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Home » नाच रहा है बिरजू: सुमीता ओझा

नाच रहा है बिरजू: सुमीता ओझा

पंडित बिरजू महाराज पर के. मंजरी श्रीवास्तव का संस्मरणात्मक-आलेख आपने देखा- ‘मेरे बिरजू महाराज’. नृत्य प्रस्तुतियों को सहृदय किस तरह ग्रहण करते हैं और कैसे उनकी स्मृतियों में भंगिमाएं रच बस जाती हैं, इसे यहाँ पढ़ा जा सकता है. बिरजू महाराज पर यह दूसरा आलेख कवयित्री और हिन्दुस्तानी संगीत में रुचि रखने वाली सुमीता ओझा का है. यह आलेख बिरजू महाराज का परिचय कराते हुए उनकी नृत्य की विशेषताओं पर प्रकाश डालता है.

by arun dev
January 23, 2022
in नृत्य
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नाच रहा है बिरजू: सुमीता ओझा
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नाच रहा है बिरजू
सुमीता ओझा

 चकित होकर ठहरी हुई एक कालावधि, एक देहयष्टि में दुई का रचित हो जाना, एक आँख का उठना, दूसरी का झुकना, पलकों की एक झपक में राधिका का बरजना, दूसरी झपक में कान्हा का मनाना, एक कलाई को थामना, दूसरी से झिड़कना, एक भ्रू-भंगिमा, एक हस्त-विक्षेप, पाँवों की एक थाप, एक ज़रा-सा थमना, एक ज़रा-सा चलना, एक चितवन का लोच, प्रगाढ़ भावों की एक थिरक की सुकोमल कमनीयता, सम्मोहक इस टोने से भला किस तरह अछूती रह सके राधिका, अब राधा और कृष्ण संग-संग नृत्यरत, एक देहयष्टि में दुई का रचित हो जाना, और फिर बादल का खड़कना, क्रांधा क्रांधा क्रांधा,घुंघरू के मनकों का घेर-घुमेर गरजना, फिर रिमझिम-रिमझिम, तानाधिन-तानाधिन. ओह, दुई भी कहाँ?! यहाँ तो पूरी सृष्टि ही बिरजू में नाच रही है, नाच रहा है बिरजू.

एक प्रौढ़ मर्दाना देह की गतियों-यतियों में समग्र सृष्टि का अविरत नृत्य साकार हो उठना अनूठा है. अद्भुत है. कला का उत्कर्ष ही नहीं, कला का साध्य साक्षात् हो रहा है. कुछ इस तरह कि दर्शकों की सुध बिसर गई है. और तन्द्रा टूटती है जब घुंघरू के मनके रेलगाड़ी की धड़धड़ाहट के साथ वर्तमान समय उपस्थित करते हैं. कौन-सा परण बजा? कौन-सा चक्करदार?

आप अभी सोचते ही हैं कि एक सलोनी मुस्कुराहट के साथ ठाटदार मुद्रा में खड़ा बिरजू एक नयी गत की ओर उन्मुख हुआ दीख रहा है.

(यह दृश्य बनारस में नागरी नाटक मण्डली के मंच पर उपस्थित हुआ था, जो ठुमरी-सम्राज्ञी गिरिजा देवी के 85वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में मई, सन् 2014 में संपन्न हुआ था.)

ऐसे ही एक प्रदर्शन की याद उन्होंने स्वयं भी साझा किया था. कार्यक्रम मुंबई में हो रहा था. उन्होंने बताया था,

“यशोदा और कृष्ण की कथा पर आधारित नृत्य कर रहा था और उस नृत्य में मैं इस तरह भावनाओं में खो गया कि यह भूल ही गया कि मैं मंच पर खड़ा हूँ. मैं बस एकटक कृष्ण के चेहरे को निहार रहा था. दर्शक भी चुप थे. संगीत बंद हो गया था. कई मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा. हम सब कृष्ण की अनुभूति में खोए हुए थे. आखिरकार किसी ने ताली बजाई तो हमारा ध्यान भंग हुआ.”

 

जीवन ने बिरजू को खूब नचाया

छह साल की उम्र से कथक नृत्य की प्रस्तुतियाँ देने वाला बिरजू सुप्रसिद्ध कथक-नर्तक पण्डित जगन्नाथ मिश्र यानी अच्छन महाराज के बेटे थे. 4 फरवरी 1938 को लखनऊ में जब उनका जन्म हुआ तो सबने कहा कि गोपियों के बीच कान्हा आया है. यूँ तो अच्छन महाराज ने बेटे का नाम रखा था बृजमोहन नाथ मिश्र लेकिन जीवन संघर्षों और कला की कठिन साधना ने इस नाम के आभिजात्य को छील-तराशकर लोक स्वीकृत बिरजू-सा सरल बना दिया. निश्चित ही इसका श्रेय पिता और गुरु अच्छन महाराज की छत्रछाया को दिया जाना चाहिए जहाँ चार वर्ष की उम्र से ही बिरजू में नृत्य-संगीत के अभ्यास की लौ बहुत सहज भाव से लग गई थी.

अच्छन महाराज रामपुर नवाब के दरबारी नर्तक थे. छह साल के बिरजू को नृत्य-प्रदर्शन के लिए वे अपने साथ दरबार ले जाना चाहते थे. बच्चे को नींद त्यागकर नृत्य करने जाना अच्छा नहीं लगा. गुस्से में उसने इनकार कर दिया. नवाब को यह बात भला क्योंकर बर्दाश्त होती?

पिता ने नौकरी छोड़ दी, बच्चे ने गुस्साना छोड़ दिया, फिर घर भी छूट गया. और फिर शुरू हुआ बच्चे की अनथक यात्रा जिसमें क़दम-क़दम पर लय, हर मोड़ पर ताल और हर आँख में नाद के तमाशे थे. अच्छन महाराज जहाँ भी कार्यक्रम करते, पहले बेटे बिरजू की प्रस्तुति करवाते थे. लेकिन भाग्य जो रूठी थी, सो कहाँ मानने वाली थी. बिरजू अभी केवल नौ वर्ष के थे कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया. दिन, दुर्दिन हो गए. कुछ समय बाद वे लखनऊ से कानपुर आ गए.

उसी नन्हीं-सी उम्र में जीवन चलाने के लिए वह बच्चा कथक का ट्यूशन करने लगा था. उन्हीं दिनों एकबार लखनऊ में महफिल सजी थी. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई वादन के बाद घोषणा हुई कि अच्छन महाराज का बेटा बिरजू नाचेगा. बिरजू ऐसा नाचा कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दाद देना भूल कर रोने लगे. शम्भू महाराज के पास आए, बोले,

“नाचता तो तू भी है. अच्छन भी नाचता था, लेकिन तेरा भतीजा क्या नाचता है.”
फिर उन्होंने बिरजू के सर पर हाथ रख कर दुआ दी,
“जीते रहो बेटा, नाचते रहो.”
यह दुआ बिरजू को खूब लगी.

और बिरजू लगातार नाचता ही रहा

कपिला वात्सयायन जी के प्रयत्नों से बिरजू 13 वर्ष की उम्र से नई दिल्ली स्थित ‘संगीत भारती’ में डांस टीचर हो गया. कच्ची उम्र में पारिवार सँभालने की जिम्मेदारी बिरजू के नाजुक कन्धों पर बहुत भारी थी, लेकिन कठिन मेहनत से उसने यह जिम्मेदारी बख़ूबी निभायी. इस दौरान नाचता हुआ बिरजू कब बिरजू महाराज बन गए, यह उन्हें भी पता नहीं चला. 1998 तक कथक केंद्र के डायरेक्टर के रूप में उन्होंने नौकरी की. उसके बाद दिल्ली में ‘कलाश्रम’ की स्थापना की. ‘कलाश्रम’ के माध्यम से उन्होंने कितने शिष्यों का प्रशिक्षण किया, कितने ही वर्कशॉप और सेमिनार किए, इसकी गिनती नहीं है.

नृत्य के जानकारों का कहना है कि बिरजू महाराज की कला में पिता अच्छन महाराज का संतुलन, एक चाचा शम्भू महाराज का जोश और दूसरे चाचा लच्छू महाराज के लास्य की त्रिवेणी बहती थी. लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं, बिरजू महाराज कुछ उन गिने-चुने कलाकारों में थे जिन्हें सम्पूर्ण संगीतकार कहा जाता है. संगीतकार वो जो शास्त्रीय संगीत की तीनों ही विधाओं- गायन, वादन और नृत्य- में पारंगत हो. कथक नृत्य के सरताज तो वे थे ही, हारमोनियम, तबला और पखावज के वादन में कुशल होने के साथ ही ठुमरी, दादरा, भजन और ग़ज़ल गायन में भी पारंगत थे. वे वाग्येयकार भी थे. श्रीकृष्ण उनके पारिवारिक आराध्य देव हैं. उन्होंने श्रीकृष्ण पर दादरा, ठुमरी, भजन, वंदना, कवित्त आदि अनगिनत रचनाएँ की. श्री कृष्ण पर ‘वरुण छवि श्याम सुंदर’ और शिव जी पर ‘अर्धांग भस्म भभूत सोहे’.

लेकिन बिरजू की कला-साधना पारिवारिक विरासत का अगली पीढ़ी में हस्तांतरण भर ही नहीं रहा. कथक के लखनऊ घराने का सिरमौर है कालिका-बिंदादीन घराना. कलाविद दादा बिंदादीन के सम्मान में लखनऊ स्थित उनके पैतृक आवास का नाम भी ‘बिंदादीन की ड्योढ़ी’ है. इस घराने के विश्वविख्यात ध्वजवाहक बिरजू ने निःसंदेह अपनी वंश-परम्परा को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचाने का कार्य तो किया ही है, कथक नृत्य को कलात्मक उत्कर्ष पर भी पहुँचाया है. कथक के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. कथक ही उनका मजहब हो गया. पिता के जाने के बाद गरीबी और जीवन की जद्दोजहद ने बिरजू को मजबूत भी बनाया और विनीत भी. लखनऊ की तहजीब और नजाकत ने हमेशा उनका दामन थामे रखा. शायद इसीलिए जब भी वे मंच पर आते उनकी कलाभिव्यक्ति अपने आराध्य के प्रति विनीत अभ्यर्थना का दुर्लभ सम्मोहन रचती रही थी. उनकी कलाभिव्यक्ति इस बात का भी अनूठा उदाहरण है कि कला अपने उत्कर्ष पर सभी बाधाओं के साथ लैंगिक बाधाओं को भी पार कर जाती है.

उनके भीतर केवल एक ही धुन चलती रहती थी और वह धुन थी छंदों की, लय की, भावों की, ताल की, कुछ ना कुछ नई बातों की, उन्होंने न तो अपनी जिंदगी में किसी कन्फ्यूजन की बात स्वीकार की और ना ही कभी फ्यूजन की बात मानी. वे हमेशा कहते रहे सड़क कोई भी हो, चलेगा तो बिरजू ही.

बे बहुत नरम दिल और भावुक इंसान थे. वे सबका ध्यान रखते थे. लगभग साढ़े सात दशकों में उन्होंने कथक कला का एक बृहत्तर परिवार बना डाला जिसमें कई ख्याति लब्ध कलाकार शुमार हैं. दूर रह रहे अपने शिष्यों से फोन पर हालचाल पूछते रहते थे. अपने शिष्यों के लिए उनकी समझाइश के शब्द बड़े मूल्यवान हैं:

“नृत्य प्रकृति है. आप अपने दिल की आवाज़ सुने यह अपनी ही लय में नाचता है. सबसे बड़ी बात है कि शास्त्रीय नृत्य और संगीत आपको अपने मन और आत्मा के बीच संतुलन बैठाने में मदद करता है. एक बार जब आप इसमें संतुलन बिठा लेते हैं तो आप अपनी गलतियों से सीखते हैं और एक अच्छे इंसान बनते हैं. हर बार जब आप कोई नृत्य मुद्रा अपनाएँ तो यह कल्पना करें कि आपकी आँखें कृष्ण को देख रही हैं. इस तरह के नृत्य में एक अंतर्निहित भक्ति होती है. पैरों का अभ्यास जप की तरह होना चाहिए जहाँ ‘हरे राम, हरे कृष्ण’ के बजाय हम ‘ना धिन धिन ना’ कहते हैं. उस भाव के साथ जब नृत्य किया जाता है, तो वह हमें परमात्मा से जोड़ता है.”

युवा नर्तकों के लिए उनकी एक ही सलाह है,

“प्रकृति को देखो और उसका निरीक्षण करो. उनके अनुसार एक कलाकार के लिए सबसे अच्छा शिक्षक प्रकृति है, जो एक आदर्श सिंफनी है. एक पेड़ और उसकी शाखाओं को देखो, हवाओं को सीटी बजाते हुए देखो. जब बादल गरजते हैं तो आकाश में बिजली का नृत्य होता है. जब प्रकृति में इतनी सारी चीजें सीखने को है तो फिर कहीं और जाने की क्या जरूरत है!”

वे नृत्य-संगीत का एक पूरा संस्थान थे. फिल्मों से भी उनका सम्बन्ध रहा. वे एक बेहतरीन कोरियोग्राफर थे. कोरियोग्राफी के उनके कार्यों को देवदास, डेढ़ इश्किया, उमराव जान और बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों में देखा जा सकता है. कोरियोग्राफी के बारे में वे कहते थे,

“मैं नयी प्रस्तुतियों को कोरियोग्राफ करने के लिए पारंपरिक मानदंडों का उपयोग करता हूँ. मैं चाहता हूँ कि लोग देखें कि शास्त्रीय शैली भी बहुत आकर्षक रोचक और गरिमापूर्ण हो सकती है.”

पोती के हाथों से कॉमिक्स लपक कर ले लेने और प्लेट में रबड़ी और कलाकन्द देखकर बच्चों की तरह मचलने वाले बिरजू महाराज के नृत्य से इतर भी कई पसंदीदा टाइमपास थे: पहली कमाई से ख़रीदी हुई साइकिल ‘रॉबिनहुड’ को चमकाकर रखना, कुछ ख़राबी होने पर अपनी कार ख़ुद ही ठीक करना, अमिताभ बच्चन के डायलॉग सुनना, गोविंदा का डांस देखना, वैजयंती माला के नृत्य देखना (और अपने शिष्यों को भी देखने की सलाह देना), वहीदा रहमान की अदाओं पर मुग्ध होना, अपने दादा महाराज बिंदादीन की ठुमरी को गुनगुनाते रहना.

वर्षों बरस की नृत्य-साधना में दर्शकों के बेशुमार प्यार और सम्मान के साथ ही उनकी उपलब्धियाँ भी अनगिनत है. 1964 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मविभूषण, 1987 में कालिदास सम्मान, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय मानद डॉक्टरेट, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, राष्ट्रीय नृत्य शिरोमणि पुरस्कार, 2012 में ‘विश्वरूपम’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 2016 ‘बाजीराव मस्तानी’ फिल्म के गीत ‘मोहे रंग दो लाल’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी का फिल्म फेयर पुरस्कार आदि रहे हैं.

लखनऊ में जन्मे बिरजू का बनारस से अनूठा नाता रहा है. अव्वल तो यहाँ उनकी ससुराल है, साथ ही समधियाना भी. इसी वजह से लखनऊ की नजाकत और तहजीब के साथ ही उनमें बनारस की मस्ती तो रही लेकिन विनम्रता के लोच के साथ. पंडित बिरजू महाराज का विवाह बनारस संगीत घराने के शलाका पुरुष पंडित श्रीचंद्र मिश्र की पुत्री अन्नपूर्णा से हुआ था जबकि सारंगी वादक पंडित हनुमान मिश्रा उनके समधी थे. उन्हीं के बेटे थे प्रख्यात गायक द्वय पद्मभूषण पंडित राजन-साजन मिश्र. मिश्र बंधुओं में छोटे साजन मिश्र उनके दामाद हैं.

मोहल्ले के ‘ठसकदार समधी और लजाधुर जँवाई’ को याद करते उनके सम्बन्धी तबलावादक पण्डित कामेश्वर मिश्रा यह कहते हुए फफक पड़ते हैं,

“अवध क बिरजू महाराज आ काशी क पंडित रामसहाय जी के पुरखा त एके रहलन न बचऊ. महाराज जी जिंदगी भर ई आन निबहलन. काशी क घरौंदा आ लखनऊ के घराना मनलन. जब मिलिहें तब कहिहे कामेश्वर हमें त यार बनारस कर दुईय चीज ह प्यारी. एक ठे समधियाने क मीठ-मीठ गारी आ दूसर ससुराल क खातिरदारी.”

एक साधक नव-वसंत की ऐसी ही तैयारी करता है कि जब इहलोक छोड़ने का मन हो जाए तो अंत्याक्षरी खेलता हुआ, गाता हुआ जाए. ‘यहाँ मैं नाच्यौ बहुत गोपाल, अब तो तेरे संग-संग नाचूँ…’ और उनका नटवरनागर तुरन्त उन्हें गोलोक में बुलवा ले. अब बिरजू अपने कान्हा संग नाचेगा. 17 जनवरी, 2022 को वे गोलोकवासी हो गए.

आज 22 जनवरी, 2022 को जब यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं बनारस शहर में उनकी अस्थियाँ गंगा की लहरों में प्रवाहित की जा रही है. पूरा शहर और संगीत बिरादरी भाव विह्वल और भावार्द्र है. यहाँ तक कि बनारस का आकाश भी बूँदे बरसा रहा है. कबीर चौरा, पद्म गली, नटराज संगीत अकादमी परिसर, सिगरा  और पूरे शहर में पिछले पाँच दिनों से औचक मौन पसरा हुआ है. अब बिरजू के वजूद का कण-कण गंगा की लहरों में नाचेगा, हवाओं में थिरकेगा.

सुमीता ओझा

गणित विषय में ‘गणित और हिन्दुस्तानी संगीत के अन्तर्सम्बन्ध’ पर शोध.  पत्रकारिता और जन-सम्पर्क में परास्नातक. मशहूर फिल्म पत्रिका “स्टारडस्ट’ में कुछ समय तक एसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत. बिहार (डुमरांव, बक्सर) के गवई इलाके में जमीनी स्तर पर जुड़ने के लिए कुछ समय तक ‘समाधान’ नामक दीवार-पत्रिका का सम्पादन.

सम्प्रति अपने शोध से सम्बन्धित अनेकानेक विषयों पर विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ कार्यशालाओं में भागीदारी और स्वतन्त्र लेखन. वाराणसी में निवास.

 ईमेल: sumeetauo1@gmail.com

Tags: 20222022 नृत्यबिरजू महाराजसुमीता ओझा
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Comments 1

  1. Usha Yadav says:
    3 years ago

    शास्त्रीय संगीत व नृत्य की अत्यल्प समझ एवं जानकारी रखने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को नृत्य सम्राट बिरजू महाराज के बारे में इतने सरल परंतु रोचक शैली में जानकारी प्राप्त हुई। इसके लिए आदरणीया सुमिता जी को बहुत-बहुत आभार।

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