बाबीय यारयेवगेनी येवतुशेंको |
आज से लगभग इक्यावन वर्ष पूर्व, 29 और 30 सितंबर 1941 को नात्शियों ने 34,000 यहूदियों को खदेड़ कर उक्रेन की राजधानी कीव की जगह बाबीय यार पर हत्या कर दी थी. इस घटना के ठीक 20 वर्ष बाद अगस्त 1961 में प्रख्यात रूसी कवि येवगेनी येवतुशेंको ने अपनी महान कविता ‘बाबीय यार’ लिखी थी. आज लगभग इक्यासी साल बाद व्लादिमीर पुतिन ने दोबारा उसी बाबीय यार को ध्वस्त कर दिया है और अनगिनत निर्दोष और मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया है.
देवेन्द्र मोहन
बाबीय यार में कोई स्मारक स्थल नहीं है,
एक दुरुह अनगढ़ सीधी खड़ी पहाड़ी है.
मैं खौफ़ज़दा हूँ.
आज मैं ख़ुद को उतना ही पुराना महसूस कर रहा हूँ
जितनी कि पूरी यहूदी क़ौम है.
लगता है मैं भी यहूदी हूँ
भटकता हुआ प्राचीन मिस्र में
सूली पर चढ़ा उद्ध्वस्त
जिस्म पर ठुकी हुई कीलों के निशान लिए
मैं ड्रीफ़स हूँ
फ़िलिस्तीनी ख़बरी और मुंसिफ़ दोनों
सलाख़ों के पीछे क़ैद.
हर तरफ़ से चोट खाया हुआ.
शिकार किया गया
थूका गया
लांछित
चीख़ा चिल्लाया किकियाया गया
ब्रसेल्स लेस से सजी नाज़ुक नारियों द्वारा
चेहरे पर छतरियों से गोदा गया.
मैं बायलोस्तोक का वह
छोटा बालक भी हूं,
बहता ख़ून मेरा फ़र्श पर फैलता जाता.
वोदका और प्याज़ की गंध फैलाते
शराब ख़ाने के वे मवाली बवाल में लिप्त
मुझे जूतों से रौंदा गया, असहाय, कमज़ोर
दर किनार किया गया एक तरफ़.
व्यर्थ ही नरसंहारियों से दया की भीख मांगता मैं.
वे ताने कसते चिल्लाते,
“मारो, मारो साले यहूदियों को, रूस बचाओ.”
एक अनाज विक्रेता मेरी मां को मार रहा है.
” ओ मेरे रूसी भाइयो! “
मैं जानता हूं
तुम लोग कितने इंटरनैश्योनाल हो
लेकिन तुम्हारे हाथ गंदगी से सने हुए हैं
वे तुम्हारे पावन नाम को
चुटकुला बनाने पर उतारू हैं.
मुझे अपनी धरती की सभ्यता का पता है.
लेकिन यहूदियों के ये घमंडी दुश्मन
कितनी बेशर्मी से ख़ुद को
रूसी गणतांत्रिक संघ बुलाते थे.”
लगता है मैं ऐन फ्रैंक हूं.
अप्रैल महीने की टहनी की तरह पारदर्शी
और मैं एक प्रेमी हूं.
मुझे किसी लफ्फ़ाजी की ज़रूरत नहीं.
मुझे ज़रूरत है एक दूसरे की
आंखों में झांकने की.
वैसे भी हम
कितना कम देख या गंध ले पाते हैं.
हमें फूल पत्तियों से,
आकाश से महरूम रखा जाता है.
हम कितना कुछ कर सकते हैं –
प्यार से.
एक-दूसरे का आलिंगन कर सकते हैं
अंधेरे कमरे में.
वे आ रहे हैं यहां ?
डरो मत
वसंत ऋतु की गर्जना है.
वसंतागमन है यहां.
तो, आओ मेरे पास.
फ़ौरन, अपने होंठ दो मुझे.
दरवाज़ा तोड़ रहे हैं वे लोग ?
नहीं, यह बर्फ़ चटख रही है…
बाबीय यार में जंगली घास की सरसराहट है.
पेड़ भयावह लगते हैं मुंसिफ़ों की तरह.
यहां चीज़ें हौले से चीख़ती हैं. टोपी उतार, सफ़ेद होते बाल
और मैं सिर का बोझ हल्का करता
धीरे से महसूस करता हुआ
ख़ुद को धूसर, और
मैं जो एक ज़बरदस्त बिना आवाज़ की निकली हुई चीख़ हूं.
यहां हज़ारों-हज़ार दफ़न लोगों में
हर एक वह बूढ़ा हूं
जिसे गोली मारी गयी.
मैं हर वह बच्चा हूं
जिसे भूना गया –
मुझ से ऐसा कुछ नहीं जाएगा भूला कभी !
‘इंतर नैस्यिोनाल‘, सुनाई पड़े यह गर्जन
तब तक जब तक कि
वह हर यहूदी विरोधी शख़्स
हमेशा के लिए ज़मीन में दफ़्न नहीं कर दिया जाता
मेरी धमनियों में यहूदी का ख़ून नहीं दौड़ता.
यहूदी विरोधी ये संवेदनशून्य मुझ से नाराज़ लोग अब
मुझे यहूदी-मान कर घृणा करते हैं.
उस लिहाज़ से मैं अब पूरी तरह
असली रूसी हूं !
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बाबीय यार पर यह वीडियो भी देखें
देवेन्द्र मोहन संस्कृति, कला, सिनेमा आदि विषयों पर प्रचुर लेखन. कविताओं की किताब क़िस्सागोई प्रकाशित. अंग्रेजी में भी लिखते हैं और परस्पर अनुवाद भी करते हैं. |
एक बीते हुए युद्ध के प्रतिध्वनियों को इतने गहरे तक समझना और उसे अभिव्यक्त करना दुरुह है.
सार्थक कविता और बेहतर अनुवाद.
कविता मार्मिक है । संवेदनशील व्यक्तियों को भावुक बना देती है । रूस ने यूक्रेन पर एकतरफ़ा हमला बोल दिया । धरती पर जब-जब युद्ध होते हैं तब भविष्य, वर्तमान और भूत भी बदल जाते हैं । जैसे विश्व युद्ध में यहूदियों की हत्या की याद में यूक्रेन में बनाये गये स्मारक ‘बाबीय यार’ को रूस द्वारा यूक्रेन पर एकतरफ़ा हमले की बमबारी में ध्वस्त कर दिया गया है । पाकिस्तान के शहर लायलपुर का नाम बदलकर फ़ैसलाबाद कर दिया है । क्रूर सत्ताएँ दुनिया के इतिहास और स्मारकों को ध्वस्त करने पर तुली हैं । ये वक़्त को सपाट कर देना चाहती हैं । कवि येवगेनी येवतुशेंको की अमर कविता युगों तक याद की जाती रहेगी ।
नस्लीय नफ़रत और युद्ध दोनों फासीवाद की जमीन पर एक विषवृक्ष की तरह उगते हैं।दोनों के बीच नाभि-नाल का संबंध भी रहा है।दोनों प्रकृति से मनुष्यविरोधी रहे हैं।इसलिए ये वस्तुतः एक ही हैं।आज के हालात में इस कविता का पाठन एक जरूरी दायित्व है।बधाई !
मार्मिक! हृदय में दर्ज हो गई पीड़ा जैसे
कविता पढ़कर खौफ भीतर रेंगने लगता है, ठीक वैसे ही, जैसे यूक्रेन पर.रूसी हमले की खबरें पढ़ते-सुनते हुए। लगता है, वहशियत आँखों के आगे नाच रही है और.हम इक्कीसवीं सदी में नहीं, हजारों बरस पहले के कबीलाई जमाने में रह रहे हैंं।…
यह केवल युद्ध नहीं, हमारी आस्थाओं को खंड-खंड करने वाला बर्बर कांड है।
कविता का बहुत ही सधा हुआ अनुवाद भाई देवेंद्र मोहन ने किया है।
गिरधर राठी जी ने उचित ही, आज के बर्बरता भरे दौर में इस अत्यंत मार्मिक कविता की याद दिलाई।
स्नेह,
प्रकाश मनु
मन को गहराई तक विचलित और व्यथित करने वाली कालजयी कविता। साहित्य में दर्ज इन मार्मिक स्वर को शायद राजनीतिक प्राणी कभी समझ नहीं पाते। देवेंद्र मोहन जी को बहुत-बहुत साधुवाद।
बेहतर कविता का बढ़िया अनुवाद
युद्ध का मंजर और मानवीयता के अन्तर्द्वन्द्वों की पीड़ा –
“ मुझे ज़रूरत है एक दूसरे की
आंखों में झांकने की “
कौम मनुष्यों से बनती है, युद्ध में मनुष्य मरता है क़ौम तो पीढ़ी दर पीढ़ी ज़ख़्मी होती चलती है, और मानवीयता वीरान.
“ बाबीय यार में जंगली घास की सरसराहट है.
पेड़ भयावह लगते हैं मुंसिफ़ों की तरह “
वसंत का आगमन भी है.
प्रतिशोध और हिक़ारत युद्ध है और ये युद्ध अंतहीन है.
देवेन्द्र जी की साफ़गोई भाषा कविता के मर्म तक ले जाती है, कविता का अंतिम छोर डोर की तरह पाठकों के हाथों में थमी रहती है.
देवेन्द्र जी और अनुवाद का अनुनाद सुनाते रहेंगे
थोड़ी-सी अपेक्षा तो की जा सकती है.
अरुण जी तो कमाल के आदमी हैं ही .
वंशी माहेश्वरी