दसवाँ दिन.
अब उसे लग रहा था कि वह कुछ-कुछ ठीक है. अब दो घंटे बिना ऑक्सीजन के लिये रखा जा रहा था. लेकिन ऑक्सीजन तुरन्त 92, 93 पर आ जाती. फिर ऑक्सीजन के सहारे. फिर चलाकर देखा जाता. एक खिलौना जैसा इंस्ट्रूमेन्ट, जो फूँक मारने पर फेफड़ों को मजबूत बना सकता था. वह भी कर रही है. फूँक मार रही है, बचपन में गुब्बारे फुलाती थी जैसे! अपने ही पलंग पर बैठकर प्राणायाम करती है. हल्के-फुल्के व्यायाम.
बेटा डॉक्टर से बात कर रहा था. उनकी रिपोर्ट और एडमिट होने का कार्ड भेजने को बोल रहा था. वह यहाँ आने के लिए परमीशन माँग रहा था. घर में चार-चार लोग संक्रमित, और बच्चे पास में नहीं!
‘‘नहीं बेटा, तुम्हारा आना ठीक नहीं है. चौदह दिन क्वारंटाइन करना पड़ेगा. रास्ते में तुम्हारा क्या हाल होगा, इंफेक्शन हो गया तो! और यहाँ आकर तुम वापस नहीं जा सके तो.’’
‘‘माँ, आप लोग?’’
‘‘वैसे भी साथ में तो रह नहीं पाओगे!’’
‘‘बाहर से तो काम कर पाऊँगा.’’
‘‘बस तुम्हें नहीं आना है.’’
‘‘छुट्टी मना लूँगा.’’
‘‘देख रहे हो लोग… कैसे फँसकर रह गये हैं. कहाँ ठहरोगे? कोई भी अपने घर में नहीं आने देगा. तुम्हें आना भी नहीं चाहिए.’’
घर में वही हाल था. पति, उनका भाई, चाचा, सब एक साथ संक्रमित. भाई बाहर खाना रखवा देते. नाश्ता कहीं और से आ रहा था. घर में ऑक्सीजन की व्यवस्था थी. एक रात तो पति की तबियत इतनी बिगड़ गयी कि उनका ऑक्सीजन लेबल 60 तक पहुँच गया. चेहरा नीला पड़ गया. साँस लेते नहीं बन रही थी, पर वे धैर्य से ऑक्सीजन लेते रहे…
‘‘भाभी…, भइया!’’ देवर घबड़ाकर फ़ोन लगा रहा था.
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘उनकी हालत ठीक नहीं है.’’
‘‘यहीं एडमिट करवा देते हैं.’’
‘‘एम्स में बात की है.’’
‘‘वे वहाँ नहीं जायेंगे.’’
‘‘तो यहीं बात करती हूँ.’’
‘‘घबराओ नहीं… सुबह तक देखता हूँ.’’ पति उसे समझा रहे हैं!
वह पलंग पर बैठी है मंत्र जाप करती. डॉक्टर से पलंग खाली होने की बात पूछ रही है. बार-बार फ़ोन. फिर मैसेज. ऑक्सीजन का लेबल कितना? बस एक ही सवाल…!
उसी दिन पंडित जी का फ़ोन आ गया!
‘‘मैडम, आप कैसी हैं?’’
‘‘ ठीक हैं.’’
‘‘हम आपके लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप कर रहे हैं और अभिषेक भी. हमारे एक रिश्तेदार कल ही चल बसे हैं. हम बहुत डर गये हैं. घबराहट हो रही है.’’
‘‘आप घबराइये नहीं. अब हम काफी ठीक हैं. दो-चार दिन में घर पहुँच जायेंगे. आपने अपने यजमान की चिन्ता की, यही क्या कम है!’’
‘‘हमने सोचा कि जाप कर ही लें.’’
‘‘तो कर लीजिये न.’’
‘‘थोड़ा खर्चा ज़्यादा….’’
‘‘पंडित जी, मैं हास्पिटल में हूँ…’’ वह थोड़ा झुँझलाकर बोली. ऐसे में भी पैसे की बात! सब अपनी-अपनी दुकानें खोलकर बैठे हैं. आज पहली बार उसे पंडित पर गुस्सा आ रहा है.
उधर भाई को एक ही चिन्ता… उसकी तबियत ठीक हो जाये. कितनी बीमारियाँ हो गयीं पर इस बीमारी को लेकर इतना भय! हर समय खाने-पीने की व्यवस्था. पैसों की व्यवस्था. डॉक्टरांे से बात करना. सबको खबर देना.
उधर जगदीश अब भी वेंटीलेटर पर था. वकील भी धीमी आवाज़ में पैसों की व्यवस्था की बात कर रहा था. बुजुर्ग… सिर हिलाने वाली उठ-उठकर भागने वाली महिला घर पर बात करने के बाद अब शान्त थी या डरी हुई थी. चीखने वाली महिला अब अपेक्षाकृत कम बोलती थी. हाँ… वह अपने बाल रोज नर्स से औंछवाकर चोटी बँधवाती थी. वह बाथरूम में जाकर स्वयं स्पंज करती, पर बेड नं.-9 वाले सज्जन कल बाथरूम में स्लिप हो गये थे, इसलिए उनको बाथरूम नहीं जाने दिया जा रहा था. डॉक्टर की सख्त हिदायत थी कि उन्हें बिस्तर से न उतरने दिया जाये.
वे जिद पकड़े थे- ‘‘मुझे जाने दो.’’
‘‘आप नहीं जा सकते.’’
‘‘कुछ नहीं होगा.’’
‘‘कुछ हो गया तो किसकी जिम्मेदारी होगी.’’
‘‘मैं बिस्तर पर लेट्रिन-बाथरूम नहीं कर सकता.’’
‘‘आपको जाने की परमीशन नहीं है.’’
‘‘प्लीज सर.’’
‘‘आप लिखकर दीजिये कि आप अपनी जिम्मेदारी पर बाथरूम जा रहे हैं.’’
‘‘मैं तैयार हूँ.’’
उसने चेहरा फेर लिया. वेंटीलेटर पर जगदीश के अलावा तीन मरीज और थे, पर उसका ध्यान जगदीश पर ही था. अब उसका ऑक्सीजन लेबल 88 पर आ गया था. वह आज ठीक महसूस कर रहा था. उसने ठीक से नाश्ता किया था. पर वह लगातार फ़ोन पर मैसेज किये जा रहा था. वही पैसे की किल्लत!
‘‘हाँ… गिरवी भी कौन रखेगा?’’ वकील धीमे से कह रहा था.
‘‘मेरे परिचित की तो जमीन तक चली गयी और बाद में वह आदमी भी नहीं बचा. लोग मदद किस आधार पर करें! देने वाला भी सोचता है कि पता नहीं पैसा लौटेगा भी या नहीं.’’
‘‘ये तो है.’’
‘‘मैंने तो हैल्थ पॉलिसी ली थी पर उसमें भी कितना पैसा मिलेगा. अचानक पैसे की व्यवस्था होना, वो भी लॉकडाउन में, जहाँ लोगों के काम-धंधे बंद हैं. व्यापार चौपट हो गया है. खेतीवाड़ी सब बर्बाद हो गयी है. फिर यह बीमारी भी ऐसी है जिसमें लोगों की बचने की उम्मीद ही संशयपूर्ण रहती है. लोग कहाँ से कैसे मदद करें. मैं देख रहा था, लोगों ने महीनों का राशन भर कर रख लिया है, बाद में मिलेगा या नहीं. हर चीज़ की कालाबाजारी. हर चीज़ का अवमूल्यन. महँगाई है तो सुरसा की तरह बढ़ रही है. इससे पहले कभी भी इंसान अपने भविष्य को लेकर इतना हताश नहीं हुआ था जितना आज है. सबको अपनी चिन्ता सता रही है. बस….’’
‘‘लोग मर भी तो रहे हैं.’’
‘‘कितने प्रतिशत? कितने प्रतिशत लोग मर रहे हैं. क्या चार दिन का खाना खिला देने से या पाँच-दस किलो अनाज देने से आदमी की ज़रूरतें पूरी हो जायेंगी. चलिये अभी आप दो-चार महीने की व्यवस्था कर भी दें तो बाकी का जीवन? बाकी के जीवन का क्या होगा? भ्रष्टाचार इतना है कि सही जगह पर सही चीज़ें पहुँच भी नहीं पाती हैं. आप देखिये तो देश कहाँ जा रहा है?’’
‘‘यह संकट है ही ऐसा. सारी दुनिया झेल रही है… हम अकेले ही थोड़े न हैं.’’
‘‘लोग अचम्भित हैं… सकते में हैं… करें तो क्या करें? सवाल स्वयं को बचाने से ज़्यादा आसपास के लोगों के जीवन को बचाने का भी है. हमें अपनी नैसर्गिक ज़िन्दगी की ओर लौटना होगा… आवश्यकताओं को कम करना होगा….’’
‘‘लेकिन स्वार्थी लोग तो ऐसे में भी कमाने के अवसर नहीं छोड़ रहे हैं. जो बेईमान है वो हमेशा बेईमान ही रहता है. उसकी आत्मा मरघट पर जाकर भी बेईमानी कर लेगी!’’
‘‘आप बहुत ज़्यादा नकारात्मक सोच रहे हैं!’’
‘‘इसके बाद भी आप तस्वीर नहीं देख पा रही हैं. भूखे, बेरोजगार लोग क्या करेंगे. सामान लूटेंगे. चोरी करेंगे. सामान छीनेंगे. एक ऐसी अराजकता की तस्वीर मेरी आँखों के सामने आ खड़ी होती है कि मैं घबराने लगता हूँ.’’
‘‘चलिये… टेंशन मत कीजिये.’’
‘‘आपका अभी तक का कितना पेमेन्ट बना होगा.’’
‘‘मैं आपको दिखा दूँगी. अभी तो शायद चार दिन और रुकना होगा.’’
‘‘डॉक्टर कितनी मेहनत कर रहे हैं. बाकी सर्विस भी अच्छी है.’’
‘‘पर सोचता हूँ सरकारी अस्पताल में बेड मिल गया होता तो यह पाँच-सात लाख रुपये बच जाते. बच्चों का पैसा था. भविष्य की बचत. पर सरकारी अस्पताल में भी तो बड़ी सिफारिश लगानी पड़ती है. मेरा तो भाई डॉक्टर है… उसके कहने पर नहीं मिला!’’
‘‘जगह होगी ही नहीं तो कहाँ से मिलेगी?’’
‘‘लोग मानते ही नहीं. उन्हें मास्क नहीं लगाना है तो नहीं लगायेंगे. उन्हें भीड़ में जाना है तो जायेंगे ही…. उन्हें जीवन से नहीं बाकी चीज़ों से प्यार है. मसलन बाज़ार से, मन्दिर से, भीड़ से, क्या कहो और क्या करो?’’
ज़्यादातर लोग सो रहे होते या अख़बार पढ़ रहे होते या मोबाइल मिलने पर परिवार के साथ बात कर रहे होते… दिन में हलचल रहती पर रात का सन्नाटा सीने पर पाट की तरह रखा होता. केवल ऑक्सीजन की मशीन से आवाज़ ही आती. उस आवाज़ को, उस ध्वनि को वह ठीक से पकड़ नहीं पा रही थी… लेकिन इतना ज़रूर उसे एहसास हो गया था कि वह किसी घायल चिड़िया की तरह आवाज़ होती थी.
अब उन दोनों के बीच गहरा सन्नाटा पसर गया था… वह अपनी डायरी में गर्दन झुकाकर कुछ लिख रही थी या अपनी वसीयत! या इलाज का खर्चा.
उसने अपनी डायरी मोबाइल में सुरक्षित कर दी थी और डायरी में भी सारी बातें स्पष्ट कर दी थीं… क्योंकि इन सात दिनों में इन्हीं पलंगों से… ज़िन्दा मरते हुए लोगों को और उनकी लाशों को जाते हुए देखा था और… आज जो स्थिति ठीक लग रही थी वह कल क्या हो जायेगी पता ही न था, क्योंकि वायरस के म्यूटेंट का नया रूप आ रहा था, नयी रिसर्च आ रही थी. ठीक होने के बाद भी कई लोग अचानक ही मर गये थे.
शाम हो गयी थी. आरती की हल्की-सी धुन सुनायी दे रही थी. वह बाहर के बरामदे में टहलने के बहाने निकल आई. उसको पकड़ने के लिए एक सहायिका थी जो वहीं बैठ गयी थी. कितने दिन बाद वह आसपास की सड़कों को, भवनों को और पेड़ों को देख रही थी, साफ चमकता दूधिया आसमान. न हवाईजहाजों का धुआँ, न नीचे से उठने वाले धुएँ की कोई छाया. मुक्त आसमान में बस परिन्दों का रेला उड़ रहा था. कोई समूह लौट रहा था तो कोई लम्बी उड़ान के बाद नीचे उतर रहा था. सड़क पर बिजलियाँ चमक रही थी. इतनी चौड़ी सड़कें हैं… पहली बार देखा था उसने.
दृश्य: पाँच
गिरधारी ने आखिरी पैडल मारा तो वह जाकर डॉक्टर की क्लीनिक के सामने ही रुका. सबसे पहले सामान उतारा. थैला खोला. पानी की बॉटल निकालकर पानी पिया.
फिर डॉक्टर को फ़ोन लगाया.
‘‘सर, मैं आ गया हूँ.’’
‘‘रुकने की व्यवस्था…?’’
‘‘आपकी क्लीनिक के बाहर के बरामदे में.’’
‘‘अच्छा. सुबह नौ बजे अस्पताल पहुँच जाना. छोटा गेट खुला होगा. मैं बोल भी दूँगा. तबीयत तो ठीक है सुनीता की.’’
खुले आसमान के नीचे एक चादर बिछाकर गिरधारी ने पत्नी को लिटाया, फिर आसपास का फ़र्श साफ करके एक पानी की रेखा चारों तरफ खींचकर खुद लेट गया. चींटी, मच्छर, कीड़े-मकोड़े तो नहीं हैं… उसने चारों तरफ कपड़े से झाड़ा. रात का गहरा सन्नाटा चारों तरफ पसरा था. कभी लगता कि कुछ लोग दबे पाँव चल रहे हैं सबसे छुपकर पकड़े जाने के भय से.
सुबह नौ बजे ही डॉक्टर के कहे अनुसार गिरधारी पत्नी को लेकर अस्पताल के छोटे गेट से अन्दर पहुँच गया.
‘‘किसी से मिले तो नहीं?’’
कैंसर पेशेन्ट को तो और भी ज़्यादा खतरा है, यह जानते हुए भी डॉ. अनिल ने उसको रेडिएशन थैरेपी (कीमो) दी.
एक रात और गुज़ारनी थी. उसके पास पैसे थे. दवाएँ थीं. कोई परेशान करे यह सोचते हुए डॉक्टर ने सब कुछ लिखकर दिया था बल्कि कार्ड बना दिया था. गिरधारी ने आज डॉक्टर के पाँव पकड़ लिये. झर-झर आँसू बह रहे थे उसके. डॉक्टर के घर में भी कोई बाई नहीं आ रही थी फिर भी डिब्बाभर खिचड़ी दी. बड़ी बॉटल पानी की. कुछ फल भी. तीसरी सुबह फिर उतनी ही लम्बी यात्रा आरम्भ करनी थी. साइकिल की यात्रा. इस बार यात्रा करते हुए भारी भीड़ से सामना हो गया. किसी व्यक्ति से सम्पर्क न हो… कोई छू न ले, यही सोचकर दूर पेड़ की छाँव में पत्नी के साथ बैठ गया. सुस्ताना भी हो गया और डॉक्टर की खिचड़ी का रसास्वादन भी. पत्नी के चेहरे पर कमजोरी के भाव साफ दीख रहे थे, पर वह स्वयं को ऐसा दिखा रही थी मानो कुछ हुआ ही न हो!
कुछ स्वयंसेवी संस्थाएँ जगह-जगह लौटते हुए मजदूरों को खाने के पैकेट, चप्पलें और कपड़े आदि दे रही थीं. पर कब तक चलती ये चीज़ें… आगे चलकर यही यातनाएँ फिर झेलनी थीं. कभी चित्रों में देखे ये कतारबद्ध लोग आज साक्षात् दीख रहे थे. गिरधारी और सुनीता अपने-अपने थैले और डिब्बे देख रहे थे कि क्या कुछ बचा है जो उन्हें दिया जा सके.
दृश्य: छः
‘‘डॉक्टर साहब, क्या मैं जा सकती हूँ?’’
‘‘आपको कैसा लग रहा है?’’
‘‘पहले से ठीक लग रहा है!’’
‘‘पर पूरी तरह से स्वस्थ हो गयी हैं क्या आप?’’
‘‘यह तो आप जानते हैं.’’
‘‘मुझे ऐसे पेशेन्ट बहुत अच्छे लगते हैं जो डॉक्टर की बात मानते हैं और अपना ट्रीटमेंट स्वयं नहीं करते हैं.’’
‘‘जब आप कहेंगे.’’
कह तो दिया पर अन्दर से लगा कि बात ज़ोर देकर कहनी चाहिए थी. माना कि पैसा भाई दे रहे हैं, तो भी सोचना तो चाहिए.
‘‘लगता है आठ-नौ लाख तक खिंच जायेगा.’’ वकील का दिमाग चारों तरफ दौड़ता था.
‘‘घर में पति अकेले हैं, फिर सभी डॉक्टर हैं. अगर तकलीफ हुई तो दुबारा आ जाऊँगी. प्लीज डिस्चार्ज कर दीजिये.’’ वह एडमिट करने वाले डॉक्टर से कह रही थी.
‘‘शाम को डॉक्टर साहब राउण्ड पर आयेंगे. वे क्या कहते हैं?’’
शाम तक प्रतीक्षा करनी थी. एक-एक पल मुश्किल से कट रहा था.
‘‘मुझे यहाँ से मुक्त करिये. थैंक्यू सो मच. आपने इतना अच्छा ट्रीटमेंट दिया.’’ वह मुस्कराकर डॉक्टर की प्रशंसा कर रही थी.
‘‘अभी एक-दो दिन और रहना होगा.’’
अब उसका मन घबराने लगा, पता नहीं कब जाने देंगे. उसे लगा सब कुछ छोड़कर भाग जाये.
नीचे से किसी के रोने की आवाज़ आ रही थी. फिर कोई…! नहीं. यह सब क्या है ईश्वर! अब मैं नहीं देख पाऊँगी. नहीं सह पाऊँगी!
दो मरीज सुबह दम तोड़ चुके थे.
वह नीचे के हॉल में आ गयी थी. वकील भी. और आठ लोग पहले से यहाँ एडमिड थे.
‘‘जगदीश का पता करिये न.’’ सुबह उठते ही उसने पूछा.
‘‘अभी भी वेंटीलेटर पर है.’’
‘‘आधा बीमार तो पैसे की चिन्ता में हो गया है. एक बेटा और दो बेटियाँ हैं. कमाने वाला यही है.’’
‘‘सुनने में आ रहा था कि कल तक सात लाख रुपये के बिल बन गये थे.’’
उसका माथा ठनका.
दोपहर में ही उसने अपने डॉक्टर को फ़ोन लगाया.
‘‘मैं जाना चाहती हूँ. हाँ अब ठीक हूँ. प्लीज. मैं घर में बहुत ध्यान रखूँगी.’’
दूसरे दिन उससे कहा गया कि कल तक उसे डिस्चार्ज कर दिया जायेगा.
वह भगवान को धन्यवाद देने लगी… अपना बैग जमाना शुरू कर दिया जिसमें कुछ किताबें थीं, कुछ कपड़े. खाने-पीने का सामान.
सुबह के सारे टेस्ट! सारी दवाएँ. सारा हिसाब-किताब. डिस्चार्ज पेपर्स पर डॉक्टर के साइन होना है!
‘‘आपको और रुकना था.’’
‘‘क्यों!’’
‘‘डॉक्टर साहब नाराज़ है.’’
‘‘तेरह दिन तो हो गये.’’
‘‘दो-तीन दिन और रुकना था.’’
‘‘आकर दिखा लूँगी.’’ और जब वह जाने की प्रतीक्षा कर रही थी. तभी सामने देखा, एक डॉक्टर हॉस्पिटल के कपड़े (जो कोरोना के पेशेन्ट पहनते हैं) पहने पलंग पर बैठे हैं. उनको कोरोना हो गया था… उनके पास एक डॉक्टर और नर्स खड़ी थी, उनके टेस्ट चल रहे थे.
‘‘आप अपना नम्बर दीजिये.’’ वकील उसका नम्बर माँग रहा था!
उसने जल्द-जल्द नम्बर दिया. डिस्चार्ज होते-होते चार बज गये थे. बाहर कहीं दूर अपनी गाड़ी में चार घंटे से भाई बैठे थे कि कहीं कोई कमी न रह जाये. बस वह बाहर निकल आये, इसी प्रतीक्षा में.
नीचे एम्बुलेंस की व्यवस्था की जा रही थी. वही एम्बुलेंस वाला था जिसने आते समय तीन हज़ार रुपये लिये थे… अब ढाई हज़ार रुपये में मान गया था.
अस्पताल के नीचे उतरी ही थी कि देखा साइड में नीचे एक पालीथिन बैग में शव लिपटा रखा है.
‘‘ये… किसकी…?’’
‘‘वो जगदीश थे न… मोटे-मोटे से… वही नहीं रहे रात में…. पेशेन्ट को लेकर घरवाले रोना-पीटना मचा रहे हैं.’’
‘‘क्या…?
उसे चक्कर आ गया. व्हीलचेयर से वो एम्बुलेंस में बैठी! दिल में कुछ गढ़ रहा है… दुःख, बिछोह, चिन्ता…! एक-एक चेहरा आँखों के सामने घूम रहा है.
‘‘मैडम, आप रो क्यों रही हैं. ईश्वर की कृपा है कि आप लौटकर जा रही हैं.’’ ड्राइवर कह रहा है…
वह आँसू पोंछ रही है.
‘‘पता नहीं कहाँ जाकर ये सिलसिला थमेगा. एक लहर… दूसरी लहर, फिर तीसरी लहर… और चौथी… दिनभर टी.वी. पर यही चलता रहता है.’’ ड्राइवर लगातार बोले जा रहा है.
घर में आकर भी घर में नहीं है वह. आँखें मूँदते ही सबके चेहरे दिखाई देने लगते हैं. वही मशीनें, वही सफेद पीपीई किट पहने डॉक्टर्स, नर्सें, सफाई कर्मी. राउण्ड लेने वाले डॉक्टर्स. शव! वही आवाज़ें, चीख़ें, कराहें, रुदन…! सिर पकड़कर कमरे में घूम रही है…. सामने टी.वी. पर दीखते अस्पताल, अस्पताल के बाहर और भीतर के दृश्य. सड़कों, स्टेशनों, बस स्टॉप पर दीखते दौड़ते-भागते, रोते-परेशान लोग! भीड़! भीड़ का रेला!
आँखों में नींद नहीं है. सिर फटा जा रहा है. चक्कर आ रहे हैं. उल्टियाँ हो रही हैं! हास्पिटल का दृश्य चारों तरफ़ दिखाई दे रहा है….
वह रो रही है…. बिला वजह चिल्ला रही है. गुस्से में सामान फेंक रही है.
चौथे दिन नींद की गोलियाँ दी गयी हैं उसे. सब कह रहे हैं कोरोना के बाद के काम्प्लीकेशंस हैं, साइड इफेक्ट्स हैं और… वह नींद में बड़बड़ा रही है- मेरे देश को क्या हो गया है… प्लीज़ कोई उसे बचा लो…. कोई बचा लो… ये तो पहली लहर है…. देखो… कोई उन झुग्गीवालों को न हटा दे…. बच्चों को मत रोको. खेलने दो. उन्हें खेलने दो. थोड़ी देर बाद ही वह गहरी नींद में थी, पर उसके मुंह से अजीब-अजीब सी आवाज़ें निकल रही थी.
उर्मिला शिरीष कहानी संग्रह: ‘बिवाईयाँ तथा अन्य कहानियाँ’, ‘उर्मिला शिरीष की श्रेष्ठ कहानियाँ’, ‘दीवार के पीछे’, ‘मेरी प्रिय कथाएँ’, ‘ग्यारह लंबी कहानियाँ’, ‘कुर्की और अन्य कहानियाँ’, ‘लकीर तथा अन्य कहानियाँ’, ‘पुनरागमन’, ‘निर्वासन’, ‘रंगमंच’, ‘शहर में अकेली लड़की’, ‘सहमा हुआ कल’, ‘केंचुली’, ‘मुआवजा’, ‘वे कौन थे’. जीवनी: ‘बयावाँ में बहार’(गोविन्द मिश्र), साक्षात्कार: ‘शब्दों की यात्रा के साथ’, संपादन: ‘प्रभाकर श्रोत्रिय: आलोचना की तीसरी परम्परा’, ‘हिंदी भाषा एवं समसामयिकी’ तथा ‘सृजनयात्रा: गोविन्द मिश्र’ शामिल है. कुछ कहानियों का उर्दू, अंग्रेज़ी, पंजाबी, सिन्धी तथा उड़िया आदि भाषाओं अनुवाद भी हो चुका है. सम्मान: साहित्य सृजन व लेखन के लिए उन्हें अब तक म.प्र. साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार, कमलेश्वर कथा सम्मान, रामदास तिवारी सम्मान, कृष्ण प्रताप कथा सम्मान, शैलेष मटियानी चित्रा कुमार कथा सम्मान, विजय वर्मा कथा पुरस्कार, निर्मल पुरस्कार, भगवत प्रसाद स्मृति साहित्य सम्मान, डॉ. बलदेव मिश्र पुरस्कार, वागीश्वरी पुरस्कार और समर स्मृति साहित्य पुरस्कार आदि. ई-115/12, शिवाजी नगर, भोपाल-462016, |
लाजवाब कहानी। सूक्ष्म रचनात्मकता के साथ रचा है कहानी को।अंश अंश में दंश भरती कहानी। पंक्ति पंक्ति सजीव
बहुत मार्मिक और यथार्थपरक कहानी…साक्षात देखे और झेले हुए अनेक पल स्मृति को झकझोर गए… उर्मिला दी मन को भिगो गई आपकी कहानी 🙏
बेहद मारक कहानी… दर्द की चादर में लिपटी जो बेबसी में ढल गया है धीरे-धीरे.. आत्मनिर्वासित करता हुआ।
अब तक समय मानो वहीं भंवर में फंसा ऊभ-चूभ कर रहा है, और ठगी सी खड़ी मनुष्य की जिजीविषा आगे कदम बढ़ाने के लिए जमीन ही नहीं पा रही है। महामारी ने मनुष्य के आत्मविश्वास को तोड़ा है सबसे ज़्यादा, फिर उसकी सामाजिकता को। उर्मिला जी को बधाई
पहले प्रोफ़ेसर अरुण देव जी का धन्यवाद । क्योंकि इन्होंने उर्मिला शिरीष की कहानी ‘देश बताओ तुम्हें क्या हुआ है ?’ को समालोचन पर साझा किया है । यह कहानी दो चरणों में पूरी होती है । एक विषय पर केंद्रित है । कोरोनावायरस, कोरोना या कोरोना-19 । मैं टिप्पणी को 2 या 3 हिस्सों में पूरा कर रहा हूँ । टिप्पणी देरी से करने का कारण मेरा रोग है । दवा सेवन करने के बाद दिन में एक से अधिक घंटे तक नींद लेना अनिवार्य है । समालोचन और एक्सप्रेस नहीं पढ़ पाता ।
पृथ्वी की अनश्वरता के बरक्स कोरोनावायरस मनुष्य जगत को चुनौती देने आ खड़ा हुआ है । मुझ सहित अन्य व्यक्ति क्वारन्टीन शब्द से वाक़िफ़ नहीं होंगे । कन्फाइन पढ़ा और सुनता आया था । अनंत में, 1670 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से घूमती धरती अपने होने में आश्वस्त है । लेकिन मनुष्य अनश्वर नहीं है । मेरी दृष्टि में अनश्वर है । वह पिछली कड़ी को पकड़कर पुनः जीवित हो जाता है । जैसे ‘The Phoenix is an immortal bird associated with Greek mythology that cyclically regenerates or is otherwise born again. Associated with the sun, a Phoenix obtain new life by arising from the ashes of its predecessor. Wikipidiya.
1924 में एक घटना घटी । 1924 में जर्मनी 🇩🇪 में अणु विज्ञान के संबंध में जो शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ, अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक काग़ज़ लिख कर वहाँ दे गया । और उस काग़ज़ में एक छोटी सी सूचना दे गया कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, और कुछ लोगों को भी ज्ञात हैं, उनके आधार पर मैं यह ख़बर देता हूँ कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना, क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले भी सभ्यताएँ इस खोज में पड़ कर नष्ट हो चुकी हैं । इस खोज को बंद ही कर देना । बहुत खोजबीन की गयी, उस आदमी का कुछ पता न चला । बाक़ी अगली टिप्पणी में ।
Werner Karl Heisenberg (5 December 1901-February 18 1967) was a German theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley. He was father of atomic bomb. And one of the key pioneers of quantum mechanics. He has also made contribution to the theories of hydrodynamics of turbulent flows, the atomic nucleus, ferro magnetism, cosmic rays, and sub atomic particles. He was a principal scientist in the German nuclear weapons programme during World War 2. He was also president of German Research Council, chairman of the commission for Atomic Physics, chairman of the Nuclear Physics Working Group.
He had to withdraw his hands after the disastrous results of Second World War. In my opinion he was full of guilt to hinder the immortality of human beings. Most of the details from Wikipidiya.
कहानी पर लिखने से पहले अणु बम पर कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ । विकिपीडिया की सहायता ली है । इसमें गीता के एक श्लोक का उद्धरण है । ढूँढकर बाद में लिखूँगा ।
J. Robert Oppenheimer (April 22, 1904-February 18, 1967) was an American theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley was the wartime head of Los Alamos Laboratory and is among those who are credited with being the “father of atomic bomb” for their role in the Manhattan Project-the World War 2 undertaking that developed the first nuclear weapons. Oppenheimer was among those who observed the Trinity test in New Mexico 🇲🇽, the first bomb was successfully detonated on July 16, 1945. He later remarked that explosion brought to mind words from Bhagavad Gita,”Now I am become Death, the destroyer of worlds.” In August 1945, the weapons were used in the atomic bombing of Hiroshima and Nagasaki.
इस बेहद मार्मिक कहानी की रचयिता उर्मिला जी को हृदय से धन्यवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को साधुवाद।
गिरधारी अपनी पत्नी को साइकिल के कर्रिएर पर बिठाकर अपने घर पहुँचने की तड़प ऐसी की समय भी इसके सामने हार गया है । पुलिस एकेडमी में मानवीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद पुलिस का काम हड़काना है । गिरधारी की पत्नी कैंसर से पीड़ित है । अत: पति अपनी पत्नी की रेडिएशन थैरपी (कीमोथैरपी) कराने के लिये भोपाल ले जा रहे हैं । यह उनके निवास से 150 किलोमीटर दूर है । कोरोनावायरस ने सभी यात्री वाहनों के चलाने पर रोक दी जा चुकी है । कहानी में नहीं बताया गया कि गिरधारी ग़रीब आदमी है । उर्मिला शिरीष जी ने पत्नी का नाम लिखना चाहिये था । डेढ़ सौ किलोमीटर और वो भी डबल सवारी ? सवारी यात्री वाहनों को कहते हैं । और यात्री सवार । परंतु सवारी लिखना चल निकला है । जैसे वर और वधू जब तक सप्त पदी अर्थात् फेरे नहीं लेते तब तक होने वाली पत्नी होने वाले पति के वामांग में नहीं बैठती । वामा शब्द इसी से निकला है । कभी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप ‘वामा’ नाम की पत्रिका प्रकाशित करता था ।
समालोचन ने उर्मिला शिरीष की कहानी के माध्यम कोरोना काल में पैदल यात्रियों का सजीव चित्रण किया है । उर्मिला जी को साधुवाद ।
कहानी का दूसरा हिस्सा एक डॉक्टर के संबंध में है । वे इस दौरान अपने घर नहीं आ पाये । उनकी पत्नी कहती है कि पहले मेरे पति प्रत्येक शनिवार को घर आ जाते थे । घर में ज़िंदगी जीवंत हो उठती थी । घर में कपड़े सूखने लगते थे । अब सरकार का आदेश है कि डॉक्टरों को मुख्यालय नहीं छोड़कर कहीं नहीं जाना है । डॉक्टर की पत्नी ने जीवन में कभी बर्तन नहीं माँजे थे, कपड़े, झाड़ू-पोंछा और घर की सफ़ाई नहीं की थी । डॉक्टर कहते हैं “इतना काम क्यों फैलाती हो” अकेली हो तो थोड़े बर्तनों से काम चला लिया करो । रह-रहकर बाईयाँ याद आ रही हैं । सकारात्मक पक्ष है कि पत्नी हर महीने बाईयों के खाते में ट्रांसफ़र कर देती है ।
डॉक्टर की पत्नी ने कभी अकेले रहना नहीं सीखा । उसे सारे संसार में सन्नाटा पसरा हुआ लगता है ।
हमारे पारिवारिक जीवन में दोस्त और MD (Medicine) डॉक्टर ने अखिल भारतीय आयुष विज्ञान की सलाह पर सात दिनों तक काढ़ा पिया था । सात दिनों में ही पेट की गर्मी बढ़ गयी । तकलीफ़ हो गयी । कहानी के डॉक्टर की पत्नी ने आस-पड़ोस में जगह जगह झुग्गियाँ बन गयी हैं । बच्चे खेलते हैं । वे कोरोनावायरस में दो मीटर की दूरी बनाये रखने की हिदायत नहीं मानते । साधु और गुरु सत्संग कर रहे हैं और social distancing की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं । मैं बाहर की बात क्या लिखूँ ।
मेरे भाई साहब की पत्नी एक गुरु की कथा में एक वर्ष में साढ़े दस महीने उपस्थित रहती हैं । कोरोनावायरस के आरंभिक एक वर्ष में दो महीने बमुश्किल घर में बिताये । वे मानसिक रूप से अवसाद में चली गयी थी । उनके गुरु ने सामाजिक दूरी की धज्जियाँ उड़ाते हुए कथा की । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, अकेली ज़िंदगी गुज़राना साधना करने के समान है ।
बढ़िया कहानी है । उर्मिला शिरीष सिद्धहस्त लेखिका हैं। यह आपदा अपने पर लिखने के लिए बहुत कठोर अनुशासन चाहती है। बहुत कुछ दिखाने के मोह में कहानी का तनाव शिथिल पड़ गया है। फिर भी यादगार कहानियों में शुमार तो रहेगी।