हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन और महेशदत्त शुक्ल
सुरेश कुमार
हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में ठाकुर शिवसिंह सेंगर का नाम बड़ी शिद्दत के साथ लिया जाता है. यह बात कम लोग ही जानते हैं कि शिवसिंह सेंगर से पहले महेशदत्त शुक्ल ने ‘भाषा काव्य संग्रह’ के हवाले से हिन्दी साहित्य इतिहास की सामाग्री का बीजारोपण कर दिया था. महेशदत्त शुक्ल की हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन लेखन के भीतर चर्चा न के बराबर हुई है. यदि डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय, और किशोरीलाल गुप्त आदि लेखकों ने बाबू राधाकृष्ण दास की टिप्पणी के आधार पर ‘भाषा काव्य संग्रह’ का मात्र जिक्र भर किया है. इन सबकी टिप्पणियों को यदि जमा किया जाए तो दस पंक्तियों से अधिक नहीं होंगी. ‘भाषा काव्य संग्रह’ का जायजा लेने से पहले महेशदत्त शुक्ल के जीवन और साहित्य के संबन्ध में जानना उचित रहेगा.
महेशदत्त शुक्ल उन्नीसवीं सदी के उतरार्ध के प्रसिद्ध कवि और विद्वान थे. पंडित महेशदत्त शुक्ल का जन्म सन् 1840 में औपनिवेशिक भारत के अवध प्रांत बाराबंकी जिले के धनावाली अर्थात धनौली गांव में हुआ था. इनके पिता का नाम अवधराम और पितामाह का नाम रजाबन्दराम था. महेशदत्त शुक्ल बाराबंकी के रामनगर की पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक थे. पंडित महेशदत्त शुक्ल केवल संग्रहकर्ता नहीं थे. वह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के संस्कृत भाषा के विद्वान और कुशल अनुवादक भी थे. इन्होंने ‘संस्कृत पदमपुराण’ का हिंदी भाषा में बड़ा सरल और सहज अनुवाद किया था. यह अनुवाद ‘पदमपुराण भाषा’ खंड-दो (द्वितीय संस्करण 1905) और ‘पदमपुराण’ सृष्टि खंड (द्वितीय संस्करण 1904) नाम से लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित हुआ था. महेश दत्त ने भाषा काव्य संग्रह में अपना परिचय देते हुए लिखा कि :
मैं सरवरिया ब्राह्मण मँझगवाँ का सुकुल जिले बारहबंकी तहसील रामसनेही गोमती नदी के उत्तर कूल पै धनावली अर्थात धनौली ग्राम का रहने वाला हूँ मेरे पिता का नाम अवधराम पितामह का रजावन्द राम प्रपितामह का विश्रामराम और गुरु का नाम श्री मदुमापति जी था कि जो सकल शास्त्रवेत्ता पिराडी पुरी के निवासी कोई 40 वर्ष से श्री अयोध्या जी में निवास किये थे ओर इसी वर्ष अर्थात संवत १९३० भाद्रपद सुक्ल द्वितीया रविवार को बैकुण्ठबासी हुये हैं मैं प्रथम तो अपने मातुल पण्डित प्रयागदत्तजी जो कि धनावली हीं में रहते हैं उनसे तदनन्तर अपने मातामह विद्दद्दयर्य क्षेमकरणाजी से पठन करता था तत्यश्चात जिले रायबरेली तहसील दिग्विजयगंज ग्राम भिखारी पुर के निकट पण्डित के पुरवा में जो कि उन्हीं श्रीमविद्दद्दद् वृंद शिरोमणि पण्डित रामभीष जी के नाम से वसा है वहाँ उन्हीं महाशय से जो कि व्याकरण न्याय काव्य कोश धर्म शास्त्रादि के वेत्ता हैं. व्याकरण काव्या लङ्कार कोश पुराणादि पढ़ता रहा और अबकी जीविका प्रसिद्ध ही है कि जिले बारहबंकी ग्राम रामनगर की पाठशाला का संस्कृत अध्यापक हूँ मेरा जन्म १८९७ संवत को आषाढ पूर्णिमा को हुआ था.
महेशदत्त शुक्ल जब सत्रह साल के थे, तब अवध प्रांत में 1857 विद्रोह हुआ था. 1857 विद्रोह के बाद देश की सत्ता महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गई थी. 1857 के सिपाही विद्रोह शांत होने के बाद सन् 1858 में लखनऊ में मुंशी नवलकिशोर प्रेस स्थापित हुआ. अवध प्रांत में विक्टोरिया शासन की उदारनीति से साहित्य और संस्कृति का विस्तार हुआ. दरअसल, महारानी विक्टोरिया ने शासन ग्रहण करते समय भारत की जनता को वचन दिया था कि वह भारत के धार्मिक, साहित्यिक और संस्कृतिक क्षेत्र में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेंगी. पण्डित देवी सहाय शर्मा ने ‘धर्मदिवाकर’ पत्रिका में लिखा-
‘‘सिपाही विद्रोह के बाद जब महाराणी ने भारतबर्ष का राज्य अपने शिर पर लिया उस समय यह प्रतिज्ञा करी थी, कि इंग्रेज राज्य हिन्दू धर्म के विषय में आगें हस्तक्षेप न करेंगे, यह महाराणी की प्रतिज्ञा आज भारतबर्ष के प्रायः सभी लोगों में विख्यात है…’’1
‘भारतेन्दु मंडल’ ने उदारपूर्ण रवैया के चलते विक्टोरिया शासन को उगते सूर्य के समान देखा था. महेशदत्त शुक्ल का ‘भाषा काव्य संग्रह’ प्रकाशित होने के तीन साल बाद महारानी विक्टोरियों की ताजपोशी में सन् 1877 में ‘दिल्ली दरबार’ का आयोजन हुआ था. इस दरबार में देश के राजा-महराजाओं और विद्वानों को विक्टोरिया शासन की ओर से ‘रायबहादुर’, ‘खान बहादुर’ और ‘स्टार ऑफ इन्डिया’ के तमगे प्रदान किए गऐ थे.2
दिल्ली दरबार में विक्टोरिया शासन की उदारपूर्ण नीति से देश के विद्वान और सुधारक काफी प्रभावित हुए थे. सन् 1877 में आयोजित दिल्ली दरबार से यह बात एकदम स्पष्ट हो गई थी कि हिन्दू लेखक धर्म और साहित्य का विस्तार निर्भय होकर कर सकते हैं. हिन्दी लेखकों पर ‘दिल्ली दरबार’ का असर क्या पड़ा? इस पर अलग से अध्यन और शोध करने की आवश्यकता है.
‘भाषा काव्य संग्रह’ का रचना काल क्या है ? इसकी जांच पड़ताल कर लेनी चाहिए. महेशदत्त ने ‘भाषा काव्य संग्रह’ सन् 1873 में बनाया था. ‘भाषा काव्य संग्रह’ रचना प्रक्रिया के मास और तिथि का वर्णन महेशदत्त शुक्ल ने खुद इस ग्रंथ में दर्ज किया है. महेशदत्त शुक्ल जानकारी देते हुए लिखते हैं,‘‘ब्योम राम नन्द चंद 1930 संवत बलक्ष पक्ष शुचि शुचि मास तिथि सातैं ७ बुधवार मैं.. भाषा काव्य संग्रह महेशदत्त शुक्ल बिप्र करै अग्नि नाग शशि 1873 ईसासन सार मैं..’’3
उक्त तिथि से स्पष्ट होता है कि सन् 1873 में महेशदत्त शुक्ल ने ‘भाषा काव्य संग्रह’ की रचना की थी. पंडित महेशदत्त शुक्ल ने ‘भाषा काव्य संग्रह’ अवध देशीय पौराजनपदीय के नागरी विद्यार्थियों के उपकारार्थ श्रीयुत कालिन् ब्रौनिंग साहब डैयक्टर ऑफ पब्लिक इन्स्ट्रक्शन की आज्ञानुसार बनाया था. महेशदत्त शुक्ल ने श्री कालिन् ब्रौनिंग की भूरि-भूरि प्रशंशा की है. ‘भाषा काव्य संग्रह’ कैसे बना इसका काव्यात्मक वर्णन महेशदत्त शुक्ल ने इस तरह किया है :
सिद्धिश्री शुभगुणसदन श्रीकालिन्ब्रौनिग I साहब डैरेक्टर सुभग जामें गुण विन बिंग I
संस्कृत अरबी फ़ारसी अंगरेजी जिहिसंग I छाया सी घूमत फिरत माती जाके रंग I
जाकीकृपा कटाक्ष से ये सबही के अंग I विद्या व्यापी जाहि सों सबके उठी उमंग I
सुमति बढ़ी जिहि भांति सों हुओ कुमतिको भंग. सोई कीन्हौं रात्रिदिन खोजि सकल शुभढंग I
ग्राम ग्राम गृह गृह चहयों जन जन पण्डित होय I याहू पर जो नहिं भयो रहो तासु मति सोय I
ताकि आज्ञा पाय कै ग्रन्थ रच्यों मैं येहु II भूल होय जहँ सुजन त्यहि पढ़ियो शुद्ध सनेह I4
सन 1873 में ‘भाषा काव्य संग्रह’ लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित हुआ था. भारतेंदु युग के प्रसिद्ध लेखक राधाकृष्ण दास ने अपने एक लेख में इस का प्रकाशन वर्ष सन् 1873 ही माना है. भाषा काव्य संग्रह के संबन्ध में राधाकृष्ण दास लिखते हैं :
‘‘भाषा कवियों का वर्णन करके सबसे पहिले बाबू शिवसिंह सेंगर ने संवत 1934 में यस प्राप्त किया, उनके पीछे भाषा रसिक डाक्टर ग्रियर्सन ने इसे और भी परार्जित करके अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किया जिसके लिए रसिक मात्र उक्त महोदयों के कृतज्ञ हैं- परन्तु, बाबू शिवसिहं रचित ‘‘शिवसिंह सरोज’’ के भी पहिले का अर्थात संवत 1930 सन् 1873 का बना ‘भाषा काव्य संग्रह’ नामक ग्रंथ मुझे मिला, यह ग्रंथ पंडित महेश दत्त शुक्ल द्वितीयाध्यापक रामनगर जिला बारहबाँकी, पाठशाला रचित है और लखनऊ मुंशी नवलकिशोर में मुद्रित है.’’5
भाषा काव्य संग्रह का तीसरा संसकरण 1879 में प्रकाशित हुआ. और, इस संग्रह का छठा संस्करण मार्च 1907 में प्रकाशित हुआ था. इससे इस किताब की प्रसिद्धि और महत्व का अंदाजा लगाया जा सकता है. पंडित महेशदत्त शुक्ल के ‘भाषा काव्य संग्रह’ में इक्यावन कवियों के कवित्त संकलित हैं. वे प्रचीन और अद्यतन दोनों प्रकार के हैं.
इनमें तुलसीदास, मदनगोपाल, नारायणदास, हुलसाराम, सहजराम, भगवतीदास, रत्नकवि ब्रजवासीदास, सघरसिंह, नरोत्मदास, नवलदास, लल्लूजी लाल, गिरिधर राय, बिहारीलाल, अनन्य दास, रघुनाथदास, मलूकदास मोतीलाल, कुपाराम, क्षेमकरण, सीतारामदास, चरणदास, भिखारीदास, रामनाथ, प्रधान, महाराजा, मानसिंह, अयोध्याप्रसाद, शिवप्रसन्न, महेशदत्त, श्रीपति, पद्वामकर, केशवदास, मीरा, हिमाचलराम, रंगाचार, प्रियदास, देवदत्त, नाभादास, दासकवि, वंशीधर, जानकीदास, मतिराम, रामसिंह, सूरदास, गिरिजादत्त, नरहरि, हरिनाथ, रसखानि, गदाधर, चन्द्रकवि और शिवप्रसाद शामिल हैं.
महेशदत्त शुक्ल ने यह संग्रह विद्यार्थियों को ध्यान में रखते हुए बनाया था. इस काव्य संग्रह में नीतिपरक और शिक्षाप्रद कवियों की कविताओं को महत्व दिया गया है. महेशदत्त शुक्लने इस संग्रह में विद्यार्थियों को मित्रता, चतुरता, धृष्टता और उपकार आदि की बाते सीखने के लिए तुलसीदास की नीतिपरक चौपाईयों को शामिल किया था. इससे पता चलता है कि औपनिवेशिक दौर में शिक्षा को आदर्शपरक सांचे में ढ़ालने की कोशिस की जा रही थी. इस में दो राय नहीं है कि यह संग्रह बनाते समय उन्होंने हिन्दू संस्कृतिक और मूल्यों को ध्यान में रखा था. इस लेखक ने ‘भाषा काव्य संग्रह’ के लिए कवियों का चयन करने में विशेष सावधानी दिखाई है. इस संग्रह में उन्ही दोहे और चौपाई को तरजीह दी गई जो विद्यार्थियों के भीतर, सत् असत्, धर्म-दर्शन और सहयोग का भाव जाग्रत करे.
अब सवाल उठता है कि महेशदत्त शुक्ल के ‘भाषा काव्य संग्रह’ को इतिहास कहा जाए या नहीं. यह बात सच है कि ‘भाषा काव्य संग्रह’ इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. इससे इस किताब के महत्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वास्तव में ‘भाषा काव्य संग्रह’ नागरी पढ़ने वाले विद्यार्थियों के वास्ते तैयार किया गया था. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लिखी गई यह एक ऐसी किताब है जिसमें पहली बार कवियों का जीवन परिचय बड़े व्यवस्थित ढ़ग से दिया गया था. यह कहा जा सकता है कि यह महेशदत्त शुक्ल द्वारा किया गया हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन का देशज प्रयास था. वह साहित्य इतिहास लेखन के लिए किसी पद्धति पर निर्भर नहीं थे.
महेशदत्त शुक्ल ने बड़े परिश्रम से इस संग्रह में इक्यावन कवियों के कवित्त के साथ उनका जीवन परिचय लिखा था. इस ग्रंथ की एक विशिष्ट खूबी यह भी है कि पुस्तक के अंत में कविताओं का कोश भी दिया गया है. यह कोश देखने से पता चलता है कि इसे महेशदत्त शुक्ल ने बड़े परिश्रम से तैयार किया होगा.
‘भाषा काव्य संग्रह’ को देखकर इस बात की हैरानी होती है कि महेशदत्त शुक्ल ने इस संग्रह में कबीरदास को शामिल नहीं किया था. इतना ही नहीं संग्रह में सबसे ज्यादा मान तुलसीदास को दिया गया है. इस से पता चलता है कि यदि दलित और वंचित समुदाय का व्यक्ति प्रतिनिधित्व करने वाले नहीं है तो वंचित समुदाय के कवियों को इतिहास से दर-किनार कर दिया जाता है. पंडित महेशदत्त शुक्ल ‘भाषा काव्य संग्रह’ इसकी सटीक बानगी प्रस्तुत करते हैं कि दलित और वंचित समुदाय के विद्वानों को साहित्य के इतिहास से बेदखल कैसे किया जाता है ?
वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले कवियों को साहित्य के इतिहास से बेदखल करने की परम्परा कायदे से महेशदत्त शुक्ल से शुरु होती है.
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में केवल उसका निर्वाह भर किया है. ‘भाषा काव्य संग्रह’ की विलक्षण बात यह है कि महेशदत्त शुक्ल ने कवियों के जीवन चरित्र लिखते समय उनकी ‘जाति’, ‘कुल’ और ‘गोत्र’ आदि बताना नहीं भूले. इस संग्रह में शामिल प्रत्येक कवि की ‘जाति’, ‘कुल’ और ‘गोत्र’ का बखान बड़ी शिद्दत के साथ किया गया है. ठाकुर शिवसिंह सेंगर भी महेशदत्त शुक्ल के रास्ते पर चलते हुए ‘शिवसिंह सरोज’ में कवियों का जीवन चरित्र लिखते समय ‘जाति’, ‘कुल’ और ‘गोत्र’ बताना नहीं भूलें है. इससे पता चलता है कि औपनिवेशिक दौर में उच्च श्रेणी के हिन्दू अपनी अस्मिता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी संघर्षरत थे.
हिन्दी साहित्य के आलोचक और प्रोफ़ेसरों का ध्यान इस बात की ओर नहीं गया कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में कवियों और लेखकों का जीवन चरित्र लिखते समय ‘जाति’,‘कुल’ और ‘गोत्र’ बताने की परम्परा कहां से ग्रहण की? इसमें कोई राय नहीं है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कवियों की ‘जाति’,‘गोत्र’ और कुल बताने की प्ररेणा अपने स्वजातीय लेखक महेशदत्त शुक्ल से ग्रहण की होगी.
आचार्य शुक्ल भी महेशदत्त शुक्ल की परम्परा का निर्वाह करते हुए अपने इतिहास ग्रंथ में कबीरदास को अधिक मान नहीं दिया. यह संयोग नहीं बल्कि दलित और वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले कवियों और लेखकों को हिन्दी साहित्य के इतिहास से बाहर का रास्ता दिखाने की उच्च वर्णीय विद्वानों की सोची समझी रणनीति है.
महेशदत्त शुक्ल ने कवियों का जीवन परिचय लिखते समय काफी सावधनी दिखाई है. ‘शिवसिंह सरोज’ में कवियों के जन्म और मृत्यु को लेकर जैसा भ्रम है, वैसा भ्रम ‘भाषा काव्य संग्रह’ में दिखाई नहीं देता है. उदाहरण के तौर पर भीखरीदास का जीवन परिचय देखिए. इनका जीवन परिचय महेशदत्त शुक्ल ने इस तरह से लिखा हैं:
‘‘ये कायस्थ वर्ण अरवल देश के टैउंगा नगर के रहने वाले थे इनके पिता का नाम कृपालुदास पितामाह का वीरभानु प्रपितामह का रामादास और भ्राता चैनलाल था, इनकी कविता देखने के और इनके लिखने से जाना जाता है कि ये केवल भाषा नहीं जानते थे वरन संस्कृत काव्य कोष में बड़े अधिकारी थे. इन्होंने छन्दोवर्ण नाम छन्दोग्रंथ और काव्यनिर्णय बड़े बड़े भारी और सबके उपयोगी ग्रन्थ निर्माण किए काव्य निर्णय संस्कृत काव्यप्रकाश जोकि मम्मटाचार्य कृत है उसी का भाषान्तर विदित होता है ये संवत 1825 में मृतक हुए और 1745 में उत्पन्न हुये थे..’’6
महेशदत्त शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्य में काव्य संग्रह के संकलित करने की एक होड़ सी लग गई. यदि महेशदत्त शुक्ल ने अपना ‘भाषा काव्य संग्रह’ यदि नहीं बनाया होता तो ठाकुर शिवसिंह सेंगर भी अपना ग्रंथ ‘शिवसिंह सरोज’ नहीं लिखते. महेशदत्त शुक्ल के ‘भाषा काव्य संग्रह’ के प्रकाशित होने के चार साल बाद ‘शिवसिंह सरोज’ (अप्रैल,1878) लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस प्रकाशित हुआ था.
यह बड़ी दिलचस्प बात है कि ठाकुर शिवसिंह सेंगर को ‘शिवसिंह सरोज’ लिखने की प्रेरणा महेशदत्त शुक्ल का ‘भाषा काव्य संग्रह’ ही था. ठाकुर शिवसिंह सेंगर को अपना ‘शिवसिंह सरोज’ क्यों बनाना पड़ा था. इसका कारण बताते हुए ‘शिवसिंह सरोज’ की भूमिका में उन्होंने लिखा कि,
‘‘मैंने संवत् 1933 में भाषा-कवियों कवियों के जीवन चरित्र-विषय एक दो ग्रंथ ऐसे देखे, जिनमें ग्रंथकृता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी के महापत्र भाट है. इसी तरह की बहुत सी बाते देखकर मुझसे चुप नहीं रहा गया. मैंने सोचा, अब कोई ऐसा ग्रंथ बनाना चाहिए, जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन के कवियों के जीवन चरित्र सन्-संवत्,जाति, निवास स्थान आदि कविता के ग्रन्थों-समेत विस्तार पूर्वक लिखा हों.’’7
संवत् 1933 में शिवसिंह सेंगर जिस काव्य संग्रह के देखने की बात कर रहे हैं; वह महेशदत्त शुक्ल का ‘भाषा काव्य संग्रह’ था. ऐसे इसलिए कहा जा रहा है कि महेशदत्त शुक्ल ने कवि मतिराम का जीवन परिचय लिखते समय उन्हें ‘असनी का भाट’ बताया था. महेशदत्त शुक्ल ने मतिराम का जीवन परिचय देते हुए लिखा कि,
‘‘ये कवि फत्तेपुर के जिले में असनी ग्राम के निवासी महापात्र भाट और औरंगजेब बादशाह के समय में थे इनके भाई का भूषण नाम था मतिरामजी ने रसराजादि ग्रंथ बनाये और बादशाही दरबार में जन्म पर्यन्त रहे..’’8
महेशदत्त शुक्ल की कवि मतिराम के सम्बंध में की गई उरोक्त टिप्पणी ‘असनी ग्राम के निवासी महापात्र भाट’ ठाकुर शिवसिंह सेंगर को ‘शिवसिंह सरोज’ लिखने की वजह बनी. शिवसिंह सेंगर ने अपना ग्रंथ बनाते समय ‘भाषा काव्य संग्रह’ का खूब उपयोग किया था. शिवसिंह सेंगर ने लगभग भाषा काव्य संग्रह से बहुत सारे कवियों का जीवन परिचय थोड़े से फेर बदल के साथ अपने ग्रंथ में शामिल कर लिया. ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह सरोज’ में महेशदत्त शुक्ल की कविताओं को भी शामिल किया था.
‘भाषा काव्य संग्रह’ और शिवसिंह सरोज’ के बाद सन् 1896 में पंडित बख्शाराम पांडे का ‘सुजान सरोज’ (प्रथम खंड) नाम का संग्रह मुंशी नवलकिशोर से प्रकशित हुआ. बख्शाराम पांडे का जन्म सन् 1873 में हल्दी बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था. इनके पिता का नाम ईश्वरदत्त था. बख्शाराम पांडे ‘सुजान’ उपनाम से कविता करते थे. इनको हिन्दी, फारसी, अंग्रेजी और बंगला भाषा का पूर्ण ज्ञान था. इन्होंने ‘संगीत शिला’, ‘बिरह बिहार’,‘गगेंतंरग’ और ‘शिवराम सरोज’ आदि कृतियां लिखी थी.
‘सुजान सरोज’ की भूमिका में इन्होंने नागरी की दशा पर चिंता प्रकट करते हुए बताया कि भारतेन्दु के निधन से नागरी भाषा की अति दुर्दशा हुई है. ‘सुजान सरोज’ के निर्माण के पीछे इनका उद्देश्य था कि वर्तमान हिन्दी कवियों के जीवन चरित्र से हिन्दी पाठकों को परिचित कराया जाए. ‘सुजान सरोज’ की भूमिका में इन्होंने लिखा था-
‘‘मुझे यह पुस्तक बनाने में यह अभिप्राय नहीं है कि हमारी नामवरी प्रख्यात हो वरन मैं यह चाहता था कि भविष्य काल में यह ग्रंथ इतिहास रुप हो आप सबकों का नाम चिरस्थाई रहे.’’
‘भाषा काव्य संग्रह’ और शिवसिंह सरोज’ के बाद सुजान सरोज उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में प्रकाशित यह एक ऐसी किताब है जिसमें उन्नीसवीं सदी के वर्तमान कवियों का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास किया गया था. उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रकाशित इस किताब का उल्लेख ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में नहीं मिलता है. पडिंत बख्शराम पाँडे ने अपने इस संग्रह में 53 कवियों के कवित्त संग्रहित करते हुए उनके जीवन चरित्र लिखे हैं. दरअसल, पडिंत बख्शराम पाँडे इस बात को महसूस कर रहे थे कि हिन्दी साहित्य में ऐसा कोई संग्रह या ग्रंथ नहीं है जिससे वर्तमान कवियों के जीवन को समझा जा सके. इसी समस्या के समाधान के लिए उन्होंने ‘सुजान सरोज’ बनाया था. सुजान सरोज में कवियों का एक कवित्त देकर उनके जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला गया था. दिलचस्प बात यह है कि ‘सुजान सरोज’ भी मुंशी नवलकिशोर प्रेस से ही प्रकाशित हुआ था.
उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित पंडित महेशदत्त शुक्ल के ‘भाषा काव्य संग्रह’ को हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन में एक कच्ची सामग्री सूत्र के रुप में देखा जा सकता है. उन्नीसवीं सदी के उतरार्ध में हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन का देशज प्रयास कितनी शिद्दत और जिम्मेदारी से हो रहा था, इसकी बानगी भाषा काव्य संग्रह है. महेश दत्त शुक्ल के इतिहास लेखन शैली का निर्वाहन आगे चलकर ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने किया. इसमे कोई दो राय नहीं है कि महेशदत्त शुक्ल ने हिंदी साहित्य इतिहास लेखन के लिए एक तरह से लेखकों को प्रचुर मात्रा में साहित्य सामग्री उपलब्ध करवाई.
दूसरी बात यह की मुंशी नवलकिशोर, प्रेस को इस बात श्रेय दिया जाना चाहिए कि औपनिवेशिक दौर में उसने इस तरह के ग्रंथ छापकर हिंदी साहित्य इतिहास की परम्परा को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाई. यह किताब प्रकाशित हुए लगभग डेढ़ सौ साल बीत गए हैं. यह बात हैरान करती है कि हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन पर काम करने वाले अनुसंधानकर्ताओं की दृष्टि महेशदत्त शुक्ल के ‘भाषा काव्य संग्रह’ पर क्यों नहीं पड़ी?
सन्दर्भ-
1. अन्याय! अन्याय!! अन्याय!!! पण्डित देवी सहाय शर्मा, धर्मदिवाकर, पौष संवत 1943,भाग,4, मयूख, पृ.139
2. दिल्ली दरबार दर्पण, हरिश्चन्द्र, दि न्यू मेडिकल हाल प्रेस, दश्वमेघ घाट, बनारस,सन्1877, पृ-18 से 24 तक
3. भाषा काव्य संग्रह, रामनगर शालीय द्वितीयाध्यापक धनावाली पुरस्थ सरयूपारीण शुक्लोप नामक श्रीपण्डित महेशदत्त, तीसरी बार,
लखनऊ, मुंशी नवलकिशोर यंन्त्रालय,नवम्बर 1879 ,पृ.-2
4. वही पृ. 265-66
5. कुछ प्रचीन भाषा-कवियों का वर्णन, बाबू राधाकृष्ण दास, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, सितम्बर 1900, भाग:5, संख्या:1, पृ.1,2
6. भाषा काव्य संग्रह, रामनगर शालीय द्वितीयाध्यापक धनावाली पुरस्थ सरयूपारीण शुक्लोप नामक श्रीपण्डित महेश दत्त , तीसरी बार,
लखनऊ, मुंशी नवलकिशोर यंन्त्रालय, नवम्बर 1879, पृ.276-77
7. शिवसिंह सरोज, ठाकुर शिवसिंहजी सेंगर,नवलकिशोर-प्रेस,लखनऊ,सातवां संस्करण, सन् 1926,देखें भूमिका
8.भाषा काव्य संग्रह, रामनगर शालीय द्वितीयाध्यापक धनावाली पुरस्थ सरयूपारीण शुक्लोप नामक श्रीपण्डित महेश दत्त, तीसरी बार,
लखनऊ, मुंशी नवलकिशोर यंन्त्रालय, नवम्बर 1879, पृ.283
सुरेश कुमार ने लखनऊ युनिवर्सिटी से पीएचडी की है और इलाहाबाद में रहते हैं. |
शोधपूर्ण आलेख. वंचित, दलित और मुस्लिम कवियों से परहेज़ करना वाकई इस पुस्तक का कमज़ोर पक्ष है.
बहुत आवश्यक लेख
बढ़िया विमर्श!
इसे पहला ग्रंथ कहना अनुचित न रहेगा यदि इसमें इतिहास ग्रंथ के मानक हों!
इसका प्रकाशन भी किया जाये!
या प्रकाशित है तो प्रकाशक का पता बतायें!
अध्ययन मनन जारी रहे!
सुरेश बिना शोरगुल के महत्वपूर्ण काम करने वाले लेखक हैं। नवजागरण के वे गहरे अध्येता व जानकार हैं। सबसे बड़ी बात कि वे प्रचलित धारा से अलग अपना नवीन दृष्टिकोण रखते हैं।
अत्यंत ज्ञानार्धक
दरअसल कबीर अपने उग्र तेवर के चलते हिन्दुओं को कभी रास नहीं आए। ‘हिन्दी-नवरत्न’ (मिश्रबन्धु) के पहले संस्करण में कबीर अनुपस्थित हैं लेकिन दूसरे संस्करण में उपस्थित। लक्ष्मीकांत त्रिपाठी एमए के एक लेख का सहारा लें – जो 1934 ई. में छपा था – तो हिन्दुओं के कबीर के संबंध में जो मत परिवर्तन हुआ था, उसके मूल में ईसाई थे। वे लिखते हैं :
“इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि कबीर के संबंध में जो यह मत परिवर्तन सा हुआ है, उसमें ईसाई लेखकों और प्रचारकों के लेखों का पूरा प्रभाव पड़ा। सबसे पहले एच एच विल्सन महोदय ने अपने ‘हिंदुओं के धार्मिक संप्रदाय’ नामक ग्रंथ में, कोई 100 वर्ष से अधिक हुए, कबीर पर एक बड़ा विचारपूर्ण निबंध लिखा था। कबीर की स्वच्छंद विचारधारा ईसाई लेखकों और प्रचारकों को इतनी अधिक पसंद आई और उसमें उन्हें ऐसे भाव मिले, जो उनकी समझ में साधारण हिंदू मनोवृति के विरुद्ध जान पड़े। ऐसे बागी विचार वाले उपदेश के शब्दों द्वारा ईसाई प्रचारकों को साधारण हिंदू धर्म की निंदा करने का भी अच्छा साधन उपलब्ध हो गया। इन लेखकों में से एकाध ने तो यहां तक कर डाला कि कबीर की विचार शैली इतनी अहिंदू है कि वह ईसाई धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित हुई होगी”
19वीं शताब्दी के अंतिम भाग में ऐतिहासिक पत्रिकाओं आदि में इस विषय पर काफी वाद-विवाद हुआ था।
हरिऔध और श्याम सुंदर दास की रचनावली/ग्रंथावली एक योजना के तहत प्रकाशित हुई थी।
सुरेश जी को चाहिए कि इन किताबों का पुनर्मुद्रण कराएँ। ‘तद्भव’ किसी अंक में मैंने पढ़ा था कि महेश दत्त की किताब अनुपलब्ध है।
श्रीमान जी मैं आशुतोष शुक्ला पंडित महेश जी का वंशज आपको यह विश्वास दिलाता हूं कि यह पुस्तक उपलब्ध है हमारे पास मेरा फोन नंबर 7007558976 आप मुझसे बात कर सकते हैं हमारे पूर्वज पंडित महेंद्र शुक्ला जी के साहित्य के विकास में हम पूरा सहयोग करेंगे
ज्ञान वर्धक लेख