चित्तधर ‘हृदय’
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एक छोटे से नेपाली उपन्यास ने मेरा मन मोह लिया. नेपाल भाषा (नेवार भाषा या नेवारी) की यह कृति काठमांडू में अपने अंग्रेजी अनुवाद ‘लेटर फ्रॉम अ ल्हासा मर्चेंट टु हिज़ वाइफ़’ की शक्ल में मुझे प्राप्त हुई. लेखक चित्तधर ‘हृदय’ के नाम से इसके पहले मेरा कोई परिचय नहीं था. किताब खरीदने की अकेली वजह थी इसके बैककवर पर मूल शीर्षक ‘मिंमनःपौ’ के नीचे लिखी यह इबारत कि ‘यह ल्हासा में रह रहे एक नेवार सौदागर द्वारा काठमांडू में रह रही उसकी पत्नी को लिखा गया पत्र है. ऐसा पत्र, जो इस स्त्री की मृत देह को निगल गई लपटों में भी जलने से बचा रह गया.’ चित्तधर ‘हृदय’ (1906-1982 ई.) नेपाल भाषा के सबसे बड़े रचनाकार हैं, यह जानकारी मुझे बाद में हुई.
यहाँ लगे हाथों एक बात बता देना जरूरी है कि नेपाल भाषा का मतलब नेपाली भाषा नहीं है. जिस नेपाली जुबान से हमारा थोड़ा-बहुत परिचय है, उसे काठमांडू घाटी में हाल-हाल तक खस भाषा या गोरखा भाषा के रूप में जाना जाता था. यह हिंदी की ही तरह इंडो-यूरोपियन परिवार की भाषा है. इसके उलट नेपाल भाषा नेपाली से बहुत अलग, तिब्बतो-बर्मन परिवार की भाषा है और इसकी बोलचाल का दायरा काठमांडू घाटी तक ही सीमित है. सन 1769 ई. में काठमांडू घाटी समेत पूरे नेपाल में गोरखा राज कायम हो जाने के बाद नेपाली राष्ट्रभाषा बन गई, जबकि नेपाल भाषा में लिखने-पढ़ने को राजदरबार की ओर से राष्ट्रविरोधी षड्यंत्रकारी गतिविधि घोषित कर दिया गया.
स्वयं चित्तधर ‘हृदय’ (मूल नाम- चित्तधर साहू तुलाधर) को इस अपराध में सन 1941 में जेल जाना पड़ा, जहाँ से उनकी रिहाई पूरे सात साल बाद श्रीलंका के बौद्धों की ओर से की गई एक बड़ी राजनयिक पहलकदमी के तहत ही हो पाई. ‘मिंमनःपौ’ की कहानी को फिलहाल एक तरफ रखकर इसकी पृष्ठभूमि के बारे में मुझे कुछ कहना है.
तिब्बत की राजधानी ल्हासा में कुछ दिन बिताने का मौका मुझे मिल चुका है. वहाँ होटल ‘ब्रह्मपुत्र’ के नेपाली शेफ और लंबे-चौड़े स्टाफ में गोरखा टोपी से अपनी धाक जमाए हुए एक बेयरे ने इस शहर में तीसरी शाम खिचड़ी खिलाने का मेरा अनुरोध स्वीकार करके लगातार चीनी भोजन से पैदा हुई मेरी अरुचि का शमन किया था.
तिब्बत में नेपाली सौदागरों की एक विचित्र परंपरा का जिक्र राहुल सांकृत्यायन की कुछ किताबों में भी आया है. वह यह कि ये सौदागर एक प्रथा की तरह अपनी विवाहिता पत्नी को कभी तिब्बत नहीं ले जाते थे. वहाँ किसी तिब्बती स्त्री के साथ वहीं की रीति-नीति से विवाह करके रहते थे. इस दूसरी पत्नी से पैदा हुए बेटे की नेपाली नागरिकता होती थी और उसको पिता की संपत्ति में हक मिलता था, जबकि बेटी तिब्बत की नागरिक होती थी और उसके प्रति पिता की जिम्मेदारी केवल पालन-पोषण और विवाह तक सीमित रहती थी.
जाहिर है, बेटे का हक भी सौदागर की तिब्बती संपत्ति में ही होता था. नेपाल आकर नेपाली पत्नी के बेटों से अपना हक लेने की गुंजाइश उसके सामने अक्सर नहीं बनती थी. तिब्बत पर चीन के कब्जे, उसकी सांस्कृतिक क्रांति, व्यापार के सरकारी अधिग्रहण और बाकी उथल-पुथल का सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था पर कैसा असर पड़ा है, इस बारे में ज्यादा खोजबीन मैंने नहीं की, क्योंकि यह कोशिश मेरे तिब्बत दौरे का बेड़ा ही गर्क कर सकती थी.
ल्हासा में अपने होटल के नेपाली स्टाफ को इस इतिहास अर्जित दृष्टि से देखना उसके प्रति दिलचस्पी जगाने के लिए काफी था, लेकिन हजारों साल से काठमांडू घाटी में रह रही नेवार जाति का अंतरंग अनुभव तिब्बत, खासकर ल्हासा शहर को लेकर कैसा रहा है, इसके कुछ सूत्र मुझे इस किताब से मिलने की उम्मीद थी.
फिलहाल चित्तधर ‘हृदय’ की रचना ‘मिंमनःपौ’ में प्रवेश करने से पहले दो-एक बातें इसके लेखक के बारे में अलग से बता देना जरूरी है. सन 1906 ई. में जन्मे चित्तधर साहू पुश्त दर पुश्त तिब्बत में व्यापार करते आ रहे एक प्रतिष्ठित कारोबारी परिवार के चश्मोचिराग थे. संयोगवश वे खुद इस कारोबार में जाते-जाते रह गए और 1934 में उनके पिता द्रव्यधर साहू तुलाधर ने भी ल्हासा से अपना बिजनेस समेट लिया.
चित्तधर हृदय प्रचुर मात्रा में लेखन करने वाले व्यक्ति थे. छोटी-बड़ी मिलाकर उनकी लगभग सौ रचनाएं प्रकाशित हैं. लेकिन अपने काम में गहराई को लेकर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया. जेल में जैसे-तैसे कागज जुटाकर गौतम बुद्ध पर केंद्रित महाकाव्य ‘सुगत सौरभ’ उन्होंने लिखा और उसे अपना बेटा कहते थे. मिंमनःपौ उपन्यास सन 1968 में छपकर आया और इसे वे अपनी बेटी कहते थे.
घनी दाढ़ी और नफीस रहन-सहन वाले चित्तधर हृदय की पत्नी कम उम्र में दिवंगत हो गई थीं. उनकी तस्वीर के साथ रोज कुछ देर बैठना 1982 में हुई लेखक की मृत्यु तक उनकी दिनचर्या का जरूरी हिस्सा बना रहा. नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के बाद सार्विक मताधिकार से चुनी गई वहाँ की पहली सरकार ने चित्तधर ‘हृदय’ की याद में एक डाक टिकट सन 1992 में जारी किया.
चिट्ठी से निकली कहानी
विष्णुमती नदी के किनारे कर्णदीप श्मशान में एक वृद्ध स्त्री की लाश जलाई जा रही है. रात काफी बीत चुकी है और स्त्री के शव के साथ आए परिजन घर लौट चुके हैं. वहाँ मौजूद लाश जलाने की मजदूरी करने वाले लोग जहाँ-तहां बिखरे अंगारों में कोई कीमती चीज खोज लेने की जुगत में लगे हैं कि तभी उनकी नजर आग से सुरक्षित रह गए एक बटुए पर पड़ती है, जिसमें बारीक लिखावट वाला कागजों का एक पुलिंदा पड़ा है. निराशा में वे इस पुलिंदे को आग में फेंक देते हैं, तभी एक व्यक्ति इसे खींचकर पढ़ता है और पाठक के लिए कहानी में जाने का रास्ता खुल जाता है.
यह चिट्ठी बचपन में ही ब्याह दिए गए एक नेवार बौद्ध व्यापारी ने अपनी पत्नी को लिखी है. इतने नजदीकी रिश्ते में दोनों में से किसी का नाम चिट्ठी में न होना लाजमी है. पूरी किताब चीजों, जगहों और तीज-त्यौहारों के ब्यौरों से अटी पड़ी है, लेकिन कुछ पदनामों के सिवाय इंसान सारे बेनाम ही हैं. वर्णनात्मक लेकिन मर्यादित शैली में बाली उमर के पति-पत्नी के साथ-साथ जवान होने का जिक्र है. फिर चिट्ठी लिखने वाले की तिब्बत रवानगी का विकट किस्सा है.
किरोंग बॉर्डर पर हर यात्री को दो कलाबाजियां मारकर दिखाना जरूरी है. यह कोई सरकारी टोटका नहीं, जाने वाले के जिंदा बच पाने की शर्त है. सैकड़ों फुट की ऊंचाई पर रस्सों के सहारे लटके तख्तों वाले पुल, जिनपर लगातार पड़ते तुषार से हमेशा फिसलन बनी रहती है. जब-तब ये तख्ते निकल भी जाते हैं और इंसान अपना संतुलन खोकर पंछियों की तरह उड़ते हुए नीचे पहुंच कर टूटी-बिखरी दशा में ही पहाड़ी नदी में बह जाते हैं.
ऊंचे पहाड़ों का डांड़ा पार करने से पहले भिंद्यो (भीमदेव) की पूजा की जाती है, फिर भी बर्फबारी और तूफान वहाँ एक साथ आ गए तो किसी के बचने का सवाल ही नहीं पैदा होता. व्यापारी की यात्रा रोमांचक है और तिब्बत से जुड़े उसके वर्णन जगह-जगह बांध लेने वाले हैं. लेकिन उसके पिता ने उसे कारोबार संभालने और खुद थोड़ी राहत की सांस लेने के लिए ल्हासा बुलाया है, मजे करने के लिए नहीं. धंधे में लड़के के पांव जमने के साथ ही पिता सबके लिए मोटी सौगातें लेकर नेपाल लौटता है, फिर साल-दो साल गुजरने पर उसके मरने की चिट्ठी ल्हासा पहुंचती है.
इससे पहले लेखक ने तिब्बत में नेवारों की बस्तियों का विशद वर्णन किया है. इन्हें पाला कहते हैं. कुल दस पाले. तिब्बती माहौल में रचे-बसे अमीर लोग. नेवारों के सारे त्यौहार यहाँ मनाए जाते हैं, लेकिन कुछ बदलावों के साथ. परहेजी नेवार बौद्धों में पुरानी बलि प्रथा का निर्वाह पेठे वाला कद्दू काटकर किया जाता है. ल्हासा में यह कद्दू नहीं मिलता तो परंपरा जारी रखने के लिए मोटी मूली काटी जाती है.
नेपाली राजदूत का जिक्र लेखक ने ‘वकील’ के रूप में किया है और खुद का हवाला देते हुए कहा है कि ‘कवि केसरी’ चित्तधर के एक पूर्वज तेजधर चार किलो (393.5 तोला) ठोस सोने के दीए में घी भरकर आरती करते बरखोर मंदिर (जोखांग टेंपल) गए थे. वहीं उनकी कमर में दर्द उठा जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण बना.
कुछ वर्णन सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं और उनके कहीं और मिल पाने की संभावना अब न के बराबर है. जैसे, तिब्बती कबीलों के बारे में किताब कहती है कि ठंड कम होते ही नेवारों की दुकानों में ‘पहले तोपा और फिर गोलोक आते थे.’ इनमें तोपा (तूपा) नाम अब शायद ही सुनने को मिले. आदरसूचक शब्द ‘पा’ के साथ यह ‘तू’ जाति चिंघाई प्रांत के बहुत ठंडे, ऊंचे, पहाड़ी पूर्वी इलाके में रहती है.
अभी तो चिंघाई चीन का एक अलग प्रांत है, लेकिन चित्तधर हृदय की कहानी उस समय की है जब चिंघाई तिब्बत का ही हिस्सा हुआ करता था और तोपा लोगों के कारवां बहुत लंबी दूरी तय करके बाजार करने ल्हासा आया करते थे. वे बताते हैं कि तोपा लोग नेवारों के सबसे भरोसेमंद ग्राहक थे और सौदा खरीदने के बाद उनसे आशीर्वाद भी मांगते थे. ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी मान्यता ऐसी थी कि किसी को पैसा देने पर पाप लगता है!
तिब्बत में चीनी शासन के खिलाफ बगावत शुरू करने वाली जाति ‘गोलोक’ का बड़ा हिस्सा उजड़कर भारत आ गया है. किताब में उनका जिक्र ‘देखने में जंगली, साहसी और बात-बात पर उबल पड़ने वाले’ लोगों के रूप में आया है. संयोगवश, मेरे एक तिब्बती मित्र इसी जाति के हैं और बहुत सौम्य हैं. उन्हें यह किताब पढ़ने को मिले तो शायद वे खूब हंसें. मौजूदा दलाई लामा की अम्दो जाति के बारे में लेखक का कहना है कि रास्ते में कहीं पानी नहीं मिलता और बर्फ खोजने का वक्त भी नहीं होता तो ये लोग भेड़ के खून से सत्तू सान लेते हैं और खाकर आगे बढ़ जाते हैं.
बुद्ध के धर्म में दो रास्ते
सौदागर को तिब्बत आए पांच साल बीत चुके हैं. अक्षरों की दुनिया में पत्नी का कोई दखल नेवार परंपरा के अनुसार नहीं है, सो घर से चिट्ठी-पत्री जारी रहने के बावजूद पत्नी से कोई सीधा संवाद उसका नहीं बन पाया है. इस क्रम में उसे पता भी नहीं चल पाता, लेकिन उसकी गृहस्थी की जमीन खिसक चुकी होती है. सयाना हो चुका व्यापारी आते समय की सारी मशक्कतें हूबहू एक बार फिर से दोहराने के बाद घर लौटता है. 23 की उम्र में गया था, 28 का होकर वापस आया है. लेकिन पत्नी लाख कोशिशों के बाद भी उससे बात नहीं करती. हां-हूं करके रह जाती है.
बीच में कुछ राजनीतिक प्रकरण भी आता है. नेपाल की ओर से तिब्बत पर हमला होने वाला है, ऐसी चर्चा जोरों पर है. 1930 के आसपास का यह प्रकरण राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘तिब्बत में सवा बरस’ में भी आया है, लेकिन कुछ मजेदार हलचलों के साथ बहुत सादा ढंग से. इस उपन्यास में तो एक आदमी की जिंदगी दांव पर लगी हुई है.
जवान व्यापारी दुविधा में है कि युद्ध जैसी इन तनावपूर्ण स्थितियों में ल्हासा लौटे भी, या नौकरों से जितना होता है, उतने पर ही सबर करके यहीं नेपाल में ही पड़े रहे. सात पुश्तों का कारोबार नौकरों पर छोड़ने का जी नहीं करता, लेकिन वहाँ जाकर अब कुछ कमाना नहीं, सब कुछ गंवाना ही है, ऐसा एहसास भी कहीं उसके भीतर है.
खैर, माहौल सुधरने के बाद तिब्बत की दूसरी यात्रा वह किरोंग, कुती, शीगर्ची, ग्यांची, ल्हासा के क्रम में नहीं बल्कि भारत के रास्ते, भीड़ और रेलवे के अनुभवों से गुजरते हुए कलिंपोंग (सिक्किम) से होकर करता है. यह रास्ता भी आसान नहीं है, लेकिन उससे भी बुरी बात यह है कि युवक का मन टूटा हुआ है. उसकी उम्र अभी तीस साल हो चुकी है और खयालों में उसका जो संवाद पत्नी से चलता रहता था, उसकी गुंजाइश भी अब खत्म हो चुकी है.
यहाँ से आगे उसकी नियति ल्हासा के साथ ही बंधी है, ऐसा एक खुटका इस दूसरी तिब्बत यात्रा के ब्यौरों में नजर आता है. अपने इर्दगिर्द रहने वाले ल्हासा के नेपाली सौदागरों की तरह वह भी एक तिब्बती लड़की से ब्याह करता है. मां के मरने की खबर आती है लेकिन नेपाल लौटने की कोई वजह समझ में नहीं आती. इसी समय उसे पता चलता है कि उसकी पत्नी की उदासीनता अकारण नहीं थी. उसका मन नेपाल में उभर रहे ‘थेरवाद’ से जा मिला है.
कहानी में एक बड़ा मोड़ सौदागर की तिब्बती पत्नी की मृत्यु के बाद आता है, जिसके साथ ही उसका जीवन उदासी और अवसाद से भर जाता है. कुछ साथियों का कहना है कि हमेशा के लिए नहीं तो कुछ समय के लिए उसे अपनी नेपाली पत्नी के पास चले ही जाना चाहिए. ऐसा सारे लोग करते हैं और उनकी गृहस्थी बेखटके चलती रहती है. लेकिन यह बात किसी को भी समझाई नहीं जा सकती कि यहाँ मामला पहली पत्नी से भौतिक दूरी का नहीं है.
बीच में तेरहवें दलाई लामा की मृत्यु के बाद शिशु रूप में चौदहवें दलाई लामा के ल्हासा आने, फिर चीनी फौजों के तिब्बत में प्रवेश और तिब्बत पर चीन के प्रशासनिक कब्जे के ब्यौरे भी आते हैं. लेकिन कुछ इस तरह कि ल्हासा के नेपाली सौदागर इससे बहुत खुश हैं और तिब्बती भी कुछ खास दुखी नहीं हैं.
यहाँ से आगे नेवार बुधिज्म, मोटे तौर पर कहें तो गृहस्थ स्वरूप वाले वज्रयान की तरफ से गृहत्यागी मिजाज वाले थेरवाद (हीनयान) के खिलाफ एक सीधी बहस इस उपन्यास में दिखती है. हालांकि यह बहस एकतरफा है. किसी थेरवादी चिंतक का तो दूर, पत्नी का भी कहा या बताया हुआ एक अक्षर आपको इसमें देखने को नहीं मिलता.
हां, यह चिट्ठी अपने साथ लेकर जिंदगी गुजार देने, चिता में जलकर राख हो जाने के उस स्त्री के फैसले से यह नतीजा निकाला जा सकता है कि पति की बातों से वह सहमत भले न रही हो लेकिन उसकी प्रवृत्ति इन्हें अधिकतम गंभीरता से लेने की थी. गृहत्यागी बुधिज्म के खिलाफ यह एक गृहस्थ बौद्ध का सघन भावनात्मक विमर्श है.
गृहविनय बनाम ‘आत्मार्थे पृथ्वी तजेत’
पूरे ग्यारह साल बाद पति-पत्नी की एक अंतिम मुलाकात कलकत्ता में होती है. भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद ब्रिटिश हुकूमत गौतम बुद्ध के दोनों पट्टशिष्यों सारिपुत्र और मौद्गलायन की अस्थियां भारत को सौंपने जा रही है. एक दिनचर्या की तरह पत्नी को चिट्ठी लिखता रहने वाला व्यापारी इस महान अवसर पर तीर्थयात्रा के लिए भारत आया हुआ है. वहीं एक बौद्ध मठ में उसकी नजर पत्नी पर पड़ती है, जो वहाँ शायद भिक्षुणी बनने के लिए आई है.
दोनों की आंखें मिलती हैं. एक-दूसरे को दोनों अच्छी तरह पहचान भी जाते हैं. एक बार तो उनमें बात होने की नौबत तक आ जाती है. लेकिन यह बात पत्नी खुद नहीं करती. उसकी कोई चचेरी-ममेरी बहन करती है. ‘क्या अभी आप घर नहीं जा रहे हैं? आपको जरूर जाना चाहिए.’ ‘पहले अपनी यह तीर्थयात्रा तो पूरी कर लूं.’ ‘ठीक है. फिर अपना तीर्थ-व्रत पूरा कर लेने के बाद नेपाल जरूर आइएगा.’ अनजाने में दिख भर जाने के चलते निभा ली गई इस औपचारिकता के दौरान पत्नी की आंखों में इतना विरक्त ठंडापन अपने पति को लेकर मौजूद है कि जो रत्ती भर उम्मीद व्यापारी के मन में इस रिश्ते को लेकर बची हुई थी, वह भी वहीं की वहीं चकनाचूर हो जाती है.
किसी परदेसी पुरुष और गांव में रह रही उसकी पत्नी के बीच के रिश्ते लंबे अबोले के बाद तड़क कर टूट जाने के हजार किस्से हाल तक कहीं भी सुनने को मिल जाते थे. लेकिन यहाँ एक फर्क है. शुरू में ही कह चुका हूं कि यह उपन्यास मुझे किस्से से ज्यादा अपनी वैचारिकी में भाता है. संवादहीनता के बीच चली एकतरफा बहस के धार्मिक आयामों की बुनियादी समझ बनाने के लिए इसके अंत में आए चार-पांच पैराग्राफ यहाँ अनूदित रूप में प्रस्तुत हैं. हालांकि नेपाल भाषा से अंग्रेजी और वहाँ से हिंदी तक पहुंचने में इनका तत्व विकृत हो जाने का खतरा कम नहीं है.
‘भिक्षु या भिक्षुणी का जीवन तभी उचित है जब महाकश्यप या कपिलायनी की तरह संबंधित व्यक्ति का झुकाव जीवन के शुरुआती दौर से ही विरक्ति की ओर हो. बाकी लोगों के लिए बुद्ध ने श्रीगलम (सिंगालपुत्र) को जो सलाह दी थी, उसे गृहस्थों के लिए बने ग्रंथ ‘गृहविनय’ में देखा जा सकता है. सलाह यह थी कि पति को अपनी पत्नी से प्रेम करना चाहिए और पत्नी को अपने पति का सम्मान करना चाहिए. तुमने तो इसे पढ़ा ही होगा.
‘वे लोग, जो कहते हैं, ‘आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेत’ (आत्म के लिए पूरी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिए), शायद ऐसे ही होते हैं, जिन्हें सिर्फ अपनी परवाह होती है. बाकी सबका जो होता है, होता रहे. किसी बौद्ध के लिए इस तरह सोच पाना शायद ही कभी संभव हो. महायान की शिक्षा तो यहाँ तक कहती है कि दशपारमिता पूरी कर लेने और बुद्धत्व प्राप्त कर लेने के बाद भी मनुष्य को समस्त संसार के सभी प्राणियों के कल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिए.
‘सामान्य मनुष्य के जीवन की भर्त्सना कहीं भी नहीं की गई है. महाकाव्य ‘महाभारत’ में (दो प्राणियों के बीच) भरोसे का एक महान उदाहरण दिया गया है. महाराज युधिष्ठिर कहते हैं, ‘यह कुत्ता इतने भरोसे से मेरे पीछे लगा-लगा यहाँ तक आ गया है. स्वर्ग में भी अगर मैं इसको अपने साथ लेकर नहीं जा सकता तो फिर मैं यहीं ठीक हूं.….
‘फिर तुम मुझे कैसे भूल गईं? इस तरह की कोशिश ही तुमने क्यों की? मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई अपराध मैंने कर दिया था, जिसकी इतनी कड़ी सजा होनी चाहिए थी. अब भी मैं हमेशा तुम्हारे बारे में ही सोचता हूं. ….एक ऐसे व्यक्ति का तिरस्कार करना, जो तुमसे गहराई से प्यार करता था, और एक समय तुमने भी जिससे इतना प्यार किया था कि छोटे से अलगाव पर भी रो पड़ती थीं. तुम्हें नहीं लगता कि यह पाप था?….
‘तुमने मुझे ऐसे समय में त्याग दिया, जब पांच वर्षों के लंबे अलगाव के बाद मैं घर लौटा था और टूटे धागे जोड़कर पहले की तरह सामान्य जीवन में लौटने का प्रयास कर रहा था. दस महापापों में से तीन सचेतन या अचेतन ढंग से मन के साथ ही जुड़े हुए माने गए हैं. तुम कह सकती हो कि तुमने सचेत ढंग से कोई पाप नहीं किया है. भौतिक रूप से तुमने कुछ भी गलत नहीं किया है और तुम्हारा शरीर शुद्ध है. लेकिन मुझे विश्वास है कि मुझसे दूर रहने और मेरे साथ होने से बचने का तुम्हारा सतत प्रयास भी एक पाप ही था.
‘यह मन का पाप था, इससे तो तुम भी इनकार नहीं कर सकतीं. बर्मा में कोई स्त्री यदि किसी के प्रेम का प्रतिदान नहीं कर पाती, तो भी वह उससे विवाह कर लेती है कि कहीं उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का पाप उससे न हो जाए. एक सच्ची स्त्री का मन ऐसा होता है!’
‘अब मुझे बताओ कि नेवार विवाह के सारे पारंपरिक पवित्र अनुष्ठान पूरे करने के बाद- सुपारी बदलने, बालों में कंघी करने और माथे पर सिंदूर का टीका लगाने जैसे सारे कर्मकांडों के बाद आखिर यह कौन सा धर्म तुमने अपना लिया है, जिसके रास्ते पर चलते हुए मुझसे घृणा करना और मुझे चोट पहुंचाना तुम्हारे लिए जरूरी हो गया है? तुमसे इतना प्यार करने के बाद क्या मैं तुम्हारे इसी व्यवहार के लायक हूं? ….
‘शायद तुम्हें लग रहा हो कि मैं घर आ रहा हूं और वहाँ आकर जरूर कुछ बखेड़ा खड़ा करूंगा. लेकिन घबराने की कोई जरूरत नहीं है. मैं तुम्हारे रास्ते में नहीं आने वाला. तुम्हें तो मैं यह भी नहीं बताने जा रहा कि अभी ल्हासा में ही हूं या कहीं और रह रहा हूं. न ही कुछ ऐसा करूंगा कि मुझे खोजना तुम्हारे लिए मजबूरी बन जाए.
‘यहाँ की सारी संपत्ति और कारोबार मैं अपने कर्मचारियों को सौंप दूंगा. अगर वे ईमानदार हुए तो निश्चय ही संपत्ति में तुम्हारा हिस्सा तुम्हें दे देंगे. लेकिन अगर नहीं दिया तो भी जिंदा रहने के लिए तुम्हें पैसों की जरूरत नहीं है. तुम तो सिर्फ यह सोचकर संतुष्ट हो सकती हो कि यह संपत्ति तुमने कर्मचारियों को दान कर दी है. महीने भर में या इसी के आसपास मैं ऐसी जगह जा रहा हूं, जहाँ न कोई मुझे जानता होगा, न ही मैं वहाँ किसी को जानता होऊंगा.’
परंपरा और परिवर्तन के बीच
‘ल्हासा से एक पत्र’ शीर्षक से एक छोटी कहानी के रूप में चित्तधर हृदय ने इस कथा को जेल से निकलने के पहले ही लिख लिया था. 1948 में ‘आखे’ नाम की पत्रिका में यह प्रकाशित हुई. समृद्धि के प्रतीक के रूप में बहू-बेटियों की विदाई के समय उनके आंचल में जो चावल डाला जाता था- भोजपुरी में जिसे खोंइछा कहते हैं- नेपाल भाषा में उसके लिए ‘आखे’ शब्द आता है. बाद में इस कहानी को उपन्यास में बदलना लेखक को जरूरी लगा, लेकिन इस काम में बीस साल लग गए. जरूरी क्यों लगा, इस बारे में कोई चर्चा मुझे पढ़ने को नहीं मिली.
हीनयान (थेरवाद) तब नेपाली बौद्धों के बीच ‘इन थिंग’ हुआ करता था, और आज भी है. राणाशाही ने नेपाल भाषा और हीनयान, दोनों को ही विद्रोही गतिविधि की तरह देखा और इनसे जुड़े बौद्धिकों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ गिरफ्तारी से लेकर देशनिकाले तक के आदेश जारी किए. बुद्ध को भगवान के बजाय मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करना तर्क, बुद्धि और संवेदना की पुनर्स्थापना करने जैसा ही था. ऐसे में नेपाल भाषा के शीर्ष साहित्यिक व्यक्ति का हीनयान के खिलाफ खड़े होकर बहस करना उसके युवा पाठकों में पिछड़ेपन की निशानी समझा गया होगा.
1920 के दशक में कुछ नेपाली युवकों ने तिब्बत जाकर धर्म सीखने का प्रयास किया था और वहाँ से भिक्षु का चोला धारण करके लौटने पर उन्हें सरकारी विरोध का सामना करना पड़ा था. इस क्रम में ही वे अपने देश की दक्षिणी सीमा पार करके कुशीनगर आए, जहाँ चंद्रमणि भिक्षु के संपर्क से उनके जीवन की दिशा बदल गई. तिब्बत से वे वज्रयान सीखकर लौटे थे, भारत से हीनयान सीखकर वापस गए. यह पूरी हलचल ‘मिंमनःपौ’ में दिखाई पड़ती है.
लेखक खुद इस हलचल का हिस्सा है. ल्हासा में बैठे-बैठे नेपाल भाषा के अक्षरों की ढलाई उसकी कहानी के नायक के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है. अपने पत्र में ही वह कहीं राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ पढ़ता हुआ तो कहीं बौद्ध धर्म के उन्नयन के लिए सारनाथ से निकलने वाली पत्रिका ‘धर्मदूत’ को मोटा चंदा भेजता हुआ दिखता है.
लेकिन सारे उत्साह के बावजूद नेवार बुधिज्म की समृद्ध परंपरा को खारिज करने का रुझान उसमें नहीं है. वह सबको साथ लेकर चलने वाले इस धर्म की मानवीय संपदा के साथ खड़ा है और उसी में नए सिरे से बुद्ध का संधान करना चाहता है. यहाँ से देखने पर वह हीनयान का नहीं बल्कि ‘हीनयानी फैशन’ का विरोध करता नजर आता है.
कठघरा तोड़कर देखें
भारत में बुद्ध के धर्म के प्रति उदार दृष्टि रखने वाले बौद्धिक तबके में भी यह धारणा बनी हुई है कि इस धर्म के मानवीय और तार्किक जीवन मूल्य केवल हीनयान में ही सुरक्षित हैं. महायान के आगमन के साथ इसमें मंबो-जंबो के लिए गुंजाइश बनाई गई, जबकि वज्रयान तो है ही चमत्कारवाद, बाबावाद, अतार्किकता और सामाजिक जड़ता का नमूना. इस धारणा के मुताबिक, वज्रयानियों के जीवन व्यवहार की तुलना में शंकराचार्य का हिंदुत्व समाज को कहीं ज्यादा मानवीय और प्रगतिशील लगा होगा. नेपाल के पारंपरिक वज्रयानी पंथ, नेवार बुधिज्म में जातिनुमा सामाजिक संरचना और उसके विहारों पर शाक्यों-वज्राचार्यों का नियंत्रण इस धारणा को और मजबूत करता है.
लेकिन मामला अगर आस्तिकता बनाम नास्तिकता का ही न बन जाए तो एक धर्म के स्वभाव, और समाज में उसकी भूमिका को लेकर इतने बड़े निष्कर्ष किसी जल्दबाजी में नहीं निकाले जाने चाहिए. हमारे यहाँ यह जल्दबाजी अन्य धर्मों के विविध पंथों को लेकर भी दिखाई जाती है. शिया अच्छे, सुन्नी बुरे. सूफी अच्छे, शरियत में रहने वाले बुरे. सीरियन ऑर्थोडॉक्स अच्छे, मिशनरी ईसाई बुरे. अनुभव इसे खारिज करता है, फिर भी यह सिलसिला अंतहीन है.
नेवार बुधिज्म में जाति ऊपर से थोपी गई है. एक बार मल्ल शासन में और फिर राणा शासन में इस धर्म का पूरा ढांचा नष्ट करके इसे मनुस्मृति के इतने करीब लाने का प्रयास किया गया, जितना हिंदू धर्म को भी नहीं लाया जा सका है. इसके बावजूद नेवार बुधिज्म में जाति ढांचे को लेकर बहस की गुंजाइश बनी हुई है, क्योंकि वहाँ इसे धर्म का समर्थन नहीं प्राप्त है. ‘चातुर्वणम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः’ जैसी कोई गीता-दृष्टि यहाँ नहीं है. नतीजा यह है कि काठमांडू में रोज नए-नए विहार खड़े हो रहे हैं, जिनमें ‘बारे’ जातियों (वज्राचार्य और शाक्य) की एक नहीं चलती.
हीनयान और वज्रयान के बीच झूल रहे उढ़ै समुदाय की जो ऊहापोह चित्तधर हृदय की रचना मिंमनःपौ में जाहिर हो रही है, उसके मूल में बौद्ध धर्म के कुछ बुनियादी जीवन मूल्य हैं, जो इसमें आए तमाम भीतरी बदलावों और सत्ता के दबावों के बावजूद एक स्तर पर बचे ही रह गए हैं. यह धर्म जितना गृहत्यागी और मुक्ति की कामना करने वालों का है, उतना ही मेहनत और लगन से अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों, घर-गृहस्थी में मगन रहने वालों का भी है.
राहुल सांकृत्यायन अपने प्रतिष्ठित ग्रंथ ‘बुद्धचर्या’ की प्रस्तावना में वज्रयानियों के बारे में लिखते हैं- ‘ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे.’ सवाल यह है कि वज्रयानी नेवार बौद्धों का शिवमार्गी नेवारों और सनातनियों के साथ जैसा सह-अस्तित्व काठमांडू घाटी में दिखता है, वह भारतीय वज्रयानी बौद्धों के मिजाज में कभी था ही नहीं, ऐसी ऐतिहासिक धारणा के लिए क्या कहीं कोई ठोस आधार भी मौजूद है?
नेपाल और तिब्बत में रहने वाले कई तरह के वज्रयानियों के साथ हफ्ते-दस दिन के बहुत सामान्य संपर्क में रहकर मैं लगातार इस सवाल से जूझ रहा हूं कि क्या भारत में वज्रयान के विलोप को ही इस बौद्ध पंथ को मानने वाले सभी लोगों को लांछित करने और उन्हें हमेशा के लिए कठघरे में खड़ा रखने के लिए काफी मान लिया जाना चाहिए?
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर एक मोटी किताब पर चल रहा काम अभी-अभी पूरा हुआ है. |
अच्छा लिखाई के लिए लेखक काे धन्यवाद । नेवार समाज का इक पहलू हिन्दी के माध्यम से दुनियाँ में पराेसने का काम ईश आर्टिकल से हुवा है । मैं नेवार समाज से हैं, नेपालभाषा (नेवार भाषा) के साहित्य में भी दख्खल रखता हुँ । लेखक चित्तधर हृदय से ताे मिल नहीं पाया लेकिन उनकी बहन माेतीलक्ष्मी, जाे खुद ही नामूद लेखिका थी, से मिला हुँ । वे बहुत अच्छे है, उन से मेरा अपार श्रद्धा है ।
एक नवीन जानकारी।इतिहास के लिए महत्वपूर्ण।
पढ़ लिया। वैसे तो आपके गद्य का मैं शुरू से ही प्रशंसक रहा हूं। जिस बात के लिए प्रशंसक हूं, वह और निखार पर है।
इस तरह खोज खोजकर पढ़ना और लिखना तो आप करते ही रहते हैं।
एक बार और पढ़ूंगा।
बौद्धधर्म की दो शाखाओं के बीच के द्वंद्व के बीच आम आदमी की स्थिति, खासकर मनोदशा भी दिखती है।
नयी और रोचक जानकारियों के साथ जिज्ञासा बढ़ाने वाला लेख। लेखक को साधुवाद।
चंद्रभूषण से मेरा मिलना वर्षों पूर्व तब हुआ था, जब वे दिल्ली एक अखबार में विज्ञान विषयों के एक्सपर्ट माने जाते रहे. चित्तधर साहू ‘हृदय’ पर उनका यह आलेख नये किस्म का और विरल है, चिट्ठी जो जली नहीं — यह कथा प्रसंग भी अद्भुत.
चंद्रभूषण के काम में कितना श्रम और अध्ययन रहता है, इसे उनके यात्रा वृतांत “तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत” के पहले ही अनुच्छेद ‘ पेइचिंग – छंग्तू – ल्हासा ‘ को पढ़कर समझ सकते हैं.
भारत में बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर उनकी आ रही बड़ी किताब की प्रतीक्षा रहेगी.