अतिरंजनाकरण हमेशा होता रहा है, आज भी हो हो रहा और शायद हमेशा हो. ये जानते हुए कि सुपरमैन या बैटमेन होना संभव नहीं है हम उन सभी फिल्मों को देखते हैं और प्रभावित होते हैं. वे हमारा मनोरंजन करती हैं. ऐसी फिल्मे कल्ट फिल्में हो जाती है. बाहुबली भी अगर भारतीय कल्ट फिल्म हो गई है तो न इसमे किसी तरह की अनहोनी है और `हाय, ये कैसे हो सकता है’ वाली शैली में इसे संदिग्ध बनाने की जरूरत नहीं है. कल्पना हमेशा यथार्थ पर आधारित हो ये आवश्यक नहीं है. कई बार, यथार्थ से परे जाने की जरूरत होती है. बल्कि ये कहा जा सकता है कि दुनिया में कई ऐसी कहानियां हैं जो यथार्थ के परे जाकर ही रची है. `किस्सा हातिमताई’ से लेकर  हैरी पॉटर तक यही होता रहा है. और होता रहेगा. यथार्थ की अवहेलना नहीं होनी चाहिए. पर अतियथार्थ को नकारना भी कल्पना को कुंद करना है.

मुझे यहां `पेरिस रिव्यू’ में    दिए अर्जेटिनीयाई और स्पानी कवि होर्हे लुई बोर्हेस का एक साक्षात्कार याद आता है. बोर्हेस फिल्म के समीक्षक नहीं थे. लेकिन फिल्में काफी देखते थे. अमेरिकी वेस्टर्न फिल्मों के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने इस साक्षात्कार में  कहा कि ये फिल्में एक तरह से महाकाव्यात्मक फिल्में हैं. पूरी तरह से तो नहीं लेकिन एक हल्की महाकाव्यात्मकता इनमें है. क्या बाहुबली के बारे में बात करते हुए बोर्हेस के कथन को लागू किया जा सकता हैं. हालांकि किसे के कथन को दूसरी सांस्कृतिक संदर्भ में लागू करना एक तरह से भदेस आलोचनात्मक पद्धति है लेकिन कई बार चीजों को समझने के लिए इसकी जरूरत भी पड़ जाती है.  

भारतीय संदर्भ में देखें तो ऐसी महाकाव्यात्क फिल्में कम ही बनी है. हिंदी  में तो और भी कम हैं. एक `मुगले आजम’  ऐसी फिल्म है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उसने इस तरह के तत्व कुछ हद तक है. लेकिन ये फिल्म भी यथार्थ पर आधारित नहीं हैं. इसे ऐतिहासिक तथ्य के आलोक में जांचे तो इसकी कहानी को इतिहास पर आधारित कहना गलत होगा. ये तो कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के इर्दगिर्द रची गई कपोल कल्पना है. फिर भी ये हिंदी सिनेमा में इसके महत्त्व को कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. उतने बड़े फलक की तो नही, बल्कि अपेक्षाकृत छोटे फलक की `उमराव जान’(इस नाम से दो फिल्में बनीं, एक मुजफ्फर अली ने रेखा और फारूख शेख के साथ बनाई 1981 में और दूसरी जेपी दत्ता ने बनाई ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन  के साथ 2006 में)   कल्पना-आधारित हैं क्योंकि उमराव जान नाम की कोई शख्सियत लखनऊ के इतिहास में हुई ही नहीं.

तो कहानी, चाहे बोलकर सुनाई जाए, लिखकर कही जाए या फिल्मों के माध्यम से दिखाई जाए, कल्पना से रगीपगी होगी ही.  हो सकता है कि किसी किसी वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म बने, पर उसे भी सुनाने, लिखने या उस पर फिल्म बनाने में कल्पना का समावेश होता है. अब यह दीगर बात है कि कहने, सुनाने और लिखने की शैली में कल्पना का कितना सहारा लिय़ा गया है. वीरगाथाकालीन लोकमहाकाव्य आल्हा में एक जगह हाथी के बारे में कहा गया है कि उसका हौदा ही नौ कोसों में है. नौ कौसों में किसी हाथी का हौदा कैसे हो सकता है. और जिस हाथी का हौदा नौ कोसों में है वह कितना विशाल होगा? क्या ऐसा हाथी हो सकता है?

क्या कह सकते हैं कि बाहुबली लोक महाकाव्य की परंपरा का फिल्मी संस्करण है? मेरे खयाल से इस सवाल का विस्तार `हां’है. कई बार व्यावसायिक सफलताएं  अतिरिक्त डाह पैदा करती हैं. मुझे लगता है कि बाहुबली को लेकर कुछ आलोचको  के कोप का यही कारण है. और  व्यावसायिक असफलता भी कहीं को नहीं छोड़ती. जैसे आशुतोष गोवारीकर की फिल्म `मोहन जोदाड़ों’.  न सिर्फ दर्शकों ने इसे नापसंद किया वरन फिल्म समीक्षकों ने भी इसकी भूरि भूरि निंदा की. और उसके जिम्मेदार खुद इसके निर्देशक थे जिन्होंने एक बड़े फलक को विषय उसका निर्वाह इस तरह मानो एक ग्राम पंचायत पर आधारित फिल्म बना रहे हों. कोई फिल्मकार विषय का निर्वाह किस तरह करता है इस पर भी उसकी सफलता निर्भर करती है.

ये ठीक है कि राजामौली की ये फिल्म कोई महान फिल्म नहीं है. फिर भी ये लोकमहाकाव्य की उस पुरानी शैली के करीब है जिसकी कहानी में प्रेम, धोखा, प्रतिशोध, स्वामीभक्ति जैसे मूल्यों को अतिरंजित शैली मे पेश किया जाता है. हालाकि राजामौली ने इसमें आधुनिकता के कुछ तत्व भी डाल दिए हैं. जैसे `बाहुबली – २ ’ में देवसेना का चरित्र कुछ कुछ  उस आधुनिक नारी की तरह है जो अपने अधिकार के प्रति सजग है. लेकिन कटप्पा जैसा चरित्र भी है जो उस तरह से आधुनिक नही है क्योंकि वह न्याय की आधुनिक धारणा के करीब न होकर `स्वामीभक्ति’ की उस भावना से संचालित होता है जिसमें मालिक की हर बात माननी पड़ती है भले  ही वह गलत हो. इसलिए `कटप्पा ने बाहुबली को क्यो मारा’ वाला रहस्यपूर्ण सवाल भी समकालीन समय़ में उचित प्रतीत नहीं होता. इस तरह बाहुबली की श्रृंखला की दोनों फिल्में आधुनिकता और प्राचीनता के बीच कहीं टिकी हैं. 

क्या `बाहुबली’ श्रृंखला की दोनों फिल्मों को किसी अन्य वैचारिक आलोक में देखा जा सकता है? इसके उत्तर में दो बातें कही जा सकती है. एक तो जैसै जिंदगी के हर पहलू में कोई न कोई विचारधारा मौजूद होती है, भले ही हम उनके प्रति सजग हों या न हों, वैसे ही `बाहुबली’में सामान्य बोध में समा गए कुछ वैचारिक आग्रह हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इस प्रसंग में दूसरी बात ये कि इस फिल्म में कोई सजग वैचारिकता नहीं दीखती. कम के कम मुझे. कुछ लोग इसमें स्वर्णिम और भव्य भारत की छवि देख रहे हैं.

मेरे खयाल से ये एक बचकाना प्रयास है. इसमें अगर किसी तरह की कोई भव्यता है तो वह इसके मेकिंग या निर्माण में है. वह इसके रणक्षेत्रों में दिखाए गए हथियारों- तीरों, तलवारों, ढालों भालाओं, गदाओं आदि में है. युद्ध कौशलों में है. घुड़दौड़ों में है. पर ये निष्कर्ष निकालना कि माहिष्मती(जिस राज्य की कहानी इसमें है) वह किसी तरह के यूटोपिया का प्रतिनिधि है, उचित नहीं होगा. हां, अगर कोई यूटोपिया है तो उसी प्रकार का जिसका सामान्य बोध हम भारतीयों के भीतर सदियों से विकसित हुआ है और जिसमें राजा तो बलवान और न्यायप्रिय हुआ करता था और उसके विरूद्ध षडयंत्र होते रहते थे. या इसी के मिलते जुलते रूप वाला कोई और यूटिपिया. इसी तरह `बाहुबली’ को सामंतवाद का प्रतिनिधि कहना भी ठीक नहीं. हाँ, इसकी पृष्ठभूमि में सामंतवाद है क्योंकि हर राजा की कहानी सामंतवाद से जुड़ी रहती है. मैं फिर से दुहराऊंगा कि `बाहुबली’ लोक महाकाव्यों वाली उस परंपरा में है जिसमें सामंती या अर्धसामंती विचारसरणियां निबद्ध होती थीं  पर मुख्य जोर कथा कहने की शैली पर होता था. मिसाल के लिए आज अगर कोई आल्हा-उदल की वीरता पर आधारित फिल्म बनाए तो वह सामंतवादी ढांचे पर ही खड़ी होगी. पर क्या वह सामंतवाद की वकालत करनेवाली होगी?  मेरे विचार से नहीं. 

हम उस युग या समय में आ गए हैं जहां पुरानी वीरगाथाओं की परंपरा संभव नहीं. पर पुरानी वीरगाथाओं की स्मृतियां हमारे भीतर हैं. उनकी कथाशैली या वर्णनशैली में जो खास तरह का रस होता था और इस कारण वे हमारे भीतर झनझनाती रहती थीं. बाहुबली में उस वर्णन शैली का फिल्मीकरण हुआ है. वैसे हर फिल्म या रचना में `दूर की कौड़ी’ ढूंढी जा सकती है. इसलिए `बाहुबली’को लेकर भी इस तरह के प्रयास होते रहेंगे. आखिर `शोले’ के कुछ पश्चिमी अध्येताओं नें उसमें जय-वीरू (जिसे क्रमश: अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र ने निभाया था) के संबंधों में समलैगिकता ढूंढ ली थी. इस तरह की व्याख्याओं का क्या करेंगे आप? तुलसीदास कह गए हैं- ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’.

इसलिए व्य़ाख्याओं का लोकतंत्र(!) भी बना रहे तो क्या आपत्ति? अतिव्याख्या का आलम तो ये है कि निर्मल वर्मा  जैसे बड़े लेखक जब कुंभ यात्रा पर गए तो वहां उनको ईसाइयत के `पापबोध’  और `कनफेशन’ के चिन्ह भी मिल गए थे. बिना यह समझे हुए कि इन दोनों अवधारणाओं का हिंदु धर्म या कुंभ यात्रा से कुछ लेना देना नहीं है. कुल मिलाकर ये कि बड़े बड़े व्याख्याकार भी अतिव्याख्या के फंदे में फंस जाते हैं.

रवीन्द्र त्रिपाठी, टीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है’ प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग‘ और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया ‘ का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि
tripathi.ravindra@gmail.com

Tags: बाहुबलीरवीन्द्र त्रिपाठी
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