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समालोचन

Home » शून्य की खोज: तरुण भटनागर

शून्य की खोज: तरुण भटनागर

गणित में शून्य के महत्व से आज हम सब भलीभांति परिचित हैं, दर्शन में भी शून्य का अपना अर्थ है. क्या शून्य की खोज भारत ने की थी? कहानी इतनी भर नहीं है. इस शून्य पर कई संस्कृतियों का दावा है. इन दावों के ऐतिहासिक साक्ष्यों की पड़ताल कर रहें हैं हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार तरुण भटनागर जिनके इतिहास सम्बन्धी कुछ आलेख आपने समालोचन पर पहले भी पढ़े हैं. बेहद दिलचस्प आलेख.

by arun dev
March 5, 2022
in इतिहास, विज्ञान
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शून्य की खोज: तरुण भटनागर
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शून्य की खोज: प्राचीन साक्ष्यों की पड़ताल

तरुण भटनागर

 

हम अक्सर ये सुनते हैं कि शून्य की खोज भारतीय उपमहाद्वीप में हुई. क्या वास्तव में ऐसा ही है.

गणित की चर्चित किताब ‘The Crest of the peacock: non-European roots of mathematics’ के लेखक ने सम्भवतः शून्य के सबसे पुराने उल्लेख पर काफ़ी विस्तार से लिखा है. यह सबसे पुराना साक्ष्य मिस्र से है. 1000 ईसा पूर्व से भी पुराना शून्य का यह साक्ष्य मूलतः किसी भवन की ऊँचाई नापने के लिए आधार अंक के रूप में शून्य से शुरुआत करने के लिए शून्य के लिए एक संकेत का प्रयोग बताता है. पर यह बहस का मुद्दा भी हो सकता है कि इसे उस शून्य की शुरुआत क्यों माना जाना चाहिए जो कि गणित में इससे कहीं ज़्यादा और व्यापक है जैसे यही कि शून्य एक ‘whole number’ भी है और ‘integer’ भी.

दरअसल शून्य के तमाम तरह के गणितीय प्रयोग हैं और उनमें से एक यह भी है कि लम्बाई या ऊँचाई मापने का पैमाना जिस अंक से शुरू होता है वह शून्य है और इस तरह से कहा जा सकता है कि गणित में शून्य के पदार्पण का पहला साक्ष्य मिस्र से है. पर वहीं यह भी है कि यह नापने की ज़रूरत में पैमाने पर प्रत्येक हिस्से को अलग-अलग दर्शाने के लिए है, यानी पैमाने के सभी बराबर हिस्सों में से एक हिस्से को दर्शाने के लिए है न कि शून्य से प्रारम्भ होने वाले अंकगणितीय पैमाने को दर्शित करने के लिए, क्योंकि लम्बाई नापने के पैमाने में भी शून्य का प्रयोग वही है जो अंकगणित में है. इसलिए यह भी है कि शून्य का सबसे पुराना साक्ष्य होने के बावजूद मिस्र से मिला यह सबसे पुराना प्रमाण बहसतलब हो जाता है. दरअसल शून्य के साथ यह भी बात आती है कि क्या उसके प्रयोग करने वाले उसकी अंकगणितीय चेतना से वाक़िफ़ हैं या वह सहूलियत के लिए पैमाने पर दर्शित खण्ड का वह लकीर या बिंदु मात्र है जहाँ से पैमाने को शुरू होना दर्शाया गया है, जैसा कि मिस्र वाले इस साक्ष्य में है. मतलब यह कि लम्बाई नापने का पैमाना जिस जगह से शुरू होगा जैसे 1 सेंटिमीटर को दर्शित करने के लिए शून्य से 1 सेंटिमीटर तक तब वह उस पैमाने के प्रयोग करने वालों में शून्य से प्रारम्भ करने के कारण उनमें गणितीय शून्य की एक तरह की चेतना के होने का संकेत मात्र है, जो गणितीय शून्य से वाक़िफ़ होने का पूर्ण तर्क नहीं है. फिर भी विवाद के बाद भी पैमाने पर शून्य की जगह एक संकेत बनाकर प्राचीन मिस्र के लोगों ने शून्य के ज्ञान का पहला दावेदार होने का साक्ष्य तो बना ही दिया.

शून्य सिर्फ़ किसी पैमाने की शुरुआत करने वाला संकेतक या अक्षर भर नहीं है. शून्य और भी बहुत कुछ है वह बेहद अहम है और इसी से यह तय किया जा सकता है कि वास्तव में क्या इस अंक का ज्ञान उन लोगों को था जैसे यही कि शून्य दस और दस के गुणांकों की रचना करता है यानी 10, 20, 50, 100, 600 आदि जैसे अंक जिनकी रचना में शून्य है और इतना ही नहीं बल्कि किसी गुणांक वाले अंक को किसी और अंक में जोड़े या घटाए जाने पर दहायी, तिहायी आदि स्थानों पर अपनी उपस्थिति भी दर्ज कर देता है जैसे 203, 50889, 10065 आदि अंकों में जिस तरह से शून्य अंक आ रहा है. तो पैमाने की शुरुआत भर कर देने से बात नहीं बनती भले वह सबसे पुराना दावा हो क्योंकि वह शून्य के एक प्रयोग को तो बताता है पर बहुत कुछ नहीं बताता जैसे यह उस गणितीय शून्य को नहीं बताता जिससे हमारी आज की संख्या पद्धति बनी. फिर भी इस तथ्य के बाद उन लोगों को सोचना तो होगा ही जो ये दावा करते हैं कि शून्य का पहला प्रमाण भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्रों में कहीं मिला.

गुणांकों के रूप में शून्य के प्रयोग का ज्ञान न होना शून्य के प्रयोग की पोल भी खोलता है. जैसे प्राचीन मेसोपोटामिया में जहाँ शून्य का दूसरा सबसे पुराना साक्ष्य मिला है, की अंक व्यवस्था 60 और 60  के गुणांकों के रूप में  1, 10, 60, 120, 180… के रूप में संकेताक्षरों में था. संकेताक्षरों में होने के कारण यह शून्य से बने अंक के आधार पर इसे जानने का साक्ष्य नहीं है.

ईसा से हज़ारों साल पहले शून्य को दर्शाने  के लिए  मेसोपोटामिया के लोग एक रिक्त स्थान छोड़ देते थे. पर जब वे अंकों को चित्रालेख में प्रदर्शित करते हैं तो इसमें संकेतकों का स्वतंत्र प्रयोग है और शून्य कहीं दीखता नहीं. शायद और जैसा कि कुछ गणितज्ञ मानते भी हैं कि इन्हें गिनने, नापने आदि जैसे सीमित गणितीय प्रयोग की वजह से शून्य की बेहद विस्तृत ज़रूरत न  पड़ती थी, भले वे इसके लिए रिक्त स्थान छोड़ देते रहे हों जैसे रोमन गिनती जो I,II,III,IV,V…. आदि के रूप में होती है उसमें शून्य के न होने पर भी आप इनसे गिनने का काम कर सकते हैं और नाप जोख भी कर ही सकते हैं.

कहने का तात्पर्य कि सीमित आवश्यकता के कारण गणित में शून्य की उस तरह से ज़रूरत लम्बे समय तक शायद न रही जिस तरह से शून्य को हम जानते हैं. यहाँ यह जानना भी रोचक है कि मिस्र और मेसोपोटामिया से मिले शून्य के ये साक्ष्य हमारे यहाँ के सबसे पुराने ग्रंथ यानी ऋग्वेद की रचना से भी सैंकड़ों साल पुराने हैं. पर इन पर शून्य की गणितीय चेतना के बाद भी उससे अनभिज्ञ रहने का आरोप तो लग ही सकता है.

इस बात में बड़ा दम भी है. जैसे आप दस में सोलह को जोड़ने पर आने वाले छब्बीस को रोमन में X + XVI = XXVI लिखेंगे और इन अंकों में दस और सोलह मिलकर जिस तरह से छब्बीस बना रहे हैं उसमें शून्य की कोई भूमिका नहीं है. होना तो यह चाहिए कि 10 और 16 को जोड़ने पर 10 के इकाई स्थान पर जो शून्य है वह 16 के इकाई स्थान के अंक छः से जुड़कर परिणाम वाला अंक यानी छबीस के इकाई स्थान का अंक 6 हो जाए और 10  के दहायी वाला अंक वाला अंक यानी एक 16 के दहायी वाले अंक वाले अंक यानी एक से जुड़कर परिणाम वाले अंक का दहायी वाला अंक यानी दो बनाएँ और इस तरह से 6 इकाई और 2 दहायी वाले अंकों से मिलकर परिणाम वाला अंक 26  बने. यह एक ऐसी गणितीय प्रक्रिया है जिसमें शून्य भी भाग ले रहा है और छह के साथ जुड़कर परिणाम वाले अंक के इकाई का अंक यानी 6 बना रहा है जो कि रोमन नम्बरों में नहीं हो रहा. रोमन नम्बरों में परिणाम वाले अंक के लिए एक संकेतक है XXVI जिसे परिणाम वाली जगह लिख दिया गया है. यहाँ परिणाम की रचना में शून्य की कोई भूमिका नहीं है. यह एक तर्क जो मिश्र और मेसोपोटामिया के इन बेहद प्राचीन साक्ष्यों के होने पर भी उनमें दिखता है. तो फिर क्या दस और दस के गुणांक के रूप में तथा अन्य तरीक़ों से जोड़ और घटाने जैसी गणितीय संक्रिया में भाग लेने में सक्षम गणितीय शून्य के खोजकर्ता जो भारतीय उपमहाद्वीप से हैं, उनकी इस खोज से शून्य की खोज पूर्ण हो जाती है, या इस पर भी प्रश्न होंगे ?

भक्षालि पांडुलिपि वर्तमान पाकिस्तान के किसी गाँव से 1881 में मिली थी और 1902 में यह इंग्लैण्ड ले जायी गयी और वर्तमान में वहीं है. पेड़ की छाल पर लिखी यह पांडुलिपि  आज से सैकड़ो साल पहले की है और उस गणितीय शून्य के प्रयोग का पहला साक्ष्य भी है जो गणितीय संक्रियाओं यानी जोड़ और घटाने में सही-सही भाग ले सकता है. जब इसकी पहले पहल कार्बन डेटिंग  हुई तब यह पता चला कि दरअसल यह कई वक्तों में लिखी गयी पांडुलिपियों का एक बण्डल है. यह एक अचरज की बात है कि पेड़ की छाल पर लिखी कोई पांडुलिपि  सैकड़ों बरसों के अंतराल में लिखी कई पांडुलिपियों का एक बण्डल है. प्रारम्भ में कार्बन डेटिंग से इसका काल दूसरी सदी ईस्वी से लेकर आठवीं सदी ईस्वी तक का निकला था.

इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्टता ज़रूरी है कि यह आलेख सिर्फ़ गणितीय शून्य पर है यानी उस शून्य पर जो गणित में अस्तित्व रखता  है और जिसका गणितीय प्रयोग किया जाता है. दरअसल शून्य का एक अस्तित्व दार्शनिक भी है जो वेदांतों में उल्लिखित पूर्णता के सिद्धांत से इतर ख़ालीपन और तिक्तता के सिद्धांत के रूप में आया है.

बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध चिंतक नागार्जुन ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था जिसे नागार्जुन के शून्यवाद के रूप में जाना जाता है. फिर यहाँ यह भी है कि गणितीय शून्य की बात हर उस शून्य की बात है जिसका कोई न कोई गणितीय प्रयोग है चाहे वह नम्बरों के निर्माण में शून्य का प्रयोग हो, लम्बाई ऊँचाई आदि नापने के पैमाने में शून्य का अंकन हो या किसी गणितीय संक्रिया में भाग ले सकने में सक्षम शून्य की उपस्थिति हो. जब हम शून्य के इतिहास की बात करते हैं तो इन सबकी बात करते ही हैं.

गुणांकों के निर्माण और गणितीय संक्रियाओं में प्रयुक्त होने में सक्षम शून्य का सबसे पुराना साक्ष्य होने के बावजूद भक्षालि पांडुलिपि भारतीय उपमहाद्वीप में गणितीय शून्य का पहला साक्ष्य नहीं है. पिंगल का समय ईसा से 200 साल पहले का है और उनकी लिखी किताब जिसे सामान्यतः पिंगल सूत्र ही कहा जाता है एक बायनरी व्यवस्था में गणितीय अंकों का प्रयोग करते हैं जिसमें 0 और 1 को लघु और गुरु कहा गया है. बारहवीं सदी में हलायुध ने इस पर एक टीका लिखी थी और कुछ इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि न सिर्फ़ फिबोनाची सीरीज का यह अनुमान  करता है बल्कि binomial Therom के आधारों को सुनिश्चित भी करता है. पिंगल हमारे यहाँ पहले विद्वान हैं जिन्होंने जीरो के लिए शून्य शब्द का प्रयोग किया और आज इसी शब्द से इस गणितीय अंक को हम जानते हैं.

पिंगल से लेकर भक्षालि पांडुलिपि के बीच के समय में संसार में तमाम जगहों पर शून्य का प्रयोग होता हुआ हम देखते हैं और इसके तमाम प्रमाण भी हैं ही. मध्य अमेरिका में आज के मेक्सिको में प्रथम सदी ईसा पूर्व में शून्य के प्रयोग के प्रमाण हैं. कुछ अध्ययनों से यह भी स्पष्ट हुआ कि यह प्रयोग माया सभ्यता से विकसित हुआ और माया में उससे पूर्व की ओलमैक से. ओलमैक सभ्यता चतुर्थ सदी ईसा पूर्व तक समाप्त हो गयी थी और सीप के आकार के शून्य का प्रयोग माया लोग करते थे.

माया लोगों की संख्या पद्धति भारत में विकसित हुए संख्या पद्धति से एकदम अलग थी. इस पद्धति  में शून्य, एक और पाँच, इन तीन अंकों पर आधारित गणितीय नम्बरों का प्रयोग करते हुए तमाम अन्य नम्बरों की रचना की गयी थी. प्रसिद्ध किताब ‘जियोमैट्री: आवर कल्चर एंड हैरीटेज’ में होल्मज ने 10 और 10 के गुणांकों पर आधारित संख्या पद्धति को इंडो-अरेबिक संख्या पद्धति कहा है. चूँकी ऐतिहासिक रूप से 10 और 10 के गुणांकों वाला संख्या पद्धति  भारतीय उपमहाद्वीप और अरब प्रायद्वीप में विकसित हुई इसलिए भी इसे इंडो-अरेबिक संख्या पद्धति कहा जाना उचित है. वर्तमान में गणित में जो संख्या पद्धति है वह यही है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि 10 और 10 के गुणांक वाले संख्या पद्धति को सही पद्धति मानने का तर्क है और इसी वजह से शून्य के अस्तित्व को इस तरह से देखा जाता है कि वह 10  और 10 के गुणांकों वाले संख्या पद्धति की रचना करता है या नहीं और गणितीय संक्रियाओं में एक पूर्णांक के रूप में भाग लेता है या नहीं.

दरअसल गणित में शून्य की स्थिति बड़ी अजीब लग सकती है. यह गिनती वाले नंबरों में नहीं है, बल्कि पूर्णांक वाले नंबरों में हैं. यह बाकी दूसरे नम्बरों की तरह से संक्रियाओं में भाग भी नहीं ले पाता है. जैसे 6 को 2 से विभाजित करने पर 3 और 2 को 6 से विभाजित करने पर 0.3333….. आता है पर ऐसा शून्य के साथ नहीं है. 0 को 6 से विभाजित करने पर 0 आता है पर 6 को 0 से विभाजित करने पर जो परिणाम प्राप्त होता है वह अपरिभाषित है. यह एक उदाहरण है और ऐसे और भी उदाहरण हो सकते हैं जो एक नम्बर के रूप में शून्य के गुणधर्म बताते हैं, इसलिए शून्य चाहे जैसा भी लिखा जाए उसके शून्य होने के लिए उसके गुणधर्म वही होने चाहिए जो कि आधुनिक गणित में शून्य के हैं. इसीलिए भक्षालि पांडुलिपि का महत्व है क्योंकि वह 10 और 10 के गुणांकों वाली उस शर्त को पूरा करती है जिसने आज की संख्या पद्धति की नींव रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और जो इंडो-अरेबिक संख्या पद्धति कहलायी. भक्षालि पांडुलिपि व्यापारियों के लिए गणितीय संगणना करने के लिए तैयार की गयी थी. जब तक इसका कालखंड पता न था तब तक ग्वालियर क़िले के एक मंदिर में मिले शून्य के अंकन का बड़ा महत्व था. ग्वालियर के क़िले से आज जहाँ गुज़री महल है उससे मान मंदिर की ओर आते वक़्त एक मंदिर पड़ता है और यह साक्ष्य यहीं से मिला है. दरअसल यह अंकन भक्षालि के बाद का है और भक्षालि में शून्य वाले हिस्से का सही समय पता करने का काम हाल ही में हुआ था और उसने इसकी प्राचीनता के कारण इतिहासकारों को अचरज में डाल दिया था.

माया सभ्यता से मेक्सिको तक शून्य के प्रयोग के जो प्राचीन साक्ष्य मिलते हैं वे अंकों के 10 और 10 के गुणांकों के रूप में विकसित इंडो-अरेबिक संख्या पद्धति से उनकी लम्बे समय तक अनभिज्ञता के बाद भी अपनी तरह से विकसित होते रहे. जब दक्षिण अमेरिका में पिज़्ज़ारो ने इंका लोगों पर हमला किया था तब तक शून्य के प्राचीन प्रयोग को एक उपकरण में प्रयुक्त किया जाता रहा था. दक्षिण अमेरिका के एनडीज पर्वतमाला में रहने वाले लोग एक चीज़ का प्रयोग गिनने के लिए करते थे जिसे कोपू (quipu ) कहा जाता है. कोपू में एक स्ट्रिंग से बहुत से सूत के मोटे धागे बंधे रहते थे. हर धागे में बराबर-बराबर दूरी में गाँठें होती थीं. ये गाँठे गिनती के नम्बर बताती थीं और गाँठों को गिनकर गिनती लगायी जाती थी. कोपू में शून्य को दर्शाने के लिए उस जगह को बिना गाँठ का रहने दिया जाता था. यानी जहाँ सूत में गाँठ हो वहाँ एक निश्चित संख्या होगी और जहाँ गाँठ न होगी वहाँ शून्य होगा. शून्य के लिए रिक्त छोड़ देना एनडीज के इन लोगों से हज़ारों साल पहले मेसोपोटामिया के लोग भी करते थे. जब 12वीं सदी में हलयुध हज़ारों साल पुराने पिंगल के कामों पर टीका लिख रहे थे और उन बातों को स्पष्ट कर रहे थे जो संसार में सबसे पहले binary system के प्रयोग, binary theorem का आधार और फैबोनाची से सैंकड़ों साल पहले फैबोनाची सीरीज के पिंगल के अद्भुत प्रयोग को समझने का आधार बना तब दुनिया में ऐसी भी तमाम जगहे थीं दक्षिण अमेरिका जैसी जो संख्या के आज के सबसे मान्य पद्धति यानी इंडो-अरेबिक पद्धति से अनभिज्ञ थे.

प्राचीन ग्रीक इस बात पर शक करते थे कि कोई ऐसा नम्बर या ऐसी कोई चीज़ भी हो सकती है जिसका मोल कुछ भी न हो. यानी उसका परिमाण, उसकी नाप या उसकी वैल्यू कुछ भी न हो अर्थात null हो. चर्चित ग्रीक चिंतक ज़ेनो ऑफ़ ईलिया ( Zeno of Elea) ने जिनका समय ईसा से चौथी समय पूर्व का है, किसी चीज़ के, किसी अंक के इस nothingness पर अपनी बात कही है. इस समय से सैंकड़ों वर्षों बाद प्रथम सदी ईस्वी के मध्य टालेमी ने शून्य का गणितीय प्रयोग किया.

दरअसल शून्य को दर्शाने के लिए जिस अक्षर का प्रयोग हम करते हैं यानी ‘0’ उसका पहला प्रयोग यहीं हुआ था. बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि इसका श्रेय टालेमी को जाता है. दरअसल यह भी है कि ग्रीक गणित में जिस शून्य का प्रवर्तन nothing और none के लिए कर रहे थे वह मूलतः उनके द्वारा विकसित न था. मेसोपोटामिया और शून्य के एक कम चर्चित प्रयोग जो अफ़्रीका में आज के ईथोपिया से है, इन दोनों का प्रभाव इन पर था और इस तरह गणित में शून्य के प्रयोग को वे ला पा रहे थे.

यह भी है कि शून्य कई जगहों पर ऐतिहासिक इमारतों और भग्नावशेषों पर दिखता है जिसके कुछ सीमित उद्देश्य रहे होंगे जैसे किसी पैमायिश के लिए बनाया गया कोई निशान या किसी अंक को दर्शाने वाला कोई ख़ुदा हुआ  अंकन. एक ऐसा ही अंकन ख़मेर संस्कृति के प्राचीन समय में कंबोडिया से है जिसमें 605 अंक को दर्शित किया गया है और इस अंक में शून्य को एक बिंदु के रूप में दिखाया गया है. पत्थर के एक स्लैब पर मिले शून्य के इस अंकन को छठवीं सदी के बाद का बताया जाता है. कुछ विद्वानों का मत है कि चूकीं तब तक भारतीय संस्कृति का प्रसार कम्बोडिया के इन क्षेत्रों तक हो गया था, इसलिए इस बात को माना जा सकता है कि यह यहीं से आया जैसा कि भक्षालि पांडुलिपि से पता चलता है, पर फिर भी इस पर अभी काफ़ी काम किए जाने की ज़रूरत है जिससे भारत से कंबोडिया में शून्य के इस प्रसार को समझा जा सके.

यहाँ यह भी स्पष्ट है कि भक्षालि पांडुलिपि का एक नवीनतम कार्बन डेटिंग भारतीय उपमहाद्वीप में शून्य के प्रयोग को इस पांडुलिपि में टैग अन्य पांडुलिपियों में से सबसे पुराने समय का बताता है. किसी सोशल साइट पर इस पर जारी हुआ एक विडीओ देखा था जिसमें ऑक्सफ़ोर्ड के दो विद्वान इस पर हुए इन कार्बन डेटिंग के परिणामों को बता रहे हैं. जानकारी पता करने पर एक बेहद रोचक बात पता चली. हुआ यह कि विद्वान पांडुलिपि के जिस हिस्से में शून्य की जानकारी है उसकी पृथक से कार्बन डेटिंग करने में सफल हुए थे और इसके परिणाम अचरज में डालने वाले थे. निष्कर्ष बताते हैं कि भक्षालि पांडुलिपि का शून्य के विवरण वाला यह हिस्सा कम से कम तीसरी सदी ईस्वी का तो है ही और इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह इससे कुछ दशकों और पहले का ही हो.

यानी 10 और 10 के गुणांकों के रूप में शून्य का प्रयोग करते हुए संख्या पद्धति का यह सबसे स्पष्ट पुरातन साक्ष्य है. इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि दरअसल इंडो-अरेबिक संख्या पद्धति के विकास में मुख्य भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप के उन लोगों की है जो इन बेहद पुरातन समय से मुख्यतः व्यापार-वाणिज्य के लिए इन नम्बरों का प्रयोग करते रहे.

किसी दौर की बग़दाद की अभूतपूर्व  लाइब्रेरी जिसे बयत अल-हिकमह कहा जाता है के प्रमुख के रूप में नियुक्त रहे गणितज्ञ मूसा अल-ख़्वारिज़मी ने ग्रीक और भारतीय गणित के ज्ञान का प्रयोग करते हुए 825 ईस्वी में कई काम किये थे. इन कामों का परिणाम यह हुआ कि शून्य के ये प्रयोग अरब प्रायद्वीप में प्रचलित हुए और इन्होंने आधुनिक अंकगणित की शुरुआत भी की ख़ासकर 12वीं सदी में जब ये सारे काम यूरोप में लैटिन में अनुदित हुए. यूरोप में शून्यजनित नंबरों का यह सिस्टम अरब से आया इसलिए ये लोग इन नम्बरों को अरेबिक कहने लगे, पर इनके कई महत्वपूर्ण हिस्से भारतीय ही थे. इसी समय से इटली के गणितज्ञ फैबोनाची ने शून्यजनित इन अंकों के विकास में भारतीय उपमहाद्वीप में किए गए कार्यों को ख़ास तौर पर रेखांकित किया. जैसा कि है ही कि फैबोनाची के नाम पर एक चर्चित श्रृंखला है जिसे फैबोनाची sequence कहते हैं जिसके आधारों को ईसा से सैकड़ों सालों पहले तत्समय के भारत में पिंगल ने खोज निकाला था.

इस तरह शून्यजनित ये नम्बर इंडो-अरेबिक के नाम से चर्चित हुए और अंकगणित का आधार बने. इन नम्बरों के आधार पर गणना  के तमाम तरीक़े विकसित होते रहे और ऐसे लोगों को जो इस तरह के गणना का काम करते उन्हें अरबी गणितज्ञ अल-ख़्वारिज़मी के नाम पर अल्गोरिसमस कहा जाने लगा और इसी से टर्म अल्गोरिथम (algorithm) बना. इस तरह शब्द अल्गोरिथम अरबी गणितज्ञ अल-ख़्वारिज़मी के नाम का बिगड़ा हुआ रूप हुआ.

प्राचीन काल में चीन में गिनने का काम अबेकस से होता था. गिनने में प्रयुक्त होने वाले इन अबेकस का इतिहास हज़ारों साल पुराना है. इनमें 10 और 10 के गुणांकों के रूप में विकसित अंकों की गिनती भी होती थी. यह कुछ इस तरह था कि शून्य की अंकगणितीय जानकारी के बिना भी यह सब था. लम्बे समय तक और यहाँ तक कि 13वीं सदी तक यह बात चीन में मान्य थी कि गणित में कोई ऐसा अंक नहीं हो सकता है जिसकी वैल्यू या मोल nothing या none हो. इस तरह गिनती लगाने के ये उपकरण जिसे कुछ लोग प्राचीन काल से कम्प्यूटर के विकास के इतिहास से जोड़ते हैं, गणना के लिए शून्य के प्रति चीन की अनभिज्ञता को दर्शाते थे.

दरअसल शून्य के साथ हम यह तो जानते हैं कि उसकी कहानी कहाँ से शुरू होती है. निश्चय ही मिश्र  और मेसोपोटामिया के प्राचीनतम साक्ष्यों से यह कहानी शुरू होती है, पर इसके अंत तक पहुँचना अपने आप में बेहद विस्तृत विषय हो जाता है. 10  और 10 के गुणांकों के निर्माण और अंकगणितीय संक्रियाओं में भाग ले सकने में सक्षम शून्य को चिन्हित करने और उनके प्रयोग का विकास भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ और binary series और theorem के विकास के सबसे पुराने प्रमाण भी यहीं से हैं, जो इस क्षेत्र में शून्य को प्रयोग कर सकने की अद्भुत क्षमता के परिचायक भी हैं. गणित में पूर्णांकों और integers में से एक गणितीय अंक के रूप में शून्य का पदार्पण एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना के रूप में देखा जाता है. पर कहानी यहीं तक हो ऐसा नहीं है.

गणित में शून्य के आने के हज़ारों सालों तक विभिन्न गणितीय शाखाओं में शून्य और शून्य आधारित चीजों की संगणनाओं का गणित विकसित होता रहा. जैसे कैलकुलस में indeterminate forms होती हैं. बीज गणित की limit theorem के अनुसार किसी limit के परिणाम का इस तरह आना कि वह शून्य के आधार पर बनने वाले सात indeterminate forms में से किसी एक की ओर tend हो जाए. इसका एक आसान उदाहरण किसी बटे वाले अंक की limit का हो सकता है जो बटे के ऊपर और नीचे दोनों तरफ़ के अंकों को शून्य की ओर ले जाता है यानी 0/0, जो कि एक indeterminate form है. यह एक उदाहरण मात्र है ऐसी कई चीजें गणित में हैं. दरअसल और जैसा कि है ही गणित में शून्य की खोज शून्य को जानने की गणितीय चेतना का मामला भी है, इसलिए किसी एक कालक्रम में शून्य अंक के मिल जाने मात्र को शून्य की खोज नहीं कहा जा सकता है. निश्चय ही आधुनिक गिनती में शून्य और शून्य आधारित अंकों की खोज जिसका श्रेय तत्समय के भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों जाता है वह एक महत्वपूर्ण खोज थी, पर न तो यह शून्य की पहली खोज थी और न ही आखिरी.

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संदर्भ सूची

  1. यूनिवर्सिटी आफ पोर्ट्समाउथ के इटे वीज़ का आलेख ‘नथिंग मैटर्ज़: हाउ द इन्वेन्शन आफ ज़ीरो हेल्प्ड क्रिएट मॉडर्न मैथमेटिक्स’
  2. रोज़ेन पब्लिकेशन की ‘द ब्रिटेनिका गाइड टू नंबरस एण्ड मेजरमेंट्स’
  3. कार्ल मैनिंजर की किताब ‘नम्बर वर्डस एण्ड नम्बर सिम्बलस: अ कल्चरल हिस्ट्री आफ नम्बरस’
  4. जॉन गलबर्ग की किताब ‘मैथमैटिक्स: फ़्राम द बर्थ आफ नंबरस‘
  5. जार्ज घेवेरघीज़ की किताब ‘द क्रेस्ट आफ द पीकॉक : नॉन यूरोपियन रूट्स आफ मैथमेटिक्स’
  6. कूरियर डॉवर पब्लिकेशन की किताब ‘द हिस्टॉरिकल रूट्स आफ एलीमेंट्री मैथमेटिक्स’
  7. गारजियन में सितम्बर 2014 में छपा आलेख ‘मच एडो अबाउट नथिंग: एनशियंट इंडीयन टेक्स्ट कंटेंस अर्लीयस्ट ज़ीरो सिम्बल’
  8. हेनरी थामस कोलब्रुक की किताब ‘एलज़ेब्रा विद अरेथमैटिक एण्ड मेनसुरेशन फ़्राम द संस्कृत आफ ब्रम्हगुप्त एण्ड भास्कर’
  9. आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की बोड़लियन लाइबरेरी का आर्टिकल ‘कार्बन डेटिंग फ़ाइंड्ज़ भक्षालि मेनुस्क्रिप्ट कटेंस ओल्डेस्ट रिकॉर्डेड ओरिजिनस आफ द सिम्बल ज़ीरो’
  10. जे.जे. ओ’कोनर और ई.एफ. रॉबर्टसन का आलेख ‘अ हिस्ट्री आफ ज़ीरो’
  11. येल ग्लोबल में प्रकाशित एन. बी. वाउलिन का आलेख ‘हाउ वाज़ ज़ीरो डिस्कवर्ड’
तरुण भटनागर

तीन कहानी संग्रह, तीन उपन्यास प्रकाशित. कई सम्मानों से सम्मानित. इधर इतिहास को लेकर भी लेखन कार्य सामने आ रहा है.

भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत
tarun.bhatnagar1996@gamil.com
Tags: 20222022 इतिहासतरुण भटनागरशून्य
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संस्मरण

छोटके काका और बड़के काका: सत्यदेव त्रिपाठी

Comments 5

  1. शशि भूषण says:
    1 year ago

    मैं सोच रहा हूं कि इस विस्तृत लेख की संदर्भ सूची में गणितज्ञ सी के राजू जी की किताब या लेखों का संदर्भ क्यों नहीं है?

    गणितज्ञ सी के राजू जी की एक छोटी सी किताब है क्या विज्ञान पश्चिम में पैदा हुआ?

    यह मील का पत्थर किताब है। इसमें गणना में शून्य की बात मिलती है। और यह भी पता चलता है कि आर्य भट , थे आर्य भट्ट नहीं।

    उल्लेखनीय है कि आर्यभट महान भारतीय गणितज्ञ हैं। वे सवर्ण नहीं थे।

    शून्य भारतीय उपमहाद्वीप की ही देन है।

    Reply
  2. Farid Khan says:
    1 year ago

    शून्य के इतिहास पर यह एक महत्वपूर्ण और रोचक आलेख है. पढ़ कर आनंद आया, विशेषकर साहित्य की पत्रिका में गणित को पढ़ कर. मेरे लिए तो ज़्यादातर जानकरियां बिल्कुल नई हैं. हैरत इस बात पर भी है कि आर्य भट्ट का तो ज़िक्र भी नहीं आया जो संभवतः पांचवीं सदी इसवी के थे.

    Reply
  3. योगेश द्विवेदी says:
    1 year ago

    शशिभूषण जी की टिप्पणी पढ़ी, वो लेखक के आलेख में सी के राजू जी का संदर्भ और चाह रहे थे । इसको तो लेखक ने ही तय करना था की राजू जी के बारे में उल्लेख करे या नहीं हां शुन्यधारित ये लेख निसंदेह बहुत अच्छा था ।
    वैसे शशि भूषण जी भी कमाल के व्यक्ति हैं आपकी पसंद विज्ञान के धरातल पर हो,और उसमे भावना का जुड़ाव कैसे हो सकता है ये उनसे भली भांति सीखा जा सकता है
    मैं धन्य हुआ ये जानकर की आर्य भर सवर्ण नही थे।
    Hatt’s off to you Shashi bhushan ji

    Reply
  4. परितोष मालवीय says:
    1 year ago

    आलेख पढ़कर ही समझ आ गया कि इस विषय पर आपका अध्ययन बेहद गंभीर रहा है। निष्पक्ष और तार्किक दृष्टि से लिखा गया ये आलेख अपनेआप में संदर्भ के रूप में इस्तेमाल हो सकता है।

    Reply
  5. Anonymous says:
    2 months ago

    Aryabhatt ke alava शून्य की अवधारणा के लिए 0की अवधारणा के लिए आर्यभट्ट के अलावा भी बहुत सारे प्रमाण इस लेख में दिए गए हैं जो कि हमारे जानकारी को और पुख्ता करने में जानने में मददगार साबित हो रहा है इस जानकारी से हम अभी तक अछूते थे परंतु अब हमें 0 के बारे में इतनी जानकारी प्राप्त हुई बहुत-बहुत धन्यवाद

    Reply

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