अस्मिता और वर्ग हमारे समाज के यथार्थ हैं. हमारी विविधता की बुनियाद में अस्मितायें हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. इन्हीं विविधताओं के अन्दर समाज की वर्गीय संरचना भी है. एक तरह से अस्मिता और वर्ग समाज में आवयविक हैं. आधुनिक हिन्दी कविता में वर्ग का प्रश्न प्रगतिवादी आन्दोलन के साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के केंद्र में स्थापित हो जाता है और अस्मिताओं का स्वर लगभग आठवें दशक में उभार पाता है. इधर की हिन्दी कवितायें वैचारिक रूप से उत्पीड़ित अस्मिताओं को मुखर अभिव्यक्ति दे रही हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी सवाल है कि इन दोनों में संवाद कितना है और दोनों के बीच आवाज़ाही कितनी है? इन दोनों के बीच आवाज़ाही करने के वैचारिक जोखिम भी हैं. कई युवा कवि इस जोखिम को उठा रहे हैं और हमारे जीवन के यथार्थ को सांद्रता के साथ अभिव्यक्त कर रहे हैं. मैं चाहत अन्वी की कविताओं को भी इसी विचार के साथ अभिव्यक्त होते हुए देख रहा हूँ.
चाहत अन्वी की कविताओं से हिन्दी समाज का नया परिचय हो रहा है. इधर कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चाहत ने अपनी ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है. स्त्री मन की प्राथमिक वेदना से उपजी कविताएँ केवल स्त्रीत्व का वृत्त नहीं बनाती हैं. वे अपने स्त्री होने की जमीन पर मजबूती से खड़ी होकर वर्चस्व की औपनिवेशिक मंशाओं की बृहद परिधियों तक यात्रा करती हैं और मनुष्य होने के नैसर्गिक सौन्दर्य को विरूपित करने वाले तत्वों की शिनाख्त करती हैं. गहन संवेदनाओं से युक्त कविताएँ ऐन्द्रिक अनुभूतियों से होकर गुजरती हैं. यदि वे किसी ‘स्वाद’ को महसूस करती हैं तो वे ऐंद्रिकता का विशिष्ट या वैयक्तिक दायरा नहीं बनातीं बल्कि वे उसे भेदकर उसका समान्यीकरण करती हुईं वैचारिक स्वरूप निर्मित करने का संघर्ष करती हैं. यह उनका काव्यात्मक कौशल है और अभ्यास भी.
चाहत सस्ते भावावेग के बजाय संयम और सांद्रता के साथ अपने समय को रच रही है. अपने परिवेश के साथ वह गहरे संपृक्त है. झारखंडी परिवेश में पली-बढ़ी वह ‘कोयले’ की तस्करी और खनन की अमानवीय पूँजीवादी साजिशों को समझती है. जीवन की विसंगति और विद्रूपताओं की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करके वह मनुष्यता का पक्ष गढ़ने की कोशिश कर रही है. संभावनाशील युवा कवयित्री से हिन्दी समाज को उम्मीद बँधती है.
अनुज लुगुन
चाहत अन्वी की कविताएँ |
नूरजहाँ
लोग कहते हैं बाघिन सी घाघ है नूरजहाँ !
मुझे हावड़ा-कालका मेल के जेनरल डिब्बे में
अक्सर मिल जाती है
जहाँ सबके लिए साँस लेना भी मुश्किल है
वहाँ मर्दों के बीच आँधी बनकर पहुँचती है नूरजहाँ !
वह सौंदर्य प्रसाधनों से अपनी उम्र छुपाने की
कोशिश तो करती है पर
त्वचा की महीन रेखाओं से ताक-झांक करते
दु:खों को छुपाने के लिए क्या उपाय करे
नहीं जानती है नूरजहाँ
नूरजहाँ पारखी कारीगर है वह अपनी साड़ी पर
सितारों के साथ-साथ दुखों की तुरपाई हँसती हुई कर सकती है
वह हँसती है तो हवाड़ा-कालका मेल की पटरियाँ हँसती हैं
पहियों को दौड़ते देख कर खेतों के मेड़ हँसते हैं
माँ की चोंच में अनाज देखकर उनके बच्चें हँसते हैं
और अपनी बेटी को चिड़िया कहने वाले मजदूर हँसते हैं
डिब्बे की शिकारी आँखों से छुपा-छुपी खेलती हुई
कलाई के जादू का खेल दिखाकर मर्दों को चुनौती देती है
औरतों की हिकारत को भी जानती है नूरजहाँ
जिस दिन नूरजहाँ को मर्द और औरत होने से
अलग महसूस कराया गया था
उस दिन उसे न बादल अच्छे लगे थे न बारिश
फिर तो उसकी उम्र को रेल की पटरियों पर धकेल दिया गया
वह जानती है मेरे सवालों को
मुझसे बचती हुई हड़बड़ी में निकल जाती है नूरजहाँ
उसे गढ़ने से पहले कुम्हारों ने उससे कम संवाद किया
पर संवाद में माहिर है नूरजहाँ
नूरजहाँ अब कहती है-
‘चल दे……. दे ना…
निकाल न राजा पैसे…
क्या रे तू हिजड़े से गाली सुनेगा ?
क्या नहीं है पैसे ?
कमाने जा रहा है पंजाब
पैसे नहीं हैं? तो इतने बच्चों की खेती क्यों किया रे
चल-चल पचास नहीं तो बीस निकाल
अच्छा चल दस ही दे’
लोगों के गुरूर को ट्रेन में बार-बार चुनौती देती हुई
दिल जीतने का हुनर भी जानती हैं नूरजहाँ
नूर जानती है कि पूरी दुनिया में उसका कहीं कोई शाह नहीं है
पर सबकी आँखों में अपने लिए ताज बनाती हैं नूरजहाँ
मैं उससे पूछती हूँ कि जब हावड़ा-कालका मेल ‘नेताजी एक्सप्रेस’ में बदल चुकी है
कल ये जेनरल डिब्बे भी बदल दिए जाएंगे
और जब ये डिब्बे नहीं बचेंगे तो तुम कहाँ जाओगी ?
नूरजहाँ कहती है
कि जब तक हावड़ा-कालका मेल में जेनरल डिब्बे बचे रहेंगे
ये दुनिया बची रहेगी
इस दुनिया को विशेष नहीं सामान्य होने से ही बचाया जा सकता है
मैं चुपचाप देख रही हूँ
हावड़ा-कालका मेल की पटरियों पर
नूरजहाँ और मजदूरों की जिंदगी धीरे-धीरे चल रही है
हावड़ा–कालका मेल अगर आगरा से गुजरती तो भी मैं उसे
इतिहास में दर्ज सुल्तान और उसके दरबारियों के किस्से कभी नहीं सुनाती
अपने इतिहास से बेदखल
सुल्तानों के किस्सों का क्या करेगी नूरजहाँ?
हावड़ा–कालका मेल पटरी पर दौड़ रही है
और लोहे के घर्षण से उठती चिंगारी
नूरजहाँ की तालियों की आवाज़ में गुम हो रही है.
मानचित्र की धुरी पर खड़े लोग
अभी-अभी कुछ देर पहले चाँद की दुनिया में
दखल देने एक यान उड़ा है
और एक स्त्री को मिली बधाई से खुश हुई पृथ्वी
अपने अक्ष पर थोड़ी तिरछी हो गई
अभी-अभी इसी पृथ्वी पर
एक देश को भीड़ में बदलते देखा गया
और एक स्त्री के नोचे गए बालों के गुच्छों से आहत हुई पृथ्वी
अपने अक्ष पर थोड़ी ओर तिरछी हो गई
आखिर यह कैसे संभव हुआ है कि देश के भीतर एक ही वक्त के
कई संस्करण मौजूद हैं
देश के पहाड़ अपने को किस संस्करण में देख रहें हैं
मैदानों का संस्करण क्या है ?
जंगल को किस संस्करण में देखा जा रहा है और इससे भी जरूरी सवाल है
कि जंगल खुद का कहाँ देख रहा है
वो जो साइकिल के पैडल को जोर-जोर से चलाता हुआ
घर लौट रहा है उसके लिए मतदान और दिहाड़ी में चुनाव
सबसे आसान है
आखिर वो देश के किस संस्करण का हिस्सा है?
और ठीक इसी समय में जब देश की राष्ट्रपति
एक आदिवासी हैं
एक दूसरे आदिवासी के मुँह पर बेशर्मी से
किया जा रहा है पेशाब
आखिर देश में उन दोनों के संस्करण कौन से हैं?
देश के भीतर एक ही वक्त में कई संस्करण मौजूद हैं
आपको और मुझे जिंदा रहने के लिए तय करना होगा
अपना-अपना संस्करण.
सड़क पर गिद्ध
मेरे कंधे पर हर वक्त एक गिद्ध बैठा रहता है
हमारी आँखें उस दिशा की ओर है
जहाँ अभी-अभी दंगा हुआ है
हमारी आँखें दिशाओं के साथ लगातार घूम रही हैं
और मैं महसूस कर रही हूँ कि
हिन्द महासागर के समुंदर का पानी और ज्यादा खारा हो गया है
वह अब हर दंगे के बाद मेरे घर आता है
मैं पूछती हूँ शहर का हाल
तो कहता है सभी दंगे एक जैसे ही तो होते हैं
बदलते हैं तो बस मरने वालों के नाम के साथ उनकी जाति
उनका धर्म और उनके शहर का पता
वह कहता है
इस बार शहर में हुए दंगों में जो मरा उसे मैंने कभी नहीं देखा था
उसकी माँ उसका नाम ले कर चीख रही थी
उसके दोस्त बताते हैं कि वो उर्दू और हिन्दी जुबाँ में बातें करता था
और ग़ज़लें लिखता था
वो मरा दंगों में क्योंकि वह किसी एक रंग की तानाशाही के खिलाफ था
मैं जब अपनी टूटी-फूटी जुबां में मीर का कोई शेर पढ़ने लगती हूँ
तो वो कहता है जो मरा दंगों में उसे भी दिल्ली पसंद थी और
बेहद पसंद था मीर
मैं उदास हो कर सड़क की ओर देखने लगती हूँ
और अचानक मुझे याद आता है कि कितने दिन हुए
खिड़कियों के पर्दे बदले हुए
और कितने साल हुए शहर में नए मौसम को आए हुए.
लड़की
सुनो नीली फ्राक वाली लड़की
तुम्हारा नाम क्या है?
वो खिलखिलाकर बोली
‘लड़की’
मैंने देखा एक चिड़िया उसकी नीली फ्राक के कोने से
फुर्र से नीले आकाश में उड़ गई.
कोलियारी की साइकिलें
कोलियारी से कोयला केवल मालगाड़ियों से
कारखाने नहीं जाता या
विद्युत संयत्रों तक पहुँचने की यात्रा
सिर्फ ट्रकों पर नहीं की जाती
कुछ यात्राएं जटिल होती हैं
इतनी ही जटिल जितनी सीलन भरी अंधेरी सुरंगों में रोशनी का पहुँचना
या जैसे ये बता पाना कि झारखंड की जमीन के नीचे
कोयला ज्यादा है या आग?
यहाँ खदानों में दबकर इंसान ज्यादा मरे या संवेदनाएं मरी
आग और कोयले की बहस से दूर हैं कुछ साइकिलें
और पैडल पर मजबूती से टिके हुए उनके दो पैर
ये पैर कितने बाहरी है और कितने स्थानीय?
ये राजनीतिज्ञों के लिए चुनाव का मुद्दा हो सकता है
पर इस बहस से दूर मुझे
सिर्फ इतना पता है कि इनके बच्चें भूखे हैं
और एनीमिया से पीड़ित हैं स्त्रियाँ
इन्हे अभी कई क्विंटल कोयले के साथ
लम्बी यात्रा पर निकलना है
रिपोर्टें उन्हे कोयले के अवैध तस्कर मान कर
प्रश्नांकित कर सकती हैं
पर सच यह है कि राशन कार्ड के इस दौर में भी
भूख से बड़ा उनका कोई
राजनीतिक प्रश्न नहीं है.
सुबह-सुबह उनकी साइकिलें हाँफते हुए
पहाड़ पर चढ़ती हैं
और शाम होने तक पहाड़ हाँफते हुए
बोरे में बंद होकर उनके साथ पहुँच जाता है शहर के बाज़ार
‘पहाड़ों पर साइकिलिंग’
जिसके पेट भरे हुए हैं उनके लिए शौक का विषय हो सकता है
पर साइकिल के साथ भूख के सन्दर्भ
पुलिस, मीडिया, सरकार से मत पूछिए
उनसे पूछिए जिनके बच्चों की नींद में गेंदों के ठप्पों की
आवाज़ नहीं आती
जिनकी स्त्रियों की आँखों में
मच्छलियाँ नहीं पीली उदासी के बादल हैं
इन साइकिलों की परछाई और कदमों की छाप
हर उस सड़क पर है
जहाँ कोयले ने मोरहा से धान को बेदखल कर दिया
अब धुआँ कोलियारी के आकाश से ज्यादा
इन साइकिलों के फेफड़ों में है
ये साल के पेड़ों के लिए साँस लेते हैं.
चाहत अन्वी शोधार्थी, हिन्दी विभाग |
बहुत अच्छी कविताएं। अपने सरोकारों में स्पष्ट और कहन में ताज़गी लिए हुए ।
पहली बार पढ़ा उन्हें ।बहुत बधाई उनको और आपको भी, उनसे मिलवाने के लिए ।
इस दुनिया को विशेष नहीं सामान्य होने से ही बचाया जा सकता है।
साफ सरोकार वाली बहुत अच्छी कविताएँ।
अपने समय में अवस्थित
और समाज से संबद्ध कविताएँ।
स्वागतेय। शुभकामनाएँ।
बहुत अच्छी और संवेदनशील कविताएँ।
सुन्दर कविताएँँ हैं।
समय और समाज को दिखाती अच्छी कविताएं…
यह बहुत पठनीय रचना हुई है। आएशा आरफ़ीन को पहली बात पढ़ रही हूँ और उनके विशद अध्ययन व समर्थ अभिव्यक्ति से प्रभावित हुई हूँ। उन्होंने एक फ़िल्म के सहारे न केवल कला के एक अधखुले आयाम को पूरा खोलने का सफल प्रयास किया है बल्कि कुछ बहुत महत्वपूर्ण उपन्यासों की भी अद्भुत विवेचना की है। एक जगह वे लिखती हैं, मरिआन एक कलाकार है और उसके ख़ला का अपना रंग होगा। भाषा की ऐसी काव्यात्मकता आएशा के लेखन के प्रति आश्वस्ति जगाती है।
चाहत अन्वी की कविताएं एकात्म संवेदनाओं की कविताएं हैं , जहां मनुष्य की पीड़ा का रंग एक जैसा है। उनके यहां सामान्य होकर ही नैसर्गिक हुआ जा सकता है और यही रास्ता मनुष्य होने के बेहद करीब है। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनायें।
बेहतर दुनिया को बनाने की पैरवी करतीं कविताएं।
चाहत अन्वी की कविताएँ बहुत अच्छी है अपने आप में अलग ढंग से लिखी गई कविता अच्छी लगी
संजीव बख़्शी