वारसा डायरी
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“’वारसा डायरी’ एक अलग तरह की रोजनिशि या दैनंदिनी है जहाँ दिनों और रातों के लंबे-लंबे अंतराल हैं, अनेक महादेशों और महासागरों के फाँक हैं, बचपन से लेकर अब तक के मनके हैं और इन सब को भीगे नयनों से देखता एक ज्ञान-पुरुष है.”
अरुण कमल
“अच्छे लोगों को आजमाने की कोशिश न करना.
अच्छे लोगों की मिसाल हीरे जैसी है.
जब तुम उन्हें ठोकर मारोगे तो वे टूटेंगे नहीं, फिसलकर तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चले जाएंगे.”
हज़रत उमर फ़ारूक़
(वारसा डायरी, पृष्ठ. 226 पर उद्धृत)
भारत सरकार का विदेश मंत्रालय ‘भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्’ के माध्यम से विश्व के कई बड़े विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं के साहित्य एवं भारतीय संस्कृति तथा समाज विज्ञान आदि के शिक्षण के माध्यम से दुनिया के अकादमिक जगत में भारत की उपस्थिति बरकरार रखने के लिए विश्वविद्यालय के शिक्षकों को विदेशी विश्वविद्यालयों में स्थापित ‘चेयर’ पर प्रतिनियुक्त करता है. इसी क्रम में रवि रंजन ने तीन वर्षों तक चीन के सुप्रसिद्ध पेकिंग विश्वविद्यालय के ‘भारतीय अध्ययन केंद्र’ में और तीन वर्ष वारसा विश्वविद्यालय, पोलैंड के ‘दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र’ में बतौर विजिटिंग प्रोफ़ेसर कार्य किया है.
रवि रंजन पेशे से हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर तथा पुरानी पीढ़ी के प्रख्यात समालोचकों के बाद हिन्दी कविता के विवेचन-विश्लेषण में साहित्य की समाजशास्त्रीय पद्धति का विवेकसम्मत अनुप्रयोग करने वाले कुछ गिनेचुने समकालीन मर्मी आलोचकों में एक हैं.
जायसी, प्रसाद, निराला, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, कात्यायनी, अनामिका आदि पर लिखे उनके छोटे-बड़े आलेख से लेकर हाल में रंजना मिश्र के कविता संग्रह की मीमांसा करते हुए ‘समालोचन’ में प्रकाशित उनका लम्बा निबंध इसका प्रमाण है.
उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, मलयज, नामवर सिंह, बच्चन सिंह, नित्यानंद तिवारी, मैनेजर पाण्डेय, दलित चिन्तक और अनुवादक सूर्यनारायण रणसुभे सरीखे हिन्दी के कुछ बड़े आलोचकों के अलावा प्रेमचन्द, रेणु, श्रीलाल शुक्ल तथा ‘भक्तिकाव्य का समाजशास्त्र और पदमावत’ के साथ ही ‘लोकप्रिय कविता का समाजशास्त्र’ पर भी लिखा है.
‘वारसा डायरी’(2022) उनके वारसा-प्रवास के दौरान लिखी हुई डायरी है. डायरी में बक़ायदे तिथियाँ और प्रसंग दिए हुए हैं, जो इसे डायरी विधा के खांचे में रखने के लिए पर्याप्त हैं. किन्तु, डायरी के कलेवर में यह पुस्तक लेखक के अपने गाँव-जवार की स्मृति, भारतीय एवं विदेशी उच्चशिक्षा-व्यवस्था की खूबी और ख़ामी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी के साथ ही पोलिश कविताओं में उनकी गहरी दिलचस्पी, साहित्य और खासकर कविता के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में उनकी रुचि, भारत समेत संसार के अनेक महान दार्शनिकों एवं विचारकों के बारे में उनके ज्ञान, यूरोप समेत चीन तथा दक्षिण एशिया की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों को लेकर उनकी चिंता के अलावा अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध एवं कूटनीति पर उनकी पैनी नज़र को एक साथ समेटे हुए है.
उदाहरण के लिए मई 2, 2017 को कश्मीर मुद्दे पर तुर्की के राष्ट्रपति की अनावश्यक बयानबाजी का विरोध डायरी में इस तरह दर्ज़ किया गया है:
“लगभग पंद्रह लाख ईसाइयों के नरसंहार के आरोपी तुर्की जैसे देश और साइप्रश के एक तिहाई हिस्से पर जबरन कब्ज़ा जमाए बैठे तुर्की के वर्त्तमान राष्ट्रपति अर्दोगान के नेतृत्व में मुस्तफ़ा अतातुर्क कमाल के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र को कट्टरता के रास्ते पर लगभग धकेल दिया गया है. भारतीय उपराष्ट्रपति महामहिम हामिद अंसारी की हाल की आर्मीनिया यात्रा से हकबकाए ऐसे राजनेता का कश्मीर समस्या पर भारत को उपदेश देना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है.”
(वारसा डायरी,पृष्ठ.164)
पुस्तक के ब्लर्ब में अरुण कमल ने लिखा है कि
“इस पुस्तक को पढ़ते हुए मैंने जब जगमग करते उद्धरणों को अपनी डायरी में उतारना शुरू किया तो देखा कि वह आधी से अधिक भर चुकी है. इन उद्धरणों से लेखक के विशद अध्ययन और स्मृति-कोष का अनुमान तो होता ही है, साथ ही साथ लगभग नि:शस्त्र कर देने वाली उस भाव-विधि का क़ायल होना पड़ता है जो अहं पूर्वक स्वयं सब कुछ न कहकर दूसरों के माध्यम का सहारा लेती है. रवि जी ने प्राचीन यूनानी दार्शनिकों से लेकर नवीनतम कवियों तक के किंचित लम्बे उद्धरण पिरोये हैं जो न केवल कथ्य को दृढ़ करते हैं बल्कि उसे एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य भी देते हैं और लगता है कि यह केवल एक व्यक्ति की डायरी नहीं है वरन् अन्य स्वर भी वृन्दगान सा वातावरण निर्मित कर रहे हैं.”
डायरी की ‘भूमिका’ से स्पष्ट हो जाता है कि योरोप में रहने के बावजूद रवि रंजन सूचना-तकनीक के विभिन्न माध्यमों की बदौलत भारत और विशेषकर कश्मीर से लेकर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय समेत तमाम भारतीय विश्वविद्यालयों के विभिन्न परिसरों की हलचलों से पूरी तरह बाख़बर रहे हैं- ‘जैसे काक जहाज को सूझत और न ठौर’.
उन्होंने लिखा है:
“दूतावास द्वारा आयोजित विभिन्न सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करते हुए मैं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कुछ प्रमुख राजनयिकों के नज़रिए से भी परिचित हुआ. स्पष्ट ही बुद्धिजीवियों से अलग ही नहीं,बल्कि कई बार विपरीत राय रखनेवाले हमारे राजनयिक भारत की विदेश नीति के तहत अपने दृष्टिकोण को ढाल लेने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं.
उनसे भिन्न एक शिक्षक के रूप में मेरा साबका चीन और पोलैंड की युवा पीढ़ी से पड़ा, जो हर मामले को अपनी सरकार के बजाए अपनी निजी दृष्टि से देखने और जानने की हामी थी. वे भारत के साथ अपने देशों के व्यापारिक एवं राजनीतिक संबंधों के दायरे से बाहर आकर भारत की आत्मा के अन्वेषी प्रतीत हुए. प्रेमचन्द के ‘गोदान’ के होरी में अपने पिता की छवि ढूँढ़ने वाली काताजिना और निर्मल वर्मा के ‘परिंदे’ की लतिका से अपनी बड़ी बहन का मिलान करने वाली एक अन्य छात्रा को भारत की विदेश नीति के बारे कुछ ख़ास पता नहीं था, पर उन विद्यार्थियों का भारत-प्रेम अभिभूत करने वाला था.
इस बार प्रति नियुक्ति के दौरान ख़ास बात यह रही कि पिछले एक दशक में सूचना तकनीक के अपरिमित विस्तार के चलते भारत से बाहर रहने के बावजूद मैं भारत से पल प्रतिपल जुड़ा रहा. मेरे वारसा रहते भारतीय विश्वविद्यालयों की बद से बदतर होती स्थिति, कश्मीर घाटी में नए सिरे से आतकंवाद और अलगाववाद का उभार और भारत-पाक संबंधों में बढ़ते तनाव ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया. सच तो यह है कि आतंकवादी संगठन ‘हिजबुल मुजाहिदीन’ के सरगना बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से आजतक घाटी से खैर की ख़बर कम ही आयी है:
मैं ये किसके नाम लिखूँ जो ये लब गुज़र रहे हैं
मेरे शहर जल रहे हैं मेरे लोग मर रहे हैं
कोई और तो नहीं है पसेखंज़रआजमाई
हमीं क़त्ल हो रहे हैं हमीं क़त्ल कर रहे हैं.
इसलिए डायरी में इन सब पर जो टिप्पणियाँ हैं उनमें दुहराव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.”
(भूमिका)
२) |
‘वारसा डायरी’ में संस्कृत, हिन्दी और उर्दू के जिन महान तथा उल्लेखनीय कवियों की रचनाएँ यथास्थान उद्धृत हैं उनमें वैदिक ऋचाओं और ख़ास तौर से शमशेर की सुप्रसिद्ध ‘उषा’ कविता के प्रसंग में मुजफ्फरपुर के कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह के हवाले से उद्धृत ऋग्वेद की ‘उषा स्तुति’ हमारा ध्यान खींचती है, जिसका उल्लेख हिन्दी के किसी आलोचना ग्रन्थ में नहीं मिलता:
उषो देव्यमर्त्या वि भाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती।
आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां पृथुपाजसो ये।। (03.061.02)
(उषा देवि ! आओ ! इस मर्त्य जगत को अपने आलोक से आलोकित करो. तुम चन्द्रमा के रथ पर सवार होकर आओ जिसमें सूर्य की किरणों के अश्व जुते हों. तुम्हारा रंग स्वर्णिम (हिरण्य) है.)
इसके अलावा पुस्तक में वाल्मीकि, व्यास, भर्तृहरि, भवभूति, कालिदास, निराला, मुक्तिबोध, दिनकर, अज्ञेय, जानकीवल्लभ शास्त्री, कुंवर नारायण, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, शमशेर, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, राजेश जोशी, नरेन्द्र जैन, मंगलेश डबराल, जाबिर हुसैन, सत्यपाल सहगल, असद ज़ैदी, कुमार अम्बुज, स्वप्निल श्रीवास्तव, कात्यायनी, अनामिका, कृष्ण कल्पित, अरुण देव आदि शामिल हैं. इस दृष्टि से यह पुस्तक कविता की एक ‘गोल्डन ट्रेजरी’ भी कही जा सकती है.
उर्दू के कालजयी कवियों में मीर, ग़ालिब, फैज़ के साथ ही इक़बाल को बार-बार उद्धृत किया गया है, जिन्होंने दुनिया में फटकार कर सच बोलने वालों की नियति के बारे में लिखा है:
जाहिद-ए-तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं.
इकबाल की यह बात डायरी लेखक की माध्यम मार्गी सामाजिक-राजनीतिक रुझान के चलते उस पर भी लागू होती है, क्योंकि वह ‘मायोपिक’ दृष्टिदोष से पीड़ित वामपंथियों को दक्षिणपंथी और दक्षिणपंथियों को वामपंथी प्रतीत हो सकता है. इसका अंदाजा ख़ुद लेखक को भी है. उसने लिखा है:
“अतिवादी या चरमपंथी केवल वही नहीं होता, जो डंडे या तमंचे के बल पर सबसे अपनी बात मनवाने के लिए ज़बरदस्ती करता है. सच तो यह है कि वे लोग भी अतिवादी हैं जो खुद से असहमत लोगों को बोलने नहीं देते या बर्दाश्त नहीं कर पाते… है. अपने विरोधियों को हिटलर या स्टालिन कहने का चलन अब आम हो गया है और कई बार वे लोग भी अब ‘गोयबल्स वाली करतूत’ करते पाए जाते हैं, जो दूसरों को हिटलर की उपाधि से नवाज़ते नहीं थकते. इस क्रम में जिस विवादास्पद पारिभाषिक शब्द का सबसे अधिक दुरुपयोग होता रहा है वह है- ‘विचारधारा’, जिसे खुद मार्क्स ने मिथ्याचेतना कहा है. इसी प्रकार राष्ट्रवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सेक्युलरवाद, लोकतंत्र आदि को लेकर मीडिया पर जो वाक् युद्ध होता रहा है उनमें गंभीरता और अपेक्षित संतुलन के बजाए एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने की ज़िद ज्यादा दिखाई देती है. ऐसे में सुकरात के एक कथन की याद न आए,यह मुमकिन नहीं: ‘एथेंस का पतन हो रहा है क्योंकि शब्द अपना अर्थ खो रहे हैं.”
(भूमिका)
अपने शहर मुज़फ्फ़रपुर और हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में और उसके बाद हैदाबाद विश्वविद्यालय में ही युवा प्राध्यापक तथा बाद में प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष के रूप में डायरी लेखक का जिन रचनाकारों एवं आलोचकों से यथासमय सम्पर्क रहा, उनमें से कुछ लेखकों के अंतर्विरोधों का उसने पूरी शालीनता के साथ उल्लेख किया है. उनमें अपने गुरु आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ ही प्रोफ़ेसर नामवर सिंह और कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी प्रमुख हैं. इन प्रसंगों को मूल पुस्तक में ही पढ़ना ठीक होगा.
इस बिंदु की ओर अरुण कमल ने भी इशारा करते हुए लिखा है:
“‘वारसा डायरी’ केवल वारसा या पोलैंड के सफ़र या अनुभवों तक सीमित नहीं है, न ही यह कोई संस्मरणों का इतिवृत्त है, बल्कि यह इस विचारक के समस्त अनुभवों, अध्ययन तथा विभिन्न विषयों पर समय-समय पर स्फूर्त विचारों का स्तवक है जिसमें असावधान पाठक को कदाचित कभी काँटें भी लग जाएँ क्योंकि लेखक की ईमानदारी और स्पष्टवादिता कुछ भी, किसी का भी उधार नहीं रखती… रवि जी अपने लेखकों कवियों का कितना सम्मान करते हैं,प्यार करते हैं, यह आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री और राजेन्द्र प्रसाद सिंह के मर्मस्पर्शी प्रसंगों से समझा जा सकता है. कविता की पंक्तियाँ हमेशा टेक या पतवार का काम करती हैं. रवि जी लगातार इनका व्यवहार करते हुए चलते हैं. इस क्रम में साहित्य संबंधी,और कई बार साहित्यकार संबंधी,उनके मंतव्य भी प्रकाशमान होते हैं. हो सकता है कि साहित्यकार संबंधी उनके कुछ मंतव्य हमें नागवार या अयाचित लगें,पर लेखक अपने प्रति दृढ़निष्ठ है.”
अपने ख़ास अंदाज़ में इसका औचित्य प्रतिपादित करते हुए रवि रंजन कहते हैं:
“संसार के बड़े से बड़े आदमी में भी कुछ कमजोरियाँ ज़रूर होती हैं. देवताओं से हम इसलिए भी भिन्न हैं क्योंकि उनमें मानवीय दुर्बलताएँ नहीं पायी जाती. देवता मिथक हैं, वास्तविकता नहीं. जाहिर है कि बड़े लोगों के अंतर्विरोध भी बड़े होते है और उनके विचलन की छाप बाद की पीढ़ी को भी जाने-अनजाने एक हद तक अवश्य प्रभावित करती है. इसलिए प्रसंगवश उन्हें उजागर करना लेखकीय नैतिकता का तकाजा भी है,जिसे कम से कम साहित्य के लोकतंत्र में बर्दाश्त किया जाना चाहिए.”
(भूमिका)
यात्रा का अभिप्राय है गतिशीलता. एक स्थान से दूसरे स्थान तक आना-जाना. गतिशीलता और विस्थापन, जिसमें दूसरे लोग और समुदाय शामिल हों. निष्कासन, विस्थापन और पुनर्स्थापन की प्रकिया में भी यात्राएं सम्पन्न होती हैं, यानी यात्राएँ ऐच्छिक भी हो सकती हैं और अनैच्छिक भी. तीर्थयात्राएँ संस्कृति के इतिहास की सबसे आदि यात्राएँ हैं, जहाँ अपना आध्यात्मिक स्पेस खोजने की कोशिश में यात्राएँ की जाती रही हैं.
मनुष्य ने सबसे पहले आजीविका कमाने और अपने कबीलों के क्षेत्र -विस्तार के लिए समुदायों और समूहों में यात्राएँ की होंगी. यात्रा को यदि ध्यान देकर देखें तो इसके दो रूप दिखाई देते हैं- सोद्देश्य और निरुद्देश्य. किसी विशेष एजेंडे को ध्यान में रखकर की गयीं यात्राओं का प्राचीनतम रूप तीर्थयात्रा है. राजनयिक यात्राएँ, किसी भौगोलिक खोज की दृष्टि से की गयी यात्रा,सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृष्टि से की गयी यात्राएँ सोद्देश्य यात्राएँ होती हैं, इसके विपरीत गंतव्य की जानकारी के बगैर या रोमांच के अनुभवों के लिए की गयीं यात्राएँ निरुद्देश्य होती हैं, कई बार निरुद्देश्य यात्राओं की सोद्देश्यता बाद में प्रमाणित होती है. हिन्दुस्तान में यात्रा डायरियों और वृतांत के लेखन की सुदीर्घ परंपरा रही है, जिसका प्रारंभ सत्रहवीं शती से माना जाता है. आदि यात्रा वृतांत के तौर पर प्राकृत में लिखे ‘वसुदेव हिन्डी’ की पहचान की गयी है जिसमें एक कथा के भीतर से अनेक कथाएँ, अनेक वर्णन निकलते जाते हैं (सन्दर्भ- भोलाभाई पटेल, भारतीय उपन्यास परंपरा,पृष्ठ 7 ‘वसुदेव–हिन्डी’ में प्राकृत ‘हिन्ड’ का अर्थ है चलना,परिभ्रमण करना. इस ग्रन्थ में वसुदेव ने अपने परिभ्रमणों की कथाएं कही हैं.”)
आधुनिक काल में रवीन्द्रनाथ टैगोर को यात्रा-वृत्त लिखने के लिए प्रमुखता से जाना गया क्योंकि उनके यात्रावृत्तों का वैशिष्ट्य था- दक्षिण से पूर्व, पूर्व से पश्चिम जाकर विभिन्न अपरिचित संस्कृतियों को परस्पर जोड़ना, उनके बीच पुल बनाना. यात्रा-वृत्तांत लिखकर टैगोर एक ‘विश्व मानव’ बन जाते हैं. वे एक देश एक समाज में खड़े होकर ज्यों उस पार के देश, उसके सामाजिक सम्बन्ध, राजनीतिक जटिलताओं, सांस्कृतिक विशेषताओं को अपनी आँख से देखकर एक अनजान जगह को अपने देशवासियों के समक्ष मूर्त कर देते हैं. इस प्रक्रिया में अनदेखे लोग, अपरिचित संस्कृति, ओझल रह आई प्रकृति से पाठक तादात्म्य स्थापित कर लेता है और वह लेखक के साथ-साथ यात्रा पर चल देता है. इसके साथ-साथ रचनाकार अपने आत्म की खोज भी करता दीखता है. प्रवास-डायरी लेखन बेहद ईमानदार आँख और गहरे उत्तरदायित्व -बोध की मांग करता है, जिसके अभाव में डायरी न सिर्फ ग़लतफ़हमी पैदा कर सकती है, बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सकारात्मक के बजाय नकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अभिशप्त हो सकती है. इस वजह से ‘भारतीय विदेश सेवा’ के तहत प्रतिनियुक्त व्यक्ति केवल अपनी मन मर्जी से वह सबकुछ नहीं लिख सकता जो उसने महसूस किया हो. यह अलग बात है कि सारे प्रतिनियुक्त प्रोफ़ेसर लेखक भी हों, यह ज़रूरी नहीं. अधिकांश अपने शिक्षण सम्बन्धी न्यूनतम दायित्व का निर्वाह करके सपरिवार घूम-घामकर हँसी खुशी लौट आते हैं: ‘मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ.’
3) |
‘वारसा डायरी’ रोजनामचा नहीं है. इसमें जिन तिथियों को टीपें लिखी गयी हैं उनमें बहुत निरंतरता ढूँढने से निराशा हाथ लगेगी, लेकिन डायरी को पढ़े जाने का इसरार इसके शुरुआती पन्ने ही करने लगते हैं, ज्यों कोई हाथ पकड़कर आपको व्यक्तिगत अनुभवों, निजी पसंद-नापसंद ,वैचारिक उद्वेगों के सम्प्रेषण के लिए व्याकुल होकर अपने संग लिए जा रहा हो.
मनुष्य का सामाजिक अस्तित्व और बौद्धिक आग्रह उसे निरंतर दरेरा देकर रचनाशील बनाते हैं. प्रस्तुत डायरी इसका जीवंत प्रमाण हैं. इसमें हैदराबाद से वारसा की लगभग साढ़े छह हज़ार किलोमीटर की दूरी को पाटने के काव्यात्मक -रचनात्मक प्रयास किये गए हैं. अपने माहौल और देश से दूर जाकर लम्बा अस्थायी प्रवास किसी के लिए भी बोझिल हो सकता है यदि उसके पास अपना कहने को कोई न हो. डायरी में स्मृतियाँ और सूचनाएँ आत्मीय जन की भूमिका निभाती हैं. लेखक का अपना व्यक्तित्व बड़े विद्वानों की सोहबत से प्राप्त ज्ञान और अपने देश और दुनिया की समसामयिक महत्त्वपूर्ण हलचलों के प्रति जागरूकता के साथ उसकी अपनी संवेदना के सम्मिश्रण से बना है. जिसे हम ‘ट्रांफेरेंस ऑफ़ इमोशंस’ कहते हैं, उसे रविरंजन जी ने व्यवहार में उतार लिया है. वे तकनीक का जिस तरह से रचनात्मक प्रयोग करते हैं, उसे अपना साथी-मित्र आत्मीय बना लेते हैं. खूब जागरूक होकर देश-दुनिया की हलचलों का विश्लेषण करते हैं. अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत की राजनयिक स्थिति के विश्लेषण का अवकाश उन्हें इस प्रवास ने दिया है. डायरी में अपने पड़ोसी देश को लेकर वे कई जगह तीखी टिप्पणी दर्ज़ करते हैं, पर उसे भारतीय राजनीतिक गतिकी से जोड़ना नहीं भूलते:
“दो क़ौमी नज़रिए के तहत पाकिस्तान के निर्माण की बुनियाद ही हिन्दुओं से नफ़रत की ज़मीन पर क़ायम है. इसे क़ायम रखने और बढ़ाने में क्रमश: पाकिस्तान के आज भी हज़ारों एकड़ ज़मीन के मालिक ज़मींदार-ताल्लुकेदार प्रभुवर्ग और फौज के निहित स्वार्थ हैं. जाहिर है कि भारत में भी चुनावी खेल में विपक्षी दलों को पछाड़ने के लिए पाकिस्तान-विरोध का राजनीतिक इस्तेमाल होता रहा है और यह कार्य सबसे ज्यादा कांग्रेस और वह भी इन्दिरा जी के शासन काल में हुआ है. पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वह कोई स्टेट नहीं बल्कि ‘स्टेट आफ माइंड’ है.”
(पृष्ठ 218)
यात्रा-डायरी लिखना दोहरा संवाद है– संभावित पाठक से और अपने आप से भी. नए देश, नए शहर, नए परिवेश में डायरी कैसे संवादरत मित्र की भूमिका में उतर जाती है इसे देखने के लिए रविरंजन जी की ‘वारसा डायरी’ को पढ़ा जाना चाहिए. उन्होंने एशिया से लेकर यूरोपीय देशों के अनेक यात्राएँ की हैं, लेकिन सभी यात्राओं को पाठक तक संप्रेषित करने की महत्वाकांक्षा नहीं पाली. युवावस्था से लेकर प्रौढ़ता की ‘दुरभिसंधि’ पर की गयी पोलैंड यात्रा एक ऐसे सह्रदय की आत्मा का प्रत्याख्यान हैं जो डायरी के पन्नों पर बिखरी हुई हैं. वयस्क होने के बाद भावनाओं के थिरा जाने पर अतिरिक्त उत्साह संभवत: कम बचा रहता है. यह डायरी भी बेहद सहजता से बताती है कि हम हर क्षण पुनर्जीवित होते चलते हैं और पुनर्नवा होते हैं, लेकिन इस पुनर्जीवन के निशान इतने हलके होते हैं कि ज़िन्दगी की आपा-धापी में जब सभी जगहों, मनुष्यों, संबंधों को जीवंत स्मृति का हिस्सा बना पाना संभव नहीं होता. तब डायरी बचपन के छूटे बन्धु की तरह अपने अंकवार में भर लेती है और पता ही नहीं चलता कि अनजाने देश, अपरिचित भाषा और लगभग अमित्र माहौल में न्यस्त तटस्थता के साथ अपने गाँव, गृहनगर, देश, राजनीति, समाज और उससे जुड़े तमाम सन्दर्भ मानसिक खालीपन को रचनात्मक आवेग से भर देते हैं.
युद्धोत्तर यूरोप का देश पोलैंड जिसकी आर्थिक राजनीतिक स्थिति तनावपूर्ण रही चली आई है, जिस देश के सीने पर नस्लभेद, आर्थिक मंदी के निशान गहरी खरोचों में खुब गए हैं, वह जी पाया है तो अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से उपजे स्वाभिमान के बल पर. भारतीय साहित्य और संस्कृति का अध्यापन करने वाले शिक्षक के लिए पोलैंड के सहज नैसर्गिक सौन्दर्य का रस ग्रहण कर, कुछ घूम-घाम कर भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् के दाय को निबाह कर भारत लौट आना ही दुनियादारी की दृष्टि से सहज होता, लेकिन क्या जल के सहज प्रवाह के साथ बह जाना ही जीवन है, उस प्रवाह के विपरीत तैरकर भी तो तट तक पहुंचा जा सकता है, भले वह अब तक अदेखा ही रह आया हो. उसी विपरीत प्रवाह में मुड़कर देखने पर दिखाई पड़ते हैं अनेकानेक दृश्य जो देखने में अलग- थलग लगें लेकिन जिनके भीतर की आंतरिक सघनता रचनाकार की बौद्धिकता, स्मृति और भीतर पैठी भारतीय परंपरा की गहरी जड़ों से पाठक का परिचय कराती चलती है. दूसरे देश की धरती से अपने देश की माटी की सुगंध को चीन्हने की चाह प्रदान करती है. विदेशी भूमि पर खड़े होकर वह अपने देश और दुनिया को देखने के नज़रिए में बदलाव पाता है. पोलैंड में रहकर बिहार के छठ-पर्व के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करते हुए नवम्बर 20 ,2015 को अपनी डायरी में दर्ज करता है–
“शरीर से वारसा में हूँ, पर मन भारत में ही है- हैदराबाद के बजाय अपने गृहनगर मुजफ्फरपुर में और ननिहाल सोनपुर में– ‘जैसे उड़ी जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै.’ भारत में यह ‘आस्था का महापर्व’ कहे जाने वाले ‘छठ व्रत’ का समय है. इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीतों की कुछ पंक्तियों से मन ही मन गुज़रते हुए ‘देहात और शहर (The Country and the City) पुस्तक में रेमण्ड विलियम्स द्वारा इंग्लैण्ड के ग्राम-गीतों के विवेचन-विश्लेषण की याद न आए, यह मुमकिन नहीं. कहना न होगा कि पर्व-त्यौहार के अवसर पर गाये जानेवाले लोकगीतों में जनसमुदाय की आत्मा की चीख प्रतिध्वनित होती है. एक गीत हमेशा मन में गूंजता-सा रहता है-
‘घाट मोरा छेकले घटवहवा लोगवा अउरो सिपहिया लोगवा हे
छठी मैया दौड़ीया भर छेकेले जगदीश पुत्र औरो से जानकी बेटी हे.’
लोकगीत के इस छोटे से टुकड़े में पर्व-त्यौहार के अवसर पर भी सामंतों एवं नौकरशाहों के वर्चस्व को प्रश्नांकित किया गया है. यहाँ ‘घटवहवा’ नदी के आसपास के गाँवों के जमींदारों के कारिंदे हैं और सिपाही उच्चाधिकारियों के अलमबरदार, जो अपने मालिक-महाजन और ‘साहब’ के हित में महापर्व के मौक़े पर भी प्राय: क्रूरता बरतने में नहीं हिचकते. इसलिए उन श्रीमंतों के परिवार के लिए वे नदी या तालाब के किनारे समतल और साफ़-सुथरी जगह को छठ पूजास्थल के तौर पर दबंगई से ‘छेक’ लेते हैं और आम लोगों को भगवान के दरबार में भी अपने ही समाज के दबंगों से दबना पड़ता है. गौरतलब है कि मुख्यत: सूर्यनारायण की अर्चना -आराधना को लेकर मनाए जाने वाले इस महापर्व में गाए जानेवाले लोकगीत की इन पंक्तियों में भगवान सूर्य के बजाए आम आदमी ‘छठी माता’ के सामने अपनी व्यथा-कथा गा रहा है.
मार्क्स ने ठीक ही धर्मं को केवल अफीम ही नहीं,बल्कि ‘पीड़ित प्राणियों की आह’ और ‘हृदयहीन दुनिया का ह्रदय’ भी कहा है.”
(वारसा डायरी, पृष्ठ 14)
इसी तरह कथाकार उषाकिरण खान से जुड़े एक प्रसंग में उन्हें अपने बचपन का गाँव याद हो आता है –
“मुजफ्फरपुर से पिताजी और अम्मा के साथ हम भाई-बहन बस में गाँव गए थे. हमारे गाँव के बस स्टाप का नाम है ‘सौतिनिया इंडा’. संभवतः वहां दो सौतनों ने परस्पर प्रतिस्पर्धा में दो कुएँ आसपास बनवाये होंगें. वहां से घर जाने के लिए हम जिस बैलगाड़ी में सवार हुए वह जब आगे जाकर कच्ची सड़क पर कीचड़ में फँस गयी तो बैल को ‘पैना’ (डंडा) से हांकते, उसकी पूँछ मरोड़ते हुए हमारे गाड़ीवान चाचा बैल को संबोधित करते हुए बार-बार एक वाक्य दुहरा रहे थे -उठा ! उठा ! बाभन के पानी उठा !’ इस संबोधन में निहित वर्णवादी मानसिकता बहुत बाद में समझ में आई. लम्बे अरसे के बाद दो साल पूर्व अपने गाँव जाकर मैंने महसूस किया कि इस मानसिकता में कमी ज़रूर आई है पर समाज का सम्पूर्ण कायांतरण अभी शेष है .”
(वारसा डायरी,पृष्ठ. 97)
‘वारसा डायरी’ की विशेषता है बेहद कलात्मकता के साथ जीवन के एकाध कोमल प्रसंगों की चर्चा बहुत हौले से करके लेखक का पाठक को कुछ अंदाज़ा लगाते हुए छोड़ देना. लेखक ऐसे प्रसंगों में मितभाषी और शब्दों में मितव्ययिता को जगह देता है .शेष वह पाठक की कल्पना पर छोड़ देता है. मसलन वह अपनी छात्रा सोनिया के बारे में लिखते हुए उसकी उम्र की तुलना अपने बेटे से करना नहीं भूलता है:
“आज सोनिया मिलने आई थी. उम्र के लिहाज से मेरे बेटे से कम से कम पाँच साल छोटी, बाईस-तेईस साल की स्वस्थ-सुन्दर दीखने वाली स्नातक प्रथमवर्ष की छात्रा, जो हमेशा मुस्कान बिखेरती चलती है. अभी वह बहुत कम हिन्दी जानती है. अंग्रेजी भी थोड़ी-थोड़ी ही, पर अंग्रेजी को लेकर उसमें अतिरिक्त आत्मविश्वास है और वह अनुवादक का पेशा अपनाना चाहती है. जब एक दिन मैंने उससे इधर की कुछ महत्त्वपूर्ण पोलिश कविताओं के बारे में जानना चाहा तो उसने समय मिलने पर कुछ सामग्री उपलब्ध कराने का वचन दिया और बात वहीं खत्म हो गयी. आज जब छुट्टी के दिन फ़ोन पर जब उसने घर पर मिलने का समय माँगा तो मैं चकित रह गया. यह मेरी कल्पना के परे था कि इतनी भयानक बर्फ़बारी में कोई अपने घर से निकलकर शहर के बिल्कुल दूसरे छोर पर आने की हिम्मत कर सकता है.
इमारत की सबसे निचली मंजिल पर स्थित पोलिश रेस्तरां में दोपहर का खाना खाते हुए मैंने सोनिया से पूछा कि वह अब कहाँ जाएगी. उसका उत्तर था कि अपने घर जाकर वह एकाध घंटे सोएगी और फिर तैयार होकर ‘नाईट क्लब’ पहुंचेगी, जहाँ वह वारसा में अपने रहने का खर्च जुटाने के लिए ‘पोल डांसिंग’ करती है. सोनिया से यह जानकार मुझे धक्का लगा कि ‘नाईट क्लब’ में खम्भे पर चढ़कर विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करने के दौरान उसे थोड़ी शराब पीने की तो इजाज़त है, पर कुछ खाने की नहीं:
‘हम निहारते रूप
काँच के पीछे
हांप रही है मछली
रूप तृषा भी
(और काँच के पीछे)
है जिजीविषा.’
-अज्ञेय
(वारसा डायरी, पृष्ठ.32)
इसी क्रम में लेखक के अवचेतन में सुषुप्त वर्षों पुरानी एक और स्मृति आ जाती है जो उसके चीन-प्रवास की स्मृति है; जहाँ अनजानी भाषा, अनजाने लोगों के बीच भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य पर पी-एच.डी. करने वाली शोधछात्रा उसे आदर सम्मित मित्रता का अनुभव प्रदान करती है और वह त्रिवर्षीय प्रवास सुखद और स्फूर्तिप्रद हो उठता है. खूबी यह है कि लेखक अपने चीन प्रवास को किसी डायरी में नहीं दर्ज़ करता बल्कि लगभग दस वर्ष बाद वारसा-प्रवास के अनुभव लिखते हुए उम्र का एक दशक और पार करने के बाद बेहद कलात्मक ढंग से लिखता है:
“भारत से बाहर रहने का वह मेरा पहला अनुभव था और उस अपरिचित महानगर में एनी मेरे लिए लगभग तीन वर्षों तक सखा-सचिव-सहचर की भूमिका निभाती रही:
बांह गहे कोई
अपरिचय के सागर में
दृष्टि को पकड़ के
कुछ बात करे कोई
लहरें वे ,लहरें वो
उनमें ठहराव कहाँ
पल दो पल लहरों के
साथ रहे कोई.
(त्रिलोचन)
बीजिंग से विदा लेते वक्त अपनी पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण दूसरे विद्यार्थियों के साथ एनी मुझे छोड़ने हवाई अड्डे नहीं आ पायी. जब ‘चेक-इन’ करके मैं अपना बोर्डिंग पास लिए लाउंज में बैठा विमान का इंतज़ार कर रहा था तब मोबाइल पर अंग्रेजी में उसका मैसेज आया: ‘सर ! यू आर इंडिया फॉर मी. विश टू सी यू हैप्पी एंड हेल्दी एज एंड व्हेन आई एम् एबल टू मीट यू इन फ्यूचर. गुड विशेज फार मैडम एंड अक्षरा. हैप्पी जर्नी.’
मैंने जवाब में अमेरिकी चिन्तक हेनरी थोरो (1817-1862) की पंक्ति भेज दी: ‘कई बार चीजें नहीं बदलतीं, हम बदल जाते हैं और हमारे देखने का नजरिया बदल जाता है.’
(पृष्ठ. 29-31)
इस डायरी में जिस काव्य पंक्ति को एकाधिक बार उद्धृत किया गया है वह ग़ालिब का एकमात्र शे’र है, जो डायरी-लेखक की गहरी अनुभूति की अकुंठ अभिव्यक्ति पर ‘पर्दादारी’ की चुगली खाता प्रतीत होता है:
बेख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
सच है कि समय के साथ-साथ देश-दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाता है. लेखक के अति संवेदनशील स्वभाव में दस -बारह वर्ष बाद परिवर्तन आया है. अब वह बीजिंग के अनजाने माहौल में भटका -खोया युवक नहीं, बल्कि जीवन के मध्यान्ह-सूर्य की प्रखर गर्मी ने उसे स्थानीय रचनाकारों की ओर आकृष्ट किया है. अब वह अपने वारसा प्रवास को पोलिश कवियों के अनुवाद द्वारा अपनी भाषा में रूपांतरित-संप्रेषित करने की स्थिरता पा चुका है.
अपनी छात्रा सोनिया के साथ मिलकर पोलिश कवि बोलेस्लाव लेस्मियन (1877-1937) की एक कविता का अनुवाद वह इस प्रकार प्रस्तुत करता है –
यह शाम थी ,गहरी शाम
जब हरे भरे जंगलों के ऊपर सूरज की किरणें मंद होती जा रही थीं
सर पर टपकती ओस की बूँद
शाम का धुंआ उगलता कालीन का दर्रा
दूर से आता अँधेरा
फूलों की मादक सुगंध को दरकिनार करता.
कटाई के बाद खेतों में बहती शीतलहर
मेरी कनपटी के स्पर्श से
गर्म होती तुम्हारी कनकनाती हथेली.
देखो मत,मत देखो
प्रेमालाप के बिना अँधेरे को
खेतों में बिछड़े दिल कभी नहीं मिलते –
न तो सुनहरे स्वप्न में, न भय, आतंक और पीड़ा में
प्रेम के अलावा सब मिथ्या है.
(पृष्ठ 31)
डायरी में बीजिंग-प्रवास के दौरान प्राप्त कुछ ऐसी जानकारियों से हिन्दी पाठक रूबरू होगा जिनका बहुत कम अंदाजा हम लोगों को है. वजह यह कि ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ पढ़ने-पढ़ाने के कारण ‘चायनीज अकेडमी ऑफ़ सोशल साइंसेज’ की संगोष्ठियों की ओर उन्मुख होने और लम्बे समय तक पेकिंग विश्वविद्यालय के वरिष्ठ शोध छात्र-छात्राओं से संवाद करने पर उसे पता चलता है कि चीन सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों के वेतन-भत्ते के बजाए रक्षा-संसाधनों एवं सार्वजनिक सुविधाओं पर व्यय अधिक किया जाता है:
“समाचार पत्र में क्या छपेगा और टेलीविजन पर क्या दिखाया जाएगा, इसका फैसला भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के ओहदेदार करते हैं. विश्वविद्यालयों में तैनात ‘पार्टी सचिव’ का ओहदा किसी भी उच्चाधिकारी से ज़्यादा प्रभावशाली होता है…सेना प्रमुख समेत चीनी सरकार के तमाम बड़े ओहदेदार कम्युनिस्ट पार्टी की प्रवर समिति के सदस्य होते हैं. चीन के अधिकांश लोग माध्यमिक शिक्षा के बाद कोई न कोई तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करके किसी व्यावसायिक-औद्योगिक इकाई में काम करने लग जाते हैं जिसका सीधा असर ‘सकल घरेलू उत्पाद’ पर पड़ता है. जो चीनी नागरिक सरकारी नौकरी करते हैं उनके नाम पर गाँव में खेती-बारी की ज़मीन हो ही नहीं सकती. उच्च शिक्षा संस्थानों में आम तौर पर बहुत मेधावी या आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न परिवार के बच्चे ही प्रवेश पाते हैं….कुछ बौद्ध और इस्लाम मतावलम्बियों को छोड़कर धर्मस्थलों का अधिकांश लोग सैरगाह की तरह इस्तेमाल करते हैं…आर्थिक अपराध के लिए त्वरित मृत्युदंड का प्रावधान है. अपने तीन वर्षीय बीजिंग प्रवास के दौरान शांघाई के मेयर समेत राज्यपाल स्तर के लगभग सात या आठ लोगों के मृत्युदंड की ख़बर सुनकर मैं चकित था.”
(वारसा डायरी, पृष्ठ. 229)
चीन से जुड़े रोंगटे खड़े कर देने वाले कुछ प्रसंग डायरी में दर्ज़ हैं और लेखक का निष्कर्ष है कि अब यह लाओत्से या कन्फ़्युशियस का देश नहीं है. चीनी सरकार की आतंरिक नीति दमनकारी है और विदेश नीति विस्तारवादी, जिससे लगातार निबटते रहना भारत की नियति है.
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लेखक इस डायरी में वारसा के सामाजिक जीवन के कई चित्र उकेरता है, जैसे छात्रा सोनिया को अपने अध्यापक को यह बताने में कोई संकोच नहीं है कि वह अपने खर्चे के लिए ‘नाईट क्लब’ में ‘पोल-डांसर’ है. कई जगहों पर वह यूरोपीय और भारतीय संस्कृति की तुलना, शिक्षा –व्यवस्था और जेंडर के सवालों से दो -चार होता है. इस क्रम में उसका विद्वत्तापूर्ण रचनात्मक व्यक्तित्व पूरी डायरी में आद्योपांत व्याप्त है. विदेश की भूमि पर उसे भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के झोल ज्यादा अच्छे ढंग से दिखाई देते हैं. वह भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा-व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर ही नहीं करता, बल्कि शिक्षा उसमें सुधार के लिए अभिमत भी प्रस्तावित करता है. इस अर्थ में इस डायरी को एक विद्वान-शिक्षक की डायरी कहना अतिशयोक्ति न होगी. विदेश–प्रवास, वह भी एकाकी, इतना आसान नहीं है. ज्यादातर लोगों के लिए अपने सरकारी दायित्व निर्वाह करके ,थोड़ा बहुत घूमकर लौट आना सहज-स्वाभाविक होता है, लेकिन जैसाकि लेखक ने भूमिका में ही अपने बीजिंग-प्रवास के हवाले से स्पष्ट कर दिया है –
“…मुझे लम्बे समय तक भारत के बाहर रहकर एशिया के किसी दूसरे देश में व्याप्त भारत की छवि के साथ ही वहां से भारत को देखने का जो पहली बार सुअवसर मिला ,वह एक नया अनुभव था …इसमें दूतावास द्वारा आयोजित विभिन्न सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करते हुए मैं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कुछ प्रमुख राजनयिकों के नज़रिए से भी परिचित हुआ.”
अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दों के बारे में लेखक की गहरी रुचि और जानकारी डायरी को समसामयिक गतिविधियों से न सिर्फ जोड़ती है, बल्कि पाठक को सुविज्ञ भी बनाती और भारत की विदेश नीति के निर्धारकों को सावधान करती चलती है:
“अफ़गानिस्तान दुनिया की बड़ी-बड़ी ताकतों का क़ब्रिस्तान ही नहीं, बल्कि आतंकी आग का एक दरिया साबित हो चुका है, जिसमें केवल पाकिस्तान को पछाड़ने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के हालिया उकसावे में आकर भारत को सीधे-सीधे कूदने से हर हालत में बचना होगा. यदि इस मामले में सावधानी न बरती गयी तो कालान्तर में ‘तहरीके तालिबान पाकिस्तान’ की तरह भारत में भी कुछ सिरफिरे लोगों की मदद से ‘तहरीके तालिबान हिन्दुस्तान’ जैसा संगठन वज़ूद में आ सकता है,जिसके परचम तले पाकिस्तान की तरह अपने मुल्क में भी जगह-जगह ख़ुदकुश धमाके की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.
मेरा अपना ख्याल है कि भारत-अफगानिस्तान मैत्री के नाम पर अफगानिस्तानी नागरिकों को बड़ी संख्या में वीज़ा देने की हमारी सरकारी नीति भी दुरुस्त नहीं है.आशा है कि श्री ब्रह्माचलानी और जनाब मारूफ़ रज़ा सरीखे रक्षा विशेषज्ञ समय रहते भारत सरकार को इस तरह के ख़तरे के बारे में जरुर अगाह करेंगे.”
(वारसा डायरी,पृष्ठ.201)
यह नोट करना महत्त्वपूर्ण होगा कि जब 24 अगस्त, 2017 को मुख्यत: साहित्य की भावभूमि पर खड़े एक लेखक ने जो बातें कहीं थीं उस समय यह कल्पना से परे था कि अचानक नाटो और अमेरिकी सैनिक अफ़गानिस्तान छोड़कर चले जाएंगे और उस देश के नवनिर्माण में कई बिलियन डॉलर का निवेश करनेवाले हमारे देश को काबुल और हेरात में अपने दूतावास और वाणिज्य दूतावास बंद करके आनन-फानन में वहाँ तैनात राजनयिकों को वापस बुलाना पड़ जाएगा. इतना ही नहीं, भारत सरकार को अफ़गानी सिखों और हिन्दुओं को भी भारत में शरण देनी पड़ेगी.
इतिहास-प्रसिद्ध ‘क्यूबा मिसाइल क्राइसिस’ पर संसार के कई समाज-वैज्ञानिकों की पुस्तकें मिलती हैं, पर केवल हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन तक खुद को महदूद रखने वालों को इसके बारे में शायद कम जानकारी होगी. डायरी लेखक ने 26 नवम्बर, 2016 को संसार के कुछ गिने चुने सत्यनिष्ठ वामपंथी नेताओं में एक फ़िदेल कास्त्रो के निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए उस संकट का ज़िक्र किया है. उनके निधन पर जश्न मनाते प्रवासी क्यूबाई नागरिकों को देखकर लेखक को बंगलुरु में प्रोफ़ेसर यू.आर.अनंतमूर्ति के निधन के बाद उनके एक विवादास्पद राजनीतिक बयान की वजह से पटाखे फोड़ते कुछ गुमराह लोगों की याद हो आती है:
“फ़िदेल कास्त्रो के जीवन के साथ ही उनके शब्द और कर्म से भारत में परिवर्तनकामी क्रांतिकारी आन्दोलन के अगुआ न केवल बहुत कुछ सीख सकते हैं, बल्कि सबक भी ले सकते हैं. सबक इसलिए क्योंकि इतिहास प्रसिद्ध ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ के बाद लगे आर्थिक प्रतिबंध के बाद क्यूबा के अधिकांश उच्च एवं मध्यवर्गीय लोग अपना देश छोड़कर चले गए थे.
आज उनमें से कुछ लोगों को अमेरिका में फ़िदेल की मृत्यु पर जश्न मनाते देखकर अनंतमूर्ति जी के निधन के बाद बंगुलुरु में कथित तौर पर पटाखा फोड़कर खुशियाँ मनाते बजरंगी बाबुओं की याद ताज़ा हो आई. श्रद्धांजलि.”
(वारसा डायरी, पृष्ठ.100)
पहले कहा जा चुका है कि इस पुस्तक में सूचनाएँ और समसामयिक मुद्दों की चर्चा से उत्पन्न रुक्षता के अनुपात में संवेदना और साहित्यिक रुचि से सराबोर करने का काम संस्कृत, हिन्दी, उर्दू तथा पोलिश के नामचीन कवियों की कविताओं के साथ ही विश्वविख्यात चिंतकों को जगह- जगह उद्धृत कर लेखक ने इस डायरी को रचनात्मक उदात्तता तक पहुँचाने में सफलता पायी है. इतना ही नहीं, डायरी में कई स्थानों पर कविता की रचना-प्रक्रिया तथा उसके शिल्पगत पहलू पर अनोखी टिप्पणी के साथ ही कुछ सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्नों की भी विवेचना मिलती है.
कीट्स ने लिखा है कि सौन्दर्य से प्राप्त आनन्द शाश्वत होता है. किन्तु, इस डायरी में विस्तार से विवेचित किया गया है कि साहित्यिक कृतियों में अभिव्यक्त मनुष्य का सौन्दर्यबोध कैसे देशकाल सापेक्ष होता है:
“कथित स्लाविक प्रजाति के लम्बे-तगड़े पोलिश युवकों और लगभग खुले वक्षों एवं विवृत जंघाओं वाली तंदुरुस्त युवतियों को बस, ट्राम, मेट्रो के अलावा पार्क में या नदी किनारे लापरवाही से लेटे-बैठे उन्मुक्त प्रेमालाप करते हुए देखकर कालिदास की पंक्ति ‘ज्ञातास्वादो विवृत जघनां को विहातुं समर्थ:’ अप्रासंगिक प्रतीत होती है.
यजुर्वेद में मन को अमृतस्वरूप एवं कल्पवृक्ष के समान बताते हुए यह ही कहा गया है कि वह अत्यंत वेगवान है, कभी बूढ़ा नहीं होता:
सुषारथिश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते भीशुभिर्वाजिन इव ।
ह्रुत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । (यजुर्वेद 34-6)
बावजूद इसके उम्र के इस पड़ाव पर पोलिश लड़के-लड़कियों की हरकतों को देखते हुए अपना मन टटोलने पर अनायास इक़बाल याद आए:
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोखियाँ
न वो गज़नवी में रही तड़प न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में.
शृंगार के रसराजत्व को अपनी रचना के माध्यम से प्रतिष्ठित करनेवाले और उसकी शास्त्रीयता पर चिंतन-मनन करनेवाले भारतीय आचार्यों का सौन्दर्यबोध यूरोप में अब शायद आदिम माना जाएगा.
भारत में भी नयी पीढ़ी के छात्रों का परिधान और सौन्दर्यबोध तेजी से बदल रहा है. इसलिए वे अब पुराने कवियों को पढ़कर पहले की पीढ़ी की तरह आनंद का अनुभव नहीं करते. जायसी की सुप्रसिद्ध पंक्ति
‘भंवर केस वह मालति रानी।
बिसहर लुरई लीन्ह अरघानी।।’
या
‘शशिमुख अंग मलयगिरि रानी।
नागन्ह झांप लीन्ह अरघानी।l’
में निहित सौन्दर्यबोध का मर्म समझना अब बीते दिनों की बात है. इसी प्रकार ‘राम को रूप निहारती जानकी कंकन की नग की परिछाहीं’ को सुनने-गुनने वाले छात्र और अध्यापक अब विरले हैं.
किन्तु, रघुवंश में वर्णित इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में आए उस सुप्रसिद्ध श्लोक के प्रति परिशंसा का भाव शिक्षक के रूप में मैंने स्वयं देशी-विदेशी विद्यार्थियों के चेहरे पर महसूस किया है, जिसकी वजह से मल्लिनाथ ने उन्हें ‘दीपशिखा कालिदास’ कहा था:
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेंद्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपाल: ।।
अकुंठ भाव से सार्वजनिक स्थलों पर प्रेमालाप करती यूरोपीय युवा पीढ़ी की तुलना में हमारे भारतीय युवकों और युवतियों की समस्या समझ में आ सकती है, जिनके ऊपर परिवार और समाज की तरफ से अनेक तरह की घोषित-अघोषित नैतिक पाबंदियाँ आयद हैं और इन पाबंदियों की वजह से वे प्राय: यौन कुंठा से ग्रस्त होने या कई बार यौन विकृति तक का शिकार हो जाने के लिए अभिशप्त हैं. भारत में आए दिनों स्त्रियों पर जिस कदर यौन हिंसा की घटनाएँ हो रही है उसकी एक वजह युवकों की यौन कुंठा भी है.”
(वारसा डायरी, पृष्ठ. 61)
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डायरी में दर्ज़ एक और गंभीर प्रसंग अवलोकनीय है जिसमें आए दिनों भारत में होने वाली यौन हिंसा से बेचैन होकर उन घटनाओं पर ज़ल्द से जल्द कविता लिखकर ‘मुफ्त का यश’ लूटने के लिए व्याकुल कवियों को नसीहत दी गयी है:
अपने मुल्क में और दुनिया के कई मुल्कों में नाबालिग बच्चियों के साथ हो रही यौन हिंसा की अंतर्वस्तु को कैसे सही ढंग से कविता में शिल्पित किया जाए, आनन-फ़ानन में ऐसे संवेदनशील विषय पर कविता लिख देने के लिए आकुल-आतुर हमारे समय के कई रचनाकार यह प्रोफ़ेसर ज़ाबिर हुसैन साहब से सीख सकते हैं.
गहरी आस्तिकता की कोख से निष्पन्न यह रचना मनुष्य मात्र और ख़ास तौर से मासूम बच्चियों के प्रति हमारे दिल-ओ-दिमाग में नए सिरे से संवेदना जगाने में समर्थ है.
शास्त्रीय भाषा में कहें तो यह क्लासिकल उदासी भरी गायन-योग्य शब्द संरचना है:
फ़रिश्तों
आना कभी ज़मीं पर
तो अरज़े ख़ाकी पे
खूँ में लथपथ
मेरी परी को
बड़े अदब से
तुम्हारे रब का
सलाम कहना.
(वारसा डायरी,पृष्ठ.248)
इस पुस्तक में बहुत सारे ऐसे प्रसंग दर्ज़ हैं जो लेखक की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि तथा गहरी पर्यवेक्षण क्षमता का विलक्षण प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. इनके आधार पर अपने समुदाय, समाज, देश और दुनिया के बारे के उसके निष्कर्ष इतने सटीक हैं कि अकादमिक दुनिया में प्रचलित शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए इस डायरी में कभी-कभार ‘समाजविज्ञानों का विज्ञान’ (साइंस ऑफ़ सोशल साइंसेज) की उपस्थिति का अहसास होता है.
जे.एन.यू के हमारे वरिष्ठतम सहकर्मियों में एक तथा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के समाजवैज्ञानिक प्रोफ़ेसर योगेन्द्र सिंह प्राय: सुकांत भट्टाचार्य की पंक्ति “भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है’ को उद्धृत करते हुए साहित्य की गद्य विधाओं और ख़ास तौर से उपन्यासों के बारे में कहा करते थे कि कई बार कथाकार यथार्थ को जिस गतिशील अवस्था पकड़ता है, वह समाजविज्ञान में संभव नहीं हो पाता. इसे ही वे साहित्य के सन्दर्भ में ‘समाजविज्ञानों का विज्ञान’ कहते थे.
ध्यान देने की बात यह है कि प्रसंग भले विदेश का हो, पर लेखक उसे भारतीय सन्दर्भ से ज़रूर जोड़ता है. युक्रेन पर रूसी सेना की लगातार बमबारी के भयावह दृश्यों और रोते-विलखते युक्रेनी बच्चों, स्त्रियों तथा बूढ़े लोगों द्वारा पोलैंड में शरण लेने के दिल दहला देने वाले समाचारों के मद्देनज़र इस एक प्रसंग का ज़िक्र शायद आज ज़्यादा मौजूं है.
पच्चीस दिसम्बर, 2015 को डायरी में दर्ज़ एक प्रसंग अवलोकनीय है:
“वारसा विश्वविद्यालय के एम्.ए. के अपने छात्रों को कुछ दिनों पहले निर्मल वर्मा की ‘परिंदे’ कहानी पढ़ाते समय अभ्यासवश जार्ज लुकाच का एक वक्तव्य याद आया: ‘विचारधाराओं की पर्वत शृंखलाओं में मार्क्सवाद एवरेस्ट शिखर की तरह है. कितु, एवरेस्ट शिखर पर बैठे किसी खरगोश को यह भ्रम कदापि नहीं होना चाहिए कि वह घाटी के हाथी से बड़ा है.’
विभिन्न सन्दर्भों में यहाँ मार्क्सवाद का ज़िक्र करने पर मैंने प्राय: यह महसूस किया है कि इस महान समाजदर्शन ही नहीं, बल्कि मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओत्से तुंग, ग्राम्शी, लुकाच आदि के नाम तक को लेकर विद्यार्थियों के मन में वितृष्णा ही नहीं, बल्कि दहशत है.
पोलिश युवा पीढ़ी में रूसी भाषा और साहित्य के प्रति भी उदासीनता है.
छात्रों से कुरेद कर पूछता हूँ तो पता चलता है कि पोलैंड एक लम्बे समय तक भूतपूर्व सोवियत संघ का उपनिवेश था और उस दौरान पोलिश नागरिकों पर कम्युनिस्ट विचारधारा के नाम पर अनेक प्रकार के जुल्म ढाए गए थे. उन ज़ुल्मों को भुगतने वाले उनके दादा-दादी,नाना-नानी और माता-पिता आज भी जीवित हैं, जो अपने बच्चों को उन दिनों की याद दिलाते रहते हैं.
शहर के बीचोंबीच मोकोतोव में आज भी स्थित विशाल कारागार के साथ ही राजनयिक इलाके में रूसी दूतावास का संभवतः सबसे बड़ा परिसर उस जमाने की अनेकानेक कहानी समेटे है.
लियो टॉलस्टॉय ने सही कहा है: ‘जो आपको अच्छा लगता है वैसा ही दूसरे लोगों से भी जबरन कराने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करना लोगों में आपके उस अच्छे विचार के प्रति घृणा पैदा करने का सबसे अच्छा तरीका है.’
सच तो यह है कि ‘हिंसा का इस्तेमाल’ की बात तो दूर, केवल जोर जबरदस्ती करना भी अच्छी से अच्छी बात या विचारधारा के प्रति हमारे मन में तत्काल वितृष्णा उत्पन्न कर देने के लिए काफी है. गांधीवाद, लोहियावाद, मार्क्सवाद, अंबेडकरवाद एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के पैरोकार भारत के हमारे राजनीतिकर्मी, शिक्षक मित्र एवं छात्र इससे सबक ले सकते हैं.
(वारसा डायरी, पृष्ठ. 26)
इसी प्रकार 19 अगस्त, 2016 को डायरी में एक भिन्न सन्दर्भ में दर्ज पोलिश कवयित्री वीस्वावा शिम्बोर्स्का की ‘आरम्भ और अंत’ कविता भी युक्रेन की वर्तमान दुर्दशा को देखते हुए बहुत प्रासंगिक है:
हर युद्ध के बाद
करनी होगी किसी को तो सफाई.
आखिर, सब स्वयं ही
ठीक तो नहीं हो जाएगा.
किसी को तो हटाना होगा मलबा,
करनी होंगी सड़कें साफ़,
ताकि मिल सके रास्ता
लाशों से लदी गाड़ियों को.
(वारसा डायरी, पृष्ठ.71)
‘वारसा डायरी’ में कुँवर नारायण का कई सन्दर्भों में उल्लेख है. वजह यह का पोलैंड से उनका गहरा भावनात्मक जुड़ाव था. लेखक के शब्दों में
“द्वितीय महायुद्ध के दौरान हुए विध्वंस, सन 1945 में द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति और हिटलर के पतन से उनका रचनात्मक मानस प्रभावित रहा है. वे पहली बार संभवत: 1955 में वारसा आए थे,जहाँ नाजिम हिकमत और पाब्लो नेरुदा से उनकी मुलाक़ात हुई थी…यह जानकार अच्छा लगा कि लगभग एक दशक पूर्व तक कुँवर नारायण यहाँ आते रहे हैं और उनकी पोलैंड यात्रा के दौरान विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें ‘मैडल ऑफ़ यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारसा’ से भी समानित किया गया था. इंडोलोजी विभाग की अध्यक्ष प्रोफ़ेसर दानूता स्ताशिक ने कुँवर नारायण की प्रतिनिधि कविताओं को पोलिश भाषा में अनूदित किया है.”
(पृष्ठ.49)
पाकिस्तान सरकार द्वारा ‘वसंतोत्सव’ को ‘हिन्दुआना त्यौहार’ बताकर खुशहाल मध्यवर्गीय परिवारों द्वारा उसके आयोजन पर लगे सरकारी प्रतिबंध की खिल्ली उड़ाते हुए डायरी लेखक ने चीन में ‘वसंतोत्सव’ के समाजशास्त्रीय आधार के साथ ही बाबा बुल्लेशाह को याद किया है:
चीन में बहुत धूमधाम से ‘वसंतोत्सव’ (स्प्रिंग फेस्टिवल) मनाना वहाँ की पारम्परिक संयुक्त परिवार व्यवस्था को बचाने की एक तरकीब भी है, जिसमें गरीब से गरीब आदमी अपने पैतृक गाँव चला जाता है और भारत की तरह ही वहाँ इस अवसर पर सामूहिक पतंगबाजी होती है.
विचित्र बात है कि पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक़ के समय जब शरिया क़ानून नाफ़िज़ किया गया तो अहमकाना तरीके से ‘वसंतोत्सव’ को ‘हिन्दुआना त्यौहार’ बताकर इसे मनाने पर पाबंदी आयद कर दी गयी. बाद में पंजाब प्रांत के जिंदादिल लोगों ने इसे ‘जश्न-ए-बहार’ के रूप में मनाना शुरू कर दिया, जिस पर बाबा बुल्लेशाह का कलाम भी मिलता है. कुछ उलेमाओं को मैंने यह कहते सुना है कि होली खेलना हमारे अक़ीदा के खिलाफ़ है, जबकि बुल्लेशाह इसे धूमधाम से खेलने की बात करते हैं:
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह !
नाम नबी की रतन चढ़ी,
बूँद पडी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे,
जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह !
पी.टी.वी. के अनुसार आज फिर से पाकिस्तान की पंजाब सरकार ने सार्वजनिक रूप में ‘वसंत मनाने’ पर पाबंदी लगाने की घोषणा की है. सरकारी विज्ञप्ति में कहा यह गया है कि लोग अपने घरों में ‘जश्न-ए-बहार’ की दावत खाएं और खिलाएं, क्योंकि बाहर जाकर ‘वसंत मनाने’ के दौरान ज़हरीले रसायनों में लिपटे न टूटने वाले सिंथेटिक धागे का पतंग उड़ाने और लड़ाने में इस्तेमाल करने से दुपहिया वाहनों पर सवार लोगों के घायल होने या मारे जाने का ख़तरा है.
इतना ही नहीं, जनाब हसन निसार सरीखे पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों की मुखालफ़त के बावजूद सरकार ने इस्लामाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के तहत ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने वालों पर भी कठोर कार्रवाई का निर्देश दिया हैं. पुलिस को सख्त हिदायत दी गई है कि चौदह फरवरी को यदि कोई व्यक्ति हाथ में फूल लेकर बाहर निकले तो उसे अविलम्ब गिरफ्तार कर लिया जाए. ब्रेष्ट ने सही लिखा है कि ‘बर्बरता से बर्बरता नहीं पैदा होती; बर्बरता उन व्यावसायिक सौदों से पैदा होती है जिनके लिए बर्बरता की आवश्यकता होती है.”
‘वारसा डायरी’ में कुँवर नारायण को उद्धृत करते हुए लेखक ने उनकी उस विश्वदृष्टि को उजागर किया है जो वस्तुत: पूरी वसुधा को अपना कुटुंब मानने वाली भारतीय संदृष्टि (विज़न) की उपज है:
ट्यूनीशिया में एक कुआँ है
कहते हैं उसका पानी
धरती के अन्दर ही अन्दर
उस पवित्र कुएँ से जुड़ा है
जो मक्का में है.
मैंने तो यह भी सुना है
कि धरती के अन्दर ही अन्दर
हर कुएँ का पानी
हर कुएँ से जुड़ा है.
पन्द्रह नवम्बर, 2017 को कुँवर नारायण के देहावसान के बाद डायरी में उनकी एक कविता को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी है:
साथ के लोगों में
अब बहुत कम लोग बचे हैं.
जो हैं वे
बाद के लोगों की भीड़ में
कुछ इस तरह हैं
कि उनमें से अचानक जब
कोई मिल जाता है
तो पहचानकर आश्चर्य होता है
कि उसमें अब भी
ऐसा कुछ बचा रह गया है
जिसे पहचानना
अपनी ही किसी पुरानी
पहचान को वापस पाना है.
(वारसा डायरी, पृष्ठ. 220)
|
भारत के सर्वश्रेष्ठ उच्च शिक्षा संस्थानों में एक हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अन्य बड़े केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों की तरह लोग औपचारिक कार्यों के लिए सिर्फ़ अंग्रेज़ी और सामान्य बातचीत के दौरान भी ज्यादातर अंग्रेज़ी का ही व्यवहार करते हैं. ताज्जुब है कि बहुत लम्बे समय से वहाँ कार्यरत रहने और लगभग छह साल ‘भारतीय विदेश सेवा’ में प्रतिनियुक्ति के बावजूद ‘वारसा डायरी’ में हिन्दी और उसकी विभिन्न बोलियों के ठेठ मुहावरों, कहावतों और लोकगीत की पंक्तियों की भरमार है. इससे पता चलता है कि लेखक उन ‘उखड़े हुए लोग’ की तरह नहीं है जो लम्बे समय तक महानगरों में रहते हुए अपनी बोली-बानी तक भूल जाते हैं. अरुण कमल ने सही लिखा है कि
“प्रोफ़ेसर रवि रंजन को पढ़ना और सुनना विलक्षण अनुभव होता है. इनके सोचने की प्रविधि और हिन्दी गद्य का सांस्कारिक रूप विरल है.”
निवेदन है कि अगर थोड़ा और ‘उदार’ होकर इसमें यदि हिन्दी क्षेत्र में प्रचलित कुछ गालियों के भी नमूने पेश कर दिए जाते तो समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह कृति शायद कुछ और प्रामाणिक होती.
कथेतर लेखन के क्षेत्र में इन दिनों यात्रा-वृत्तान्त और डायरी लेखन में बहुत से प्रयोग देखे जा रहे हैं. ‘वारसा डायरी’ को इस दिशा में एक सार्थक रचनात्मक कदम के रूप में देखा जाना चाहिए. वजह यह कि इसमें रचना, आलोचना, संस्मरण, कुछ आत्मकथात्मक अंश, अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध और कूटनीति आदि जगह-जगह इस क़दर पिरोये हुए हैं कि यह परम्परागत डायरी-लेखन की सीमाओं को अतिक्रमित करती है. इस कृति में निहित लेखकीय जीवन-दृष्टि को रेखांकित करते हुए कुँवर नारायण की एक कविता उद्धृत करना ज़्यादा बेहतर होगा जो भिन्न सन्दर्भ में ‘वारसा डायरी’ में भी दर्ज़ है:
कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि—
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं,
कल्पना में इंद्रधनुषों के रंग हों
ईर्ष्या- द्वेष के बदरंग हादसे नहीं,निकट संबंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस,
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो जीवन-विवेक.
रवि रंजन: वारसा डायरी, 2022, कुल पृष्ठ.263, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, हार्डबाउंड में मूल्य 550 रुपये,
यह पुस्तक आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.
गरिमा श्रीवास्तव ईमेल: garima@mail.jnu.ac.in मोबाइल. 8985708041 |
सुचिंतित लेख। विस्तार और गहराई से एक किताब के बारे बताता। उद्धरण/ भूमिका और भीतर के बहुआयामी संदर्भ व प्रसंग वारसा डायरी पढ़ने की ललक जगाते हैं। बहुत गम्भीर और प्रभावी समीक्षा है। शुभकामनाएं 💐 समालोचन का आभार।
बहुत तैयारी के साथ लिखा गया आलेख।रविरंजन जी, गरिमा जी और अरूण देव जी को बधाई ।
समीक्षा और मूल कृति, दोनों की पैठ बहुत गहरी है।
प्रवास में रहकर प्रवासी जीवन शैली और वहां की राष्ट्रीय चिंताओं पर बात करना आसान नहीं होगा किसी भी लेखक के लिए। प्रवास में रहकर भी अपने देश की मिट्टी को भी न भूलना ये मानवीय मूल्यों के साथ न्याय करना है और संवेदनशील बने रहने की पराकाष्ठा भी। प्रो.गरिमा श्रीवास्तव मैम का गहन अध्ययन और विश्लेषण ने इस पुस्तक की प्रासंगिकता को और बलवती बनाया है। वारसा डायरी केवल एक यात्रा वृतांत नहीं है वरन देश विदेश की पृष्ठभूमियों को उजागर करनेवाली ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है। लेखक और समीक्षक दोनों को मेरा सादर प्रणाम।
प्रणाम💐
बहुत ही गम्भीर एवं प्रभावी समीक्षा।
निश्चय ही जितने मनोयोग से यह डायरी रवि रंजन जी ने लिखी है, गरिमा जी ने उतनी ही संजीदगी से इस पर लिखा है। दोनों जनों को बधाई देना बनता है और अरुण देव को धन्यवाद देना भी।
वरिष्ठ रचनाकार अरुण कमल ने दैनंदिनी के लिये रोज़निशी शब्द का प्रयोग किया है । एक वक़्त था जब पोस्ट एंड टेलिग्राफ़ का घोष वाक्य होता था-अहर्निशं सेवामहे । कदाचित अरुण कमल यही कहना चाहते हैं । हज़रत उमर फ़ारूक़ का उद्धरण मर्मस्पर्शी है । मुझे रजनीश का कथन याद आ गया है । वे कहते थे-परमात्मा को रिझाना क़रीब-क़रीब एक स्त्री को रिझाने जैसा है । उसके पास अति प्रेमपूर्ण, अति विनम्र, प्रार्थना से भरा हृदय चाहिये । और जल्दी वहाँ नहीं है । तुमने जल्दी की, कि तुम चूके । बड़ा धैर्य चाहिये । तुम्हारी जल्दी, और उसका हृदय बंद हो जायेगा । क्योंकि जल्दी भी आक्रमण की ख़बर है । प्रोफ़ेसर रवि रंजन जी तीन वर्षों तक पीकिंग (बीजिंग विश्वविद्यालय) में भारतीय अध्ययन केंद्र में और तीन वर्षों तक पोलैंड के वारसा विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के पद पर रहे । दोनों स्थानों पर इनके कार्य का व्यापक अनुभव है । चीन में इनके प्रवास को वहाँ की निरंकुश और साम्राज्यवादी बताना युक्ति संगत है । मार्क्स के दृष्टिकोण को जिस प्रकार प्रोफ़ेसर साहब ने लिखा उससे मेरा भ्रम दूर हुआ है । धन्यवाद । अभी थक गया हूँ । समय मिलने पर पुनः लिखूँगा । मेरा मन नहीं भरा ।
रवि जी के लंबे विदेश प्रवास के संस्मरण – वारसा डायरी, पर गरिमा जी की समीक्षा पढ़ने योग्य है।यह संस्मरण जीवन के समकालीन सरोकारों से जुड़े होने के कारण काफी रोचक हैं। साधुवाद !
विस्तार और गज्ञराई से अध्ययन के पश्चात लिखी समीक्षा. लेखक, समीक्षक तथा समालोचन का आभार व तीनों को बधाई
गरिमा जी ने रवि रंजन की वारसा डायरी पर मनोयोग के साथ लिखा है । रविरंजन डायरी लिखते समय कई सन्दर्भो का उल्लेख किया है , वे बार बार अपनी भूमि पर लौटते है ,यह सम्वेदनशीलता इस डायरी की जान है । गरिमा जी ने इस सारे तथ्यों को अपनी समीक्षा में शामिल किया है । गरिमा जी की किताब देह ही देश बहुत पहले पढ़ी थी और उनके अनुभव से साक्षत्कार किया था ,इसलिए वे वारसा डायरी की भीतर उतर कर वे नयी व्याख्या करती हैं ।
इतनी गहराई और विस्तार से ‘वारसा डायरी’ का मूल्यांकन करने हेतु प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव मैडम के प्रति आभार और इसके प्रकाशन के लिए प्रिय अरुण देव जी को साधुवाद।
उन सारे मित्रों एवं छात्रों को धन्यवाद जिन्होंने आलेख पढा, पसंद किया और टिप्पणी लिखी।
पुन:धन्यवाद।
आज वारसा डायरी पर गरिमा श्रीवास्तव जी की गंभीर और सुचिंतित टिप्पणी पढ़ते हुए, बैठे बिठाए बहुत कुछ सीखने को मिला। अब मूल किताब पढ़ने की इच्छा बलवती हो गई है। रवि रंजन जी और गरिमा श्रीवास्तव जी को शुक्रिया के साथ अरुण देव जी को भी खूब शुक्रिया, आप समालोचन के माध्यम से लगातार महत्त्वपूर्ण लेखन को साझा कर रहे हैं। बहुत शुक्रिया।
बहुत सुंदर लिखा है