दृश्य: तीन
गिरधारी अभी आधे रास्ते ही पहुँचा होगा कि उसे चक्कर से आने लगे. धूप की वजह से या पहली बार इतनी दूर तक साइकिल चलाकर जा रहा था. पेड़ की छाँव में चादर बिछाकर वह सीधा लेट गया. पत्नी ने भी पाँव पसार लिये और अपना सिर उसकी छाती पर रख दिया. गरमी के कारण उसका चेहरा लाल हो गया था. कैंसर की मरीज पता नहीं ये थकान झेल भी पायेगी या नहीं. गिरधारी ने उसके सिर पर हाथ फेरा, उसके गालों को सहलाया, आँखों ही आँखों में बोला, ‘घबरा मत. सब ठीक हो जायेगा.’ ठण्डी हवा चल रही थी. पेड़ पर सैकड़ों परिन्दे बैठे चहचहा रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था, सघन सन्नाटा. ज़िन्दगी थम-सी गयी थी जैसे.
‘‘आगे चल तो पाओगे?’’
‘‘हाँ. आराम से. बस तू आराम कर ले. कुछ खाने को निकाल ले.’’
दोनों ने आराम से खाना खाया. बचे हुए खाने को सँभालकर, सहेजकर रख लिया क्योंकि आगे कहीं भी कुछ भी नहीं मिलने वाला था. पानी भी वे घूँट-घूँट पी रहे थे.
‘‘तू ठीक है. पहले भी तो हम साइकिल से जाते थे. कितना मज़ा आता था. तब मैं साइकिल भी मोटर साइकिल की तरह भगाता था. तू कितना चिल्लाती थी. हँसती थी. अभी हम कौन से बूढ़े हो गये.’’ गिरधारी हँसकर बोला.
‘‘सो तो है.’’
‘‘आज भी तू कितनी सुन्दर है… अरे ये बीमारी भी भाग खड़ी होगी.’’
‘‘तुम कहते हो तो….’’ वह लजाती हुई मुस्करायी.
गिरधारी का स्पर्श आज भी उसे पच्चीस साल पुराने स्पर्श की याद दिलाता था. कैंसर होने के बाद तो गिरधारी ने जैसे एक ही लक्ष्य बना लिया था ज़िन्दगी का कि पत्नी को बचाना है. उसे ज़िन्दा रखना है. उसके लिए जीना है. वह उसके जीवन की शक्ति है, प्राण है, रोशनी है, रागिनी है… गिरधारी का जीवन… एक-एक पल उसके लिए समर्पित था.
‘‘बैठने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’
‘‘नहीं. तुम इतनी अच्छी साइकिल चलाते हो कि… साइकिल रेस में भाग लेते तो पक्का जीतते.’’ वह मुसकुराकर बोली, जबकि वह जानती थी कि गिरधारी के पाँवों की नसें उभर आई हैं.
गिरधारी ने पुनः अपनी यात्रा आरम्भ कर दी. हालाँकि सभी अस्पतालों के ओ.पी.डी. और ऑपरेशन थियेटर बंद थे. इस एक वायरस से निपटने के लिए अस्पतालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी. सारे डॉक्टर्स की ड्यूटी कहीं न कहीं लगी थी. डॉ. अनिल ने ही सुनीता का ऑपरेशन किया था. वह मौत के मुँह से निकली थी. न कोई पॉलिसी थी न मेडिक्लेम, इतना महँगा इलाज. हज़ारों नहीं लाखों रुपये खर्च होने वाले थे. गिरधारी की दोनों बेटियों की शादी हो गयी थी खाते-पीते परिवारों में. पर बहुत थोड़ा पैसा ही बेटियाँ दे पायी थीं. बेटा पूना के किसी रेस्टोरेंट में काम कर रहा था. अपनी कमाई से अपना ही खर्चा उठा पा रहा था. एकमात्र ज़मीन थी तीन एकड़. उसी पर खेती हो जाती थी.
‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘चिन्ता क्यों करती है. मैं ज़िन्दा हूँ. तेरे सामने खेत क्या चीज़ है. तू बचेगी तो दुबारा सब ठीक कर लूँगा.’’ गिरधारी उसके उदास चेहरे को हथेलियों में भरकर कहता.
गिरधारी अपनी पत्नी से अटूट प्रेम करता था. उसे समझाता. तसल्ली देता. हास्पिटल में उसके साथ रहता. उसे किसी ने बताया था कि डॉ. अनिल के हाथों में जादू है… उनके इलाज किये मरीज लम्बी उम्र जीते हैं. पैसा भले ही खर्च हो जाने पर जीवन बच जाता है, तब गिरधारी ने यहाँ आना शुरू किया था.
अभी उसे और चलना था. शाम तक पहुँच जायेगा. रात अस्पताल के बाहर गुज़ार लेगा. सुबह कीमो हो जायेगी. परसों फिर चल देगा.
‘‘तुम थक गये.’’
‘‘आज ही चलायी है क्या साइकिल? अच्छा ही हुआ आराम से आ गये. बस में धक्का खाते आते थे.’’
गिरधारी की बात सुनकर सुनीता की आँखों में आँसू आ गये.
दृश्य: चार
21 तारीख को उसका टेस्ट हुआ. गाड़ी आई, दो लेब टेक्नीशियन (टेस्ट करने वाले) आये. बरामदे से नीचे उतरकर उन्होंने टेस्ट किया.
रात बारह बजे तक रिपोर्ट आनी थी. अब वह कोरोना इलाज का बजट बनाने में लग गयी.
पति शाम तक आने वाले थे. उनके लिए सारी व्यवस्था करनी पड़ी.
उधर पौने बारह बजे फ़ोन आ गया- आपकी रिपोर्ट पॉजीटिव है.
रातभर करवटें बदलते हुए निकली. ठीक होने वालों की संख्या कितनी है? और मरने वालों की… उसने अपने सिर को थपथपाया. एक-एक दृश्य सामने आ-जा रहा था- नर्सें. डॉक्टर. तड़पते रोते मरीज! उनके घरवाले!
दोनों बच्चे बाहर. रिश्तेदार मिल नहीं सकते. यह एक अकेला सफर था ज़िन्दगी और मौत के बीच का!
बैग में सामान जमाती जा रही है. घर की अलमारियाँ ठीक से बंद की. ज़रूरी सामान अन्दर रखा. अब भी मोह! नहीं… यह बच्चों का है. पूरी गृहस्थी घर में पसरी है. पैंतीस साल की गृहस्थी. सारी चाबियाँ एक जगह रख दी… अगर न लौटी तो ढूँढ़ने में दिक्कत न हो.
जो ठीक होकर आ गये थे, उनसे सलाह ले रही है. कुछ ज़रूरी सामान ले जाओ. मेरे तो सारे कपड़े रखवा लिये थे कि डिस्ट्राय कर देंगे, खाने-पीने का कुछ सामान ज़रूर ले जाना. हालाँकि वहाँ सब मिलेगा, पर कुछ चीज़ें होनी चाहिए. किताबें ज़रूर ले जाना. समय ठीक से कटे, बस इस बात का ख्याल रखना. खाना खाते हुए अजीब सी बेचैनी हो रही है. थाने से फ़ोन आ गया. फिर कलेक्टर कार्यालय से. बैरिकेट्स लगा दिये गये थे. न कोई आ सकता था, न जा सकता था.
बरामदे में बैठी है. सुना है कम से कम चार-चार, पाँच-पाँच लाख रुपये लग रहे हैं और बड़े अस्पताल में तो पन्द्रह-बीस लाख तक. एक साथ इतना पैसा. पिछले ही साल बड़े बेटे ने मकान खरीदा था. सारी बचत पूँजी लगा दी थी. अगर न जाऊँ तो. घर में ही इलाज हो जायेगा. दोनों साथ रहेंगे.
‘‘सरकारी अस्पताल में आप नहीं रह सकती, जगह नहीं है.’’ परिचित डॉक्टर बता रहे हैं.
‘‘इतने लोग वहाँ इलाज करवा रहे हैं न.’’
‘‘आपको आदत नहीं है भाभी.’’ डॉक्टर समझा रहे हैं!
दूसरे अस्पताल के लिए भाई बात कर रहा है.
‘‘लोग स्टेªचर पर पड़े हैं जनरल वार्ड में. कुछ तो ज़मीन पर ही हैं इन्तज़ार करते हुए. ऐसे में कहाँ कैसे रहोगी.’’
‘‘प्राइवेट में ही जाओ. पैसों का मत सोचो.’’
‘‘अपने डॉक्टर को फ़ोन लगाओ. पता चला वहाँ भी जगह नहीं बची है. डॉक्टर भी कुछ नहीं कर पायेंगे.’’
‘‘मैंने बात कर ली है, आपको एडमिट कर लेंगे. सब मेरे परिचित हैं. आपको कोई परेशानी नहीं होगी.’’ डॉक्टर कह रहे हैं. घबराना नहीं है.
‘‘पता नहीं लौटकर भी आऊँगी या नहीं.’’
अन्दर से रुलाई फूट पड़ी. बच्चों का क्या होगा? अभी उन्हें मेरी ज़रूरत है. उनका जीवन बेवक्त ही दुःखों से भर जायेगा!
भगवान के सामने जा खड़ी हुई. बस पाँच बरस और दे दो. इतनी कृपा करना…. तस्वीर के पीछे कुछ रखा. कोई मंत्र-मन्नत!
‘‘क्या सोच रही हो? जाकर एडमिट हो जाओ. रिस्क मत लो. घंटे भर में स्थिति बिगड़ जाती है. चिन्ता मत करो.’’ भाई दिलासा दे रहे हैं.
‘‘कैसे जाओगी?’’
‘‘देखती हूँ. वहाँ से एम्बुलेंस आ जायेगी. पैसे लेगी.’’
‘‘कितना लगेगा?’’
‘‘तीन हजार.’’
‘‘तीन हजार! इतनी दूर तो नहीं है हास्पिटल.’’
पूरी देह काँप रही है, जैसे शीत हो गया हो. ऑक्सीजन लेबल-92. मन घबरा रहा है. उसके हास्पिटल जाने की खबर सुन माँ रोने लगी. एक-एक करके सभी के फ़ोन. यह विदाई अन्तिम विदाई तो नहीं है!
‘‘मैडम, अपनी जान जोखिम में डालकर चला रहे हैं. वो तो डॉक्टर साहब ने बोला तो हम आ गये.’’ ड्राइवर ने पीपीई किट पहन रखी है.
अस्पताल के गेट के सामने एम्बुलेंस रुकी.
एक बड़ा बैग. हैण्डबैग. वार्डब्याय ने बड़ा बैग उठाया. महिला व्हीलचेयर लेकर खड़ी है. तुरन्त उतारकर अन्दर ले जाकर पलंग पर लिटा दिया. क्या-क्या बीमारी है? अभी कैसा लग रहा है? ब्लड टेस्ट! यूरिन टेस्ट! सिटी स्केन!
‘‘आपके साथ कौन आया है?’’ डॉक्टर पूछ रहा है.
‘‘कोई नहीं.’’
‘‘अकेली आई है?’’
‘‘यहाँ तो अकेला ही आना था.’’
‘‘पेपर्स पर कौन हस्ताक्षर करेगा.’’
‘‘मैं स्वयं.’’ उसमें थोड़ी-सी हिम्मत आ गयी है. गहरे कुएँ में गिरी है तो तैरकर किनारे पकड़कर ऊपर आना ही होगा.
‘‘आपके बारे में अपडेट देने के लिए किससे बात की जाये?’’
‘‘मैं आपको अपने भाई का नाम और मोबाइल नम्बर देती हूँ. पति तो कोरोना पॉजिटिव हैं, होम क्वारेंटाइन है. वो एडमिट नहीं होना चाहते.’’
सिटी स्कैन एक बार पहले भी करवायी थी पर अभी, अभी तो वह जैसे रेलगाड़ी है, हर पटरी पर चलती मुड़ती जा रही है. जिस रूम में जिस टेस्ट के लिए कहा जा रहा है, करवाये जा रही है.
एक्सरे… सिटी स्कैन… सब कुछ हो गया पर नीचे उसी पलंग पर लेटी है. तीन महिलाएँ और हैं उसी हालत में. घबड़ायी हुई. बातें करती हुई. एक महिला रो रही है.
‘‘आप रूम में कब ले जायेंगे?’’
‘‘आपकी फाइल तैयार हो रही है.’’
‘‘फाइल कब तैयार होगी?’’
‘‘पैसा जमा होने के बाद. आपके भाई से बात हो गयी है.’’
‘‘ओह….’’
‘‘तो जब तक पैसा जमा नहीं होगा तब तक फाइल तैयार नहीं होगी, न उसे यहाँ ले जाया जायेगा.’’
‘‘डॉक्टर का तीन बार फ़ोन आ चुका है, वह आपके बारे में पूछ रहे थे. उन्होंने कहा है कि हर बात और रिपोर्ट उन्हें बतायी जाये.’’
मन ही मन वह खुश हो उठी स्वयं को मिल रही तवज्जोह को लेकर.
एकाउण्ट सेक्शन में भइया की बात हो गयी थी.
अब उसको आई.सी.यू. में लाया गया है. सबसे पहले उसको पलंग पर लिटा दिया गया. फिर कपड़े बदलवाये गये. सामान पलंग के नीचे रखा गया. कुछ साइड की रैक में. तत्काल फाइल पर लिखा जाने लगा. ब्लडप्रेशर. शुगर. ऑक्सीजन. बुखार. ऑक्सीजन की नली नाक में, हाथ में ड्रिप, बूँद-बूँद दवा… चढ़ रही थी… मॉनीटर पर ऑक्सीजन दिख रही थी 92-93, पल्स 100, 110, 120…
अब उसने चारों तरफ देखा. बीस बेड थे. सभी भरे हुए. सबने स्काई ब्लू कलर के कपड़े पहने हुए थे. सिर पर कैप. मुँह पर मास्क. नाक में नली या मुँह पर बड़ा-सा गुब्बारा… एक-दो पेशेंट वेंटीलेटर पर भी थे. पीपीई किट में हर पलंग के आसपास खड़ी कुछ न कुछ काम करती दवा देती… टेस्ट करती नर्सें.
एक अत्यधिक बूढ़ी औरत जिसका सिर हिल रहा था. हाथ-पाँव भी काँप रहे थे. वह बार-बार उठकर भागती, नर्सें उसे पकड़कर बैठातीं- हमें घर जाना है. मेरे बेटे को बुलाओ. फ़ोन करो. बात करवाओ. हमें यहाँ नहीं रहना है. जाने दो. जाने दो. वह चीख़ रही थी. रो रही थी. गिड़गिड़ा रही थी. लगभग हाथ पकड़कर पलंग पर जबरदस्ती बैठाकर, समझाकर, उनको लिटाया जा रहा था. कभी वह नली फेंक देती तो कभी ऑक्सीजन मास्क निकाल देती.
वह… उन लड़कियों (नर्सों) का धैर्य देखकर चकित रह गयी. दूसरे पलंग पर गोरे रंग के मध्यम कद-काठी के आदमी को दो नर्सें पकड़कर खड़ी थीं. डॉक्टर के आते ही वे फफककर रोने लगे- ‘‘डॉक्टर साहब मुझे बचा लो. मैं मरना नहीं चाहता. मेरे इकलौते लड़के का मेरे सिवा कोई नहीं है. मैं जीना चाहता हूँ. प्लीज… प्लीज.’’ उनका रुदन उसकी छाती में बैठता जा रहा है.
डॉक्टर उनकी पीठ थपथपाकर सान्त्वना दे रहा था- ‘‘आपको हिम्मत रखनी होगी. आपको हमारी बात माननी होगी. आप आराम करिये. आप ठीक हो जायेंगे.’’
तीसरे पलंग पर एक मोटा-सा आदमी लेटा था. वह पहले किसी दूसरे हास्पिटल में था. जब हालत बिगड़ने लगी तो यहाँ आ गया था. एक पलंग पर एक निहायत ही शान्त-सा दिखने वाला आदमी लेटा था. उम्र होगी कोई पचास साल. किसी ऑफिस में एकाउण्टेंट है. कई दिनों से उसका बुखार नहीं उतरा था और ऑक्सीजन लेबल भी नहीं बढ़ रहा था. बाकी सबके अलावा एक महिला थी जो गाँव से आई थी… बेन फ्लैन लगाने के लिए उसकी नस नहीं मिल रही थी… जैसे ही नर्स सुई लगाती वह छाती फाड़कर चिल्ला उठती ओ पप्पू के पापा, मार डाला. बचा लो अब नहीं बचेंगे. जैसे ही नर्स ब्लड लेती तब भी वह चीखती- ओ भगवान! मार ही डालोगे… ओ पप्पू के पापा, वापस बुला लो. हमारी लाश आयेगी वापस. हमारी बात करवा दो. उसकी चीख-चिल्लाहटों से निस्पृह नर्स और दो अन्य लोग उसकी नस ढूँढ़ने में लगे थे. ओ अम्मा! ओ दद्दा! छाती जल रही है, घबराहट हो रही है. अरे दूध बुलवा दो. हमें ठण्डा दूध पीना है… बुलवाती हो या नहीं या बड़े डॉक्टर से शिकायत करें. अरे किसी को बुला दो. मेरे घरवाले नीचे खड़े हैं. फ़ोन लगाओ. बात करवाओ. उसका रोना-चीखना-कराहना बीस-पच्चीस मिनट तक यूँ ही जारी रहा.
सब एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे. यहाँ किसी भी तकलीफ में कोई भी कितना ही चिल्ला सकता था. नर्सों, डॉक्टरों को गालियाँ दे सकता था.
एक अन्य पलंग पर एक साँवले रंग का मोटा-सा आदमी था, जिसका पेट बाहर निकला था. उसका ऑक्सीजन लेबल बहुत ही कम था 66. गोल-गोल फुग्गे जैसा चेहरा. वह ऑक्सीजन मास्क निकालकर बात करता, फिर ज़ोर-ज़ोर से हाँफने लगता.
‘‘आप लोग अपने मोबाइल जमा कर दीजिए, डॉक्टर साहब राउण्ड पर आने वाले हैं.’’
उधर एकाउण्ट सेक्शन से उसके पास लगातार फ़ोन आ रहे थे. आपके पैसे अभी तक जमा नहीं हुए हैं. उसने भाई को मैसेज किया.
‘‘उनको इतनी अक्ल नहीं है कि एकाउण्ट एड किया है. पैंतालीस-पचास मिनट तो लगेंगे ही. उसको बता तो दिया था.’’
थोड़ी देर बाद भाई का मैसेज आया, पचास हज़ार रुपये जमा कर दिये हैं.
बीस पलंगों पर अलग-अलग लोग. सब घबराये हुए. ज़िन्दगी की जंग को जीने की भरपूर कोशिश करते हुए. अपनों की चिन्ता में डूबे. बाहर जो अपने हैं वे कितने परेशान होंगे… कैसी हवाईयाँ उड़ रही होंगी उनके चेहरों पर. ये सब सोचकर भी सब हैरान-परेशान. एक नियत समय दिया गया था कि हास्पिटल के फ़ोन से बात की जा सकती थी पर यहाँ तो अपनों से बात करके वीडियो पर उनको देखकर लगता था कि उनके लिए ही ठीक होना है. जीना है.
उसके पास जैसे फ़ोन आ रहे थे वैसे ही नये एडमिट पेशेंट के पास भी फ़ोन आ रहे थे. वह यानी जगदीश किसी प्राइवेट कम्पनी में काम कर रहा था. उसने अपने बॉस को फ़ोन लगाया.
‘‘सर, मैं एडमिट हूँ. कुछ पैसे की ज़रूरत है… मेरे एकाउण्ट से कर दीजिये. भोपाल में हूँ. थोड़ा-बहुत भी नहीं होगा. मैंने मैसेज किया है.’’
वह फिर मास्क लगा लेता.
दूसरा फ़ोन- ‘‘भोपाल में एडमिट हूँ. हाँ… अभी पैसा जमा करना है… वहाँ से यहाँ आ गया हूँ. मैं सब वापस कर दूँगा. प्लीज….’’
तीसरा फ़ोन, चौथा…शायद वह दस-बारह लोगों से बात कर चुका था.
‘‘आप लगातार बात किये जा रहे हैं. चलिये…. फ़ोन दीजिये.’’ नर्स नाराज़ होकर बोली.
‘‘बस दो मिनट.’’
‘‘नहीं…. दीजिये फ़ोन.’’
‘‘सारे नम्बर इसी में हैं मैडम.’’
‘‘हम बात करवाते हैं. आप लोग मानते नहीं हैं. कैमरे में मैडम देखती रहती हैं. आप बार-बार मास्क निकाल रहे हैं.’’
‘‘बस दो मिनट… प्लीज….’’ वह हाँफते हुए बोला!
वह समझ रही थी. हास्पिटल के फ़ोन से वह कितने लोगों से बात कर पायेगा. आजकल मोबाइल ही तो डायरी है. सारा हिसाब-किताब. सारे पेमेन्ट. जब तक ओटीपी नहीं बताओ पैसा ट्रांसफर नहीं होता है. सिस्टर अब भी उसके पास खड़ी थी.
वह अपना फ़ोन दे चुकी थी यह सोचकर कि शाम को ले लेगी. अगर परिवार वालों से बात नहीं होगी तो आधी मौत तो मरीज यूँ ही मर जाता है.
‘‘आप उनकी मजबूरी क्यों नहीं समझ रही हैं, उनको पैसे की व्यवस्था करनी है. पता नहीं कितने लोगों से बात करनी होगी.’’
‘‘बाद में कर लें.’’
‘‘क्या आप लोग बाद में पेमेन्ट ले लेंगे? मेरे पास ही पाँच बार फ़ोन आ चुके थे….’’ वह नाराज़ होकर बोली.
‘‘उन्हें रेस्ट की ज़रूरत है. उनकी ऑक्सीजन लगातार गिरती जा रही है. आप देख रही हैं ना….’’
‘‘उन्हें- हास्पिटल को- पैसे की ज़रूरत है.’’
पीपीई किट में दुबली-पतली नर्स की केवल चश्मे में से आँखें दिखाई दे रही थीं. उसकी आँखों में अपनी विवशता थी… पेशेन्ट को इतनी छूट क्यों दी. उनके नाम उनकी किट पर लिखे होते, ताकि पता चल सके कि कौन क्या है? एक डॉक्टर सुबह आता. दूसरा नौ बजे. फिर चार डॉक्टरों की एक टीम दस बजे. बड़ा डॉक्टर जो हर पेशेन्ट से विस्तार से बात करता. घबड़ाये हुए, चिन्तित, रोते पेशेन्ट की पीठ पर हाथ फेरता… कंधे थपथपाता. बात हुई घरवालों से या नहीं. पूछता. ये सफेद रंग के देवदूत सबकी आँखों में जीवन के कुछ फूल खिला देते.
जगदीश का ऑक्सीजन लेबल ज्यों का त्यों था. तनाव और घबराहट के मारे वह हाँफ रहा था. पता नहीं उसके पैसों का इन्तज़ाम हुआ या नहीं. वह पूछना चाह रही थी. यहाँ तो किसी प्रकार की रियायत भी न थी. बगल के पलंग पर वकील था जो अपने पैसों का, दवाइयों का, टेस्ट का, यहाँ मिलने वाली सुविधाओं का ध्यान रखता था. उसके सीने में दर्द था. छाती में कफ जम गया था. कोई भी डॉक्टर और हास्पिटल एडमिट करने के लिए तैयार न था. कोरोना टेस्ट करवाया तो निगेटिव निकला. साँस लेते बन नहीं रही थी. वह बता रहा था, मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मुझे कोरोना निकल आये ताकि मैं एडमिड होकर इलाज तो करवा सकूँ. पसलियाँ जकड़ गयी थीं. सीना ऐसे फूल गया था कि लगता फट जायेगा… फिर जब टेस्ट करवाया तो पॉजिटिव आया. सारे टेस्ट हो गये. ईसीजी भी. अब ठीक लग रहा है.’’
‘‘अच्छा हो पायेगा… मुझे बड़ी चिन्ता लग रही है.’’ वह जगदीश को देखते हुए बोली. एक बार जो यहाँ आ गया वह केवल पैसा देकर ही वापस जा पायेगा ज़िन्दा या मुर्दा.
दूसरे दिन वही प्रक्रिया. सुबह से शाम तक का कार्यक्रम पाँच-छह बजे तक फ्रेश होना. बिस्तर बदलना. कपड़े बदलना. गरम पानी के साथ टेबलेट, फिर सेव. फिर नाश्ता. फिर दवाएँ. इसके पहले खून लिया जाता, एक्सरे किया जाता, दवाएँ दी जातीं, ज़्यादातर लोग बिस्तर पर ही टट्टी-पेशाब करते. ब्रश-कुल्ला करते. खँखारते, थूकते. वह अपने कानों पर हाथ रख लेती. आँखें मूँद लेती. साक्षात् गंदगी का नरक और इस गंदगी को साफ करने वाले वही लड़के. महिलाएँ. यानी सफाईकर्मी. कुछ सज्जन किस्म के पेशेन्ट सब कुछ चुपचाप कर लेते, लेकिन कुछ लोग जो ये सोचकर आते कि वे हर चीज़ का पैसा दे रहे हैं. एक-एक बात की जानकारी लेते. एक-एक काम करवाते. लड़कों को दौड़ाते. शिकायतें करते. नाराज़गी दिखाते. यानी हर चीज़ वसूलो. सेवा भी वसूलो. वह महिला जो हर बात पर चीखती थी और खाने में, नाश्ते में, सफाई में गलतियाँ निकालती थी, वह सिस्टर से अपने बाल में तेल डलवाती. मालिश करवाती. कंघी करवाती. फिर चोटी बँधवाती. सिस्टर के मुँह से जी मैडम, जी आण्टी जी के अलावा एक शब्द न निकलता. उल्टा उसके आसपास दवा खिलाने के लिए मिन्नत करती. समझाती. उस महिला को न दया आती थी न सहानुभूति होती थी, उसे यह भी एहसास न होता था कि रात-रातभर बिना पलक झपकाये… बिना हाथ रोके… ये नर्सें भी तो किसी की लड़कियाँ हैं.
सब लोग चाय-नाश्ता कर ही रहे थे कि देखा जगदीश फूट-फूटकर रो रहा है.
‘‘क्या हुआ?’’ जो उठकर जा सकते थे, वे पूछने के लिए जा पहुँचे.
‘‘माँ चल बसी है. मेरे यहाँ एडमिड होने की खबर सुनकर. किसी ने कह दिया कि मेरे बचने की बहुत कम उम्मीद है. उन्हें आघात लग गया.’’
क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा.
‘‘स्वयं को सँभालिये. आपको ठीक होना है.’’ वकील ने सांत्वना दी.
‘‘नहीं… मैं रो नहीं रहा हूँ… पर क्या करूँ आखिर थी तो माँ.’’ वह आँसू पोंछता जा रहा था.
उसका ऑक्सीजन लेबल एकाएक गिरना शुरू हो गया…. वह ज़ोर-ज़ोर से साँस ले रहा था. मुँह पर लगा ऑक्सीजन मास्क जो गुब्बारे की तरह फूल-पिचक रहा था. नर्सें, डॉक्टर सब उसके पास खड़े थे. एक सीनियर डॉक्टर उसके कंधे थामे खड़ा था. कोरोना और उसके बीच पीपीई किट थी, जो उनकी एकमात्र सुरक्षा-कवच थी.
वह थोड़ा-थोड़ा शान्त हुआ था पर उसकी साँसों की आवाज़ें अब भी गूँज रही थीं. सब अपनी साँसों की गति देख रहे थे. हॉल में मद्धिम स्वर में भजन की लहर चल रही थी.
पता नहीं पैसों का क्या हुआ होगा!
‘मेरा मोबाइल!’ वह उसी अवस्था में बात कर रहा था.
‘‘मेरी मोटरसाइकिल गिरवी रख दो. माँ का अन्तिम संस्कार कर दिया. फ़ोटो भेज देना. हाँ…. अब ठीक हूँ. चिन्ता मत करो.’’
वह आँखें बन्द करके लेट गयी. सफेद देवदूतों के बीच मन, हल्का महसूस कर रहा था. कुछ होता भी है तो देवदूत आकर थाम लेते हैं. नाश्ते और लंच के बीच का समय खाली होता है. उसने अपनी डायरी में लिखा- बीमा पॉलिसी के बारे में, गोल्ड जो कि लॉकर में रखा है, आधा-आधा दोनों बच्चों के लिए. मकान, ऊपर का हिस्सा दोनों बच्चों का, नीचे का पति के लिए. उसकी पेंशन, पचास प्रतिशत पति को, पच्चीस-पच्चीस प्रतिशत दोनों बच्चों को. ग्रेच्युटी और पीपीएफ तीनों को बराबर. किताबें, किसी लायब्रेरी को भेंट कर दी जाएँ. उसके कपड़े, साड़ियाँ छोटी बहिन को दे दी जाएँ, ताकि वह जहाँ जिसको देना चाहे. वह लिखे जा रही है!
यह क्या पागलपन है! क्यों! नहीं… वसीयत नहीं बनवा पायी थी. बच्चों को सब पता होना चाहिए. पति के साथ सब हैं भाई-बहिन. पर बच्चों के साथ… कोई भी नहीं. दोनों बच्चे उसको बहुत प्यार करते हैं. कुछ शब्द, कुछ लाइनें लिख रही है. कुछ जीवन के मूलमंत्र. लग रहा है, कोई उठाकर ले जा रहा है… माँ पास में खड़ी है… ‘सब ठीक हो जायेगा’… कह रही हैं…. एक झटके के साथ आँखें खुलीं, देखा… जगदीश के पलंग को घेरे चार-पाँच डॉक्टर्स और नर्सें खड़ी हैं.
‘‘अब नहीं बचूँगा. मर जाऊँगा. साँस नहीं आ रही है. नहीं ले पा रहा हूँ. बचाओ… माँ! अम्मा! बचाओ.’’
‘‘जल्द से वेंटीलेटर पर लो! जल्द.’’
ऑक्सीजन का लेबल 55 पर था. पूरे हॉल में उसकी साँसों की जंग सुनायी दे रही थी. सब थे, पर उसका अपना कोई नहीं था पास में.
‘‘रात वाले अंकल?’’ उसने वकील से पूछा.
‘‘नहीं रहे….’’ वकील ने इशारों में कहा.
‘‘क्या… उनका इकलौता बेटा! उनकी वो अन्तिम पुकार! गिड़गिड़ाहट…. इच्छा!’’
उसकी दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. हे भगवान! केवल पाँच वर्ष दे दो. केवल पाँच वर्ष. मेरे बच्चों का कोई नहीं है. वे अधर में हैं. सब कुछ खतम हो जायेगा. वह मन ही मन पाठ कर रही है. जाप कर रही है. प्रार्थना कर रही है.
अब जगदीश वेंटीलेटर पर है.
उसकी पत्नी को डॉक्टर समझा रहे हैं. आश्वासन दे रहे हैं.
‘‘अब क्या होगा?’’ वह पूछ रही है.
‘‘उसको माँ के जाने का सदमा बैठ गया है.’’
‘‘अब…?’’ वकील ने आकाश की तरफ देखते हुए कहा- ‘‘ईश्वर ही मालिक है. हम तो प्रार्थना कर रहे है!’’
‘‘पैसे के लिए भी परेशान हैं.’’
‘‘वो तो है ही.’’
भाई का मैसेज था, अस्सी हज़ार जमा कर दिये हैं. आराम से रहकर इलाज करवाओ. किसी बात की चिन्ता मत करो.
उसके पास तो इतना बड़ा सहारा है. जगदीश के पास या उसके जैसे लोगों के साथ कितनी परेशानी है! कितना बिल बढ़ रहा होगा!
शाम तक वह थोड़ा नार्मल हुआ था. ऑक्सीजन भी 80 तक आ गयी थी.
‘‘बहुत बात करते हैं.’’
‘‘उनकी प्रॉब्लम्स हैं न!.’’
वह फिर बात कर रहा था- ‘‘कहाँ से करोगी. कितने लोगों से माँगोगी! मुझे मर जाने दो… पर लाश भी तब मिलेगी जब पैसा चुकाओगी… चिन्ता न करूँ तो क्या भजन करूँ!’’ वह टुकड़े-टुकड़ों में बोल रहा था.
तमाम लोगों के परिवार के सदस्य या रिश्तेदार नीचे बैठे थे. सुबह से लेकर शाम तक. रात में कहीं किसी खाली जगह पर या पार्क में चले जाते.
‘‘क्यों बैठे रहते हैं जब मिलने की परमीशन नहीं है तो.’’
‘‘कहाँ जायेंगे? उम्मीद लगाकर बैठेे रहते हैं.’’
मौत के साये में सब थे और मौत को धक्का देने के लिए डॉक्टर उन्हें मजबूत कर रहे थे. ठीक कर रहे थे….
आज पाँचवाँ दिन था.
कुछ पेशेन्ट को नीचे भेज दिया गया था.
प्राइवेट वार्ड भरे हुए थे इसलिए एक और कोविड हॉल बनाया गया था. नये पेशेन्ट की लाइन लगी थी. एक नर्स पाँच-पाँच मरीजों को सँभाल रही थी. वह देखती सब सो रहे हैं वो जाग रही है… वे रिपोर्ट लिख रही हैं, दवा खिला रही है. ड्रिप की बॉटल (सलाइन) बदल रही है. कभी किसी की शुगर पाँच सौ तक पहुँच जाती तो कभी नीचे आ जाती. कभी किसी का बी.पी. बढ़ जाता तो कभी किसी की ऑक्सीजन गिरने लगती. नयी-नयी नर्सिंग पढ़कर निकली लड़कियाँ. जिनके नाम जानने लगी थी, उनके चेहरे भूल जाती, क्योंकि चेहरे नहीं सिर्फ़ आँखें दिखती थी, जाँच के दौरान पूछ लेती, घर पर कौन-कौन है? पता चला ज़्यादातर नर्सें और अन्य कर्मचारियों से, वे यहीं रुक रहे हैं, घर जाये हफ्तों हो गये हैं. छोटे-छोटे बच्चे हैं या किसी के माँ-बाप हैं, बूढ़े दादा-दादी हैं. ड्यूटी खत्म होने के बाद नहाती हैं, फिर खाना बनाती है. सुबह चार बजे उठती है क्योंकि सुबह जल्द आना पड़ता है. चार-पाँच सिस्टर्स को कोरोना हो चुका है. आठ-आठ घंटे तो कई बार डबल ड्यूटी भी करनी पड़ती है. पीपीई किट के दौरान न पानी पी सकती है न वॉशरूम जा सकती है. ये छोटी-छोटी, नयी-नयी नर्से जीवन के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही थीं. सबसे कठिन, पर सेवा के सबसे ज़रूरी दौर में अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करके हज़ारों लोगों की दुआएँ ले रही थीं. कल उनके साथ क्या होगा, उन्हें भी नहीं मालूम! सफेद लिबास पहने तपस्विनी. सफाई करती, पोंछा लगाती, मल-मूत्र उठाती, साफ-सफाई करती ये महिलाएँ और पुरुष प्यार के दो बोल सुनकर खुश हो जाते हैं. पेशेन्ट के लिए उनका होना ही बहुत बड़ा संबल होता है.
लाजवाब कहानी। सूक्ष्म रचनात्मकता के साथ रचा है कहानी को।अंश अंश में दंश भरती कहानी। पंक्ति पंक्ति सजीव
बहुत मार्मिक और यथार्थपरक कहानी…साक्षात देखे और झेले हुए अनेक पल स्मृति को झकझोर गए… उर्मिला दी मन को भिगो गई आपकी कहानी 🙏
बेहद मारक कहानी… दर्द की चादर में लिपटी जो बेबसी में ढल गया है धीरे-धीरे.. आत्मनिर्वासित करता हुआ।
अब तक समय मानो वहीं भंवर में फंसा ऊभ-चूभ कर रहा है, और ठगी सी खड़ी मनुष्य की जिजीविषा आगे कदम बढ़ाने के लिए जमीन ही नहीं पा रही है। महामारी ने मनुष्य के आत्मविश्वास को तोड़ा है सबसे ज़्यादा, फिर उसकी सामाजिकता को। उर्मिला जी को बधाई
पहले प्रोफ़ेसर अरुण देव जी का धन्यवाद । क्योंकि इन्होंने उर्मिला शिरीष की कहानी ‘देश बताओ तुम्हें क्या हुआ है ?’ को समालोचन पर साझा किया है । यह कहानी दो चरणों में पूरी होती है । एक विषय पर केंद्रित है । कोरोनावायरस, कोरोना या कोरोना-19 । मैं टिप्पणी को 2 या 3 हिस्सों में पूरा कर रहा हूँ । टिप्पणी देरी से करने का कारण मेरा रोग है । दवा सेवन करने के बाद दिन में एक से अधिक घंटे तक नींद लेना अनिवार्य है । समालोचन और एक्सप्रेस नहीं पढ़ पाता ।
पृथ्वी की अनश्वरता के बरक्स कोरोनावायरस मनुष्य जगत को चुनौती देने आ खड़ा हुआ है । मुझ सहित अन्य व्यक्ति क्वारन्टीन शब्द से वाक़िफ़ नहीं होंगे । कन्फाइन पढ़ा और सुनता आया था । अनंत में, 1670 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से घूमती धरती अपने होने में आश्वस्त है । लेकिन मनुष्य अनश्वर नहीं है । मेरी दृष्टि में अनश्वर है । वह पिछली कड़ी को पकड़कर पुनः जीवित हो जाता है । जैसे ‘The Phoenix is an immortal bird associated with Greek mythology that cyclically regenerates or is otherwise born again. Associated with the sun, a Phoenix obtain new life by arising from the ashes of its predecessor. Wikipidiya.
1924 में एक घटना घटी । 1924 में जर्मनी 🇩🇪 में अणु विज्ञान के संबंध में जो शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ, अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक काग़ज़ लिख कर वहाँ दे गया । और उस काग़ज़ में एक छोटी सी सूचना दे गया कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, और कुछ लोगों को भी ज्ञात हैं, उनके आधार पर मैं यह ख़बर देता हूँ कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना, क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले भी सभ्यताएँ इस खोज में पड़ कर नष्ट हो चुकी हैं । इस खोज को बंद ही कर देना । बहुत खोजबीन की गयी, उस आदमी का कुछ पता न चला । बाक़ी अगली टिप्पणी में ।
Werner Karl Heisenberg (5 December 1901-February 18 1967) was a German theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley. He was father of atomic bomb. And one of the key pioneers of quantum mechanics. He has also made contribution to the theories of hydrodynamics of turbulent flows, the atomic nucleus, ferro magnetism, cosmic rays, and sub atomic particles. He was a principal scientist in the German nuclear weapons programme during World War 2. He was also president of German Research Council, chairman of the commission for Atomic Physics, chairman of the Nuclear Physics Working Group.
He had to withdraw his hands after the disastrous results of Second World War. In my opinion he was full of guilt to hinder the immortality of human beings. Most of the details from Wikipidiya.
कहानी पर लिखने से पहले अणु बम पर कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ । विकिपीडिया की सहायता ली है । इसमें गीता के एक श्लोक का उद्धरण है । ढूँढकर बाद में लिखूँगा ।
J. Robert Oppenheimer (April 22, 1904-February 18, 1967) was an American theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley was the wartime head of Los Alamos Laboratory and is among those who are credited with being the “father of atomic bomb” for their role in the Manhattan Project-the World War 2 undertaking that developed the first nuclear weapons. Oppenheimer was among those who observed the Trinity test in New Mexico 🇲🇽, the first bomb was successfully detonated on July 16, 1945. He later remarked that explosion brought to mind words from Bhagavad Gita,”Now I am become Death, the destroyer of worlds.” In August 1945, the weapons were used in the atomic bombing of Hiroshima and Nagasaki.
इस बेहद मार्मिक कहानी की रचयिता उर्मिला जी को हृदय से धन्यवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को साधुवाद।
गिरधारी अपनी पत्नी को साइकिल के कर्रिएर पर बिठाकर अपने घर पहुँचने की तड़प ऐसी की समय भी इसके सामने हार गया है । पुलिस एकेडमी में मानवीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद पुलिस का काम हड़काना है । गिरधारी की पत्नी कैंसर से पीड़ित है । अत: पति अपनी पत्नी की रेडिएशन थैरपी (कीमोथैरपी) कराने के लिये भोपाल ले जा रहे हैं । यह उनके निवास से 150 किलोमीटर दूर है । कोरोनावायरस ने सभी यात्री वाहनों के चलाने पर रोक दी जा चुकी है । कहानी में नहीं बताया गया कि गिरधारी ग़रीब आदमी है । उर्मिला शिरीष जी ने पत्नी का नाम लिखना चाहिये था । डेढ़ सौ किलोमीटर और वो भी डबल सवारी ? सवारी यात्री वाहनों को कहते हैं । और यात्री सवार । परंतु सवारी लिखना चल निकला है । जैसे वर और वधू जब तक सप्त पदी अर्थात् फेरे नहीं लेते तब तक होने वाली पत्नी होने वाले पति के वामांग में नहीं बैठती । वामा शब्द इसी से निकला है । कभी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप ‘वामा’ नाम की पत्रिका प्रकाशित करता था ।
समालोचन ने उर्मिला शिरीष की कहानी के माध्यम कोरोना काल में पैदल यात्रियों का सजीव चित्रण किया है । उर्मिला जी को साधुवाद ।
कहानी का दूसरा हिस्सा एक डॉक्टर के संबंध में है । वे इस दौरान अपने घर नहीं आ पाये । उनकी पत्नी कहती है कि पहले मेरे पति प्रत्येक शनिवार को घर आ जाते थे । घर में ज़िंदगी जीवंत हो उठती थी । घर में कपड़े सूखने लगते थे । अब सरकार का आदेश है कि डॉक्टरों को मुख्यालय नहीं छोड़कर कहीं नहीं जाना है । डॉक्टर की पत्नी ने जीवन में कभी बर्तन नहीं माँजे थे, कपड़े, झाड़ू-पोंछा और घर की सफ़ाई नहीं की थी । डॉक्टर कहते हैं “इतना काम क्यों फैलाती हो” अकेली हो तो थोड़े बर्तनों से काम चला लिया करो । रह-रहकर बाईयाँ याद आ रही हैं । सकारात्मक पक्ष है कि पत्नी हर महीने बाईयों के खाते में ट्रांसफ़र कर देती है ।
डॉक्टर की पत्नी ने कभी अकेले रहना नहीं सीखा । उसे सारे संसार में सन्नाटा पसरा हुआ लगता है ।
हमारे पारिवारिक जीवन में दोस्त और MD (Medicine) डॉक्टर ने अखिल भारतीय आयुष विज्ञान की सलाह पर सात दिनों तक काढ़ा पिया था । सात दिनों में ही पेट की गर्मी बढ़ गयी । तकलीफ़ हो गयी । कहानी के डॉक्टर की पत्नी ने आस-पड़ोस में जगह जगह झुग्गियाँ बन गयी हैं । बच्चे खेलते हैं । वे कोरोनावायरस में दो मीटर की दूरी बनाये रखने की हिदायत नहीं मानते । साधु और गुरु सत्संग कर रहे हैं और social distancing की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं । मैं बाहर की बात क्या लिखूँ ।
मेरे भाई साहब की पत्नी एक गुरु की कथा में एक वर्ष में साढ़े दस महीने उपस्थित रहती हैं । कोरोनावायरस के आरंभिक एक वर्ष में दो महीने बमुश्किल घर में बिताये । वे मानसिक रूप से अवसाद में चली गयी थी । उनके गुरु ने सामाजिक दूरी की धज्जियाँ उड़ाते हुए कथा की । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, अकेली ज़िंदगी गुज़राना साधना करने के समान है ।
बढ़िया कहानी है । उर्मिला शिरीष सिद्धहस्त लेखिका हैं। यह आपदा अपने पर लिखने के लिए बहुत कठोर अनुशासन चाहती है। बहुत कुछ दिखाने के मोह में कहानी का तनाव शिथिल पड़ गया है। फिर भी यादगार कहानियों में शुमार तो रहेगी।