बांग्ला की सबसे मशहूर प्रेम कविता की टीका
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रवीन्द्रनाथ की कविताओं का नहीं कह सकता पर बांग्ला की शेष कविताओं में जीवनानंद दाश की ‘वनलता सेन’ निर्विवाद रूप से देश-विदेश में सर्वाधिक प्रसिद्ध है. भारतीय और विदेशी अनुवादकों ने इसके दर्जनों अंग्रेजी अनुवाद किये हैं जिनमें एक स्वयं कवि का किया हुआ है. हिंदी में तीन अनुवाद मेरी जानकारी में हैं- अनुवादक: प्रयाग शुक्ल, सुशील कुमार झा और समीर वरण नन्दी. कारणों में गये बिना कहना चाहूंगा कि अंग्रेजी या हिन्दी के किसी भी अनुवाद से मुझे संतोष नहीं हुआ. इस लेख के लिए कतिपय अनुवादों से कुछ उधार लेकर और कुछ अपनी मति से मैंने कविता की पंक्तियों का शाब्दिक अनुवाद तैयार किया है. इसे आप हिन्दी में अन्वय भी कह सकते हैं. मेरा शाब्दिक अनुवाद यह है:
वनलता सेन
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हजार साल से मैं चल रहा हूँ धरती के रस्तों पर,
सिंहल समुद्र से गहरी रात के अँधेरे में मलय-सागर तक
बहुत घूमा हूँ मैं, बिम्बिसार और अशोक की धुँधली दुनिया में
था मैं, उससे भी दूर अंधकाराच्छन्न विदर्भ नगर में;
मैं थकी जान, मेरे चारों ओर जीवन का फेनल समुद्र,
मुझे दो घड़ी की राहत दी थी नाटोर की वनलता सेन ने.
केश उसके जाने कब की विदिशा की अँधेरी रात,
मुख उसका श्रावस्ती का शिल्प; बहुत दूर समुद्र पर
रडर टूटने से जिस नाविक को दिशा-ज्ञान नहीं रहा
दालचीनी के द्वीप में उसे दिख जाये हरी घास का भूखंड ज्यों,
वैसे ही देखा है उसे अंधकार में; कहा, “इतने दिन कहाँ थे”
पक्षी के नीड़-जैसे नयन उठाकर नाटोर की वनलता सेन ने.
सारा दिन बीतने के बाद ओस की आवाज़ की तरह
साँझ आती है, पंखों से धूप की गंध पोंछ लेती है चील,
पृथ्वी के सब रंग बुझ जाने के बाद आयोजन करते हैं
जुगनुओं के झिलमिल रंग में एक पांडुलिपि का
कथा के निमित्त;
पक्षी घर लौट आते हैं– सब नदियाँ भी– जीवन का व्यापार
समेटा जा चुका होता है, रह जाता है अँधेरा,
और आमने-सामने बैठने को वनलता सेन.
(जीवनानन्द दाश और क्लिंटन बी सीली के अंग्रेजी अनुवादों तथा प्रयाग शुक्ल और सुशील कुमार झा के हिन्दी अनुवादों की आंशिक सहायता से तैयार)
काव्य का नूतन व्याकरण
जीवनानंद के काव्य को एक बार फेसबुक पर मैंने कँटीले बाँसों का जंगल कहा था- कँटीले बाँस को काटना मुश्किल, काट लिया तो बँसवाड़ी से निकालना लगभग असंभव. जब तक उनकी सौ-डेढ़ सौ कविताएँ नहीं पढ़ लेंगे तब तक इस बाँस बाड़ी का तर्क समझ में नहीं आयेगा. जीवनानंद की किसी कविता में विचार या भाव की एकरूपता बहुत कम है, अधिकतर एक संकुलता है जिसे बयान करने का तरीका भी शब्दों और बिम्बों की एक अपरिचित भीड़ है. उदाहरण के लिए इसी कविता का अंतिम स्तवक देखिये. मैं मूल से उद्धृत कर रहा हूँ क्योंकि जाने-अनजाने अनुवादक सदा सरलीकरण करता है –
‘समस्त दिनेर शेषे शिशिरेर शब्देर मतन
सन्ध्या आशे ; डानार रौद्रेर गंध मूछे फेले चील;
पृथिवीर सब रङ निभे गेले पांडुलिपि करे आयोजन
तखन गल्पेर तरे जोनाकिर रङे झिलमिल;
सब पाखि घरे आशे – सब नदी – फुराय ए जीवनेर सब लेनदेन;
थाके शुधु अन्धकार, मुखोमुखि बसिबार वनलता सेन.‘
- शिशिरेर शब्देर मतन संध्या आसे– ओस की आवाज़ की तरह संध्या आती है. ओस की आवाज़ मतलब मानव श्रवण-शक्ति के बाहर की आवाज़. यह आवाज़ एक कल्पना है और वास्तव भी. शाम इस तरह आती है क्या– इस रहस्यमय ढंग से? या कवि किसी और चीज की भी बात कर रहा है– जैसे मृत्यु? या कोई तीसरी ही अभौतिक उपस्थिति?
- ‘पृथिवीर सब रङ … झिलमिल : इन दो पंक्तियों का पक्का अन्वय लगभग असंभव है. स्वयं जीवनानंद अपने अंग्रेजी अनुवाद में लिखते हैं –
‘When earth’s colors fade and some pale design is sketched,
Then glimmering fireflies paint in the story’.
कवि ने अपने अंग्रेजी पाठकों के लिए बिम्ब को सरल कर दिया, परंतु अनुवाद का बिम्ब कहाँ से आया? ‘पांडुलिपि’ शब्द का क्या हुआ? Pale design पांडुलिपि शब्द का अनुवाद कैसे हो सकता है? design is sketched कहाँ से आया? और किसके द्वारा sketched? प्रयाग शुक्ल का हिन्दी अनुवाद देखिये-
‘बुझ जाते रंग
थम जातीं सारी आवाजें, चमक जुगनुओं की रह जाती
और पांडुलिपि कोरी, जिसमें कथा बुनेगी रात उतरती’
‘कोरी पांडुलिपि’ का क्या मतलब हो सकता है? बांग्ला और हिंदी दोनों में पांडुलिपि का अर्थ है ‘हस्तलिखित पुस्तक’. कोरी तो वह हो ही नहीं सकती. और ‘जिसमें कथा बुनती रात उतरती’ कहाँ से आया?
तो इन पंक्तियों को साधारण वाक्य-रचना के आधार पर निरर्थक ही मानना पड़ेगा. मैंने जो शाब्दिक अर्थ दिया है वह भी बहुत सार्थक नहीं लगता.
जीवनानंद की कविता का व्याकरण उनकी बहुत-सी कविताओं को पढ़ने के बाद ही कुछ समझ में आता है. परंतु वनलता सेन को समझने के लिए एक और पूरक मार्ग है. यह रूमानी कविता है और रूमानवाद का एक इतिहास हमें अंग्रेजी से मिला है. हर काव्य-आंदोलन का अपना कायदा या ग्रामर होता है. अंग्रेजी के रूमानी काव्य से हम यह व्याकरण समझ सकते हैं. जीवनानंद अंग्रेजी के अध्येता और अध्यापक थे. वे इस व्याकरण से पूरी तरह परिचित रहे होंगे.
प्रथम स्तवक
वाचक हजार साल से पृथ्वी के मार्गों पर चलते रहने की बात करता है– श्रीलंका के समुद्र से मलाका जलडमरूमध्य तक, बिम्बिसार के काल से अशोक के काल तक, फिर और दूर विदर्भ तक– वाचक का भ्रमण स्थान और काल दोनों की दृष्टि से वर्णित है. यह यात्रा निश्चय ही बुद्धि और चेतना के स्तर पर है. चिन्तनशील और भावुक वाचक साम्राज्यों, सभ्यताओं, समृद्ध और सुसंस्कृत नगरों आदि के ध्रुव पतन और अपचय से उदास होता है. वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में ध्रुव अपचय का बोध पाकर वाचक विचलित होता रहा है. ये सभी चिन्ताएं उसे घेरे रहती हैं जैसे किसी नाविक को अशांत समुद्र.
इस मानसिक उद्वेग में कुछ समय की शांति मिली थी नाटोर की वनलता सेन के सान्निध्य में.
यह कथ्य का एक रेखाचित्र मात्र है. बारीकियों को अलग से समझना पड़ेगा. पहली पंक्ति में वर्तमान काल है आखिरी पंक्ति में भूतकाल. कवि के सतत् मानसिक आलोड़न का कभी वनलता सेन के कारण कुछ घड़ियों के लिए उपशमन हुआ था. द्वितीय पंक्ति में ‘निशीथेर अंधकारे’ में निद्रारहित रातों का संकेत है. पाँचवी पंक्ति में चित्रित मानसिक क्लांति सदा रहने वाली स्थिति है. आखिरी पंक्ति की मानसिक शांति एक सुखद स्मृति है. पाठक जितनी बार इन पंक्तियों को पढ़ेंगे उतनी बार और अर्थ खुलेंगे. मेरा उद्देश्य एक पगडंडी-सी खोलना भर है.
तुलनीय
Much have I travelled in the realms of gold
And many goodly states and kingdoms seen;
Round many western islands have I been
Which bards in fealty to Apollo hold.
(Keats : On First Looking into Chapman’s Homer से)
यहां सोने के साम्राज्य, अनेक सुंदर राज्यों आदि से कीट्स का अभिप्राय सर्वोत्तम कोटि के काव्य से है. वैसे ही सिंहल समुद्र, मालय समुद्र, बिम्बिसार, अशोक, विदर्भ से जीवनानन्द का अभिप्राय इतिहास, विशेषतः सभ्यता-संस्कृति के इतिहास, से है. परंतु कीट्स की प्रीतिकर यात्राओं के बरअक्स जीवनानंद की यात्राएं क्लांति उत्पन्न करने वाली हैं क्योंकि वे मानव जाति के भविष्य के प्रति कोई आशा नहीं जगातीं.
द्वितीय स्तवक
दूसरे छंद में यह स्पष्ट हो जाता है यह प्रेम कविता है. वाचक वनलता का सौंदर्य वर्णन करता है. वह कहता है उसकी केशराशि न जाने किस काल की विदिशा नगरी की अँधेरी रात है. ‘अँधेरी रात’ का मतलब विदिशा के बुरे दिन नहीं है. विदिशा का उल्लेख रामायण और महाभारत में है. अशोक सम्राट बनने के पहले विदिशा का प्रादेशिक था. उसका विवाह और उसके दो बच्चों का जन्म यहीं हुआ था. शुंगों के काल में विदिश साम्राज्य की दूसरी राजधानी थी. गुप्त काल में यह बड़ा व्यावसायिक केन्द्र था. विदिशा हजार साल तक नागर सभ्यता, वैभव और विलास का केन्द्र रही. कालिदास का वर्णन देखिये :
‘नीचैराख्यं गिरिमधिवसे: तत्र विश्रामहेतो: त्वत्सम्पर्कात् पुलकितमिवप्रौढपुष्पै: कदम्बै:.य: पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभि: नागराणां उद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभि: यौवनानि.. (पूर्वमेघ)
(नीचै: गिरि पर उतरकर विश्राम करना. तुम्हारे संस्पर्श से वहाँ के पुष्पित कदम्ब पुलकित होंगे. उसके पत्थर के घरों या गुफाओं से रूपजीवी स्त्रियों के साथ रति के समय प्रयुक्त सुगंधियाँ विदिशा के नागरों के यौवन का बखान कर रही होंगी.)
जीवनानन्द विदिशा की उन रातों की ओर संकेत कर रहे हैं. वनलता सेन की केशराशि काली, सुगंधियुक्त, वाचक की इंद्रियों को उत्तेजित करने वाली है आदि भाव हम विदिशा के उल्लेख से कल्पित कर सकते हैं. वनलता का मुख श्रावस्ती का शिल्प है. इसका अर्थ है कि हमारी संस्कृति में जिसे परिपूर्ण आदर्श कहते हैं वह उसका मुख है. याद रखना है कि विदिशा की अँधेरी रात और श्रवस्ती का शिल्प उपमा अलंकार के उपमान नहीं हैं रूपक अलंकार वाली उपमेय-उपमान की अभिन्नता है. इसका निहितार्थ कि नायिका हमारी परम्परा में जो भी श्रेष्ठ है उसका प्रतिनिधित्व करती है.
इसके बाद वाचक ने वनलता से अपनी हर मुलाकात की तुलना एक दीर्घ उपमान से की है. कल्पना करें कि एक समुद्री नौका का रडर (स्टियरिंग जैसा यंत्र) टूट जाय और नाविक को दिशा-ज्ञान न रहे. अनियंत्रित नौका संयोग से दालचीनी द्वीप पर पहुँच जाती है जहाँ हरी घास का भूखंड देखकर नाविक एक सुखद आश्चर्य और आशा से भर जाता है. रात्रि के अंधकार में कभी प्रेमिका से मिलने का अवसर पाकर वाचक को वैसी ही अनुभूति होती है. वनलता आँखें वाचक की ओर उठाकर कहती है, “इतने दिन कहाँ थे?” उसकी आँखों की तुलना कवि पक्षी के नीड़ से करता है. यह तुलना भौतिक समानता पर आश्रित नहीं है. नीड़ आश्रय, शांति, सुरक्षा और सुख का रूपक है. वनलता की आँखें वाचक के चित्त में ये सभी भाव जगाती हैं.
दालचीनी (बांग्ला में दारुचीनी) द्वीप सचमुच का द्वीप है. यह बांग्लादेश में स्थित है. ‘दारुचीनी द्वीप’ नाम से बांग्लादेश के लोकप्रिय लेखक हुमायूं अहमद का एक उपन्यास भी है. जीवनानन्द का द्वीप काल्पनिक भी हो सकता है और यह वास्तविक द्वीप भी. इसे सेंट मार्टिन द्वीप भी कहते हैं.
तुलनीय:
Helen, thy beauty is to me
Like those Nicean barks of yore
That gently o’er a perfumed sea
The weary way-worn wanderer bore
To his own native shore.
On desperate seas long won’t to roam,
Thy hyacinth hair, thy classic face,
Thy Naiad airs have brought me home
To the glory that was Greece,
And the grandeur that was Rome
( Edgar Allan Poe : To Helen से)
शुरू की दो पंक्तियों में नायिका के सौंदर्य की तुलना नाइसिया नगर की समुद्री नौकाओं से की गई है. यह उपमा जीवनानन्द की ‘पाखीर नीड़ेर मतो’ जैसी ही है.
पो ने इस उपमा को स्पष्ट समझा दिया है, “जो नौका किसी थके और घर वापस आने के लिए आकुल यात्री को घर की ओर ले जाये”. जीवनानंद ने ऐसा न करके पाठक की समझ पर छोड़ दिया .
‘हायसिंथ हेयर’ (घुंघराले बाल) और ‘क्लैसिक फेस’ ग्रीक और रोमन ‘एल्यूज़न’ जिन्हें बाद की पंक्तियों में लेखक ने समझा दिया है. आप हायसिंथ की कहानी पढ़ सकते हैं. क्लासिक का सम्बंध ग्रीस और रोम से है यह पो स्पष्ट कर देते हैं. परंतु जीवनानंद पुन: विदिशा की रात और श्रावस्ती के शिल्प की व्याख्या पाठक के ऊपर छोड़ देते हैं.
तृतीय स्तवक
ये पंक्तियाँ सबसे जटिल हैं और मुझे येट्स की याद दिलाती हैं. परंतु मदद के लिए कोई कविता या काव्यांश मैं नहीं ढूँढ़ पाया. ये छ: पंक्तियां दिनांत के बारे में हैं. या जीवनांत के बारे में हैं, येट्स के ‘सेलिंग टु बाइजेंटियम की तरह? मेरे लिए कहना कठिन है. इसकी उलझी हुई भाषा और जटिल बिम्ब-विधान की चर्चा पहले ही कर चुका हूँ. यहाँ मैं अपनी समझ से शब्दार्थ-मात्र लिख रहा हूँ :
- सारा दिन बीतने के बाद ओस आवाज़ की तरह शाम आती है. चील अपने डैनों से धूप की गंध पोछ डालती है. धूप की गर्मी से किसी भी श्रमरत प्राणी के अवयवों की गंध बदल जाती है. छाया में विश्राम करके शरीर की प्रकृत गंध लौट आती है. (मैं मना नहीं करता, पर जीवनानंद की प्रकृति में प्रतीक ढूँढ़ना प्राय: निष्फल श्रम है. चील चील ही है.)
- अंधकार में सब रंग बुझ जाते हैं, केवल तम का रंग रह जाता है. तम का रंग एक काले कागज की तरह है. कागज किसलिए? “गल्पेर तरे” यानी कहानी के लिए. कहानी शायद वाचक और वनलता के प्रेम की, जो जुगनुओं के प्रकाश में या जुगनुओं को अक्षर बनाकर लिखी जा रही है.
- सभी पक्षी घर लौटते हैं, सब नदियाँ भी. नदी के घर लौटने का क्या अर्थ हो सकता है? अनुवादों से कोई मदद नहीं मिलती. जीवनानंद, क्लिंटन सीली, प्रयाग शुक्ल और सुशील झा मूल की तरह विराम चिह्नों के बीच सभी नदियाँ या all rivers लिखते हैं. अमिताभ मुकर्जी के अंग्रेजी अनुवाद में नदियों को गायब कर दिया है. मालविका राय चौधुरी के अंग्रेजी अनुवाद में all rivers meet their ends लिखा है जिसका कोई अर्थ नहीं है. मेरे विचार से यह अर्थ सम्भव है: नदी पर मनुष्यों तथा अन्य जीवों की गतिविधियाँ बन्द हो जाती हैं और नदी मानो अपना दरवाजा बंद कर लेती है.
- इस जीवन का सब (दैनिक या पूरे जीवन का?) लेनदेन समाप्त हो जाता है.
- रह जाता है बस अंधकार, और वाचक के सामने बैठने को वनलता सेन.
विविध
1.
वनलता सेन केवल कल्पनाप्रसूत मानवी है या किसी वास्तविक प्रेमिका का आदर्शीकृत रूप – इस पर बहुत पढ़ा-लिखा गया है. एक बांग्लादेशी सरकारी अफसर ने कभी दावा किया था कि वह नाटोर की किसी रूपजीवा से प्रेरित चरित्र है. इसके जवाब में कहा गया है कि जीवनानंद कभी नाटोर गये ही नहीं. किसी ने कहा है कि वह कोई स्वतंत्रता सेनानी थी तो दूसरे किसी ने पड़ोसी बताया है. किसी रिश्तेदारी की लड़की भी बताई जाती है. अधिकांश विद्वान उसे काल्पनिक चरित्र मानते हैं.
2.
पहले छंद में मूल में ‘मालय सागर’ आया है. जीवनानंद ने उसका अनुवाद malayan sea किया है, जो स्पष्ट नहीं है. सीली ने मलय समीर से जोड़कर seas up the Malabar coast अनुवाद किया है. बाकी सबने मलाका जलडमरूमध्य का आशय ग्रहण किया है. दक्षिण पूर्व एशिया तक एक भारतीय साम्राज्य का विस्तार था. अत: मैंने मलाका को ही स्वीकार किया है. श्रीलंका से केरल तक की यात्रा न इतनी लम्बी है न उसका कोई सांस्कृतिक संदर्भ समझ में आता है.
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बहुत गंभीर गहरी विवेचना
अच्छी टीप है। बांग्ला में भी स और श दो वर्ण हैं। जीवनानंद खुद दास की जगह दाश लिखते थे। उनकी किताबों पर यही छपा है। इसलिए दाश ही उचित है।
बहुुुतसुंदर और संकेत पूर्ण।दशकों से, अर्थ विवेचन से अधिक इस कविता का नाद सौंदर्य,इसका संगीत,और अस्पष्ट मगर निहायत सम्मोहक बिंब उमड़ते घुमड़े रहते हैं। शायद किसी मूर्छा या समाधि जैसी मनोदशा में ही ऐसी कवित जन्म लेती हो? इसकी “अपील”भी शायद चेतन की बनिस्बत अचेतन को ही अधिक है? –व्याकरण की अपेक्षा ,अंतर्हित generative basic competence से संबद्ध कला या कविता के आनंद बोध को?
बेशक आपके प्रयास ने आस्वाद बढ़ा दिया।
कविता की ऐसी विद्वतापूर्ण विवेचना कम ही देखने को मिलती है. शिव किशोर तिवारी जी ने अर्थ और शिल्प दोनों का बेहद सुंदर और गहन विश्लेषण किया है. उन्होंने अर्थ की सारी परतें खोल दी हैं. कविता का अनुवाद भी प्रशंसनीय है. जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा प्रशासक के रूप में बिताने वाला व्यक्ति भाषा और साहित्य से इतनी गहराई से जुड़ा रहे, यह सरल नहीं है. बहुत बहुत बधाई, बंधु. आप लिखते रहेंगे, यह आशा है और आग्रह भी.
बहुत गम्भीर पाठ है, शास्त्रीय आलोचना जो कि आज अस्मिता विमर्शों में दुर्लभ हो चली है वहाँ इसका मिलना अँधेरे में हीरे का हाथ लग जाना है।
अम्बर पांडेय
यह सचमुच अतुल्य टीका है इस कृति की, जो दरअसल स्वयं में एक तरह के तुलनात्मक अध्ययन से बनी है। श्रम के सीकर यहाँ जहाँ-तहाँ झिलमिला जाते हैं, इसे और सुन्दर कर जाते है। सुन्दर पढ़त है।
क्लासिक और ख़ास निर्लिप्त भाव लिए यह तुलनात्मक विच्छेदन बेहद पठनीय है।
सुंदर टीका, कवियों को यदि पता रहे कि मृत्योपरांत उनकी कविताओं की ऐसी समग्र व्याख्याएँ संभव हैं तो वे जल्दी- जल्दी अपना काम समाप्त कर जल्दी- जल्दी मर जाना चाहेंगे।
यह टीका कविता के भावपक्ष व भावभूमि की विशद व्याख्या का न्यायपूर्ण कृत्य है। विशेषकर इसलिए कि इसमें लेखक ने अपनी व्याख्या से पहले पूर्व के सभी महत्वपूर्ण अनुवादकों के अनुवादों/ भावनुवादों को परख कर एक युक्तिसम्मत व काव्यसम्मत अनुवाद प्रस्तुत किया है । हमारी सभी क्लासिक रचनाओं की ऐसी अध्ययनपूर्ण प्रामाणिक व्याख्याएँ होना पाठकों के हित में है।
आपकी व्याख्या से पर्याप्त सहमत होते हुए भी कहीं- कहीं मैं आपकी दृष्टि से सहमत नहीं। जैसे रात दिन जो नदी एक दिशा में बहती रहती है, वह अपने घर की दिशा में ही तो चल रही है, शाम होते – होते पहुँच जायेगी। ऐसा एक कवि सोच ही सकता है। इसकी तार्किक व्याख्या संभव नहीं। एक कोरी पुस्तिका भी पाण्डुलिपि हो सकती है, वह कबसे एक कवि के पास है सो उसमें कितना कुछ अलिखित लिखा है। और एक भरी हुई पाण्डुलिपि भी प्रियतमा की एक कविता के बिना खाली ही है, व्यर्थ है सब। जैसा आपने भी आगे कहा है वनलता सेन की आँखों की तुलना कवि पक्षी के नीड़ से करता है. यह तुलना भौतिक समानता पर आश्रित नहीं है. नीड़ आश्रय, शांति, सुरक्षा और सुख का रूपक है. वनलता की आँखें वाचक के चित्त में ये सभी भाव जगाती हैं।
सो यह और कुछ नहीं हमारा पाठ वैविध्य है।
इस महत्वपूर्ण काम के लिए लेखक व समालोचन को बधाई।
कविता का कोई पाठ ग़लत या कमतर नहीं होता। मेरे लिए यह देखना रोचक है कि कैसे एक ही कविता का पाठ कविता रचनेवाले और पढ़नेवाले सर्वथा भिन्न स्थानों पर खड़े होकर करते हैं। यह टीका गंभीर अध्ययन का परिणाम है इसके किसी अंश से असहमति नहीं।
शानदार कार्य श्लाघनीय
किसी रचना की पाठ आधारित समीक्षा या उसकी टीका का लक्ष्य रचना के मूल तक पहुँचना है। रचना की मूल आत्मा का संधान और उसके उपर छायी हुई धुँध की परतों को हटाना वस्तुतः एक कठिन साधना है। एक बड़ी कृति अपने भीतर अर्थ के कई क्षितिज, अनेक संभावनाएँ, अनुभव के अनेक द्वार और खिड़कियाँ लिए रहती है।इन्हें खोलना आलोचक या टीकाकार का धर्म है । जीवनानंद दास की वनलता सेन पर शिव किशोर तिवारी की टीका सारगर्भित और विशेषरूप से हिन्दी पाठकों के लिए मूल्यवान है। उन्हें साधुवाद !
आदरणीय शिवकिशोर जी,
हम जैसे लोग जो अनुवाद करने या किए गए अनुवादों की गुणवत्ता परखने लायक बांग्ला नहीं जानते, उनकी तरफ से अनुवाद और उसकी पाठ-समीक्षा के बारे में कुछ जिज्ञासाएं स्वाभाविक हैं ।
इंटरनैट पर उपलब्ध अनेकानेक स्रोतों से इस कविता के अंग्रेजी, हिंदी और अन्य भाषाओं में अनेकानेक अनुवादों की जानकारी मिलती है । उनमें कुछ पंक्तियों के व्याकरणिक प्रयोगों की भिन्नता और भावार्थ की भिन्नता के संकेत भी मिलते हैं । उसमें कोई हस्तक्षेप बिना मूल भाषा की बारीक जानकारी के नहीं हो सकता ।
इसलिए यह स्पष्ट होना जरूरी है कि पूर्व के अनुवादों और अनुवादकों के व्याख्या-विश्लेषण से फर्क के वे मुख्य बिंदु क्या हैं जिनके कारण आपको अनुवाद और व्याख्या का श्रम पुनः करना पड़ा । उन्हें समझकर ही अन्य अनुवादों और व्याख्या-विश्लेषण पर कुछ कहना संभव होगा ।
यह कविता कवि की कल्पना, सौंदर्य विधायक अवयवों की नई परिकल्पना, उसके विस्तारित देश-काल बोध और अभिव्यंजना कौशल का अनोखा उदाहरण है । उन्हें रवींद्रनाथ के बाद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि माना गया है । इस कविता के माध्यम से उन तमाम को कुछ अलग से रेखांकित कर विश्लेषित कर सकें तो उसके आस्वाद में और सुकरता होगी ।
अनावश्यक लगे तो छोड़ भी सकते हैं ।
यूं तो समालोचन पर प्रतिदिन उठते ही किसी मोती की तलाश होती है जो प्रायः मिल भी जाते हैं। आज तो लगता है निज़ाम का खज़ाना ही हाथ लग गया है। क्या तो कविताओं के विषय में कहा जाए और क्या इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए । बस इतना ही कहूँगा –
साधु साधु साधु।
इस चर्चित कविता की व्याख्या ने कविता को समझने का एक नया फलक दिया है। तिवारी जी को प्रणाम।
विदिशा वाला मामला तो स्पष्ट हुआ लेकिन श्रावस्ती वाला स्पष्ट नहीं किया है। पांडुलिपि प्रकरण पर कठहुज्जती की गई प्रतीत होती है जहाँ व्याख्या का सारा अधिकार टीकाकार अपने लिए सुरक्षित कर लेना चाहता है।
बहुत अच्छा लेख। लेकिन इस पर मुग्ध नहीं हुआ जा सकता
आदरणीय शिवकिशोर तिवारी जी को पढ़ना हमेशा सुखद और ज्ञानवर्धक होता है।उन्होंने बंगला की इस महान कविता का अनुवाद करने के साथ ही मूल एवं अनूदित पाठ का जिस गहराई से विश्लेषण किया है, वह आजकल लिखी जानेवाली आलोचना में दुर्लभ है।
कविता के मूलपाठ का विश्लेषण किए बिना उसके बारे में बातचीत करने का प्रचलन इधर बढ़ा है। ऐसे में शिवकिशोर जी का यह अनुवाद और पाठ विश्लेषण शब्दकर्मियों के लिए अनुकरणीय है।
साधुवाद।
शिव किशोर तिवारी कविता के दुर्लभ आलोचक हैं । वे किसी विचार की, किसी विचारधारा की, किसी कैम्प की, किसी विश्वविद्यालय की, किसी गुट की, किसी दशक की नौकरी नहीं करते । वे हिंदी के अकेले स्वतंत्र आलोचक हैं जो निर्भीकता से अपनी बात कहते हैं । जीवनानंद दाश की विश्वप्रसिद्ध कविता का अनुवाद हालांकि पूर्व के अनुवादकों की तरह तिवारीजी से भी नहीं बन पाया लेकिन उनकी विश्लेषण पद्धति अद्भुत है । वे कविता का रेशा रेशा खोल देते हैं जिसके भीतर से उसका अर्थ कौंधता है । तिवारीजी मुंह देखकर टीका नहीं काढ़ते हैं । उनकी हल्की सी तारीफ़ से कवि कृष्ण कल्पित हफ़्तों प्रसन्न रहता है और उनकी आलोचना मुझे मांजती है । अभी इतना ही ।
बहुत अर्थपूर्ण और गहन व्याख्या। कविता को समझने की एक
मैं अभिभूत भी हूँ, जाग्रत भी. ‘समालोचन’ का और अधिक मुरीद हो रहा हूँ.
अधिकतम संभव व्याख्या। कवि के आशय के आसपास। रिक्त स्थान भरने का सूक्ष्म विवेक ।’पाण्डु’ के साथ लिपि तो जुड़ी ही होती है। और कँटीले बाँसों की झाड़ी के उलझन के तो क्या कहने!