लोकतंत्र का धुआँ और हमारा नागरिक समाजविवेक निराला |
काव्य-पुस्तिका ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ तथा ‘सहसा कुछ नहीं होता’ और ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’ जैसे कविता -संग्रहों के बाद कवि बसन्त त्रिपाठी का नया संग्रह ‘नागरिक समाज’ प्रकाशित हुआ है. यहां तक आते-आते बसन्त हमारी पीढ़ी के प्रमुख कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं. कविता की पृथ्वी पर बसन्त पूरी तरह उतर चुका है. अब बसन्त की आहट नहीं उसकी गरमाहट है. रक्ताभ किसलय अपने वास्तविक रंग में बदल चुके हैं और इसके साथ ही हमारी शताब्दी का तीसरा दशक आरम्भ हो चुका है. नई शताब्दी की सारी आशंकाएं अब डरावनी वास्तविकताओं में बदल चुकी हैं. सारे स्वप्न बिखर चुके हैं. असन्तोष ही इस सदी का स्थाई भाव हो जैसे. युद्ध, साम्प्रदायिकता, घृणा, हिंसा और अपराध के साथ ही पूंजीवाद के सर्वग्रासी रूप के खुलकर सामने आने और इसी को विकास कहे जाने की कीमियागिरी भी हमारी इसी सदी की विशेषता है. अपनी इस सदी के इसी यथार्थ को बसन्त व्यक्त करते हैं. इस संग्रह की पहली ही कविता है- ‘इस सदी को’. इस कविता में बसन्त इस सदी को समझने के कुछ सूत्र बताते हुए कहते हैं-
‘‘केवल विकास दर के बढ़ते ग्राफ से नहीं
अपहरण बलात्कार और आत्महत्याओं के तरीकों से भी
यह सदी दर्ज़ हो रही है इतिहास में
इतिहास के अन्त के भाष्यकारों से नहीं
इतिहास में शामिल होने
और उसे बदल डालने की इच्छा से भी
आप जान सकते हैं इस सदी को.
इस सदी में मुद्रा-स्फीति की तरह भाषा में शब्द-स्फीति भी बढ़ी है. मुद्रा के अवमूल्यन की तरह भाषा का भी अवमूल्यन हुआ है. शब्द लगातार अपनी अर्थवत्ता खो रहे हैं. सदियों से लिखते-पढ़ते और रटते चले आ रहे वाक्य ‘भारत एक कृषि-प्रधान देश है’ का निरर्थक होते जाना, किसानों की आत्महत्या और उनका दमन हमें इसी समय में देखना था. शेयर बाज़ार में निफ्टी और सेंसेक्स के उठने और गिरने को हमें अपनी सांसों के उठने-गिरने के साथ महसूस करना था, हमें आई. पी. एल. में क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी पर नज़र रखनी थी, हमें रोज-रोज बढ़ती तेल की क़ीमतों पर चुप्पी साधे रखनी थी और राष्ट्रवाद तथा राम-मन्दिर के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देना था.
हमारे समय में बाहर जितना शोर है भीतर उतना ही सन्नाटा. बाहर भीड़ ही भीड़ है मगर आदमी अपनी परछाईं के साथ बिल्कुल अकेला. हमारे समय में जिन्हें दुनिया की महानतम उपलब्धियां बताया जा रहा है कवि उन सब के लिए एक शोकगीत लिखता है-
‘‘शेयर बाज़ार का सांड़ हुंकारता है किसानों की हड्डियों में
मोटरकार की मन्दी में अर्थहीन हो जाती है खाद की तेजी
जीवन भर थक-हारकर कमाता है किसान एक मज़बूत फन्दा
बंधा था जो आस की रस्सी से, टूट जाता है वह
ज़िन्दगी का रेला.’’
ये दुनिया की महान उपलब्धियां हैं और इन्हें हमेशा समाज के लिए बताया जाता रहा है. मगर, इन्हीं उपलब्धियों के साथ ‘हर बार छूट जाता है आदमी अपनी परछाईं के साथ बिल्कुल अकेला.’ यही उपलब्धि युक्त हमारे समाज का यथार्थ है और इस नागरिक समाज में भांति-भांति की विडम्बनाएं हैं. इस नागरिक समाज के नागरिकों से शासन-सत्ता उनके नागरिक होने के सबूत मांगती है. जिनके पास कागज़ नहीं वे फेंक दिए जाएंगे इस देश से बाहर. उन्हें इस देश का नागरिक बने रहने का कोई हक़ नहीं. इस महादेश में कलाओं की वह दुनिया जो प्रतिरोध रचती है, नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है. हमने इसी नागरिक समाज की नागरिकता से च्युत होते महान कलाकार मक़बूल फिदा हुसैन को देखा है. यह वही नागरिक समाज है जिसमें धार्मिक कट्टरता है, जातिवादी घृणा है, ग़ायब होता हुआ देश है और मरे हुए लोग हैं. ये ऐसे लोग हैं जो भव्य मन्दिर के लिए भारी चन्दा देते हैं मगर, भुखमरी उनकी चिन्ता से बाहर है. ये वही लोग हैं जो ‘जयश्रीराम’ का गगनभेदी नारा लगाते हैं, मगर अपने पड़ोसी की हत्या पर समझदार चुप लगा जाते हैं. इस नागरिक समाज में अल्पसंख्यक वही लोग हैं, जो संवेदनशील हैं. ज़ाहिर है कि हर समय की तरह हमारे समय में भी कवि उन्हीं थोड़े से लोगों में है-निरुपाय और बिल्कुल अकेला. इस नागरिक समाज पर टिप्पणी करती कविता की अकेली आवाज़ ही यह कह सकती है-
‘‘अपने ही देश को जाते तमाम रास्ते
समृद्धियों से बन्द कर रखे हैं तुमने
तुम्हारी सम्पत्ति ही तुम्हारा क़ैदखाना है
ध्वस्त कर दिये हैं संवेदना के सारे पुल
दुख को कहते हो अभिशाप
लेकिन देखो कि चमकीली तरंगें ही
तुम्हारा चयनित अकेलापन है
और मोमबत्ती ब्रह्मास्त्र.’’
किसी भी रचना को देखने का एक प्रतिमान यह हो सकता है कि उस रचना में हमारा समय कैसे व्यक्त हुआ है ? अपने समय से जुड़कर ही रचना को समय के पार जाना होता है. हमारे समय के यथार्थ को व्यक्त करने वाली कविताएं ही हमसे जुड़ पाती हैं. हमारा समय एक जटिल समय है, इसलिए हमारे समय का यथार्थ भी उतना ही जटिल है. अपने इस जटिल समय के यथार्थ को सहज अभिव्यक्त करना भी एक चुनौती ही है क्योंकि इस सहज अभिव्यक्ति में सरलीकरण का एक खतरा भी निरन्तर मौजूद रहता है. यही कारण है कि सोशल मीडिया और प्रिन्ट मीडिया में आ रही ढ़ेरों कविताओं में से कुछ ही अपनी ओर ध्यान खींच पाती हैं.
अपने समय को व्यक्त करने की एक कोशिश बसन्त ने इस संग्रह में भी की है. वह समय जिसमें इतनी तरह की चालाकियां हैं कि हमें पता भी नहीं चलता और हम छले जाते हैं. बाज़ार अब हमसे ‘जयहिन्द’ के गीत गवा लेता है, वह हमारे स्वास्थ्य की चिन्ता करते हुए ‘फुल बॉडी चेक अप’ का पैकेज सुझा देता है ;ज़ाहिर है कि उसे हमारे स्वास्थ्य की नहीं अपने आर्थिक स्वार्थ की ही चिन्ता है.
वह हमें छुट्टियां बिताने-विदेश में आने-जाने से लेकर पांच दिन और चार रातों को घूमने, रुकने तथा खाने की व्यवस्थाओं के आकर्षक प्रस्ताव ले कर सामने आ खड़ा होता है. वह हमारे बेडरूम में टी.वी. के साथ घुस कर हमें तमाम सत्ता-षड्यन्त्रों से अनजान बना कर ‘सास, बहू और साजिश’ में उलझाए रखना चाहता है कि हम सत्ता के विरुद्ध कुछ सोच भी न सकें.
कवि जानता हे कि लोमड़ी से भी ज़्यादा चालाकी भरे इस समय में प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्प है. अब लड़ाई ज़रूरी है लेकिन हमारा नागरिक समाज इतने खानों में बंटा हुआ है कि विश्वसनीयता भी एक बड़ी चुनौती है. याद आती है अग्रज कवि की वह कविता पंक्ति जिसमें वह कहता है कि
‘एक कवि कर भी क्या सकता है
सही बने रहने के सिवा.’
क़दम-क़दम पर अपनी विश्वसनीयता सिद्ध करनी पड़ती है. इसके बावजूद आपको स्वीकार किया जाएगा या नहीं आप ठीक-ठीक नहीं कह सकते. कभी उस वर्ग का न होना आपकी अयोग्यता मान लिया जाता है और कभी अस्मितावादी विमर्शों की स्वानुभूति बनाम सहानुभूति की पुरानी बहस सामने आ खड़ी होती है. हम यह हठ नहीं करते कि हमें हमराह मानो मगर साथ तो आने दो! इस पूरे मसले पर इस संग्रह की एक कविता है ‘लड़ाई’ जो ध्यान खींचती है.
इस समय हमारे देश में लोकतन्त्र इस देश के हर ज़िम्मेदार नागरिक की चिन्ता के केन्द्र में है. इस लोकतन्त्र में बहुमत की आंधी प्रतीत कराता हुआ सत्ताधारी दल विपक्ष नामक संस्था को समाप्त कर चुका है. अब विपक्ष जैसे हे ही नहीं, और यही लोकतन्त्र की मुश्किल भी है.
इस संग्रह में ‘लोकतन्त्र’ और ‘लोकतन्त्र का धुआं’ शीर्षक दो कविताएं हैं जो कवि की केन्द्रीय चिन्ता को व्यक्त करती हैं. ‘लोकतन्त्र’ में जहॉं ‘मेरा मैं सूने आकाश में तारों की टिमटिमाहट सुनता है, मेरा वह शहर में फौज़ी जूतों की कड़कड़ टापें.’ वहीं ‘लोकतन्त्र का धुआं’ कविता में कवि कहता है कि एक लोकतन्त्र है जो खाली टीन के डिब्बे में कंकड़ की तरह बजता है-खड़ंग. इन पंक्तियों पर सहज ही ध्यान जाता है और धूमिल तथा सर्वेश्वर की बरबस याद आती है. कविताई का जैसे वही ढंग-‘कंकड़ की तरह बजता है-खड़ंग.’ अपने समय में निरर्थक होते हुए लोकतन्त्र की जो चिन्ता उन कवियों की थी लगभग वैसी ही चिन्ता. यह जितना कवि परम्परा का सातत्य है उससे कहीं अधिक लोकतन्त्र की समस्या का सातत्य.
कवि बसन्त त्रिपाठी का यह कविता संग्रह तीन उपशीर्षकों में विभक्त है. पहला-महायुग, दूसरा- आयो घोष बड़ो व्योपारी और तीसरा-कुछ भी अलौकिक नहीं होता. इसमें जहां रात के लिए एक स्याह बिम्ब है, जहां दिन एक जलती चिता है, वहीं कवि कविता के लिए थोड़ी लफ्फाजी, थोड़ी आक्रामकता, थोड़ी सी बहक, टेढ़ी-मेढ़ी चाल, थोड़ी ऊब, बहुत सारा गुस्सा, थोड़ा असन्तोष, थोड़ा विश्वास और बहुत सारा सन्देह आवश्यक मानता है. यह सब जैसे उसकी कविता के आवश्यक तत्व हैं. इनके बिना आज कविता संभव नहीं. इस संग्रह में हिन्दी शीर्षक एक कविता है जिसमें हिन्दी के अपमान की ओर संकेत करते हुए कवि कहता है-
‘इस भाषा ने मेरे माथे पर लिख दी हैं
पराजय की कुछ अदृश्य पंक्तियां.’
इस संग्रह में ‘हिन्दी के सर्जक’, ‘कविता की उपलब्धि’, ‘कविता और घोड़ा’, ‘ये हिन्दी वाले कौन ह़ैं.’ और ‘पराजित भाषा विमर्श’ आदि कविताएं हिन्दी भाषा और उसके साहित्य संसार का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं. ‘
हिन्दी के लेखक की यह आम शिकायत कुछ हद तक सही है कि हिन्दी-समाज अपने लेखकों की उपेक्षा करने वाला समाज है. इससे कुंठित हो कर हमारे एक बड़े कवि ने हिन्दी का कवि होने पर अफसोस जताया था. अपनी इसी कविता में कवि कहता है-
‘फिर प्रकाशकों को लतियाता
कि रॉयल्टी नहीं देते.’
अभी हाल में ही कवि विनोद कुमार शुक्ल के बहाने लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों तथा लेखक की रॉयल्टी पर एक नया विवाद शुरू हुआ है. इस पर तमाम बहसें भी हुयी हैं. इस संग्रह में बसन्त ने ‘किताब-लेखक-प्रकाशक-पाठक-दुकानदार’ श्रृंखला की कविताएं खासतौर पर दृष्टव्य हैं जिनमें कवि के व्यंग्य के साथ पराजय की कुछ अदृश्य पंक्तियां लिखने वाली हिन्दी के प्रकाशकों की चतुराई और लेखक की बेचारगी स्पष्ट दिखाई देती है.
कविता-संग्रह के अन्तिम खण्ड में कवि पाब्लो नेरूदा, गैब्रियल गार्सिया मार्केज, नाजिम हिकमत, मीरां और अपने अग्रज कवियों और लेखकों से अपने समय में आत्मीय संवाद करता है. ‘नेरुदा’ शीर्षक कविता में वह कहता है-
‘तुम जीवन और कविता के बीच
अपना हैट पहने और कलम थामे
ऐसे खड़े थे
जैसे पहाड़ पर देवदार का जंगल
और तुम्हारी कविता ऐसे बहती थी
जैसे हरे जंगल के बीच से
कोई उजली नदी.’
‘कुछ भी अलौकिक नहीं होता’ शीर्षक इस उपखण्ड में अपनी रचनात्मक खीझ के साथ कवि ‘खेखसी मेरी जान’, ‘करेले की बेल’ और ‘चलन से बाहर एक अठन्नी’ जैसी कविताओं के साथ तुच्छ मान ली गई चीजों पर तथा उपेक्षित और वंचित समुदाय पर संवेदनापूर्ण अभिव्यक्तियां करता है. ‘खेखसी, मेरी जान’ तो इस खण्ड की बहुत ही मजे़दार कविता है. इसमें कवि कहता है-
‘स्वाद तुम्हारा नहीं है अद्भुत
न ज़ुबान पर चढ़ राज ही करती
नाम सुनकर तुम्हारा
मुंह में सोता भी नहीं फूट पड़ता
फिर भी खेखसी, मेरी जान
तुमसे प्यार है.’
छत्तीसगढ़, ओड़िया, मराठी सहित सामान्य भारतीय जनता की अण्डाकार, कॉंटेदार यह सब्ज़ी एकाध महीने के लिए ही दिखाई देती है सारे आभिजात्य को धता बताती हुई. इसी तरह बसन्त की यह कविता भी अपनी भाषिक संरचना में सारे आभिजात्य को तोड़-फोड़ डालती है.
हमारे समय में जबकि सब कुछ निरर्थक होता जा रहा है-विचारधारा और पक्षधरता एक बड़ा मूल्य है. यहां विचारधारा से आशय राजनीतिक दलों की विचारधारा से नहीं बल्कि जन-हितैषी विचारधारा और जन-पक्षधरता से है. हमारे समय के विचारधारा और पक्षधरता के मूल्य को सबसे ऊपर रखकर बसन्त त्रिपाठी की ईमानदार अभिव्यक्तियां ही इस संग्रह का हासिल है. पुस्तक का आवरण कवि-पुत्री सुश्री निकिता त्रिपाठी ने तैयार किया है जो आकर्षक होने के साथ ही बहुस्तरीय-अर्थ-व्यंजना से परिपूर्ण है.
विवेक निराला ‘एक बिम्ब है यह’ और ‘ध्रुवतारा जल में’ कविता संग्रह प्रकाशित |
कविताये अभी हाल पढ़ के खत्म की हैं। विवेक ने बहुत अच्छी टिप्पड़ी की है। इन कविताओं में कवि ने आगे कदम बढ़ाया है। विसंगतियो को ठीक तरह से पकड़ा है।
युद्ध, सांप्रदायिकता, हिंसा, घृणा और पूँजीवादी व्यवस्था की वर्तमान कीमिया आज की तारीख़ की विशेषता नहीं बल्कि कुरूपता है । नागरिक समाज को अपने नागरिक होने का सबूत देना पड़ रहा है ।
छत्तीसगढ़, ओड़िसा और महाराष्ट्र में उगायी जानी वाली देशी सब्ज़ियों का उल्लेख प्रसन्न 🙂 करता है । कवि को प्रगतिशील समाज को वर्तमान व्यवस्था के विरोध के स्वर को दबाया जा रहा है । अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय सत्ता के निशाने पर है और उनकी उपस्थिति को नकारा जा रहा है ।
कविता के प्रचलित ढांचे को तोड़ती नए आस्वाद की ये कविताएं अपने विश्लेषण के लिए लोकतंत्र और लोकतंत्र के नाम पर फैलाए जा रहे धुंध में फर्क कर सकने वाले पाठक को संबोधित हैं।
विवेक जी ने बहुत हद तक इस संग्रह का सार प्रस्तुत कर दिया है,पर बगैर मूल पाठ से गुजरे इस संग्रह के बारे में कोई टिप्पणी गलतबयानी हो सकती है।
बसन्त जी को मुबारकबाद और विवेक जी को साधुवाद।