जयप्रभुदेवकिंशुक गुप्ता |
कहने को तो आज आखिरी रात है जब मैं और सुहानी एक साथ हैं, पर उसके साथ घर में रुकना—और एक बार फिर अभिनय करते पात्रों में तब्दील हो जाना—बड़ा ही बे-मानी लगा. काम खत्म होते ही मैं सुनिधि के चाणक्य पुरी स्थित घर की ओर निकल पड़ा. साफ़- शफ़्फ़ाफ़ घर में पारलौकिक शांति, दिपदिपाती रौशनी का सैलाब, पर हल्के गुलाबी रंग का ढीला-सा कुर्ते पहने सुनिधि का वैसा ही मुरझाया चेहरा, आँखों के नीचे डार्क घेरे.
“अब तो आर्यन भी ठीक है, फिर क्यों उदास हो?” वो काफी देर चुपचाप खड़ी खिड़की से बाहर घिरती रात को देखती रही. फिर मैंने ही जोड़ दिया, “अभी तुम सो जाओ. मैं जाते समय उठा जाऊँगा.”
“तुम आर्यन से मिलने मत आया करो.” वह झेंपती-सी, दबे स्वर में कहती है.
“क्यों?” मैं हतप्रभ-सा पूछता हूँ.
“वह तुम्हें अपना पिता मानने लगा है.”
मैं कुछ बोल नहीं पाता, बस उसके कंधे पर अपना हाथ धीरे-से रख देता हूँ. मेरे स्पर्श में अधिकार की कोई दृढ़ता नहीं, विश्वास की मृदुता है— वही विश्वास के धागे जो उसने उस दिन मेरी ओर अनायास ही बढ़ा दिए थे. पर वह कंधे उचका कर मेरा हाथ हटा देती है.
मैं जानता हूँ कि आर्यन के लिए अस्पताल दौड़ते-भागते रहने से वह थक गई है. टाइफॉइड से कहीं ज्यादा वह थक गई है, उस डर से- जिसने बाढ़ के पानी की तरह उसके सामने की सारी ठोस ज़मीन को सोख लिया है—कि किसी तरह परिस्थितियाँ उससे अनुराग की तरह आर्यन को भी छीन लेंगी.
क्या उन दिनों मेरी अनुपस्थिति भी इस अबोले विश्वास को चकनाचूर करने में भागीदार नहीं रही होगी?
2.
दूर-दूर तक आदमी की कोई परछाईं नहीं, भौंकते कुत्तों के झुंड या जुगाली करते बैल नहीं, आवाज़ का कतरा नहीं—मानो रास्ता किसी शोक में लीन हो. बस पीली रोशनी की एक लंबी कतार बीच से सड़क को चीरती अनंत की ओर जाती दिखाई देती है. मैं अपनी गाड़ी सुनिधि के घर छोड़ आया हूँ. ठंड में काँपता, मैं अपने हाथ लाल चेक वाले मफलर से ढँकता, स्ट्रीटलाईट की रोशनी की सीध में बढ़ता चला जाता हूँ. दिमाग में बेतरतीब अनर्गल ख्याल हैं, सड़क पर चलते वाहनों की तरह एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड. मुझे बार-बार सफेद धोती पहने जयप्रभुदेव याद आ रहे हैं, स्टेज पर बैठे, गुरु या मोक्ष के बारे में कबीर या तुलसी का कोई दोहा सुनाते, सामने बैठी भीड़ को “बच्चा, बच्चा” कहकर, तोड़-मरोड़कर उसका अर्थ समझाते हुए.
द हिंदू के एसोसिएट एडिटर के पद पर पंद्रह साल की नौकरी में खबरें ढूँढते हुए न जाने हम कितने दुरूह गाँवों-कस्बों में गए, हज़ारों लोगों की प्रतिक्रियाएँ इकट्ठी कीं, कुर्सियों में धँसे तुंदियल नेताओं पर स्टिंग ऑपरेशन करवाए— कितनी सनसनीखेज़, हैरतंगेज़ खबरें छापीं, जिन्हें पढ़कर कभी-कभी सच भी गल्प जैसा लगे.
“धार्मिक गुरु के चक्कर में फँसकर पत्नी ने दिया तलाक” हमारे तलाक की अगर खबर बनी, तो वह भी कुछ ऐसी ही चटपटी होगी. उसमें ब्यौरा होगा कन्नौज के जयप्रभुदेव का, उनके भक्तों की भीड़ का, कुछ अंदर के लोगों का वक्तव्य भी जो गुरु की तारीफ के क़सीदे पढ़ेंगे. सब चाय की चुस्कियों के साथ कयास लगाएंगे, डिटेक्टिव हैट पहन हमारे तलाक के अनुमानित कारणों की एक लंबी सूची तैयार करेंगे.
कल सुहानी के दस्तख़त के बाद एक या ज्यादा-से-ज्यादा दो महीनों में जज के सामने हमारे तलाक की लंबी प्रक्रिया का अंत हो जाएगा. कैसा लगता होगा तलाक के तुरंत बाद— क्या सिर्फ आज़ादी का डोपामीन रश ही महसूस होता होगा या रिश्ते को एक मौका न देने का अपराध-बोध घेर लेता होगा? शायद इसी “काश…” से बचाने के लिए ही विवाह-विच्छेद की यह प्रक्रिया इतनी लंबी है, शायद तभी सब लोग बार-बार पूछते रहते हैं— क्या यही तुम दोनों का अंतिम फैसला है.
क्या ग्लानि की यही लिजलिजी भावना मुझे भी घेर लेगी-नहीं, बिल्कुल नहीं! एक और मौका रिश्ते को च्यूइंगम की तरह खींचना होगा, कुछ समय और जयप्रभुदेव की उसकी सनक के साथ गुजारना होगा, हर कमरे में लगे फोटो फ्रेम में जड़े उनके मोम की तरह पिघलते चेहरे को देखना होगा, और फटी आवाज़ में उनके उपदेशों को सुनना होगा.
जब से मैंने तलाक की बात अपने घर में बताई है, मम्मी-पापा हर शाम फोन करते हैं. वीडियो कॉल में डाइनिंग टेबल पर आमने-सामने हम लोग बैठे रहते हैं, जब माँ माथे पर त्योरियाँ चढ़ा पूछती हैं, “तुम सुहानी के बारे में क्यों नहीं सोचते?”
पिता आँखें चुराते हुए समझाने की कोशिश करते हैं, “इस उम्र में मन बहक जाता है. इस भटकन का कोई अंत नहीं.”
फोन रखने से पहले हम कुछ और मिनट चुपचाप एक-दूसरे को घूरते रहते हैं. मैं उनकी आरोप भरी आँखें—जिनमें सुनिधि का नाम अटका हुआ है— देखकर सिहर जाता हूँ, पर नहीं समझ पाता किस तरह मैं अपने या सुनिधि के स्वाभिमान को उन बेबुनियाद सवालों के गारे में लिथड़ने से बचाऊँ?
मैंने सुनिधि से पूछा था, “क्या मैं इन प्रश्न सूचक निगाहों से बच जाता अगर तलाक की माँग सुहानी करती?”
उसने चाय में चीनी डालते हुए लापरवाही से कहा था, “मिडिल क्लास पति कभी नहीं बच पाते.”
3.
उस रात चावल के बीच बनाए गड्ढे में दाल डालते वक्त मैंने सुहानी की ओर बिना देखे तलाक की बात कह दी. मैं उससे नज़रें चुराता टी.वी. की ओर देखता रहा, जब मुझे आभास हुआ उसकी मुझे घूरती निगाहों का. टी. वी. पर किसी के खिलखिलाकर हँसने का शोर चलता रहा और मैं चोर नज़रों से सुहानी को रोटी के बड़े-बड़े कौर मुँह में डालता देखता रहा.
खाँसी के एक धसके से उसके मुँह में ठुँसे रोटी के अधचबाए गस्से पूरी कमरे में जगह-जगह छितर गए और वह फफककर रोने लगी.
मैंने तुरंत पानी का गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया, “तुम रुपयों के बारे में बिल्कुल चिंता मत करो.” वह मेरी ओर हल्की-सी झुकी, शायद मेरे गले लग जाने को, पर मेरे शरीर में अजीब-सा खिंचाव आ गया जिसे महसूस कर वह दीवार से टेक लगाकर निढाल पड़ गई.
देर रात वह मेरे कमरे में आई, देर तक कमरे की चौखट पर खड़ी मुझे निहारती रही. मैंने भी अपनी आँखें बंद रखीं, लेकिन जब वह मेरे बालों में हाथ फिराकर जाने लगी, मैंने उसे आवाज़ दी, “इतनी देर तक जगी हुई हो.”
“हाँ…नहीं…मेरा मतलब तुम आराम करो.”
“इधर आओ.” मैंने उसके लिए बिस्तर पर जगह बनाते हुए कहा.
“जयप्रभुदेव के लिए तुम्हारी श्रद्धा मुझे सनक लगती है. मैं इतना घुट-घुटकर नहीं जी सकता.”
“या तुम कुढ़ते हो कि ओशो जितनी पॉपुलैरिटी के बावजूद उन पर कोई आरोप नहीं, ‘कॉनमैन’ या ‘सेक्स गुरु’ जैसे भद्दे निकनेम नहीं.” उसने तुनककर कहा.
“दोनों की आपस में कोई तुलना नहीं. उनके वक्त, भक्त और फिलोसॉफी में बहुत अंतर है.”
“तुम्हें क्यों चिढ़ है कि प्रभुजी के ज्यादातर भक्त गरीब हैं? सबके पास कम्यून में जाने और लाल लबादे ओढ़कर पागलों की तरह नाचने के पैसे नहीं होते.”
“बात तो ये है कि तुम कुछ सुनना ही नहीं चाहतीं. मुझे अगर तुम्हारे गुरु की बातें बचकानी लगती हैं, उससे तुम्हें क्यों बुरा लगता है?”
“क्योंकि मुझे भी जीवन के केंद्र में सेक्स की बात बचकानी लगती है. जीवन के केंद्र में मोक्ष की इच्छा ही हो सकती है.” उसने एक बच्चे की तरह हठ करते हुए कहा.
“पहली बात ओशो ने संभोग से समाधि की बात की है, और दूसरी बात मैं बिना तर्क के किसी की कोई भी बात नहीं मानता.” फिर जोड़ दिया, “तुम्हारी अंधी श्रद्धा के कारण हमारा अपना बच्चा नहीं है.”
“बच्चे का लालच देकर तुम्हें उस सुनिधि ने फँसा लिया है. बचपन से ही उसने छोटी होने का नाजाएज़ फायदा उठाया है.” वह दरवाजा भाड़ से बंद करके चली गई.
“ऐसा कुछ भी नहीं है.” शब्द मेरे मुँह में घुटकर रह गए.
4.
चलते-चलते मेरे पैर दुखने लगे हैं. शरीर को भेदती ठंडी हवाओं के थपेड़ों से सिर झनझना रहा है. ख्यालों के झुरमुट ने रोशनी को एक बार फिर सोख लिया है. अच्छा होता अगर जयप्रभुदेव का अस्तित्व नहीं होता…या वह किसी धोखाधड़ी या बलात्कार के चक्कर में फँस सलाखों के पीछे पहुँच जाता—शायद हमारी शादी बच जाती.
पर इससे भी बेहतर होता अगर मैं उस दिन सुहानी के साथ घर पर होता, न कि उस मामूली राइजिंग जर्नलिस्ट अवॉर्ड लेने के लिए शिमला के विलो बैंक्स होटल में. आधी रात में सुहानी दर्द से कराहती रही, फ्लैट की साउंड प्रूफ दीवारों के कारण साथ में रहने वाले मिस्टर एण्ड मिसेज़ कुलकर्णी नहीं सुन पाए. सुहानी हिम्मत करके डाइनिंग टेबल तक अपना फोन उठाने गई- जो वह बच्चे को रेडिएशन के खतरे से बचाने के लिए वहाँ रखती थी- पर दर्द की एक तीखी लहर ने उसे बीच में ही निढ़ाल कर दिया.
जब उसे होश आया तब मरी मछली की गंध से भरा हरा एमनियोटिक फ्लुइड उसके चारों ओर फैला हुआ था. फिर साहस बटोर कर वह खिसकते-खिसकते पहुँची थी डाइनिंग टेबल तक और घुमा दिया था कुलकर्णी दंपति को फोन.
मिसेज़ कुलकर्णी ने घबराई आवाज़ में मुझे फोन पर बताया था, “शैलेश तुम कहाँ हो? जल्दी अपोलो हस्पताल पहुँचो. सुहानी इज़ इन लेबर.”
“पर मैं अभी शिमला में हूँ. सुबह से पहले दिल्ली नहीं पहुँच पाऊँगा.” बिस्तर से हड़बड़ाया हुआ मैं खड़ा हो गया था.
“बच्चा क्या सिर्फ माँओं का होता है?” उन्होंने चीखती आवाज़ में कहा था और मेरा जवाब सुनने से पहले ही फोन काट दिया था.
जब तक अपोलो हस्पताल की हीटेड लॉबी में दाखिल हो पाया, तब तक सूरज सिर पर चढ़ आया था. हल्की धूप की फुरहरी छुअन बदन को सहला रही थी. खासकर पूरे रास्ते हुई घमासान बारिश के बाद. स्लेटी बादलों के आकाश में जमे थक्के, देवदार और चीड़ की भीगी टहनियों के बस की खिड़की से अंदर घुसने, हर मोड़ पर ब्रेक की तीखी आवाज़ से मैं इतना डरा हुआ था कि पूरे रास्ते दम साधे बैठा रहा.
मिसेज़ कुलकर्णी के उस कॉल के बाद दो और कॉल आए-एक ढाई बजे, दूसरा पाँच बजे- लेकिन मैंने उन्हें नहीं उठाया था. सर्दियों की वह बेमौसम बरसात और सुहानी के आठवें महीने में लेबर पेन जैसे किसी आगामी बुरी खबर की ओर संकेत कर रहे थे जिससे रूबरू होने की ताकत उस समय मेरे अंदर नहीं थी. मोबाइल बंद कर देना सच को कुछ समय के लिए टाल देना था. अपने लिए आरामदायक सच गढ़ने और उसी को बार-बार दुहराने का बहुमूल्य समय.
काला सूट पहने और लाल टाई लगाए रिसेप्शनिस्ट से पूछने पर पता चला कि सुहानी तीसरे फ्लोर के कमरा नं 301 में दाखिल है. उसी से बच्चे के बारे में पूछने को हुआ था, पर मुझे वहाँ खड़ा पाकर उसी ने अदब से पूछा, “कैन आई हेल्प यू विद समथिंग एल्स?”
उसके पूछने में कुछ अजीब औपचारिकता थी या शायद मैं खुद ही सच को थोड़ा और धकेल देना चाहता था कि बिना उससे कुछ पूछे मैं लिफ्ट में सवार होकर तीसरे फ्लोर की ओर बढ़ गया.
लिफ्ट से उतरने के बाद मैं सधे कदमों से सुहानी के कमरे की ओर बढ़ने लगा. साँस ऊपर-नीचे होती रही. कमरे की पारदर्शी खिड़की में लगे पर्दों की कतरनों से अंदर झाँका और सुहानी के करीब पालना देखकर मेरे हाथों से बैग छूट गया.
मैं उमगता हुआ अंदर घुसा और तुरंत पालने में पड़ा अपना बच्चा गोद में उठा लिया. मेरी हथेली से छोटा मुँह, बड़ी-बड़ी आँखें, चौड़ा माथा, कानों और गालों पर चमकता सुनहरे रोयें.
“उसकी आँखें तुम पर गई थीं और बाकी चेहरा मुझ पर.” सुहानी का विरक्त स्वर.
“थीं क्यों कह रही हो?” यह कहते ही जैसे सारा सच खुद-ब-खुद मेरे सामने खुल गया. नहीं जानता क्यों अपना हाथ उसके गालों से हटा मैंने उसे पालने में लगभग फेंक दिया. सुहानी की एक सिसकी निकली. मैं अपना माथा उसके माथे से सटाए सॉरी बोलता रहा और हम दोनों की रोने की आवाज़ों से कमरा ऐसे भर गया जैसे कोई नवजात रो रहा हो.
5.
हॉस्पिटल में उस दिन हमारे बीच ऐसा सामीप्य पनपा था जिसका एहसास अतीन्द्रिय था, जिससे उपजे प्रेम को हमने मन के किसी अछूते कोने में महसूस किया था.
सुहानी ने फफकते हुए मुझसे कहा था, “मुझे बच्चे की बॉडी डोनेट करनी है.”
मैंने अपना हाथ उसके माथे से हटा लिया था, “डोनेट क्यों?”
“क्या फर्क पड़ता है? ज़मीन में दबने, कीड़े-मकौड़े का भोजन बनने से अच्छा है मेडिकल साइंस के लिए काम आएगा यह शरीर.”
“लेकिन परिवार के बाकी सदस्य नहीं मानेंगे.”
“फॉर्म तो मैंने पहले ही भर दिया था. बस तुम्हारे सिग्नेचर की ज़रूरत है.”
सरकारी मेडिकल कॉलेजों पर स्पेशल रिपोर्ट करते हुए जब मैंने दिल्ली के कुछ नामचीन कॉलेजों का जायज़ा लिया था तो वहीं के एनाटोमी म्यूज़ियम में देखे थे काँच के बड़े डिब्बों में नाव की तरह अपना शरीर सिकोड़े, फॉर्मेलिन के तालाब में तैरते, आँखे बंद किए शिशु. पर अपने बच्चे—अपने अंश—के शरीर को स्कैलपेल की तेज़ धार के नीचे कैसे निरीह छोड़ दूँ? मेरा मन नहीं माना था, पर सुहानी की मानसिक हालत ठीक नहीं थी, और मैं झगड़कर उसे और कष्ट नहीं देना चाहता था.
“फॉर्म पर साइन कर दूँगा. बच्चे को तुमने अपने शरीर में इतने महीनों रखा है इसलिए निर्णय का पहला हक तुम्हारा है.” फिर कुछ देर रुककर पूछा, “पक्का ये सब रिसर्च के लिए कर रही हो?”
“और क्या?” वह सामने देखते हुए बोली. पर जब मैं देर तक वहीं खड़ा रहा, तब अपने आप ही कहने लगी, “डॉक्टर ने वायदा किया है कि मुझे एक महीने में एक बार देखने देंगे.”
“किसी भी चमत्कार से तुम उसमें जान नहीं फूँक पाओगी. बाकी तुम्हारी मर्ज़ी.” मैंने फॉर्म पर दस्तख़त करते हुए कहा.
अगली सुबह उस फॉर्म को उसने अपनी छातियों के बीच रख ऐसे सहलाया जैसे धसका आने पर बच्चे की पीठ थपकते हैं. फॉर्म के टुकड़े करती गई और रोती रही. फिर सभी टुकड़ों को अपने ऊपर छितरा लिया—जाओ मैंने तुम्हें आज़ाद किया शिशु!
ज़मीन पर आड़े-तिरछे पड़े टुकड़े ऐसे लग रहे थे जैसे कब्रिस्तान में हज़ारों हेडस्टोन.
6.
उसके बाद स्थितियाँ अचानक बिगड़ने लगीं. सुहानी अवसाद के गहरे दलदल में धँसती चली गई जिससे निकलने की कोशिश में वह हर रोज़ और गहरी धँसती जाती. घर से उसका मन उचट गया था— तब उसने बनानी शुरू की थी मॉडर्न आर्ट. यानी विभिन्न तरह के आपस में उलझे गोले, तिकोने या चौकोर जो अचेतन मन की गझिन परतों को उघाड़ कर सामने रख देते हैं.
बहुत मन से, एकाग्र होकर वह आकृतियाँ बनाती, लेकिन रंग भरते हुए अक्सर अपने बनाए पैटर्न में खुद ही उलझ जाती. देखते-ही-देखते वृत्त ओझल हो जाता. लाल रंग में डूबी कूची को वापिस रख वह दूसरे रंग में डुबाती पर जैसे ही दूसरे रंग का स्ट्रोक मारती, छिपा गोला एक बार फिर दिखने लगता, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती और वह पूरी पेंटिंग पर एक काला काँटा मार देती.
सुनिधि उस कठिन समय में कसकर थामे रही थी उसका हाथ. हर शाम मिल्टन के थर्मस में चाय और खाने का कुछ नाश्ता लेकर आती और दोनों घंटों सोसायटी के बगीचे में बैठे देखते रहते— आवाजाही करते वाहन, लाल गुलाब और सफेद गुलदावदी की एकांतर कतारें, झूलों पर दौड़ते-कूदते बच्चे, फ्लोरोसेंट रंगों के ट्रैकसूट में सैर करते लोग.
मैंने सोचा था कि प्रकृति की व्यापकता, उसमें निहित सत्य की तान फफूँद की तरह फैलते उसके खालीपन को भर देंगी. सरसराती हवाएँ, गुनगुनी धूप, झूमते पेड़ उसे जीवन के विराट सत्य से अवगत कराने में सफल हो जाएंगे पर उसके मन की खिड़कियों में तो शायद इतना धुआँ भरा था कि प्रकृति का रूहानी सौंदर्य भी उसमें कोई झनझनाहट नहीं पैदा कर पाया था.
तब सुनिधि ने दार्शनिक के स्वर में कहा था, “प्रकृति भरे को और भर देती है, खाली को और खाली कर जाती है. तभी तो ऋषि मुनियों ने मृत्यु के सभी सूत्र हिमालय के विराट पर्वतों के बीच बैठकर बताए.”
मनोचिकित्सक द्वारा दी नींद की गोलियों का असर जब भी घटता, वो खिड़की पर खड़ी डूबता सूरज देखती. सुनिधि बहुत कोशिश करती उसका मन बहलाने, बाज़ार में दिखाती रहती रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, चप्पल और लिपस्टिक, पर कहीं-न-कहीं उसे दिख जाता दूध की बोतल मुँह में लगाए प्रैम में सोता बच्चा या कोई हृष्ट-पुष्ट, गोरे बच्चे का हँसता हुआ चित्र और अतीत की खटखटाहट उसे फिर झिंझोड़ देती.
“तुमने मेरा बच्चा ज़मीन में गाड़ दिया. तुमने मेरे बच्चे को मार डाला.” उसने आरोप लगाया और मैं भौंचक्क. गुस्से से मेरे चेहरा तमतमा गया, पर मनोचिकित्सक की कड़ी हिदायत थी कि मुझे सब्र से काम लेना होगा और मैं उसके सारे प्रहार झेलता जाता.
सुहानी की देखभाल करना जैसे बिजली की नंगी तार पकड़े रहना था, उसकी उदासी, आक्रोश और झल्लाहट को एक स्पंज की तरह सोखते जाना. एक शून्यता मेरे अंदर पैठती जा रही थी जिसका सीलापन थेरेपिस्ट से घंटों बात करने पर भी नहीं उतरता था. मन के अँधेरे तहखानों को जरूरत थी प्रेम की घनिष्ठता की, जिसे न सिर्फ सुनिधि ने समझा, बल्कि आर्यन के निस्वार्थ प्रेम से मेरे अंदर गहराती नीरवता को ठेलने की कोशिश भी की.
पर हमारी गृहस्थी की नाव को वह चप्पू मारकर कितना दूर तक ठेल सकती थी? अनसुना करती रही काले जादू, टोने-टोटकों के सुहानी द्वारा लगाए सारे आरोप, पर उसकी हिम्मत का कभी-न-कभी तो टूट जाना निश्चित ही था. उस दिन सुहानी आर्यन के रोने की आवाज़ से कच्ची नींद में उठ गई और आर्यन को बड़ी बेरहमी से प्रैम से उठाकर दो थप्पड़ जड़ दिए. सुनिधि ने मुट्ठियाँ भींचकर अपने गुस्से को जज़्ब कर लिया पर हमारे घर कभी न आने की कसम खा उलटे पैर लौट गई.
7.
उन्हीं दिनों सुहानी को मिले थे जयप्रभुदेव. टाट के कपड़े पहने उनके भक्त सोसायटी के सामने की दीवार पर गुलाबी रंग से लिख रहे थे “शाकाहार अपनाओ, धरती बचाओ.” फिर गुलाबी टोपियाँ पहने और हाथों में सफेद झंडे पकड़े, जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में जयप्रभुदेव लिखा हुआ था, उन लोगों ने ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाए—
‘गौहत्या करने वालों को फाँसी हो’
‘गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करो’
‘जीवों पर दया करो. शाकाहारी बनो’
‘जय प्रभुदेव!’
सुहानी शुरुआत से ही शाकाहार की बड़ी समर्थक रही थी, उसके ऊपर उन ज़मीनी लोगों की सात्विकता और गुरु भक्ति, फिर यू-ट्यूब पर प्रभु महाराज के प्रवचन सुन उन पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाई.
“तुम्हें भी सुनना चाहिए बाबाजी को.” पूरी रात उनके भाषण सुनने के बाद सुबह वह बोली. उस दिन छह महीनों बाद उसके चेहरे पर संतोष के छींटे थे, और मैं उसकी क्षणिक शांति को अपने तर्क के पत्थर से भेदना नहीं चाहता था. मैं हल्के- से मुसकुरा दिया.
उन्हीं दिनों सिरसा के राम रहीम की खबर आग पकड़े हुए थी. कुछ दिनों पहले ही बाबा के किसी समर्पित भक्त की बेटी ने दावा किया था की डेरा सच्चा सौदा आश्रम की रहस्यमयी गुफा में ईश्वर से साक्षात्कार के नाम पर गुरु द्वारा नाजायज़ शारीरिक संबंध बनाए जाते थे. इस पूरे स्कैंडल की छान-बीन, मैं न केवल कोई सनसनीखेज़ खबर ढूँढने के लिए कर रहा था, बल्कि व्यक्तिगत कारणों से भी इन सो-कॉल्ड स्पिरिचुअल टीचरों के बारे में रिसर्च करने में मेरी रुचि थी. खासकर जयप्रभुदेव पर.
उत्तर भारत के रामपाल और आसाराम से लेकर दक्षिण भारत के नित्यानंद और सत्य साईं बाबा तक सभी पर संगीन अपराध के दर्जनों भर आरोप. बलात्कार, टैक्स चोरी, ड्रग्स की खरीद-फरोख़्त, सरकारी ज़मीन पर अपने भव्य आश्रमों का निर्माण. सभी हजारों करोड़ के मालिक, मर्सिडीज़ में घूमने वाले, लाखों-करोड़ों देशी-विदेशी भक्तों की पलटन लिए कानून से भिड़ जाने को तैयार. बस थोड़ी-सी जाँच-पड़ताल और सभी एक थाली के चट्टे-बट्टे.
इन सबमें जयप्रभुदेव—जिनका असली नाम मनोहर था और जिनकी शिक्षा की बात संदिग्ध थी—की छवि थोड़ी अलग दिखाई पड़ती थी. कारण यह कि उनके भक्तों की संख्या कम थी और ज्यादातर भक्त गरीब समुदाय से ताल्लुक रखने वाले. सादे-सफेद कपड़ों में निरीह दिखते, नाक में ऑक्सीजन की नली डली हुई, जिनके एक कहने पर अनुयायियों ने टाट धारण कर ली क्योंकि उनके अनुसार वनवास के दौरान राम-सीता ने भी वही वलकल वस्त्र धारण किए थे. यू-ट्यूब पर उनके भाषण सुनने की कोशिश की, पर उनकी आवाज़ फटी-फटी जैसे बमुश्किल गले से निकल रही हो. सुहानी को इसमें क्या समझ आया और इस हुजूम को? सोचने लगा इस नासाज़ हालत में उन्हें उपदेश देने की क्या ज़रूरत? बाद में समझ आया कि यह भी ट्रस्ट का एक हथकंडा था—जयप्रभुदेव के बिना इतने भक्त इकट्ठे ही नहीं होते थे.
किसी भक्त ने तारीफ करते हुए अपने फेसबुक वॉल पर लिखा था कि जयप्रभुदेव का आदेश है सात्विक भोजन खाओ. खिचड़ी खाओ. दूसरे लंबे पोस्ट में वही शाकाहार की बात, उसे न जाने कैसे अध्यायों के प्रमाण के साथ गीता में लिखे गौमूत्र की महत्ता के साथ जोड़ दिया, जिसका अंत हुआ “गाय हमारी माता है” जैसे सूक्त वाक्यों पर. तीसरे पोस्ट में जीवात्मा, आत्मा, भवसागर, मोक्ष इन चारों को जोड़कर कुछ अनर्गल बातें.
मैं सुहानी की सुधरती हालत से इतना खुश था कि मैं समझ नहीं पाया कब जयप्रभुदेव पर उसकी असीम और अटूट श्रद्धा हो गई. बात खतरे के जोन तक पहुँच गई. मुझे इसकी भनक तब पड़ी जब उसने प्रभुदेव की फ्रेम में जड़ी फोटो हमारे बेडरूम में लगाई. मेरे जन्मदिन पर हम मेरे दोस्तों द्वारा रखी पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रहे थे, जब एक दंपति- जयप्रभुदेव के भक्त- घर में आ धमके और सुहानी सब कुछ भूलकर उनकी तीमारदारी में जुट गई. उनके डॉक्टर होने से जुड़ी बात जब भी होती, सुहानी बड़े नाटकीय ढंग से अपनी आवाज़ बढ़ा लेती. ड्रॉइंग रूम में बैठे तीनों लोग जयप्रभुदेव की दैवीय शक्तियों का बखान करते रहे, और वह मंत्रमुग्ध-सी बैठी पार्टी के बारे में सब कुछ भूल गई. पार्टी में समय पर पहुँचने का वायदा कर वह पार्टी में नहीं आई.
बस एक सॉरी नोट: काफी देर तक बातें चलती रही. अब थक गई हूँ.
अगली सुबह चार बजे उठकर उसने शुरू कर दी—मोक्ष क्रिया. सिर पर चादर डालकर ध्यान. डॉक्टर दंपति ने उसे इस क्रिया के बारे में बताया था- जयप्रभुदेव द्वारा ईजाद की गई, सौरमंडल के दूसरे नक्षत्रों पर भ्रमण हेतु, जिसका सौभाग्य मुट्ठीभर लोगों के हाथ लगता है.
“चादर से क्या होगा?” मैंने आँखें मलते हुए पूछा.
“बाहर की दुनिया से जब ध्यान हटेगा, तभी तो दूसरी दुनिया की ओर ध्यान खिंचेगा.” उसने डॉक्टर दंपति से सीखी-सिखाई बात दोहरा दी.
“क्यों देखनी है दूसरी दुनिया…यही काफी नहीं” मैंने चुहल के अंदाज़ में पूछा.
“तुम्हारे इतने-से दिमाग में ये सब बातें नहीं घुस सकतीं.” उसने दो अंगुलियों से इशारा किया.
घंटे बाद जब मैं उठा, तब वह चादर में लिपटी सो रही थी. मेरे अलार्म से वह चौंककर उठी और फिर लीन हो गई साधना में. उस दिन उसने न नाश्ता बनाया, न खाने का डिब्बा मुझे दिया, उसी जगह पर मूर्तिवत बैठी रही, मेरी हर बात को अनसुना करती हुई.
“किसी के भी प्रति अंधश्रद्धा ठीक नहीं. तर्क करने की अपनी शक्ति मत खो दो.” रात को मैंने जयप्रभुदेव के बारे में मिले ऑनलाइन खबरों के प्रिंटाआउट उसे पढ़ने को देते हुए कहा.
“तर्क के परे ही तो भक्ति संभव है.”
“मैंने कन्नौज आश्रम में हो रहे समागम में लग्ज़री टेंट बुक करवा लिया है. ट्रस्ट में ट्रेज़रर के पद पर मेरी नियुक्ति की घोषणा भी वहीं होगी. तुम्हें चलना है.” उसके कुछ मिनटों बाद चुप्पी तोड़ते हुए कहा.
“ट्रेज़रर और तुम्हें? बिना किसी अनुभव के? बिना तुमसे एक बार भी मिले? यह कैसे मुमकिन है?”
“देखा, अब समझे, प्रभु जी तुलसी के अवतार हैं. अंतर्यामी हैं. आवाज़ से परख लेते हैं सबको.”
“दिमाग खराब हो गया है क्या…” मैंने मन में सोचा पर सुहानी से झगड़े के डर से कुछ नहीं बोला. फिर मैं इसलिए भी डर रहा था कि मेरी छींटाकशी से परेशान होकर कहीं सुहानी मुझे समागम में ले जाने से मना न कर दे.
व्यक्तिगत तौर पर वहां जाने की इच्छा मेरी न भी हो, पर सुहानी की अंधभक्ति का कारण जानना ज़रूरी था, अपनी आँखों से देखने के लिए जयप्रभुदेव का वर्चस्व, सुनने के लिए उनका सम्मोहित करने वाला भाषण, खोल कर रख देने के लिए सुहानी के सामने सच की सारी परतें.
8.
कन्नौज पहुँचने के लिए कालिंदी एक्सप्रेस में बैठा, मैं उस आश्रम की कल्पना करता रहा था जहाँ गरीबों के मसीहा जयप्रभुदेव बसते होंगे. मन में यही सवाल कि जब पेट भूख से कुलबुलाता हो, तब मोक्ष की बातें वैसी नहीं लगती होंगी जैसे कसाई को नैतिकता का पाठ पढ़ाना. फिर सोचने लगा सुहानी के सम्मोहन का कारण—और कैसा गहरा सम्मोहन—कि बेसुध होकर लग गई है जयप्रभुदेव की ख्याति के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने में? क्या सचमुच भूल गई है हमारे बच्चे की फेटी हुई कॉफी के रंग की भूरी आँखें?
पहले कितनी बार ज़िक्र करती थी—डिलीवरी के बाद जब डॉक्टर ने उसे मासपिंड को ठंड से बचाने के लिए सुहानी के पेट पर रखा, तब कैसे दूध की गंध सूँघते हुए वह कछुए की तरह घिसटता हुए उसके स्तनों के करीब आ गया था.
कभी याद आ जाता है कैसे उसके मृत होने की बात सुनकर मैं एक लिजलिजी भावना से भर गया था, कितनी निर्ममता से उसे गेंद की तरह उछाल फेंका था, तो रात-रात भर करवटें बदलता रहता हूँ. कितनी देर तक सुहानी मुझे घूरती रही थी—क्या वह इतनी जल्दी सब कुछ भूल गई है…क्या यादें टीस बनकर मन के किसी तहखाने में यूँ ही घुट जाने को अभिशप्त होती हैं?
दुख घने कोहरे की तरह हम दोनों के बीच पसरा हुआ है जिससे बातों, दिलासों या हँसी के छल्ले आर-पार नहीं होते. मुझे सुहानी से पूछना है जब झटके से एक साँस हमारे शिशु ने खींची थी, तब क्या उसने भी चित्रों वाले आदर्श परिवार की कल्पना नहीं की थी? जिसमें माँ-बाप की उँगली थामे बीच में चलता बच्चा आकाश की ओर निहारता है. सभी सांत्वना का हाथ सुहानी की कंधों पर रख देते हैं जैसे वह सिर्फ सुहानी का ही बच्चा था और मुझसे कह जाते हैं—फिर क्या हुआ दूसरा पैदा कर लेना. सभी मुझे समझाते रहे हैं कि मुझे इन कठिन परिस्थितियों में सुहानी का हाथ नहीं छोड़ना है, पर मैं मेरे खाली हाथ के बारे में क्यों कोई नहीं सोचता?
सुनिधि ही किसी फरिश्ते की तरह मुझे थामे रही थी. उसके घर के महरून सोफों पर बैठे हम दीवारों को निहारते रहते थे. पपड़ती दीवारें, शनील के सुनहरे पर्दे, काँच के डिब्बों में बंद काजू-पिस्ता, अभिनंदन में सिर झुकाए एक राजस्थानी जोड़ा. बाहर उठता वाहनों का शोर, भौंकते कुत्ते, रिरियाती बिल्लियाँ. जैसे मेरे चारों जीवन का ऑर्बिट मदमस्त गति में चलायमान था, और बीच में खड़ा मैं रुका हुआ, अधूरा, आगे बढ़ते जीवन को न पकड़ पाने की झुंझलाहट से भरा हुआ.
कभी मैं तोड़ने की आदिम इच्छा से भरा, सोफे की गुदगुदी गद्दियों पर मुट्ठी से प्रहार करने लगता, और हर मुक्के के साथ अंदर धँसती गद्दी मुझे हल्का-सा विश्वास देती कि जीवन पर मेरी पकड़ अभी ढीली नहीं हुई. लेकिन कोई गड्ढा टिकता नहीं, भर जाता. मैं एक बच्चे की तरह ज़िद पकड़े उन्हें पिचकाने की कोशिश करता फिर-फिर मारता रहता और सुनिधि बिना कुछ कहे मेरी आँखों से टपकते आँसुओं को पोंछती रहती. कभी वाइन मेरे गिलास में उड़ेलती जाती, कभी मेरे होंठों के बीच दबी सिगरेट को लाइटर से जला देती और मैं देर तक हवा में घुलते जाते धुँए के अस्तित्व को एकटक देखता रहता. घंटों नशे के एहसास में गुम मैं अपने को पूरा महसूस करता. चलता हुआ, दौड़ता हुआ. नशा उतर जाता, एकबार फिर उदासी का काला प्राइमर चढ़ जाता.
किन्हीं दिनों सुहानी का एक भी फोन नहीं आता, कभी वह हर मिनट फोन किए जाती. मेरे पास उसके लिए सहानुभूति बिल्कुल नहीं बची थी, एक अजीब-सी चिढ़ थी जो उसका नाम देखते ही मुझ पर हावी हो जाती—सुहानी, तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो कि अपने अलावा किसी और के बारे में सोच ही नहीं पाती?
9.
कन्नौज स्टेशन पर गुलाबी टोपियाँ लगाए भक्तों का एक ज़खीरा सुहानी के स्वागत के लिए तत्पर खड़ा है. सुहानी को गुलाब का एक फूल थमाकर सब उसका अभिनंदन करते हैं.
“सिस्टर ऊषा आपको ट्रेन में कोई परेशानी तो नहीं हुई?” एक काला, तुंदियल आदमी, जो बार-बार अपने कानों में माचिस की तीली डाल रहा है, सुहानी से मुखातिब होता है.
“ऊषा?” मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ता है. सुहानी मेरा हाथ मींच लेती है. टुकुर टुकुर निहारती नज़रों में भर आए कौतूहल को भाँपती हुई जोड़ देती है, “ये भूलने लगे हैं” और सभी लोगों की आँखें एक एक्स-रे मशीन की तरह मेरे शरीर पर बुढ़ापे के चिह्न खोजने लगती हैं.
“मर्सिडीज़ आपके लिए तैयार है.” एक महिला जिसने अपने जूड़े में नीला पेन घुसाया हुआ है कहती है.
मर्सिडीज़ सुनकर मेरी हँसी छूट पड़ती है. सुहानी मुझे पैर मारती है.
वैकुंठ की ओर ले जाने वाले, तुलसी के अवतार, सामाजिक भौतिकता से कोसों दूर, घट रामायण के लेखक, जिनके शरीर में जाकर विष निष्प्रभावी हो गया और शिव की तरह बस गले की त्वचा को रंग गया, उस जयप्रभुदेव का मर्सिडीज़ से क्या वास्ता?
कन्नौज के शांत शहर में गाड़ी आश्रम की ओर बढ़ने लगी. ड्राइवर भी कोई भक्त था, और ड्राइवर के साथ वाली सीट पर वही महिला बैठी हुई थी, इसलिए सुहानी से कोई भी सवाल नहीं कर पाया था. मैंने एक-दो बार उससे इशारे से बात करने की कोशिश की, पर वह खिड़की खोल ठंडी हवा का लुत्फ उठाती हुई शहर की जर्जर इमारतें देखने में मशगूल थी, और शीशे में दिखती ड्राइवर की आँखें जैसे मुझ पर ही टिकी हुई थीं.
शहर से लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर बसा, गुंबदों से पटा हुआ संगमरमर का झक्क-सफेद आश्रम ऐसा लगता था मानो अरब राजकुमारियों का महल. आगंतुकों के लिए बिछाया गया रेड कार्पेट, ट्रे में पानी लिए खड़ी औरतें, लाइटें और झालर लगाते आदमी, बड़े-बड़े कड़ाहों में पकता खाना—चारों ओर शादी जैसी चहल-पहल थी.
हमें ‘लग्ज़री टेंट’ की ओर ले जाया गया. हालांकि तंबुओं पर तिरपाल से ढका हुआ टेंट था, पर नाम के अनुरूप सभी पाँच सितारा होटल की सेवाओं से सुसज्जित. एक बड़ा कमरा, बिस्तर पर गुदगुदा गद्दा, फलों की टोकरी, टेटले के ग्रीन टी बैग, शावर सब कुछ.
“इतना सब कुछ फ्री ऑफ़ कॉस्ट?” मैंने जान-बूझकर उससे सवाल किया.
“पागल हो क्या…इतनी प्राइवेसी फ्री में थोड़ी मिलती है? फ्री वाले टेंट में छह-सात लोग एक साथ सोते हैं.” सुहानी ने फिर आँख मारी, “देख रहे हो कितना बड़ा आयोजन. ओशो के ओरेगॉन से बड़ा.”
“ओशो को क्यों घसीट लाती हो बीच में? ओशो की तरह कृष्णमूर्ति, सद्गुरु, डंडापाणी की बातें भी मुझे अच्छी लगती हैं. कुछ भी कहो मैं तो किसी को अपना नाम न बदलने दूँ.” मैं रौ में बोलता जा रहा था.
“मिर्चें तो तुम्हें इसी बात की लगी हैं कि मैंने तुम्हें बताए बिना ही नाम पलट लिया.”
“बल्कि इसलिए कि तुमने कितनी आसानी से अपनी पहचान को एक छाल की तरह उतार फेंका.”
वही औरत जो हमारे साथ गाड़ी में सवार थी एक घंटे बाद सुहानी को बुलाने आई, “सिस्टर ऊषा, जयप्रभुदेव आपसे मिलना चाहते हैं. आप उनके कक्ष में जल्दी आ जाएँ.”
“आप जाइए, मैं आ रही हूँ.”
“तुम भी यह गुलाबी शर्ट पहनकर जल्दी तैयार हो जाओ.” उसने इतराकर कहा जैसे मुझे बता देना चाहती हो कि उसकी आश्रम में कितनी प्रतिष्ठा है. “तुम्हें सिर्फ मेरे कारण अंदर जाने देंगे.”
मेरा मन नहीं था पर जयप्रभुदेव को करीब से देखने, उनकी संस्था को बारीकी से समझने, और अपने आर्टिकल के लिए गुपचुप कुछ तस्वीरें खींचने का उससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता था, इसलिए मैं बिना ज्यादा सवाल-जवाब किए जल्दी तैयार होने लगा.
उसने खुद-भी गुलाबी रंग की साड़ी पहनी, खूब सारा इत्र छिड़का और जयप्रभुदेव की तस्वीर का लेपल लगाकर जाने के लिए तैयार हो गई.
जगह-जगह बने चिन्हों की मदद से हम उनके कक्ष की ओर चलते गए. हम बीच में एक सड़क पर चलने लगे जिसके दोनों तरफ टेंट तने हुए थे. सीधे हाथ की तरफ लग्ज़री और सुपर लग्ज़री टेंट की दो सुनियोजित कतारें, उलटे हाथ पर पीले, दाग-धब्बे लगे डीलक्स टेंट का लापरवाह, अव्यवस्थित क्रम.
घने अशोक के पेड़ों के बीच जयप्रभुदेव की आलीशान कुटिया. घर के चारों कोनों पर चार भक्त मुस्तैदी से पहरा देते हुए. वह सबको जयप्रभुदेव की तस्वीर का लेपल देते, मोबाइल और बेल्ट एक लाल ट्रे में रखवाते, एक तस्वीर खींचते, सभी को एक नंबर का टोकन देकर अंदर भेज देते.
अंदर का कमरा कोल्ड स्टोरेज जितना ठंडा. चार-चार ए. सी., और पंखे जिन पर जयप्रभुदेव की तस्वीर का बड़ा स्टीकर चिपकाया हुआ. सब लोग बस एक नंबर. आवाज़ आती फलाँ-फलाँ नंबर इस कमरे में उपस्थित हों, और वो लोग उस नंबर का नीला प्लास्टिक टोकन गले में डाले अंदर पहुँच जाते. चारों कमरों में जयप्रभुदेव नहीं थे, बाकी तीन कमरों में उनके तीन करीबी शिष्य दर्शन दे रहे थे.
“चेले?” मैंने सुहानी को कनखियों से देखा.
“शिष्य” उसने कहा.
कछुए की चाल से आगे बढ़ती कतार में लगे हमें घंटे से ज्यादा बीत गया था. सुहानी के चेहरे पर पहले उभरा आत्मविश्वास काफूर हो गया था. उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, किसी जानने वाले को ढूँढने के लिए. फिर लाइन के आगे खड़े संयोजक से भी कहा कि स्वयं प्रभु महाराज ने उसे बुलाया है इसलिए जानें दें, पर उस दढ़ियल आदमी ने उसे कतार न तोड़ने की कड़ी हिदायत दे वापिस भेज दिया.
“हमें वैसे भी क्या जल्दी है?” उसने आकर मुझसे कहा.
काफी देर के अंतराल के बाद हमें अंदर बुलाया गया. कमरे में जयप्रभुदेव स्वयं हैं, उनका कोई शिष्य नहीं, यह देखकर सुहानी के चेहरे पर झीनी मुस्कान तैर गई. अंदर घुसते ही वह हुलस कर जयप्रभुदेव के चरणों में गिर पड़ी. वह टाट के कपड़ों में एक बड़ी कुर्सी पर बैठे थे जिसके गद्दी देखने में चमड़े की लग रही थी. साथ में रखा था ऑक्सीजन सिलेंडर, और उससे जाती उनकी नाक में नली.
“दूर से बात करें.” ज़मीन पर बैठे लड़के ने चेताया.
“कितने दिनों से आपसे मिलना चाहती थी बाबाजी. आज मिलकर धन्य हो गई.”
“क्या नाम है तुम्हारा बच्चा?” गला खँखारते हुए जयप्रभुदेव ने पूछा.
“सुहानी…नहीं… नहीं ऊषा…आपने ही तो दिया था नाम.” सुहानी का हैरान स्वर.
“बाबाजी ये हमारी नई कोषाध्यक्ष हैं…सिस्टर ऊषा.” उसी लड़के ने कहा
सुहानी बार-बार मुझे देखती, शायद हिम्मत के लिए, और मैं भी पलकें झपकाकर उसे हौसला देता पर सुहानी के प्रति उनकी उदासीनता देख मन-ही-मन प्रसन्न था. लग रहा था अब जयप्रभुदेव का बुखार उसके सिर से उतर जाएगा, पर बाबा ने आँखें बंद कर लीं और कुछ बड़बड़ाने लगे—
“बच्चे का मोह मत पालो. यह ईश्वर का संकेत है. तुम्हारे बहीखाते में कितनी मुर्गी के चूजों की चीखें हैं.”
सुहानी का चेहरे दीपक की तरह चमक उठा. जैसे अपने नैराश्य को दोहरे वेग से उठाकर उसने दूर धकेल दिया. उसने मुझे एक गर्वित मुस्कान से देखा और कसकर मेरा हाथ मींच लिया.
मैं उनकी कही बात का अर्थ समझ पाता, उससे पहले ही मैं उसकी चमत्कारिक संभावना से हैरत में पड़ गया. ऊपर से सुहानी की बच्चों की-सी किलक. फिर सोचने पर लगा जैसे यह कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि ओपन एंडेड बातें हैं, जो किसी भी परिस्थिति में किसी के लिए भी ठीक बैठेंगी. फिर गुरुजी के लिए कितना कठिन है अपने कोषाध्यक्ष के बारे में जानकारी इकट्ठा करना? पर बच्चे का मोह मत पालो— यह कितनी बेतुकी बात है? गुरुजी को क्या मतलब बच्चे से…यह सबका निजी फैसला ठहरा, इसमें उनके हस्तक्षेप का क्या मतलब?
गुरुजी ने हाथ बढ़ाकर एक-एक स्ट्रॉबेरी हमें थमाई. बैठे लड़के ने हमें घूरा, आँखों से दान पेटी में रुपए डालने का संकेत किया और तीखी आवाज़ में पाँच सौ बीस नंबर पुकारा.
सुहानी ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया और मैंने सौ रुपए वॉलेट से निकाल कर थमा दिए. सौ रुपए देखकर उस लड़के ने मुझे फिर घूरा और एक क्षण को लगा जैसे रुपयों की डोर से मैं सुहानी नामक कठपुतली को खींचे रख सकता हूँ, पर जब तक मैंने नोटों की गड्डी उसे नहीं थमा दी, वह वहीं खड़ी मुझे घूरती ही रही.
वहाँ से निकलते ही वही महिला न जाने कहाँ से अवतरित हुई, उसी तरह जूड़े में पेन घुसाया हुआ और हमें वहाँ की गौशाला की ओर ले गई. उस पंद्रह मिनट की सैर के दौरान हमारी उस महिला से बात हुई, उसने बताया उसका गुरु जी द्वारा दिया गया नाम शैलजा है, दस साल पहले प्रभु महाराज के कहने पर वह— बिल्कुल बुद्ध की तरह—अपने पति और दो साल के बच्चे को छोड़ उनकी शरण में आ गई थी. तभी से वह आश्रम में रहती है, अपनी सेवाएँ देती है, वी. आई. पी. भक्तों को आश्रम का भ्रमण करवाती है.
“आप अपने परिवार को क्यों छोड़ आईं?” मैंने तुरंत सवाल किया.
“घर में शुरू से ही मन नहीं लगता था. जैसे ही प्रभु महाराज ने आज्ञा दे दी, मैंने सब कुछ छोड़ दिया.” उसने बड़ी असंपृक्त आवाज़ में बताया.
“अब आप उनसे मिलने जाती हैं?” मैंने फिर पूछा.
“प्रभु महाराज का आदेश था कि पीछे मुड़कर नहीं देखना है. साधना में मोह का कोई स्थान नहीं.”
“आपके रहने का क्वार्टर कहाँ हैं?” सुहानी ने माहौल को हल्का करने के मकसद से पूछा.
“रसोई में ही हमें जगह मिली हुई है.”
रास्ते में हमें बच्चे दिखे, सिर पर जयप्रभुदेव नाम का सफेद पट्टा बाँधे, अपने कद से ऊँची झाड़ू पकड़े दोनों तरफ बने आँगन को बुहारते हुए. कुछ क्यारियों की गुड़ाई कर रहे थे, कुछ घास पर बिखरे सूखे पीले पत्ते बीन रहे थे. उन्होंने जैसे ही शैलजा को हमारे साथ देखा, वैसे ही वो अपना सारा काम छोड़ हमारे पास दौड़े चले आए और हमें सलाम ठोंका.
कभी वो हमारे हाथ की स्ट्रॉबेरी को देखते, कभी सुहानी के कंधे से लटके पर्स को. मैंने अपनी स्ट्रॉबेरी उनकी तरफ बढ़ाई तो एकबारगी वो कुत्तों की तरह उस पर झपटने को हुए, लेकिन तभी शैलजा ने आँखें तरेरी, और वो सहमे-से अपने कामों में लग गए.
“कौन हैं ये बच्चे?” रुपए निकालने के लिए निकाला पर्स मैंने जेब में वापिस रखते हुए पूछा.
“आस-पास के भिखारी जिन पर प्रभु महाराज की दया दृष्टि पड़ गई.” मैंने स्वीकृति में सिर नहीं हिलाया जिसे भाँप उसने तुरंत जोड़ दिया, “काम आना तो जरूरी है न, नहीं तो आगे चलकर ये अपने पैर पर कैसे खड़े होंगे?”
नारंगी रंग की अर्द्धगोलाकार पट्टी पर लिखा ‘दया गौशाला’ और सामने रखा प्रधानमंत्री के हाथों इनाम लेते जयप्रभुदेव का हॉर्डिंग. शैलजा बताती रही कैसे उनके गुरु ने गौसेवा के लिए एशिया की सबसे बड़ी गौशाला का निर्माण किया है (बाकी जानवरों ने न जाने क्या पाप किया है?).
पूरे कन्नौज में शुद्ध दूध की सप्लाई उचित दामों पर इसी गौशाला की जाती है. मैंने व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ पूछा—आप पूरे शहर को दूध पिलाते है, तो बछड़ों को क्या पिलाते हैं? पर शैलजा उसे अनसुना कर हमें अंदर गौशाला में ले गई. एक हज़ार का चंदा देने पर हमें एक गिलास लस्सी पिलाई गई. दिलीप, जो कि गौशाला का मुख्य सेवक था, उसने हम दोनों को थोड़ा-सा चारा हाथ में पकड़ा दिया और एक गाय को हमारे हाथों से खिलवा दिया.
दीवारों पर चारों तरफ लिखा था:
स्वर्ग पहुँचने का मार्ग सरल, खिलाओ सब गायों को खल.
गौशाला ने निकलकर सिस्टर उषा ने हमें दिलीप के बारे में बताया. वह पहले ओशो का भक्त था, फिर उसने इस्कॉन में धक्के खाए, लेकिन अंतत: प्रभु महाराज की शरण में ही आकर उसे अपनी बीमारी से लड़ने की शक्ति मिली.
“उसे क्या परेशानी थी?” ओशो का नाम सुनकर सुहानी और मचल गई.
“मुझे ढंग से तो नहीं पता लेकिन ऐसा कहते हैं कि वह आदमियों के साथ सोने का धंधा करता था.”
“पर यह बीमारी थोड़ी है जिसे गुरु जी ठीक कर देंगे.”
“ये बीमारी नहीं तो और क्या है…गुरु जी ने अपनी देख-रेख में रखकर उसे महीने भर मोक्ष क्रिया करवाई. उसका नतीजा आप खुद ही देख लीजिए.”
रात के फाइव कोर्स मील के बाद हम अपने टेंट में आ गए. अपने पैरों को दबाती, सुहानी ने हुलस कर सामने की दीवार पर प्रभुदेव के आदमक़द चित्र को देखकर कहा, “पूरा जंगल में मंगल है.”
“रिलीजियस पिकनिक” मैंने चिरौरी की.
मैं उसके करीब खिसक आया और उसकी बाज़ुओं पर चींटियों की तरह अपनी उँगलियाँ दौड़ाने लगा, तो उसने एक लजीली मुस्कान से भरकर कहा, “क्या कर रहे हो?”
मैंने उसकी हँसी को उसका आग्रह समझा और उसके गालों को हल्के-से चूम लिया. अचानक उसके शरीर में एक कसाव आ गया, उसने मुझे दूर धकेल दिया, और सख्ती से कहने लगी, “इन गंदे कामों में मुझे हिस्सा मत बनाओ.”
गंदा मतलब? इतने सालों में तो कभी गलीच नहीं लगा? मैं उससे सवाल करने को हुआ पर चुप्पी मार गया. ऐसा लगा जैसा किसी अपाहिज पिता को लगता होगा जब पहली बार डाइपर बदलता उसका बेटा उसको नंगा देखता होगा. मैंने तुरंत लैंप बुझा दिया.
अगले दिन जयप्रभुदेव का महासत्संग था जिसमें सुहानी की आधिकारिक रूप से नियुक्ति होनी थी. उसके बाद दो बजे की ट्रेन पकड़ हमें दिल्ली के लिए वापिस रवाना हो जाना था. जब तक उठा, सुहानी तैयार हो चुकी थी.
“तैयार होकर जल्दी आना. वहीं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी.” उसने मुझे कहा और चली गई. मैंने एक ठंडा गिलास पानी पिया और बिस्तर पर औंधा लेट गया. सोचने लगा जैसे हमारा वैवाहिक जीवन काई लगा फर्श है जिस पर हम दोनों अलग दिशाओं में फिसलते जा रहे हैं. मुझे याद आई शैलजा के निरीह पति की—कैसे स्वीकार की होगी उसने ऐसी रुसवाई, अपने बेतहाशा प्रेम का ऐसा सिला?
गुलाबी कपड़े पहने सब वहीं बैठे रहे— हम लाल कुर्सियों की एक कतार में, बाकी हज़ारों श्रद्धालु हमसे पीछे ज़मीन पर— जब लगभग दो घंटों बाद जयप्रभुदेव ने दर्शन दिए. दो घंटों में किसी के माथे पर कोई शिकन नहीं, क्योंकि स्पीकर पर बार-बार यही घोषणा होती रही थी कि जयप्रभुदेव साधना में लीन हैं. जैसे ही उन्होंने आसन ग्रहण किया वैसे ही जयप्रभुदेव का उद्घोष शुरू हो गया. भक्त उचक-उचक कर उन्हें देख रहे थे जब उन्होंने अपना हाथ हिलाया और सारी सभा बिल्कुल शांत.
फिर उन्होंने बोलना शुरू किया-
अच्छा लग रहा है सब ने गुलाबी पहना है. इस साल के अंत में ऐसा विनाश होगा जो लगभग आधी धरती को खत्म कर देगा. वो सब बच जाएंगे जो गुलाबी रंग पहने रहेंगे.
बच्चा, आज से उल्टी गिनती शुरू होने जा रही है. यहाँ से गुलाबी झंडे ले जाकर अपने घरों में लगा दो और बचा लो अपने परिवार को इस महामारी की चपेट से.
उसके बाद उन्होंने गाँव के किसी किसान की कोई लंबी कहानी सुनाई जिसका आशय था कि भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ भी नहीं मिलता. फिर उनकी वही रटी-रटाई बातें जो सुहानी भी मुझे बार-बार सुनाती रही थी—शरीर किराए का मकान है; इसे गंदा होने से बचाने के लिए ध्यान धरो; अंडे-मछली से दूर भागो, शाकाहार अपनाओ; गायों की रक्षा करो, गौहत्या से जघन्य कोई अपराध नहीं; अपनी कमाई का दसवां हिस्सा आश्रम में दान करो.
डर का व्यापार और पॉलिटकली करेक्ट होने का भरसक कोशिश— यही था जयप्रभुदेव का यू. एस. पी.. ऐसा ही मोहभंग मेरा कम्यून में जाकर हुआ था— हर ठौर पर जेब ढीली करने को तैयार लोग, एच. आई. वी. टेस्ट, स्थानीय लोगों पर प्रतिबंध, भारतीयों के लिए हेय दृष्टि.
मोहभंग होने में अक्सर हमारी गलती ही होती है— कैसे अचानक हम किसी के विचारों से आंदोलित होते हैं और उसे संपूर्ण मान उसके अनुयायी बनने को लालायित हो उठते हैं. भक्त होना सम्मोहित होना है…अपनी बुद्धि दूसरे के हाथों में सौंप देना, उस ब्लू व्हेल गेम की तरह.
भाषण खत्म होते ही घोषणा हुई, “सिस्टर ऊषा मंच पर आएँ.”
जब उसे स्टेज पर शॉल उड़ाई जा रही थी, मुझे लगा जैसे उसने सुहानी का जीवन केंचुल की तरह उतार फेंका है—उस जीवन को जिसका एक हिस्सा मैं भी था.
१०.
टेंट में उस रात सुहानी के हिकारत भरे शब्दों के बाद उसके सामने बच्चे की बात छेड़ने की हिम्मत ही नहीं हुई. फाँक होने पर जैसे सेब सेब तो रहता है, पर उसकी पूर्णता का एहसास खत्म हो जाता है, हमारा रिश्ता कहने को जुड़ा हुआ था, पर एहसासों की स्निग्धता वाष्प बनकर उड़ गई थी. बचे थे ठूँठ कर्तव्य. पर उस महीन डोर को भी उसने उस दिन झटक दिया जब अचानक एक दिन उसने मुझे दूसरे कमरे में सोने को कहा. “रात में कभी तुम्हारा पैर, कभी तुम्हारा हाथ छू जाता है.”
“तो क्या हुआ?” मैंने बेफिक्री से करवट बदलते हुए कहा.
“मुझे पसंद नहीं कोई आदमी मुझे छुए.”
“कोई आदमी का क्या मतलब?” मैंने मुड़कर उसकी तरफ देखा. उसके कड़े चेहरे से अनुमान हो गया कि वह मज़ाक नहीं कर रही.
“साधना से मैंने चारों ओर एक घेरा बना लिया. इसमें सिर्फ मैं हूं. अकेली.”
“अगर तुम्हें तकलीफ है तो तुम जाओ. मुझे वहाँ नींद नहीं आती.”
वह बिना कुछ कहे वहीं लेट गई. बीच में पाटती तकियों की एक ऐसी दीवार जो बस बाहर से दिखने में मुलायम थी, अंदर से एकदम सख्त और कठोर.
सुनिधि एक बार फिर ढाल बनकर मेरे लिए उपस्थित थी. उन दिनों अनुराग से उसके तलाक की सभी औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी थीं और डेढ़ साल के आर्यन ने चलना, बोलना और सीढ़ी चढ़ना सीख लिया था. जैसे ही मन टूटता—जो हर दूसरे या तीसरे दिन होने लगा था—मैं उसके घर की ओर ऐसे भगा चला जाता जैसे जेठ की दोपहर में भैंसों का झुंड जोहड़ की ओर. देर रात तक आर्यन के साथ मैं और सुनिधि टीवी वाले कमरे में, जहाँ सामने की दीवार पर आर्यन की तस्वीरों का कोलाज बना हुआ था, चौंकड़ी मारकर बैठे रहते, और हरे, लाल, पीले, सफेद डिब्बों पर डिब्बे रखते जाते. कोई इमारत बनती दिखती, तो हम तीनों उत्साहित हो और डिब्बे जोड़ने लगते, जब अचानक अगला डिब्बा रखते ही सारी की सारी इमारत धराशायी हो जाती.
एक बार सुनिधि ने कहा हमें इंस्ट्रक्शन मैनुअल से देखकर एक घर बनाना चाहिए. बड़ा, खुला, हवादार घर. हमने पीली दीवारों पर लाल डिब्बों से खिड़कियाँ बनाईं, भूरे रंग का दरवाज़ा और उसके ऊपर चिमनी लगाई. पूरा हुआ तो हमने एक-दूसरे को आत्मीयता से देखा और एक विश्वासी हँसी का बेबाक छल्ला एक-दूसरे की तरफ फेंका. आर्यन फर्श पर ही सो गया था, पर हमने हँसने के बेमुरव्वत शोर से अनमना हुआ वह उठा और उसके छोटे हाथों के प्रहार से हमारा पूरा घर नेस्तनाबूद हो गया.
शुरुआत में देर हो जाने पर जब सुहानी का फोन आ जाता, तब सुनिधि के सामने मैं कितने गर्व से भर जाता. सुहानी को कितने अधिकार से कहता कि मैं जल्दी घर पहुँच रहा हूँ, जैसे सुनिधि को जता देना चाहता हूँ कि सुहानी को मेरी कितनी ज़रूरत है. फिर उसके फोन कम-कम होते चले गए और सुनिधि के घर में व्याप्त आत्मीयता के चलते किसी भी नाटक की ओट में छिपने की मेरी ज़रूरत भी खत्म होती चली गई.
उस शनिवार जब आर्यन की फेवरेट डेयरी मिल्क लेकर मैं गया, आर्यन ने मुझे उँगली के इशारे से ज़मीन पर बैठने को कहा. मैं घुटनों के बल बैठा तो उसने मेरे गालों पर अंगुलियाँ फिराईं, फिर चॉकलेट मेरे हाथ से छीनकर, कूदता हुआ बोला, “पापा चॉकी… चॉकी…”
मैं सातवें आसमान पर. जैसे संसार कोई गेंद हो जिसे मैंने अपनी मुट्ठी में कसकर दबोच लिया हो. दोबारा कहो, बार-बार कहो, कहते रहो…पर सुनिधि को जैसे साँप सूँघ गया. “आरू मौसा बोलो… मौ…सा…”
“क्यों रोक रही हो…इन नामों से रिश्तों के मायने थोड़ी बदल जाएंगे?”
“तो क्या मैं तुम्हें अपना पति कह लूँ?” उसने कातर नज़रों से कंपकंपाती आवाज़ में पूछा.
मैं स्तब्ध. तिलमिलाया-सा स्वर निकला, “तुमने ऐसा सोचा भी कैसे? अपनी बहन को धोखा देना…?”
लैपटॉप बैग कंधे पर टाँगकर मैं तुरंत निकलने को हुआ, जब उसका आर्द्र स्वर कानों में पड़ा, “दो-ढाई साल से किसी ने मुझे नहीं छुआ.” जिस अनचीन्हे विश्वास का मैग्नेट उसने मेरी ओर बढ़ा दिया था, मैं उसकी ओर खिंचा कैसे न चला जाता.
लेकिन मुड़ने का अर्थ था उसकी आँखों में अपने लिए चमकता प्रेम देखना जिसकी रोशनी से मेरी आँखें चौंधिया जानी थीं. मैं धड़धड़ाता हुआ घर से बाहर निकल आया. शुक्र मनाते हुए कि उसकी तरफ मेरी पीठ थी, नहीं तो वह मेरी आँखों में देखती और समझ जाती कर्तव्यों की कैसी-कैसी फाँस मुझे अंदर से जकड़े हुई है.
११.
सुहानी सिस्टर ऊषा हो चुकी थी, ट्रस्ट के कामों में पूरी तरह संलग्न. उसके अलावा घर का लगभग हर काम भूल जाती, दूध उबालने रखती और कभी किसी भक्त का फोन आ जाता, और जयप्रभुदेव के महिमा-मंडन में व्यस्त जब तक उसे याद आता, दूध सारा भगोने से निकल चुका होता. कभी सब्ज़ी खाक हो जाती, कभी रोटियाँ जलकर काली. मैं उससे कहता कि किसी महाजिन को रख लेते हैं, पर उसका वही रटा-रटाया जवाब—हर इंसान ऊर्जा की तरंग होता है. अजनबी तरंगों को अपने घर घुसाने से क्लेश होता है.
धीरे-धीरे इसी तर्क का जामा उसने मुझे भी पहनाया जब मेरे कपड़े दूसरे कमरे की अलमारी में टाँग दिए. मेरे हर मित्र के दाखिले पर निषेध, रिश्तेदारों के आने पर मनाही, हर रोज़ ड्रॉइंग रूम में टाट पहने प्रभुदेव के भक्तों का ताँता.
मम्मी-पापा जब अचानक मिलने आए, तब घबराया हुआ था कि कहीं उन्हें भी उलटे पैर लौटना न पड़े. पर सुहानी के सामान्य व्यवहार को देखकर चकित था. जैसे ही वो दोनों गए, उसने अपना मुँह बिचकाया और जहाँ-जहाँ उनके पैर पड़े थे, वहाँ-वहाँ जयप्रभुदेव अलापती, उनके द्वारा दिया अमृत जल छिड़कती रही.
मैंने संडे मैगज़ीन के लिए जयप्रभुदेव के आश्रम में बिताए अपने दिनों का विवरण सुहानी से छिपते-छिपाते लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन न जाने कैसे उसे इस बात की भनक पड़ गई, और एक शाम जब मैं बाहर गया हुआ था, उसने मेरा आर्टिकल—मेरी चार-पाँच दिन की मेहनत—डिलीट कर दिया. उस रात जब मैंने अपना लैपटॉप खोला तो दंग रह गया. पूछने पर सुहानी ने कुछ नहीं कहा, बस एक तिरछी मुस्कान, जो सब कुछ बयान कर गई थी.
एक रात लगभग डेढ़ बजे करीब सुहानी ने मुझे झिंझोड़ कर उठाया, और रुआँसी होकर जयप्रभुदेव की हार्ट अटैक से मृत्यु के बारे में बताया और फूट-फूट कर रोने लगी. वह मुझ पर निढ़ाल हो कर पड़ी रही, अपने शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़, जैसे चाहती हो उसके दुख का सारा बोझ मैं उठा लूँ. पर भरोसे की ज़मीन तो हमारे बीच कब की दरक चुकी सुहानी…अब वहाँ गड्ढे थे, गहरे, दसियों इंसानों को समेट लेने वाले, जिनमें हम एक-दूसरे को धकेलते जा रहे थे.
वो महीना जाकर आश्रम में रही. प्रभु महाराज के तीन शिष्यों के बीच पहले मुखाग्नि देने को लेकर, फिर गद्दी को लेकर, फिर धन-दौलत को लेकर गहमागहमी चलती रही. पता चला कि ट्रस्ट के तीन हिस्से करने की बात पर सभी की सहमति बनी है, कन्नौज के आश्रम के तीन हिस्से होंगे, सबकी विचारधाराएँ अलग, भक्त अलग. तय हुआ सब अपने रजिस्टर में भक्तों के नाम पहले दिन से ही दर्ज़ करना शुरू कर देंगे, ताकि कोई किसी के भक्त काटने की कोशिश न कर सके. और सिस्टर ऊषा उर्फ़ सुहानी? दो शिष्यों ने तो उसे साफ इनकार कर दिया और तीसरे ने रसोई का अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा क्योंकि बाकी सभी पदों पर पुरुषों की नियुक्ति हो चुकी थी.
सुहानी ने जब फोन पर बताया कि वह कन्नौज आखिरी बार आ रही है, तब खुशी की एक लहर मेरे अंदर घुमड़ी. लगा कि सुहानी अब इन सब कर्मकांडों से विमुख हो जाएगी. एक बार फिर वह अल्हड़ सुहानी बन जाएगी जो वेलेंटाइन एक हफ्ता पहले से मनाने लगती थी, जिसे अगर बेड-टी पसंदीदा कराची बिस्कुट के साथ मिल जाए तो उसकी बाछें खिल जाती थीं, जो पार्टियों में यही देखती रहती थी कि किसी की हील्स उससे बड़ी तो नहीं.
पर हुआ बिल्कुल उल्टा—जैसे उसका विश्वास जो किरच-किरच कर बिखर गया था, उसने उसे दूने उत्साह और स्फूर्ति से समेट लिया. वह दसियों घंटे चादर डाले साधना में लीन रहती, जहाँ जयप्रभुदेव उसे आकर उपदेश देते. बताते वे कितने दुखी हैं आश्रम की दुर्दशा से, कि उन्हें कभी नहीं लगा था कि इस तरह उनके शिष्यों के बीच फूट पड़ जाएगी, कि सुहानी ही सिर्फ ऐसी भक्त उन्हें नज़र आती है जिसकी भक्ति अभी तक निष्कलुष है इसलिए वे सिर्फ उसे उपदेश दे रहे हैं.
अपने पंथ को अपनी मृत्यु के बाद फलता-फूलता देखना भी क्या एक इच्छा नहीं? पर तर्क की चोट सुहानी की आस्था को कब नष्ट कर पाई थी. फिर गुरुजी का उपदेश हुआ— और लगातार एक हफ्ते तक चलता रहा— कि सुहानी को दिल्ली में एक छोटा-सा आश्रम बना उनके सभी अहम शिष्यों को इकट्ठा कर कन्नौज का आश्रम उन तीनों बेईमान, ढोंगी, लंपट शिष्यों से वापिस लेना है और जयप्रभुदेव के प्रभुत्व को पुन: स्थापित करना है.
उसने दिल्ली के आस-पास के भक्तों से मिलना शुरू किया. डॉक्टर दंपति से उसे बहुत आस थी, पर तब तक वो किसी दक्षिण के महागुरु की अध्यात्मिक शक्तियों पर रीझ गए थे. उन्हें जयप्रभुदेव बहुत सामान्य लगने लगे थे और चादर डालकर की जाने वाली मोक्ष क्रिया निहायत बेवकूफी. उनका तर्क था जब वह खुद सबको सेकंड ओपिनियन की सलाह देते हैं, तब एक गुरु पर अडिग विश्वास कैसे टिका लिया जाए? हालांकि जयप्रभुदेव के तीन-चौथाई भक्त टूट चुके थे, फिर भी सुहानी की कमर नहीं टूटी और वह जी-जान से उन्हीं मुट्ठीभर भक्तों को इकट्ठा करने में लगी रही. मैं एक मूक दर्शक की तरह देखता रहा था, उसकी बेतुकी बातों पर थोड़ा-बहुत हँसता हुआ, पर जब ज्वाइंट अकाउँट से रुपए हर रोज़ निकलने लगे, तब मैंने सुहानी से बात की.
“हर रोज़ ज्वाइंट अकाउँट से रुपए कहाँ जा रहे हैं?”
“तुम पूछने वाले कौन होते हो? उन पैसों पर मेरा भी अधिकार है.” उसने तुनक कर कहा.
“हक की बात कहाँ से आई? यूँ तो मेरी कमाई है सारी!”
“तभी तुमसे सहन नहीं हो रहा. बड़े फेमिनिस्ट बने फिरते थे. अब कहाँ गई सिमोन दी बीवोर?” उसका चेहरा तमतमा गया.
“वो हमारी सेविंग्स हैं बीमारी के लिए… यूँ बेकार करने के लिए नहीं.”
उसके कान पर जूँ नहीं रेंगी. एक महीने तक दस लाख रुपए बैंक से निकल चुके थे जब मैंने अपना मन कठोर कर उसे तलाक के कागज़ थमा दिए. खाने की गोल मेज़ के बीच में उन कागज़ों का ढेर, और हम दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे जीवन का आखिरी बसंत जीते हुए. सुहानी ने तब तक हामी नहीं भरी थी तलाक की, और समय बीतने पर धीरे-धीरे मेरा संकल्प भी नर्म पड़ रहा था, लगने लगा था कि टूटने का डर हमें एक बार फिर करीब ले आएगा, पर एक रात मेरी अचानक नींद खुली तो सुहानी को बात करते सुना—
“कैसे पालन कर पाऊँगी प्रभु महाराज के आदेश का?”
“मैं कहाँ से लाऊँगी?”
“उसने नहीं दिए तो?”
सोच लिया— टूटने का दंश अच्छा है, जुड़े रहने की योजनाबद्ध घुटन से.
अगली सुबह उसने शर्त रखी कि तलाक सिर्फ तभी मुमकिन है अगर मैं उसे सारी जायदाद का तीन-चौथाई हिस्सा दे दूँ.
१२.
धीरे-धीरे रात का अँधेरा छंटता जा रहा है. आसमान में नीले स्ट्रोक्स, पक्षियों का एक चहचहाता झुंड, सड़कों पर बढ़ता लोगों का शोर—जैसे कोई सोते संसार में कोई एक बार फिर जान फूँक रहा हो.
सुनिधि का वही छटपटाता स्वर—आर्यन तुम्हें पिता मानने लगा है— गूँज रहा है. मन को टटोल कर देखूँ तो शायद मैं भी यही चाहता था पर पता नहीं कौन-सी कंडीशनिंग के कारण जब उसने विवाह का वह प्रस्ताव रखा तब मैं इतना आग-बबूला हो गया. क्यों नहीं कह पाया कि किसी के कोमल स्पर्श के लिए मैं भी तरस गया हूँ?
बुखार से तपते आर्यन के सपने रात-रात भर सताते रहे, काम से मन उखड़ा रहा पर एक बार भी उससे मिलने नहीं गया. सुनिधि मेरे लिए चट्टान की तरह खड़ी रही, पर आर्यन की बीमारी में मैंने क्यों उसका साथ नहीं दिया? क्या जैसा सुहानी ने मेरे साथ किया, वही मैंने सुनिधि के साथ नहीं दोहराया है…उसे टेकन फॉर ग्राँटेड लिया है?
घर पहुँच गया हूँ. सुहानी अभी तक दस्तख़त कर चुकी होगी…या शायद नहीं? मेरे पास चाबी है, लेकिन फिर भी घंटी बजा देता हूँ. मैं जानता हूँ कि सुहानी साधना में लीन होगी और दरवाजा नहीं खोलेगी. मैं चाबी से ताला खोलने लगता हूँ, जब अचानक उसके पैरों की आहट सुनाई पड़ती है.
मैं एक क्षणिक खुशी के आह्लाद से भर जाता हूँ. उम्मीद जैसे कोई गिलहरी है, जो अपने पंजों में दबा बाग का पहला करौंदा कुतर रही है. उसे देखने के आनंद में अक्सर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि कितने यत्न से हमने वह करौंदा उगाया था.
किंशुक गुप्ता मेडिकल की पढ़ाई के साथ-साथ लेखन से कई वर्षों से जुड़े हुए हैं. अंग्रेज़ी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं-The Hindu, The Hindu Business Line, The Hindustan Times, The Quint, The Deccan Chronicle, The Times of India, The Hindustan Times – में कविताएँ, लेख और कहानियाँ प्रकाशित. कहनियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. कविताओं के लिए अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत. दिल्ली में निवास. |
बढ़िया लगी कहानी, बांध कर रखा शुरू से अंत तक| सभी पहलू सही परिपेक्ष में उठाए गए|
किंशुक गुप्ता की कहानियां यथार्थ के जटिलतम डार्क में प्रवेश करती दिखाई देती हैं
कहानी पढ़ ली है । कहानीकार ने सुहानी और सुनिधि जैसे मिलते-जुलते नामों में उलझाकर कहानी को आगे बढ़ाया ।
सिर्फ़ बाबाओं की पोल ही नहीं खोली व्यक्तियों के मन की भी खोल दी । कहानी के आरंभ में ख़ुद को पात्र मानकर अपनी पुरानी आदत से आरंभ किया । लेकिन इतना लिजलिजापन बर्दाश्त नहीं हुआ ।
कहानियों को कहानियों की तरह ही लेना चाहिये । फिर भी बाबाओं के ढोंग खोलकर किंशुक गुप्ता ने लाजवाब पारी खेली । तथा पुरुष के सुहानी और सुनिधि के लिये क्रमशः वितृष्णा और मोह की इक्वेशन गणित की दृष्टि से ग़लत है ।
किंशुक गुप्ता की कहानी पढ़कर एक अतिरिक्त खुशी हुई। इस समय जब पूरा देश साधु-बाबाओं और दलाल प्रवृत्ति के गुरुओं की गिरफ्त में है, यह कहानी इनके व्यामोह पर जबरदस्त तरीके से हस्तक्षेप करती है। सबसे ज्यादा निम्न मध्यवर्गीय परिवार की महिलाओं को इन तथाकथित गुरुओं ने पथभ्रस्ट करने का पुनीत कार्य किया है।
कहानी में परिवार के बिखराव के अनेक कारणों में इन महान गुरुओं की भूमिका कम संदिग्ध नहीं रही। कहानी ‘जयप्रभुदेव’ अपने संघटक में काफी चुस्त-दुरुस्त है। डाॅ. किंशुक चाहते तो इस कहानी को रहस्य रोमांच से भर देते , मगर उन्होंने स्त्री-पुरुष के अंतरभेद को बारीकी से पकड़ा है और उसकी गुत्थी को सुलझाने का यत्न किया है। बहरहाल, कहानी अच्छी है-प्रभावशाली, मर्मभेदक। कहानीकार को बधाई और शुभकामनायें।
किंचित लंबी पर प्रवाहमय है और अपने समय में बाबाओं के चरित्रों पर तीखा व्यंग्य करती है । इसमें कहानीकार का शिल्प और भाषा उसकी मदद करते हैं । अच्छी कहानी की प्रस्तुति के लिए आभार आपका ।
जयप्रभुदेव कहानी भक्तों की अंध श्रद्धा और बाबाओं की बढ़ती लोकप्रियता का कच्चा चिट्ठा है। देश-विदेश के भ्रमित भक्त इनके जाल में फँसकर निकल नहीं पाते। संवेदनशील और पठनीय, लंबी कहानी जो पाठक को बाँधकर रखती है। किंशुक गुप्ता जी को हार्दिक बधाई एवं आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।
किंशुक की कलाम में भाषा की अद्भुत पकड़ है। उनकी यह क्षमता चकित करती है।साधु बाबाओं के मोह से मंत्रबिद्ध घर की स्त्रीयान और टूटते बिखरते परिवार-बहुत अच्छा चित्रण किया है। किंशुक आपके लिखने की स्पीड भी हैरान करती है हमें। बहुत शुभकामनाएँ।
सबसे पहले किंशुक गुप्ता को हार्दिक बधाई। अब खुद पर दुःख कि मैंने उन्हें पहली बार पढ़ा। अंग्रेजी मैं नहीं पढ़ता शायद इसलिए उनकी ख्याति से परिचित नहीं हूं। बहरहाल, विषय नया है, बाबाओं के आडंबर पर बात की गयी है लेकिन उन्हें ध्वस्त नहीं किया है। तलाक जैसा कहानी का केंद्रीय मुद्दा अनिर्णीत छोड़ दिया गया है। दरअसल, बाबा भक्ति को जबरन तलाक से जोड़ा गया है। सुनिधि की उपकथा भी बीच में छोड़ दी गयी है। हिंदी के पाठकों को ऐसी आधी अधूरी कहानियां पढ़ने की आदत नहीं है। हो सकता है अंग्रेजी वालों को हो। लेकिन कहानी की बुनावट गजब की है और भाषा सिद्धहस्त की लगती है। इस अकिंचन कथाकार की बधाई पहुंचा दें।
बाबाओं की कलाकारी निराली। भक्ति भाव और भगवान जाए भाड़ में। कहीं मठ हथियाने तो कहीं गद्दी हासिल करने को साजिश और हिंसा भी। भक्तों की अन्धभक्ति का लाभ उठाने में बाबा माहिर होते हैं। किन्शुक जी ने इसको कहानी में उठाया। यह अच्छी बात।
लच्छेदार भाषा जो तीनों सप्तक को छू रही है। तत्सम, ठेठ, अंग्रेज़ी सब ऊब-डूब कर रहे हैं। संभवतः यह लेखन के परिवेश का संकेत हो, जिसमें थोड़ा गाँव, थोड़ा शहर हो।
विषय भी मौजू है। मुझे सहसा पंडित रविशंकर के वैवाहिक जीवन का एक पहलू याद आया। हालाँकि वह छेड़ने का यहाँ मतलब नहीं।
बहुत बधाई कथाकार किंशुक को
उत्कृष्ट कहानी
किंशुक के पास भावों के अंतराल को पकड़ने और एक स्थिति से दूसरी स्थिति के बीच छिपे पुलों को ढूंढ़ लेने की ग़ज़ब क्षमता है। थोड़ी लंबी ज़रूर हो गयी है — ख़ास तौर पर सुहानी वाले प्रसंगों में क्योंकि एक समय के बाद यह ज़ाहिर हो जाता है कि बच्चे के शोक से अवसन्न सुहानी अब सामान्य जीवन की ओर नहीं लौटेगी। इसलिए कथाकार का उससे उलझे रहना या उसे ढोते रहना कहानी के प्रवाह में बाधा बनने लगता है।
वैसे, कहानी का अंत हमारे औसत सामाजिक जीवन का खासा प्रामाणिक यथार्थ है। शुचिता और स्थायित्व के संस्कारों में दीक्षित हुआ मध्यवर्गीय मानस विकल्प चुनने के बजाय अपनी पूर्व-प्रदत्त स्थिति या पूर्व-चयन को बचाने में ही लहूलुहान होता रहता है।
कुलमिलाकर एक उत्कृष्ट कहानी।