चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला अखिलेश |
चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला पर अशोक भौमिक की यह पुस्तक एक ज़रूरी दस्तावेज है. यह चित्तप्रसाद और उनके चित्र-यात्रा को समझने की दिशा में एक समुचित प्रयास है जो सम्भवतः अधूरा है. चित्तप्रसाद पर ऐसी कुछ और पुस्तकें आनी चाहिये.
उनके जीवन परिचय के साथ अनेक रोचक प्रसंग और कई प्रमुख घटनाओं का वर्णन इस पुस्तक में है, यहाँ चित्तप्रसाद की चिट्ठियों को भी उद्धृत किया गया है. अपने घनिष्ट मित्र देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय को इलाहाबाद से ख़त लिखते हैं,
‘दस-बारह दिन खूब घूमा हूँ, बुन्देलखण्ड के गाँवों में, बेतवा नदी के किनारे. विन्ध्य गिरी के जंगलों में थैक्स टू नेमिचन्द्र जैन.’
नेमिचन्द्र जैन जो ख्यात नाटककार, साहित्य आलोचक, लेखक रहे हैं उनका एक चित्रकार से यह अनोखा सम्बन्ध पहली बार उजागर होता दिख रहा है. हुसेन ने भी एक-दो बार उनका जिक्र किया, किसी और सन्दर्भ में. यहाँ इस पत्र से यह व्यंजित होता है कि यह थैंक्स उनके आर्थिक सहयोग के लिये भी है. कई अन्य पत्रों से यह और भी स्पष्ट होता है. नेमि जी साहित्यकारों, नाटककारों के बीच विशेष जगह रखते ही हैं. अब एक चित्रकार भी यहाँ है जो उनकी रुचि को दर्शाता है.
चित्तप्रसाद के जीवन के अनेक प्रसंग जिसमें धतूरा खाने, मदद करने, आत्मस्वीकारोक्ति, हताशा, ग़म, उत्साह आदि भी ज़ाहिर होते हैं. एक बेहतरीन इंसान के बनने, होने में यह सब शामिल है. वे इप्टा के लोगों के बीच भी बड़े लोकप्रिय थे. उनकी खुद्दारी को समझते हुए बीमारी में मदद के लिए भेजे जा रहे रुपयों की चिन्ता करते भीष्म साहनी, बलराज साहनी, हेंमागो विश्वास आदि के पत्र इंसानियत से भरे हैं.
कलाओं से उजाड़ समय में इस पुस्तक का आना कोई बहुत आशा जगाता नहीं किन्तु अन्धेरे में जलती तीली की पीली रोशनी तो है. इसमें बहुत-सी बातें चित्तप्रसाद के बारे में जानने को मिलती हैं साथ उन परिस्थितियों से भी परिचय होता है जिनमें चित्तप्रसाद रहे, सहे और जिये.
दो तरह के चित्रकार होते हैं एक तो वह जो चित्रकार हैं दूसरे जो चित्रकारों के चित्रकार हैं. चित्तप्रसाद दूसरी श्रेणी के कलाकार थे. उनके बारे में सबसे पहले मक़बूल फ़िदा हुसेन ने बतलाया था, बतलाया नहीं पूछा था, तुमने उनके लिनोकट देखे हैं. उन्हें नाम याद नहीं आ रहा था वे उन लिनोकट की ख़ासियत बता रहे थे साथ ही उनका नाम भी याद कर रहे थे जो उन्हें याद नहीं आया फिर वे भीतर से एक केटलाग ढूँढकर लाये और चित्तप्रसाद का पन्ना खोलकर नाम पढ़कर बोला फिर केटलाग मेरे हाथ में पकड़ा दिया. उसमें दो लिनोकट छपे थे और उसका थोड़ा सा ब्यौरा वहाँ दिया हुआ था. उसके बाद स्वामीनाथन ने पूछा था चित्तों का काम देखा है?
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मेरे चित्तप्रसाद कहने पर उनके चेहरे की चमक बढ़ गयी. वे तारीफ़ करते रहे इसके बाद अनेक चित्रकारों से, मंजीत बावा, विकास भट्टाचार्य, लक्ष्मी गौड़, प्रभाकर कोल्टे आदि सभी से उनकी तारीफ़ सुनी, उनके लिनोकट की विशेषता के बारे में सुना. एक भी चित्रकार ऐसा नहीं मिला जो उनकी बुराई करता हो. किसी भी चित्रकार के लिए यह गर्व का विषय हो सकता है. चित्तप्रसाद के लिनोकट में ऐसा क्या है जो सीधा असर करता है? यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है. मुझे लगता है वह उनकी पैनी दृष्टि है जो उन्हें विषय की करुणा तक सहज ही पहुँचा देती है. हालांकि चित्तप्रसाद के अनेक रेखांकन, छापा और चित्र कैरीकैचर जैसे है. जिन्हें देखकर लगता है इन्हें चित्रकला का ज्ञान नहीं है. कई कार्टून जैसे हैं, अनेक व्यंग चित्र हैं. एक शेर याद आ रहा है-
बेनियाज़ी हद से गुजरी बन्दा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल ए दिल, आप फरमायेंगे क्या
यह जो गुलाम ‘भारत दुर्दशा’ थी उसे ‘हम कहेंगे आप फरमायेंगे क्या’ की जवाबदारी लिये चित्तप्रसाद ने अपने समय का, बल्कि दुर्दशा का नजदीकी चित्रण किया. हम इन्हें यथार्थवादी चित्र नहीं कह सकते. उन्होंने शैली की परवाह नहीं की और उनके अनेक लिनोकट माध्यम पर उनकी पकड़ और एक सिद्धहस्त कलाकार द्वारा किया गया चित्रण दिखलाता हैं. वे माहिर कलाकर थे. उनकी सधी हुई उँगलियाँ अपने विषय का बेहद नफ़ीस चित्रण करती थीं. उनकी कला पर कम ही लिखा गया है किन्तु हम उन्हें उस श्रेणी में रख सकते हैं जो गुलामी के दिनों में अंग्रेजो द्वारा प्रचारित, प्रसारित तथाकथित ‘भारतीय कला’ का चित्रण नहीं कर रहे थे. रविन्द्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल और यामिनी रॉय का नाम अग्रणी है जिन्होंने अंग्रेजो का विरोध अपनी कला से भी किया. उसी कड़ी में चित्तप्रसाद भी हैं. उन पर यह आरोप नहीं लग सकता कि वे अंग्रेजो के पिछलग्गू थे. उन्होंने रचा और अपनी तरह का ही रचा. वे प्रकृतिवादी यथार्थवाद से दूर अपना यथार्थ गढ़ रहे थे.
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भारतीय समकालीन कला की समीक्षा तो बहुत दूर की बात है. उसके ईमानदार लिखित प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है. समीक्षा के लिए जो आत्मबल, रुचि और ईमानदारी चाहिये उसे अवसरवादिता, चापलूसी और गैरजिम्मेदारी ने टरकाया हुआ है. आलोचना तक तो भारतीय समकालीन कला अभी तक पहुँची ही नहीं है जिसके लिए एक गुण और चाहिये, वह निष्पक्षता का है. जो अप्राप्य है. इन सबका गहरा असर हमारे समाज पर पड़ा है जिसका एक सीधा असर यह दिखाई देता है कि आम जनता, ख़ैर आम जनता तो दुनिया के किसी भी देश की कलाओं से सीधे नहीं जुड़ी, कला की पहुँच कभी व्यापक नहीं हुई. इसे पूरा करने वाली, इस पाट को भरने वाली कला समीक्षक की भूमिका भारत में आज भी खाली है. इस खालीपन का गहरा असर हम देखते हैं. यहाँ मैं एक उदाहरण देना चाहूँगा जो कला-संस्कृति से कटे हमारे तथाकथित पढ़े-लिखे तबके का है.
भारत के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल द्वारा वहाँ के विद्यार्थियों को कला पर चार व्याख्यान देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया. जाहिर है यह देश का पहला पत्रकारिता का विश्वविद्यालय था, जिसका पाठ्यक्रम बनाने, उसकी दशा-दिशा तय करने और उसके शिक्षकों आदि का चयन करने में देश के नामी गिरामी पत्रकार शामिल थे. इस विश्वविद्यालय को लेकर बड़ा उत्साह भी था और यह विश्वविद्यालय चल निकला. स्थापना के कई वर्षों बाद कला पर व्याख्यान देने मुझे बुलाया गया. वहाँ के शिक्षकों से बातचीत में यह पता चला कि कलाएँ यानी चित्रकला की प्रदर्शनी, काव्यपाठ, नाटक, संगीत गोष्ठी की रिपोर्ट या साहित्य के किसी सेमीनार का रिपोर्ट, सिर्फ साधारण रिपोर्ट कैसे करनी है यह पढ़ाने वाले अध्यापक उस विश्वविद्यालय में नहीं हैं, न ही यह विषय पाठ्यक्रम में है. जबकि क्राईम रिपोर्ट पढ़ाने के लिए एक से ज्यादा अध्यापक हैं.
यही हाल बाद में खुले दूसरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भी है जो हाल ही में जयपुर में खुला है. यानी देश के तथाकथित नामचीन पत्रकारों की समझ में समाज को कलाओं की, जो समाज के सभ्य बनाती हैं, सुसंस्कृत करती है, उसे उन सस्ते अखबारों में भी जगह नहीं मिलनी चाहिए जो शाम तक मर जाते हैं. यह पढ़ा-लिखा तबका, जिसका समाज को सुसंस्कृत करने में कोई योगदान नज़र नहीं आता, समाचार पत्रों को अपराध, बलात्कार, लूट, दंगे-फसाद और चोरी डकैती की ख़बरों से भर रहे हैं.
जब हमारे देश के प्रबुद्धजन इस तरह सोचते हैं तब यह उम्मीद करना हास्यास्पद ही है कि समाज का एक बड़ा तबका हमारी कलाओं से अपना सम्बन्ध बना सके. इसका ताज़ा उदाहरण बहुत मुन्तशिर है.
यह हताशा आम थी. उन दिनों भी और आज भी कलाएँ हाशिये पर ही हैं. इसका महत्व क्या है यह जीवन में क्यों ज़रूरी है यह सब लोगों तक पहुँचा नहीं है. सभी सरकारी प्रयास और बहुत थोड़े सार्वजनिक उपक्रम इस विशाल देश के ज़रूरत पूरा नहीं करते.
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चित्तप्रसाद ने विधिवत चित्रकला का अध्ययन किया और विश्व में क्या हो रहा है इसका संज्ञान भी था. इस पुस्तक के आखिर में दिये रंगीन चित्रों में उन पर पिकासो, वैनगाग, मातीस आदि यूरोपीय चित्रकारों के प्रभाव स्पष्ट दिखते हैं. इसका एक अर्थ यह भी है कि वे वैश्विक कला आन्दोलनों से परिचित थे. उन्हें कुछ पसन्द रहे होंगे और कुछ प्रभाव में दिखे भी. हो सकता है यह उनके अध्ययन के दौरान के चित्र हों जो संख्या में बेहद कम हैं. उनके ब्लैक एण्ड व्हाईट लिनोकट बड़ी संख्या में है और यह उनका ‘पीपुल्स वार’ नामक पत्रिका से जुड़े होने के कारण भी रहा होगा.
यही वह समय है जब बंगाल में अकाल पड़ा था. इस समय चित्तप्रसाद मात्र सत्ताईस साल के थे और अगले ही वर्ष ‘चटगाँव बचाओ’ प्रदर्शनी में उनके दो चित्र नीलामी में तीन हजार में बिके. वर्ष तिरालिस में यह बड़ी राशि थी जिन दिनों चावल 80 रुपये मन बिकता था. इसी वर्ष उन्हें ‘पीपुल्स वार’ और ‘पीपुल्स एज’ में चित्रकार की नौकरी मिली. इन पत्रिकाओं में छपने वाले चित्र-रेखांकन का भार चित्तप्रसाद के कन्धों पर आ गिरा. उनके द्वारा किये गये ब्लैक एण्ड व्हाईट लिनोकट्स और स्क्रेपर बोर्ड के छापे अद्वितीय हैं. इनके पहले मैंने सिर्फ Eric Gill नामक चित्रकार के ब्लैक एण्ड व्हाईट छापे देखें थे जो एचिंग माध्यम में किये गये थे.
ब्लैक एण्ड व्हाईट इन छापों में किये गये रेखांकन अनूठे और सशक्त हैं. एरिक गिल जिस तरह से सशक्त रेखा का उपयोग करते थे वह दुर्लभ है. सिर्फ एक ही रंग में काम करने की ताकत चित्तप्रसाद को उनके विषय से मिलती होगी. मजदूर, किसान, शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, विपदा से जूझते, सूखे की चपेट में, अकाल की भूख से मरते लोग, पत्थर फोड़ती लड़की, दुश्मनों को ललकारती, प्रेम में डूबी और ऐसे ही अनेक प्रसंग जो उस समय के जीवन को प्रकट करते हैं.
चित्तप्रसाद के चित्र यथार्थवाद से बहुत दूर ‘चित्त-शैली’ में बने हैं. रेखाओं का सधा उपयोग, सीमित अवकाश (space) में अनगिनित रूपाकारों को कुशलता से बुन जाना, सफ़ेद और काले का सादगी भरा नियंत्रित उपयोग इन छापों की जान है. इस पुस्तक में लगभग डेढ़ सौ से अधिक चित्र छपे हैं जो उनकी निरन्तरता, एकाग्रता और संवेदनशील दृष्टी के प्रमाण हैं.
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हमारे कवि मित्र शिरीष ढोबले ने इस बात की तरफ ध्यान दिलाया कि इनका नाम विचित्र है. चित्तरंजन तो हो सकता है ‘चित्तप्रसाद’ कैसे सम्भव है? चित्त का प्रसाद कैसे होगा
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‘विचारधारा की सारी साँचेबाजी कला के मामले में ग़लत हो जाती है, असल में कला सभी विचारधाराओं से ऊपर बोलती है, जैसे जीवन सबसे ऊपर बोलता है.’
– ज. स्वामीनाथन
दो तरह के चित्रकार होते हैं एक जो विषय चित्रित करते हैं. इनका सम्बन्ध अपने आसपास घट रहे जीवन के विभिन्न पक्षों पर अपने आपको केन्द्रित करना और उनका चित्रण ही इनका प्रमुख ध्येय होता है. आसपास मौजूद प्रकृति, प्राणी, घटनाएँ शामिल हैं. इन्हीं में धार्मिक चित्रों का स्थान भी है जो कल्पना केन्द्रित है. विषयों की प्रचुरता, हर क्षण बदल रहे संसार का अनुभव और अठारहवीं शताब्दी से राजनीति प्रेरित चित्र भी इसमें शामिल हो गये.
हिटलर और लेनिन दोनों ही कला से यह अपेक्षा रखते थे कि वह संदेश दें. इनके लिये विचारधारा से ऊपर कुछ नहीं था. इन्होंने कला को साधन की तरह देखा साध्य की तरह नहीं. यहाँ से खुशामदी कलाकारों की एक नयी पौध का जन्म हुआ जो विचारधारा को सर्वोपरी मानते हुए, सन्देश देने वाली कलाकृति का निर्माण करने लगे. सोवियत संघ इसका बड़ा उदाहरण बना. लोहे की दीवार से ढँके-छिपे सत्तर साल के शासन में जिन खुशामदी कलाकारों को नवाजा गया, सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया उनका नाम कला इतिहास में कहीं नहीं मिलता.
इसके विपरीत हम देखते हैं रोथकोविच, मालेविच, मार्कशागाल, कांडिन्सकी आदि रूसी कलाकार जिन्हें वतन से पलायन करना पड़ा, जिनके सर पर मौत का फतवा जारी था जो विचारधारा के गुलाम नहीं थे उन्होंने कला की धारा में नैसर्गिक बदलाव किया. इनका योगदान दुनिया भर कलाकारों को प्रभावित कर सका.
खुशामदी कलाकार के लिये ‘कल्पना’ करना प्रतिबन्धित है उसे दिये गये विषय पर चित्र बनाना है. उसका ध्येय है, उसका कारण हैं, उसमें कलाकार की सहभागिता, अनुभव और फसाव शामिल नहीं है. वह विषय के बाहर है. वह दृष्टा नहीं ‘कर्ता’ मात्र हैं. उसकी कला में प्रकटन का कोई स्थान नहीं हैं. वह ऐसा रचियता है जिसे रचने का भ्रम है. उसका भ्रम सर्वोपरि है जहाँ संशय की कोई गुंजाईश नहीं है. उसे बताया गया है कि उसके चित्र क्रान्ति लाने वाले हैं.
एक नयी सुबह होगी जहाँ सब ठीक हो जायेगा. वह राजनेताओं की तरह ‘भेद-दृष्टि’ रखता है. चित्रकला उसके लिये राजनैतिक कर्म है. इसमें वह जीवन की सचाई का अनुभव नहीं करता, वह उसे बाहर से देखता है. वह विस्थापित नहीं है, विस्थापन का चित्र बनाता है. चित्र से यह सम्बन्ध नकली है उसे पता नहीं चलता. उसे कलाकृति से कुछ प्राप्त करने की चाह है. वह खुद को चित्र को समर्पित नहीं करता. यह नकली सहानुभूति से यश हासिल करने का प्रयास है. वह घासलेट के लिये राशन की दुकान पर खड़ी कतार का चित्रण कर अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता सुविधा सम्पन्न स्टूडियो में बैठकर जता रहा है. और अनेक बार यह भी हुआ है कि उसे घासलेट का अर्थ नहीं मालूम. उसे अपने विशिष्ट होने का, कलाकार होने का, समाज को एक दिन सुधार देने का अहंकार है.
वह एक तरफ विचारधारा के सामने खुशामदी है. दूसरी तरफ साधारण लोगों के बीच विशिष्ट होने का अहं है.
किन्तु चित्तप्रसाद के चित्र किसी विचारधारा का समर्थन नहीं करते दिखते हैं. उनके भीतर यही मानवीय संवेदना थी जिससे उनके चित्र प्राणवान होते हैं. एक घटना का जिक्र इसी पुस्तक में है युवा चित्रकार मित्र संजय सेनगुप्ता जब उनसे मिलने गये तो उनकी टूटी चप्पल और फटा छाता देख जिद से नया छाता और चप्पल खरीद कर दिया जबकि उनके पास ही पैसों की कमी थी. इतने संवेदना से भरे व्यक्ति के लिए चित्र विषय से सीधा जुड़ना स्वाभाविक है. लिनोकट इसी तरह के अनेक विषयों के हैं जिनमें दुख हैं, दर्द हैं, पीड़ा है पर सन्देश नहीं है. विचारधारा से मुक्त होने के कारण ही ये चित्र सम्प्रेषित हो पाते हैं.
दूसरी तरह के चित्रकार वे हैं जिनका विषय ही कला है.
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2011 की नीलामी में चित्तप्रसाद का एक चित्र Village Harvesting scene लगभग तिरपन हज़ार डालर में बिका. जीवन भर आर्थिक परेशानियों से घिरे रहे इस चित्रकार के लिए यह रकम अविश्वसनीय है. किन्तु चित्तप्रसाद के चित्र इस कीमत को पा सके भारत में इसके लिए प्रयत्न करने वाले इकलौते कलाकार मक़बूल फ़िदा हुसेन हैं जिन्होंने भारतीय कला को वैश्विक पटल तक पहुँचाया.
दो तरह के कलाकार होते हैं. एक जो बेहद कुशल कारीगर होते हुए अपने चित्रों तक सीमित रहते हैं. उनका संसार ही उनका चित्र है. देश-दुनिया के हील-हवाले से निपटते हुये वे अपने कर्म को समर्पित भाव से करते हैं उनका जीवन ही उनका कर्म है. वही उदाहरण है. वही प्रकटन है. वही चित्तप्रसाद की श्रेणी है. उन्होंने कुशल कारीगर की तरह अपने को समर्पित कर दिया. उनका चित्र संसार विलक्षण और अनूठा है. अमृता शेरगिल या यामिनी राॅय की तरह, अच्यूतन कूडालूर या मंजीत बावा की तरह. अर्पिता सिंह या मृणालिनी मुखर्जी की तरह. अनेक चित्रकारों ने अपना पूरा जीवन कला को समर्पित किया और वे बहुत ही उम्दा सम्पदा छोड़ जाते हैं. उनकी दृष्टी का केन्द्र वे स्वयं हैं. उनकी रचनाशील सृजनात्मकता अनेक पड़ाव से गुजरती हुई इस यात्रा के अद्भुत क्षण, अनूठे अनुभव महसूस करती, उनके साथ सम्बन्ध बनाते हुये प्रकट होती है. वे दर्शक को चकित करते हैं.
दूसरी तरह के कलाकार कम होते हैं जिनका उपरोक्त गुणों से भरा व्यक्तित्व इस सब के अलावा कला की दुनिया को नयी राह पर ला पटकना भी है. मकबूल फ़िदा हुसेन इस श्रेणी में आते हैं. हम सब जानते ही हैं जब उन्नीस सौ सैंतालीस में देश आज़ाद होता है तब देश के समकालीन कला के परिदृश्य पर किसी तरह की कोई खास हलचल नहीं दिखाई पड़ती है. राजा रवि वर्मा के कैलेण्डर ही कला का पर्याय बने हुये थे. आज़ाद मुल्क में आज़ादी के जोश में देश के लिए कुछ कर गुजरने के अनेक प्रयास, प्रयत्न किये जा रहे थे. जिसमें हाशिये पर उपस्थित कलाओं में हो रहे परिवर्तन में कुछ खास नहीं हो रहा था. एक महत्वपूर्ण घटना Progressive Artist group की स्थापना थी.
‘यह हुसेन और सूजा का ही योगदान है, जिन्होंने पचास के दशक में बम्बई में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाया था. (1948 में ग्रुप बना था और उसी वर्ष उसकी पहली और आखिरी प्रदर्शनी हुई फिर खत्म हो गया) जिसने लोगों का ‘देखना’ खोल दिया, वे नकली भावुकता और नकली राष्ट्रवाद, पिछली पीढ़ी जिस शैली में चित्र बना रही थी, को पहचानने लगे. इस ग्रुप ने कलाकार के महत्व को, जो जीवन वह जीता है, अनुभव करता है, उसके जीवन के प्रति, कला के प्रति, चीज़ों के प्रति खुद के नजरिये को महत्व दिया जिससे उसकी अभिव्यक्ति में प्रामाणिकता दिखायी दे.’
– ज. स्वामीनाथन
इस ग्रुप के तीन सदस्य, सूजा, रज़ा और आरा ने यह शिद्दत से महसूस किया कि इस आज़ाद मुल्क में नयी आज़ाद चेतना जगाने के लिये एक नये समूह की ज़रूरत है. जिसका सम्बन्ध राजा रवि वर्मा की यथार्थवादी कैलेण्डर कला से न हो, न ही बंगाल की ग्रामीण विषयों से भरी कला से. इन दोनों तरह की कला को अंग्रेज़ों का प्रश्रय प्राप्त था और उनकी नज़र में ‘भारतीय कला’ यही थी. इस तरह आज़ादी के जज़्बे से भरे इन तीन युवाओं ने अपनी पसन्द के एक चित्रकार को और जोड़कर छह कलाकारों का एक समूह बनाया. सूजा हुसेन को लाये, रज़ा गाड़े को और आरा बाकरे को. (यहाँ यह संयोग नोटिस करने योग्य है कि छः में से तीन हुसेन, रज़ा और गाड़े मध्यप्रदेश के हैं.) इस समूह की एकमात्र प्रदर्शनी 1948 में हुई जिसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई.
पचास का दशक शुरू होते होते हुसेन को छोड़कर अधिकांश युवा कलाकार, न्यूयार्क, पेरिस, लन्दन चले गये. हुसेन आन्ध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और अन्य राज्यों में होने वाली रामलीला के पीछे घूम, रामलीला प्रसंग चित्रित करते हुए, उन चित्रों को रात में गाँव की दीवारों पर कीलों से ठोक रामलीला का स्टेज बनाते हुये, देश की आम जनता, मानस का अनुभव करते हुए अपनी समक्ष को विस्तारित करते रहे. भारत भ्रमण करते हुए गाँधी ने जनशक्ति को पहचाना, हुसेन ने भारत के सांस्कृतिक वैविध्य को आत्मसात् किया. यह काम हुसेन ने बेफिक्र अन्दाज में किया. हुसेन अकेले चित्रकार हैं जिन्होंने अपने देश की मिट्टी की गन्ध को पहचाना और उसे देश-विदेश तक फैलाया. यह वो समय है जब देश में कला के गिने-चुने दो या तीन केन्द्र हैं. व्यवसायिक गैलेरी नहीं है. कला संग्राहक, कला संरक्षक नहीं है और हुसेन सांस्कृतिक चेतना जगाने का काम अकेले करते हैं. वे देश को चित्रकार की छवि प्रदान करते हैं. देश के अनेक शहरों में लोगों को गैलेरी खोलने के लिए प्रेरित करते हैं. बम्बई में कैमोल्ड और पण्डोल गैलेरी खोलने के लिए काली पण्डोल और केकू गाँधी को उकसाते हैं और हुसेन के साठ साल का होने तक देश में कला-संसार का एक ऐसा माहौल खड़ा हो चुका था जिससे अनेक कलाकार लाभान्वित हो रहे थे. देश के किसी भी कोने में चित्रकला महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी के मन में हुसेन बनने की चाहना होती थी. सबको पता चल चुका था कि चित्रकार होना हुसेन होना है. पिकासो ने अपने देश स्पेन के लिये इतना नहीं किया जो अकेले हुसेन ने भारत के लिए किया.
अब आते हैं नीलामी वाले हिस्से पर. उन्नीस सौ पिच्चासी में देश में पहली नीलामी आयोजित हुई. यह किस्सा मुझे तैयब मेहता ने सुनाया था. हुसेन के लिए तैयब मेहता बड़े महत्व के थे. वे अपनी हर मुश्किल या दुविधा के निवारण लिए उन्हीं के पास जाते थे. तैयब ने कहा एक दोपहर हुसेन घर आया और इधर-उधर की बात करने के बाद बोला, यह जो नीलामी हो रही है उसमें मैं अपने चित्र की कीमत पाँच लाख रख रहा हूँ. तैयब जोर से हँसे और कहा अपने चित्र बीस, तीस हजार में भी नहीं बिकते हैं. लाख में कौन लेगा? और ये तो पाँच लाख हैं. हुसेन ने कहा चित्र नहीं बिकेगा तो वापस आ जायेगा, और क्या? इस तरह उन्होंने अपने चित्र की ठंेम च्तपबम पाँच लाख रखी जो नीलामी में दस लाख में बिका.
दूसरे ही दिन से हम लोगों के चित्र हजार से लाख में आ गये. इसके बाद हुसेन उसे करोड़ तक ले गये.
हुसेन के होने से पूरे चित्रकला जगत और चित्रकार को नयी दिशा, नया रुतबा और एक ऐसा जोश प्राप्त हुआ जो सबको प्रेरित करता है. इस किताब को लिखने की प्रेरणा भी वहीं से संचारित होती है. एक बड़ा चित्रकार अपने लिये ही नहीं करता बल्कि उसका योगदान आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचता है. यह देश हमेशा ऋणी रहेगा हुसेन के इस योगदान के लिये. सो चित्तप्रसाद का यही चित्र नहीं बल्कि उनके अनेक चित्र नीलामी में अच्छा स्थान पाते हैं.
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पुस्तक में वर्णित एक प्रसंग से पता चलता है कि चित्रकार की हताशा कितनी तरह से जन्म लेती है. चित्तप्रसाद ने 1950 के बाद बाल-श्रमिकों और समाज के उपेक्षित मासूम बच्चों पर गम्भीर काम करना शुरू किया था और इस विषय पर उन्होंने तमाम चित्र बनाये थे. इन्हीं में एक नायाब चित्र श्रृंखला ‘जिन फ़रिश्तों की कोई परीकथा नहीं’ (एंजेल्स विदाउट फेयरी टेल्स) उनकी सबसे महत्वाकांक्षी श्रृंखला थी. इन चित्रों में चित्तप्रसाद का बेहद संवेदनशील कथ्य जहाँ हमें प्रभावित करता है, इन लिनोकट माध्यम के छापा चित्रों के फार्म, रेखांकन और संरचना इन चित्रों को उनके जीवन की श्रेष्ठ कलाकृतियों के रूप में स्थापित करता है. विदेशों में इन चित्रों को बहुत सराहा गया था पर इस श्रृंखला को एल्बम या पुस्तकाकार में प्रकाशित करने के लिए चित्तप्रसाद की तमाम कोशिशें असफल ही रही थी. इस विषय पर अपने मित्र मुरारी गुप्त को लिखे एक पत्र (23 जून 1953) में उन्होंने अत्यन्त महत्वपूर्ण बात लिखी थी,
‘‘लिनोकट में बच्चों के एल्बम को लेकर जो कुछ हुआ उससे इस मुल्क के बारे में मुझे भय और दुश्चिंता हो रही है. यह इसलिए नहीं कि इन लोगों ने मेरे काम की कद्र नहीं की. अच्छे काम को ज़रूरी मान कर काम में लाना भूल गये हैं, ये लोग! इसे बर्बरता कहते हैं, और (इसीलिए) यह आतंक पैदा करता है. मेरे अकेले की कोशिश से अगर कुछ करना सम्भव होता तो मैं क़तई हताश न होता, क्योंकि हताशा को मैं एक बीमारी मानता हूँ. पर ऐसे हालात की तुलना सूखे या अनावृष्टि से ही की जा सकती है. यहाँ मौत बीमारी से नहीं- प्यास के चलते हो रही है; जैसे फलों के पेड़ अगियाते मौसम में मर जाते हैं!’’
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‘अगर कोई तबका हुसेन की कलाकृति नहीं खरीद पाता या नहीं देख पाता, इससे हुसेन बुरे कलाकार तो नहीं हो जाते.’
– ज. स्वामीनाथन
दो तरह के चित्रकार होते हैं. एक पारम्परिक दूसरे अन्त-प्रज्ञा से चित्र बनाते हैं. प्रख्यात लेखक डी.एच. लारेंस ने यह बात अपने कैटलाॅग में लिखी थी. हुआ यूँ कि जीवन के उत्तरार्ध में डी.एच. लारेंस चित्र बनाने लगे. जब काफी चित्र हो गये तो उनके मन में प्रदर्शनी का ख्याल आया. उन्होंने अपनी प्रदर्शनी आयोजित करने का उपक्रम शुरू किया. इसी सिलसिले में उन्होंने कैटलाग लिखना शुरू किया. लारेंस और सेंजा बहुत गहरे मित्र थे. कैटलाग लिखने के दौरान उन्हें यह अहसास हुआ कि वे ग़लत कर रहे हैं. यह उनका क्षेत्र नहीं है जहाँ सेंजा ने अपना पूरा जीवन लगा दिया है. यह आत्मज्ञान प्राप्त होते ही उन्हें आत्मग्लानि हुई और इससे निकलने के लिए उन्होंने उस लेख में सेंजा के चित्रों पर ही लिखा. उसी में यह स्थापना की कि सेंजा अपने चित्र अन्तप्रज्ञा से बनाते हैं.
इधर हम देखते हैं चित्तप्रसाद एक पारम्परिक चित्रकार हैं. जैसा चित्रकला का प्रचलन है उसी का अनुसरण करते हुए चित्र रचना करते हैं. संरचना, संयोजन, छाया-प्रकाश का उपयोग, रेखांकन आदि सभी चित्रकला के प्रचलन नियमों के मुताबिक है.
हुसेन भी पारम्परिक चित्रकार हैं किन्तु वे चित्रित करते वक्त अन्तःप्रज्ञा का इन्तज़ार करते हैं. रज़ा, अकबर, कृष्ण खन्ना, रामकुमार आदि सब इसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं किन्तु गायतोण्डे, अम्बादास, राजेन्द्र घवन अन्तःप्रज्ञा के चित्रकार हैं.
अपने जीवन के अन्तिम समय में चित्तप्रसाद ‘महाभारत और रामायण’ पर चित्र कथा तैयार कर रहे थे. एक समय के कट्टर कम्यूनिस्ट जिनके लिए धर्म अफीम है अपने अन्त समय में शायद यह जान सके कि ‘संस्कृति: संस्कार छोड़ना ही असभ्य होना है.’ कमतर मनुष्य होना है. अतः वे वापस उन्हीं शिक्षाओं की तरफ़ लौटते हैं जो माँ-बाप से बचपन में मिली थी. वे बच्चों को शिक्षित करना चाहते थे. उन्हें मिथक से परिचित कराने के लिए जो छापे तैयार किये वे सुघड़ और संयोजित हैं.
उन छापों में सधा हुआ चित्रण है. जीवन भर का संचित अभ्यास अपने प्रखर रूप में प्रकट है. उन्हें अहसास हुआ कि राजनैतिक विचारधारा एक धुँधलका पैदा करती है जिसे साफ़ होने में जीवन खप जाता है. हालाँकि उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी बहुत पहले ही छोड़ दी थी. उन्नीस सौ इकतालीस में चटगाँव में हुई वामपंथी समर्थकों की सभा में चित्तप्रसाद उपस्थित थे. यहीं से पार्टी की विचारधारा से जुड़े और उन्नीस सौ बयालीस में सदस्यता ली- उन्नीस सौ उनपचास में छोड़ दी. इन सात सालों में पार्टी के लिए जी-जान से काम किया. ढेरों इलस्ट्रेशन, पोस्टर, पार्टी के आन्दोलन चित्र, पत्र-पत्रिकाओं के लिए बनाये. किताब में इस बात का जिक्र एकाधिक बार है कि चित्तप्रसाद को भारतीय समकालीन कला जगत में वह जगह नहीं मिली जिसके वे हक़दार थे.
यह एक ऐसा आरोप है जिसे पुस्तक की रोशनी में देखें तो उनके जीवन में अनेक ऐसे सार्वजनिक प्रसंग हैं जहाँ वे सम्मानित हुये, उनके लिखे नाटक का मंचन, काव्य संग्रह का प्रकाशन, अनेक प्रदर्शनियाँ, इप्टा के साथ की सक्रियता, उनके क्रान्तिकारी गीतों का कार्यक्रम, लोकगीत संग्रह का प्रकाशन, हंग्री बंगाल नाम से प्रकाशित पुस्तक, मंच सज्जा, वेशभूषा में नूतन प्रयोग, रूस, चेकोस्लोवाकिया, डेनमार्क, हालैण्ड, आस्ट्रिया आदि देशों की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित चित्र प्राग में महत्वपूर्ण प्रदर्शनी, याने उन्होंने एक चित्रकार, नाटककार, लेखक का भरा-पूरा सार्वजनिक जीवन गुजारा और उनके वक्तव्यों को पढ़कर मुझे नहीं लगा कि वह किसी तरह की उपेक्षा के शिकार हुये. वे सक्रिय थे और गतिविधियों के केन्द्र में थे. इस कदर सक्रिय और सम्मानित थे कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरू का निमन्त्रण अस्वीकार कर सकते थे. उनके किसी पत्र से उपेक्षा भाव की गंध या अपने जीवन से असंतुष्ट होने का कोई छोटा सा प्रमाण भी नहीं दिखता.
रही बात कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी उपेक्षा की गयी तो दो हजार ग्यारह की नीलामी में बिके चित्र की कीमत भी इस बात की ताईद नहीं करती. एक और पक्ष जो उल्लेखनीय है कि उनके बारे में उस तरह बात नहीं होती जो हुसेन, रज़ा आदि के बारे में सिद्ध है. मुझे लगता है चित्तप्रसाद ने स्वयं वह राह चुनी थी जो एक चित्रकार की कम कर्मठ कार्यकर्ता की अधिक थी. अब यह सम्भव नहीं है कि आप राजनीति में सक्रिय जीवन गुजारे और यश चित्रकार का चाहें. साथ ही पुस्तक पढ़कर मुझे नहीं लगा कि उनकी यह चाहना रही थी. वे नितान्त सरल, संवेदनशील, मददगार व्यक्ति रहे और जी भर कर खुद्दारी से जीवन जीया. वैसे भी वह चित्रकारों के चित्रकार हैं जो जगह बहुत ही कम चित्रकारों को मिलती है. बाज़ार में प्रसिद्ध होना मेरी नज़र में कोई उपलब्धि नहीं है.
बहरहाल जैसा कि शुरू में ही लिखा है कि यह पुस्तक अंधेरे में कंपकंपाती एक लौ है. इस पुस्तक की सबसे अच्छी बात अनेक घटनाओं, आन्दोलनों का तारीख के साथ जिक्र करना भी है. चित्तप्रसाद के बारे में, उनकी रचनात्मकता और राजनीतिक मानवीय संवेदनाओं के बारे में अनेक तरह से बतलाती है.
अभी भारतीय समकालीन कला संसार वयस्क नहीं हुआ है. अनेक रिक्त स्थान हैं और इसी तरह के प्रयास उन जगहों को भरने का काम करेंगे.
अशोक भौमिक की यह कोशिश दस अध्यायों में बँटी हैं. साथ ही सोमनाथ होर, प्रभाकर कोल्टे, प्रभास सेन, चलासानी प्रसाद राव चित्रकारों ने चित्तप्रसाद पर लिखा है. अन्त में एक अंग्रेज़ी साक्षात्कार है जो पी.सी. जोशी ने कय्यूर से लिया है जिसके आखिर में कय्यूर परिवार की मदद के लिये पैसे माँगे गये हैं. इसका कोई सम्बन्ध चित्रोप्रसाद से नहीं दिखाई देता है. इसकी जगह या इसके पहले यदि चित्रोप्रसाद की कविताओं का अनुवाद दिया होता तो पाठक उनके एक और पक्ष से सम्बन्ध बना पाता. उनका एकमात्र कविता संग्रह ‘दुहु प्रेम आर दोहा’ शिल्पायन कलकत्ते से प्रकाशित हुआ. एक बेहतरीन प्रयास है और इस तरह की अनेक पुस्तकें आना भी चाहिये.
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अखिलेश (२८ अगस्त, १९५६)भोपाल में रहते हैं. इंदौर के ललित कला संस्थान से उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे. भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित. देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं. कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं. प्रकाशन : |
प्रिय सम्पादक अरुण देव जी,
अखिलेश जी लिखित ‘चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला’ पढ़ा और अपने भीतर के अन्धेरे में रौशनी का स्फुरण महसूस किया।…4 नंबर का अनुभाग इतना कम क्यूँ रखा अखिलेश जी ने, यह लगा।
इन दिनों समालोचना पढ़ रहा हूँ। अपने को जानने और जगाने; साथ ही आगे बढ़ने का पुल बन रहा है यह।
आभार समालोचना! धन्यवाद अरुण देव जी!
राजीव
बहुत मन से और बेझिझक होकर लिखी गयी समीक्षा। एक चित्रकार की कलम से लिखी गयी यह टिप्पणी मानीखेज है और प्रश्नाकुल करनेवाली भी। अखिलेश जी और प्रिय अरुण को साधुवाद।