युद्धजन्य प्रतीक्षा की अंतहीन कथा
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एक स्त्री अपनी दिनचर्या का नियमित और विलक्षण काम करने जा रही है. यह काम वह बिना ऊब के, अथक ढंग से संपन्न करती है. सब उसे दुखित निगाहों से देख रहे हैं. उसे कोई सांत्वना नहीं दे सकता. यदि उससे कहोगे कि यह एक अनुर्वर, बोझिल आशा है तो उसकी भंगिमा कह देगी कि यह एक अनश्वर आशा है. धीरज से भरा उसका यह दैनिक कार्यभार है: इंतज़ार.
वह रोज़ उस धूल भरे रास्ते पर गाँव के बाहर जाकर प्रतीक्षा करती है. सिवान पर. खेतों के बीच ग़ायब होते, दूर तक दिखते रास्ते को देखती है कि इसी राह से उसका पुत्र मोर्चे पर गया था. उसने कहा था, वह वापस आएगा. उसे इसी राह से वापस आना है. यह माँ की प्रतीक्षा है. यह युद्ध के बाद की प्रतीक्षा है. उसके लिए जीवन का प्रत्येक दिन संतान-सप्तमी है. वह उसकी कुशलता के बारे में आश्वस्त है. वह उसके आने की राह तकती है. वह अशुभ को प्रतिदिन उठाकर शुभ के खण्ड में रखती है. बिला नागा. उस बेटे के इंतज़ार की कथा है जो सैनिक हो गया था और कभी वापस लौटकर नहीं आया. ‘अ सोल्ज़र हू डिडन्ट कम बैक’.
जो युद्ध में जाता है, वह किसी का व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं रह जाता, सैनिक हो जाता है. जिस पर कोई घात लगाता है. जो किसी पर घात लगाएगा. जो मारकर या मरकर वीर कहलाएगा. यही एक वाक्य की संक्षिप्त, गौरवमयी जीवनी होगी. लेकिन माँ के लिए तो इसका दुखमय अर्थ है कि उसका एक बेटा था. अब नहीं है. वह अपने रोज़मर्रा के इंतज़ार से समझ रही है कि उसकी प्रतीक्षा वंध्या है. लेकिन फिर भी वह राह देखती है. उम्र बीत रही है, प्रतीक्षा नहीं. वह वृद्ध हो रही है, उसकी प्रतीक्षा युवा है. यह उसका गाँव है. यहाँ की आबादी में अब स्त्रियाँ, बच्चे, मुर्गियाँ, मवेशी हैं. इक्का-दुक्का पुरुष. वीरान गलियाँ हैं, धूल है, उजाड़ है. यह युद्ध के बाद की आबादी है, यह युद्ध के बाद का जीवन है. युद्ध के समय उसके बेटे के जीवन में क्या हुआ, यह उसे नहीं पता. यह उसी की कथा है.
(दो)
यह किशोर कमसिन है लेकिन सैनिक है. हथियार चलाने के लिए मनुष्य नामक हथियार चाहिए. युद्ध बढ़ता है तो ज्यादा हथियार चाहिए. इसलिए किशोरों को भी उठा लिया जाएगा. आप कैसे मना कर सकते हैं. यह आपातकाल है. आप सैनिक रहेंगे या महज़ नागरिक, यह सरकार तय करेगी. इस किशोर सैनिक ने, ग़जब यह कर दिया कि डरकर भागते हुए, अपनी जान बचाने की जुगत में, लालबुझक्कड़पन जैसे संयोग से दुश्मनों के दो टैंक नष्ट कर दिए हैं.
साथी सैनिक और सैन्य अधिकारी उसे गर्वमिश्रित ईर्ष्या से देख रहे हैं. जनरल खुश है और विस्मित है. वह उसे वीरता का अलंकरण देना चाहता है. किशोर, जिसे हम अल्योशा कहेंगे, निवेदन करता है कि नहीं, मुझे अलंकरण नहीं चाहिए. भूषित करना ही चाहते हैं तो मुझे बस, एक दिन का अवकाश दीजिए ताकि मैं अपनी माँ से मिलने गाँव जा सकूँ. मैं यहाँ जब आया, उससे मिले बिना ही आ गया था. उसी वक़्त में घर का छप्पर भी ठीक कर आऊँगा. यह कैसा सैनिक है जो अलंकरण की जगह माँ का एक बार आलिंगन चाहता है. जनरल एक मनुष्य भी है. वह समझता है कि सभी सैनिक मन ही मन यही चाहते हैं. सभी वीर आकांक्षी होते हैं: मातृभूमि के आलिंगन से पहले एक बार अपनी जननी, अपनी माँ का आलिंगन. इस किशोर ने केवल इसे कहकर प्रकट कर दिया है.
दयार्द्र, हतप्रभ जनरल अनुमति देते हुए, एक की जगह तीन दिन की छुट्टी देता है. वह देश के भीतर के हालात जानता है. कि उसे तीन गुना वक़्त लगेगा. जीवन तीन गुना कठिन है. मृत्यु तीन गुना आसान है. यह युद्ध काल है. कहीं भी, कुछ भी ठिकाने पर नहीं है. अल्योशा अब घर की तरफ़ जा रहा है. रास्ते में कुछ नये सैनिक मोर्चे की तरफ़ आ रहे हैं. यात्रा की कौन-सी दिशा सही है. मोर्चे की दिशा. या घर की दिशा. इसका उत्तर आसान है. लेकिन इस समय यह प्रश्न आसान नहीं है.
यह युद्धकाल है.
वह घर की तरफ़ जा रहा है, यह जानकर सैनिक उसे घेर लेते हैं. वे उसके घर जाने में अपने जाने का सुख देख रहे हैं. एक कहता है, तुम्हारे घर के रास्ते में मेरा घर पड़ेगा. जहाँ से तुम रेल बदलोगे, वहीं से बस, तुम ज़रा-सी देर के लिए मेरे घर चले जाना. मेरी पत्नी से मिलना और ये साबुन उसे देना. युद्धकाल में साबुन एक अलभ्य चीज़ है. मेरी प्रिया को कहना कि तुमने मुझे ज़िंदा देखा है. इससे बड़ा उपहार क्या होगा. घर का पता है: चेखवियन स्ट्रीट. चेखव की गली में दुख के अलावा और क्या हो सकता है. उसी गली में कुशलक्षेम का सुख पहुँचाना है. अल्योशा के पास समय नहीं है. लेकिन वह मना नहीं कर सकता. वह इस तड़प को जानता है. इस कठिन काल में किसी घर में कुशलता का एक पैग़ाम, छोटा-सा जीवंत साक्ष्य, एक मिलीग्राम भरोसा भी जीवनदायी है.
(तीन)
अब अल्योशा के लिए युद्ध के मोर्चे से परे, देश के भीतर का मोर्चा शुरू होता है. लंबे युद्ध की मार से उजड़ता देश. घर-परिवार, समाज, संबंध, प्रेम, विश्वास, नैतिकता. कुछ भी साबुत नहीं. न लोहा, न काँच, न फूल, न कोई इमारत. न आदमी, न प्रकृति, न संसाधन. उजड़ने की दृश्यावली अनंत है. कोई भी देश के इस अंतरंग को देखकर जान सकता है कि बहिरंग में युद्ध है. यह उजाड़ उसी का है.
यातायात के साधन नष्टप्राय हैं. उसे कई चरणों में अपनी यात्रा पूरी करनी होगी. जो साधन सामने है, उसे पकड़ लो. वह चलती हुई मालगाड़ी में चढ़ता है. अगले स्टेशन पर घरों में पीछे छूट गए लोग सामान बेच रहे हैं. अपने ही घर का सामान. स्त्रियों पर युद्ध टूटकर गिरता है. बिजली की तरह. वज्र की तरह. उन्हें घर चलाना है. बच्चों को जीवित रखना है. इसलिए किसी तरह ख़ुद को भी. जब तक सामान है, वे उसे बेचेंगी. फिर शायद अपने आप को. लेकिन ख़रीददार भी तो होना चाहिए. यह युद्ध है.
अल्योशा देखता है कि यह एक ऐसी अवसादी यात्रा है जिसमें हर तरफ़ पीडि़त हैं. जिसे छुओ, वही दुख का एक पिण्ड निकलता है. जहाँ से छुओ, दुख की एक धार बह निकलती है. कोई बताता है कि मेरी बेटी की अभी-अभी शादी हुई. आज वह विधवा है. बीच युद्ध में से कोई विकलांग होकर ही लौट सकता है. बाद में ज़िंदा लौटे तो मन अपाहिज रहेगा. कोई न कोई विकलांगता बनी रहेगी. जिनके पास लौटोगे वे भी विनष्ट अर्थव्यवस्था के जरिये पहले ही अपाहिज हो चुके होंगे. युद्ध सबको विकलांग बनाने का कारख़ाना है. देश को, समाज को, मनुष्य को. सपनों को, इच्छाओं को, ख़ुशियों को.
उसकी इस यात्रा में, युद्ध में एक पैर खोकर घर की तरफ़ वापस लौटता सैनिक है. उसे शक है कि उसकी सुंदर पत्नी उसे इस हालत में स्वीकार नहीं कर सकेगी. इसलिए वह तार देकर सूचना देना चाहता है कि वह घर नहीं आ रहा है. तार-डेस्क पर बैठी स्त्री का वितृष्णा भरा उलाहना उसे कुछ झकझोरता है. अल्योशा यह भूलकर कि उसका अपना मूल्यवान समय जाया हो रहा है, वह उस हताश सैनिक को अपनी पत्नी तक पहुँचा देना चाहता है. कि वह देख रहा है यहाँ घर-परिवार में, समाज में भी रण का एक मोर्चा है. यहाँ भी एक सैनिक अपना जीवन हमेशा के लिए खो सकता है. यहाँ भी एक स्त्री सदैव के लिए अकेली हो सकती है. वह अपनी यात्रा ज़ारी रखेगा लेकिन पहले इस सैनिक को उसकी प्रिया तक पहुँचाएगा.
उतरे हुए अन्य यात्रियों को लेने उनके परिजन आ चुके हैं. धीरे-धीरे प्लैटफ़ार्म खाली हो गया है लेकिन इस सैनिक की आँखों में एक नाउम्मीद प्रतीक्षा है. अवसाद है. दोनों अचकचाए खड़े हैं. यकायक तमाम परदे चीरकर उसकी पत्नी आती है और पलटकर जाते हुए दुखित सैनिक को पुकारती है- ‘वास्या.’ इस मार्मिक पुकार ने एक साथ दो जीवन सँवार दिए हैं. वह व्यग्र बताती है कि सब तरफ़ आवागमन के साधन नष्ट हैं. कोई किसी के पास कैसे पहुँच सकेगा, यह किसी को नहीं पता. अब शेष कार्यभार आलिंगन ने ले लिया है. चुंबनों ने हृदयाघात को रोक लिया है. तुम ज़िंदा हो, यही उपहार है. यही जीवन है. युद्ध में कठोरतम स्टील की ज़रूरत पड़ती है. तुम्हारे बिना मैं स्टील फ़ैक्ट़्री में काम करती थी. मेरी उँगलियों में युद्ध की लौह ज़रूरतों के घाव हैं. लेकिन मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया. अब चिंता मत करो.
बिछोह के बाद का यह एक असंभव सम्मिलन है. प्रेम की पुनर्प्राप्ति का. आशंकाओं के ध्वस्त होने का क्षण है. आश्वस्ति है कि हम साथ रहेंगे. युद्ध के बाद जितना शेष रहे, जो बच जाए, उतने में ही जीवन आगे बढ़ेगा. अब हम देख सकते हैं कि प्लैटफ़ार्म पर दो लोगों के तीन पाँव एक साथ जा रहे हैं. बिना लड़खड़ाए. एक-दूसरे को थामकर. यह प्रेम की तिपाई है. वे एक-दूसरे को देखते चले जा रहे हैं. उनका दिल नहीं भर रहा है. दृश्य के दर्शक का दिल भर आया है.
अल्योशा समझ रहा है कि देश के भीतर के मोर्चे पर भी आदमी मारा जा रहा है. विकलांग हो रहा है. संबंध नष्ट हो रहे हैं. कुछ भी साबुत नहीं है. सैनिक सोच रहे हैं कि केवल वे युद्ध लड़ रहे हैं. यहाँ साफ़ दिख रहा है कि विजयी होते देश के नागरिक भी पराजित हैं. उनकी पराजय किसी को नहीं दिखती. उनकी आह विजयोल्लास में दब जाती है. उनकी उदासी, उनका शोक, फहराती पताकाओं और वृंदगानों के पीछे छिप जाता है. लेकिन फिलहाल उसका घर दूर है और समय कम है. उसे उसकी माँ से मिलने जाना है.
(चार)
गर्वोन्मत्त लड़ाकू देश में भी भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो जाता. हर आदमी मौक़े की तलाश में है. युगों से यही कहा जाता रहा है, आपदा में अवसर है. यात्रा के अगले पायदान में, मालगाड़ी में छिपकर बैठने के लिए अल्योशा को, एक सैनिक को अपना डिब्बाबंद खाना रिश्वत में देना पड़ता है. इसी डिब्बे में, वैसी ही परेशानहाल एक युवती चढ़ती है और किंचित हाय-तौबा के बाद, अब वे दो हैं. युद्धप्रसूत समाज की दुर्दशा देखने, समझने के लिए दो हतप्रभ साक्षी हैं. पतनशील दिनों के लिए दो युवतर गवाह. स्ट्रैचर्स. घायल लोग. टूटी गाडि़याँ. टूटे खंभे. टूटे पुल. पानी की भी मुश्किल. टूटे स्वप्न. और पूर्णाकार त्रास. जहाँ जाओ, मलबा दिखाई देगा. चलती गाड़ी के शीशे के पार मनोरम दृश्य नहीं हैं. हर चीज़ पर युद्ध की स्याह कूची के निशान है.
ये दोनों दोस्त हैं. प्रेमी हो सकते हैं लेकिन युद्ध ऐसा होने नहीं देगा. एक-दूसरे से शंकित ये अब विश्वासी हैं. इसका विलोम अभिशाप हो जाता. इन्हें वरदान मिल गया है. लेकिन यह युद्ध का जीवन है. इसमें कोई वरदान फलित नहीं होता. इस वक़्त में केवल यह सोचते रहो कि कहीं कोई है, जो जीवित मिलेगा. जो हमारा था और हमें वापस दिखेगा. मित्र, संबंधी, प्रिय. हमारा पेड़, हमारी गली. इस विचार से जीवित बने रहने में मदद मिलती है. अब लड़की ने अपने लंबे केशों की चोटी पीठ पर नहीं, आगे की तरफ़ कर ली है. यह प्रेमिल आश्वस्ति है, उसी से सहज निर्भीकता और सौंदर्य आ गया है. लेकिन यह जंग का समय है, जल्दी ही यह युगल अपने को एक व्यतीत प्रेम की याद दिलाएगा. इसका कोई अनुमान अभी इनके पास नहीं.
बाहर खंडहर हैं. यात्री-गाडि़याँ गिनी-चुनी हैं. बाक़ी मालगाडि़याँ हैं. ज़्यादातर मोर्चे की तरफ़ जाती हुईं. बूढ़े और स्त्रियाँ उन चीज़ों को ठीक करने में लगे हैं जो युद्ध में टूट-फूट गई हैं. वे बरबाद रास्तों, सड़कों, पटरियों को ठीक कर रहे हैं. ये सब चीज़ें जल्दी ही फिर नष्ट हो जाएंगी. खबरें कहती हैं कि लड़ाई जीत ली जाएगी. थकान और निराशा फुसफुसाती है कि संग्राम हारा जा सकता है. दोनों स्थितियों में एक आशा निवास करती है: युद्ध का अंत हो जाएगा. लोग घर लौट सकेंगे. सब तरफ़ कठिनाइयाँ दुर्जेय होंगी. हर चीज़ में शोक शामिल होगा. विजय और पराजय, दोनों का मूल्य शोक से चुकाना पड़ता है. कम या ज़्यादा. लेकिन कुछ तो हो, जीत या हार. किसी तरह जीवन वापस शुरू हो.
पानी की तलाश में ट्रेन छूट गई है. अब आने-जानेवाले इक्का-दुक्का निजी वाहनों से गुज़ारिश करो. सड़कों पर सड़क होने के अवशेष बचे हैं. कीचड़ भरे रास्ते हैं. पुरुष लाम पर हैं. औरतें ही वाहन-चालक हैं. ये भी किसी सैनिक की माँएँ हैं, पत्नियाँ, बहनें हैं. वे सिर्फ़ यही सोचती रहती हैं कि सीमा पर सब ठीक रहे. यही चिंता दिन-रात की देशभक्ति में तबदील हो गई है. कि वे सुरक्षित रहेंगे तब ही तो विजेता रहेंगे. वे भी यह सोचकर सब्र कर रही हैं कि एक दिन युद्ध ख़त्म होगा. आख़िर युद्ध को कभी न कभी ख़त्म होना पड़ता है. कि अब उनका चैन युद्ध समाप्त होने पर प्रारंभ होगा. इनमें से किसी के पास पूरी नींद नहीं है. भूख का पूरा खाना नहीं है. ख़राब मौसम भी इन्हीं स्थितियों की प्रतीक्षा करता है. इस राह में गाड़ी का पहिया बार-बार कीचड़ में फँस रहा है. मानो वर्तमान जीवन का रूपक हो गया है. वह स्त्री नींद में ड्राइव कर रही है. स्वप्निल आकांक्षा में. कि उसका बेटा एक दिन सही सलामत वापस आएगा. अल्योशा की ओर से धन्यवाद और शुभकामना. यहाँ तक पहुँचाने के लिए भी.
(पाँच)
अल्योशा अगले स्टेशन पर आ गया है. जाती हुई ट्रेन के इंजन से उठते धूम्र को चीरती हुई एक पुकार आती है- अल्यूशाSSS‼ यह पिछली गाड़ी में छूट गए प्रेम की आवाज़ है. प्यारी शूरा की. यह एक अनपेक्षित पुनर्मिलन है. उनमें फिर ऊर्जा आ गई है और आसपास का संताप कुछ सहनीय हो गया है. अपने सामान में साबुन देखकर याद आता है कि यहीं, इसी शहर में उसे साथी सैनिक के घर जाकर मुलाकात करना है. चेखवियन स्ट्रीट. यहाँ भी सब तरफ़ नष्ट होने के बाद की किरचें हैं. शहर के स्वप्न में काँच का कोई मछलीघर टूट कर गिर गया है. बहता पानी. उधर काला धुआँ और उठती आग. अब किसी भी भूदृश्य के ये पहले परिचय हैं. शहरों में, क़सबों में उनके हो सकने की चीज़ें दिखती हैं लेकिन सब अधूरी. चोटिल. विकलांग. सिसकती हुईं. चीज़ों पर ही नहीं, मनुष्यों पर भी मनहूसियत छा गई है. यह युद्ध की मनहूसियत है जो अदृश्य साँवली चादर की तरह तनी है. ये दोनों जन शहर से नहीं, उसके भग्नावशेषों में से गुज़रते हैं. कोई चीज़ साबुत नहीं है. लोगों के हृदय भला कैसे बचेंगे, वे तो सबसे पहले टूटते हैं. इसी दृश्य को चीरकर दौड़ते-भागते, वे दोनों बताए गए पते पर पहुँच गए हैं. लेकिन वहाँ तो सिर्फ़ मलबा है. मलबे में से काम लायक़ चीजों को ढूँढते-बीनते लोग हैं. ऊपर आकाश है, नीचे कबाड़ है और धूल है.
जिस सैनिक की पत्नी और पिता से मुलाकात कर कुशलक्षेम देना है, वे अपनी नियति की तरफ़ चले गए हैं. उसकी पत्नी ने सोचा लिया कि न जाने कब लड़ाई ख़त्म होगी, कब वह आएगा. या नहीं आएगा. आया तो किस हाल में आएगा लेकिन यह जीवन तो अभी जीना है. इसलिए प्रतीक्षा करने की जगह उसने दूसरे आदमी के साथ रहना शुरू कर दिया है. हर नैतिकता, अनैतिकता के पास अकाट्य तर्क है. यह हालत देखकर दुख भी अचरज में डूब जाता है. यह युद्धकाल है: प्रत्याशित के अप्रत्याशित का. और अप्रत्याशित के प्रत्यक्ष का. पता चलता है कि उसके बीमार पिता किसी अस्पताल में निराश्रित हैं. वह तय करता है कि प्रेषित भेंट, ये दुर्लभ साबुन वह उसके पिता को देगा.
उधर पिता समाचार पाकर पुलकित है और फ़िक़्रमंद है कि बेटा घायल तो नहीं हुआ. ज़िंदा तो है. अल्योशा उसके पुत्र की कुछ सच्ची, कुछ अतेरिकी प्रशंसा करता है, सोचकर कि यह भी उस व्यथित पिता की एक सहायक चिकित्सा है. आसपास के निराश्रित मरीज़ इकट्ठा हो गए हैं. वे भी यह प्रशस्ति और कुशलता गान सुन रहे हैं. इससे ‘बीमार का हाल अच्छा हो गया है’, पिता मुग्ध हो गए हैं. बाप की ख़ुशी रिसकर, बहकर सबको अपना होना बता रही है. पिता अनुनय करता है कि उसके बेटे को यह स्थिति मत बताना. केवल यह कहना कि मुझे उस पर गर्व है. यह भी कह देना कि उसकी पत्नी अच्छी तरह है, उसे याद करती है और कुछ रोज़गार कर रही है. अल्योशा उस पिता के भीतर चल रहे युद्ध को देख रहा है. इस मोर्चे पर वह असहाय है. वह नहीं जानता कि यह सांत्वनाकारी संदेश कभी पहुँचाया भी जा सकेगा या नहीं. किसी को किसी के अगले क्षण के बारे में कुछ नहीं पता. जो मोर्चे पर मार रहे हैं या मर रहे हैं, उनके साथ जो मोर्चे पर नहीं हैं, उनके नष्ट होने की संख्या कहीं ज़्यादा है. अधिक गंभीर है. अधिक निरुपाय है. उसकी कोई गणना नहीं है.
(छह)
हमारा अल्योशा, इस प्रिया, शूरा को अब खोना नहीं चाहता. वे एक-दूसरे का स्वीकार हैं. किशोर उसे अपने साथ गाँव तक ले जाना चाहता है लेकिन यह ट्रेन तो केवल सैनिकों के लिए है. वह फ़ौजी ओवरकोट पहनाकर एक रास्ता निकालता है और भारी भीड़ के बीच ‘कपलिंग एरिआ’ में वे वार्तालाप में डूबे हैं. उनकी खिलखिलाहट जैसे इस भीषण समय को चुनौती दे रही है. वे एक-दूसरे को निहार रहे हैं, मुसकरा रहे हैं, हँस रहे हैं. शायद यह एक तरकीब है कि कहीं एक-दूसरे की आँखों में आसन्न बिछोह की आशंका न दिख जाए. वे अपनी नाभि के केंद्रक से जानते हैं कि यह युद्धकाल है. यह प्रेम के निष्फल होने का काल है. प्रसन्नता और उदासी का बेमेल आभामंडल एक साथ सक्रिय होने लगा है. वे समझ रहे हैं कि अंतत: सबको किसी न किसी मोर्चे पर रहना होगा. वे तो किसी की राजनीतिक आकांक्षा की कठपुतलियाँ भर हैं. उनके पास बस, एक-दूसरे की प्रतीक्षा बची रहेगी. वह प्रतीक्षा पूरी होगी भी या नहीं, किसी को नहीं पता. आप केवल आशा कर सकते हैं. वही आधी-अधूरी पूँजी है. हुक्मरानों ने बाक़ी सब कुछ दाँव पर लगा दिया है.
इंजन का धुआँ बादलों से एकाकार हो रहा है.
वह जीवन पर, सपनों पर, उम्मीदों पर फैलता जा रहा है.
स्वीकार भाव बिछोह को आसान कर देता है. इससे सांत्वना के लिए काम आसान हो जाता है. यह वक़्त ऐसा है कि प्रेम की निष्पत्ति मनचाही नहीं होगी. और इस जाती हुई रेल में अब तुम्हारा चढ़ना मुमकिन नहीं हुआ. कोशिशें बेकार हुईं. विदा, प्रिय. विदा, मेरी शूरा. मेरे गाँव का नाम सुनो. वह भी कुछ कहती है. रेल की, लोहे की, भीड़ की आवाज़ें इनकी चहचहाट को सोख लेती हैं. प्लैटफ़ार्म पर विदाई की दौड़ भी एक-डेढ़ सौ मीटर में थम जाती है. अब वे कभी मिलेंगे? इसका जवाब किसी के पास नहीं. बस, उन्हें एक-दूसरे को भूलना नहीं है और इंतज़ार करना है. कब तक? किसी को पता नहीं. युद्धमंत्री को भी पता नहीं. तानाशाहों को, राजाओं को, प्रधानमंत्रियों को किसी के प्रेम से भला क्या लेना-देना. उनके पास प्रेम होता तो युद्ध क्यों होता. उनका प्रेम लापता है. लापता समाज. लापता देश. यह लापता समय है. यह केवल ख़बरों में जीवित है.
विदाई में हिलता हुआ एक अकेला हाथ, कंपित होकर थम गया है. सूनापन सामने पसरा है. सब जानते हैं कि अपने प्रिय के चले जाने के बाद का प्लैटफ़ार्म, संसार की सबसे उदास, सबसे ज़्यादा अवसादग्रस्त तस्वीर होती है. उसके चटख रंग भी धूसर हो जाते हैं. इन दोनों किशोरों का अल्पायु में ही आघात से साक्षात्कार हो गया है. शूरा के लिए यह मर्मान्तक है. ‘सुनो, जब मैं बता रही थी कि मेरा कोई मँगेतर नहीं है तो दरअसल मैं कह रही थी कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ.’ उसके पाँव प्लैटफ़ार्म के फ़र्श पर नहीं हैं, किसी रेगिस्तान की रेत में धँस गए हैं. उसे रेत के समुद्र में चलकर वापस जाना है. कहाँ. कहना मुश्किल है. एक दिवसीय मुलाकात बिंबों, छवियों से लबरेज होकर मनोजगत में फैल रही हैं. प्रेम संक्षिप्त होता है, उसे विस्मृत करने की अवधि अनंतकाल तक चली जाती है. यह जीवन क्या है? प्रेमोपरांत बिछोह में बहते आँसुओं का स्थापत्य. कहने को भंगुर लेकिन अमर. यह वक़्त उस गुज़र चुकी रेल की तरह है जो वापस भी आएगी तो जो ले जा चुकी है, उसे वापस नहीं लाएगी. तुम इस प्लैटफ़ार्म पर लौटकर आओगे भी तो जो छोड़कर गए हो, उसे वापस नहीं पा सकोगे. सब कुछ विपरीत दिशाओं में यात्रा करने के लिए विवश है. अब भूलो और आगे बढ़ो. मगर आंसुओं ने दृश्यों को, राह को धुँधला कर दिया है.
(सात)
घर तक पहुँचने के लिए यात्रा के ये अंतिम चरण हैं. अल्योशा को एक युवा सहयात्री बता रही है कि हम सपरिवार यूक्रेन से हैं. हर वसंत में पक्षियों की तरह यात्रा करते हैं. उस तरफ़ जिधर भोजन मिल जाए, नीड़ बन जाए. अस्थायी हो लेकिन बसेरा हो जाए. हालाँकि पक्षियों की तरह हमें कई बार ठीक दिशा ज्ञान नहीं होता है. लेकिन हम जाते हैं. काम की तलाश में. कोई कहता है, हमारे बच्चे पहले ही उधर जा चुके हैं, जिधर भूख ले जाती है. वे सब उत्सुक हैं. चिंतित हैं. डरे-सहमे हैं. वे परदेश जा रहे हैं.
अल्योशा कह रहा है कि अब केवल एक रात ही घर रुक सकूँगा. पूरा समय तरह-तरह के कामों में खर्च हो गया. उसे नहीं पता कि एक रात भी नसीब नहीं होगी. आगे रेलवे पुल ध्वस्त हो चुका है. और यकायक इस ट्रेन पर भी बम गिर गया है. कुछ डिब्बे आग में जल रहे हैं. अब घायलों को बचाना है. डिब्बों में से बाहर निकालना है. सीमाओं पर युद्ध के साथ, एक मोर्चा यहाँ भी बन गया है. रात इसी में बीतनेवाली है. जंग एक रात का वक्त़ भी माँ को नहीं देती. बेटे का नहीं देती. युद्ध किसी संबंध को वक़्त नहीं देता. यह पिशाच है. हमारे भीतर का. हमारा ही लहू माँगता हुआ. सब कुछ लीलता हुआ. अभी जो चिड़ियों की तरह चहक रही थी कि हम वसंत में भटकते हैं. उसकी भटकन, उसकी उड़ान समाप्त हो गई है. वह घास के नन्हे फूलों के बीच, पटरियों के किनारे निश्चेष्ट है. जो सचमुच के फूल हैं, प्यारे हैं, उत्साह और उमंग से भरे हैं, वे झाड़ियों और झरबेरियों के बीच झर रहे हैं. इस पतझर में फूल झर गए हैं. यह युद्ध है, यह सीमा पर नहीं, असीम पर चलता है. यह मनुष्यों को ही नहीं, बाक़ी चर-अचर को भी मारता है.
सुबह हो गई है लेकिन उसके पास यह आख़िरी दिन बचा है. उसे माँ के पास पहुँचना है. घर पहुँचना है और वापस भी जाना है. घर का छप्पर ठीक नहीं कर सकेगा लेकिन माँ को देख सकेगा. यातायात के साधन नहीं हैं. उनके इंतज़ार करने का समय भी नहीं है. वह हवाओं पर चलेगा. पानी पर चलेगा. इच्छाओं पर सवार होगा और माँ के पास पहुँचेगा. उसे यह रास्ता कितनी बार याद दिलाएगा कि देखो, पूरा देश बरबाद है. आख़िर एक लॉरीवाले को उस पर दया आती है. अब वह रास्ता दिखता है जो मुख्य सड़क से उसके गाँव की ओर मुड़ता है. वह तीन छलाँग में घर के सामने पहुँच गया है. दरवाजा बंद है. दस्तकें व्यर्थ हैं. चाबी हमेशा की तरह ऊपर चौखट की ओट में रखी है. माँ घर पर नहीं, खेत में है. पुरुषविहीन गाँव के लोग यानी छोटे बच्चे, लड़कियाँ और महिलाएँ. उनमें से कोई भागकर उसकी माँ को सूचित करने जा चुका है. इधर अल्योशा कृपालु ड्राइवर के साथ लॉरी में बैठकर खेत की तरफ़ जा रहा है.
अब मैराथन शुरू होती है.
माँ अपने बेटे को छाती से लगाने के लिए खेत से घर की तरफ़ दौड़ रही है. जैसे यह होड़ युद्ध से भी है. डेढ़ मिनट की यह दौड़ आज तक के सभी धावकों, विजेताओं पर भारी है. इतना ही समय बचा है, काल तुझसे होड़ है मेरी. ममता और वात्सल्य की साँसों से आप्लावित. यह माँ की दौड़ है. उस आलिंगन के लिए जो अतुलनीय है. अनंत है. जिसके बारे में कोई नहीं जानता कि यह अंतिम है. थकान माँ को श्लथ कर रही है. बेटा दौड़कर उसे थाम लेता है. एक अपूर्व, शब्दातीत, वाक् को अवाक् करनेवाला आलिंगन समक्ष है.
गिरा अनयन, नयन बिनु बानी.
(आठ)
”तुम कैसी हो माँ.”
”वैसी ही, जैसी यहाँ सभी स्त्रियाँ हैं.” यानी अकेली. जर्जर. आशंकाओं से पीली. प्रतीक्षाओं के कच्चे धागों पर झूलती. आशा से निराश. सबके आत्मीयजन युद्ध में हैं. हम युद्ध के दौर की स्त्रियाँ हैं. बचे-खुचे, न्यूनतम स्नेह, प्रेम और वात्सल्य अधिकारों से भी वंचित. आगे हम युद्ध के बाद की स्त्रियाँ होनेवाली हैं. यानी जो अभी दिखता है उसमें से कुछ घटा दो, कुछ का भाग दे दो और दुखों का गुणा कर दो. हम किसी भी समीकरण में संतुलित और सिद्ध नहीं हो सकेंगे.
बाकी महिलाओं ने भी अल्योशा को घेर लिया है. हर कोई अपने जन का समाचार जानना चाहता है. लेकिन माँ चाहती है, वह थोड़ा विश्राम कर ले. कुछ खा ले. पी ले. बेटा कहता है, मैं तो एक मिनट के लिए ही आया हूँ. यह वाक्य माँ पर वज्रपात है. माँ, मैं घर की छत भी सुधार देता लेकिन मुझे तुरंत जाना होगा. यहाँ तक आने में ही मेरा सारा समय बीत गया. तुम्हारे लिए यह स्कॉर्फ़ लाया हूँ. फिर एक संवाद जो दुनिया की हर माँ, हर बेटे से कहती है. जिसे बार-बार चुराया जाता है, लिखा जाता है मगर जिस पर सबका अधिकार है. जो कभी बासी नहीं होता. पुराना नहीं पड़ता: -”तुम बड़े हो गए हो लेकिन दुबले हो गए हो. क्या तुम बीमार हो.” लेकिन यहाँ इसका शाश्वत उत्तर कुछ बदला हुआ है- ”नहीं, युद्ध हमें बीमार होने की इजाज़त नहीं देता.” युद्ध ख़ुद एक बीमारी है. वही है जो सबको रोगी बना देता है.
सब स्त्रियाँ पूछ रही हैं कि युद्ध कब ख़त्म होगा. बेचारे अल्योशा के पास कोई जवाब नहीं. जिनके पास जवाब है, वे देंगे नहीं क्योंकि सच्चे जवाबदेह कोई जवाब नहीं देते. उधर लॉरी ड्राइवर को देरी हो रही है. वह अपना काम, अपनी राह छोड़कर संवेदनावश यहाँ आ गया है. वह हॉर्न बजाता है. यह जैसे वियोग का बिगुल है. मरणांतक. दोनों इसे पहचान गए हैं. और चौंक गए हैं. माँ व्याकुल टिटहरी हो जाती है: ”मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी.” लेकिन युद्ध में कोई किसी को कैसे रोक सकता है. आज तक कोई नहीं रोक सका है. यह हत्यारों का अश्वमेध है. एक प्राण दूसरे प्राण को जाने से नहीं रोक सकता. माँ भी पुत्र को छाती में भींच सकती है, अँकवार में भर सकती है. रोक नहीं सकती. यह बिछोह का रुदन है. इसे गौरवपूर्ण ढंग से रोना है. लेकिन रोते समय यह याद नहीं रहता. यह आशंका का अग्रिम विलाप है. फिर ख़ुद को हौसला देता हुआ: ”तुम जाओ, मैं ज़िंदा रहूँगी और तुम्हारा इंतज़ार करूँगी.” यह माँ का वचन हुआ.
बेटा कहता है- मैं वापस आऊँगा, माँ. उसे अंदाजा नहीं कि वह ऐसा वायदा कर रहा है जिसका निर्वाह अकेले उसके बस की बात नहीं. वह सैनिक जो अन्यथा एक बेहतर मनुष्य का जीवन जी सकता था. एक श्रमिक, नागरिक, कलाकार. वह अब स्मृति में है. एक सैनिक है, किसी अनजान ज़मीन में दफ़न. उसकी क़ब्र पर अनाम जंगली फूल खिलते होंगे. उसके आसपास घास लहराती होगी. लेकिन इधर उसकी माँ उसका इंतज़ार करती है. उसने वचन हारा है. रास्ते के उसी वियोग बिंदु पर, जहाँ माँ को चूमकर बेटा गया था. वह बेटे के आख़िरी शब्दों पर भरोसा करती है. सच मानती है. वह उसका प्यारा बेटा था. वह झूठ क्यों बोलेगा. वह उसी रास्ते से उसके आने की प्रतीक्षा करती है. प्रतिदिन. उसकी आँखों में जो वीरानी दिखती है, वह सूने रास्ते की वीरानी है.
उसका पुत्र, वह एक सैनिक था, जो फिर कभी लौटकर नहीं आया. यह उस सैनिक की कथा थी. सैनिक के बहाने उस देश की, जो युद्ध लड़ता है. प्रेम की, माँ की. और हम सबकी. उनकी जो जंग नहीं लड़ना चाहते मगर जंग में झोंक दिए जाते हैं. और उस उन्मत्त्ता की जो तत्क्षण सबको नश्वर बना देती है.
Ballad of a Soldier, 1959./Director : Grigoriy Chukhray.
इस अविस्मरणीय फ़िल्म को ख्यात सिने समीक्षक, पत्रकार, लेखक श्री जयप्रकाश चौकसे जी के आग्रही सुझाव की वजह से देखने के लिए प्रेरित हुआ था. उनके रहते यह आलेख लिखा होता तो अधिक संतोष होता. अब यह उनकी स्मृति को सादर समर्पित है.
आभार-
(कवि ग़ालिब, तुलसीदास, पाब्लो नेरूदा और शमशेर बहादुर सिंह: इनमें से प्रत्येक की एक पंक्ति या अर्द्धाली का उपयोग किया है.)
कुमार अंबुज |
शानदार। जबकि समालोचन ने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। इंटरनेट पर एक दशक तक इतनी स्तरीय पाठ्य सामग्री बिना किसी संसाधन और निजी प्रयासों से चलाना भी एक अलग इतिहास है। आज पूरी हिंदी इंटरनेट की दुनिया में साहित्य की इतनी स्तरीय पत्रिका नहीं जो लगातार इस दौर के समय/ अतीत को समाज/ संस्कृति/कला/ सिनेमा के माध्यम से समृद्ध कर रही हो।
सुंदर फिल्म। यूट्यूब पर भी उपलब्ध है । लिंक शेयर कर रहा हूं।
https://youtu.be/H2ZFe7XGwt8
कुमार अम्बुज और आपको बधाई। यह वाकई अद्वितीय श्रृंखला है। अम्बुज विरल और विवेकशील गद्यकार भी हैं। वह अपने दौर में जरूरी रचनात्मक हस्तक्षेप करते हैं।
समालोचन का यह प्रयास सराहनीय है कि उसने अपने को साहित्य तक ही सीमित नहीं रखा। उसने अपने दायरे का लगातार विस्तार किया है। सिनेमा, संगीत, चित्रकला, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन आदि अनुशासनों की उत्कृष्ट सामग्री भी समालोचन पर पढ़ने को मिलती है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस काम को सम्पादक अरुण देव ने जिस कुशलता, प्रतिबद्धता, समर्पण और एक स्पष्ट दृष्टि के साथ संभव किया है वह स्तुत्य है। सिनेमा पर कुमार अम्बुज को पढ़ना एक दुर्लभ अनुभव है। उन्हें पढते हुए क्लासिकी का अनुभव होता है। विष्णु खरे की कमी दूर होते महसूस होती है। कुमार अम्बुज का सुंदर गद्य भी अपील करता है। यह सिलसिलता बढ़ते रहना चाहिए। अरुण देव और कुमार अम्बुज को शुभकामनाएं। नए साल (हिंदी) की बधाइयां।
युद्ध पर इतनी मारक फिल्म और उसके बहाने इतनी गहन पड़ताल और विवेचना- इसे प्रस्तुत करने के लिए अंम्बुज जी को साधुवाद।युद्ध एक मनोरोग है खब्ती हुक्मरानों का। जनता जंग नहीं चाहती लेकिन जबरन उनपर थोपा जाता है,उन्हें उस आग में झोंका जाता है। यह पूरी फिल्म जरूर देखनी चाहिए उस पूरी विभीषिका को महसूस करने के लिए।समालोचन को साधुवाद!
समालोचन ने साहित्य और इतर दुनिया के लिए नये दरवाजे खोले हैं। ये बहुत ही महत्वपूर्ण है आज के इस सत्तालोलुप और व्यापारिक समय में। कुमार अंबुज हमारे प्रतिरोध की ताकत हैं। फिल्म हो या कविता वो उसके सौंदर्यबोध में ही प्रतिरोध को इस तरह पिरो देते हैं कि वो वक्त का शाहकार बन जाता है। उनको पढ़ना एक तरह से खुद को जांचना भी होता है और तैयार करना भी होता है।समालोचन, अरुण भाई और कुमार अंबुज जी को सलाम।
यह लेख सिनेमा पर नहीं बल्कि उसकी लयात्मक गति पर है । पात्रों की जीवन-स्थिति युद्ध के वातावरण में कैसे घटित होती है , यह बताने में यह लेख जिस गद्य का सहारा लेता है , वह अकेलेपन का गद्य है , इसमें एकालाप का प्रवाह है । जबकि , सिनेमा संवाद की जमीन पर अर्थवान हुआ करती है । सिनेमाई भाषा , ध्वनि , संगीत आदि पर इस लेख की चुप्पी है । बावजूद इसके यह लेख अपनी लयात्मकता में , गद्य के गठन की सौन्दर्यात्मकता में बेहद प्रभावी है ।
सारंग उपाध्याय जी ने सही कहा है कि ”समालोचन ने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया है.” बीते एक दशक से भी अधिक समय से अनवरत उत्कृष्ट साहित्य को पाठकों के समक्ष लाते रहना आसान कार्य नहीं है .लेकिन अरुण जी अपनी संकल्प शक्ति ,जीवटता से अनवरत सफलतापूर्वक यह करते हुए एक नया परिदृश्य गढ़ने में सफल हो रहे हैं . कुमार अम्बुज जी को पढ़ना तो खैर एक नए अनुभव से गुजरना होता ही है .यह आलेख पढ़ कर लगा मानो यूक्रेन में ही भटक रहा हूँ . वहां सबकुछ तो वही घट रहा है जो अम्बुज जी ने लिखा है .किसी भी युद्ध में सबसे दयनीय स्थिति महिलाओं ,बच्चों की ही होती है .वह यूक्रेन दिख रहा है ….. श्रृंखला की अगली कड़ी की प्रतीक्षा में कुमार अम्बुज जी आपको बहुत बहुत बधाई .
प्रदीप श्रीवास्तव
सूक्ष्म विवेचन दृष्टि और काव्यात्मक प्रवाह। अम्बुज जी के आलेख शृंखला की यह ताज़ा कड़ी निश्चित ही प्रतिरोध के स्वर में आवाज़ बुलंद करना है। आभार। अरुण देव जी और ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।
यह देखी हुई फ़िल्म थी। इस काव्यात्मक गद्य को पढ़ने के बाद पुनः देखने की इच्छा जगी है। यह एक ऐसी श्रृंखला है जिसका बेसब्री से इंतज़ार करता हूं। अंबुज सर और अरुण देव जी दोनों को बहुत बहुत बधाई
फिल्म को परत दर परत खोलती समीक्षा. इस फिल्म के माध्यम से अंबुज जी ने युद्ध के ऐसे पहलुओं को छुआ जिसे एक पत्नी, एक मां, एक बच्चे की व्यथा की तरह देखा जा सकता है.
युद्ध के इतर हर कहीं युद्ध है, हर कोई मोर्चे पर है, हर कोई घायल, हर किसी की इच्छा दफन है, हर किसी का स्वर भीगा हुआ.
अंबुज जी का धन्यवाद फिल्म को इतने बेहतरीन ढंग से पाठकों के लिए लिखने हेतु.
समालोचन पर कवि-कहानीकार कुमार अंबुज का फिल्मों पर लिखा जा रहा गद्य एक ऐसी रचनात्मक विधा के रूप में सामने आया है जहां विधाओं की किसी भी तरह की विभाजन रेखा का विसर्जन है। और यहीं से यह गद्य अपना वैशिष्ट्य अर्जित करते हुए उस भूमि का अहसास कराता है जो सिर्फ कवि की ही भूमि नहीं है। इसे कवि का गद्य कहकर आंकना कमतर होगा। अपनी नैसर्गिक काव्यात्मक संवेदना को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए यह गद्य स्वप्नशील गद्य है जिसमें सब कुछ को बचाए रखने की एक एक विरल बेचैनी है। यह किसी भी पल को पलभर से मुक्त कर अमरता में विन्यस्त कर देने का हासिल जतन है। वे जिन फिल्मों पर लिख रहे हैं, यही काम करती हैं। सारी कलाओं का यही अभीष्ट है। अंबुज जी यही काम अपने भिन्न कलागत वैशिष्ट्य से साकार करते हैं। इसकी मार्मिकता और मारकता उस माध्यम से जुड़ी होकर भी अपनी स्वतंत्र सत्ता क़ायम करती है। गद्य की इस नई दुनिया के लिए अंबुज जी और समालोचन को बधाई दी जाना चाहिए।
हम जिस तरह के अघोषित युद्ध के दौर से गुजर रहे हैं उसकी रोंगटे खड़े कर देने वाली अनुभूति कराता है कुमार अंबुज का यह गद्य।
“हम युद्ध के दौर के नागरिक हैं. बचे-खुचे, न्यूनतम स्नेह, प्रेम और वात्सल्य अधिकारों से भी वंचित. आगे हम युद्ध के बाद के नागरिक(?) होनेवाले हैं. यानी जो अभी दिखता है उसमें से कुछ घटा दो, कुछ का भाग दे दो और दुखों का गुणा कर दो. हम किसी भी समीकरण में संतुलित और सिद्ध नहीं हो सकेंगे.”
मैं समालोचन में प्रस्तुत इस और पूर्ववर्ती आलेखों को सिनेमा साहित्य कह कर किसी परिभाषित सीमा में नहीं बांधना चाहता – ये आलेख फ़िल्मों की दिखने वाली जमीन पर खड़े होकर देश काल की निस्सारता का एहसास कराते हुए मनुष्यता की उन गहरी और अनदेखी परतों को उधेड़ते हैं जिनसे हिंदी के पाठक अब तक अपरिचित रहे हैं।यह विधाओं के पारंपरिक स्वरूपों का खंडन विखंडन करने वाला सचेत और आग्रही लेखन है – अप्रासंगिक हथियारों से विकट मनुष्य विरोधी समय की नित नई चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता है…और मुझे यह कहने में कोई संशय नहीं कि कुमार अंबुज उन चुनौतियों के लिए नई भाषा और चिंतन शैली का विकास कर रहे हैं।समालोचन उन्हें यह मंच प्रदान कर रहा है,उनको सलाम।
यादवेन्द्र
“यह जीवन क्या है? प्रेमोपरांत बिछोह में बहते आँसुओं का स्थापत्य. कहने को भंगुर लेकिन अमर. यह वक़्त उस गुज़र चुकी रेल की तरह है जो वापस भी आएगी तो जो ले जा चुकी है, उसे वापस नहीं लाएगी. तुम इस प्लैटफ़ार्म पर लौटकर आओगे भी तो जो छोड़कर गए हो, उसे वापस नहीं पा सकोगे. सब कुछ विपरीत दिशाओं में यात्रा करने के लिए विवश है. अब भूलो और आगे बढ़ो.” जैसी पंक्तियाँ गढनेवाले Kumar Ambuj जी की ये सभी समीक्षाएँ उन फिल्मों से बहुत आगे बढ़ जाती हैं जिन पर लिखी जाती हैं। अच्छा सिनेमा अच्छी पुस्तकों से भी अधिक देर अपने असर में रखता है क्योंकि उसमें कथा संघनित करके प्रस्तुत की जाती है, हज़ार पंक्तियों का एक दृश्य। और ऐसे सारे दृश्य इस्पात की बर्छी की तरह हमेशा हमारी स्मृति में खुबे रहते हैं। अच्छी क़िताबों की तरह अच्छा सिनेमा भी हमें बेहतर मनुष्य बनने की दिशा में ठेलता रहता है।
कुमार अम्बुज जी की सभी समीक्षाएँ इस विधा में श्रेष्ठ होने का दावा प्रस्तुत करती हैं। युद्ध की विभीषिका को परत दर परत खोलती यह समीक्षा भी। हमारा सौभाग्य है कि हम इनके पाठक हुए।
कुमार अंबुज; आप अपने घर में रहते हुए भी सारी दुनिया की ख़बर रखते हैं । आल्योशा और शूरा का मालगाड़ी में प्रेम मिलन विछोह में बदल गया । इसके पीछे युद्ध ही कारण है । तानाशाह और प्रधानमंत्री नहीं जानते कि प्रेम क्या है । उनकी प्रजा से युद्ध में सैनिकों की ज़रूरत है । युद्ध के कारण युवक माँ से बिछड़ गये हैं । उनके गाँवों में कुछ बूढ़े आदमी, युवा औरतें और बच्चे बाक़ी हैं । माँए खेत को सँभालने निकल जाती हैं । वे युद्ध के मोर्चों पर गये अपने बच्चों की फ़िक्र है । हर माँ अपने पुत्र को कहती है-तुम्हारा क़द बढ़ गया है और तुम पतले हो गये हो । खाना वक़्त से नहीं खाया होगा । युद्ध हो कि शांति काल माँ की ये पंक्तियाँ पत्थर की लकीर के समान हैं । अल्योशा को युद्धरत सैनिकों के संदेश रास्ते में पड़ने वाले उनके गाँव में देने हैं । इसका विवरण भी न भूलने वाला है । जैसे शूरा ने आल्योशा को कहा था कि मेरा मंगेतर नहीं है और इसका मतलब है कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूँ । आल्योशा गाँव के क़रीब के प्लेटफ़ॉर्म पर उतरता है तो प्लेटफ़ॉर्म सुनसान नज़र आता है । अंबुज जी, हमारे नगर के रेलवे स्टेशन पर दिन में चार-छह ट्रेनें आती हैं । उसके बाद और पहले प्लेटफ़ॉर्म सुनसान दिखायी देता है । पैंतालीस वर्ष की आयु से पहले मैं बड़ी बहन से मिलने के लिये रेलगाड़ी से रेवाड़ी जाता था । सुनसान भरे नज़ारे देखता था । सारा लिंक पढ़ा है । ढेरों पंक्तियाँ उद्धृत की जा सकती है हैं । जैसे माँ अपने सैनिक बच्चे से कहती है कि तुम युद्ध भूमि में जाओ । मैं नहीं मरूँगी; तुम्हारा इंतज़ार करूँगी ।
प्रिय भाई, यह पूरी कविता है। इसे पढ़ते हुए मैं युद्ध के मोर्चे पर चला गया। उन सबके लिए जो युद्ध में नहीं होते, लेकिन युद्ध लड़ते हैं, जिन पर कोई बम नहीं गिरता लेकिन जो मरने के लिए अभिशप्त होते हैं। युद्ध में सिर्फ वही जान नहीं गंवाते जो मोर्चे पर होते हैं, वे भी जान गंवाते हैं, जो युद्ध के खत्म होने के इंतजार में होते हैं। इतना सुंदर गद्य कि मैं रुका नहीं इसे पढ़ते हुए। यह आज के समय की कथा है। हम सब उसी गली में हैं, जो बारूद और विनाश के धुएं से भरती जा रही है। हम फिर भी आशान्वित हैं कि एक दिन युद्ध खत्म होगा।
बहुत आभार इसे पढ़ने के लिए मुझे देने का।
पढ़ कर चकित हूँ। देखी नहीं है, देखनी है। सटीक समय पर चुनी आपने यह फ़िल्म समीक्षा के लिए।
सिनेमा.. खासकर, विश्व सिनेमा पर सार्थक लेखन के लिए कुमार अम्बुज जी बधाई के हक़दार हैं. बतौर संजीदा कवि उनकी पुस्तकें साहित्य की धरोहर हैं, गद्यकार के तौर पर समालोचन के माध्यम से सिनेमा से जुड़ी ये श्रँखला स्वागत योग्य और संग्रहणीय है.. शोध विद्यार्थियों के लिए उपयोगी भी. कुमार अम्बुज, कभी हिंदी सिनेमा को लेकर भी लिखेंगे, उम्मीद की जाती है.