अरुण बालकृष्ण कोलटकर (1932-2004)
कोल्हापुर महाराष्ट्र में जन्मे अरुण कोलटकर आधुनिक भारतीय कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं. कोलटकर जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट से कला के विद्यार्थी रहे. अपने लिखे को प्रकाशित करवाने से हमेशा झिझकते रहे, यही कारण था कि 1955 से मराठी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविता लिखने वाले इस कवि के 2002 तक मात्र दो संग्रह प्रकाशित हुए थे. जिस वर्ष उनकी मृत्यु हुई उनके पाँच संग्रह एकसाथ प्रकाशित हुए.
जिस तरह मैक्सिकन लेखक रॉबर्तो बोलानो की मृत्यु उपरांत उनके उपन्यास प्रकाशित हुए और पुर्तग़ाली लेखक फ़र्नांडो पेसोआ द्वारा लिखे गए हज़ारों पन्ने उनकी मृत्यु के पंद्रह-सोलह वर्ष पश्चात एक ट्रंक में पाए गए उसी तरह कोलटकर की मृत्यु के बाद उनके ऑफिस से उनके द्वारा लिखे पन्नों का ज़ख़ीरा मिला है.
कोलटकर का पूरा लेखन अभी प्रकाशित नहीं हुआ है और जितना प्रकाशित हुआ है उस पर भी ढंग से अभी विवेचना नहीं हुई है. इस द्विभाषी कवि के अस्तित्व के इतने अलग-अलग सन्दर्भ और आयाम है कि इन पर समग्र विचार कब होगा यह भी एक बड़ा प्रश्न है.
जैसे कोलटकर स्वयं के लिए कह गये हों:
‘Whether half my work will always remain invisible
like the other side of the moon’
(प्रतिभा गोटीवाले)
अरुण कोलटकर की कविताएँ मराठी से अनुवाद प्रतिभा गोटीवाले |
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
बूँदें काँच की
पन्नें की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
बूँदें सोने की
चाँदी की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
कथिल की
(एक धातु जिसका प्रयोग कलई करने में होता है)
सीसे की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
तेल की
घी की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
दूध की
शहद की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
पारिजात की
बकुल की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
वाईन की
विनेगर की
बूँदें
बूँदें गिरती हैंआँखों से
बूँदें
पेट्रोल की
टर्पेंटाइन की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
स्याही की
एसिड की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
गंधक की
सुहागे की
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
एकदम ठोस
पॉइंट थर्टीफाईव की
पिस्तौल में भरने लायक
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
जैसे बिच्छुओं के बच्चों की
कतार उतर रही हो
चपल और दैदीप्यमान
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
यूरेनियम का
विकिरण करती
बूँदें
बूँदें गिरती हैं आँखों से
बूँदें
लाइसोज़ाइम युक्त
पानी की भी
बूँदें
किंचित खारी
और कसैली
बूँदें.
चट्टामट्टा
एक निवाला कौवे का बनोगे
एक चिड़िया का
एक फड़फड़ाते अख़बार का
हाईना की तरह आक्रामक होकर आएगा स्टूल
जंगली सूअर की तरह हल्ला बोलेगा रेडियो
डिब्बे में से जीभ चाटते हुए बाहर आएंगे जूते
हैंगर झपट्टा मारेंगे
बाम्बियों के भीतर से सरसराते हुए आएंगे नल
झुण्ड की तरह कपड़े सुखाने के चिमटे
एक साथ ही सबके
भोजन का समय हो गया होगा
सबको एक साथ ही तोड़ना होगा
अपना उपवास
ठहरो भी किस किस से कहोगे
देखते ही देखते
वस्तुओं के रक्त में शक्कर हो जाओगे.
(चट्टामट्टा का अर्थ है ‘आपस में बाँट कर ख़त्म कर देना’ अधिकतर इसे खाने के सन्दर्भ में इस्तेमाल किया जाता है)
रद्दी
टीपॉय पर अख़बारी रद्दी का ढ़ेर है
उससे जरा बच के रहो
रद्दी को डिस्टर्ब मत करो
मुझे पता है
पन्ना-पन्ना साँपों से भरा है
मत देखो उधर
अख़बार के कोने
हवा से नहीं कंपकंपा रहे
ढ़ेर में हलचल मची है
साँप के बच्चे कुनमुनाते हुए
गर्दन घुमा कर तुम्हें ही देख रहे हैं
वह कोना फन उठा रहा है
जीभ लपलपा रहा है
ध्यान मत दो
आँखे मीच लो
चाहो तो कल सुबह
रद्दी बेच देना.
क्यों गोंद रिस रहा है
क्यों गोंद रिस रहा है तुम्हारी आँखों से
फिर फिर जमा हो रहा है आँख में यह चपचिपा पदार्थ
क्यों यह अंबर जमा हो रहा है
(यहाँ अम्बर का आशय एम्बर स्टोन है)
तुम्हारी बाल्टिक आँखों के दक्षिणी किनारे पर
बारम्बार
किस दुःख के कीटक को
बंदी बनाने के लिए
अश्रुओं में छेद करके माला बना रही हो
किसी के लिए
या इन अश्रुओं का इत्र
इत्रदानी में भरकर
आनेजाने वालों की कलाइयों पर मल रही हो
किसके लिए बना रही हो खीर
यह आम्बेमोहर (चावल की एक क़िस्म) अश्रु पका कर
प्रत्येक चावल के दाने पर
नयी नयी रामायण कुरेद कर रख रही हो
किसलिए
किस क्रौंच लिए बहा रही हो
ये अनुष्टुभ आँसू
किसलिए इतना पारा एकत्रित
कर रही हो
नाँद, बाल्टियाँ, कंडाल, पीपे, कुम्भ, मर्तबान
बरनियाँ, भगौने, बोतलें, लोटे
और केतलियाँ भर कर
किस चमचमाते पारदर्शी आकाश का शीशा बनाकर
उसमें अपना रूप निहारना है तुम्हें.
काय डेंजर वारा सुटलाय
(क्या ख़तरनाक हवा चल रही है)
अरे तेरी टोपी !
तेरी टोपी गई खड्डे में
पहले माथा संभाल
कितनी ख़तरनाक हवा चल रही है
सिर में कचरा
आँखों में धूल
साहब की खिड़की फूटी
बिस्तर पर काँच ही काँच
अपने आप लपेटा जा रहा है
पंजाबी का गालीचा
पारसी का फ्लॉवरपॉट
लोट रहा है अस्तव्यस्त
सिंधी की अलगनी से
महँगी नायलॉन साड़ी
चली जैसे हवा पर हवाईजहाज़
नवीं मंजिलवाले
बँगाली का पजामा
पड़ गया उसके पीछे तुरंत
खपरैले अपनी फूली साँसों के साथ
फड़फड़ा रही हैं पक्षियों के समान
कुलकर्णी की दीवार से
डिग्रियाँ विग्रीया फर्श पर.
नारया नारया
देख तेरा बाप
फिसल गया है फ़ोटो में से
मैदान में जिधर देखो उधर
एसएससी के पेपर,
कड़कड़ा कर गिरा पेड़
दौड़ती मार्सिटीज पर,
प्रोफ़ेसर साहब
उड़ गई तुम्हारी कविता
भागो पेंटर
रहने दो रंग का डब्बा
होर्डिंग खड़खड़ा रहा है
तुम्हारी ही पेंट की हुई
पच्चीस फुट की हेलन
तुम्हारे ही गले पड़ने वाली है
जांघों में तुम्हारी गर्दन दबोचने वाली है
मास्टर मास्टर देखो
कैसे सिर पटक रहा है दीवार पर
भारत का नक़्शा
उड़ गया खिड़की से बाहर
पर्वतों समेत, नदियों समेत, खूँटी समेत
गया सीधा आकाश में.
(इसी कविता का शीर्षक लेकर बाद में जयंत पँवार ने एक नाटक भी लिखा, जो काफ़ी चर्चित हुआ)
जब तुम्हारे मन का बाँध तोड़ कर
जब तुम्हारे मन का बाँध तोड़
क़ैद से छूटे रास्ते
झागदार बहते,
चट्टानों का आलिंगन करते
फिसलते जाते हैं
तब तुम ढ़हती हुई
बाँध पर होती हो उदास
उस धारासार को खिलाती
अपने अनिर्बद्ध मांस का ग्रास
मैं होता हूँ कठोर और खुरचा जाता हुआ
अविचल पचाता हलाहल
तुम्हारी धुआँधार मुक्ति का
तुम्हारे नुकीले उन्मुक्त रास्तों के
हुड़दंगी टर्किश टॉवेल से
पोंछता अपनी सुख से भीगी देह
अपनी पीठ.
अतृप्त दृष्टि की नली से होकर
अतृप्त दृष्टि की नली से होकर
मेरे प्राण प्रवास करते है
व तुम्हारे चेहरे के कप में मौजूद
साबुन के पानी पर जन्म लेती है
निरोपित बुलबुलों की एक पूरी पीढ़ी
और शुरू होती है
तुम्हारे चेहरे के बाज़ार में
लाखों आकाशों की उथलपुथल
पुल पर खड़ा मैं देखता हूँ
तुम्हारे प्राणों की बाढ़ का पानी
और उनके भँवर में फँसे हुए
नक्षत्रों के वृक्ष,
और भ्रम होता है की
तुम्हारे चेहरे का पुल
सच में बहकता है
हवा की उंगलियों से
तुम्हारे चेहरे की तलहटी के पन्ने
जल्दी जल्दी पलट कर देखता हूँ
सहस्राब्दियों के
आसमानों की कतरने,
जिस पन्ने पर होता है
प्रेम का पहला घोषणापत्र
वहाँ थमता हूँ
बार बार पढ़ता हूँ.
इस आईने में प्रतिबिंबित यह कमरा
इस आईने में प्रतिबिंबित यह कमरा
यहाँ बैठी हुई तुम और मैं
यहाँ का फर्नीचर
और यह पत्थर की दीवार
ये सारे वहाँ
आईने के देश में प्रचलित रीति रिवाजों का पालन करते है,
आईने की व्यवस्था को खुले मन से स्वीकार करते है.
यहाँ के सारे
वहाँ के भी वासी है.
वहाँ हमसे परे का दिखाई देता है.
एकदम असली मोगरा चमेली के फूल
आईने में दिखाई दे रहे कमरे की व्याख्या में
मात्र कागज़ के,
वहाँ उनमें सुगंध नहीं.
तुम्हारा हाथ पहली बार मैंने अपने हाथों में लिया
और तुम थरथराई
वह यहाँ.
वहाँ थरथराहट आई ही नहीं.
और मैं कितना ही ज़ोर से चीखूँ
तब भी वहाँ आवाज़ होगी ही नहीं.
आईने
चारों तरफ चार
एक ऊपर
और एक नीचे
इस तरह ख़ालीपन को क़ैद करने के लिए लालायित आईने
“हम हैं, हम हैं” कहकर आक्रोश में आ गए
पर ख़ालीपन उनके आगे से,
उनके पीछे से,
उनके चारों ओर से
और उनके भीतर से
खिलखिला कर हँसा
आईने बहराये, व्यथित हुए, पगलाए
ख़ुद के अस्तित्व को लेकर आशंकित हो गए
और आईनों ने आत्महत्या कर ली.
भूपाली / सुबह का राग
उखाड़ो खूँटा
समेट लो सामान सारा
लपेट लो शामियाना
हटा लो डेरा
उठाओ शिविर
बंद करो खेला
कितने ट्रिक दिखाओगे
कुछ रखो बचाकर
तह करके सारी छायाएँ
भर लो संदूक में
और भीतर डामर (नेफ्थलीन बॉल्स)
की गोलियाँ डाल दो
कितने बिजूका दिखाओगे
कितने भालुओं से खेलोगे, खिलाओगे
कितना कुरेदोगे रात्रि की कंदरा
भौतिक वस्तुओं की कितनी बड़ी गुफ़ा बनाओगे अपने आसपास
कितने राक्षस लटकाओगे छत से
कितनी दीवारो से छलाँग लगाओगे गारगॉईल के समान
कितनी आकृतियों के मोज़ों में हाथ डाल कर
कितने हावभाव दिखाने की कुचेष्टा करोगे
कितनी वस्तुएँ दिखाओगे
जीभ से निकाल निकालकर
ये सब चीज़ें यूँ ही खेलने की नहीं
किसी चीज़ को मत छूओ यहाँ अब
सुबह हो गई है
मुझे सोने दो.
प्रतिभा गोटीवाले कविता संग्रह ‘ समय के यातना शिविर’ |
अरुण कोलटकर को आधुनिक मराठी और भारतीय अंग्रेजी कविता का सबसे बड़ा कवि मानने वालों की कमी नहीं है। जीत थयिल के उपन्यास द बुक ऑफ़ चॉकलेट सेंट्स में वह कितना तो मौजूद हैं। अब वह एक मिथकीय उपस्थिति हैं।उनकी लापरवाह, फक्कड़ और आत्महंता जीवन शैली ने प्रामाणिक , दुख को कहने वाली और मोह भंग की पीड़ा के संकेत करने वाली कविता दी । एलिएनेशन के वह बड़े कवि हैं जहाँ निरुपायता आत्म निषेध की ओर जा सकती है जिस की बांह कोई सूफियाना खिलंदड़पन थामे रहता है। अच्छा है कि प्रतिभा ने उनके कुछ अनुवाद करके हिंदी पाठकों को इस अनोखे कवि का पुनर्स्मरण करा दिया।
सुन्दर। कोलटकर प्रिय कवि हैं। उनके विडंबनात्मक नज़रिए में अनूठा नयापन है । ‘क्या डेंजर हवा चल रही है’ बहुत अच्छी लगती रही है तब से जब इसे पहलेपहल ‘पुनर्वसु’ में पढ़ा था जो अशोक वाजपेयी के सम्पादन में विश्व कविता सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का संचयन था। यह अनुवाद भी शानदार है। अतियथार्थवादी बिम्बों का इतनी रफ़्तार से एक कॉमिकल संयोजन।
हिन्दी की अतिरिक्त और अक्सर ओढ़ी हुई गम्भीरता कोलटकर जैसे कवियों से बहुत कुछ सीख सकती है।
प्रतिभा गोटीवाले और आपका धन्यवाद।
स्वागतेय अनुवाद।
इधर प्रतिभा कोलटकर पर एकाग्र होकर, प्रोजेक्ट की तरह काम कर रहीं हैं। आशा है और भी अनुवाद सामने आएँगे। ‘आवेग’ में ‘जेजुरी’ और ‘आलोचना’ में ‘द्रोण’ की स्मृति है।
बहुत बढ़िया। हिन्दी वालों को ऐसे कवियों से कुछ सीखना चाहिए और अपनी अति-सेंटिमेंटेलटी से निकलना चाहिए, जो मात्र निजी किस्म की ही नहीं, समाजिक और राजनीतिक किस्म की भी है। कोलटकर के शब्द का ही उपयोग करें तो इधर बहुत सी हिन्दी कविता से सेंटिमेंटेलिटी की लिजलिजी बून्दें टपकती हैं।
One cannot think of Modern Indian Poetry without talking of my friend Arun Kolhatkar’s Poetry.
कई दिनों बाद समालोचन को पढ़ सका। अच्छी और मार्मिक कविताएँ हैं। अनुवाद भी अच्छे बन पड़े हैं हालांकि मराठी कविताएँ मैंने नहीं पढ़ीं क्योंकि मराठी आती भी नहीं।
बस एक बात मेरे मन में आयी हो सकता है मैं गलत होऊँ, अरुण सर बताएँगे। भाषा को अगर छोड़ दिया जाए तो क्या ये कविताएँ कुछ कुछ धूमिल की भावावेग से भरी कविताओं जैसी लगती हैं। बहुत शुक्रिया एक उम्दा कवि से मेरा परिचय हुआ। अरुण सर और प्रतिभा जी को बधाई🙏🙏
धूमिल और कोलटकर और ही,
अलहदा क़िस्म के कवि हैं। दोनों का दुनिया देखने का अंदाज़ जुदा हैं। एक ने महानगर को शायद उस तरह नहीं जाना जिस तरह कोलटकर ने। फ़र्क़ है मुल्क को एक बड़े पटल पर रख कर देखने का जिस में एक ग़रीब देश है, उस की राजनीति और सामाजिक परिप्रेक्ष्य के अलावा अर्थ तंत्र भी शामिल है जो धूमिल को एक मुख़्तलिफ़ थरातल पर खड़ा करता है, उसे विशिष्ट बनाता है। कोलटकर की दुनिया अभावों से उतनी जूझने की नहीं है, पर ख़ास है जिस का व्यंग हास परिहास एक अलग तरह से चीज़ों का परिचय कराता है। उसे देखने के लिए अंदरून महाराष्ट्र को देखना समझना पड़ेगा। यह दुनिया भारत में होते हुए भी वृहत्तर भारत से जुदा है पर कवि उस के मद्देनज़र बड़ी कविता रचता है। दोनों कवि दो अलग धरातल पर खड़े अपनी दृष्टि से हमारा परिचय करवाते हैं जो ख्रास हैं। दोनों बड़े कवि हैं। प्रतिभा के अनुवाद बेहतरीन हैं। उन का मशकूर हूं। आगे चल कर कोलटकर का काफ़ी कुछ पढ़वा सकती हैं, यह उम्मीद की जा सकती है।
अरुण कोलटकर को कविता पढ़ते हुए सुनना भी क्या अनुभव हुआ करता था। लगता ही नहीं था उनकी कविता यथार्थ के खूंटे से कभी बांधी जा सकती है। कल्पना का ऐसा विशुद्ध परवाज़ भारतीय कविता में कभी कभार ही दृश्य होता है। उनकी शख्सियत भी उनके दस्तख़त ही थी। वे जब नमूदार होते तो लगता कविता सिर्फ़ लिखित शै नहीं होती, किताबों से अधिक जीवन होता है उसमें। वह किसी कवि की देह यष्टि, उसके हवा को खेने के ढंग, उसकी खिलखिलाहट में भी उतनी ही समाई रहती है जितनी पन्ने पर।
कोई मुझे जानकारी दे सकता है उनकी अँग्रेज़ी में लिखी कविताओं की/ एक संकलन में कुछेक थीं मेरे पास। मुझे अंग्रेज़ी में भी चाहिए।
अनुवाद अच्छे हैं। लेकिन रखे रहें और समय समय पर बाँचें जाएँ तो शायद कुछ और भी संशोधन की गुंजाइश निकल आये। लेकिन बहुत सुख मिला इन्हें पढ़कर।