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समालोचन

Home » उस्मान ख़ान की कविताएँ

उस्मान ख़ान की कविताएँ

उस्मान ख़ान की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं. वरिष्ठ कवि देवी प्रसाद मिश्र के अनुसार, “ उस्मान की कविता में भारतीय नागरिकता के अजनबी में बदलने की निरुपायता और उससे निसृत होता विडंबनाबोध है जो कितने ही संस्तरों वाले व्यंग्यार्थ में बदलता जाता है. उस्मान भारतीय राज्य और सामाजिक संरचना से असंतोष की विकल कर देने वाली निराली आवाज़ हैं.“

by arun dev
September 14, 2023
in कविता
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उस्मान ख़ान की कविताएँ
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उस्मान ख़ान की कविताएँ

कभी एक सिफ़र

एक परेशानी, कभी एक सिफ़र,
एक सूरत दिल की, कभी एक.
मक्खियाँ, तिलचट्टे, नमी एक,
ना फूल, ना पत्ती, ना नदी एक.
यहीं जीता हूँ, यहीं मरूंगा,
यहीं जीएगा, फ़िर कोई एक.


 

क्या है रंज?

क्या है रंज
ओ दिल-ए-संग
रोज़ जाते हो दरियागंज.

लटके हैं तोता-मैना-मैमने,
रंग-बिरंगे,
चुप, चहकते.
रिक्शा रुकते-चलते.
झुलते झोलों में जुते-चप्पल-चश्में.
आईने-अक़्स-आईने.

क्या है रंज!

काग़ज़-कलम-दवातें.
मंदीर-गिरजा-गुरुद्वारे-मस्जिदें.
जलेबियाँ-पराठे.
दीवारों में ठूकी हुई कीलें.
मोमबत्तियाँ, बल्ब, कंदीलें.
साँप, चूहे, मच्छर, तिलचट्टे.
गलियों पर गलियाँ मुड़ती हुईं
मोहल्लों के साथ लगे मोहल्ले.
सब कुछ वैसा ही तो!
फ़िर क्या है रंज!

पीक, पानी, पतीले, प्लेटें
अड्डे, ठठ्ठे, कहकहे
जलती-बुझती सिगरेटें
उठती-गिरती लटें.
टैम्पो, टैक्सी, रेलें.
ठंड, गर्मी, बरसातें,
सब कुछ वही तो!
वही खुदा, वही पंडे
वही हथकंडे.
वही चाकू और गुब्बारे,
सारंगियाँ-तबले. गुंडे.
वही हातिमताई. वही ख़तरे.
वही राँझे. वही हीरें. वही क़िस्से.
वही दुश्मनी. वही रंजिशें.
वही तंज़. वही रंज.

फ़िर रोज़ क्यों जाते हो दरियागंज!


 

बेचैनी

मैं किसी का साथ नहीं चाहता
इस सघन सन्नाटे में
फाँसी के फंदे की तरह
सबकुछ की समाप्ति के बाद
देर तक झुलते रहना चाहता हूँ
अपने में, अपने से, अपने लिए
निराकार इस अँधेरे में

मेरी सारी सुनवाइयाँ टलती जा रही हैं
मैं कभी अस्पताल में होता हूँ
कभी मेरी साइकिल पंचर हो जाती है
कभी सब्ज़ी बनने में देर हो जाती है
मुझपे जुर्माने ठोंक दिये जाते हैं
मेरी अनुपस्थिति में, मेरे नाम पर
पेन की निब तोड़ दी जाती है
(मेरे चेहरे पर स्याही पुत जाती है)

तुम्हें याद है
एक बार
जब सुबह ख़ूबसूरत थी
हम भूल आए थे
अपने पैरों के निशान

समन्दर ने उन्हें सहेज रखा है
आओ कभी, तो ले आएँ
मेरा उसका तो मनमुटाव है

मैं पूछना चाहता हूँ
क्या तुम अब भी
फागून में उदास हो जाते हो
और शाम के डूबने में
टूटे पीले पत्तों पर
गीत लिखते हो

पर, तुम तो
कोई बात ही नहीं करते अब
दीवारों और सड़कों के अलावा
दीवारें- जिनमें से तुम कारतूस निकालते हो
और सड़कें- जहाँ तुम ख़ून सना रिबन लिये भटकते हो

मैं लौटता हूँ (बाहर)
और चैन नहीं पाता
और फ़िर लौटता हूँ (भीतर)
और अधिक बेचैन हो जाता हूँ

ना तुम आते हो,
ना मौत आती है,
सिर्फ़ मैं आता हूँ
बार-बार
इस सघन सन्नाटे में
लटके रहने के लिए
इस अँधेरे में निराकार


 

राजनीति

हमें ज़रूरत है ऐसी पतलूनों की
जो जेलों में भी काम आ सकें और सड़कों पर भी,
हमें ज़रूरत है ऐसे चश्मों की
जिनसे दूर जाते बसंत के साथ
दिख सकें पास आते हत्यारे भी,
हमें ज़रूरत है ऐसे जूतों की
जिन्हें पहनकर पानत भी की जा सके
और ज़ुल्म की मुखालफ़त भी,
हमें ज़रूरत है ऐसी घड़ियों की
जिनमें अतीत की व्यथाओं और भविष्य की आशंकाओं के साथ
चलती हों तत्काल की जद्दोजहद भी.

हम जिनकी पतलूनों की सीवनें उधड़ी हैं.
हम जिनके लिए बसंत भी हत्याओं की कड़ी है.
हम जिनके पैरों में बिवाइयाँ पड़ी हैं.
हम जिनके लिए जद्दोजहद हर घड़ी है.

हमें बाज़ारों की नहीं, साथियों की ज़रूरत है
कि कसमसाते हैं सामानों तले अलगाव हमारे
हमें पूँजी की नहीं, प्यार की ज़रूरत है
कि अपना जिस्म महसूस कर सकें हम
हमें मालिकों की नहीं, कलाकारों की ज़रूरत है
कि टीसती हैं अनकही पीड़ाएँ हमारी
हमें विज्ञापनों की नहीं, आत्म-ज्ञापनों की ज़रूरत है
कि खाली आँतें ज़िंदगी का बोझ नहीं उठा सकतीं
हमें परमाणु बमों की नहीं, पतलूनों की
चश्मों की, जूतों की, घड़ियों की ज़रूरत है
कि ज़िंदगी को भरपूर जीना चाहते हैं हम.


 

चुप किसी का साथ नहीं देती

चीखने और ना चीखने के बीच कसमसाती
कितनी सुबहें
चुप के कप में भर गई हैं

चाकुओं और आँतों के बीच तिलमिलाती
कितनी दोपहरें
चुप के जूतों में गुज़र गई हैं

धमाकों और चिथड़ों के बीच गूँजती
कितनी शामें
चुप के जाम में उतर गई हैं

भूख और दुःख के बीच सुबकती
कितनी रातें
चुप के घरों में मर गई हैं

साल-दर-साल जमते गए हैं
चुप बनती गई है धूर्तता,
भय से भारी भूल नहीं कोई
अमरता से महान मूर्खता.
एक चीख से ज़िंदगी शुरू होती है
फ़र्क़ ज़ाहिर होता है, शरीर का,
चुप किसी का साथ नहीं देती
ना पैर का, ना सिर का.

उस्मान ख़ान
(12-07-1984)

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से मालवा के लोक–साहित्य पर पीएच.डी. फ़िलहाल रतलाम के एक कॉलेज में अध्यापन कर रहे हैं.
usmanjnu@gmail.com
Tags: 20232023 कविताएँउस्मान ख़ान
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Comments 8

  1. Madan Pal Singh says:
    2 years ago

    रचनाकार ने घटनाओं को अलग तरह से देखा है। क्या है रंज?…. फ़िर रोज़ क्यों जाते हो दरियागंज!
    इसमें गजब की दृश्यता है।

    Reply
  2. खुर्शीद अकरम says:
    2 years ago

    इन कविताओं का दुख जघन्य है। वर्णन घना है।

    Reply
  3. शिरीष मौर्य says:
    2 years ago

    राजनीति बहुत सुन्दर कविता है। कोई सरलीकृत अलगाव बोध नहीं, बहुत गुंथी और धंसी हुई कविता।

    Reply
  4. Sushil Suman says:
    2 years ago

    पढ़ा। बहुत अच्छी कविताएँ हैं। बार-बार पढ़ी जाने वाली कविताएँ। आख़िरी दोनों तो बहुत मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली हैं।

    ये कविताएँ, सरल और गहन एकसाथ हैं। उस्मान ख़ान की इन कविताओं में समाज से कवि की चाहत जिस तरह से अभिव्यक्त हुई है, पीड़ाओं का जिस तरह से बयान है, वह इतना सादा, सच्चा और मितभाषी है कि पाठक के मन में उसकी गूँज देर तक रहने वाली है। बशर्ते कि लोग ठहर कर पढ़ें इन कविताओं को।

    Reply
  5. डॉ. सुमीता says:
    2 years ago

    बेचैन कर देने वाली कविताएँ हैं जिनकी गूँज देर तक बरक़रार है।

    Reply
  6. Rafiq Khan says:
    2 years ago

    All Poetry is Really Good Usman ji…

    Reply
  7. Rajesh Bharti says:
    2 years ago

    बहुत ही सरल तरीके से शानदार कविताएँ

    Reply
  8. Anonymous says:
    2 years ago

    सीधा दिल पर वार कर दिलमें अंदर तक पैवस्त होती हुईं!

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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