बुद्ध और नेहरू आधुनिक भारत की खोज रमाशंकर सिंह |
पूरी की पूरी उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के शुरुआती पचास वर्ष औपनिवेशिक लूट के वर्ष रहे हैं. दिसम्बर 1929 में जब कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ तो पूर्ण स्वराज की घोषणा की गयी. इसके अगले महीने यानी जनवरी 1930 में ‘आज़ादी की शपथ’ दिलाई गयी तो कहा गया कि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनों को न केवल उनकी आज़ादी से वंचित किया है बल्कि स्वयं ब्रिटिश शासन ही भारत की जनता के शोषण पर आधारित है और उसने भारत को ‘आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से तबाह’ कर दिया है.”[1]
भारत की इन चार प्रकार की तबाहियों पर केवल पहली दो प्रकार की तबाहियों- आर्थिक और राजनीतिक पर लिखा गया है लेकिन शेष दो प्रकार तबाहियों- सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पर बहुत कम लिखा गया है. हालाँकि, जब कुछ लोग इस पर लिखने का काम हाथ में लेते हैं तो वे अतीतजीवी हो उठते हैं और अधिकांश मामलों में पीछे की तरफ़ एक दौड़ लगा दी जाती है. एक ‘सुटेबुल पास्ट’ की खोज होने लगती है.
आज़ादी के आंदोलन के दौरान जो राष्ट्रीय भावना पनपी, उसमें अतीत वर्तमान का एक हिस्सा बनकर उभरा और उससे भारतीय समाज को बेहतर बनाने के प्रयास किए गए. महात्मा बुद्ध का जीवनचरित भी इसी प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गया.
(एक)
इस दौर में मुद्रित पाठ और पुरातत्त्व ने अतीत की नवीन वीथिकाएँ भारतवासियों के सामने खुलने लगी. इनमें सबसे प्रभावशाली वीथिका गौतम बुद्ध की थी. वे एक ही समय में ‘परम्परा, पाठ और पुरातत्त्व’ में चिन्हित किए जा सकते थे.
ब्रिटिश उपनिवेश की भारत में स्थापना के साथ बौद्ध स्थलों की खुदाई, पुनरुद्धार आरम्भ हुआ. जगह-जगह से बुद्ध और बौद्ध प्रतीक सामने आए. शानदार स्तूप लोगों के सामने आकर खड़े हो गये. साँची और धमेख के स्तूपों ने ब्रिटिश शासन और राष्ट्रीय नेताओं में गंभीर रुचि पैदा की. इसी समय बौद्ध धर्म की एक संग्रहालयी छवि का प्रचलन भी हुआ. भारत सहित दुनिया भर के, खासकर यूरोप के, संग्रहालय बुद्ध की नाना किस्म की मूर्तियों से भर गए. यूरोप के प्रशासक-विद्वान बुद्ध की मूर्तियों, उनके जीवन-स्थलों से प्राप्त अवशेषों और उनके शिष्यों से संबंधित सामग्री को एक उपलब्धि के रूप में प्रदर्शित करते देखे जाने लगे.
बुद्ध के प्रति दीवानगी का आलम यहाँ तक पहुँचा कि 1898 में एम. फ़ूचर ने भारत के वाइसराय से इस आशय की अनुमति माँगी कि वे नेपाल जाकर बुद्ध के जन्म से सम्बन्धित स्थलों का निरीक्षण करना चाहते हैं और उनकी खुदाई करके, संग्रह को यूरोपीय संग्रहालयों को भेजना चाहते हैं.[2] वास्तव में यह कहानी बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी जब 1830 के दशक में कनिंघम ने बुद्ध के दो शिष्यों महामोग्गलायन और सारिपुत्र के अवशेष खोज निकाले थे.
इन सब खोज परिणामों और पांडुलिपियों की प्राप्ति ने बुद्ध का एक चरित लिखित रूप में न केवल उपलब्ध कराया बल्कि उसे एक बहुत ही आकर्षक कथा के रूप में ढाल दिया. लालच, युद्ध और सम्पत्ति के विधिक जाल में खप रही यूरोपीय जनता को बुद्ध के चरित ने आकर्षित किया.
1879 में एडविन एर्नोल्ड ने बुद्ध का जीवनचरित ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ लिखा और यह कृति भारत सहित दुनिया भर में प्रसिद्ध हुई.
अभी हाल ही में राजनेता जयराम रमेश ने इस प्रसिद्ध कृति के लिखे जाने की आधारभूमि और उसके भारत के सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव पर एक सुव्यवस्थित ढंग से बड़े ही गहन शोध के बाद ‘लाइट ऑफ़ एशिया: पोएम दैट डिफाइंस द बुद्धा’ (पेंगुइन, 2021) लिखी है.
इसको पढ़ते हुए और गाँधी के लेखन से गुजरते हुए पता लगता है कि ‘लाइट ऑफ़ एशिया’ महात्मा गाँधी की पसंदीदा किताबों में थी और उन्हें बुद्ध से परिचय विलायत में हुआ जब वे थिओफिस्ट आंदोलन के सम्पर्क में आए. उस समय गाँधी ने बुद्ध को ईसा मसीह के साथ देखा और बुद्ध की करुणा ने उन्हें आकर्षित किया था. बुद्ध की करुणा न केवल मनुष्यों तक बल्कि सभी जीव-जंतुओं तक व्यापी हुई थी.[3]
बाद में जब गाँधी ने भारत के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया तो उन्होंने बुद्ध को कहीं अधिक राजनीतिक और व्यवहारिक अर्थों में समझना आरम्भ किया.
गाँधी ने अपनी सर्वधर्म सद्भावना के मुहावरों में बुद्ध को मुहम्मद साहब, राम, कृष्ण और जनक के साथ लगातार उद्धृत किया है.[4]
यदि कोई गाँधी के सम्पूर्ण वांगमय को देखे तो पाएगा कि वे बुद्ध को करुणा, अहिंसा, बहादुरी और सच्चाई के प्रतीक के रूप में न केवल खुद देखते थे बल्कि उन्हें इसी रूप में भारतीय जनमानस के समक्ष रख रहे थे. व्यवहारिक अर्थों में गाँधी ने बुद्ध से चंदा लेने की आदत भी सीखी. उनका यहाँ तक कहना था कि बुद्ध ने बड़ी मात्रा में उन धनिकों की मदद न ली होती जो उनके चरणों में अपनी आत्मा, बुद्धि और शरीर को अर्पित कर देते थे, तो वे बड़ी संस्थाएँ भला कैसे खड़ी करते?[5]
वास्तव में भारत का राष्ट्रीय आंदोलन बहुत कुछ वित्तीय रूप से धनिकों पर आश्रित होता गया था और लोगबाग इसकी आलोचना भी कर रहे थे और एक समय आया जब गाँधी ने इसका जवाब भी दिया. व्यक्तिगत स्तर पर गाँधी बुद्ध की कायिक और मानसिक छवियों को भी यदाकदा प्रकट करते रहते थे. एक बार कवि रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनकी तुलना बुद्ध से की और कहा कि जैसे बुद्ध “क्रोध को अक्रोध से, बुराई को अच्छाई से’ जीतते थे, वैसा ही काम गाँधी कर रहे थे.[6]
हम इससे पहले आगे बढ़ें, हमें धर्मानंद कोसंबी, आचार्य नरेंद्र देव और राहुल सांकृत्यायन को भी याद करना चाहिए. यद्यपि समय और अवसर का अभाव है लेकिन तब भी यह रेखांकित करना होगा कि इन तीन भारतीय विद्वानों ने आधुनिक काल में बौद्ध धर्म और बुद्ध से संबंधित समझ को आगे बढ़ाने और उसे एक राजनीतिक, दार्शनिक एवं सांस्कृतिक आधार प्रदान करने में महती भूमिका अदा की थी
(इन तीन विद्वानों पर फिर कभी!)
(दो)
गाँधी ने बुद्ध को जहाँ एक नैतिक शक्ति के रूप में देखा था वहीं डॉ. भीमराव अंबेडकर ने बुद्ध के संदेश को मैत्री, करुणा और सामाजिक समानता के संदर्भ में देखा. बुद्ध उनके लिए एक मानवीय धर्म की तलाश का केंद्र बिंदु थे. उन्होंने कहा कि “बंधुता, स्वतंत्रता और समता यह तीन शब्द थे जिनके कारण फ़्रांसीसी क्रांति का स्वागत हुआ था. लेकिन इसने समानता नहीं पैदा की. हम रुसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि यह समता पैदा करना चाहती है. लेकिन इस बात पर ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता है कि समता के लिए समाज बंधुता और स्वतंत्रता का परित्याग ही कर दे. बंधुता या स्वतंत्रता के बगैर समता का कोई मूल्य ही नहीं होगा. ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों एक साथ तभी रह सकते हैं जब कोई बुद्ध के बताये रास्ते पर चले.”[7]
डॉ. अंबेडकर के लिए बुद्ध एक नवीन प्रकार के समाज के निर्माण के लिए जरूरी लगते थे. उन्होंने बुद्ध की तुलना कार्ल मार्क्स से भी की थी और बुद्ध को भारत के लिए बेहतर पाया था. उन्होंने बुद्ध के मैत्री के विचार को पूरी दुनिया के लिए आदरणीय माना था. उन्होंने बुद्ध को उद्धृत करते हुए लिखा कि बुद्ध चाहते थे कि मनुष्य केवल करुणा पर ही न ठिठक जाए बल्कि वह मनुष्यता से आगे जाते हुए सभी जीवित प्राणियों के लिए अपने अंदर मैत्री का भाव जगाए.”[8]
यह एक ऐतिहासिक और सामाजिक परिघटना है कि डॉ. अंबेडकर ने 1930 के दशक में ही बौद्ध धर्म के प्रति अपना झुकाव प्रकट कर दिया था और अपने जीवन के अंतिम वर्ष में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. वह बौद्ध धर्म जो उनके लिए सामाजिक मूल्य था, संविधान सभा की बहसों में राजनीतिक मूल्य था, वह एक समग्र जीवन मूल्य में तब्दील हो गया.
समकालीन भारत की सार्वजनिक दुनिया में, विशेषकर बहुजन समुदायों में बुद्ध की जो छवि निर्मित हुई है, उसमें डॉ. अंबेडकर का सर्वाधिक योगदान है. यह बुद्ध और बौद्ध धर्म उस बुद्ध और बौद्ध धर्म से अलग हैं जिनके बारे में विद्वान और इतिहासकार बात करते रहते हैं.
(तीन)
जवाहरलाल नेहरू के लिए बुद्ध का जीवन संदर्भ किन्हीं अन्य संदर्भों में व्यापक अर्थ ग्रहण करता था. उन्होंने बुद्ध और उनके द्वारा प्रणीत बौद्ध धर्म को बड़ी आशा भरी नज़रों से देखा था. जब वे भारत जानने-समझने की तैयारी कर रहे थे तो वे बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के संपर्क में आए. आज़ादी की लड़ाई के बीच ही उन्होंने ‘विश्व इतिहास की झलक’ और ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ जैसी महत्त्वपूर्ण किताबें लिखीं. इसमें उन्होंने बुद्ध को भारत के इतिहास से अविछिन्न माना. आज़ादी के बाद के अपने लेखन और विचार में, उन्होंने बुद्ध को भारत देश के उन उद्देश्यों और नीतियों से जोड़ने का प्रयास किया जो वह शेष विश्व के सामने रख रहा था. आज़ादी के बाद बुद्ध से सम्बन्धित जवाहरलाल नेहरू के विचार इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं कि वे एक स्वतंत्र देश के प्रधानमंत्री के भी विचार हैं. आज हम जिसे ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ कहते हैं, उसमें बुद्ध का विचार भी समाहित है. बिना बुद्ध के भारतवर्ष की कोई मुक़म्मल तस्वीर भला कैसे बनेगी? यह बात जवाहरलाल नेहरू जानते थे.
हम सब जानते हैं कि 1920 के दशक के अंतिम वर्षों में जवाहरलाल नेहरू की प्रतिभा और संगठनात्मक क्षमता की चर्चा बहुत तेजी से बढ़ी. उन्हें 1927 में कांग्रेस का महासचिव बनाया गया था. ‘आल बंगाल स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस’ में 22 सितम्बर 1928 को जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि महान लोग हमेशा यथास्थिति के ख़िलाफ़ रहे हैं.
लगभग पचीस सौ वर्ष पूर्व बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में सामाजिक समता की बात की, पौरोहित्यिक विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया. वे उन लोगों के नेता थे जो अपना शोषण करने वालों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे. उसके बाद एक महान शख़्सियत ईसा आए और फिर उसके बाद एक और महान शख़्सियत मुहम्मद साहब आए जिन्होंने हर उस चीज को तोड़कर रख दिया जो उन्हें विरासत में मिली थी.[9]
थोड़े समय बाद यही बात उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी को एक ख़त में लिखी.[10] नेहरू द्वारा इंदिरा को लिखे गए ख़त ग्राम्शी की याद दिलाते हैं. ग्राम्शी ने भी जेल में रहते हुए अपने बेटे डेलियो को ख़त लिखे थे लेकिन नेहरू ग्राम्शी की अपेक्षा भाग्यशाली थे और उन्होंने अपने देश और दुनिया के इतिहास को बदलते हुए देखा.
1920 के बाद से ही नेहरू बार-बार जेल जा रहे थे और एक पिता के रूप में वे अपनी बेटी को बहुत सारी बातें बता देना चाहते थे. ‘ग्लिम्पसेज़ ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ इसी बेचैनी से पैदा हुई थी जिसमें उनके ख़तों को इकट्ठा करके छापा गया. यह नेहरू की एक साथ साहित्यिक और बौद्धिक उपलब्धि थी. अपने ख़तों में नेहरू ने इंदिरा को बुद्ध, बौद्ध धर्म और अशोक की कहानी को एक सातत्य में समझाने का जो प्रयास किया.[11]
उनकी इस समझ ने उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ के उस हिस्से की तैयारी में मदद की जहाँ पर उन्होंने बुद्ध, बौद्ध धर्म और अशोक को भारत के वर्तमान इतिहास से जोड़ने का प्रयास किया है.
नेहरू ने अपनी नौवीं, अंतिम और सबसे लंबी जेल यात्रा में ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ मात्र पाँच महीनों में लिखी थी लेकिन इसकी तैयारी वे कम से कम बीस वर्ष से पहले से कर रहे थे. 1922 में वे जब दुबारा जेल गए थे तो उस समय उन्होंने एक डायरी लिखी और उसे एक रोचक शीर्षक दिया ‘द सेकेंड ट्रिप’. इस जेल यात्रा में उन्होंने सैकड़ों किताबें पढ़ीं, उनसे नोट लिए जो बाद में उनके काम आयीं, अपनी किताबों के लेखन में या लाल किले से भाषण देने में.[12]
‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में उन्होंने लिखा :
“बुद्ध की कहानी ने मुझे बचपन में ही आकर्षित किया था और मैं युवा सिद्धार्थ की तरफ खिंचा चला गया था. अपने बहुत से आंतरिक संघर्षों, पीड़ा और अपार शारीरिक कष्टों के बाद वे बुद्ध की हैसियत तक पहुँचे थे. एडविन आर्नल्ड की किताब ‘लाइट ऑव एशिया’ मेरी एक प्रिय पुस्तक बन गई.[13]
गाँधी की तरह नेहरू को बुद्ध तक ले जाने में ‘लाइट ऑव एशिया’ की भूमिका रही लेकिन बाद में नेहरू ने अपने लिए उस बुद्ध की खोज की जिसकी जरूरत उनका समय महसूस कर रहा था. डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में उन्होंने लिखा :
“कमल के फूल पर शान्ति और दृढ़, हसरतों और दुनियावी ज़रूरतों से परे, इस दुनिया के अंधड़ और जद्दोजहद से दूर, वह इतने दूर दिखाई पड़ते हैं कि जैसे वे हमारी पहुँच से बाहर हों, ज़माने बीत जाते हैं बुद्ध हमसे बहुत दूर के नहीं जान पड़ते हैं.”[14]
(चार)
जब देश आज़ाद होने को था, तब जो सबसे बड़ी घटना घटी, वह थी भारत की संविधान सभा का गठन. इसका काम आज़ाद भारत के लिए संविधान बनाना था. उस समय एक ऐसे राष्ट्रीय झंडे की आवश्यकता महसूस की गयी जिसे सर्व-सहमति से स्वीकारा जा सके. इस दिशा में 22 जुलाई 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय झंडे का प्रस्ताव पेश किया. उन्होंने कहा :
“हमारे दिमागों में अनेक चक्र आये पर विशेषकर एक प्रसिद्ध चक्र जो कि अनेक स्थानों पर था और जिसको हम सब ने देखा है- अशोक की प्रमुख लाट के सिरे का तथा अन्य स्थानों का चक्र. वह चक्र भारत की प्राचीन सभ्यता का चिह्न है- वह और भी अनेक बातों का प्रतीक है जिनको इस काल में भारत ने अपनाया. अतः हमने सोचा कि इस चक्र का चिह्न वहाँ होना चाहिये और वही चक्र दिखाई देता है. मैं स्वयं तो बहुत प्रसन्न हूं कि इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से हमने इस झंडे के साथ केवल उस प्रतीक को ही नहीं अपनाया बल्कि एक प्रकार से अशोक के नाम को भारत के ही नहीं वरन संसार के इतिहास के एक बड़े महान नाम को भी अपनाया. यह अच्छी बात है कि इस झगड़े फ़साद और असहिष्णुता के समय हमारा विचार उस बात की ओर हुआ जिसका प्राचीन काल में भारत हिमायती था और जिसके लिए वह तनकर खड़ा रहा है, और यदि भारत किन्हीं महान उद्देश्यों के लिए तनकर खड़ा नहीं रहता तो मुझे नहीं लगता कि भारत बचा रह सकता था और इन सुदीर्घ युगों में अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को अविच्छिन्न रूप से, थोड़े से इधर-उधर के साथ, जारी रख पाता.”[15]
इस तरह से एक आज़ाद मुल्क का झंडा अपने अतीत की एक सर्वसमावेशी छवि, अहिंसा और करुणा के साथ अस्तित्व में आ रहा था. जवाहरलाल नेहरू भी सम्राट अशोक के धम्म और बुद्ध की सार्वकालिकता के प्रति अपने आपको समर्पित कर रहे थे. यदि आप इस दिन की संविधान सभा की कार्यवाही को देखें तो पाएंगे कि सदस्यों ने अपनी बात रखी, झंडे को लेकर अपना नज़रिया पेश किया और अंत में इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.
आज़ाद भारत में जवाहरलाल नेहरू ने वैज्ञानिक चेतना, अंतर्राष्ट्रीयतावाद, लोकतंत्र की पैरोकारी और गरीबों के कल्याण के लिए अपनी तरफ़ से कोई कसर न छोड़ी थी. उन्होंने मनुष्य की भौतिक उन्नति और उसके सुंदर मानस के निर्माण के लिए लगातार प्रयास किए. भारत के प्रथम आम चुनाव में उन्होंने न केवल कांग्रेस पार्टी के लिए जमकर वोट माँगा बल्कि लोगों को लोकतंत्र की महत्ता भी बताई. निःसंदेह 1952 के बाद नेहरू भारत में लोकतंत्र के सबसे बड़े व्याख्याता भी थे.
इस बीच महात्मा बुद्ध की 2500 वीं जयंती करीब आने लगी तो उन्होंने इसे भारत की युगों पुरानी सभ्यता के एक रूपक के रूप में पूरी दुनिया में पेश किया. बुद्ध भारत की विदेश नीति के महत्त्वपूर्ण शुभंकर बन गए. 1955-56 में उन्होंने दो काम किए. 1955 से ही राष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक तैयारी की गयी जिसमें नेहरू कैबिनेट के महत्त्वपूर्ण सदस्यों के साथ एस. राधाकृष्णन भी शामिल हुए थे. 1956 में ही उन्होंने ‘बुद्ध का रास्ता’ नामक एक अति महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिया. इस व्याख्यान में उन्होंने कहा :
“एक बम आने के बाद कई और बम पैदा होते हैं. यह निश्चित रूप से इस बीमारी का इलाज नहीं है. यदि आप इस सिद्धांत को व्यापक अर्थों में लागू करें, तो हम वापस गौतम बुद्ध के उपदेशों पर ही लौटेंगे. उन्होंने कहा था कि घृणा को घृणा से दूर नहीं किया जा सकता, केवल प्रेम और करुणा से ही इसे दूर किया जा सकता है.[16]
प्रधानमंत्री नेहरू ने बुद्ध की शिक्षा को न केवल भारत की ‘ऑफ़ीशियल फ़ॉरेन पॉलिसी’ की संरचना के अंदर ला रहे थे बल्कि वे बुद्ध को पूरी दुनिया की शांति के लिए आवश्यक भी मानते थे. अपने इसी व्याख्यान में उन्होंने भारत की विदेशनीति, पंचशील आदि की चर्चा की. उन्होंने कहा :
“इन दिनों पंचशील की ख़ूब चर्चा है. आप जानते ही होंगे कि इस शब्द की उत्पत्ति बौद्ध साहित्य से हुई है या शायद उससे भी पहले- मुझे नहीं पता. इसका उपयोग एक आचार संहिता के संदर्भ में किया गया था. आज हमने इसे अंतरराष्ट्रीय जामा पहना दिया है. लेकिन इसका अर्थ वही है, जो तब था. तब इसे व्यक्तियों पर पर लागू किया गया था. अब इसे राष्ट्रों के आचरण पर लागू किया जा रहा है. जैसा कि माननीय राष्ट्रपति ने बताया, इसे धीरे-धीरे कुछ अन्य देशों द्वारा स्वीकार किया जा रहा है. इसलिए नहीं कि हमने यह कहा है या किसी और ने कहा है, बल्कि इसलिए कि दुनिया के सामने कोई अन्य रास्ता नहीं बचा है. दुनिया में आए घातक हथियारों ने दुनिया से लचीलेपन को कम कर दिया है. कोई भी नहीं बता सकता कि आगे क्या होगा. पूरी दुनिया ही एक तरह से एक गुप्त खदान में तब्दील हो गई है.”
1950 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जब भारत अपनी एक स्वतंत्र पहचान बना रहा था, तब बुद्ध और उनके सिद्धांत भारत की विदेश नीति को आकार देने वाले प्रमुख तत्त्वों का निर्माण कर रहे थे. 1961 में शीतयुद्ध की औपचारिक शुरुआत से पहले ही, ‘द्वितीय विश्वयुद्ध की उपलब्धियों’ की छाया सोवियत संघ और अमेरिका की विश्व दृष्टि पर पड़ने लगी थी. उनके पास समृद्धि आयी थी, उसे अपने देशों की जनता के अधिकतम कल्याण में न प्रयुक्त करके वहाँ के राष्ट्राध्यक्ष अपनी महानता के आख्यान रचने को व्याकुल थे. महानता का यह स्वप्न उनके देशों के नागरिकों को अपनाने को भी कहा गया. इसके भुक्तभोगी अफ़्रीका और एशिया के नव-स्वतंत्र देश बन सकते थे, कुछ बने भी लेकिन भारत ने अपनी स्वतंत्र और सम्मानजनक राह चुनी.
इसी समय भारत अपने अंदरूनी मोर्चे पर निरक्षर लोगों का सबसे बड़ा समूह था. औसत आयु 32 वर्ष एवं 100 में 13 लोग शिक्षित. भारत कदम-दर-कदम ही उन्नति कर सकता था. पंचवर्षीय योजनाएँ इसी को ध्यान में रखकर बनायी गयी थीं. नेहरू ने अपने उपर्युक्त भाषण में कहा :
“आज दुनिया विनाश के कगार पर है, यदि हम प्रगति करना चाहते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि कोई भी राष्ट्र तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक वह एकजुट न हो. अंधविश्वासों और जादू-टोने में विश्वास न करता हो या बुरे मनसूबों के साथ ऊँचे सिद्धांतों का दावा न करता हो. हमें अपने पैरों पर खड़ा होना है और ज्योतिषियों पर निर्भर नहीं रहना है. गौतम बुद्ध ने हमें सिखाया है कि सच्ची उन्नति का मार्ग सम्यक ज्ञान, सम्यक कार्य, प्रेम और करुणा में निहित है.”[17]
इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण क्षण पर आकर बुद्ध की करुणा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण एकमेक हो जाते हैं.
(पाँच)
1956 में ही पूरे देश में बुद्ध की 2500 वीं जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गयी. कम से कम लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार और दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित अख़बारों की कतरनें और विभिन्न सरकारी दस्तावेज़ इसी की पुष्टि करते हैं. 24 मार्च 1955 की मंत्रिमंडल की इस संदर्भ में एक विशेष बैठक हुई. इस बैठक में जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यह देश के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर है और बुद्ध की गरिमा के अनुकूल कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए. इस बैठक में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, गोविन्द बल्लभ पंत, जगजीवन राम, सी. डी. देशमुख, सरदार स्वर्ण सिंह, राजकुमारी अमृत कौर, गुलजारीलाल नंदा, के. एन. काटजू और लाल बहादुर शास्त्री मौजूद थे.
इस बात का ध्यान रखा गया था कि बुद्ध से संबंधित जो भी स्थल पूरे भारत में मौजूद हैं, वे छूट न जाएँ और न ही उन प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को लगे कि उनको विश्वास में नहीं लिया गया है. प्रांतों के मुख्यमंत्री भी इस बृहत योजना में शामिल किए गए. बोधगया, बराबर की गुफाएँ, साँची, राजगीर, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकिसा और नालंदा जैसे स्थलों के जीर्णोद्धार और सुंदरीकरण के लिए 63,68,600 रूपये की एक बड़ी धनराशि मंजूर की गयी.[18]
यह कार्यक्रम भारत सरकार कर रही थी और इसमें बनारस की महाबोधि सोसाइटी बहुत ही सक्रिय रूप से शामिल थी और सारनाथ से संबंधित कामकाज में संयोजक की भी भूमिका में थी, तो उसी समय बनारस के एक सनातनी संत ने इसका विरोध किया और कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है और सरकार को अपना कदम वापस ले लेना चाहिए. इस आशय की एक अर्ज़ी भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पास भी भेजी गयी थी. लेकिन इस पर कोई ख़ास तवज़्ज़ोह नहीं दी गयी.[19]
यह एक ऐसा कार्यक्रम था जिसमें न केवल पूरे देश के बल्कि विदेशों के बौद्ध भिक्षु रुचि ले रहे थे. बुद्ध के संदेशों के अनुरूप कहा गया था कि इसके समारोहों में सभी धर्म, जाति और विश्वासों के लोग शामिल हो. राजगीर के बौद्ध मंदिर के बौद्ध भिक्षु ग्यात्सो तासु ने इस आशय का एक संदेश भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा था.[20]
बर्मा, सीलोन, थाईलैंड, कम्बोडिया, लाओस, कोरिया, वियतनाम के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता भेजा गया. दलाई लामा तो थे ही. वास्तव में यह ऐसा समय था जब भारत धर्मनिरपेक्ष होने का प्रयास कर रहा था और उसी के साथ धर्म के सकारात्मक पक्ष को भी आगे बढ़ा रहा था. रंगनाथ दिवाकर और भिक्षु जगदीश काश्यप ने वैशाली और बिहार के आसपास के स्थलों को इन कार्यक्रमों के अंदर समाहित करने का अनुरोध भारत के राष्ट्रपति से किया. ऐसे ही अनुरोध देश के दूसरे हिस्सों से भी आए. यह बताता है कि 1950 के दशक में भारत के ‘बौद्ध अतीत‘ के प्रति एक सम्मान भाव अपने उरूज़ पर था.[21]
आज इस तरह की हज़ार बातें की जा रही हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि जवाहरलाल नेहरू ‘धर्म विरुद्ध’ रहते थे और उन्होंने भारत के धर्मों के प्रति हेय दृष्टिकोण अपना रखा था तो हमें अपने अतीत के इन पृष्ठों पर रौशनी डालनी चाहिए और युवा पीढ़ी को बताना चाहिए कि अपनी शुरुआत से ही आज़ाद भारत ने धर्म की एक प्रगतिशील, शांतिपूर्ण और करुणा आधारित भूमिका को बढ़ावा दिया है. उसे और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है.
संदर्भ
[1]https://www.constitutionofindia.net/historical-constitution/declaration-of-purna-swaraj-indian-national-congress-1930/
[2] फॉरेन डिपार्टमेंट, एक्सटर्नल बी, प्रोसीडिंग्स फरवरी 1898, नंबर 89-95, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली
[3] एम. के गाँधी(2018), एन ऑटोबायोग्राफी ऑर द स्टोरी ऑफ़ माई एक्सपेरीमेंट्स विथ ट्रूथ, इंट्रोड्यूस्ड विथ नोट्स बाई त्रिदिप सुहृद, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 147 एवं 275.
[4] कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी का खंड 95 विशेष तौर से द्रष्टव्य है.
[5] कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गाँधी(1971), खंड 48, पब्लिकेशंस डिवीज़न, अहमदाबाद, पृष्ठ 58.
[6] रुद्रांग्शु मुखर्ज़ी(2021), टैगोर एंड गाँधी : वाकिंग अलोन, वाकिंग टुगेदर, अलेफ़, नई दिल्ली, पृष्ठ 58.
[7] बी. आर. अंबेडकर (2019), डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज , वोल्यूम 3, डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 462.
[8] बी. आर. अंबेडकर (2019), डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज , वोल्यूम 11, डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 297.
[9] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू(1972), सीरीज 1, वॉल्यूम 3 , जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, नई दिल्ली, पृष्ठ 196.
[10] जवाहरलाल नेहरू(1934), ग्लिम्पसेज़ ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री, एशिया पब्लिशिंग हाउस, न्यू यॉर्क, पृष्ठ 36.
|[11] जवाहरलाल नेहरू(1934), पृष्ठ 65-66.
[12] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू(1972), सीरीज 1, वॉल्यूम 1, जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, नई दिल्ली, पृष्ठ 283-312.
[13] जवाहरलाल नेहरू(2010), द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया, पेंगुइन बुक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 132.
[14] जवाहरलाल नेहरू(2010), पृष्ठ 132.
[15] भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट(2014), लोक सभा सचिवालय, नई दिल्ली, 22 जुलाई 1947 को दिया गया जवाहरलाल नेहरू का भाषण, पृष्ठ 7.
[16] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू(2004), सीरीज 2, वॉल्यूम 33, जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, नई दिल्ली, पृष्ठ 20-24.
[17] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू(2004), सीरीज 2, वॉल्यूम 33, जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, नई दिल्ली, पृष्ठ 20-24.
[18] 2550 बर्थ डे ऑफ़ लॉर्ड बुद्धा, फ़ाइल नंबर 43-जी/55, प्रेसिडेंट सेक्रेट्रीयेट, जनरल ब्रांच, वर्ष 1955, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली
[19] वही.
[20] वही.
[21] वही.
रमाशंकर सिंह डॉ. बी. आर. अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के देशिक सेंटर में काम करते हैं. उन्होंने 2022 में ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी’ नामक किताब लिखी है, ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया’ के लिए उत्तर प्रदेश की भाषाओं पर बद्री नारायण के साथ सम्पादन का काम किया है, ओरियंट ब्लैकस्वान, 2022. 2023 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के लेखन से एक चुनिंदा संचयन लोकभारती प्रकाशन के लिए सम्पादित किया है और उत्तर भारत के घुमंतू समुदायों पर उनका एक बृहद काम आने वाला है.
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शानदार लेख, सम्यक ज्ञान, सम्यक कार्य, प्रेम और करुणा की ज़रूरत आज भी है.
यह महत्वपूर्ण लेख है। पढ़ ही रहा था कि अचानक समाप्त हो गया। विस्तार की गुंजाइश बनती है। आशा है,रमाशंकर जी गौर करेंगे।
वैज्ञानिक दृष्टि और करुणा के बोध से उपजा यह निबंध भारत के स्वत्व का भरपूर अभिज्ञान कराता है।
नेहरू के सार्वजनिक और वैचारिक जीवन पर बुद्ध के विचारों और दर्शन की आवाजाही को अकादमिक तरह से सामने लाने वाला यह अनूठा लेख है.
सम्यक शोध के बाद लिखा गया सम्यक लेख …
आपके लिखे को पढ़ना हर बार ज्ञानात्मक संवेदन की ओर जाने जैसा है….
अति सुन्दर प्रस्तुति।किंतु नेहरू जी सहित बुद्ध के तमाम अनुयायी युद्ध को झेल नहीं सके।नेहरू प्रतिपादित पंचशील घोषणा की स्याही ठीक से सूखी नहीं कि दुष्ट चीन भारत पर चढ़ आया।फिर उस युद्ध में हमारी जो दुर्गति हुई,वह जगजाहिर है।बुद्ध जरूरी हैं लेकिन युद्ध की तैयारी भी रहनी चाहिए।