जायसी कृत ‘पद्मावत’ का पूर्व रूप?जिनहर्षगणि कृत ‘रयणसेहरनिवकहा’ (रत्नशेखर नृप कथा) का कथा सार माधव हाड़ा |
(‘रयणसेहरनिवकहा’ की रचना जिनहर्षगणि ने प्राकृत भाषा में चित्तौड़गढ़ में की. जिनहर्षगणि के संबंध में जानकारियाँ बहुत कम मिलती है. उनके गुरु का नाम जिनेश्वर सूरि था. रचना की पुष्पिका में रचना स्थान का उल्लेख तो है, लेकिन इसमें रचना समय का उल्लेख नहीं है. जिनहर्षगणि की एक और रचना ‘सम्यकत्व कौमुदी’ के पुष्पिका लेख में इसका रचना समय 1487 वि.सं. (1430 ई.) दिया गया है. जाहिर है, ‘रयणसेहरनिवकहा’ की जायसी के ‘पद्मावत’ (1540 ई.) से बहुत पहले पंद्रहवीं सदी में हुई. यह जनसाधारण में प्रचलित राजा रत्नशेखर और रत्नवती के कथाबीजक पर आधारित रचना है और इस पर कुछ और कवियों की रचनाएँ भी मिलती हैं. यह धार्मिक प्रयोजन से लिए लिखी गयी रचना है और इसमें व्रतोपवास, पूजा, पौषध आदि जैनधार्मिक आचारों से होने वाले लाभ और धर्मविरुद्ध आचरण से होनेवाले नुक़सान को कथा के माध्यम से चरितार्थ किया गया है. धार्मिक आग्रह के बावजूद इसमें कथा निरंतर है और यह बहुत रोचक और बाँधनेवाली भी है. कथा में उपकथाओं के सघन नियोजन की भारतीय कथा पद्धति की विषेशता को यहाँ ख़ास तौर पर अलग से देखा जा सकता है.
जायसी कवि असाधारण कवि थे, लेकिन ‘पद्मावत’ की कथा योजना उनकी मौलिक कल्पना नहीं है, जैसाकि कुछ आधुनिक इतिहासकार और विद्वान मानते हैं. पदमिनी-रत्नसेन विषयक कथा बीजक और उस पर कथा-काव्य रचना की परंपरा जायसी से पहले यहाँ मौजूद थी. सिंहलद्वीप जाकर वहाँ की सुंदर स्त्री से विवाह करना भारतीय चरित और प्रबंध कथा-काव्यों में प्रयुक्त बहुत लोकप्रिय कथा रूढ़ि है. हर्षदेव की संस्कृत नाटिका ‘रत्नावली’ (7वीं सदी) की नायिका रत्नावली (सागरिका) भी सिंहलनरेश विक्रमबाहु की बेटी थी, जिससे कोशाम्बी के राजा उदयन ने विवाह किया. प्राकृत-अपभ्रंश में कोऊहल कृत ‘लीलावई’ (8वीं सदी), धनपाल कृत ‘भविसयत्तकहा’ (10वीं सदी), मुनि कनकामर कृत ‘करकंडचरिउ’ (11वीं सदी) और राजसिंह ‘जिणदत्त चरित’ (13वीं सदी) में भी इस रूढ़ि का प्रयोग हुआ है.
कुछ विद्वानों ने तुलना कर यह सिद्ध किया है कि ‘रयणसेहरनिवकहा’ मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ का पूर्वरूप है. कुछ हद तक यह बात सही भी लगती है- ‘रयणसेहरनिवकहा’ के पात्रों के नाम, कथा के मोड़-पड़ाव, प्रयोजन आदि कुछ हद तक ‘पद्मावत’ से मिलते हैं. फिर भी, यह नहीं लगता कि ‘पदमावत’ से बहुत पहले हुई यह रचना कभी जायसी की निगाह में आयी होगी. यह ज़रूर कहा जा सकता है कि जिन कथा-कवि रूढ़ियों का प्रयोग जिनहर्षगणि ने किया, लगभग एक सदी बाद जायसी भी ‘पदमावत’ में उन्हीं का इस्तेमाल करते दिखते हैं. यह धारणा निराधार है कि इस ‘पद्मावत’ के कथा बीजक की कल्पना ही जायसी ने की और इसके आधार पर अपना महाकाव्य लिखा.
यह रचना पहली बार रामप्रसाद पोद्दार के संपादन में उनके हिंदी अनुवाद सहित 1918 ई. में प्रकाशित हुई. यह कथा सार इसी संपादित-अनुवादित कृति पर आधारित है. सार में ज़ोर कथा पर है. कोशिश है कि कथा के सभी मोड़-पड़ाव इसमें आ जाए और इसके लिए आग्रहपूर्वक धार्मिक आचार और उसके महत्त्व से संबंधित अंश यहाँ छोड़ दिए गए हैं. : माधव हाड़ा)
1.
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में रत्नपुर नाम का एक नगर था. इस नगर में श्री जिनेन्द्र के अनेक मन्दिर थे. नगर के गृहस्थ परोपकार-कला में कुशल थे. न्यायकर्ता पुरुष उत्तम विवेक से शोभित थे. यहाँ रत्नशेखर नाम का राजा राज्य करता था, जिसके चरण कमलों की वंदना कई राजा करते थे. राजा के अनुपम रूप-गुण की समृद्धि देखकर देवराज इन्द्र भी अपने रूप को कोसते थे. उस राजा के द्वितीय हृदय और तृतीय नेत्र के समान मतिसागर नाम का मंत्री था.
एक बार वसन्त ऋतु में राजा रत्नशेखर अपने मंत्री मतिसागर साथ उद्यान में क्रीडा के लिए गया. उद्यान की सुन्दरता को देखकर अत्यंत प्रसन्न राजा जब आम के वृक्ष की छाया में बैठा था, तब उसने प्रेमात्सुक किन्नर-मिथुन को आपस में बातचीत करते हुए सुना. किन्नर-मिथुन ने कहा कि
“रत्नवती नामक हमने जिस कन्या को देखा- उसके संबंध में अधिक क्या कहना! स्वर्गसुन्दरी रम्भा उसके सामने निस्सार है. वह भी यदि सर्वगुणसंपन्न इस नर रत्न राजा रत्नशेखर को किसी तरह देख ले, तो अपने रूप-गुण के उत्कर्ष को, यौवनकाल में ही, प्रतिदिन कोसती हुई, शीघ्र ही स्वयं पाणिग्रहण के लिए तड़प उठे.”
इस तरह आपस में बातचीत करके किन्नरों का जोड़ा तत्काल अदृश्य हो गया. ‘रत्नवती’ का नाम सुनकर राजा सोचने लगा-
“यह रत्नवती कौन है? इसका नाम भी मेरे नाम के सदृश है, अत्यन्त सुन्दर और परमानन्ददायक.”
राजा इस प्रकार की चिन्ता से आक्रान्त हो गया, तो कामदेव को मौका मिला. वह राजा के रूप से पराभूत हो चुका था, अतः रूष्ट तो था ही. उसने राजा को लक्ष्य करके अपने पुष्प-बाणों की झड़ी लगा दी. अब तो बेचरा राजा आकुल-व्याकुल था. रत्नवती पर मुग्ध वह योगी की तरह न बोलता था, न हँसता था और न ही साँस लेता था. इसी समय मन्त्री मतिसागर ने आकर उस दुःख की अवस्था में पड़े हुए राजा से पूछा-
“आप ऐसे उदास क्यों दिखाई पड़ रहे हैं? बहुत आग्रह करने पर राजा ने सारा वृत्तान्त कहा. मन्त्री ने भी किन्नरों के जोड़े की खोज की, लेकिन वे कहीं भी नहीं दिखाई पड़े. मन्त्री ने सोचा- “ओह! महत्त्व, पाण्डित्य, कुलीनता और विवेक तभी तक रहते हैं, जब तक शरीर में कामाग्नि प्रज्चलित नहीं होती.“
मंत्री ने कहा-
“स्वामी! असाध्य और अज्ञात स्वरूपवाली वस्तु से प्रेम नहीं करना चाहिए. उस युवती को कौन जानता है?”
राजा ने कहा-
“चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त और सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों में सर्वोपरि होकर भी आप इतना भी नहीं समझते कि आपका राजा उसके बिना क्षणभर भी जीवन धारणा करने में असमर्थ है.”
मन्त्री ने सोचा-
“काम बड़ा ही प्रचण्ड होता है, सचमुच ही विषय गति बड़ी विषम होती है.”
मन्त्री ने राजा से पुनः निवेदन किया-
“महाराज! मैं सब कुछ जानता हूँ. कामज्वर से पीड़ित कोई भी अपना जीवन धारण करने में समर्थ नहीं हो सकता. किन्तु, सर्वथा अज्ञात रत्नवती से तत्क्षण ही कैसे मिलन हो सकता हैं?”
राजा ने कहा-
“यदि ऐसा है, तो मुझे जलकर मर जाने के लिए अग्नि दें और आप सभी सुखपूर्वक राज्य करें.”
मन्त्री के अनुरोध पर राजा किसी प्रकार नगर को लौटा. किन्तु उसे चैन कहाँ? परिजनों ने बहुत प्रकार के शीतलोपचार किये, लेकिन कामज्वर प्रतिदिन बढ़ता ही गया. तब मन्त्री ने कहा-
“महाराज! मुझे उस रत्नवती को सात महीने के अन्दर अवश्य ले आना है.”
राजा मन्त्री के इस आश्वासन पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ. मंत्री राजा को प्रणाम करके, एक सेवक के साथ, रत्नवती के खोज में निकल पड़ा.
शुभ शकुन पाकर वह दक्षिण की ओर चला. वृक्ष, पर्वत, नदी और वन लाँघता हुआ वह एक दिन किसी जंगल में पहुँचा. वहाँ मन्त्री ने कैलास पर्वत के समान ऊँचा और रत्नमय प्रांगणवाला जिनेन्द्र भगवान् का एक मन्दिर देखा. अपने आपको कृतार्थ मानते हुए उसने पवित्र भाव से मंदिर प्रदक्षिणा करके पूजा की. स्तुति करके मन्त्री प्रासाद की शोभा देखने लगा. तभी अचानक एक कन्या पूजा की सकल सामग्री के साथ जिनेन्द्र की अर्चना के निमित वहाँ उपस्थित हुई. कन्या को देखकर मन्त्री सोचने लगा-
“क्या यह देवी, सरस्वती है और इस घोर जंगल में एकाकी क्यों है?”
उस कन्या ने भी जिनपूजा की और भक्तिपूर्वक स्तुति कर चल पड़ी. मन्त्री ने उससे पूछा-
“देवी, तुम किस की पुत्री हो और किस प्रयोजन से यहाँ इस वन में एकाकी हो?”
उसने उत्तर में कहा–
“मैं ‘इस वन के स्वामी यक्षराज की मैं पुत्री हूँ. पूर्वजन्म में धर्म विरुद्ध आचरण से शुद्ध होने के लिए उन्होंने ही यह मन्दिर बनवाया है.”
मन्त्री ने सोचा-
“जिस तरह वल्लियों में कल्पल्ली और धेनुओं में कामधेनु श्रेष्ठ है, उसी तरह यह युवती, निश्चय ही, सभी युवतियों में श्रेष्ठ है.”
मंत्री ने कन्या से पूछा कि यक्षराज कहाँ रहते हैं, तो युवती ने उत्तर दिया कि वे रत्नमय पातालगृह में रहते हैं. जब मंत्री ने उससे पातालगृह का रास्ता पूछा तो उसने उत्तर दिया कि-
“हे सुपुरुष! जिन-मन्दिर के आगे जो बहुत गहरा धूपकुण्ड है, उस अग्नि से भरे कुण्ड के बीच से ही रास्ता है.’’
यह सुनकर मन्त्री ने सोचा कि उसे अवश्य ही अपने कार्य-साधन के लिए उस स्थान पर जाना चाहिए.
मन्त्री ने अपने सेवक को राजा का समाचार लेने के लिए वापस भेज दिया. उसने स्नान करके जिनवर को प्रणाम किया और अग्निकुण्ड में कूद पड़ा. यक्ष के प्रभाव से उसका शरीर अक्षत रहा. पातालगृह में रत्न के सिंहासन पर आसीन होकर मन्त्री कुछ सोच ही रहा था कि यक्षराज रत्नदेव अपनी देवी के साथ उसके समक्ष उपस्थित हुए. जिन-मन्दिर में देखी गई कन्या को उपहारस्वरूप आगे करके उन्होंने मंत्री से कहा-
“हे सुपुरुष! बहुत प्रतीक्षा के बाद आज आप मिले. अतः मेरी इस पुत्री का ‘पाणिग्रहण करके मुझे चिन्तामुक्त करें.”
मन्त्री ने कहा-
“हे यक्षराज! देवता तो निरपत्य होते हैं, तो फिर आपके पुत्री कैसे हुई, तब यक्ष ने कहा-
“हे सुपुरुष! उत्तम जनों के लिए सहानुभूति के योग्य मेरा चरित सुनो.”
२.
तिलकपुर नाम के नगर में एक धनाढ्य नाम का एक सेठ रहता था. वह जनसाधारण में बहुत लोकप्रिय था. उसके श्रीमती नाम की पत्नी थी, जो पतिव्रता होने के साथ ही शील-सौभाग्य से परिपूर्ण थी. एक बार वन में श्री समयामृतसूरि का समवसरण हुआ. सेठ सपरिवार गुरु की वन्दना करने गया. गुरु की वाणी सुनकर सेठ घर चला गया तथा यथाशक्ति धर्म का पालन करने लगा. एक बार अष्टमी के दिन परिपूर्ण भाव से प्रोषध-रत सेठ एक देवकुल में कायोत्सर्ग-मुद्रा में ध्यानस्थ था. सौधर्मस्वामी देवेन्द्र ने उसकी प्रशंसा की. प्रशंसा में श्रद्धा नहीं रखता हुआ एक देव वहाँ आकर अपने भीषण रूपों द्वारा उस सेठ को परेशान करने लगा, लेकिन सेठ धर्मध्यान से विचलित नहीं हुआ. तुष्ट होकर वह देव उसके समक्ष नृत्य करने लगा. सूर्योदय के समय जब सेठ ने कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा पूरी की, तब देव ने कहा-
“तुम धन्य हो, तुम्हारा धर्म सराहनीय है, जिसकी प्रशंसा स्वयं देवेन्द्र ने देव-परिषद् में की. प्रसन्न मन से कोई वर माँगो.”
सेठ ने कुछ नहीं माँगा. देव ने फिर भी उसे गगनगामिनी विद्या दी और कहा कि-
“इस विद्या के संबंध में किसी तीसरे व्यक्ति से मत कहना, यदि कोई तीसरा व्यक्ति जानेगा, तो उसी समय तुम आकाश से गिर पड़ोगे.”
यह कहकर देव अपने लोक को चला गया और सेठ अपने घर लौट आया. सेठ आकाशविद्या के बल से प्रमुख तीर्थों में जाकर देवों की वन्दना करने लगा.
एक दिन पत्नी के यह पूछने पर कि वह प्रतिदिन कहाँ जाता है, सेठ ने किसी और को नहीं बताने की चेतावनी देते हुए अपनी गगनगामिनी विद्या के संबंध में उसको बता दिया. एक दिन, जिनपूजा करके अष्टापद से लौटता हुआ सेठ आकाश से एक सरोवर के जल में जा गिरा. वह पश्चात्ताप करने लगा- ‘मूर्ख की तरह मैंने क्यों अपनी स्त्री को अपनी विद्या के संबंध में बताया? वह सरोवर से बाहर निकला और किनारे बैठकर सोचने लगा कि ज़रूर सेठानी ने किसी से विद्या के संबंध में कहा होगा.’
आठ महीने पैदल चलकर अष्टमी के दिन सेठ अपने घर पहुँचा. परिजन प्रसन्न हुए. अपने पति को घर में आया हुआ देखकर हर्षातिरेक से श्रीमती का अंग-अंग पुलकित हो उठा. अनुराग के साथ विविध उपचार करती हुई श्रीमती ने पति के लिए स्नान की तैयारी की, तब सेठ ने कह कि- “आज अष्टमीपर्व का दिन है, अतः मैं स्नान नहीं करूँगा.” श्रीमती ने यह कहते हुए कि तुम्हारा सिर तपस्वियों के जटाजूट की तरह अत्यन्त मलिन हो गया है, उसके सिर में तेल डाल दिया. प्रेम से अभिभूत सेठ ने भी स्नान में भी आपत्ति नहीं की. नाना व्यंजनों वाला भोजन करके सेठ जब उठा, तब श्रीमती ने उसे अपने करकमलों से बहुत स्वादु मसालों से युक्त पान दिया. यह जानते हुए भी कि आज पर्व का दिन है, स्नेह के अधीन सेठ ने उसे ग्रहण कर लिया. पर्वदिन के नियमों को तोड़कर रात्रि में अपने शीलव्रत को भी खण्डित कर दिया.
श्रीमती को गर्भाधान हुआ. सेठ ने अपनी पत्नी से पूछा कि क्या उसने गगगनगामिनी विद्या के संबंध में किसी बताया था, तो उसने कहा कि–
“एक दिन एक सखी देवपूजा आदि धर्मानुष्ठान में अपने पति की दृढ़ता का बखान कर रही थी. उसी से मैंने कहा था कि फ़िलहाल मेरे पति के जैसा धर्म में अचल दूसरा कोई श्रावक नहीं है, जिसकी प्रशंसा स्वयं भगवान् इन्द्र देवसभा में करते है और धर्म में दृढ़ता देख सौधर्म कल्पवासी देव ने प्रसन्न होकर जिसको गगनगामिनी विद्या दी.”
सेठ ने अपने भी आकाश से गिरने के विषय में बताया, जिससे श्रीमती को पश्चाताप हुआ.
विषय सुख में आसक्त उन दोनों के घर सभी चिन्ताओं की जड़ पुत्री पैदा हुई. सेठ सपरिवार केवली की वन्दना करने पहुँचा. सेठ ने उससे पूछा “मेरी गति कहाँ है”, तो केवली ने कहा कि “तुम अगले जन्म भव में यक्ष होओगे और यह श्रीमती तुम्हारी यक्षिणी बनेगी.” सेठ ने कहा कि– “भगवान्! विविध धर्माचरण करते हुए भी मेरी ऐसी गति क्यों?” गुरु ने उत्तर दिया कि “पर्व-तिथि के नियमों को भंग करने के कारण तुमने ऐसा जन्म पाया है. यह सब सुनकर श्रेष्ठी की पुत्री ने दीक्षा की याचना की. केवली ने कहा कि– “हे बाला, अभी तुम्हारे भोगफल देनेवाले कर्म शेष हैं. धर्म खण्डित हो जाने के कारण तुम्हारे पिता ‘भूतरत्न’ नामक अटवी में यक्षपद को प्राप्त करेंगे. वहां रत्नशेखर राजा का मतिसागर नामक मन्त्री आयेगा. उसी के साथ तुम्हारा परिणय होगा. केवली के इस कथन को सुनकर सेठ सपरिवार घर लौट आया.
यक्षराज रत्नेदव ने मन्त्री मतिसागर से अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाते हुए आगे कहा कि-
‘‘मैं वही सेठ हूँ, जो जन्मान्तर में यहाँ यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ. यह मेरे पूर्वभव की पत्नी श्रीमती इस जन्म में भी मेरी धर्मपत्नी हुई. अपने पूर्वजन्म की पुत्री को भी स्नेहवश मैं यहाँ ले आया. हे सत्पुरूष, आप मेरी इस पुत्री का पाणिग्रहण करें. क्योंकि कहीं वर सुन्दर, तो कही कन्या सुंदर नहीं; कहीं कन्या, तो वर नहीं; वर-कन्या का अनुरूप संयोग संसार में दुर्लभ है.”
यह सुनकर मन्त्री मतिसागर ने कहा कि
‘‘हे यक्षराज, अपने स्वामी के कार्य को अधूरा छोड़कर मैं स्वार्थ कैसे सिद्ध करूँ? ऐसा न हो कि मुझे स्वामी की वंचना से नरक मिले.”
तब यक्ष ने कहा-
“यदि आप मेरी यौवना पुत्री से विवाह करके मुझे चिन्तामुक्त कर दें, तो मैं आपके स्वामी का कार्य कर दूँगा. कहा गया है- “यौवनवती कन्या जिसके घर में है, वह पुरुष हमेशा हजारों चिन्ताओं से लदा रहता है. कन्या ने जन्म लिया, इससे ही बहुत बड़ी चिन्ता हुई, फिर बड़ी होने पर किसको दी जाय, इससे और चिन्ता बढ़ी तथा दी जाने पर सुखपूर्वक रहेगी अथवा नहीं यह एक दूसरी चिन्ता उत्पन्न हुई. कन्या के पिता होने में कष्ट-ही-कष्ट है.”
मन्त्री ने कहा कि ‘आपका क्या विश्वास, तो यक्ष ने उत्तर दिया कि- “यदि आपके स्वामी का कार्य न करूँ, तो पंचपार्विक नियम के भंग का दोषी माना जाऊँ.” अब यक्ष ने पूछा कि आपके स्वामी का कार्य क्या है, तो मन्त्री ने उत्तर दिया कि- “रत्नवती नाम की कन्या से मेरे स्वामी पाणिग्रहण करना चाहते हैं.” यक्ष देवता ने समय ज्ञान से जानकर बताया कि समुद्र के मध्य में सात सौ योजन विस्तारवाला सिंहलद्वीप है. वहाँ जयपुर नामक नगर है. वहाँ जयसिंह नाम का राजा है और अंग-प्रत्यंग में नवयौवन का उभार लिये हुए रूप-गुण से युक्त रत्नवती नाम की उसकी पुत्री है.
मंत्री ने यक्ष से निवेदन किया कि- ‘‘आप मुझे रूप बदलनेवाली विद्या देकर वहाँ ले चलें.” मंत्री के अनुरोध पर यक्ष उसको सिहल द्वीप के जयपुर नगर के पास एक उपवन में छोड़कर स्वयं अदृश्य हो गया. मन्त्री ने आनन्दपूर्वक जयपुर नगर को चारों ओर से देखा और अपने मन में सोचा- ‘‘तीनों लोकों के लोगों को आश्चर्य में डालनेवाली इस नगरी की सुन्दरता तो अद्भुत है.” विद्याबल से योगिनी का रूप धारण कर, हाथ में सोने की छड़ी लेकर, वह किसी प्रकार राजकन्या रत्नवती के घर में जा पहुँचा. कन्या को देखकर उसे विस्मय हुआ और उसने अपने मन में सोचा कि यह तो मानों इस सृष्टि का सर्वस्व है. कन्या ने भी योगिनी को देखकर उसका स्वागत-सत्कार किया. कन्या ने योगिनी से पूछा कि- “आपका स्थान कहाँ है, तो उसने उत्तर दिया कि- “यह काया ही नगर है. योगी इसी नगर में रहता है और योग-विचार जानता है.” कन्या ने रत्नवती ने पूछा कि आपको इस तरह यौवनावस्था में ही वैराग्य कैसे हो गया, तो उसने बताया कि- “मेरे वैराग्य लेने का कुछ विशेष कारण है, जो मैं तुम्हें बताती हूँ.”
3.
हस्तिनापुर नामक नगर में अत्यंत गुणवान शूर नामक राजकुमार रहता था. उसके परम सौभाग्यवती शील आदि गुणों से युक्त गंगा नाम की पत्नी थी. उन दोनों के सुमति नाम की पुत्री थी. कर्म के परिणामवश वह पिता, माता, भ्राता और मामा द्वारा पृथक्-पृथक् वरों को दी गई. चारों वर एक ही दिन विवाह करने को आ गये. वे परस्पर कलह करने लगे. उनके बीच भीषण संग्राम और उससे होनेवाली क्षति का अनुमान करके वह कन्या सुमति अग्नि में प्रवेश कर गई. अत्यधिक प्रेम के कारण एक वर ने भी उसके साथ ही अग्नि में प्रवेश किया. एक अस्थियों को लेकर गंगा में प्रवाहित करके दुःखी मन से जहाँ-जहाँ फिरता रहा. चौथा उस स्थान पर रह गया और प्रतिदिन अन्न का एक पिण्ड अर्पित करता हुआ अपना समय बिताने लगा. तीसरा वर इधर-उधर घूमता हुआ एक गाँव में किसी रसोईघर में भोजन बनवाकर भोजन करने बैठा. उस घर की स्वामिनी ही जब भोजन परोस रही थी, तो उसी समय उसका छोटा बच्चा बहुत रोने लगा. क्रोधित स्वामिनी ने बच्चे को आग में फेंक दिया. वह वर भोजन पर से उठने लगा, तो उस स्त्री ने उससे कहा कि-
“सन्तान किसी का अप्रिय नहीं होती है, सन्तान के लिए पिता अनेक प्रकार के देवपूजन, दान, मन्त्रजाप आदि करते हैं. तुम सुखपूर्वक भोजन करो, मैं बाद में इसको जीवित कर लूँगी.”
वह वर जब भोजन करके उठ गया, तो वह स्त्री अपने घर के अन्दर से अमृतरस की कुप्पी ले आई और उसको आग में छिड़क दिया. उस वर ने सोचा-
“यह तो आश्चर्य है कि इस तरह आग में जल जाने पर भी बालक जीवित हो गया! यदि यह अमृतरस मेरे पास हो, तो मैं भी उस कन्या का वापस जीवित कर दूँ.”
वह कपटपूर्व छद्मवेश बनाकर रात में वहीं रह गया. अवसर पाकर वह उस अमृतरस की कुप्पी लेकर हस्तिनापुर आ गया. उसने उस कन्या के पिता आदि के समक्ष उस अमृतरस को चिता पर छिड़का. वह कन्या सुमति जीवित हो उठी. उसके साथ चिताग्नि में प्रवेश करनेवाला एक वर भी जी उठा. कर्मवश चारों वर फिर वहाँ एकत्र हो गये. कन्या से पाणिग्रहण के निमित्त एक दूसरे से विवाद करते हुए वे राजा बालचन्द्र के दरबार में पहुँचे. चारों ने राजा से अपनी-अपनी बातें कहीं. राजा ने मन्त्रियों से कहा कि इनके विवाद का निबटारा करके कन्या के परिणय का अधिकारी एक वर को तय करना है.
सभी मन्त्री आपस में विचार करने लगे, लेकिन किसी प्रकार से भी विवाद का निस्तारण नहीं हो पाया. तब एक मन्त्री ने कहा कि-
“यदि चारों वर मेरी बात माने, तो मैं विवाद का निबटारा कर सकता हूँ.” उन वरों ने कहा कि- “जो हंस की तरह पक्षपातरहित होकार विवाद कर निबटारा कर देगा, उसकी बात कौन नहीं मानेगा?” उस मन्त्री ने कहा कि-
‘जिसने कन्या को जिलाया, वह जन्म का हेतु होने के कारण उसक पिता हुआ; जो साथ-साथ जी उठा, वह एक जन्मस्थान होने के कारण भाई हुआ; जो अस्थियों को लेकर गंगा में प्रवाहित करने गया, वह श्राद्धकर्म करने के कारण पुत्र के समान हुआ. किन्तु, जिसने उस स्थान की रक्षा की, वही पति है.”
इस तरह, मन्त्री ने विवाद का निस्तारण कर दिया. कुरूचन्द्र नामक चौथे वर ने उस कन्या से विवाह कर लिया. वह यथासमय अपने नगर को आ गया और उस कन्या के प्रभाव से नगर का राजा भी हो गया.
राजा कुरूचन्द्र ने उस कन्या सुमति को अपनी पटरानी बनाया. एक बार वह राजा अपनी पटरानी सुमति के साथ धवलगृह के गवाक्ष में बैठा हुआ, अपने सामने मधुर स्वर से गाति हुई किसी मातंगी के नवयौवन को देखकर उस पर आसक्त हो गया. राजा कुरूचन्द्र ने उस मातंगी को हार समर्पित किया और मातंग से कहा कि-
“आज रात्रि में इसे मेरे आवास के उपवन में ले आना.”
राजा के इस रूप को जानकर देवी सुमति ने सोचा–
“महामोह के घोर अंधकार में पड़ी हुई इन आँखों को धिक्कार है; इस प्रकार का राजभोग सुलभ होने पर भी नीच जाति की रमणी में मन आसक्त हो गया! वास्तव में कामवासना दुर्जेय है.”
रानी को विरक्ति हो गयी. राजा और राज्यश्री को तृण के समान त्याग कर वह योगिनी हो गई. मैं वही योगिनी हूँ और भू-मण्डल में की तीर्थयात्राएँ करती हुई यहाँ आई हूँ.
रत्नवती ने उससे कहा कि-
“हे भगवती, मैं पुरुषद्वेषी नहीं हूँ, मुझे पुरुष काम्य है. किन्तु, आवश्यक पुण्य के अभाव में अपने सदृश वर मैं नहीं पा रही हूँ.” योगिनी ने पूछा-
“अपने रूप से कामदेव के दर्प को चूर करनेवाले राजकुमार वरों से भरी हुई इस पृथ्वी पर केवल एक तुम्हारे लिए ही कोई वर नहीं है?” उस कन्या ने कहा- ‘क्या किया जाय, कोई भी वैसा वर अभी तक नहीं मिला, जिसमें मेरा मन रमे. मैं अपने पूर्वजन्म के वर का ही पाणिग्रहण करूँगी, किसी अन्य का नहीं.” योगिनी ने पूछा कि “‘तुम्हारा पूर्वजन्म का वर कौन है?”
4
कन्या रत्नवती कहने लगी. इसी भरतक्षेत्र में, अयोध्या नगरी के निकट किसी वन में, मृग-मिथुन रहता था. एक दिन, महाराज श्रीदशरथ के पुत्र श्रीराम विहार करते हुए उस वन में आये. एक लकड़ी ढोने वाला अपने नित्यकर्म से निवृत्त होकर उन महर्षि राम को प्रणाम करके बोला-
“मुझपर भी यथोचित कृपा करके धर्म का स्वरूप बतायें.”
महर्षि दयापूर्वक उसको धर्म का उपदेश करने लगे. वह लकड़ी ढोने वाला पर्वों के स्वरूप को ठीक से जानकर पर्व-तिथियों में धर्माचार करने लगा. मृग-मिथुन को भी राम के वचन सुनकर धर्म के प्रति अनुराग हुआ और कर्मलाघव के कारण वे दोनों भी पर्व के दिनों में उपवासपूर्वक रहने लगे. धर्म का अनुसरण करके मृगी मृत्यु को प्राप्त हुई और उसका पुनर्जन्म मुझ राजकुमारी रत्नवती के रूप में हुआ. यदि समान पुण्यवाले अपने पूर्वजन्म मृग-जीव को इस जन्म में पाऊँगी, तो ही विवाह करूँगी, अन्यथा नहीं. अब, उस योगिनी ने पूछा कि–
“तुमने पूर्व भाव के स्वरूप को कैसे जान लिया?” कन्या ने उत्तर दिया कि- ‘सभी कलाओं को सीख लेने के बाद एक बार आश्विन पूर्णिमा की रात्रि को, अपने भवन की छत पर चन्द्रमण्डल में हरिण की आकृति देखकर मैं मूर्च्छित हो गई. जब सखियों ने मुझे चन्दन का लेप किया, तब मेरी मूर्च्छा दूर हुई और मुझे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया. अपने सम्बन्धियों के पूछने पर उत्तर देना निरर्थक समझकर मैं मौन ही रही. जब पिताजी मेरे लिए वर ढूँढ़ने लगे, तब मैंने मना कर दिया. माता भी मुझे यौवन के भार से अलसाई हुई देखकर बहुधा सदृश वर के लिए अधीर हो उठती. मैं भी पूर्वभव के वर की प्राप्ति के निमित्त नगर के उपवन में स्थापित कामदेव की प्रतिमा की पूजा करती आ रही हूँ; पर अब तक अभीष्ट वर नहीं प्राप्त कर सकी हूँ. उसके वियोग का दुःख तो मेरा हृदय ही जानता है. दिन तो किसी प्रकार लोगों से बातचीत में कट जाता है; किन्तु रात नहीं कटती. इसलिए, हे भगवती! तुम्ही कृपापूर्वक अपने निरूपम योग के प्रभाव से मेरे वर का अन्वेषण करो.”
योगिनी ने भी क्षणभर के लिए साँस बन्द करके स्थिर आसन में बैठकर ध्यान किया और बोली कि-
“कल्याणी! दुःख मत करो, अपने मनोरथ को सफल समझो, तुम्हें पूर्वजन्म का पति कुछ ही दिनों में मिल जायेगा.”
उसकी बातों को सुनकर कन्या प्रसन्न हुई. कन्या ने पूछा-
‘देवी! कैसे वर की प्राप्ति होगी?”
योगिनी ने कपट-ध्यान लगाकर कहा-
“कल्याणी! कामदेव के मन्दिर में द्यूतक्रीडा करता हुआ, जो वहाँ तुम्हारे प्रवेश को रोकेगा, अवश्य ही वह तुम्हारे पूर्वजन्म का पति होगा, और वही तुम्हारा पाणिग्रहण करेगा.”
यह सुनकर रत्नवती प्रसन्न हुई और उसने अपना मुक्ताहार योगिनी को अर्पित कर दिया. एक दिन योगिनी ने कहा कि-
“मैं तीर्थपूजा के निमित्त अन्यत्र जाना चाहती हूँ; क्योंकि हमारे लिए, जिन्होंने स्वजन-सम्बन्धियों को त्याग दिया है, एक स्थान पर रहना उचित नहीं.”
रोते हुए रत्नवती ने कहा कि –
“एक तो प्रथम वय में विरह, दूसरे आधारहीन, मैं भला सहस्र वर्षों के समान एक-एक दिन को कैसे व्यतीत करूँगी?”
योगिनी ने कहा कि-
“सुन्दरी, कुछ ही दिनों में तुम्हारा वर तुमसे आ मिलेगा. तुम केवल भावपूर्वक सतत आत्मचिन्तन करो.”
रत्नवती ने उसको ‘तुम्हारे वचन ही मेरे लिए प्रमाण हैं’ यह कहकर विदा कर दिया.
5
मन्त्री मतिसागर यक्ष देवता का स्मरण करके योगिनी के वेश में क्षणभर मे रत्नपुर पहुँच गया. वहाँ वह देखता क्या है कि वृक्षों एवं पहाड़ों को चोटियों पर नगर के लोग खचाखच भरे हैं और राजा अग्नि में प्रवेश करने के लिए चिता की प्रदक्षिणा कर रहे हैं. ओह, क्या हुआ है ऐसा सोचकर मन्त्री शीघ्र ही उस स्थान पर आ गया. उस समय प्रमुख मंत्री राजा से कह रहे थे-
“स्वामी, एक योगिनी आती हुई दिख रही रही है, तब तक आप धैर्य रखें.”
योगिनी ने पास आकर राजा को आशीर्वाद दिया. राजा के संबंधियों ने उसे प्रणाम करके कहा-
“हे देवी! यदि तुम एक प्रश्न का उत्तर दे दो, तो राजा तुम्हारा खूब सत्कार करेंगे. हमारे स्वामी के महामन्त्री सात महीने की अवधि निश्चित करके गये थे, जो पूरी हो चुकी है, लेकिन मन्त्री अभी तक लौटकर नहीं आये. आप बतायें कि मन्त्री कहा हैं और कब आयेंगे?”
राजा ने कहा कि
“कार्य को अत्यंत कठिन जानकर वह मन्त्री तो अग्निकुण्ड में जा गिरा. वह अप्सराओं की प्रेमक्रीड़ाओं में डूबा हुआ है. वह भला अब इधर क्यों आयेगा? इनसे तुम पूछो कि रत्नवती नाम की कन्या को आपने कहीं देखा, अथवा उसके विषय में सुना है.”
ध्यान करके योगिनी ने उत्तर दिया कि-
“सिंहलद्वीप के जयपुर नगर में राजा जयसिंह के रत्नवती नाम की कन्या है. चन्द्रमण्डल में हरिण को देखकर उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया कि वह पूर्वभव में एक वन में हरिणी थी. पाँचों पर्व-तिथियों को उपवास-रूपी तपस्या करने के फलस्वरूप वह राजकन्या हुई. पूर्वभव के अपने पति हरिण के जीव को छोड़कर वह किसी अन्य का वरण नहीं करेगी.”
यह वृतान्त को सुनकर राजा को सब कुछ याद आ गया. उसने भी अपने पूर्वजन्म के स्वरूप को अच्छी तरह देख लिया. उसने कहना शुरू किया-
‘‘हा! मेरी पूर्वभव की प्रिये! कुटिल विधाता ने तुम्हें मुझसे दूर कर दिया. मैं यहाँ रहकर क्या करूँगा?”
इस तरह राजा के मन में प्रेम प्रस्फुटित हुआ. अब राजा को चैन कहाँ? राजा का कोई असाध्य कार्य मन्त्री के बिना सिद्ध नहीं हो सकता. सूर्य के बिना अन्धार को भला कौन दूर कर सकता है?
योगिनी का रूप छोड़कर अब मन्त्री अपने रूप में प्रकट हुआ. मन्त्री को देखकर प्रसन्न राजा ने उसका आलिंगन किया. मन्त्री ने प्रणाम करके, रत्नवती द्वारा अर्पित हार राजा को दिया और अपना पूरा वृत्तान्त भी उससे कह सुनाया. राजा ने परिजनों को यथोचित दायित्व देकर राज्य भार मंत्रियों को सौंप दिया. वह मंत्री मतिसार और कुछ चुने हुए परिजनों को साथ लेकर यक्ष के मन्त्र प्रभाव से सिंहल द्वीप स्थित जयपुर के उद्यान में स्थित कामदेव के मन्दिर में जा पहुँचा. जयपुर के नागरिकों ने सोचा कि “कन्या के पाणिग्रहण की चिन्ता में पड़े हुए अपने नगर के स्वामी राजा से यह वृत्तान्त कहना चाहिए.” राजा रत्नशेखर कामदेव मन्दिर में अपने मन्त्री के साथ नित्य द्यूतक्रीडा करने लगा.
6
एक दिन सखियों से घिरी हुई रत्नवती पालकी में बैठकर कामदेव की पूजा के लिए वहाँ आई. स्वर्णदण्ड से मण्डित हाथोंवाली एक दासी ने घोषणा की कि –
“हे मन्दिर में बैठे हुए पुरूषो! यहाँ पुरूषों के मुखों को बिना देखे हमारी स्वामिनी राजकुमारी रत्नवती कामदेव की पूजा करेगी. आप सभी देवमंदिर से बाहर निकल जाओ.”
मन्त्री मतिसागर ने उससे कहा कि-
“बहुत दूर देश से आये हुए महाराज रत्नशेखर मन्दिर में अपने परिजनों के साथ द्यूतक्रीडा कर रहे हैं. समस्त सीखे हुए गुण और शील को भंग करनेवाले नारी के मुख को वे नहीं देखते. अतः इस समय कन्या को यहाँ नही आना चाहिए. यह तुम अपनी स्वामिनी से कहो.”
उस दासी ने पूछा कि–
“महाराज! यह तो बताइए कि यह राजा रत्नशेखर हैं कौन? जरा मैं भी उनको देखूँ!” मन्त्री ने कहा-
“कल्याणी, मैंने पहले ही कहा दिया कि हमारे स्वामी कुटिलता की मूर्त्ति नारियों के मुख नहीं देखते.”
मन्त्री द्वरा रोके जाने पर भी दासी ने राजा का रूप देख लिया और अत्यन्त विस्मित होकर अपनी स्वामिनी के पास आकर बोली-
“स्वामिनी, एक बहुत अचरज की बात है, तुम्हारे पुण्य-प्रभाव से प्रत्यक्ष कामदेव के समान कोई महाराजा मन्दिर में बैठे द्यूतक्रीडा कर रहे हैं.”
उसकी बातों को सुनकर कन्या रत्नवती को भी योगिनी की बातों का स्मरण किया. तत्काल ही बाईं आँख के फड़कने से वह आनन्दित हुई और लीलापूर्वक उसने मन्दिर में प्रवेश किया. ‘अरे, नारी! नारी!’ ऐसा कहते हुए मन्त्री ने अपने वस्त्र से राजा के मुख को आवृत्त कर दिया. रत्नवती भी चकोरी की तरह उसके मुखचन्द्र की कान्ति-सुधा का पान करने की लालसा से बोली-
“क्यों अपने स्वामी के मुख-कमल को ढकते हो?” तो मन्त्री ने उत्तर दिया कि-
“हमारे स्वामी स्त्रियों के मुख-कमल नहीं देखते.” कन्या ने पूछा कि-
“नारियों ने क्या पाप किया है, जरा अपने स्वामी से यह तो पूछो.”
तब राजा की ओर देखकर मन्त्री ने कहा कि –
“स्त्री, कपटों का विलास-भवन, कामदेव की बरछी और कर्त्तव्य रूपी हस्ती को रोकनेवाली वाली श्रृंखला कही गई है.”
कन्या ने उत्तर दिया कि-
“धन, प्रभुता, बल और यौवन के दर्प में, सज्जनों की निन्दा करनेवाले परमार्थशून्य क्रूर पुरुष देव, गुरु, कुल-परम्परा और आत्मा को कुछ नहीं समझते.”
पुनः मन्त्री ने कहा: कि ‘वचन, भ्रू-निपेक्ष, गति और अलकों में निहित मन की कुटिलता रूपी नदी की तरंगें जिन रमणियों के अन्तर्हृदय में न समाती हुई, मानों आँखों से बाहर निकलती है; किसमें सामर्थ्य है कि उन तरल और आयत आँखोंवाली (रमणियों) को सरल बना दे?” कन्या ने उत्तर दिया कि- ‘विश्वासघात आदि पापों के भागी, कुलस्त्रियों के सतीत्व आदि गुणों को खण्डित करनेवाले, सदाचार से पराड्मुख पुरूषों के नाम लेना भी पापोदय का हेतु है.”
यह विवाद होने लगा, तब राजा ने कहा कि- “मन्त्रिप्रवर, अबलाओं के साथ विवाद कौन करे?” तब मन्त्री ने कन्या से कहा कि “हमारे स्वामी पूर्वजन्म की प्रेमिका की खोज में हैं.” उस कन्या ने पूछा कि- “महाराज का पूर्वजन्म क्या था?’ इस पर राजा ने उत्तर दिया कि- “अधिक कहने से क्या? केवल एक संकेत-वचन सुनो: हरिणी और हरिण जंगल में रहते थे. हरिण हरिणी से कहता था: “पुण्य करो, जिससे मैं इस संसार में राजा के रूप में जन्म लूँ.” यह सुनकर रत्नवती में पूर्वजन्म का प्रेम प्रस्फुटित हुआ और उसका सर्वांग रोमांचित हो उठा. उसने कहा कि– “हरिणी और हरिण जंगल में रहते थे; पर्व के दिनों में पुण्य करने के फलस्वरूप आप राजा हुए हैं ही आपकी हरिणी नारी हूँ.”
ऐसा कहती हुई उसने राजा के मुख-कमल का आवरण हटा दिया और उसके मुख-चन्द्र की कान्ति-सुधा का पान करती हुई अत्यन्त हर्षित हुई. उसका हर्ष उसके अंगों में समा नहीं रहा था. लावण्य रस से पूर्ण उस कन्या को देखकर राजा के सामने उसका पूर्वजन्म साकार हो आया और वह प्रेमाकुल हो उठा. आश्चर्य की बात है कि अतुल बल के दर्प से चूर राजा उस समय एक अबला के तीखे कटाक्ष के बाण से आहत हो गया. कन्या ने राजा को देखकर कहा कि- “दूरस्थ होते हुए भी आप मेरे हृदय में थे; पद्मिनी सूर्य को छोड़ और किसे देखेगी?”
एक दासी ने जाकर राजा जससिंह से निवेदन किया कि
“स्वामी, कन्या के पूर्वजनम का वर यहाँ आया हुआ है और वह कामदेव के मन्दिर में है.”
राजा जयसिंह ने स्वयं वहाँ आकर राजा रत्नशेखर का बहुत सम्मान किया और बोला कि-
“पूर्वजन्म के पुण्यकार्यों उदय के कारण आप जैसे सत्पुरूष का मेरे आवास पर आगमन हुआ है. कृपा करके परिजन सहित आप अपने महल में पधारें.”
राजा जयसिंह ने राजा रत्नवती का विवाह राजा रत्नशेखर के साथ कर दिया. दहेज में राजा जयसिंह ने एक सौ हाथी, पाँच सौ घोड़े और समुद्र से प्राप्त विभिन्न वस्तुएँ दीं. राजा रत्नशेखर दिनों तक अपने ससुर के घर में रहा और फिर वह रत्नवती देवी और स्वजनों के साथ अपने नगर रत्नपुर की ओर चला.
राजा के साथ जाती हुई कन्या को उसकी माता ने सीख दी कि-
“हे कल्याणी, पति के घर में जाकर गुरुजनों के प्रति विनयपूर्ण व्यवहार करना. पति के भोजन कर चुकने पर भोजन करना और सो जाने पर सोना. मुख पर घूँघट डाले रहना और दृष्टि सदा नीची रखना; श्वसुर-गृह में सदा कोयल की भाँति मधुरालाप करना. ननद के प्रति विनम्र रहना और देवरों को यथोचित गौरव देना तथा परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भी उचित व्यवहार करना.”
पिता ने भी कन्या को शिक्षा दी कि–
“प्रियतम के प्रति निश्छल, ननदों के प्रति विनम्र और सासों के प्रति भक्तिपूर्ण व्यवहार करना; बन्धुओं के प्रति स्निग्धता, परिजनों के प्रति वत्सलता और सपत्नियों के प्रति भी प्रसन्नता का भाव बनाये रहना; पति के मित्रों के साथ स्नेहपूर्वक बातें करना और पति के विद्वेषियों के प्रति खिन्नता का भाव रखना.”
परिजनों के साथ अपने नगर को जाते हुए राजा रत्नशेखर को यक्ष देवता अपने महल में ले आया. मन्त्री मतिसागर की पत्नी लक्ष्मी ने सपरिजन राजा का स्वागत-सत्कार किया. सन्तुष्ट होकर राजा ने मन्त्री से कहा कि-
‘‘मन्त्री, तुम धन्य हो कि लक्ष्मी के समान सर्वगुणसम्पन्न, उचित सेवावृत्ति में निपुण ‘लक्ष्मी’ नाम की पत्नी तुम्हें मिली है.”
राजा श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के मन्दिर में पहुँचा. राजा ने तीनों लोकों के स्वामी श्रीसुव्रतस्वामी के दर्शन किये. फिर, उसने सभी दुःखों को दूर करनेवाले जिनदेव की पूजा सम्पन्न की; तत्पश्चात् वहाँ एक दिन रहकर वह यक्षराज के प्रभाव के क्षण भर में अपने नगर के निकट चला आया. मन्त्री के साथ यक्षकुमारी लक्ष्मी भी चली आई. नगर के लोग अगवानी करने आये और रत्नवती का रूप देखकर कहने लगे:
‘जिस प्रकार रत्न से स्वर्ण से रत्न शोभा पाता है, उसी प्रकार कन्या से वर और वर से कन्या शोभा पा रही है. राजा ने खूब धूमधाम से नगर में प्रवेश किया. उसने रत्नवती को अपनी पटरानी बनाया.
किसी एक दिन, रत्नवती प्रोषधोपवास की पारणा के बाद राजा के आदेश से एक सुखद आसन पर बैठी हुई थी. उन दोनों ने एक दूसरे को पान दिया, एक दूसरे को चन्दन का लेप किया और दोनों गीत, काव्य, कथा आदि द्वारा विनोद करने लगे. इसी बीच एक शुक राजा के हाथ पर और एक शुकी रानी के हाथ पर आ बैठी. शुक की बात सुनकर राजा ने सोचा-
“ओह! यह तो कोई सम्यक् दृष्टि रखनेवाला शुक है.”
कथा विनोद करते हुए शुकी और शुक एक ही साथ मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गई. इसी समय उद्यानपाल आया और उसने राजा से निवेदन किया कि उपवन में श्री धर्मप्रभ स्वामी पधारे हैं, जिससे राज सपरिवार आनन्दित हुआ और वह आदरपूर्वक गुरु के दर्शन करने निकल पड़ा.
धर्म श्रवण के पश्चात् राजा ने गुरु से शुक का वृत्तान्त पूछा. उसी समय नगर का रहनेवाला धन नामक सेठ इसी समय गुरु की वन्दना के लिए आया. श्री नाम की उसकी पुत्री भी पालकी में आई और सखियों के साथ गुरु की वन्दना करके उनके आगे बैठ गई. सेठ ने गुरु से निवेदन किया कि-
“भगवन्, मेरी पुत्री ने जब जन्म लिया, तभी से मेरे घर में सब प्रकार की वृद्धि हुई, लेकिन यौवन की शुरुआत में ही इसके दाहज्वर शुरू हो गया?”
गुरु ने उत्तर दिया कि-
‘‘तुम्हारी इस पुत्री ने पूर्वजन्म में ठीक से तप का पालन नहीं किया.”
गुरु ने श्री के पूर्वजन्म का वृतांत सुनाते हुए कहा कि किसी जंगल में एक अनाथा वनेचरी रहती थी. वह अत्यन्त दुःख में थी और लकड़ी ढोने आदि कामों द्वारा जीवन यापन करती थी. एक बार साधुओं को देखकर उसने पूछा कि- “क्यों मैं एकान्त दुःखभागिनी हो गई? भगवन्’ मैं क्या तप करूँ?” साधु ने उत्तर में कहा कि- ”यदि हमेशा तप करने में असमर्थ हो, तो अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास-रूपी तप करना चाहिए.” वह उपवास करने लगी. बहुत वषों तक सातिचार तपस्या करने के बाद उसकी मृत्यु हुई और वही वनेचरी तुम्हारी पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई. वह परम सौभाग्यवती तो हुई, किन्तु तपोभंग के कारण उसको दाहज्वर हो आया है. यदि वह प्रासुक जल का सेवन करे, तो उसके दाहज्वर का ख़त्म हो जायगा. गुरु के वचन को सुनकर उसने प्रासुक जल पीने का व्रत ले लिया और वह अपने घर चली गई.
राजा ने जब पुनः शुक का वृत्तान्त गुरु से पूछा, तभी एक पुरुष अपनी स्त्री के साथ अपने हाथों में ढाल और तलवार लिये हुए राजा और रानी के पास आ धमका. वह बोला महाराज, मुझ शरणागत की रक्षा करो और राजा के चरणों में गिर पड़ा. राजा ने उससे कहा कि- ‘सत्पुरूष! भय मत करो.” वह बोला-
“महाराज! मेरा शत्रु आकाश में आ रहा है. ऐसा सोचकर मैं अपनी इस पत्नी को आपके पास रखकर शत्रु को मारने के लिए जाना चाहता हूँ. परन्तु, खड़िया, पुस्तक, नारी और चन्दन की लकड़ी दूसरे के हाथों में पड़ जाने के बाद प्रायः घिस-पिटकर ही लौटती है. इस कारण मुझे आप पर विश्वास नहीं होता. यदि आप विश्वास दिलायें, तो आपके पास इसे छोड़ जाउँ.” राजा ने कहा- “जो नराधम अपने विश्वस्तों अथवा स्वामी की हत्या करते हैं, उनका पाप मुझे लगे, यदि मैं तुम्हारी प्रिया का अधिग्रहण करूँ.” राजा पर विश्वास कर वह पुरुष चला गया.
राजा गुरु की वन्दना कर उठा ही था कि सहसा आकाश से एक कटा हुआ हाथ आ गिरा. उस स्त्री ने कहा- “यह मेरे प्रियतम का हाथ है.” राजा ने पूछा- “कल्याणी! यह तुम कैसे जानती हो?” उसने कहा कहा कि- “इस हाथ में जो यह काजल की रेखा है, वह मेरी आँखों के काजल से ही बनी है.” इसके पश्चात् धड़ के साथ खड्गसहित सिर धरती पर आ गिरा, जिसे देखकर वह स्त्री विलाप करने लगी. राजा द्वारा रोकी जाने पर भी वह अपने प्रिय की मृत देह के साथ चिता में प्रवेश कर गई, जिससे राजा बहुत चिन्तित हुआ. उसी क्षण शत्रु को जीतकर जयश्री के साथ वह पुरुष आ धमका. राजा को प्रणाम करके उसने अपनी प्रिया माँगी.
प्रिया नहीं मिलने पर वह भी चिता में प्रवेश कर गया. उनके दुःख से राजा भी दुःखी हुआ और उनके विषय में यथार्थ जानने के लिए गुरु के पास गया. इसी समय नागराज धरणेन्द्र पद्मावती देवी के साथ गुरु के चरणों में आ बैठे और राजा से बोले- “हे पुत्र दीर्घायु होओ और पर्वव्रत का दृढ़ता से पालन करो.’’ राजा ने भी गुरु की वन्दना की और पूछा- “भगवन्! मुझे आशीर्वाद देनेवाले ये देवता कौन हैं ?’’ गुरु ने दम्पती की ओर संकेत करते हुए कहा कि –
“ये नागराज हैं और यह पद्मावती हैं और ये तुम्हारे पिता के माता-पिता हैं.” राजा ने पूछा- “क्या ये मेरे जनक के जनक हैं?’’ गुरु ने बताया कि- “इसी नगरी में पुरन्दर नाम का राजा था और उसकी सुन्दरी नाम की प्रिया थी. गुरु के उपदेश से वे दोनों पर्व दिनों में उपवास आदि तप एवं ब्रह्मचर्य-व्रत स्वीकार कर जिनधर्म का पालन करते थे. किन्तु राज्य सुखभोग करनेवाले उन दिनों में कोई भी पुत्र न हुआ. राजा ने कहा कि- “यह तो पूर्वभव के कर्मों का परिणाम है.”
एक पुरोहित ने कहा कि “फिर भी उपाय अनेक हैं.” रानी ने प्रसन्न होकर कहा कि ‘यदि उपाय जानते हैं, तो बतलाते क्यों नहीं?” उस पुरोहित ने कहा कि- “कृष्णपक्ष की अष्टमी और अमावस्या के दिन छः महीने तक जो अपनी पत्नी के साथ एक ही पात्र में काले तिल का चूर्ण चन्द्रोदय के समय खाता है और एक ही शय्या पर सोता है, उसके पुत्र उत्पन्न होता है.’’ यह सुनकर राजा-रानी वैसा करने लगे. इस प्रकार उन दोनों ने पर्व नियम भंग किया, लेकिन फिर भी उनके पुत्र नहीं हुआ. पुण्ययोग से एक बार एक महातपस्वी विहार करते हुए राजभवन में आये. देवी ने पूछा- कि हमारे पुत्र होगा अथवा नहीं?” मुनि ने कहा कि यदि आप दोनों तीन सन्ध्याओं में जिन-पूजन करें, तो उस पुण्य के योग से आपके मनोरथ की सिद्धि हो जाएगी. उन दोनों ने वैसा ही किया, जिससे उनके पुत्र हुआ, जो राजा धर्मशेखर के नाम से प्रसिद्ध हुआ. तुम उसी राजा के पुत्र हो.”
राज्य कार्य में व्यस्त राजा पुरन्दर बिना प्रायश्चित किये हुए ही कालधर्म को प्राप्त होकर, अगले जन्म में भेड़ बन गया और उसकी प्रिया सुन्दरी भी भेड़ी हो गई. फिर अगले जन्मों में वे दोनों कुत्ता और कुतिया और पुनः सूकर और सूकरी हो गए. बाद में क्रमशः हंस, वृषभ और हरिण की योनियों में भ्रमण करते हुए राजा पुरन्दर नन्दन वन में शुक और रानी सुन्दरी शुकी हुए. सुलोचन नामक विद्याधर ने उन्हें पकड़ कर सोने के पिंजरे में बन्द कर दिया और उनके समक्ष अनेक शास्त्रों का पाठ किया. एक समय वहाँ मुनियों का पदार्पण हुआ. उन्होंने शुकों के जोड़े को पिंजरे में देखकर विद्याधर से कहा कि-
‘‘तुमने इस स्वच्छन्दचारी जोड़े को संकीर्ण पिंजरे में क्यों रखा?” मुनियों के आग्रह पर विद्याधर ने शुकों के जोड़े को छोड़ दिया. भ्रमण करते हुए शुक-मिथुन ने नगर में राजभवन को देखा और उन्हें जाति स्मरण हो आया और वे तुम दोनों के हाथों पर आ बैठे. गुरु को प्रणाम करके राजा सपरिवार अपने नगर लौट आया. गुरुकी आज्ञा के अनुसार, वह सम्यक् धर्म का आचरण करने लगा और रत्नवती के साथ सांसारिक काम भोगों का अनुभव करता हुआ, मतिसागर मन्त्री की सहायता से प्रजापालन में तत्पर रहने लगा.
7
एक बार, चतुर्दशी के दिन, राजा स्वयं चारों प्रकार से पूर्ण प्रोषध व्रत में अवस्थित होकर प्रोषधशाला में अनेक सामन्तों के समक्ष धर्मोपदेश कर रहा था. एक सेवक ने आकर राजा से निवेदन किया कि- “महराज! कलिंगदेश का राजा चतुरंगिणी सेना के साथ, जनपद के लोगों को खदेड़ता हुआ पास आ पहुँचा है.” यह सुनकर सभी सामन्त क्षुब्ध हुए, लेकिन राजा ने कहा कि “आज मेरा प्रोषध व्रत है, अतः यह धर्मविरूद्ध वार्ता कोई न करे. इसी बीच नगर के आसपास चीख-पुकार होने लगी. कोलाहल सुनकर सभी सामन्त आवेग में आ गये और कोई प्रोषध को अपूर्ण रूप में ही समाप्त कर, कोई उसे अपूर्ण छोड़ कर प्रोषधशाला से निकल गये. केवल राजा रत्नशेखर मेरू की भाँति निश्चल रहा और सोचने लगा. राजा जब विचार से बाहर आया तो न वह शत्रुसेना रही और न कोलाहल ही रहा.
एक बार राजा ने चतुरंगिणी सेना के साथ कलिंगदेश के राजा के विरुद्ध प्रस्थान किया. रत्नवती सन्ध्या की आवश्यक क्रियाएँ करके स्वाध्याय का प्रहर बिता चुकी थी और अपनी शय्या का निरीक्षण करने ही जा रही थी, तो देखती है कि उसका राजा रत्नशेखर उसके सामने खड़ा है. राजा ने उससे निवेदन किया कि- “हे प्रिये! सोचती क्या हो? मैं राजा रत्नशेखर विरहग्नि से सन्तप्त, तुम्हारे समागम रूपी चन्दन-रस से अपने को शीतल करने के लिए तुम्हारी शरण में आया हूँ.” रत्नवती ने कहा कि- “नरक में गिरते हुए जीवों की रक्षा एकमात्र धर्म-विचार ही करता है; पुत्र, मित्र, कलत्र, प्रभु वल्लभ और पति कोई भी नहीं.” रत्नवती ने राजा की ओर देखा तक नहीं, तब राजा ने अपनी त्योरी चढ़ाई और बोला कि- “अरी मिथ्या धर्माडम्बर करनेवाली, यदि तू इस समय मेरी बातें नहीं मानेगी, तो मैं दूसरा स्त्रीरत्न ले आऊँगा.” राजा अदृश्य हो गया- रानी रत्नवती ने भी सोचा कि यह इन्द्रजाल था अथवा सत्य?
राजा रत्नशेखर कलिंग को जीतकर अपनी राजधानी लौटा. नगर में महोत्सव हुआ. एक बार राजा राज्य के कार्य में अति व्यस्तता के कारण दिन में प्रेाषध व्रत नहीं रख सका, इसलिए उसने रात्रि का प्रोषध किया. वह सन्ध्या समय आवश्यक क्रियाएँ करने के बाद स्वाधयाय का प्रहर पूरा करके पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर रहा था कि उसी समय शृंगार कर रत्नवती वहाँ आ पहुँची और बोली-
“हे आर्यपुत्र, आज मैंने ऋतुस्नान किया है और इस समय मेरी पुत्रप्राप्ति की कामना पूरी हो सकती है. प्रोषध की ख़त्म कर मेरी मनोकामना पूरी कीजिए.”
राजा ने कहा कि-
“आज पर्वतिथि को मैंने प्रोषध किया है. मैं स्त्री का दर्शन भी नहीं करूँगा.” रत्नवती ने कहा कि-
“हे नाथ, मैं सब कुछ जानती हूँ, लेकिन कामज्वर से विवश मैं अपने-अपको सँभालने में असमर्थ हूँ, क्योंकि तभी तक तप, जप और धर्म का विचार है, जब तक अंगों में कामग्नि प्रज्वलित नहीं होती.”
राजा ने ध्यान लगाया और कायोत्सर्ग-मुद्रा में स्थित हो गया. रानी ने कहा कि– “सुबह मैं जो करूँगी, उसे देखना.” क्रोध से जलती हुई वह वहाँ से चली गई.
सुबह अन्तःपुर में कोलाहल हुआ कि कामातुरा रत्नवती देवी रत्न भण्डार का सार लेकर एक छैले के साथ भागी जा रही है. राजा ने सोचा कि ऐसी रानी से मेरा कोई संबंध नहीं है, लेकिन वह लोकापवाद के भय से उसे मनाने के लिए सेना के साथ निकला. आगे जाकर उसको अपनी सेना नहीं दिखी और उसके चारों ओर अनेक प्रकार के वृक्षों वाला घना जंगल रह गया. हथिनी पर चढ़ी हुई रत्नवती भी कभी दूर और कभी पास ही दिखाई पड़ जाती थी. राजा कुछ दूर गया ही था कि उसने अपने आप को अपने भवन में रत्नमय सिहासन पर विराजमान पाया. उसने देखा कि वह सामन्तों से घिरा हुआ है और उसकी पटरानी रत्नवती देवी भी उसके पास ही बैठी है. राजा सोच ही रहा था कि यह सब सत्य था या माया, तभी उसके और रत्नवती पर पुष्पों की वृष्टि हुई और तेज मुखमण्डलवाला एक देव उसके समक्ष आ खड़ा हुआ. उसने कहा- ‘महाराज, मुझे पहचानिए.” वह देव मन्त्री मतिसागर का रूप बनाकर राजा के सम्मुख खड़ा हो गया. राजा ने कहा कि- “तुम मतिसागर नामक मेरे मन्त्री हो. परलोक जाकर तुम यहाँ कैसे आ गये?” उसने उत्तर दिया कि- “पर्वधर्म का निर्वाह करने के फलस्वरूप ब्रह्मलोक मे ऋद्धिशाली देव-देवियों ने मेरे लिए स्तवन, अभिषेक आदि कृत्य किये.”
रानी रत्नवती और राजा रत्नशेखर के चरित्र को सुनने से भव्य जीवों को बोधिलाभ होता है.
सैकड़ों जिनभवनों से मण्डित श्रीचित्रकूट नगर में, श्रुतभक्ति के निमित्त श्रीजयचन्द्र मुनीशवर के शिष्य जिनहर्ष साधु के प्राकृत-भाषा में यह कथा लिखी. यह कथा जीवलोक में तबतक बनी रहे, जब तक श्रीवीरजिन का तीर्थ है.
रत्नशेखरनृपकथा समाप्त.
माधव हाड़ा (जन्म: मई 9, 1958) प्रकाशित पुस्तकें: सीढ़ियाँ चढ़ता मीडिया (2012), मीडिया, साहित्य और संस्कृति (2006), कविता का पूरा दृश्य (1992), तनी हुई रस्सी पर (1987), लय (आधुनिक हिन्दी कविताओं का सम्पादन, 1996). राजस्थान साहित्य अकादमी के लिए नन्द चतुर्वेदी, ऋतुराज, नन्दकिशोर आचार्य, मणि मधुकर आदि कवियों पर विनिबन्ध. संपर्क: मो. 9414325302/ईमेल: madhavhada@gmail.com |
बहुत बहुत बधाईयाँ सर को। कार्य अतिशय महत्त्व का है।
माधव हाड़ा द्वारा रत्नशेखर नृप कथा का आख्यान पढ़कर आनंदानुभूति हुई । जायसी द्वारा कृत पद्मावत हो या सिंहल देश की सातवीं शताब्दी की कथा । दोनों का कथ्य एक है और रोचक भी । भारत का कथा धरोहर विपुल रूप से गहरा है । कथाओं में से कथाएँ निकलती हैं । कामाग्नि ऊर्ध्वगमन करे तो व्यक्ति रतिसुख से आगे निकलकर परम सुख को प्राप्त होता है । काम-वासना ऊर्जा है । इसके बिना जीवन निस्सार है । यही ऊर्जा पढ़ने, आविष्कारक बनने और नव-नवीन शोधों को करने का सामर्थ्य देती है । यही ऊर्जा प्रोफ़ेसर अरुण देव जी से समालोचन लिखवा लेती है । सूर्योदय के समान अरुण (सूर्य का पर्यायवाची नाम) हमारे घर में आकर मार्गदर्शन कर जाते हैं । इनसे प्रत्यक्ष मिलना कठिन है लेकिन असंभव नहीं । एक बार विश्व पुस्तक मेले में मिल गये । मानो जीवन के हाथ डोर लग गयी । वैसे नागेश कुकनूर जैसे लोग भी विरल होते हैं जो डोर जैसी श्रेष्ठ फ़िल्म बना सकते हैं । बुराई अपने सिर पर लेते हैं । और गिरीश कर्नाड को फ़िल्म से जोड़ लेते हैं । आयशा टाकिया को मौज मस्ती से ज़िंदगी जीना सिखा देते हैं
इतनी कहानी में मैं माधव हाड़ा के परिश्रम और अवदान को भूल गया । दो-तीन दिनों से समालोचन पर मेरी गै़र हाज़िरी लग रही थी । आज लगा लेना । इन दिनों टेलीविजन पर एक सार्थक विज्ञापन का प्रसारण किया जा रहा है । यह विज्ञापन हिंदवेयर कंपनी का है । कुछ कुछ इस प्रकार की 2 पंक्तियाँ हैं ।
School Missing Toilets
Girls School Missing or Missing Girls School.
जितना अच्छा आलेख है उतनी ही उम्दा प्रस्तुति है। इतने सुंदर और भव्य प्रस्तुतीकरण के लिए आपको साधुवाद। बहुत बधाई।
बहुत महत्वपूर्ण और गुरु-गम्भीर कार्य। कितनी ही नयी जानकारियाँ मिलीं। माधव हाड़ा जी को साधुवाद है और इसे साझा करने के लिए ‘समालोचन’ को धन्यवाद।
बहुत रोचक होती है ,जैन आगमो और पुराणों पर आधारित कथाएं ,हाड़ा जी ने बहुत सरल और प्रवाहपूर्ण शैली में इसे अनूदित किया है संस्कृत गद्य काव्य तिलकमंजरी मेरा शोध विषय होने से इसकी शैली से मैं परिचित हूं कभी कभी ये कथाएं इतनी जटिल होती है कि इनके तार जोड़ते जोड़ते पाठक स्वयं खोने लगता है , तिलकमंजरी जैन धर्म को स्वीकार कर लेने वाले ब्राह्मण संस्कृत कवि धनपाल की दसवीं शती में भोज के काल की।रचना है
ये टिप्पणी मेरी dr पुष्पा गुप्ता की है