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समालोचन

Home » अबला नहीं सबला: फ़रीद ख़ाँ

अबला नहीं सबला: फ़रीद ख़ाँ

फ़रीद ख़ाँ को हिंदी कवि के रूप में हम सब जानते ही हैं, कथाकार फ़रीद ख़ाँ इस कहानी से अब सामने आ रहें हैं. फ़रीद टीवी और फ़िल्मों से जुड़े हुए हैं और यह कहानी भी यहीं से उठाई गयी है. दर्द को बेचने वाली यह दुनिया अंदर से कितनी बेदर्द है, इन सबके बीच पीड़ित की विडम्बना को यह कहानी बखूबी बयाँ करती है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 17, 2022
in कथा
A A
अबला नहीं सबला: फ़रीद ख़ाँ
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अबला नहीं सबला

फ़रीद ख़ाँ

टीवी कार्यक्रम ‘अबला नहीं सबला’ की टीआरपी गिरती जा रही थी. अगर इस बार की रेटिंग में सुधार नहीं हुआ तो कार्यक्रम बंद होने की धमकी चैनल से मिल चुकी थी. पूरी टीम पर दबाव था. सबसे ज़्यादा दबाव था प्रोडक्शन वाले समीर काले पर. रेटिंग के गिरते ही प्रोड्यूसर अपनी टीम में छंटाई करने लगता है ताकि कार्यक्रम बंद होने पर ज़्यादा नुकसान न उठाना पड़े. तो समीर काले को प्रोडक्शन के काम के साथ-साथ क्रिएटिव हेड और एग्ज़क्यूटिव प्रोड्यूसर का भी काम देखना पड़ता था. वैसे वह भी इसीलिए ढेर सारे काम अपने सिर पर ले लेता था ताकि उसे नौकरी से निकाला न जाए और हर बात पर लोग उसे ही पुकारें – “समीर यह काम हुआ कि नहीं, समीर वह काम हुआ कि नहीं”. बिना समीर के कुछ नहीं हो सकता. वह एक आदमी की तनख़्वाह पर तीन आदमी का काम कर रहा था. इसी में उसका आनंद था और प्रोड्यूसर का भी.

कभी-कभी अपने दोस्तों के सामने शराब के नशे में समीर के उद्गार निकल ही आते थे कि

“प्रोड्यूसर को हिन्दी में निर्माता बिल्कुल ग़लत कहते हैं. वह किसी चीज़ का निर्माण नहीं करता. कुछ हद तक प्रोड्यूसर शब्द फिर भी ठीक है लेकिन वह भी सही नहीं है. प्रोड्यूसर को असल में मुनाफ़ेबाज़ कहना चाहिए”.

तो ‘अबला नहीं सबला’ की सीमा यह थी कि वह कार्यक्रम वास्तविक जुझारू महिलाओं की उपलब्धियों पर आधारित था, दूसरे, उन कामयाब महिलाओं का साक्षात्कार मुंबई के स्टूडियो में बुला कर लेना होता था. अगर मामला डॉक्यूमेंट्री का होता तो फिर भी आसान होता और सबसे अच्छा होता कि सब कुछ काल्पनिक होता, डेली सोप की तरह.

“औरतों की कहानी बनाना कौन सा रॉकेट साईंस है. चुटकियों में बना देते, एक सिगरेट पर एक कहानी, यूँ राख झाड़ते हुए”.

सिगरेट को चाय में बुझाते हुए झुंझलाहट में समीर के मन में ये सारी बातें उभरती रहती थीं.

समीर काले पर इस बात का दबाव था कि रिसर्च करके ऐसी महिलाओं को लेकर आओ जिन्होंने कुछ उपलब्धि हासिल की है. लेकिन सौ एपिसोड के बाद ऐसी अन्य महिलाएँ अब मिल ही नहीं रहीं थीं. वह इस बात पर ज़्यादा झुंझला रहा था कि

“एक सौ तीस करोड़ के मुल्क में सौ महिलाएँ भी ऐसी मिल गईं जिन्होंने जीवन में कुछ किया है, यही बहुत है. अब बंद कर देना चाहिए यह कार्यक्रम”.

लेकिन कार्यक्रम कैसे बंद कर दें ? सत्तर लोगों की यूनिट की रोज़ी रोटी का सवाल है. ख़ुद उसकी भी रोज़ी रोटी का सवाल हमेशा खड़ा रहता है. तो कार्यक्रम को बंद तो नहीं कर सकते बल्कि किसी भी तरह बंद होने से बचाना ही है, ऐसा उसने सोचा.

बहुत रिसर्च करने के बाद समीर को एक ऐसी लड़की के बारे में पता चला जो अपने बलात्कार का केस लड़ रही थी. तो समीर ने प्रोड्यूसर को समझाया–

“यह भी तो एक तरह का जुझारूपन है ?”

प्रोड्यूसर ने गुटखा खाते हुए सवाल किया–

“लेकिन इसमें उपलब्धि क्या है ? बलात्कार ही तो हुआ है न ?”

तो समीर ने फिर समझाया–

“उसकी कहानी भावनात्मक तो है ही, डेली सोप से ज़्यादा रोने धोने को मिलेगा, लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि है कि लोग उसकी कहानी से प्रेरित भी होंगे. सैंकड़ों महिलाओं को आवाज़ उठाने की प्रेरणा मिलेगी”.

उसने उपलब्धि पर ज़ोर देते हुए कहा –

“यह बहुत बड़ी और नए तरह की उपलब्धि है”.

उसने टैग लाइन की तरह कहा –

“एक प्रेरणादायी महिला”.

प्रोड्यूसर को बलात्कार में उपलब्धि का एक नया ‘एंगल’ समझ में आ गया. वह चैनल की मीटिंग में अधिकारियों को समझाने के लिए फफक कर रो पड़ा और अंत में उसने यह भी जोड़ दिया कि “कोई भी इंसान जिसके सीने में दिल है वह इस कहानी को ख़ारिज नहीं कर सकता”. अब यह सुन कर चैनल का कौन सा अधिकारी इस कहानी को ख़ारिज करता. इस तरह बलात्कार पीड़िता के साक्षात्कार वाला एपिसोड ‘अप्रूव’ हो गया.

प्रोड्यूसर सीना चौड़ा करके मीटिंग से बाहर निकला. चैनल से वापस लौटते हुए रास्ते में उसने समीर को उपदेश देने के लहजे में कहा–

“कहानी सोचना एक बात है लेकिन कहानी बेचना बिल्कुल अलग बात है. एकदम अलग ही टैलेंट है. इसका कहानी सोचने और कहानी लिखने से कोई मतलब नहीं है”.

समीर ने हाँ जी सर, हाँ जी सर कह कर उसकी बातों की पुष्टि की. प्रोड्यूसर ने एक जगह गाड़ी रोक कर उसको जम्बो-वडा-पाव भी खिलाया. प्रोड्यूसर का मिज़ाज अच्छा देख कर समीर ने इशारों इशारों में अपनी तनख़्वाह बढ़ाने की बात की, एकदम हँसी में लपेट कर–

“सर कहानी तो तब बेची जाएगी न जब सोची जाएगी. वैसे तो मैं बेच भी लूं लेकिन एक साथ तीन-तीन काम संभालना इतना आसान भी नहीं होता. बिल्कुल अलग ही टैलेंट है यह”.

‘अबला नहीं सबला’ ऑफ़-एयर होने से बच गया, इस बात से प्रोड्यूसर ख़ुश तो था लेकिन अब ज़्यादा ख़ुशी ज़ाहिर नहीं करना चाहता था. फ़ौरन लोग तनख़्वाह बढ़ाने की बात करने लगते हैं. उसको गुलाब जामुन खाने का मन था लेकिन समीर के सामने ग़म खा गया. मुँह लटका कर कुछ पल सोचने का नाटक करके उसने कहा–

“ठीक है अगर इस बार रेटिंग अच्छी आई तो टेन परसेंट एक्स्ट्रा”.

प्रोड्यूसर अब सतर्क हो चुका था. यूनिट का कोई भी आदमी उसके सामने आता तो कम बजट और घाटे का रोना लेकर बैठ जाता. अब लटके हुए मुँह पर कोई कैसे अपनी पेमेंट बढ़ाने की बात करे. लेकिन प्रोड्यूसर ने बात खोल कर रख दी–

“मैं जानता हूँ, तुम लोगों की पेमेंट कम है. लेकिन मुझे चैनल से ही कम मिलता है. बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी तुम लोग को. जैसे ही बजट बढ़ेगा सबसे पहले तुम लोग का पेमेंट बढ़ेगा”.

मज़दूरों के लिए इतना ही काफ़ी था कि उनके प्रोड्यूसर ने ये सब कहा वरना ज़्यादातर तो हालचाल भी नहीं पूछते. इसी बात पर नई ऊर्जा के साथ काम ज़ोर शोर से शुरू हो गया.

छत्तीसगढ़ से बुलाया गया बलात्कार पीड़िता को. ईरावती नाम था उसका. लेकिन बिना किसी तनाव और दबाव के टीवी का काम हो जाए ऐसा संभव नहीं है और ऐन शूटिंग के एक दिन पहले लेखक की बहस प्रोड्यूसर से हो गई. ज़ाहिर सी बात पेमेंट को लेकर. तो लेखक ने छोड़ दिया. लेखक ने छोड़ा प्रोड्यूसर की वजह से लेकिन इसका दबाव लेना पड़ा बेचारे समीर को. आनन फ़ानन में उसने अपने एक अन्य लेखक मित्र शिवेंद्र को बुला लिया. साहित्य में उसकी पकड़ अच्छी थी. लेखक ही बनने आया था मुम्बई और आते ही यह काम मिल गया. लेकिन उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि किसी के इंटरव्यू में स्क्रिप्ट की क्या ज़रुरत है. तो शूटिंग के एक रात पहले समीर ने शिवेंद्र को समझाया कि ईरावती के बारे में जो भी रिसर्च है वो सब पढ़ ले. उसके आधार पर क्या-क्या सवाल पूछे जा सकते हैं वो सब लिख ले और ‘एंकर’ के लिए भावनात्मक सा कुछ लिख दे, बस.

शिवेंद्र के लिए यह जानना भी दिलचस्प था कि टीवी में एंकर अपने से कुछ नहीं बोलते. उसे सब लिख कर देना पड़ता है, सिनेमा के एक्टर की तरह.

दूसरे दिन शिवेंद्र सही समय पर शूटिंग पर पहुँच गया. समीर ने उसे प्रोड्यूसर से मिलवाया. प्रोड्यूसर ने पूछा कि कहाँ से हो तो उसने बताया– बलिया, यूपी. प्रोड्यूसर ने उसे संदेह से देख कर पूछा – “लिख तो लेते हो न ?”

सकपकाया सा शिवेंद्र कुछ बोलना चाहता था लेकिन उसकी ज़बान अंदर ही फंस कर रह गई.

समीर ने शिवेंद्र को कंट्रोल-रूम दिखाया जहाँ उसे बैठना था. उसे छोटा सा कॉलर माईक दिया गया जिसके ज़रिये उसे स्टूडियो में बैठी एंकर महिला को बताना होता था कि कब क्या बोलना है. फिर उसे टेली-प्रौम्प्टर भी दिखाया गया जो स्टूडियो में एंकर के सामने लगा था और जिस पर उसके लिखे हुए एंकर-लिंक बड़े-बड़े अक्षरों में दिखाई देने वाले थे. एंकर उसे ही देख कर पढ़ेगी.

“मतलब वह एक्टर की तरह कुछ याद नहीं करेगी ?”

ऐसा उसने सोचा. उस कंट्रोल या मॉनिटर-रूम में ही डायरेक्टर, मेन-कैमरामैन, साउंड रिकार्डिस्ट, ऑनलाइन एडिटर आदि आदि को भी बैठना था. सबके सामने अपना अपना मॉनिटर था.

दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए स्टूडियो में जूनियर आर्टिस्ट पहुँच चुके थे. जब स्टूडियो का सारा सेटअप लग गया तो डायरेक्टर और कैमरामैन ने तमाम तकनीकी यंत्रों को एक बार ठीक से चलते हुए देखने के लिए सभी जूनियर आर्टिस्ट को अपनी अपनी जगह पर बैठने को कहा और उस कुर्सी की तरफ़ देखने को कहा जहाँ बलात्कार पीड़िता को और महिला एंकर को बैठना था. उन्होंने वहाँ देखा. फिर उन्हें कुतूहल से देखने को कहा गया, उन्होंने कुतूहल से देखा. फिर उन्हें उदास नज़रों से देखने को कहा गया, सब के सब उदास हो गए. फिर सबको ज़ोर-ज़ोर से हँसने के लिए कहा गया. सब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे. फिर कुछ महिला जूनियर आर्टिस्ट से पूछा गया कि उनमें से कौन कौन रो सकती हैं. दो लड़कियों ने फ़ौरन हाथ खड़े किये. बाकियों ने कहा कि अगर ग्लिसिरीन मिल जाए तो वो भी रो सकती हैं. उन सबके रोते हुए चेहरे का क्लोज़-अप रिकॉर्ड किया गया ताकि बाद में एडिटर ज़रूरत के मुताबिक दर्शकों की प्रतिक्रियाएं जगह-जगह जोड़ सके. सभी पुरुष जूनियर आर्टिस्ट रोने वाली महिला जूनियर आर्टिस्ट को देख-देख कर हँस रहे थे.

तभी व्हील चेयर पर सोलह साल की ईरावती स्टूडियो में आई. उसे देख कर सबकी हँसी रुक गई. एक सकता सा छा गया. सबने देखा कि ईरावती के दोनों पैर कटे हुए थे. उसके साथ-साथ चलने वाली एनजीओ की दीदी ने उसे उठा कर कुर्सी पर बैठाया. समीर ने उनकी मदद की. नए लेखक शिवेंद्र को तो सब पता था लेकिन डायरेक्टर और कैमरामैन को यह नहीं मालूम था कि लड़की बिना पैरों की है. उन्होंने समीर को बुला कर ज़ोर से हड़काया कि पहले बताना चाहिए था. उन्होंने सोचा था–

“बलात्कार पीड़िता की कहानी में बहुत से बहुत क्या होगा, न्याय नहीं मिला, बस”.

समीर ने दोनों को पूरी कहानी बताई तो दोनों ने कहा अब लाइटिंग और कैमरा पोज़ीशन बदलना होगा. उन्होंने अपने सहायकों को निर्देश देकर ईरावती से सहानुभूति प्रकट करने चले गए. बड़े गंभीर होकर दोनों ने बात शुरू की– ‘क्या हुआ था ?’ ‘कैसे हुआ था ?’ ‘उफ़’ ! ‘उफ़’ !! ‘ओहो हो’.

दूर खड़ा शिवेंद्र उनकी संवेदनशीलता को सम्मान की नज़र से देख रहा था.

समीर ने महिला एंकर के रूप में अस्सी के दशक की हीरोईन पद्मजा से मिलवाने के लिए शिवेंद्र को बुलाया तो पद्मजा को देख कर शिवेंद्र का पैर ज़मीन पर फैले लाइट के तारों में उलझ गया और वह लड़खड़ा गया. पद्मजा आज भी आकर्षक है. बहुत पहले बलिया में उसकी फ़िल्म देखी थी. समीर ने मिलवाते हुए कहा–

“बहुत अच्छा राईटर है मैम”.

पद्मजा ने हाथ मिलाते ही उससे पूछा–

“लिख लेते हो न !”

शिवेंद्र फिर से सकपकाया. इस बार उसने पक्का जवाब चाहा था फिर भी बोलते-बोलते रह गया कि उसने हिन्दी साहित्य में एम. ए. किया है.

कुछ देर बाद शूटिंग शुरू हुई. समीर ने शिवेंद्र का लिखा पहला एंकर लिंक टेली–प्रौम्प्टर पर दिखाया. एंकर पद्मजा ने टेली–प्रौम्प्टर पढ़ते हुए प्रवेश किया. ज़बरदस्त भावनात्मक शुरूआत के लिए कंट्रोल रूम में बैठे सभी ने समीर को थम्ब्स-अप किया. समीर ने शिवेंद्र को.

उधर स्टूडियो में ईरावती ने बताना शुरू किया–

“मैं एक कंस्ट्रक्शन साईट पर काम करती थी. वहाँ का ठेकेदार हमेशा मेरे पीछे-पीछे चलता रहता था. ईंट उठाऊँ तो पास में खड़ा रहता था. ईंट ऊपर सीढ़ी से चढ़ कर पहुँचाने जाऊँ तो साथ-साथ वह भी ऊपर तक जाता था. दूसरे मज़दूर मुझ पे हँसते थे. सबको लगता था कि मैं उसके साथ सोती हूँ”.

तभी डायरेक्टर ने कट कट कट की आवाज़ लगाई. डायरेक्टर ने शिवेंद्र से कहा कि यह– ‘सोती हूँ’ – की जगह पर कोई दूसरा शब्द दे इसको. शिवेंद्र ने ईरावती को जाकर बोलने को कहा– ‘सबको लगता था कि उसका मेरे साथ कोई चक्कर है’.

शूटिंग फिर से शुरू हुई. ईरावती ने फिर से कहना शुरू किया–

“सबको लगता था कि उसका मेरे साथ कोई चक्कर है. एक दिन उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैंने छोड़ने को कहा तो उसने कहा एक बार दे दे तो छोड़ दूंगा”.

डायरेक्टर ने इस पर भी कट कट कट की गुहार लगाई. डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, कैमरामैन, समीर, महिला एंकर पद्मजा सब ईरावती को घेर कर समझाने लगे कि

“यह फ़ैमिली शो है, लोग परिवार के साथ बैठ कर देखते हैं. इसलिए ऐसे शब्द नहीं बोलना है”.

लेकिन ईरावती कह रही थी कि ठेकेदार ने मुझ से यही कहा है तो मैं क्या करूँ ? प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को हड़का कर बुलाया–

“वहाँ क्या बैठा है बहन के टके ? इधर आके कुछ लिख कर दे इसको”. अब “एक बार दे दे” को तरह-तरह से उसने लिख कर दिया. एक बार लिखा –

“एक बार मुझे प्यार करो”.

इस पर सबसे पहले तो ईरावती ही भड़क गई. उसने इंकार कर दिया बोलने से और शिवेंद्र को ग़ुस्से में कहा–

“बलात्कारी है वह”.

तो शिवेंद्र ने दूसरा लिख कर दिया –

“एक बार हमबिस्तर हो जा”.

इस पर सब हंस पड़े. कहने लगे कि ठेकेदार कोई उर्दू का शायर है क्या ? दूसरी बार उसने थोड़ी ओछी भाषा में लिखा– “एक बार सो जाओ मेरे साथ”.

सब उसे घूर कर ऐसे देखने लगे मानो जाहिल है एकदम. प्रोड्यूसर ने समीर से कहा–

“इसको समझा न कि यह पारिवारिक कार्यक्रम है”. तो उसने इस बार पारिवारिक शब्दों में लिखा–

“एक बार आनंद दे दो”.

प्रोड्यूसर भड़क गया– “अरे यार, यह प्रसंग ही बोलना ज़रूरी है क्या ? आगे तो अभी बहुत कुछ है बोलने को. छोड़ो इसको”.

यह बात सबको ठीक लगी कि इस प्रसंग को छोड़ कर आगे की घटनाओं पर चलो. प्रोड्यूसर भुनभुनाया–

“वैसे भी शूटिंग इतनी देर नहीं रोक सकते वरना बजट बहुत भाग जाएगा”.

शूटिंग फिर से शुरू हुई. ईरावती ने बात आगे बढ़ाई–

“ठेकेदार ने सबके सामने मेरा हाथ पकड़ लिया. छोड़ ही नहीं रहा था. आस पास दूसरे काम करने वाले मज़दूर हँस रहे थे. कईयों ने तो कहा कि मुझे इतना नखरा नहीं करना चाहिए. लेकिन मैं किसी तरह हाथ छुड़ा कर भाग आई. अब एक बार भाग आई तो दुबारा लौट कर गई नहीं. माई और बाबू जी ने समझाया कि वह मज़ाक कर रहा होगा. ऐसे भड़कने का कोई मतलब नहीं है. पास पड़ोस के लोगों ने भी समझाया और कहा कि वह मुझे पसंद करता है. मैंने साफ़ साफ़ कह दिया– ‘ऐसे कोई पसंद करता है क्या ? कुत्ता है वह’.

शूटिंग फिर से रुक गई. इस बार कुत्ता शब्द पर बहस होने लगी कि नेशनल चैनल पर गाली नहीं चलेगी. इस पर ईरावती एकदम भड़क गई–

“उसको कुत्ता नहीं बोलूँ तो क्या शेर बोलूँ ?”

एडिटर ने धीरे से डायरेक्टर के कान में कहा –

“बोलने दो न एडिटिंग में निकाल देंगे”.

शिवेंद्र ने एंकर पद्मजा को सवाल लिख कर दिया – “आपने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की ?”

ईरावती ने हैरत में कहा–

“ख़ाली हाथ पकड़ने पर पुलिस कहाँ रिपोर्ट लिखती है. मेरे बाबू जी को जब एक आदमी ने पीटा था तब तो पुलिस ने कुछ नहीं किया”.

पद्मजा ने पूछा – “क्या करते हैं आपके बाबू ?”

ईरावती – “रिक्शा चलाते थे”.

पद्मजा – “तो उनके साथ किसने मारपीट की थी ?”

ईरावती – “पता नहीं. उसने रिक्शा भी तोड़ दिया. हम लोग तो रिक्शा की शिकायत भी लिखवाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने कहा कि तुम लोग के आपस की लड़ाई में पुलिस नहीं पड़ेगी”.

पद्मजा ने एक कानूनी सलाहकार को स्टूडियो में बुलाया और पूछा–

“पुलिस क्या शिकायत दर्ज करने से इंकार कर सकती है?”

तो कानूनी सलाहकार ने कहा–

“नहीं. पुलिस के जिस अधिकारी ने इंकार किया है उसके ख़िलाफ़ भी शिकायत हो सकती है और ईरावती की छेड़छाड़ की शिकायत भी हो सकती है”.

कानूनी सलाहकार ने आगे बताया –

“काम करने की जगह पर कोई भी किसी महिला की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसको छू भी नहीं सकता. अगर ऐसा होता है तो इसकी शिकायत पुलिस में हो सकती है”.

कंट्रोल रूम से समीर ने पद्मजा को धीरे से कहा–

“मैडम, भटकिये नहीं, बलात्कार पर रहिये”.

पद्मजा ने स्टूडियो में पूछा– “तो ईरावती जी आपने काम छोड़ दिया उसके बाद क्या हुआ ?”

ईरावती ने ग़ुस्से में कहा– “होना क्या था, वह ह …..” .

ईरावती ठेकेदार को ‘हरामी’ बोलना चाहती थी. लेकिन उसने ख़ुद को रोक लिया. फ़ैमिली शो है. तो उसने हरामी की जगह पर ‘ठेकेदार’ शब्द का इस्तेमाल किया और कहा– “ठेकेदार घर आने लगा”.

लेकिन उधर से डायरेक्टर ने कहा– “फ़म्बल हो गया है. इस सवाल को फिर से ले लो”.

ईरावती ने बताया–

“ठेकेदार घर आने लगा. मैं इधर उधर छोटे मोटे काम करने लगी थी. जब लौट कर आती तो देखती वह खटिया पर बैठा है और मेरी माई उसको पानी पिला रही है. एक दिन मैंने ग़ुस्से में आकर उसकी खटिया ही पलट दी. वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा. उस दिन उसने धमकी दी कि अब मुझे कोई नहीं बचा सकता. बस, एक दिन मैं एक शादी में बर्तन धोने के काम पर गई थी. रात को लौटते वक़्त उसने मेरा रास्ता रोक लिया. वह गाड़ी में था. उसकी लाइट मेरी आँख पर पड़ रही थी तो पहले मैं उसे पहचान नहीं पाई. जब वह निकल कर आगे आया तो मुझे समझ में आया. मैं भागने लगी तो उसने और उसके एक और साथी ने मेरा पीछा किया. एक जगह दोनों ने मुझे घेर लिया. मुझे पकड़ कर खींचते हुए झाड़ी में ले गए. मैंने भागने की कोशिश की तो अपनी बन्दूक के कुंदे से मुझे मारा. झाड़ी में उन्होंने मेरा हाथ पैर बाँध दिया. फिर बारी बारी से दोनों ने मेरे साथ गंदा काम किया.”

समीर ने पद्मजा को पूछने को कहा– “क्या किया ?”

पद्मजा ने पूछा – “क्या किया ?”

ईरावती ने भड़क कर कहा – “इज़्ज़त लूटी मेरी”.

पद्मजा – “मतलब, खुल कर बताईये”.

ईरावती ग़ुस्से में बौखला रही थी – “अरे बलात्कार किया मेरा. बलात्कार. इतना नहीं समझते आप लोग ?”

समीर ने पद्मजा से कहा– “उसको पानी का गिलास दीजिये मैम”.

कैमरामैन ने स्टूडियो में मल्टी-कैमरा-सेटअप के ऑपरेटरों को निर्देश दिया–

“एक नंबर, उसका क्लोज़ ले. दो नंबर, ऑडियंस का रिएक्शन ले. तीन नंबर, कानूनी सलाहकार का क्लोज़ फिर पद्मजा पर पैन”.

पद्मजा – “आपका दुःख जायज़ है”.

ईरावती फिर से भड़क गई– “दुखी नहीं हूँ मैं. ग़ुस्सा हूँ”.

पद्मजा– “हम समझ सकते हैं. आप रोई होंगी. कलपी होंगी. अपनी किस्मत को कोसा होगा”.

ईरावती ने ज़ोर देकर कहा–

“नहीं ! मैं रो-वो नहीं रही थी. मैं चिल्ला रही थी. मदद मांग रही थी. मैं झाड़ी में पड़ी-पड़ी देख रही थी कि सड़क पर गाड़ियाँ आ जा रही हैं लेकिन किसी ने मेरी आवाज़ सुनने की कोशिश नहीं की. तब तक उन दोनों ने सरपंच को भी बुला लिया. सरपंच ने भी मेरा बलात्कार किया. फिर ठेकेदार ने मुझे गोली मारनी चाही तो सरपंच ने ही रोक दिया ?”

डायरेक्टर ने कट कट कट की आवाज़ लगाई. डायरेक्टर ने समीर को, शिवेंद्र को और साथ ही साथ ईरावती और पद्मजा को भी बताया–

“ठेकेदार के बंदूक तानने पर फ़्रीज़ करेंगे. इसको फिर से लो और सरपंच के रोकने वाली बात बाद में बोलना”. प्रोड्यूसर ने भी अपनी लगन का प्रदर्शन किया –

“हाँ, यह कमर्शियल ब्रेक के लिए अच्छी जगह है”.

शूटिंग फिर से शुरू हुई.

ईरावती ने कहा–

“ठेकेदार ने बन्दूक तान ली” – और रुक गई. क्रेन पर लगा कैमरा ऊपर से नीचे आया. दाईं तरफ़ का कैमरा बाईं तरफ़ और बाईं तरफ़ का कैमरा दाईं तरफ़ आया. सामने का कैमरा उसकी आँखों के नज़दीक गया. एक कैमरा दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों के चेहरे के हैरत को पकड़ रहा था जिसके बारे में उन्हें पहले ही समझा दिया गया था.

साक्षात्कार आगे बढ़ा.

पद्मजा ने सवाल पूछा– “तो क्या ठेकेदार ने गोली चला दी ?”

ईरावती – “गोली चलाई होती तो मैं यहाँ बैठी होती ?”

अचानक पूरी यूनिट में हँसी का फव्वारा फूट गया. पद्मजा ने इस हँसी को अपना अपमान समझा. उसने तिलमिला कर अपना माईक निकाल कर फेंक दिया और बाहर जाने लगी. समीर, प्रोड्यूसर और डायरेक्टर सब उसकी तरफ़ मैडम मैडम करते हुए दौड़े. पद्मजा ने सबको हड़काया कि अस्सी के दशक में पूरा देश उसका दीवाना था और यहाँ दो कौड़ी के टुच्चे लोग हँस रहे हैं. उसने माँ-बहन की ऐसी ऐसी गालियाँ दीं जो शिवेंद्र ने उस समय भी नहीं सुनी थी जब बलिया में उसके दोस्त गाली के आविष्कार की प्रतियोगिता में दिया करते थे. बलिया क्या उसने तो मुम्बई में भी, ख़ास कर किसी औरत को गाली देते नहीं सुना था. उधर पद्मजा गरज रही थी –

“हमारी कोई इज़्ज़त नहीं है क्या भड़ुओं ?”

प्रोड्यूसर ने उसका ग़ुस्सा शांत करने के लिए पास खड़े एक ‘स्पॉट बॉय’ को पीट दिया. तब जाकर पद्मजा अपनी कुर्सी पर वापस जाकर बैठी. शूटिंग के बाद उस स्पॉट बॉय को थैंक्स कह कर प्रोड्यूसर ने सौ रुपए भी दिए, चुपचाप पिटने के लिए.

साक्षात्कार आगे बढ़ा.

पद्मजा ने चिल्ला कर कंट्रोल रूम वालों को कहा–

“कोई मुझे बताएगा कि क्या पूछना है ?”

प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को हड़का कर कहा – “अरे कौन लेकर आया है इसको”.

उसने पद्मजा को सुना कर कहा – “मैडम को सवाल बता न भाई”. शिवेंद्र ने इस तरह हड़काए जाने से अपमानित महसूस किया लेकिन वह पद्मजा तो था नहीं कि उठ कर चल पड़े. उसने सवाल बताया–

“उसने आपको जान से मारने के लिए बन्दूक तान ली. उसके बाद ?”

पद्मजा – “उसने आपको जान से मारने के लिए बन्दूक तान ली. उसके बाद ?”

ईरावती–

“सरपंच ने उसे रोक दिया, कहा कि तुम क्यों अपराध करते हो ? फिर उन दोनों ने कुछ खुसुर फुसुर किया. मैंने बहुत ताकत लगा कर उठने की कोशिश की तो उसके साथी ने देख लिया. उसने ठेकेदार और सरपंच को आवाज़ लगाई. ठेकेदार मुझे उठता हुआ देख कर ताव में आया और उसने बन्दूक के कुंदे से इतना मारा इतना मारा कि मैं बेहोश हो गई. जब मुझे होश आया तो मैं रेलवे पटरी पर थी. पटरी पर कान होने की वजह से मुझे ट्रेन की धड़ धड़ सुनाई दे रही थी. मैंने बहुत ज़ोर लगा कर अपने दोनों तरफ़ देखा तो एक ट्रेन की लाइट दिख रही थी. मैं घिसटते घिसटते ट्रेन की पटरी से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी लेकिन जब तक ट्रेन मेरे पैरों के ऊपर से गुज़र गई. मैं दर्द बर्दाश्त नहीं कर सकी और फिर से बेहोश हो गई”.

शिवेंद्र ने सवाल दिया–

“आपको जब होश आया तो आप कहाँ थीं ?”

पद्मजा ने इसे दुहरा दिया.

ईरावती – “जब मेरी आँख खुली तो मैं अस्पताल में थी”.

शिवेंद्र – “कौन लेकर गया था आपको अस्पताल ?”

ईरावती – “वो सब रेलवे के लोग थे जो कहीं से आ रहे थे. उन्होंने जब मुझे देखा तो समझा कि लड़की मर गई है. इसलिए उन्होंने पुलिस को फ़ोन किया. पुलिस अस्पताल लेकर गई. फिर दूसरे दिन शीला दीदी आईं मिलने के लिए”.

पद्मजा – “कौन शीला दीदी ?”

ईरावती – “जो मेरे साथ आईं हैं”.

शिवेंद्र ने शीला दीदी के लिए एक लंबा सा वाक्य लिख कर टेली प्रौम्प्टर पर दिया और पद्मजा को पढ़ने के लिए कहा. पद्मजा ने पढ़ा–

“मानवता अभी भी मरी नहीं है. एक तरफ़ ईरावती मौत से लड़ रही थीं तो दूसरी तरफ़ फ़रिश्तों का रूप धर के उनकी मदद को कुछ लोग सामने आए उनमें से ही एक हैं शीला दीदी. बहुत बहुत स्वागत है आपका शीला दीदी, कृपया हमारे स्टूडियो में तशरीफ़ लाइये”.

क्रेन वाला कैमरा शीला दीदी के आने से लेकर बैठने तक अनुसरण करता है.

शीला दीदी का सबसे पहले परिचय दिया गया कि वह आदिवासी महिलाओं के बीच जागरूकता अभियान चलाती हैं और उन्हें कानूनी मदद देती हैं.

पद्मजा– “शीला दीदी, आपको कैसा पता चला और आपने उसके बाद क्या किया थोड़ा विस्तार से बताईये”.

शीला दीदी– “जब ईरावती ट्रेन की पटरी पर बेहोश पड़ी थी तो कुछ रेलवे के कर्मचारी पटरी की जाँच आदि कर रहे थे. आप सबको पता ही होगा कि उधर पटरी उखाड़ने की घटना बहुत आम है”.

पद्मजा – “पटरी उखाड़ने की घटना ? मैं समझी नहीं”.

कंट्रोल रूम से समीर ने टोका – “पॉलिटिकल मामला है. उधर मत जाईये”.

पद्मजा – “हाँ तो आप बता रही थीं कि रेलवे कर्मचारियों ने देखा”.

लेकिन शिवेंद्र ने समीर को फुसफुसा कर टोका –

“अगर कहानी में राजनीतिक परिदृश्य उभर कर सामने आए तो ग़लत क्या है ?” समीर ने दांत पीस कर उसे समझाने की कोशिश की – “अगर यह दीदी नक्स्लाईटों की सपोर्टर हुई, तो ? अपनी तो लग जाएगी न ? शो बंद हो जाएगा”.

उधर दीदी बता रही थीं–

“तो रेलवे कर्मचारियों को लगा कि यह मर गई है. उन्होंने पुलिस को फ़ोन किया. पुलिस वालों ने आकर देखा कि ज़िंदा है तो इसको अस्पताल लेकर गए. सुबह एक लेडी कांस्टेबल को इसकी निगरानी में लगा दिया गया कि जब ईरावती को होश आएगा तो बयान लिया जाएगा. पहले सब समझ रहे थे कि इसने आत्महत्या करने की कोशिश की होगी. लेकिन जब डॉक्टर ने पुलिस को बताया कि इसका रेप हुआ है तो पुलिस समझ गई कि रेप करने वालों ने मरने के लिए पटरी पर छोड़ दिया होगा. तब उस लेडी कांस्टेबल ने मुझे फ़ोन करके बताया कि शायद इसे लंबी लड़ाई लड़ने के लिए हमारी सहायता चाहिए होगी”.

पद्मजा – “क्या नाम था उस लेडी कांस्टेबल का ?”

शीला दीदी ने हिचकते हुए कहा –

“नाम रहने दीजिये. मेरे मुँह से फ़्लो में निकल गया. असल में उसके बाद उनका ट्रांसफ़र दूसरे शहर में हो गया”.

डायरेक्टर ने एडिटर को फुसफुसा कर कहा – “यह एडिट पर उड़ा देना”.

पद्मजा – “तो आप ईरावती से मिलीं. उस वक़्त इनकी हालत कैसी थी ?”

शीला दीदी – “बहुत कमज़ोर दिख रही थी. इसका बहुत सारा ख़ून बह गया. डॉक्टर को उम्मीद ही नहीं थी कि बचेगी लेकिन इसको तो उलटे होश आ गया. इसका विल पॉवर बहुत स्ट्रौंग है”.

शिवेंद्र ने ईरावती के लिए सवाल लिख कर टेली प्रौम्प्टर पर भेजा – “आपको कब अहसास हुआ कि आपके पैर नहीं हैं ?” पद्मजा ने सवाल ठीक वैसे ही दुहरा दिया. पहली बार प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को थम्ब्स-अप दिखाया.

ईरावती–

“जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि मैं अस्पताल में हूँ. मुझे पिछली रात की सारी घटना याद आ गई. मैं ग़ुस्से में उठने ही वाली थी कि सबने मुझे रोका. लेटे रहने के लिए कहा लेकिन मैंने उतरने के लिए अपना पैर बेड से नीचे करना चाहा पर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. तब मेरा ध्यान अपनी चादर की तरफ़ गया जो मुझे ओढ़ाई गई थी. मैंने हाथ से टटोलना चाहा तो वहाँ मेरा पैर नहीं था. मुझे ट्रेन की लाइट याद आ गई. मैं सब समझ गई. मैंने उसी वक़्त फ़ैसला किया कि मैं उन तीनों.”,

रुक कर फिर एक शब्द सोच कर उसने कहा, “बलात्कारियों को नहीं छोड़ूंगी”.

डायरेक्टर ने आवाज़ लगाई – “फ़्रीज़ ! यहाँ सेकेंड ब्रेक लेंगे”.

प्रोड्यूसर ने डायरेक्टर को थम्ब्स-अप किया.

शिवेंद्र ने पद्मजा को अपने कॉलर माईक से फुसफुसा कर कहा –

“अब शीला दीदी से पूछिए कि कानूनी लड़ाई अब तक कैसे लड़ी और लड़ाई कहाँ तक पहुँची”.

पद्मजा– “तो शीला दीदी, चूंकि आप आदिवासी महिलाओं की कानूनी सहायता करती हैं तो ईरावती के सिलसिले में आप और आपकी संस्था ने अब तक क्या-क्या किया एक बार दर्शकों को भी बताईये”.

शीला दीदी –

“पुलिस ने अस्पताल में ही इसका बयान लिया. जिसके आधार पर कोर्ट में जब तारीख़ मिली तो हम लोग गए. वहाँ हमको पता चला कि पुलिस की चार्जशीट में रेप का ज़िक्र भी नहीं है. हमने अपने वकील को तो सब बताया था लेकिन उसने इस बारे में अदालत को कुछ बताया ही नहीं. हमें ख़ुद ही अदालत को बताना पड़ा कि ईरावती का रेप हुआ था. पर अदालत मानने को तैयार नहीं थी”.

ईरावती ग़ुस्से में बोल पड़ती है – “जज मिला हुआ था. जज मिला हुआ था”.

कानूनी सलाहकार ने, जो अब तक चुप बैठे थे, इशारे से शूटिंग रुकवाई – “देखिये, इस तरह सीधे सीधे जज पर आरोप लगेगा तो मैं यहाँ नहीं बैठने वाला”.

ईरावती ने झुंझला कर कहा – “लेकिन वह मिला हुआ था”.

कानूनी सलाहकार ने उसका मुँह बंद करने ग़रज़ से कहा– “कोई सुबूत है आपके पास ?”

ईरावती ने हैरत में पूछा – “सुबूत नहीं है तो क्या हुआ ?”

कानूनी सलाहकार ने झुंझला कर समझाया – “बेटा, बिना सुबूत के आप किसी पर आरोप नहीं लगा सकते वह भी उस पर जिससे आपको इंसाफ़ चाहिए. आप कहो कि आपके साथ नाइंसाफ़ी हुई है, बस”.

शीला दीदी ने भी ईरावती को समझाया – “जब पुलिस ने चार्जशीट में रेप का ज़िक्र ही नहीं किया तो जज मजबूर है बेटा. तुम अभी ग़ुस्से में हो पानी पियो”.

शीला दीदी की बातों पर ईरावती को भरोसा था इसलिए चुप हो गई. उसने पानी पिया.

उधर कंट्रोल रूम में प्रोड्यूसर ने डायरेक्टर, राईटर और समीर के गले में हाथ डाल कर बड़े ही चिंतित स्वर में कहा–

“क्रांतिकारी टाइप की लड़कियों की कहानी नहीं चलती है टीवी में. रेटिंग गिर जाती है. आजकल तो रिमोट है लोगों के हाथ में, एक सेकेंड में चैनल चेंज”.

फिर उसने शिवेंद्र को संबोधित करके कहा –

“सवाल ऐसे बनाओ जो इमोशनल हों. जैसे आपको इस हालत में देख कर माँ का रिएक्शन क्या था ? बाप का……. फिर घर में पैसा कमाने वाली आप थीं तो अब कैसे क्या होता है. मतलब, समझ रहे हो न बाबू ?” तभी स्टूडियो से पद्मजा की आवाज़ आई – “शुरू कर सकते हैं”.

पद्मजा – “तो पुलिस कम्पलेन में रेप की बात ही नहीं थी?”

शीला दीदी –

“नहीं. तो हमने कहा पहले रेप की कम्पलेन लिखो. बहुत मशक्कत हुई. लोकल पुलिस स्टेशन वाले लिख ही नहीं रहे थे. तो हम लोग कमिश्नर से मिले. उसने लोकल थाने में फ़ोन किया. तब जाकर रेप की कम्पलेन लिखी गई. अब रेप की कम्पलेन लिखी गई तो पुलिस को उन तीनों की गिरफ़्तारी के लिए उनके घर और कंस्ट्रक्शन साईट पर जाना पड़ा. लेकिन वो लोग कहीं मिले नहीं. फिर तारीख़ पे तारीख़”.

डायरेक्टर ने रोक दिया– “तारीख़ पे तारीख़ नहीं बोल सकते. यह एक फ़िल्म का डायलॉग है. कॉपी राईट का मामला हो सकता है. बोल दो कि मामला लंबा खिंचने लगा”.

शीला दीदी ने वैसा ही बोला. तो ईरावती ने भड़क कर बीच में टोका–

“यह बोलिए कि उन्होंने पुलिस को पैसा खिला दिया था”. तो कंट्रोल रूम से डायरेक्टर ने फिर टोका– “नहीं नहीं, ये सब नहीं बोल सकते. हम लोग केवल उतना ही रखेंगे जितना पुलिस और कोर्ट के डॉक्यूमेंट में है”.

प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को इशारा किया– “इमोशनल वाले सवाल”.

शिवेंद्र ने झट से एक सवाल पद्मजा को दिया –

“आप इकलौती कमाने वाली थी अपने घर में तो जब यह दुर्घटना हुई तो आपका परिवार मुश्किलों में आ गया होगा. उसके बारे में कुछ बताइये”.

पद्मजा ने दुर्घटना को हादसा कह कर पूरा सवाल दुहरा दिया.

ईरावती–

“रिक्शा तो टूट ही गया था हमारे बाबू जी का. वैसे उससे जो पैसा आता था उसकी तो वह दारू पी जाते थे लेकिन अब वह घर के बर्तन चुराने लगे. एक दिन मैंने देख लिया तो कस के फटकार लगाई. तो वह उलटा मुझ पर ही बरस पड़े कि तेरे साथ ऐसा नहीं होता तो ऐसी नौबत नहीं आती. माई कभी मुझे कोसती कभी बाबू जी को”.

शिवेंद्र ने पद्मजा को पूछने के लिए कहा–

“तो खाने के लाले पड़ गए होंगे ?”

पद्मजा– “तो आपके घर में तो भुखमरी की नौबत आ गई होगी ?”

ईरावती ने भड़क कर जवाब दिया–

“बिल्कुल. इसीलिए तो मैं जब तक उन बलात्कारियों को सज़ा नहीं दिलवा देती चैन से नहीं बैठूंगी”.

शिवेंद्र – “कई रातें भूखे सोना पड़ा होगा”.

पद्मजा – “कई रातें भूखे सोना पड़ा होगा ?”

ईरावती – “देखिये मैडम, मुझे भूख प्यास तो अब याद नहीं है. याद है तो केवल एक बात– बलात्कार और मुझे उनको जेल भेजवाना है”.

समीर और प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को कुछ अलग पूछने को कहा. तो शिवेंद्र ने बात बदली–

“जब आपको अहसास हुआ कि आपके पैर नहीं हैं तो आपको तो लगा होगा कि आपकी दुनिया उजड़ गई ?

पद्मजा थक भी रही थी और चिढ़ भी रही थी फिर भी उसने वह दुहरा दिया जो शिवेंद्र ने बताया.

ईरावती–

“दुनिया उजड़ने की बात तो मैंने सोची ही नहीं. मैंने जब देखा कि उन्होंने मेरा पैर मुझ से छीन लिया तो उसी दिन प्रण कर लिया कि अगर सामने आ जाएँ तो उन तीनों का अपने हाथों से गला घोंट दूंगी”.

कंट्रोल रूम में एडिटर ने बताया कि एपिसोड बनाने लायक पर्याप्त फ़ुटेज हो गया है बस एक बार ठीक से रो दे तो उसी पर फ़्रीज़ करके एपिसोड पूरा कर लेंगे. प्रोड्यूसर ने भी घड़ी देख कर कहा–

“हाँ यार अब जल्दी-जल्दी निपटाओ”.

समीर ने जाकर स्टूडियो में ईरावती को समझाया–

“गला घोंटने जैसी बातें हिंसा को बढ़ावा देती हैं. भविष्य में आपका ही केस कमज़ोर होगा”.

कानूनी सलाहकार और शीला दीदी ने भी समझाया – “हमें अपने केस के हिसाब से बोलना चाहिए”.

ईरावती ने बात समझ ली और फिर से बोलना शुरू किया–

“पहले तो उन लोगों ने अस्पताल की रिपोर्ट ही बदल दी थी. उसमें केवल इतना लिखा था कि पैर कट गया. लेकिन जो पहले वाली डॉक्टर थी उसने फिर से रिपोर्ट निकाल कर दी जिसमें बलात्कार की बात थी. तब जाकर बलात्कार का केस शुरू हुआ लेकिन कोई पकड़ा नहीं गया. अदालत ने जब पुलिस को कहा, पकड़ो, तो कहीं से पकड़ कर लाए और उसी दिन उनको छोड़ भी दिया”.

शीला दीदी ने बात संभाली–

“छोड़ नहीं दिया. उनको ज़मानत मिल गई. लेकिन अदालत की तरफ़ से ईरावती को एक सुरक्षा गार्ड भी दिया गया है ताकि आरोपी से उसको कोई ख़तरा न हो. बहरहाल, कई सुनवाई के बाद जब हमें महसूस हुआ कि केस में कुछ ख़ास नहीं हो रहा है. बस टाल मटोल हो रहा है. तो हमने मतलब हमारी संस्था ने वहाँ के लोगों के साथ मिल कर धरना प्रदर्शन किया और अदालत पर दबाव डालने की कोशिश की. मामला बहुत तूल पकड़ गया. जब अख़बारों में भी आ गया तो एक दिन फ़ैसला आया, हमारे हक़ में. तीनों आरोपियों को सात सात की सज़ा हुई”.

ईरावती ने तपाक से कहा– “लेकिन वो फिर से छूट गए”.

पद्मजा – “छूट गए ? कैसे ?”

शीला दीदी – “आरोपी हाई कोर्ट चले गए. वहाँ से उनको फिर से ज़मानत मिल गई”.

पद्मजा–

“चूंकि अभी मामला अदालत में है और हम ‘अबला नहीं सबला’ की पूरी टीम की तरफ़ से आपको शुभकामनाएँ देते हैं कि आपको इंसाफ़ ज़रूर मिलेगा. अब आप बताईये कि जब आपके माँ बाप को पता चला कि आपके साथ क्या हुआ है तो उनको कैसा महसूस हुआ ?”

ईरावती–

“वो सब मुझे पता नहीं. मैंने तो घर पहुँचते ही माई और बाबू जी को कहा कि देख लीजिये, आप लोग कहते थे न कि वह मज़ाक करता था. यह है उसका मज़ाक”.

पद्मजा – “तो उन्होंने क्या कहा ?”

ईरावती – “उस दिन तो सब सकते में थे, कुछ नहीं कहा. लेकिन एक दिन जब कुछ पड़ोस की औरतें आकर दिलासा दे रहीं थी तो पता है उस बाप ने मुझे क्या कहा ?”

पद्मजा – “क्या कहा ?”

ईरावती – “उसने कहा मेरी ही कोई ग़लती होगी, कोई पागल थोड़ी न है कि इतना बड़ा कांड बेफालतू में कर देगा. मैंने उसी वक़्त दीदी को कहा मुझे इस नरक में रहना ही नहीं”.

पद्मजा – “तो आप अब अपने घर में नहीं रहती ?”

शीला दीदी – “नहीं. उस वक़्त से यह हमारे गाँधी आश्रम में ही रहती है”.

शिवेंद्र ने भावुक करने को सवाल दिया– “आश्रम में आपको अपने माँ बाप की याद आती होगी ? याद करके करके आप रोती होंगी ?” पद्मजा ने दुहराया.

ईरावती – “कैसे मैं उस बाप के लिए रो सकती हूँ ?”

पद्मजा – “आपको अपना बचपन याद आता होगा”.

ईरावती–

“आता है. तीसरी कक्षा तक स्कूल गई. फिर चाय की दुकान, फिर माई के पीछे पीछे बर्तन मांजने, फिर ईंटा उठाने, फिर बलात्कार, और अब यहाँ आपके सामने. मैं भूलने वाली नहीं हूँ”.

डायरेक्टर ने शिवेंद्र की तरफ़ देख कर कहा–

“थोड़ा और इमोशनल सवाल या कोई ‘टची’ बात लिख कर दे न !”

प्रोड्यूसर भी उतावला हो रहा था, उसने शिवेंद्र से कहा–

“पूरा हाथी निकल गया बस पूँछ रह गई. कुछ अच्छा सा शेक्सपीयर-ओक्स्पीयर की कोई लाइन याद नहीं है, इमोशनल सी ? जिसको कोई भी सुने तो रो पड़े”. डायरेक्टर ने धीरे से कहा– “साईलेंस”. शिवेंद्र अच्छी सी लाइन लिखने में लग गया. प्रोड्यूसर ने उसे अकेला छोड़ दिया और एडिटर के पास जाकर फुसफुसाया–

“ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज”.

एडिटर सिर हिलाते हुए फुसफुसाया – “अच्छा है अच्छा है”. प्रोड्यूसर – “शेक्सपीयर का है”.

बहुत मशक्कत करने के बाद भी शिवेंद्र ऐसा कुछ नहीं लिख कर दे पा रहा था जिससे ईरावती रो पड़ती. बात अब खिंच रही थी. किसी को उसमें दिलचस्पी नहीं थी. उकताहट बढ़ती जा रही थी. सभी अपने-अपने स्तर पर ईरावती को रुलाने वाली लाइन सोच रहे थे. अचानक प्रोड्यूसर ने आव देखा न ताव उसने मोटी-मोटी भद्दी-भद्दी गाली देते हुए समीर को खींच कर कंट्रोल रूम के बाहर की तरफ़ धकेला–

“कैसा राईटर लेकर आते हो बे जो साला एक लाइन नहीं लिख सकता. कमीशन पे लाए हो क्या ?”

प्रोड्यूसर ने शिवेंद्र को धक्का देकर हटाया और ख़ुद ही राईटर की सीट पर बैठ गया. उसने कॉलर माईक लेकर पद्मजा को धीरे से कहा– मैडम, शूटिंग ख़त्म करनी है. टाइम आलरेडी ओवर हो चुका है. आप भी कुछ इमोशन सा सवाल या लाइन सोचिये, हम भी सोच रहे हैं”.

यह धमकी थी पद्मजा के लिए कि अगले एपिसोड में दूसरी एंकर ले लेंगे.

पद्मजा ने ईरावती को संबोधित करते हुए कहा–

“बलात्कार के बाद ज़िंदगी हमेशा-हमेशा के लिए बदल जाती है. बचपना, मासूमियत सब ख़त्म हो जाती है. एकाकीपन घेर लेता है. ऐसे में रात काटना कितना मुश्किल हो जाता है ? आज नहीं तो कल इंसाफ़ तो मिल ही जाएगा लेकिन जो अब कभी नहीं मिलेगा वह है पहले वाली ईरावती और ईरावती के पैर, जो दिन भर थिरकते रहते थे, चलते रहते थे, दौड़ते रहते थे. आपके मन में उमंग तो उठती होगी नाचने की ?”

ईरावती फफक कर रो पड़ती है.

कंट्रोल रूम में सबने यस-यस यस-यस करके एक दूसरे के हाथ पर ताली मारी. प्रोड्यूसर गुटखा खाते हुए हिसाब किताब करने के लिए बाहर निकल गया. समीर उसके पीछे भागा अपनी नौकरी बचाने के लिए.

ईरावती रोते हुए कहती जा रही थी–

“मुझे आलता लगाने का बहुत शौक था लेकिन उन हरामज़ादों ने मेरा सब कुछ छीन लिया”.

सारे कैमरे ईरावती के आँसू और उसकी छटपटाहट रिकॉर्ड कर रहे थे. सभी स्पॉट बौयेज़ शाम का नाश्ता लगा रहे थे. सभी अपने-अपने मोबाइल देख रहे थे. डायरेक्टर पता कर रहा था कि शेयर मार्केट आज कितने पर बंद हुआ.

फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं. उनकी कविताएँ सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं. 
kfaridbaba@gmail.com
Tags: 20222022 कथाफ़रीद ख़ाँ
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Comments 14

  1. M P Haridev says:
    1 year ago

    फ़रीद खाँ ने सच लिखा है कि दर्द बेचने वाली दुनिया बेदर्द होती है । क्या दर्द बेचा जा सकता है ? दर्द व्यापार नहीं है । दिल की टीस है । इसके घाव पल-पल रिसते हैं । यह कहानी है या स्क्रिप्ट, कुछ भी है, लेकिन मुझे द्रवित कर गयी । ईरावती के सच को बेचा गया । ईरावती के पिता रिक्शा चालक हैं और शराब पीते हैं । यह कहानी नहीं सच है जो हमारे आस-पास दिखता है । उदाहरण के लिये लिखा जाये कि यदि वह तीन सौ रुपये प्रतिदिन कमाता है तो एक सौ रुपये की शराब पी जाता है । बाक़ी दो सौ रुपये में सारा परिवार किस तरह पलेगा । इसलिये पत्नी और बेटियों को मज़दूरी करनी पड़ती है । पद्मजा फ़िज़ूल में भड़की । उसे और पुलिस वालों को ईरावती की आपबीती से कुछ लेना-देना नहीं है । रिकॉर्डिंग रूम में सभी सहायकों के रोल तय हैं । ये सभी ज़िंदा होते हुए भी मरे हुए पुतले हैं । भला हो महिला सामाजिक कार्यकर्ता शीला दीदी का । फ़िल्मों और टेलिविज़न चैनलों के डायरेक्टरों प्रोड्यूसरों और संवाद लेखकों को अपनी कमायी से मतलब है । इन श्रेणियों के लोग बेदर्द होते हैं । करोड़ों रुपये कमाते हैं ।
    फ़रीद खाँ साहब माफ़ करना । भावुक इन्सान हूँ । दु:ख न देखा जाता है और न सुना । उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय चुनाव कवर करने के लिये लखनऊ के आस-पास के गाँवों में गये थे । एक गाँव के एक परिवार में गये । उस परिवार की सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की भूखे पेट रहकर भी एक दिन में खेत से जाकर भूसा अपने सिर पर उठाकर लाना पड़ता है । एक बार में पचास किलो । लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित खेत में प्रणय रॉय साथ साथ चलते हैं । उज्ज्वला योजना के तहत मिलने वाला गैस सिलेंडर पैसों के अभाव ख़ाली पड़ा हुआ था । एनडीटीवी ने उस बच्ची और उसकी बहन को लखनऊ के अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने के लिये रक़म की ज़रूरत इकट्ठी की थी ताकि मेडिकल की पढ़ाई के लिये राशि जुटायी जा सके । तैंतीस लाख रुपये से अधिक की राशि इकट्ठी हो गयी । मैंने भी कुछ अंशदान किया था ।

    Reply
  2. श्रीविलास सिंह says:
    1 year ago

    बहुत अच्छी कहानी। दूसरों की कहानियां एक दुनिया के लिए पैसा बनाने के लिएकेवल कच्चा माल हैं । इस संवेदनहीनता को रेशा रेशा उधेड़ती मार्मिक कहानी।

    Reply
  3. सारंग उपाध्याय says:
    1 year ago

    अपने समय का यथार्थ। टीवी/ फ़िल्म की दुनिया में टीआरपी में कन्वर्ट होती संवेदनाएं। विज्ञापन होती दुनिया में घायल होती वेदना। प्रवाहपूर्ण भाषा। पठनीयता गजब की है। हां विषय के संदर्भ में कुछ तथ्य और तकनीकी पहलुओं पर सवाल हैं जिन पर काम किया जाना चाहिए। जैसे ऐसे कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट। यह थोड़ा सरलीकरण लगा। टेलीप्रॉम्प्टर पर स्क्रिप्ट एक बार में चली जाती है राइटर वहां PCR से लिखकर इतना इंस्टंट कैसे दे सकता है? वह भी ऐसे मसले पर? कुछ तो तैयारी होती है? बाहर से सेलिब्रिटी एंकर बुलाये जाते हैं लेकिन वह भी ऐसे कमजोर नहीं होते। फिर इसमें अंतिम सवाल पूछने वाला एंकर सम्भव हो लेखक ने अपने अनुभव से इसे गुना हो क्योंकि बिहाइंड द कैमरा दुनिया तमाशा है। मुंबई रहते हुए एक सीनियर ऐक्ट्रेस सहित कई किस्से मेरे हिस्से आये थे लेकिन यहां विरोधाभास लगा। यहां थोड़ा कसाव होना था। कहानी पढ़ते हुए ​सत्यमेव जयते के एक एपिसोड की याद आई। लेकिन वह भी अपने सन्दर्भ में मुखर था। लेखक थोड़े जल्दबाजी में लगे। और भी कई बातें हो सकती हैं। बावजूद इसके अच्छी कहानी। फरीद भाई को शुभकामनाएं

    Reply
    • Farid Khan says:
      1 year ago

      सारंग जी, बहुत बहुत शुक्रिया.
      आपका अविश्वास जायज़ है, ‘ऐसे कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट’ पर. यही हैरत इस कहानी के पात्र शिवेंद्र को भी है.
      आपसे मिल कर बात करने में मज़ा आएगा.

      Reply
  4. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    1 year ago

    अभी अभी यह कहानी पूरी कर कर चुका हूँ| बहुत बढ़िया लिखा है| सामान्य पाठक के रूप में यह कह सकता हूँ कि यह कहानी दूर तक जाएगी|

    Reply
  5. Aparna says:
    1 year ago

    इस कहानी को पढ़ते वक्त ऑस्कर वाइल्ड की डिवोटेड फ्रेंड जैसी कहानी याद आती है। शायद ऐसी निर्ममता और विद्रूपता समाज में हमेशा रही है। अस्पताल, स्कूल, सिनेमा जगत, समाज सेवियों की दुनिया, जेलें, न्याय की दुनिया ऐसी ही कुछ अन्य दुनियाएं, या कहिए पूरी पूंजीवादी दुनिया, यूटोपिया का विपर्यय रचती हैं। आप इसे हेट्रोटोपिया कह सकते हैं।
    फरीद जी आपकी कहानी विचलित करती है।

    Reply
    • Sachin Sharma says:
      12 months ago

      वयंगात्मक त्रासदी, हैरतन्गेज करती, फिल्मी business और उसके पीछे की छिछली राजनीति की परतों को खोलती हुई कहानी। बहुत उम्दा ।बहुत सारी नयी जानकारी भी मिली। कहानी बहुत कसी हुई है और पाठक को बांदे रहती है।

      Reply
  6. Prachee Paathak says:
    1 year ago

    बेहद सशक्त कहानी है फरीद इसके लिए बधाई, फिल्म इंडस्ट्री का बेहद सजीव चित्रण कर दिया है तुमने,एकदम जीवंत लग रहा एक एक पात्र और उसके आसपास का सारा माहौल जो फिल्म इंडस्ट्री के खोखलेपन को दिखाता है,जिसने किसी भी situation में एकदम रूढ़िबद्ध तरीके की प्रतिक्रिया को देना एकदम तय कर रखा है… एक बार फिर से बधाई 👏👏👏

    Reply
  7. Anonymous says:
    1 year ago

    Ye kahani ye darshati hai ki jab aadmi dhandha karne pe aa jaata hai to kya kya karta hai…jo log emotion ka dhandha karte hain unka emotion se koi matlab nahi hota…jo log doctor ke kaam ko dhandhe ki tarah lete hain unhein Mareez ya ilaaj se koi matlab nahi hota…jo education ko dhandhe ki tarah lete hain unhein knowledge se ya students se matlab nahi hota…poori duniya mein yahi sab ho raha hai.. yeh kahani poori duniya ka sach bayaan karti hai…

    Reply
  8. Anonymous says:
    1 year ago

    एक अत्यंत संवेदनशील कवि की कलम से निकली बेहतरीन कहानी। हमारे मीडिया/इंटरटेनमेंट मीडिया का संवेदनहीन चेहरा उघाड़ती हुई कहानी।

    Reply
  9. राहुल कुमार सिंह says:
    1 year ago

    कसी बुनावट, प्रभावी.

    Reply
  10. Firoj says:
    12 months ago

    नंगा सच…

    Reply
  11. अमिता शीरीं says:
    12 months ago

    अच्छी कहानी. इतने दिनों तक कहानी नहीं पढ़ी कि अबला सबला शीर्षक नहीं पढ़ने दे रहा था. अंत में रुला दिया इरावती को. कारण मेरा मध्यवर्गीय चिंतन सोच रहा था करना कि उसे नाचने का बहुत शौक था. आलता लगाने का शौक पचा नहीं पा रही. फिर लगा एक मेहनतकश लड़की नाचने का ख़ाब कैसे देख सकती पर क्या करूं कि मैं खुद उसे नाचते हुए देखना चाहती हूं. उसके जीवन पर एक और अरोपण! फ़रीद भाई को सलाम पहुंचे!!

    Reply
  12. Anonymous says:
    12 months ago

    हमारे समय की सचााईयों को सामने लाने वाली एक बेहतरीन कहानी है. फरीद खा ने कहानी के शिल्‍प को पूरी तरह साध कर कहानी की संवेदना को गहराई से उकेरा है. कहानी शिल्‍प में नया पन लिए हुए हमारे समय की भयावह सच्‍चाई को सामने लाती है.

    Reply

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