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Home » मिलान कुंदेरा: हँसने की चाह में: गरिमा श्रीवास्तव

मिलान कुंदेरा: हँसने की चाह में: गरिमा श्रीवास्तव

“उपन्यास का कार्य प्रश्न पूछना है, वह दुनिया को समझदारी और सहिष्णुता के साथ प्रश्न के रूप में देखने की दृष्टि देता है.” ऐसा मानने वाले विश्व-प्रसिद्ध उपन्यासकार मिलान कुंदेरा एक बातचीत में आगे कहते हैं- “आजकल पूरी दुनिया में लोग बिना समझे निर्णय लेने की जल्दी में रहते हैं, प्रश्न करने की जगह उत्तर देने के पक्ष में रहते हैं, इसलिए उपन्यास की आवाज़ मानवता की मूर्खताओं के शोर से लगभग सुनाई नहीं देती.” कहना न होगा प्रश्न पूछने की भारी कीमत ख़ुद मिलान कुंदेरा ने चुकाई, प्रताड़ित किए गये और अंततः उन्हें निर्वासन में रहना पड़ा. उनके लेखन में 1967 में प्रकाशित ‘द जोक’ उपन्यास का बहुत महत्व है. जिसका हिंदी में अनुवाद हरिमोहन शर्मा ने ‘मज़ाक़’ शीर्षक से किया है. मिलान कुंदेरा अब नहीं हैं. उनका साहित्य हमेशा रहेगा. इस उपन्यास की चर्चा कर रहीं हैं सुप्रसिद्ध लेखिका गरिमा श्रीवास्तव.

by arun dev
July 13, 2023
in आलेख
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मिलान कुंदेरा: हँसने की चाह में: गरिमा श्रीवास्तव
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मिलान कुंदेरा
हँसने की चाह में
गरिमा श्रीवास्तव

‘The Joke’ (1967) शीर्षक उपन्यास को पूर्वी यूरोप का प्रतिनिधि उपन्यास कहा जा सकता है जिसका नायक लुडविक जान है जिसे चुटकुले सुनाने में महारत हासिल है. आसपास के लोग उसके चुटकुलों के पात्र हैं और मिलान इस उपन्यास में लगातार कम्युनिस्ट चेक सरकार की दमनकारी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते चलते हैं. उपन्यास में चार मुख्य पात्र हैं- लुडविग, कोस्तका, हेलेना और जारोस्लाव. अधिनायकवाद किस तरह जड़ और ठस बनता जाता है, जिसमें जीवन की धड़कनों को समझने, महसूस करने की क्षमता समाप्त हो जाती है, हास्यहीन जीवन किस तरह हास्य का विषय बन जाता है, उपन्यास में इस विषमता को बहुत मार्मिक ढंग से दिखाया गया है.

उपन्यास के आरंभ में ही लुडविग कहता है

“पिछले इतने सालों से मुझे अपने शहर की ओर खींचने वाला कोई तत्व नहीं बचा था. मैंने मन ही मन सोचा कि मैं इस शहर से उदासीन हो गया हूँ. ठीक भी था, मैं पंद्रह सालों से बाहर जो रह रहा था. वैसे भी मेरा यहाँ कोई परिचित या मित्र नहीं रह गया था. यदि कोई था तो मेरी इच्छा उससे बचने की थी. मेरी मां अजनबियों के बीच एक कब्र में दफ़न पड़ी हुई थी, मैं खुद को धोखा दे रहा था. मैंने जिसे उदासीनता कहा, वह वास्तव में मेरा विद्वेष था. यह मुझमें दब गया था क्योंकि और जगहों की तरह यहाँ भी मेरे अनुभव खट्टे और मीठे दोनों तरह के थे. पर विद्वेष बना रहा. इस यात्रा ने मुझे इसके प्रति और भी सचेत कर दिया था. जो लक्ष्य मुझे यहाँ खींच लाया था, वह बड़ी सरलता से प्राग में पूरा किया जा सकता था. पर मैंने अचानक उसे ठीक-ठीक अपने शहर में ही पूरा करने का आकर्षण महसूस किया. कारण, यह लक्ष्य इतना घृणित और नीच था मानो वह इस संदेह का मज़ाक़ उड़ा रहा हो कि मैं अपने अतीत के साथ भावुक संबंधों के कारण अपने शहर वापस आ गया होऊं.” (मज़ाक़)

लुडविक  अपने नगर मोरावा में आते हुए  अतीत के एक एक दृश्य को देखता है, वह एक ऐसी स्त्री को देखता है, जिसे वह अतीत में प्रेम करता था, उस स्त्री को देखते हुए उसे अपना बचपन, किशोरावस्था सब याद आने लगते हैं. जिस भी रूप में आज लुडविग है उसे वैसा बनाने में किशोरावस्था में घटी घटनाओं और परिस्थितियों का सजग योगदान है. वह याद करता है कि कैसे छात्र के रूप में वह समाजवादी दल के प्रति आस्थावान था, यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने के बाद वह ऊँचे स्तर की सरकारी नौकरी करना चाहता है. उसकी प्रेमिका मार्केटा भी समाजवादी दल के सिद्धांतों से सहमत है और पार्टी द्वारा चलाये जाने वाले प्रशिक्षण शिविर का हिस्सा बनती है और लुडविक  को पत्र में लिखकर बताती है कि कैसे वह पार्टी के सिद्धांतों को अपने जीवन में उतार रही है. इस प्रसंग को मिलान कुंदेरा  इन शब्दों  में लिखते हैं–

“जहाँ तक क्रान्ति का प्रश्न है, मैं मार्केटा की बात से बिलकुल सहमत था. मैं भी समझता था कि पश्चिमी यूरोप में क्रान्ति होने वाली है. केवल एक बात मैं स्वीकार नहीं कर पाता  था कि वह इतनी खुश क्यों है, जबकि मैं उसके अभाव को इतना महसूस कर रहा हूँ. इसलिए मैंने एक पोस्टकार्ड खरीदा और (उसे चोट पहुँचाने, झटका देने और भ्रमित करने के लिए) लिखा- आशावाद जनता के लिए अफ़ीम है स्वस्थ वातावरण मूर्खता की गंध देता है. त्रात्सकी दीर्घायु हों.- लुडविक” .(मज़ाक़)

लुडविक को स्वप्न में भी इसका अंदाजा नहीं था कि दो सतरों का यह निहायत निजी  पोस्टकार्ड उसकी ज़िन्दगी बदल देगा. उसके पत्र को पार्टी की आलोचना समझा गया,पार्टी का विरोध माना गया.जबकि लुडविग ने यह सब एक मज़ाक़ के रूप में अपनी  प्रेमिका को लिखा, उसका उद्देश्य था  प्रेमिका के गाम्भीर्य को हल्के-फुल्के परिहास द्वारा  प्रेमिल अनुरक्ति की ओर ले जाना. पार्टी जीवन नहीं है, हो नहीं सकती. हास्य उसे निष्कलुष बनाता है, जीवन को आसक्ति की ओर ले जाता है. लेकिन उस पोस्टकार्ड के बारे में  प्रेमिका ही अधिकारियों को बता देती है, दरअसल वह पार्टी के प्रति अपनी ईमानदारी, वफ़ादारी दिखाना चाहती है, बिना यह जाने कि इसका परिणाम क्या होगा. “मार्केटा ने मेरे भड़काऊ पोस्टकार्ड का जवाब बहुत ठंडा और साधारण-सा दिया. बाद में उसने गर्मियों में भेजे गए मेरे शेष  पत्रों का कोई जवाब नहीं दिया …वह एक धूप से खिला दिन था और जैसे ही मैं छात्र-संघ की इमारत के बाहर आया मैंने महसूस किया कि जो दुःख मुझे गर्मियों भर सताता रहा था वह अब कम होने वाला है. मैं जिज्ञासा की भावना लिए चल पड़ा. मैंने घंटी बजायी और मैं पार्टी की विश्वविद्यालय-समिति के अध्यक्ष द्वारा तुरंत बुला लिया गया…उनका पहला प्रश्न था कि क्या मैं मार्केटा को जानता हूँ  मैंने हाँ में उत्तर दिया .

उन्होंने मुझे उत्तर दिया कि क्या मेरा उसके साथ पत्र-व्यवहार चलता है?

मैंने कहा– ‘हाँ “उन्होंने पूछा कि क्या मुझे याद है कि मैंने उसे क्या लिखा था. मैंने कहा– ‘नहीं.’ किन्तु तुरंत ही भड़काने वाली इबारत  वाला मेरा आखिरी पोस्टकार्ड मेरी आँखों के सामने आ गया और मुझे आभास हो गया कि क्या चल रहा है .

‘क्या तुम्हें कुछ भी याद नहीं ?’उन्होंने पूछा

‘नहीं ‘मैंने जवाब दिया

क्या तुम स्वयं को आशावादी मानते हो ?

‘हाँ मैं अपने को आशावादी मानता हूँ’- मैंने डरते हुए कहा.

‘मुझे अच्छा समय पसंद है, खूब हँसना पसंद है, पूछताछ के स्वर को हल्का बनाने के उद्देश्य से मैंने कहा. उनमें से एक ने कहा, एक विनाशवादी भी खूब हँसना पसंद कर सकता है. वह उन लोगों पर हँस सकता है जो दुःख भोगते हैं. एक निंदक भी खुली हँसी हँस सकता है, वह कहता गया …

‘तुम सोचते हो कि आशावाद लोगों के लिए अफ़ीम है’ -उन्होंने अपने वार को तेज़ करते हुए कहा.’ लोगों के लिए अफ़ीम ?’

मैंने प्रतिकार किया .

‘मुद्दे से  हटने  का प्रयास मत करो. तुमने यही लिखा था. मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम बताया और तुम सोचते हो कि हमारा आशावाद अफ़ीम है. तुमने मार्केटा को यही लिखा था. हमारे मज़दूर, हमारे बहादुर मजदूरों को जब यह मालूम होगा कि योजनाओं को पूर्ण होने का उनका आशावाद अफ़ीम है तो वे क्या सोचेंगे’, दूसरे ने जोड़ा…

‘साथियों, यह मज़ाक़ में लिखा गया था’- मैंने यह सोचते हुए कहा कि वे मेरी बात का विश्वास नहीं करेंगे.

मैंने कहा- ‘समझने की कोशिश करो, कामरेड, मैंने ऐसे ही लिख डाला होगा, ये बस कुछ वाक्य है, एक मज़ाक़ था, मैंने इसके बारे में दुबारा सोचा भी नहीं. यदि इससे मेरा कोई गलत मतलब होता तो मैं उसे पार्टी के प्रशिक्षण कार्यक्रम में नहीं भेजता.’

वे बोले– ‘हमें मालूम है कि तुम्हारे दो चेहरे हैं- एक पार्टी के लिए, दूसरा और लोगों के लिए.’

मेरे तर्क ख़त्म हो गए थे और मैं पुरानी बातें ही दोहराता रहा कि यह सब मज़ाक़  की भावनाएं थीं और इसी प्रकार के अनेक तर्क.

मैं पूर्णत: असफल हो गया था

दरअसल अधिकारियों में  इतनी क्षमता ही नहीं कि वे एक छात्र का मज़ाक़ समझ सकें. जान लुडविक  को अधिकारी पार्टी के प्रति  विश्वासघाती सिद्ध कर देते हैं और मार्केटा  भी उससे दूरी बना लेती है. लुडविक  को पार्टी से निष्कासित कर दिया जाता है. अत्यल्प समय में उसके जीवन के सुनहरे स्वप्न नष्ट हो जाते हैं. वर्षों के लिए  उसका जीवन पटरी से उतर जाता है .

मिलान कुंदेरा युवा लुडविक की जीवन-घटनाओं के माध्यम से चेकोस्लोवाकिया की समाजवादी शासन व्यवस्था, कार्यप्रणाली और नागरिकों की जीवन प्रणाली की व्याख्या करते हैं. एक मजाकिया पोस्टकार्ड की दो सतरें लुडविक के जीवन को विषादपूर्ण मज़ाक़ में तब्दील कर देती हैं. युवक के मज़ाक़ का कोई विश्वास नहीं करता, उसे देशद्रोही कहकर  सजा के तौर पर खदानों में बतौर मजदूर भेज दिया जाता है, जहाँ उसपर कड़ी नज़र रखी जाती है. उसका कमांडर बहुत कड़े अनुशासन का पालन करता है. क्योंकि पार्टी का विचार है कि कड़ा श्रम उसे रास्ते पर ले आएगा, उसके भीतर के नकारात्मक विचार जो फितूर की तरह उसे पार्टी का विरोधी बनाते हैं वे निकल जायेंगे और वह फिर से ईमानदार, वफादार समाजवादी बन जाएगा. इस दौरान लूसी नामक एक स्त्री भी उससे मिलती है, जिससे उसे प्रेम हो जाता है. इस कठिन प्रेमहीन जीवन में लूसी का आना एक अवकाश की तरह है. लूसी कांटेदार बाड़ पार करके उसके लिए फूल लाया करती, उनमें बहुत कम बातचीत हो पाती क्योंकि वह हिरासत जैसी स्थिति में है. लुडविग उसके नज़दीक और नज़दीक आना चाहता है लेकिन पता नहीं क्यों लूसी उसे अपने बहुत नज़दीक नहीं आने देती और उनका अल्पकालिक सम्बन्ध किसी  सुखद परिणति के बगैर समाप्त हो जाता है.खदान में श्रमिक जीवन जीने के बाद जब वह रिहा होता है तब तक उसका व्यक्तित्व बदल चुकता है.पहले के दो असफल प्रेम उसे अगले किसी सम्बन्ध में प्रविष्ट होने से रोकते हैं.

अब वह प्राग में है और अपना करियर एक वैज्ञानिक के रूप में बना चुकता है, कुछ अर्थों में सफल भी होता है लेकिन असफल प्रेम, अपने मित्र  कोस्तका  का व्यवहार उसे बहुत दूर तक प्रभावित करते हैं,वह कोस्तका से कहता है–

“मैं जानता हूँ कि तुम ईश्वर के शाश्वत रचना-स्थल के शांत शिल्पी हो और ध्वंस के विषय में सुनना भी गवारा नहीं करते. पर मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं  ईश्वर के शिल्पियों में से नहीं हूँ. साथ ही यदि ईश्वर के राज-मिस्त्री वास्तविक दीवारें बनाते तो मुझे संदेह है कि हम उन्हें नष्ट कर पाते. किन्तु दीवारों की बजाय मैं देखता हूँ कि स्थितियां पूर्व निर्धारित हैं और निर्धारित चीजें नष्ट होने के लिए ही बनी हैं.” (मज़ाक़)

जीवन के पंद्रह वर्षों के अन्तराल में लुडविक  के  भीतर की मासूमियत का स्थान नाराजगी ले चुकी  है. अब खेल शुरू होता है नाराजगी और प्रतिशोध का. जान लुडविक  के मन में उस अधिकारी से प्रतिशोध का भाव है जिसने उसे सज़ा के तौर पर खदान में काम करने के लिए भेजा था, जिसका नाम है पेटल ज़मेनेक. ज़मेनेक की पत्नी है हेलेना ज़मेनेक. उन दोनों के सम्बन्ध परस्पर तनावपूर्ण हैं लेकिन फिर भी वे पति-पत्नी हैं. चूँकि लुडविक को पेटल से बदला लेना है इसलिए लुडविग हेलेना से छद्म प्रेम-प्रदर्शन करने लगता है.उधर पति से असंतुष्ट हेलेना लुडविक  के इस ‘मज़ाक़ ‘को सच समझ लेती है. वह शरीर के स्तर पर भी लुडविक  के प्रति समर्पित हो जाती है और पेटल से विवाह-विच्छेद का निर्णय लुडविक  को बताती है. उधर पेटल इस बात से प्रसन्न है कि उसे अपनी अवांछित पत्नी से छुटकारा मिलने वाला है. उधर लुडविक  जिसने हेलेना से कभी वास्तविक प्रेम किया ही नहीं था, अचानक महसूस करता है कि हेलेना को पेटल से तलाक दिलवाकर दरअसल वह प्रकारांतर से पेटल  का ही भला कर रहा है. जान इस सम्बन्ध से अपने को खींच लेता है. उधर जब हेलेना को यह पता चलता है कि कैसे सिर्फ प्रतिशोध के लिए उसकी भावनाओं  का इस्तेमाल किया गया तो वह आत्महत्या का प्रयास करती है.

लुडविक  फिर से अकेला रह जाता है और महसूस करता है कि उसका समूचा जीवन और कुछ नहीं बल्कि एक निरर्थक ‘मज़ाक़’ बनकर रह गया है. देखने की बात है कि कुंदेरा मनुष्य के बदलते चरित्र और उनके आन्तरिक बदलावों, विचारों में नित्यप्रति आने वाले परिवर्तनों को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ते हैं. वे यह भी बताते हैं कि प्राकृतिक न्याय का कोई स्थिर सिद्धांत नहीं होता, हो सकता नहीं. सही न्याय की अवधारणा केवल कल्पना है, जिसे समय की सूली पर चढ़ी हुई दुनिया में कोई सही मायने में प्राप्त नहीं कर सकता.

सन 1967-68 के चेकोस्लोवाकिया में जो सुधारवादी विचार प्रचलित हुए उन्हें ‘द जोक’ में देखा जा सकता है. संवेदनाहीन सुधारवाद नागरिक के सहज स्वाभाविक विकास को कैसे बाधित कर देता है और अच्छा खासा प्रेमिल, स्वप्निल, भावुक युवा एक नाराज, प्रतिशोध से भरे हुए नागरिक में तब्दील हो जाता है. चेक जीवन और समाज, राजनीति, अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्न, सांस्कृतिक परिवेश, आंचलिक जीवन का प्रामाणिक चित्रण, छोटे धारदार वाक्य- ये सब इस उपन्यास को एक महत्वपूर्ण उपन्यास के रूप में स्थापित करते हैं.

’द जोक‘ को पाठकों और आलोचकों द्वारा बहुत सराहा गया लेकिन इस एक उपन्यास ने चेक आलोचकों को दो ध्रुवों में विभक्त करने का काम भी किया, जिनमें एक गुट पुरातनपंथियों का था, जिसने मिलान कुंदेरा की निंदा-भर्त्सना की. उसका  कहना था कि कुंदेरा ने कम्युनिस्ट नियमों का विरोध किया है, उनका मज़ाक़ उड़ाया है. दूसरा गुट सुधारवादियों का था जिसने मिलान कुंदेरा द्वारा सच लिखने के साहस और स्पष्टवादिता की सराहना की. दरअसल मिलान कुंदेरा स्वयं भी समाजवादी पार्टी की आलोचना के खतरे से अच्छी तरह वाकिफ थे लेकिन फिर भी उन्होंने पार्टी के भीतर स्त्री कार्यकर्ताओं  की भूमिका पर कठोर टिप्पणी की. लुडविक  द्वारा खदान में लूसी के प्रति दैहिक-मानसिक आकर्षण को अति सूक्ष्म ढंग से रेखांकित करने के साथ-साथ कुंदेरा ने पार्टी के प्रति वफ़ादारी दिखाने के लिए अपने प्रेमी का पत्र अधिकारियों तक पहुँचाने वाली मार्केटा जैसी स्त्री का चरित्र कल्पित किया.

इस उपन्यास का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ. जारोमिल जायर्स ने ‘द जोक’ पर फिल्म भी बनायी. लेकिन वारसा संधि के टूटने पर इस उपन्यास समेत फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया गया.

कुंदेरा के उपन्यास पारंपरिक दृष्टि से किसी बंधी बंधाई लीक पर नहीं लिखे गए, उनपर ‘जोरोस्लाव हासेक’, ’कारेल कापेक’ और ‘व्लादिस्लाव वेंचुरा’ का प्रभाव देखा जा सकता है लेकिन उपन्यास की तैयारी और रूपबंध की तकनीक नितांत मौलिक  है. अक्सर उनके उपन्यासों के सूत्र उनकी लघु कथाओं में मिल जाते हैं. एक निश्चित ऐतिहासिक समय में, एक चेक बौद्धिक कैसे सोचता है, वह अपने और अपने साथ के आम आदमी के अस्तित्व की चिंता कैसे और किस दिशा में करता है,यह सब इस उपन्यास में देखा जा सकता है. मनुष्य के आंतरिक सत्य को कैसे एक आवरण हीन रूप में प्रस्तुत करना है, मिलान कुंदेरा इसे बखूबी जानते हैं. ’द जोक भी उनके लघु कथा संग्रह ‘लाफेबल लव्स’ से ही निकला हुआ है. एक मज़ाक़, एक शरारत, एक धोखा कैसे स्वयं मजाक करने वाले को मज़ाक़ बना देता  है. ’द जोक’  में  अतीत और वर्तमान के तनाव के बीच लुडविक  के चरित्र, निजी महत्वाकांक्षा और राजनीतिक व्यवस्था के आपसी सहसंबंध, भावात्मक और कामुक सम्बन्ध का अंतर और परिणति, स्त्री-द्वेष की सीमा को छू रहे मिथ्याचार को  कुंदेरा ने विलक्षण अलगाव के साथ पकड़ा है.

मिलान कुंदेरा की  सुप्रसिद्ध कहानी ‘THE HITCHHIKING GAME’ का हिंदी अनुवाद यहाँ पढ़ें.

प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव
भारतीय भाषा केंद्र
जे एन यू, नई दिल्ली.  
drsgarima@gmail. com

Tags: 20232023 आलेखThe Jokeगरिमा श्रीवास्तवमिलान कुंदेरा
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Comments 8

  1. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    2 years ago

    मिलान कुंदेरा ने जगत विपर्यय को जैसे भुगता था, शायद ही किसी ने उतना भोगा हो मगर विदग्ध का जनम ऐसे ही जीवन दूह कर होता है।

    Reply
  2. Rubel says:
    2 years ago

    मिलान कुंदेरा को मनोवैज्ञानिक तनाव को शब्दों में उतार लाने की महारत हासिल थी।उनकी सभी रचनाओं में व्यक्ति के भीतरी इलाकों की गहरी जांच पड़ताल है।शायद यही एक ऐसा सूत्र है जो किसी भी व्यक्ति को उनकी रचना के पात्रों के साथ एक होने के लिए जगह देता है। लेखक ने अपनी हर रचना में मनुष्य के मन की थाह ली है जिसके अंधेरे कोनों में कभी कभी हम खुद भी लेखक की मदद से ही पहुंच पाते हैं।

    इनकी रचनाएं हमें हमसे ही मिलवाती हैं।

    Reply
  3. Vijay Sharma says:
    2 years ago

    उपन्यास ‘द‌ जोक’ का बहुत सुंदर एवं गहन विश्लेषण। Congratulations to Garima Shrivastav snd Samslochan.

    Reply
  4. Anonymous says:
    2 years ago

    उपन्यास पढ़ने की तीव्र इच्छा पैदा करने वाला लेख ।

    प्रवीण कुमार

    Reply
  5. Dr Chaitali sinha says:
    2 years ago

    The joke उपन्यास के विषय में इससे पहले कभी नहीं पढ़ पाई थी. ज्ञानवर्धन करनेवाला आलेख. धन्यवाद मैंम.

    Reply
  6. विनीता बाडमेरा says:
    2 years ago

    सत्य तो यह है कि इससे पहले मिलान कुंदेरा के बारे में नहीं पड़ा। बहुत ज्ञानवर्धक लेख है यह।

    Reply
  7. Rahul says:
    2 years ago

    समकालीन विमर्श और विश्लेषण पर कुंदेरा व्यंग्य करते हैं जो तीखा साथ ही रोचक होता है। सुंदर लेख, मैम।

    Reply
  8. M P Haridev says:
    2 years ago

    मैं टिप्पणी करना चाहता हूँ और बचना भी । मैंने गत वर्ष भी वर्ष 2021 के 12 फ़रवरी के द इंडियन एक्सप्रेस के लेख का बहुत मात्रा में हिन्दी में रूपांतरण किया था । इस आलेख को विनोद विट्ठल ने आपको टैग किया था और आपने लाइक किया ।
    सिवाय अनुवाद करने के मैंने अपनी ओर से कुछ नहीं लिखा । यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ ।
    12 फ़रवरी, 2021 को इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी थी । नीचे पेस्ट कर रहा हूँ
    मिलान कुंदेरा अब फिर सुर्ख़ियों में है । चेकोस्लोवाकिया के बर्नो में 1 अप्रैल 1929 को जन्मे लेखक और विचारक मिलान कुंदेरा को आज याद करने का दिन है । वे 90 वर्ष की उम्र पार कर चुके हैं और उनका उद्धरण आज के इंडियन एक्सप्रेस में है-The struggle of man against power is the struggle of memory against forgetting.
    वास्तव में 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी ने कुंदेरा से द्वेशभावपूर्ण व्यवहार करना शुरू कर दिया । हालाँकि यह प्रश्न अभी भी खुला है कि वे पार्टी के प्रति hostile थे या नहीं । वे समतामूलक समाज की स्थापना के हिमायती थे, but he wanted that note to dissent and difference of opinion must be respected. 1979 में चेकोस्लोवाकिया ने उनकी नागरिकता छीन ली । अब वहाँ की सरकार मिलान कुंदेरा को सदस्यता दे रही है । चेकोस्लोवाकिया की कम्युनिस्ट सरकार ने मिलान कुंदेरा की पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया और उन्होंने 1975 में फ़्रांस में जाकर शरण ली ।
    वे कहते हैं कि किसी भी क़ौम का दमन करना हो तो उसकी किताबें, उसके रीति-रिवाज़, संस्कृति और इतिहास को नष्ट कर दो । उसके बाद नये सिरे से किताबें लिखो, नये रीति-रिवाज़, संस्कृति आदि पैदा करो, इतिहास को अपने तरीक़े से खोजो । इससे पहले कि जिस देश के साथ ऐसा किया जा रहा है वो भूल जाये कि क्या था, क्या है । ये सारी दुनिया उनको भुला देगी । लोगों की शक्ति पाने का संघर्ष असल में याददाश्त का भूलने से संघर्ष है ।
    Milan Kundera’s two main books
    The unbearable lightness of being
    The book of laughter and forgetting

    Reply

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