हरदेवी की यात्रा
|
श्रीमती हरदेवी उत्तर-भारत से शिक्षण-यात्रा पर लन्दन जाने वाली पहली स्त्री हैं. वे 1887 में लन्दन गयीं और उन्होंने लन्दन-यात्रा और लन्दन जुबली शीर्षक वृत्तान्त लिखे. इन पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने भारत-भगिनी के संपादन की भूमिका भी निभायी. उन्होंने सरलादेवी चौधरानी के साथ मित्रवत कार्य किया. बौद्धिक दृष्टि संपन्न स्त्री हरदेवी ने उस ज़माने में बाल-विधवा होते हुए बैरिस्टर रोशनलाल सक्सेना से प्रेमविवाह किया. उनके यात्रा-वृत्तान्त समय की धूल में खो गए. जो ब्रिटिश लाइब्रेरी में अंततः लम्बी प्रतीक्षा के बाद मिले.
अनुमान है कि उच्च शिक्षा के लिए लन्दन जाने वाली पहली हिन्दीभाषी स्त्री हरदेवी थीं. यद्यपि वे एक बहुत प्रगतिशील परिवार से ताल्लुक रखती थीं फिर भी एक स्त्री का पढ़ाई के लिए उत्तर भारत से लन्दन जाना उन दिनों एक बड़ी खबर थी. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कई अंग्रेजी और हिन्दी पत्रों ने इस खबर को सुर्ख़ियों में रखा. सन 1886 की ‘द इंडियन मैगजीन’ ने दादाभाई नौरोजी, रतन जी. बनर्जी, लक्ष्मीनारायण तथा अपने भाई सेवाराम के परिवार के साथ श्रीमती हरदेवी के लन्दन जाने की ख़बर प्रकाशित की थी [i].
श्रीमती हरदेवी की लन्दन यात्रा अकारण और निरुद्देश्य नहीं थी, बल्कि शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे लन्दन गयी थीं. वे लन्दन रहकर पढ़ीं वहां की संस्कृति को नज़दीक से देखा और पहले की अपेक्षा तीक्ष्ण दृष्टि सम्पन्न होकर भारत लौटीं. इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उनके लन्दन जाने और पढ़ने की व्यवस्था ‘नेशनल इंडियन असोसिएशन’ ने की थी. श्रीमती हरदेवी से सम्बद्ध सूचनाएं ‘नेशनल इंडियन असोसिएशन’ की पत्रिका ‘इंडियन इंटेलिजेंस’ स्तम्भ के तहत छापी जाती थीं. श्रीमती हरदेवी ने पुरुषों की दुनिया में अपनी उच्च शिक्षा के लिए कैसे स्पेस बनाया होगा, यह वास्तव में विचारणीय और श्लाघनीय है.
दो)
हरदेवी को अपने पिता से शिक्षा के संस्कार मिले थे. वे बहुत परिश्रमी और दृष्टि-संपन्न थीं. उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की और आगे चलकर वे नेशनल सोशल कांग्रेस की सदस्य और हिन्दी की पहली स्त्री-संपादक के रूप में जानी गयीं. हरदेवी क्रांतिकारियों की सहायता करती थीं. 8 अक्टूबर,1888 के ‘द टाइम्स आफ़ इंडिया’ में यह खबर छपी थी कि श्रीमती हरदेवी ने लाहौर में 150 पर्दानशीन स्त्रियों की सभा आयोजित की थी जिसमें लेडी डफ़रिन को धन्यवाद ज्ञापित करने के साथ-साथ कई अन्य प्रस्ताव भी पास किये गए.
हरदेवी के बारे में डॉ. चारु सिंह ने एक विस्तृत शोध आलेख में उनके रचनात्मक योगदान की विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा है-
“इसके अलावा 1881 में प्रकाशित ‘स्त्री विलाप‘ जो कि हरदेवी की ही रचना मालूम होती है, उसमें उनके विवाह की आयु 14 वर्ष बताई गयी है… बहरहाल, हरदेवी एक युवा विधवा थीं और लन्दन जाने के पहले एक सुशिक्षित महिला थीं. इसका पता ‘लन्दन यात्रा’ को पढ़कर चल जाता है. लेखन तथा जीवन की दूसरी घटनाएँ तथा तथ्य इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि वे ही ‘स्त्री विलाप ’(1881), सीमंतनी उपदेश’, (1882) तथा एक विधवा युवती द्वारा 1881 में लिखे हुए लेख ‘हिन्दू विडोज़’ की लेखिका थीं. ’स्त्री विलाप’ 1881 में शाहजहांपुर के आर्य दर्पण प्रेस से छपी ‘एक विधवा स्त्री’ की रचना है. जिसकी भाषा शैली तथा विचारधारा पूर्ण रूप से ‘सीमंतनी उपदेश’ से मेल खाती है.” (चारू सिंह, अज्ञात हिन्दू स्त्री कैसे बनती है? आलोचना पत्रिका, अंक 56,अप्रैल -जून 2016 )
अभी हाल ही में प्रोफ़ेसर रमण सिन्हा ने गोविन्दवल्लभ पन्त संस्थान में अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी (27-28 दिसंबर 2022 ) में प्रस्तुत अपने पर्चे में एक दुर्लभ दस्तावेज के हवाले से यह सिद्ध कर दिया कि हरदेवी ही ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका थीं और उन्होंने ही ‘सीमंतनी संगीत’ की भी रचना की थी, जो अनुपलब्ध है.
हरदेवी ने आत्मकथा भी लिखी थी जो उर्दू में थी, लेकिन उसकी कोई प्रति अभी तक हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है. इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि हरदेवी ने पुनर्विवाह किया था-
“लन्दन से लौटकर हरदेवी ने एक और दुस्साहसी कदम उठाया. यह था उच्च जाति की एक हिन्दू विधवा का प्रेम विवाह. बरेली निवासी रोशनलाल लन्दन से 1887 में बैरिस्टरी की पढ़ाई करके लौटे. यह इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत कर रहे थे. रोशनलाल सक्सेना कायस्थ थे और अपने स्कूल के दिनों से ही आर्यसमाजी थे. लन्दन में पढ़ाई करने वाली हरदेवी से उनका परिचय उसी दौरान हुआ था. लूसी कैरोल ने ‘द हिन्दुस्तानी कायस्थ ‘में हरदेवी तथा रोशनलाल की लन्दन से चली आती मित्रता का ज़िक्र किया है. उन्होंने यह भी बताया है कि एडवोकेट रोशनलाल ने समुद्रयात्रा से लौटकर प्रायश्चित करने से इनकार कर दिया था. कायस्थ समाज ने उन्हें स्वीकार भी कर लिया था.” (द सी वॉयेज कंट्रोवर्सी एंड द कायस्थ्स आफ़ नार्थ इंडिया– मॉडर्न एशियन स्टडीज़, 1979,वॉल्यूम 13,नंबर 2. pp 265-299)
हरदेवी के नाम से से जो रचनाएं मिलती हैं उनमें दो यात्रा-वृत्तांतों के अतिरिक्त ‘स्त्री विलाप’, हुक्मदेवी, स्त्रियों पै सामाजिक अन्याय ’ शीर्षक विनिबंध हैं. हरदेवी के पिता का नाम रायबहादुर कन्हैयालाल था. उनकी ख्याति इतिहासकार और भवन निर्माता के रूप में थी. उन्होंने अपनी पुत्री हरदेवी और पुत्र सेवालाल को अच्छी शिक्षा दी.
‘तारीख-ए-लाहौर’ की भूमिका में अपना परिचय देते हुए रायबहादुर कन्हैयालाल खुद को लाला हरनारायण कायस्थ जलेसरी हाल-ए-मुवत्तिन शहरे लाहौरी’[ii] बताया है.
लार्ड नार्थब्रुक ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि प्रदान की थी. हरदेवी अनुमानतः 1863 में जन्मी होंगी क्योंकि 1905 में छपे एक दस्तावेज में उन्हें 42 वर्ष का बताया गया है[iii] हरदेवी बाल विधवा थीं और बैरिस्टर रोशनलाल से उनका दूसरा विवाह हुआ था[iv].
हरदेवी के यात्रा-वृत्तान्त पर विचार करने से पहले उनकी समकालीन यात्रा वृत्तान्तकारों पर एक दृष्टि डाल लेना समीचीन होगा. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान समाज में आर्थिक और राजनीतिक पुनर्संरचना की प्रक्रिया देखी जा रही थी. भारतीय मध्यवर्ग और ब्रिटिश नागरिकों के आपसी संबंधों के समीकरण बदल रहे थे, आपस में आदान-प्रदान की प्रक्रिया में पहले की अपेक्षा तेज़ी आ रही थी, विभिन्न जातियां और सामाजिक वर्णों के आचार-व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहा था. सुमित सरकार ने बंगाली समाज के सन्दर्भ में लिखा है कि बंगाल में भद्रलोक वे थे जो पढ़े-लिखे मध्यवित्त परिवारों से सम्बद्ध थे, जबकि आभिजात्य श्रेणी महाजन, व्यवसायी, दलाल, वणिक, दीवान बैंक कर्मियों, साहूकारों और जमींदारों से मिलकर बनी थी. [v]
बंगाल में स्त्रियों की विदेश यात्रा के समाचार और वृत्तान्त हमें उन्नीसवीं शती के प्रारंभ से ही मिलते हैं. इसके पीछे बंगाल के भद्रलोक का खुलापन था जिसके बारे में पार्थ चटर्जी का मानना है कि भद्रलोक के उदारवादी खेमे में स्त्री के प्रति उदार रवैये की वकालत की गयी. स्त्री के प्रति इस बदले हुए रवैये में स्त्री शिक्षा से आगे बढ़कर घर और बाहर के दायरे में स्त्री की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित किया जाना था. [vi]
ये स्त्रियाँ वे थीं जिनपर सुधार-कार्यक्रमों का असर पड़ चुका था और वे नई सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में शामिल होने को तैयार थीं. लेकिन पारिवारिक दायरे में ये स्त्रियाँ अपने पिता-भाइयों के साथ विभिन्न स्तरों पर बंटे समाज से सम्बद्ध थीं, जिनकी जीवन-शैली आपस में भिन्न थी और वे रुढ़िवादी या गैर-रुढ़िवादी परिवारों से आती थीं- उन परिवारों से उन्हें अलग-अलग तरह के अवसर और स्वाधीनता मिली. गाँव और शहर से आने वाली स्त्रियों का संसार और अनुभव परस्पर जुदा थे. इन सबके बावजूद उनसे अपेक्षा रखी गयी कि वे न सिर्फ भद्रलोक का सम्मान करें बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान और विरासत को भी बनाये रखें. उन्हें यह समझाया गया था कि ब्रिटिश लोग उनकी अपेक्षा ज्यादा परिष्कृत और सभ्य हैं, उनके समक्ष स्वयं को सभ्य और सुशिक्षित दिखाने का एक नैतिक दबाव इन स्त्रियों के ऊपर अवश्य था. [vii]
उन्नीसवीं शती के बंगाल में हिन्दू स्त्री की वैधानिक स्थिति, विवाह-व्यवस्था और ऐसे रीति रिवाज जो उसके शरीर से सम्बद्ध थे- एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जो अविजित था. वे स्त्रियाँ जिन्होंने अपने तथाकथित पिंजरों से बाहर निकलकर अपने मुक्ति के अनुभव लिखे, उनकी संख्या बहुत कम थी. समुद्र पार करके विदेश की यात्रा उनके लिए टैबू थी, क्योंकि जैसाकि सीमंती सेन ने लिखा–
“यात्रा का अर्थ है अनजान लोगों और उनके प्रभाव में रहना, गन्दा पानी पीना, गलत जगह भोजन करना और कई तरह के असामाजिक तत्वों की नज़र में आना.”
यात्रा-अनुभवों और यात्रा-वृत्तांतों के लिखे जाने से एक नई जेंडर सम्बन्धी ताकत का उदय हुआ. स्त्रियों ने यात्रा करके अपना स्पेस लिया और उन्हें जो भी भाषा परंपरा और समाज ने दी थी उस भाषा में (जिसपर पहले पुरुषों का अधिकार था) वृत्तान्त लिखकर उसे नवीन अर्थ-सन्दर्भ दिए. इन यात्रा करती स्त्रियों से समाज को जो अपेक्षाएं थीं उनमें सतीत्व प्रमुख था, लेकिन साथ ही वे मुक्ति के आश्वासन के बीच दुनिया को अपनी नज़र से देखने के द्वंद्व के बीच फंसी दिखती हैं. यह द्वंद्व यात्रा करने और यात्रा- वृत्तांतों की अंतर्वस्तु में भी दिखाई पड़ता है. उन्हें यात्रा करने और यात्रा-वृत्तान्त लिखते समय भी अपने स्त्रीत्व को भी बनाये रखना था. उन्हें भय था कि उनके लिखे हुए का ठीक से विवेचन-विश्लेषण नहीं हो पायेगा, साथ ही उनके द्वारा रचित यात्रा-वृत्तांतों की तुलना पुरुषों द्वारा रचित यात्रा-संस्मरणों से की जाएगी. यदि वे इस वृत्तान्त में मर्दानापन लायेंगी तो उनकी आलोचना होगी. इसके अलावा यदि वे रोमांचक आख्यान की शैली अपनाती हैं तो उनके कार्य की प्रामाणिकता और सत्य पर भी संदेह किया जायेगा. इन सभी चुनौतियों को इन स्त्रियों को अपने-अपने ढंग से सुलझाना था.
सामान्य तौर पर यात्रा-वृत्तान्त वही प्रामाणिक माना जाता है, जहाँ विवरण प्रस्तुत करने वाली आँखों को दृश्य देखने वाली आँखें संप्रेषित करती है. अँगरेज़ स्त्रियाँ, जिन्होंने अपनी भारत यात्रा के अनुभवों को लिखा- जिनमें स्त्री यात्रियों ने यात्रा के अनन्तर ‘स्वयं’ की खोज की. नए दृश्य, अबतक के अनजान दृश्य, नए लोग और अब तक अपनी स्थिति, संस्कृति के बारे में उन्होंने बताया, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इन अंग्रेज़ स्त्रियों ने अन्य व्यक्तियों, विशेषकर पुरुषों से अपने मिलने-जुलने का ज्यादा अंकन नहीं किया. रोज़मर्रा का जीवन और घर के भीतर की स्थितियों का जायजा इनके आख्यानों से गायब है, या उसे जानबूझकर जगह नहीं दी गयी . आश्चर्य की बात है कि अपने यात्रा-आख्यानों में वे पुरुष सहयोगी या साथी के बारे में चुप रहीं- संभवतः वे पुरुष सहयोगियों का ज़िक्र इसलिए नहीं करतीं क्योंकि उन्हें लगता था कि इस तरह के ज़िक्र को उनका कोई लगाव न समझ ले. संस्कृति को लेकर उनके दृष्टिकोण, पूर्वग्रह, अनुमान और प्राथमिकताएं उनके आख्यान में भीतर से झांकती हैं. उन्नीसवीं सदी एक बड़े बदलाव की भूमिका लेकर उपस्थित है. ये यात्रा-आख्यान न सिर्फ स्त्रियों के जीवन के प्रति दृष्टिकोण और रुझानों को बताती हैं – जिनमें विवरणात्मक और उपदेशात्मक आख्यान दोनों हैं. जिनका उद्देश्य है अपनी बहनों की दशा में सुधार करना.
औपनिवेशिक शासन के दौरान यात्रा की सुविधाएँ बढ़ीं. मसलन 1869 में स्वेज़ नहर खुल गयी थी. इससे एक तरह के सेकुलर तीर्थयात्रा के रास्ते खुले. बंगाली स्त्रियों ने विदेश और देश में खूब यात्राएँ कीं. कृष्णभामिनी दास(1864-1919) ने ‘इंगलैडे बंगमहिला’ शीर्षक यात्रा वृत्तान्त लिखा और प्रसन्नमयी देवी (1857-1939 ) ने ‘आर्यावर्त: जनैका बंगमहिलार भ्रमण वृत्त’(1888 ) लिखा. इन यात्रावृत्तों को पढ़कर पता चलता है कि स्त्रियाँ अपने रहवास की स्थितियों, संस्कृति, संसार को बदली हुई परिस्थितियों में कैसे देख रही थीं.
राजकुमारी बनर्जी वे पहली हिन्दू स्त्री थीं जो अपने पति शशिपद बनर्जी के साथ बंगाल से भाप इंजन वाले जहाज़ से सन 1871 में ओल्गा से इंग्लैण्ड में गयीं थीं. इंग्लैण्ड की एक महिला मैरी कारपेंटर जो शशिपद बनर्जी द्वारा स्थापित लड़कियों के स्कूल (स्कूल 1865 में स्थापित हुआ था) से इतनी प्रभावित हुई थीं कि शशिपद को पत्नी समेत इंगलैंड आमंत्रित किया. मैरी कारपेंटर चाहती थीं कि भारत में स्त्री-शिक्षा के प्रयासों के बारे में ये लोग इंगलैंड में बताएं. शशिपद ने अपनी पत्नी की ओर तरफ से यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया और कुछ हिचक के साथ लिखा था–
“मेरी पत्नी इंग्लिश नहीं जानती. आपके मित्रों को उसके आगमन से बहुत उम्मीद नहीं लगानी चाहिए. आपको मालूम नहीं है कि एक हिन्दू स्त्री के लिए ये कितना कठिन है कि वह अपनी मूर्खताओं और दकियानूसी संस्कारों को छोड़ दे. मैं आपका निमंत्रण स्वीकार करता हूँ उसे साथ लेकर आने के लिए. मैं उसे लाऊंगा, लेकिन ऐसा नहीं है कि वह आपके मित्रों को संतुष्ट करने के लिए कुछ कर सकेगी,वरन इसलिए कि मैं यहाँ अपने देश में औरतों को यह बता सकूँगा कि उन्हें समाज में अपेक्षित सम्मान और आदर मिल सकता है. वहां आने पर हमें अंग्रेजी जीवन, अंग्रेजी संस्थाएं देखने को मिलेंगी. इस तरह हम यहाँ लौटकर अपने यहाँ के कामगारों के लिए कुछ अच्छा कर सकेंगे. ”
कृष्णभामिनी दास का यात्रा-वृत्तान्त 1885 में जे. एन. बनर्जी द्वारा प्रकाशित किया गया. सत्यप्रकाश सर्वाधिकारी ने 309 पृष्ठों में फैली सामग्री का मूल्य एक रुपया चार आना रखा. ऐसा नहीं है कि कृष्णभामिनी दास के पहले कोई स्त्री विदेश यात्रा पर नहीं गयी. खेत्र मोहिनी दत्त 1870-73 के बीच इंग्लैण्ड में रहीं उनकी दोनों बेटियां, अरु दत्त और तोरू दत्त उनके साथ ही थीं. कमलमणि ठाकुर उनसे पहले ही विदेश जा चुकी थीं, वे ज्ञानेंद्र मोहन टैगोर की पत्नी थीं और रेवरेंड कृष्णमोहन बनर्जी की पुत्री थीं, उन्होंने 1859 में इंग्लैड की यात्रा की और सन 64 में भारत लौटीं. लेकिन उन्होंने अपने यात्रा-अनुभव नहीं लिखे. 1894 में जगत्मोहिनी चौधुरी, जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया था, ने 1902 में ‘इंग्लैंडे सात मास’ शीर्षक से यात्रा-वृत्तान्त लिखा, जिसमें अपने ईसाई धर्म में दीक्षित होने और ईसाइयों के ढर्रे पर अपने पालन-पोषण को रेखांकित किया और इस सबके लिए अपनी मां के प्रति कृतज्ञता अर्पित की. वे ईसाई संकृति को हिन्दू सभ्यता से श्रेष्ठ मानते हुए और उसके आडम्बर और अंधविश्वासों से मुक्त होने की कामना करती हैं.
भारतीय स्त्रियाँ अपने भय और आकांक्षाओं के साथ समंदर पार की यात्राएँ करती रहीं. इन यात्राओं में उनके साथ अक्सर पति या भाई अथवा पिता होते थे. एक अर्थ में ये यात्राएँ आधुनिकता और स्वतंत्रता से सम्बद्ध और दैनंदिन जीवन की एकरसता से मुक्ति का पर्याय थीं. जहाँ समाज के बने-बनाए नियम टूटने वाले थे, परंपरा पर प्रश्नचिन्ह लगने वाले थे, सोच-विचार के नए वातायन खुलने वाले थे और स्वयं को एक नई वैकल्पिक स्थिति में देखने का अवसर मिलने वाला था. स्त्रियों की सामाजिक मुक्ति की दिशा में उठाये क़दम के तौर पर स्त्रियों द्वारा की गयी इन यात्राओं को देखा जाना चाहिए.
1887 में महारानी सुनीति देवी अपने पति महाराजा नृपेन्द्र नारायण भूप बहादुर के साथ कूचबिहार से लन्दन गयीं. अवसर था महारानी विक्टोरिया के ग्रांड जुबली आयोजन में भागीदारी. उन्होंने आत्मकथ्य ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ एन इंडियन प्रिंसेस’ में उन्होंने दर्ज़ किया –
“मुझे अपनी यात्रा के बारे में कुछ भी पता नहीं था. मैं अजनबी ज़मीन पर अजनबी रहने वाली थी. मुझे इस बात की भी चिंता थी कि लोग मुझे घूर कर देखेंगे, पर मैंने खुद को समझा लिया था कि लन्दन में शायद यही मेरा भाग्य होने वाला है.” (ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ एन इंडियन प्रिंसेस ,प्रकाशक -जान मुर्रे, एल्बेर्माले स्ट्रीट लन्दन,1921)
उधर पश्चिमोत्तर प्रांत और पंजाब में स्त्रियाँ बाल-विवाह और स्त्री का मुद्दा अपने लेखन में बड़ी शिद्दत के साथ उठा रही थीं. औपनिवेशिक शासन व्यवस्था में महारानी विक्टोरिया के हाथ में सत्ता की बागडोर आते ही तमाम स्कूलों में स्त्री शिक्षा और विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के अवसर मिले. पंडिता रमाबाई, रख्माबाई और हरदेवी का नाम इन स्त्रियों में अग्रगण्य है. इन स्त्रियों ने भारत में विक्टोरिया शासन को उगते हुए सूरज के समान देखा था. विक्टोरिया शासन ने भारतीयों को यह भी आश्वासन दिया कि वे भारतीयों के धार्मिक और कानूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा. 1877 में दिल्ली दरबार के अवसर पर तमाम विद्वानों और राजा-महाराजाओं के साथ उनकी पत्नियों को भी आमंत्रित किया गया. ’दिल्ली दरबार दर्पण’(Delhi assemblage memorandum) शीर्षक से सन 1877 में पुस्तिका रूप में छपी, जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस दरबार का आँखों देखा हाल बयान किया. सन 1901 में महारानी विक्टोरिया की मृत्यु पर भारत की पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में भारत से ‘स्त्रीराज’ के उठ जाने पर दुःख और चिंता व्यक्त की.
तीन)
हरदेवी अपने समय में बेहद प्रगतिशील विचारों और रचनात्मक प्रतिभा-संपन्न स्त्री थीं. स्त्री-पुरुष समानता पर बहुत गंभीरता से उन्होंने विचार किया, उनके समूचे लेखन में जेंडर सम्बन्धी प्रश्न बिखरे हुए हैं, जो उनके समय से बहुत आगे की बात है. स्त्री-पुरुष में समता की मांग करते हुए ‘स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा–
“हमें उन मनु आदिक महात्माओं से कभी ऐसे निर्दय शास्त्र की आशा नहीं है. यह किसी स्वार्थप्रिय स्त्रीकुल के शत्रु का रचा हुआ धर्मशास्त्र जिसे अधर्मशास्त्र कहना चाहिए मालूम होता है. अज्ञानी और मूर्ख विचारहीन पुरुष इसी की आज्ञाओं को प्राचीन मत समझ स्त्रियों के साथ अनेक प्रकार के अन्याय कर रहे हैं. इनकी संख्या करने से एक पुस्तक बन सकती है, इनमें से जो बड़े -बड़े अन्याय हैं यहाँ वर्णन करती हूँ.
पुत्र कन्या के पालन में भेद करना
विद्या से वंचित रखना
अज्ञानावस्था में विवाह कर देना
अयोग्य वर से विवाह कर देना
पुनर्विवाह से रोकना
स्वामीधन और पिता के धन से भाग न देना
सहधर्मिणी स्त्री के जीवित रहते दूसरा विवाह कर लेना…
हरदेवी ने ‘हुक्मदेवी’ उपन्यास लिखा जिसके मुखपृष्ठ पर लिखा था- HUKUM DEVI OR A TRUE TALE OF A VIRTUOUS HINDU LADY BY SRIMATI HARDEVI’ अर्थात ‘हुक्मदेवी : हिंदूधर्म की उच्चता में एक सच्ची कहानी जिसको श्रीमती हरदेवी ने स्त्रियों के उपकार के निमित्त लिखा है. डॉ. नैया ने हरदेवी के उपन्यास ‘हुक्मदेवी’ का संपादन और पुनर्प्रकाशन किया है. सम्पादकीय वक्तव्य में उन्होंने लिखा है-
“इलाहाबाद के क्वीन प्रेस में पंडित स्वामीदयाल के प्रबंध से मुद्रित इस पुस्तक पर इसका कोई प्रकाशन वर्ष प्रकाशित नहीं है. हाँ,इसमें लाहौर के मदनलाल पेशावरी नाम के एक व्यक्ति के 15 जून,1892 (पृष्ठ 53 मूल पुस्तक )के एक पत्र का उल्लेख है, जिससे यह कहा जा सकता है कि इस पुस्तक का प्रकाशन 1895 के आसपास हुआ होगा. इस पुस्तक की लेखिका श्रीमती हरदेवी, वही हरदेवी है जिनकी लिखी बहुत मशहूर पुस्तक लन्दन यात्रा के अलावा स्त्रियों पे सामाजिक अन्याय जोकि नागरी, उर्दू और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में प्रकाशित हुई. इनका प्रकाशन मुंशी शादीलाल वर्म्मा मैनेजर भारतभगिनी, इलाहाबाद के प्रबंध से हुआ था… इस पुस्तक के माध्यम से इसकी लेखिका श्रीमती हरदेवी अपने पाठकों, विशेषकर स्त्रियों को यह सन्देश देने का प्रयास करती हैं कि पुरुषों से अपनी अस्मत इसकी मुख्य पात्र हुक्मदेवी की तरह, किस तरह बचाना चाहिए. हालाँकि इसके माध्यम से हमें उस समय के पुरुष प्रधान समाज और उसकी सोच का पता चलता है. इतना ही नहीं यह पुस्तक हमें यह भी बताती है कि उस समय विधवाओं का जो दैहिक शोषण होता था,उसमें कहीं न कहीं स्वयं स्त्रियों की भी भूमिका होती थी. ”
हरदेवी ने हिन्दी पत्रिका ‘भारत भगिनी’ का संपादन भी किया, उन्होंने सभाओं के आयोजन किए, फंड एकत्र करने के लिए, समाज-सुधार व राजनीतिक कैदियों की मदद के लिए अभियान ज़ारी रखे. ‘सुगृहिणी पत्रिका’ के जुलाई अंक में श्रीमती हरदेवी के लन्दन से लौटने का समाचार छपा. सुगृहिणी के समालोचना शीर्षक के अंतर्गत ‘भारत भगिनी’ का परिचय दिया गया–
“इस मासिक पत्रिका की संपादिका हमारी परम मान्या श्रीमती हरदेवी जी हैं, इस साल की पहली जून (1889)से इस अवलोकित मनोरंजिनी पत्रिका का प्रकाशन लाहौर नगर से आरम्भ हुआ है.”
भारत भगिनी’1906 तक प्रकाशित हुई. स्त्री जागरण और स्त्रियों में साहित्यानुराग उत्पन्न करने में इस पत्रिका ने महत्वपूर्ण योगदान दिया. सच्चिदानंद सिन्हा ने अपनी पत्रिका ‘कायस्थ समाचार’ के अप्रैल, 1902 के अंक में, स्त्रियों के लिए गए इस तकनीकी विद्यालय ‘नारी शिल्पालय’ की सूचना देते हुए यह विवरण लिखा–
“इन स्तंभों में हम पहले भी किसी अवसर पर एक सुशिक्षित और अत्यंत प्रतिभाशाली स्त्री के रूप में ख्यात श्रीमती हरदेवी रोशनलाल के उन उत्कृष्ट और अत्यधिक उपयोगी कार्यों की ओर ध्यान खींच चुके हैं, जो उन्होंने अपनी पत्रिका ‘भारत भगिनी’ के जरिये ‘स्त्री शिक्षा’के लिए किया है, जो हर माह देवनागरी लिपि में प्रकाशित होती है. इस देश के उद्धार और स्त्री शिक्षा के उद्देश्यों के प्रति उनके महान समर्पण और सच्ची सहानुभूति के एक अगले उदाहरण के रूप में हमारे सामने अब लाहौर का ‘नारी शिल्पायन’(स्त्रियों का टेक्निकल स्कूल )उपस्थित है. यह शिल्पायन बसंत पंचमी के दिन शुरू किया गया और इस संस्था के नियम -कायदे, जिन्हें हम नीचे प्रकाशित कर रहे हैं, हमारे पाठकों को इस विद्यालय की उपयोगिता के बारे में कुछ जानकारी दे सकेंगे. यह विषय निम्नलिखित है–
विद्यालय में स्त्रियों को पढ़ाया जायेगा
(अ) नागरी, गुरुमुखी और उर्दू लिखना तथा पढ़ना, साथ ही अंकगणित ;
(ब) हाथ तथा मशीन दोनों से सिलाई करना,हर तरह के वस्त्रों को हर शैली में मापना तथा काटना ;
(स ) लेस वर्क, चांदी के तारों से कसीदाकारी करना और हर तरह के रिबन का काम
(द) फुलकारी का काम, साटिन ब्राडक्लाथ आदि रेशमी तथा सूती धागों से कसीदाकारी ;
(य) बुनाई, गलीचा बनाने का काम, ऊन से कसीदाकारी और इस काम की सभी शाखाएं.
जैसाकि पहले कहा जा चुका है हरदेवी संभवतः टीचर्स ट्रेनिंग के लिए लन्दन गयी थीं. वहीं पर उनकी मुलाकात रोशनलाल से हुई थी. हरदेवी ने ‘लन्दन यात्रा’ शीर्षक वृत्तान्त 1888 में छपवाया. ‘लन्दन यात्रा’ के प्रारंभ में ही वे यह स्पष्ट कर देती हैं कि यह वृत्तान्त उन्होंने अपनी भारतीय भगिनियों के लिए छपवाया है. भूमिका में ही हरदेवी कहती हैं– “प्यारी पाठिकाओं आज मैं अपनी यात्रा का वृत्तान्त लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित हुई हूँ ”
चार)
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आते आते ‘नई स्त्री’ के निर्माण की चिंता पूरे राष्ट्रवादी विमर्श के केंद्र में आ गयी थी. यह वही समय था जब भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति एक राजनीतिक मुद्दा और विवादों का केंद्र बन गयी थी. ब्रिटिश प्रभुओं की दृष्टि में स्त्री की स्थिति ‘आधुनिकता’ का पैमाना थी. स्वशासन के लिए उत्सुक भारतीयों के सामने वे स्त्रियों की गर्हित स्थिति दिखाकर उन्हें बताने में कामयाब हो गए थे कि भारतीय इतने पिछड़े हुए हैं कि वे अपने समाज, अपने सामाजिकों को स्वयं नहीं संभाल सकते. सती प्रथा, बहुविवाह, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा और बाल-विवाह अंगरेजों की आलोचना का मुद्दा था. जबकि भारतीय समाज सुधारकों में से अधिकांश की दृष्टि में पाश्चात्य संस्कृति की अपेक्षा भारतीय संस्कृति उत्कृष्ट थी, लेकिन इसके साथ ही इस बात की भी ज़रूरत महसूस की गयी कि पश्चिमी प्रभुओं की आलोचना से बचने के लिए हिन्दू संस्कृति में कुछ सुधार और बदलाव किये जाएँ. पश्चिमी उदारवाद और मानववाद को इस ढंग से प्रतिस्थापित किया जाए कि अंग्रेज़ भारत को हेय दृष्टि से देखना छोड़ दें. पश्चिमी सभ्यता में नई तकनीक, विज्ञान और तर्क का प्राधान्य था तो उसकी तुलना में भारतीयों के पास आध्यात्मिक उच्चता थी. आध्यात्मिकता को भारतीयों की वास्तविक पहचान के तौर पर देखा गया. (चटर्जी,1989 :23)
स्त्रियाँ इसी ‘आध्यात्मिक स्पेस’ की पहरेदार थीं. अब समाजसुधारकों और नेतृत्व करने वालों के सामने इस आध्यात्मिक स्पेस को बचाने की ज़िम्मेदारी थी. राष्ट्रवादी नेताओं ने यह महसूस किया कि आध्यात्मिक स्पेस को बाहरी संसार से जोड़ना पड़ेगा और समानता और लोकतांत्रिकता के नए मूल्यों को भारतीयता से जोड़ कर प्रस्तुत करना पड़ेगा. इस स्थिति में ‘नई स्त्री’ की संकल्पना की गयी. नई स्त्री की यह संकल्पना मध्यवर्गीय स्त्री के सन्दर्भ में ही व्याख्यायित की गयी. इस अवधारणा की सफलता स्त्री की औपचारिक शिक्षा पर निर्भर थी. शिक्षा को भारतीय स्त्री के उत्कर्ष से जोड़कर देखना और शिक्षा के माध्यम से स्त्री द्वारा नई वाह्य स्थिति के साथ तारतम्यता बिठाने में मदद के रूप में देखा गया. शिक्षा को नई भारतीय स्त्री को घर की जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से निभाने में मददगार के रूप में भी देखा गया.
उन्नीसवीं शती बहुत से परिवर्तनों की शती थी. भारत विशेषकर उत्तर भारत की ओर से बहुत कम स्त्रियाँ ऐसी थीं,जिन्होंने अपनी आँख से दुनिया देखने की ठानी और अपने उद्देश्य में सफल भी हुईं क्योंकि इससे पहले स्त्रियां आर्थिक, राजनैतिक, बौद्धिक क्षेत्रों से दूर रखी जाती थीं. इनमें से जिन्होंने इस स्थिति को बदलने की कोशिश की, उनमें से एक नाम हरदेवी का है. साहित्य की जितनी विधाएं हैं उनमें स्त्रियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की, यह बात और है कि आलोचकों ने उनकी उपेक्षा हरसंभव की. साम्राज्यवादी नीतियों के प्रसार के साथ-साथ उन्नीसवीं सदी के बौद्धिक जनों का दृढ़ विश्वास था कि ज्ञान प्राप्ति सभी दोषों का रामबाण उपचार है. वे भारतीय समाज के सभी दोषों का धार्मिक अन्धविश्वास और सामाजिक रूढ़िवादिता का भी मूल कारण लोगों के सामान्य अज्ञान को मानते थे. इसलिए उनके सुधार के कार्यक्रम में ज्ञान के प्रसार का स्थान सर्वप्रमुख था. अंग्रेजी राज की शिक्षा नीति के उद्देश्य इन बौद्धिकों से बिलकुल भिन्न थे[ix]
भारतीय समाज सुधारक और बौद्धिक शिक्षा द्वारा भारतीय समाज में नवजीवन का संचार करना चाहते थे. वहीं औपनिवेशिक शिक्षा ऐसे भारतीय जन का निर्माण करना चाहती थी तो उनका पहला सरोकार तो यह होता था कि शिक्षा नीति किस प्रकार से प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति सबसे अच्छे ढंग से कर सकती है’[x] (जैसा डेविड काफ कहते हैं उसके विपरीत भारतीय क्लासिकी कृतियों के अध्ययन और अनुवाद की ईस्ट इंडिया की प्रारंभिक नीति किसी सांस्कृतिक नीति का हिस्सा नहीं थी,बल्कि प्रशासनिक नीति का ही विस्तार थी )
जिन स्त्रियों ने यात्रा वृत्तांत लिखे उनके सामने पुरुषों के यात्रा वृत्तांत पथ-प्रदर्शक के रूप में उपस्थित थे. इन स्त्रियों ने औपनिवेशिक भारत में जेंडर के प्रतिबंधों के साए में रहकर ही यात्रायें भी कीं और वृत्तांत भी लिखे. ये वृत्तान्त जेंडर की दृष्टि से एक विमर्श की प्रस्तावना भी करते हैं. इनके लिखे वृत्तान्त औपनिवेशिक शासन के अभ्यासों के आलोक में जेंडर की अवधारणाओं को समझने में सहयोगी साबित हो सकते हैं. ये स्त्रियाँ लिखकर,पश्चिम की स्त्री की तर्ज़ पर अपनी मुक्ति का स्वप्न देखती हैं.
हरदेवी के यात्रा-वृत्तान्त को उनके लेख ‘स्त्रियों की दशा’ से जोड़कर देखना चाहिए. यद्यपि वे विदेशी भूमि पर अपने अनुभवों को लिखती हैं, ‘लन्दन यात्रा’ की शुरुआत में ही वे कहती हैं –
“सन 1886 के शुरू फरवरी महीने की नौ तारीख को हम सब लन्दन के लिए बंबे को रवाना हुए. इस दिन बसंत पंचमी थी-प्रात काल नौ बहुत से मित्र रिश्तेदारों सहित स्टेशन पर पहुंचे. यहाँ बहुत से स्त्री पुरुषों की भीड़ इधर उधर दौड़ रही थी जिन के आपस में एक दूसरे को बुलाने रेल में चढ़ने के लिए अकुलाये कर बालकों के चिल्लाने से बड़ा शोर सा मच रहा था स्टेशन पर भी गाड़ी के पास प्लेटफार्म पर सब लोग चढने के लिए इधर उधर भाग रहे थे चपरासी मजदूर सब दौड़ धूप में थे गाड़ी के अन्दर जो लोग लोग जल्दी से अस्थान ना पाने ना पाने के भय से पेहले ही बैठ जाया करते हैं… बहुत कोई धमकाये या किसी अंगरेज की आवाज सुन रो देते जिन के सुन्दर आंसुओ से धुले हुये मुख बहुत प्यारे मालुम देते थे, पानी फल मेवा मिठाई पूरी बेचने वालों की आवाज और भी कमरे अर्थात हाल को गुंजा रही थी… ”[xi] (लन्दन यात्रा, पृष्ठ 5)
परन्तु साथ ही साथ प्रभावी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिकाओं और उनकी परिभाषाओं पर भी टिप्पणी करती चलती हैं,उनकी इन टिप्पणियों को भारतीय स्त्री की भूमिका के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. उनका यात्रा वृत्तान्त इस बात की तस्दीक करता है कि स्त्री अपनी उड़ान भरने के लिए तैयार है. वर्जीनिया वूल्फ ने विक्टोरियन स्त्री के बारे में लिखा है कि उससे उम्मीद की जाती है कि वह पितृसत्ता को पोषण दे, कभी निजी मत न रखे यानी उसकी अपनी कोई सोच-समझ न हो.
स्त्रियों के यात्रा करने को घरेलू दायरे से हटकर सार्वजनिक दायरे में प्रवेश करने के रूप में देखा जाना चाहिए. ब्रिटेन में उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में स्त्रियों द्वारा लिखे यात्रा-वृत्तांतों की बाढ़ आ गयी. ब्रिटेन द्वारा उपनिवेश बनाये गए देशों के पर्यटन में स्त्रियों ने बड़े पैमाने पर दिलचस्पी ली, इनमें मैरी किंग्सले, इज़ाबेला बर्ड. इलेम एम् रोज़र्स के यात्रा संस्मरण प्रमुख हैं. लेकिन इस विक्टोरियन युग में स्त्रियों द्वारा अन्य कई विधाओं में लिखे हुए साहित्य की तर्ज़ पर इन यात्रा संस्मरणों की भी उपेक्षा की गयी, उन्हें पुरुष पाठक न के बराबर मिले. लेकिन इस दौर के यात्रा वृत्तांतों को पढ़कर कुछ बिंदु हमारे ध्यान में आते हैं, जिनमें साम्राज्यवादी नीतियों और विचारों के पक्ष -प्रतिपक्ष पर चर्चा मिलती है. दूसरी बात यह कि जेंडर के मुद्दे भी इन वृत्तांतों में अनुस्यूत हैं. मसलन यदि हरदेवी के यात्रा-वृत्तान्त को ही देखें तो यह वृत्तान्त महज एक यात्रा संस्मरण नहीं है बल्कि एक औपनिवेशिक व्यवस्था के यथास्थितिवाद से निकलकर अनजाने प्रदेश की यात्रा की चुनौती स्वीकार करना, साथ ही अपने खान-पान, रहन सहन के साथ बगैर किसी विशेष समझौते के लम्बी समुद्र यात्रा करना, स्वास्थ्य सम्बन्धी चुनौतियों, निरामिष भोजन और भाषा तथा सम्प्रेषण की चुनौतियों से रू-ब-रू होना दरअसल इतना सहज नहीं रहा होगा जितना दीखता है.
हरदेवी विदेश यात्रा पर जाने से पहले स्त्रियों के समूहों में अपनी संभावित यात्रा के बारे में बताती हैं. पर्दानशीन औरतों के समूह के लिए किसी स्त्री का विदेश गमन एक आश्चर्य की घटना थी. वे स्त्रियों से की गयी बातचीत को भी ज्यों का त्यों वृत्तान्त में लिख देती हैं. ‘लन्दन यात्रा’ में उन्हीं स्त्रियों के हवाले से लिखती हैं –
“दूसरे दिन बहुत सी बिरादरी की स्त्रियां मिलने आईं हमारा विलायत जाना तो इन लोगों पर आगे से विदत था इस लिये यह एक बड़े अचरज से हम को देखतीं और बहुत असभ्य विचारहीन प्रश्न भी करती थीं… यह विचारी जिन को कठिन परदे के कारण सिवाये मौत के कोई घर से बाहर निकाल नहि बिचार सकती कि एक हमारी जैसी परदे में रहने वाली स्त्री इतनी दूर विदेश में जाने का साहस कर सकती है जो कभी किसी अंगरेज की आवाज सुन कर रेल में गाड़ी के अन्दर ही घभरा जाती हैं और सूरत देख रंग फ़क हो जाता है उन के निकट जहाज में अंगरेजों के साथ बैठ कर जाना एक स्त्री का असंभव बात थी वे यह कहती थीं.
प्रश्न -क्या तुमने विलायत जाने के लिए और रास्ते की तकलीफें समुन्दर से डर पानी में जाने को अपना दिल मज़बूत बना लिया है. अंगरेजों में मुंह खोल कर तुम से कैसे बैठा जायेगा. उन से बातचीत करते हुए तुमहे डर नहीं लगेगा.
उत्तर -दूर देशों में जाने में कोई डर की बात नहीं है किन्तु एक प्रकार की ख़ुशी जो विदेश में नई चीजों के देखने से हुआ करती है होगी और जो लोग रात दिन उनमें जाते आते हैं वे भी हमारे तुम्हारे समान मनुष्य हैं भेद केवल इतना ही है कि वै पूर्ण स्वाधीनता से प्रथ्वी में भ्रमन कर अनेक विद्या लाभ कर स्वेच्छा से सुखी होते हैं. हम तुम जन्म से एक ही घर में रहने के कारण उससे दूर हैं और विचार भी नहिं सकतीं अँगरेज़ जाती के स्त्री -पुरुष भी हमारे समान ही मनुष्य हैं उन से बातचीत करने में कोई डर की बात नहिं और रहा परदा जिसे आज तुम अपनी पुरानी चाल कहती हो यह हमारे प्राचीन आर्य्यों की रीत नहिं है… इस वक्त न्याय शील अंगरेजों के राज में उस पुरानी दुखदाई रसम में अपनी बहू बेटियों को कैद रखना जिस से सिवाये उन को शिक्षा के बहुत सा उनका अपना भी नुकसान होता है जारी रखना अच्छा नहिं है. ”[xii]
सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्री की सीमित भूमिका को वह भ्रमण करके चुनौती ही नहीं देती बल्कि कई अन्य के लिए सीमित संसार के बाहर बृहत्तर संसार के दरवाज़े भी खोलती है. वह सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्री को शामिल किये जाने के पक्ष में आवाज़ भी उठाती हैं. यात्रा के दौरान अपने कष्टों का भी वर्णन खुल कर करती है–
“… सुबह के नौ बजे अहमदाबाद पहुंचे यहाँ पर कोई अच्छा स्थान न मिलने से सराय में उतरना पड़ा. दिन भर तो शहर के प्रसिद्ध अस्थान बाज़ार देखते बीता. रात को बड़ा कष्ट सहना पड़ा मालूम होता है मानो किसी नरक में डाल दिए गए हों मच्छर और खटमल एक पल भर को चैन नहिं लेने देते थे उधर दुर्गंधी के मारे सिर फटा जाता था गरमी का ज़ोर भी तिस पर ज्यादा खाये लेता था. हवा कहीं नाम को न थी सब के हाथों में पंखे कभी अन्दर कभी बाहर बहुतेरा झलते पर वह खून के पियासे मच्छर मेह की तरहां गर्ज़ गर्ज़ कर बरस रहे थे. आखर तड़प कर रात कटी सवेरे उठ कर देखे तो सब का शरीर सूज गिया है मुंह पर मानो सीतला सी निकल आई हो. ”[xiii]
हरदेवी अपने यात्रा-संस्मरण में सिर्फ अपने यात्रा अनुभवों को ही नहीं बतातीं बल्कि एक तरह का विमर्श भी तैयार करती है. वह दरअसल एक तरह का प्रतिरोधी विमर्श है जो स्त्री की भूमिका ‘घरेलू देवदूती’ से हटकर सत्ता और बौद्धिक व्यक्तित्व की भूमिका में देखने की कोशिश है. वह स्त्रियों के अपेक्षाकृत ‘कमज़ोर’ होने की सैद्धांतिक बहस से टकराती हैं और अपने को ज्ञान के दरवाज़े खटखटाती हुए देखती है -ये क्षमता उन्होंने जीवन को अपनी आँख से देखने के फलस्वरूप अर्जित की है, यात्रा के अनुभव से ग्रहण की है. इसके साथ ही वह पूर्व और पश्चिम की स्त्रियों, उनके ज्ञान ,चरित्र, स्वभाव की तुलना भी करती चलती है-
“…. कहाँ तक कहैं इस सौभाग्य देश की स्त्रीयें पूरी स्वाधीनता के साथ जीवन सुख का लाभ लै रही हैं,जिन्हें देख आजन्म पराधी ना दुरभाग्य भार्त वासनी भगनीयों का चित्र नेत्रों के आगे आये मन में अनेक कष्टों को उपजाता है,और धियान आता है कि हे जगदीश यदि प्रथ्वी पर तुमने समान वस्तुयें रची हैं और मनुष तो उनकी प्रारब्ध समान क्यूँ नहीं बनायी. हम अभागनी भार्त अबलायों ने क्या तुम्हारा अपराध किया है जिन की स्वाधीनता को तुम ने उन के भाग्य से एक दम जुदा कर दिया,हाय वह पराधीन पशु जीवन कब भोगेंगी,कब और किस युग के अंत में उन का उद्धार होगा वह कब मनुष्य योनि में आये जीवन को सफल जानेगी. ”[xiv]
यात्रा के दौरान वे निरंतर अपनी देश-भगिनियों की दशा के बारे में चिंतित हैं, इसे आत्म के परिविस्तार के तौर पर देखा जाना चाहिए. तत्कालीन समाज के यथार्थ चित्र उनके यात्रा-वृत्तान्त में हमें मिलते हैं. अपनी भगिनियों की दशा का चित्रण करके वे वस्तुतःभारतीय समाज में अशिक्षा और परदे को स्त्री की दुर्दशा के मूल कारणों के रूप में पहचानती हैं. जहाँ तत्कालीन समाज सुधारक कहीं भी स्त्री -पुरुष समानता की बात नहीं कर रहे थे वहीँ हरदेवी बताती हैं कि स्त्रियों के शिक्षित होने से,अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ने के लिए स्त्रियों को निजी प्रयास करने होंगे. पितृसत्तात्मक समाज -व्यवस्था में पुरुष वर्चस्व को कमज़ोर करने का काम वे लिखकर कर रहीं हैं,जबकि उन्नीसवीं सदी के समाजसुधारक कहीं भी स्त्री पुरुष समानता की बात नहीं करते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि स्त्री शिक्षा के बगैर स्त्री समानता की बात व्यर्थ है.
स्त्री शिक्षा वस्तुतः स्त्री के विकास की धुरी है,स्त्री की पहचान एवं आत्मनिर्भर छवि भी स्त्री शिक्षा के बिना संभव नहीं थी. लेकिन हरदेवी इससे आगे बढ़कर धर्मोपदेशों और ग्रंथों में अभिव्यक्त स्त्री विरोधी वक्तव्यों और विचारों की पड़ताल करती हैं और पितृसत्तात्मक मानसिकता (जो स्त्री और पुरुष दोनों की हो सकती है ) को स्त्री की दुर्दशा और उसके अधोपतन के लिए उत्तरदायी कारक के रूप में चिन्हित करती हैं. यही नहीं बल्कि वे भारतीय स्त्रियों को उनकी मानसिकता में बदलाव के लिए चैतन्य भी करती हैं देश-दुनिया की खोज-खबर रखने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करती हैं,इस दौरान वे स्त्रियों के भीतर पसरी जड़ता,आलस्य और पिछड़ेपन की कटु आलोचना भी करती हैं.
‘लन्दन यात्रा ‘पढ़कर यह पता चलता है कि हरदेवी निश्चित रूप से शाकाहारी रही होंगी. एक शुद्धतावादी भारतीय विधवा स्त्री के लिए विदेशी संस्कृति में रचे -पगे लोगों के साथ यात्रा करना बहुत सुखद नहीं रहा होगा. उन्होंने बताया है कि पानी के जहाज पर स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग -अलग केबिन बने हुए थे. हरदेवी इससे पहले पानी के जहाज से अपरिचित ही थीं. जहाज में यात्रियों के लिए नौकरों द्वारा भोजन परोसने का जिक्र वे करती हैं. इसका तात्पर्य यह है कि वे लन्दन यात्रा के दौरान द्वितीय श्रेणी के केबिन में यात्रा कर रही थीं. वे यात्रा के दौरान श्वेत स्त्री के दुर्व्यवहार का भी ज़िक्र करती हैं,नस्लभेद और औपनिवेशिक श्रेष्ठता के भाव से आपूरित अँगरेज़ स्त्री,जो संभवतः हरदेवी के केबिन में ही यात्रा कर रही थी,वह हरदेवी को मानसिक तौर पर परेशान. बिना प्रात:कालीन क्रियाओं के बिस्तर पर चाय -काफ़ी पीने के संस्कार उन्हें आहत करते हैं. वे दर्ज़ करती हैं –
“… चाह काफ़ी सब बिस्तरे पर ही मिल रही थी जो हम विदेशियों के लिए बड़ा अचम्भा था याने अँगरेज़ स्त्री पुरुष बिना हाथ मुंह धोये पड़े पड़े ही माखन रोटी चाह काफ़ी पी रहे थे. उपरान्त इस के ब्रेकफास्ट की तियारी होई और उसी कमरे में मांस लाया गया जिसकी दुर्गंधी तमाम जहाज में फ़ैल गयी पर किसी को उसमें तनक भी घृणा मालूम ना देती थी. हम विदेशियों का यह पैहला ही दिन मांस गंधी सूंघने को मिला था इस लिए मारे बदबू के मगज फटा जाता था बहुतेरा खिड़की से बाहर मुंह निकाल कर बैठने पर उस की सर्वत्र लपटें उठ रही थीं जी घबराता इस वक्त यह जहाज बड़ा दुखदायी मालूम दिया,आखर लाचार हो मुंह लिपटे बिस्तरे पर पड़े रहे. खाने की घंटी बजी सब स्त्री,पुरुष मुंह हाथ धोये कपड़े पहन अपने -अपने केबिनों से निकल कुरसियों पर आन बैठे खाना शुरू हुआ,सब प्रसन्न होकर आपस में हंसी ख़ुशी बातें करते जाते थे और उसी दुर्गंध मय मांस को बड़ी इच्छा के साथ भोजन कर रहे थे. इस भांति खा पी कर सब ऊपर चढ़ गए पर यह दुर्गन्ध दूर ना हुई. हमारे साथ कुछ अतर भी था जिसे निकाल रुमाल में लगाये सूंघा,जरा उस सुगंध ने अपना असर किया,हाथ -मुंह धोये कपड़े पेहने ऊपर जाए देखा जहाँ तक दृष्टि जाती पानी ही पानी नज़र आता,पहाड़ बृक्ष,जमीन का कहीं निशान तक दिखाई ना देता सब स्त्री -पुरुष बालिका -बालक इधर उधर खेल रहे थे कुछ कुरसियों बैंचों पर बैठे समुद्र को देख रहे थे,इस वक्त स्वच्छ वायु बड़ी धीमी और मंद गति से चल रही जिस्से तनक भी हाल नामालूम देती. ऐसा जान पड़ता मानो हम जमीन पर चल रहे हैं जहाज की छत सुन्दर सफा पानी से धोई हुई कहीं तृण तक दिखाई ना देता था. सब वस्तु मनुष्य सफा स्वच्छ दिखाई देते मलीनता का कहीं चिन्ह तक ना था. (लन्दन यात्रा,पृष्ठ 31)
लन्दन पहुँचकर होटल में ठहरने के अनुभव को उन्होंने खूब रुचिकर ढंग से लिखा है. स्पष्ट है ‘लिफ्ट’ की सुविधा हरदेवी के लिए नई रही होगी,जो कि स्वाभाविक ही है. वे लिखती हैं –
“सारा शहर लांघ कर रात के ग्यारह बजे नियत अस्थान अर्थात होटल में पहुंचे, यह शहर के दूसरे कोने और उसके ऊपर बड़ा भारी मकान है इस के नौकर बड़ी खातिर से पेश बड़ा भारी मकान है इस के नौकर बड़ी खातिर से पेश आये असबाब सहित हम सब को एक छोटे से कमरे में ले गए जो मखमल की गद्दी और शीशा गिलास से खूब सजा हुआ था उस में बैठते ही दरवाज़ा बंद कर दिया इससे बहुत शंकाएं मन में उठने लगीं इतने में मालूम हुआ कि वह कमरा ऊपर को उठ चला और एक मिनट में छठी मंजिल में पहुंचे, दरवाज़ा खोल दिया गया, इस उड़ने वाले कमरे ने और भी आश्चर्य में डाला बहुतेरा सोचा कुछ समझ ना आई सोने के कमरे जिन की सजावट का वर्णन लेख बढ़ने के भय से नहीं करते पर इतना कहना ज़रूर है कि शायद हमारे देश में किसी राजा महाराजा को जैसे नसीब होते होंगे. ”(पृष्ठ 81)
पानी के जहाज से यात्रा के बाद वे इटली, स्विट्ज़रलैंड होते हुए लन्दन पहुंची थीं,यह यात्रा उन्होंने रेल से की थी,हालाँकि वे इस दौरान एक बार भी किसी निजी प्रसंग का ज़िक्र नहीं करतीं लेकिन रेल मार्ग की प्राकृतिक सुन्दरता की चर्चा -बार -बार करती हैं –
“ रेल भी यहाँ निराली गति से चलती है पहाड़ों में ऊपर नीचे चढ़ने के भय से छै सात गाड़ी से ज्यादा इसमें नहीं लगाते और इस पर भी आगे पीछे दो इंजन जोते जाते हैं कहीं पर्वत के नीचे नीचे उनकी प्रदक्षिणा करती हुई दूसरे पर्वत पर जाकर निकलती है कहीं दूर लौं सांप और जोंक की तरहां बल खाती हुई चली जाती है जब पर्बत शिखर पर चढ़ जाती हैं तो नीचे तरफ देखकर बड़ा भय लगता है मालूम होता है अभी उलट पुलट होकर चूर हो जायेगी पर धन्य मनुष बुधि को, कि चोटियों को भी चीर मार्ग निकाला है,इनको यहाँ की भाषा में टनल कहते हैं अर्थात सुरंग,दूर से देखने में यह एकछोटा सा रंध्र दिखाई देता है जिस के अन्दर सूर्य का प्रकाश तो कभी गया ही नहीं. अन्धकारछिन्न सांप की सी बांबीमालूम देती हैं जिस में हमारी धूम्र वाहिनी बड़ी मंदर गंभीर गति से निर्भय होकर घुस जाती हैं और एक मुहूर्त में उसे लांघ दूसरे पर्बत पर पदार्पण करती हैं तब पीछे देखने से सुरंग मुंह से धुयें के गुबार के गुबार निकलते दिखाई देते हैं,मानो पर्वत के उदर में अग्नी लग गयी हो, फेर कहीं कहीं वह टनल पर्बत गर्भ विदीर्ण कर निकाली गयी है जिनके अन्दर प्रवेश करने से जान पड़ता था कि हम पृथ्वी तल से उठाये पाताल में ले जाए जा रहे हैं, ”[xv].
हरदेवी अपनी यात्रा के बारे में,रास्ते के प्राकृतिक सौन्दर्य के विषय में वर्णन करती हैं,ऐसा करते हुए उनकी भाषा काव्यात्मक हो जाती है. मसलन लन्दन की ओर रेल से जाते हुए स्विट्ज़रलैंड के मार्ग का वर्णन लिखती हैं –
“बीच -बीच में कहीं कहीं अँधेरी गहरी गुफा है जिनमें शेर और रीछादियों का वास अस्थान मुंह फैलाये मानों दाढ़ें निकाल भक्षण करना चाहती हैं. ज़रा भी रौनक नहीं,चारों तरफ सुनसान,न जाने प्रकृति अथवा विधाता को क्यूँ इस सुरम्य-सुन्दर देश बनाते -बनाते कोप आ गया अथवा थक गए होंगें,जो बीच में ऐसी भयानक रचना कर डाली. ”[xvi]
शिक्षा को लेकर भारतीयों और औपनिवेशिक शासन के उद्देश्यों में परस्पर भिन्नता होने के बावज़ूद संचार-साधनों और आवागमन के साधनों,अखबारों ने शिक्षा के विस्तार-विकास में तेज़ी लाने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी. के. एन. पन्निकर ने भारतीय मध्य वर्ग के सांस्कृतिक संसार की रचना में भारत में उपनिवेशवाद द्वारा दाखिल की गयी नई शिक्षा की भूमिका को रेखांकित करते हुए लिखा कि
“नई शिक्षा ने राज्य तथा उसके अभिकरणों के सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए बड़े -बड़े क्षेत्रों के द्वार खोल दिए… सांस्कृतिक अभियंतन तथा संस्थागत आचार -व्यवहारों के सहारे औपनिवेशिक शासन द्वारा किये गए इस नीति के परिष्कार तथा पल्लवन के फलस्वरूप समाज में शिक्षा कि एक ऐसी अवधारणा घर कर गयी जिसमें अंग्रेजी में पढ़ाई को खास महत्त्व दिया जाने लगा… औपनिवेशिक काल में छपाई के विकास ने नई शिक्षा की सांस्कृतिक अंतर्वस्तु के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. नई शिक्षा की संभावनाओं को छपे हुए शब्दों द्वारा, ‘संचार के नए ताने -बाने स्थापित करके,लोगों के लिए नए विकल्पों के द्वार खोलकर,और साथ ही जनता पर नियंत्रण स्थापित करने के नए साधन सुलभ कराकर भी साकार किया गया. ’[xvii]
हरदेवी विदेश की धरती से अपने देश,समाज विशेषकर स्त्रियों की पतनशील दशा को देखने की दृष्टि पाती हैं –
“…. कहाँ तक कहैं इस सौभाग्य देश की स्त्रीयें पूरी स्वाधीनता के साथ जीवन सुख का लाभ लै रही हैं,जिन्हें देख आजन्म पराधी ना दुरभाग्य भार्त वासनी भगनीयों का चित्र नेत्रों के आगे आये मन में अनेक कष्टों को उपजाता है,और धियान आता है कि हे जगदीश यदि प्रथ्वी पर तुमने समान वस्तुयें रची हैं और मनुष तो उनकी प्रारब्ध समान क्यूँ नहीं बनायी. हम अभागनी भार्त अबलायों ने क्या तुम्हारा अपराध किया है जिन की स्वाधीनता को तुम ने उन के भाग्य से एक दम जुदा कर दिया,हाय वह पराधीन पशु जीवन कब भोगेंगी,कब और किस युग के अंत में उन का उद्धार होगा वह कब मनुष्य योनि में आये जीवन को सफल जानेगी. ”[xviii]
स्पष्ट है विदेशी धरती जहाँ पढ़ी -लिखी कामकाजी स्त्रियाँ हैं,जो आत्मनिर्भर स्वाभिमानी हैं, कहें तो ‘एनलाईटेंण्ड’ हैं, उनका संपर्क हरदेवी को अपने देश की स्त्रियों की दशा से तुलना करने का अवसर देता है और अवसर ही नहीं वह दृष्टि भी देता है जिसके सहारे वे अपने देश की स्त्रियों की दुर्दशा के कारणों की पड़ताल बहुत कड़े शब्दों में कर पाती हैं.
श्रीमती हरदेवी राजनीति से समाजसुधार को अलग करके देखने के पक्ष में नहीं थीं. राधा कुमार ने अपनी पुस्तक में यह दर्ज़ किया है कि ‘सन 1892 में संपन्न हुए छठे राष्ट्रीय सामाजिक सम्मलेन में ‘भारत-भगिनी’ की संपादक श्रीमती हरदेवी रोशनलाल ने दृढ़तापूर्वक कहा कि राष्ट्रीय,सामाजिक,सम्मलेन कांग्रेस से अधिक महत्वपूर्ण संगठन है क्योंकि यह इस बात पर जोर देता है कि –
स्त्रियों का सरोकार पुरुषों के समान ही है
साथ-साथ दोनों उठते या गिरते हैं
वामन या ईश्वर की तरह
बंधनमुक्त या उन्मुक्त[xxi]
आम धारणा है कि स्त्रियाँ कमज़ोर होती हैं. वे संवेदनात्मक और शारीरिक दृष्टि से इसलिए यात्रा के कष्टों को सहने लायक नहीं होतीं. लोगों के अवचेतन में उनकी कमतरी का भाव विद्यमान रहता है. हरदेवी सत्ता में स्त्री की भागीदारी की ज़रूरत महसूस करती हैं. वे दर्ज़ करती हैं कि अधिकांश स्त्रियों को उनके जीवन का उद्देश्य ही मालूम नहीं है. इसलिए अक्सर परिवारों में वे मूलभूत अधिकारों से वंचित रहती हैं. हरदेवी स्त्रियों को अपने भीतर से अहसास-ए-कमतरी की भावना को ख़ारिज करने के लिए प्रेरित करती हैं और कहती हैं कि वे पढ़ी -लिखी हैं और अपने ज्ञान को दूसरों के साथ बांटने को तत्पर रहती हैं,जिसे एडवर्ड सईद ‘सेकेंड -आर्डर नॉलेज[xxii]
कहते हैं, वह इसतरह वह शिक्षा और ज्ञान की परंपरा में आदान -प्रदान की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाती हैं और उनके लिखने का ढंग ऐसा है ज्यों वे संबोधित करती हों.
अपनी यात्रा के दौरान वे जिन लोगों से मिलती हैं उनके बारे में विस्तार से लिखती हैं. यद्यपि पूरे यात्रा वृत्तान्त में वे विस्तार से अपने परिवारजनों के नाम नहीं लेतीं जो उनके साथ यात्रा कर रहे थे. वे अक्सर ‘हम’का प्रयोग करती हैं जिससे पता चलता है कि उन्होंने अकेले यात्रा नहीं की थी. उनकी लन्दन यात्रा में उनके भाई सेवाराम और उनकी पत्नी साथ थे. बम्बई में वे दादा भाई नौरोजी के घर ठहरी थीं. लन्दन यात्रा के एक महीने पहले यात्रा-पूर्व ज़रूरी तैयारी के लिए उनके भाई सेवाराम बम्बई पहुंचे थे. इस बारे में कहती हैं–
…बहुत से पारसी मित्र जिनमें भाई सेवाराम भी थे प्लेटफार्म पर हमारी प्रतिक्षा कर रहे थे. यह हमसे एक महीना पहले यहाँ आ गये. देखते ही दौड़ कर पिता के चरण पकड़ लिए और सब ख़ुशी ख़ुशी बाहर गाड़ीयों पर सवार होये नियत अस्थान तक हमें छोड़ गये(दादा भाई नौरोजी )एक पारसी मित्र की बड़ी सजी सजाई कोठी… (लन्दन यात्रा,पृष्ठ 13 )
अपनी लन्दन यात्रा के अनुभवों की अगली कड़ी के रूप में हरदेवी ‘लन्दन जुबिली’ (प्रकाशन 1888) लिखती हैं जिसकी सूचना ‘लन्दन यात्रा’ के अंतिम पृष्ठ पर दे दी गयी थी. उन्होंने बताया था कि वे अपने लन्दन प्रवास का ब्यौरा अगली पुस्तक में देंगी. लन्दन यात्रा के अंतिम अंश में हरदेवी लिखती हैं –
“प्रिय पाठिकाओं धीर्य और संतोषवती रहो कुछ दिन बाद लन्दन के विषय में भी अपना अनुभव तुमहारी सेवा में निवेदन करुगी अभी तो इस देश में हम नवागत विदेशी यहाँ की हर वस्तु से अपर्चित हैं कुछ नहिं जानते नव जात बालक की तरहां हमारे लिए यह नई श्रृष्टि है पास इस लिए अब मैं प्रणाम कर कुछ दिनों के लिए तुम से विदा होती हूँ. ” (लन्दन यात्रा पृष्ठ 131)
’लन्दन जुबिली’ के मुखपृष्ठ पर लिखा है–
“यह पुस्तक श्री हरदेवी ने देशीभाषा में रचकर भारतवासियों के लिए लन्दन से भेजा जिसको पंडित बंसीधर ड्राइंग मास्टर ओरिएंटल कालेज लाहौर ने शोधकर छपाया. न्यू इम्पीरियल प्रेस से सैय्यद रज्जब अली शाह के प्रबंध से छापा संवत 1945” इस पुस्तक की 300 प्रतियाँ पहले संस्करण में छापी गयीं. पुस्तक के अगले पृष्ठ पर महारानी विक्टोरिया का चित्र प्रकाशित किया गया है. प्रारंभ में ही उपहार शीर्षक से हरदेवी लिखती हैं
“जो वस्तुयें अत्योतम और नबीन नबीन रचना से लन्दन वासियों ने जुबली उत्सव पर जुबली नामक चिन्ह से बनाई थीं, सो वस्तुयें जुबली उत्सव की प्रसन्नता में अपने प्रिय वर्ग को परसपर उपहारार्थ दी हैं,जिसका किंचित अनुकर्ण यह जुबली नामक पुस्तक,जिसमें इस उत्सव का सम्पूर्ण वर्णन, तथा श्री मती महाराणी राजराजेश्वरी श्री विक्टोरिया के निज रचित पुस्तकों और उनके जीवनचरित्र में से भी किंचित लिख कर यह पुस्तक, उसी प्रकार अपने भारत निबासि पृयवर्ग को उपहार रूप अर्पन कीया जाता है, अर्थात जुबली भेट की जाती है, विश्वास है,कि यदि पृयवर्ग अपने कर कमल में ले कर कृपावलोकन से एक वार पुस्तक, के देखन से किंचित भी आनंदित होंगें तो यह श्रम सफल होगा,और मैं भी कृतकृत्य हूंगी.”
‘लन्दन जुबली’ में हरदेवी ने महारानी विक्टोरिया के जीवन-वृत्त का विस्तार से वर्णन किया है. विक्टोरिया के शासनकाल और उनके जुबली महोत्सव के अवसर पर लन्दन में होने वाले कार्यक्रमों की आँखों देखी रपट यात्रा-वृत्तान्त के इस खंड में है. जहाँ ‘लन्दन यात्रा ‘कुल 131 पृष्ठों में है, वहीं ‘लन्दन जुबली’ 62 पृष्ठों में सिमट गया है. हरदेवी विक्टोरिया के शासन काल को आदर्श मानती हैं तथा स्त्रियों का डेपुटेशन जो जुबली के अवसर पर विक्टोरिया से मिलने गया उसके बारे में लिखती हैं –
“हमारे विचार में यह उपहार सर्ब रत्नों से अधिक प्रिय हो कर चिरकाल स्पर्धनीय होगा,यदि स्त्री समाज की ओर से इससे बढ़कर अपनी राज भक्ति दिखाने का और कौनसा श्रेष्ठ अवसर उभय देश की स्त्रियों को मिलना था. ”[xxv]
साथ ही हरदेवी अपने भारतवासियों के अशिक्षित होने का संताप भी व्यक्त करती हैं कि इस अवसर पर भारतीय स्त्रियों की ओर से कोई उपहार महारानी की सेवा में नहीं भेजा गया. हरदेवी को कम से कम बंगाल की स्वचेतन स्त्रियों से इस उपेक्षा की आशा न थी वे आगे लिखती हैं–
“शोक है कि हिन्दुस्तान की स्त्रियों पर, जिनोंने थोरी भी श्रद्धा प्रकट न की और इस समय के प्रसाद से वंचित रहीं. हम को पूर्ण आशा थी कलकता ब्राम्हसमाज की सुशिक्षित स्त्रियें पुनः बम्बई आदिक से आवश्य कोई इस समय के उपयुक्त चिन्हित वस्तु श्रीमती की सेवा में भेजेंगी. सो आशा निष्फल रही. परन्तु निश्चय है कि किसी दिन अशिक्षित समाज सुशिक्षित होकर इस राज्य को स्मरण करने योग्य होगा “. [xxvi]
जुबली के अवसर पर लन्दन की रौनक, राज्य की तैयारी, सुरक्षा व्यवस्था, महारानी विक्टोरिया की शाही सवारी के गुजरने का मार्ग सबकुछ, हरदेवी ने इस पुस्तक में लिखा है. जिसका यह अर्थ है कि जुबली उत्सव की सभी सूचनाओं पर अखबारों के माध्यम से हरदेवी पैनी नज़र रख रही थीं. इसी वर्णन के दौरान वे भारत और लन्दन की तुलना भी करती हैं और आयोजन के सौन्दर्य का वर्णन खुले दिल से काफ़ी काव्यात्मक भाषा में करती हैं –
“बाज़ार के कोनों, रेल के स्टेशनों, तथा बड़े बड़े राज भवनों अर्थात बैग ,पिकचर, गैलरी, हास्पिटल, मियोजियम, लन्दनटावर, पारलेमिन्ट, आदिक और बहुत से चर्चों तथा कालिज, स्कूलों पर बड़े-बड़े ऊंचे रेशमी झंडे जिनपर पूर्वोक्त प्रकार के स्वर्णाक्षरों में श्रीमती की तस्वीर सहित जुबली लिखा हुआ था पवन से फहराई रहे थे, मानो श्रीमती के जुबली उत्सव पर हर्षित हो आकाश में नाचते थे,और सबको सूचन कराते थे, कि शीघ्र आओ इस जुबली उत्सव को देखो ऐसा मंगल दायक समय फिर कब मिलेगा… और यह पूर्बोक्त रचना केवल पूर्वोक्त स्थानों पर नहि समझनी चाहिए,किन्तु लन्दन के प्रत्येक गली कूचे बाज़ार तथा प्रत्येक घर वाटिका सहन राजभवन, पुल, इत्यादिक,इसी प्रकार इनपर भी यथासाध्य रचना की गयीं,और प्रतिघर जुबली मंगलाचरण था कहीं जुबली गीत कहीं विविध प्रकार के बाजे मधुर स्वरों सें बज रहे थे, किसी गली वा बजार में जाओ दरिद्री से दरिद्री का घर व दुकान इस शुभ चिन्ह से रहित न थी. ”(लन्दन जुबली,पृष्ठ 13)
हरदेवी के टेक्स्ट में उस समय की खड़ीबोली के स्वरूप का पता चलता है. पंजाब में आर्यसमाज के प्रभावस्वरूप उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ साथ पंजाबी के शब्द हैं. ’भारत-भगिनी’ के सम्पादकीयों में उर्दू के शब्दों का खासा प्रयोग देखने में आता है. लन्दन में देखी इमारतों, पार्कों, सड़कों का चित्रण वे विस्तार से करती हैं, उनके स्थापत्य आदि के विषय में भी बताती चलती हैं, रास्ते में पड़ने वाले पुल, प्राकृतिक दृश्य-सबका चित्रण करती हैं जिससे पता चलता है कि वे अपने अनुभवों को दूसरों तक पहुँचाने की जल्दी में हैं. हरदेवी स्वयं शिक्षा ग्रहण करने गयी हैं, शिक्षा ग्रहण के दौरान वे प्रेम में भी पड़ती हैं, जिन बैरिस्टर रोशनलाल से वे भारत लौटने पर विवाह भी करती हैं, लेकिन यहाँ गौरतलब है कि उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न और रोमांस वो भी लन्दन जैसी जगह में, जो अपने आस-पास के प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए जानी जाती है- हरदेवी अपनी ज़िन्दगी का मक़सद नहीं भूलतीं.
वे अपने वृत्तान्त में अपने पीछे छूट गयी बहिनों, जिन्हें शिक्षा का अवसर नहीं मिला, जिनके लिए विदेश यात्रा भी एक दूर का स्वप्न ही है- उन्हें संबोधित करती हैं. हरदेवी के विषय में उपलब्ध सूचनाएँ बताती हैं कि विदेश जाकर उन्होंने अच्छी अंग्रेजी सीखी यहाँ तक कि लन्दन से लौटने के बाद उन्होंने कई अच्छे लेख अंग्रेजी में लिखे. लेकिन जहाँ तक स्वदेशी स्त्रियों से सम्प्रेषण का सवाल है वे अपने अनुभवों के सम्प्रेषण के लिए हिन्दी का सहारा लेती हैं. हिन्दी का मानकीकरण तब तक हुआ ही नहीं था-
“यह वह समय था जब हिन्दी एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रही थी जिसका सिर्फ एक छोर उस मोर्चे से जुड़ता था जिस पर उसे 1900 ईस्वी में अदालती कामकाज में देवनागरी अक्षरों में लिखी जाने वाली हिन्दी को मान्यता मिलने के रूप में मिली… तब हिन्दी पश्चावर्ती ‘स्वदेशी’ और खादी की तरह ही एक राजनीतिक संकल्प की ध्वज वाहिका थी.”
इसलिए आज के पाठक को उनकी भाषा में व्याकरणिक भूलें दिखाई दे सकती हैं, विराम चिन्हों के प्रति भी उनका रवैया स्पष्ट नहीं है यहाँ तक कि अश्वमुद्रण में कई जगह वर्तनी की समस्या उनके प्रकाशक भी ठीक नहीं कर सके हैं. ध्यातव्य यह भी है कि वे अपने भारतीय स्त्रियोचित पहनावे को लेकर कहीं-कहीं असुविधा का सामना तो करती हैं परन्तु कहीं भी कुंठित नहीं होतीं, वरन भारतीय परिधान उन्हें जब आकर्षण का केंद्र बनाते हैं तो वे गौरवान्वित भी अनुभव करती हैं. वे अपने संस्मरण में पूर्व और पश्चिम की तुलना भी करती चलती हैं. वे लिखती हैं कि पश्चिम में बहुत लोग इकट्ठे हों तो भी शोर नहीं करते-मेले-ठेले में भी वे अनुशासन नहीं छोड़ते. वे पश्चिम की अच्छी आदतों और व्यवहार के प्रति प्रशंसा का भाव रखती हैं, उसकी सापेक्षता में भारत का पिछड़ापन उन्हें सालता है.
हरदेवी कृत ‘स्त्रियों पै सामाजिक अन्याय’ शीर्षक विनिबंध का प्रकाशन 1892 में हुआ. यह विनिबंध 16 पृष्ठों का है जिसके प्रथम पृष्ठ पर लिखा है– “श्रीमती हरदेवी लिखित इलाहाबाद के क्वीन प्रेस में पंडित स्वामीदयाल के प्रबंध से छपी. 27 दिसंबर सन 1892 ईस्वी. ”
यह विनिबंध स्त्रियों को रसातल की ओर ले जाने वाले कारणों पर विचार करता है, इसमें हरदेवी का समाजसुधारक रूप सामने आता है जिसका प्रतिबिम्ब हमें ‘लन्दन यात्रा’ और ‘लन्दन जुबली’ में पहले देखने को मिल चुका है. विनिबंध में वे हिन्दू धर्म शास्त्रों की आलोचना करती दिखाई देती हैं, जैसे मनुस्मृति के सन्दर्भ में वे लिखती हैं–
“यह किसी स्वार्थप्रिय स्त्रीकुल के शत्रु का रचा हुआ धर्म्म शास्त्र जिसे अधर्म्म्शास्त्र कहना चाहिए मालूम होता है अज्ञानी और मूर्ख विचारहीन पुरुष इसी की आज्ञाओं को प्राचीन मत समझ स्त्रियों के साथ अनेक प्रकार के अन्याय कर रहे हैं. इनकी संख्या करने से एक पुस्तक बन सक्ती है, इनमें से जो बड़े बड़े अन्याय यहाँ वर्णन करती हूँ.
पुत्र कन्या के पालन में भेद रखना
विद्या से बन्चित रखना
अज्ञानावस्था में बिबाह देना
अयोग्य वर से बिबाह कर देना
पुनर्विवाह से रोकना.
स्वामीनाथन और पिता के धन से भाग न देना
सहधर्मिणी स्त्री के जीवित दूसरा बिबाह कर लेना.”
हरदेवी ने इस निबंध में हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति हो रहे सामाजिक अन्याय के कार्य-कारणों पर विचार किया है. वे अशिक्षा और पर्दा प्रथा को स्त्रियों के पतन के मूल कारण मानती हैं इसके अतिरिक्त समाज में व्याप्त लैंगिक विभेद पर वे विमर्श रचने की दिशा में उद्धत हैं. वे ‘भारत भगिनी’ के सम्पादकीयों में भी लिंग-भेद के मुद्दों पर विमर्श शुरू करती हैं. इस अर्थ में वे अपने समकालीन पुरुष लेखकों से कहीं आगे हैं. जहाँ उनके समकालीन लेखक अपने लेखों में स्त्री शुचिता, पवित्रता, घरेलू ज्ञान, कामकाज और आदर्श स्त्री का गुणगान करते हैं, अपनी रचनाओं में अच्छी स्त्री और बुरी स्त्री का द्वित्व विलोम रचते हैं (मिरातुल उरुस, देवरानी-जेठानी की कहानी, वामा शिक्षक, भाग्यवती) वहीं हरदेवी अपने लेखों में बाल-विवाह, स्त्री की सामाजिक स्थिति, स्त्री शिक्षा की ज़रूरत, पर्दा-प्रथा पर विस्तार से चर्चा करती दीखती हैं. उनका मानना था कि स्त्री कमजोर और शोषित है और इस कमजोरी से वह जबतक स्वयं परिचित नहीं होगी, उसका उद्धार असंभव है,
अपने अधिकारों के लिए उसे स्वाधीनता की ज़रूरत है. यह स्वाधीनता दिमागी खुलेपन से आएगी, शायद इसीलिए वे बार -बार अपनी बहनों को संबोधित कर उन्हें विदेशी स्त्री की स्वाधीनता,उनके परिश्रम के बारे में बताती हैं. हरदेवी अपने समय की महत्वपूर्ण स्त्री-सम्पादक थीं और स्त्रियों को अपने शोषण के विरोध में चैतन्य होने के लिए आह्वान करती दीखती हैं, लेकिन साथ ही वे स्त्री की घरेलू भूमिका को भी उचित ठहराती हैं. यह भी ध्यातव्य है कि वे बारम्बार समाज सुधारकों, स्त्री हितैषियों को इस बात के लिए कुरेदती हैं कि वे स्त्रियों को शिक्षित करने, समाज में समानता देने की दिशा में निरंतर प्रयास करें, यहाँ उनकी भाषा कुछ- कुछ उपदेशक की हो जाती है.
पांच)
स्त्री साहित्येतिहास के सन्दर्भ में इतिहास में स्त्री-लेखन की जगह और काल निर्धारण का प्रश्न महत्वपूर्ण है. यदि स्त्री-मुक्ति की दृष्टि से विचार किया जाए तो सामाजिक, सांस्कृतिक या वैचारिक बिन्दुओं पर पुरुषों को मिली छूट और स्वतंत्रता बिलकुल भिन्न तरीके की रहीं और लगभग स्त्रियों के नितांत विपरीत. यूरोपीय पुनर्जागरण को देखने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है. शेष यूरोप की अपेक्षा इटली में 1350 से 1530 के बीच ज्यादा तेज़ी से आधुनिकता का प्रवेश हुआ. वस्त्र उद्योग और कपड़ा मिलों ने उत्तर सामंती सामाजिक संबंधों को नए सिरे से निर्मित किया. उद्योग धंधों के विकास और श्रम -रोजगार के अवसरों ने नए ढंग की सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के दरवाजे खोले, जिसके लिए यह पूरा युग जाना जाता है. बावजूद इसके, स्त्रियों के लिए इस पुनर्जागरण का कोई अर्थ नहीं था.
औद्योगिक विकास और श्रम के अवसरों ने स्त्रियों पर नकारात्मक प्रभाव ही डाला. प्राक-पूंजीवादी व्यवस्था, राज्य और उनके द्वारा बनाये हुए सामाजिक संबंधों ने पुनर्जागरण के दौर की स्त्रियों की स्थिति को उनकी सामाजिक हैसियत के अनुरूप अलग -अलग ढंग से प्रभावित किया. आभिजात्य और बुर्जुवा वर्ग की स्त्रियों के लिए नवजागरण (रेनेंसा) का अर्थ वही नहीं था जो साधनहीन, धनहीन स्त्री के लिए था.इसके अतिरिक्त जब भी हम पुनर्जागरण काल में स्त्री -पुरुष समानता या उनको मिले समानाधिकारों की बात करते हैं, हमें स्त्रियों के मुद्दे पर उनको मिली स्वतंत्रता के सन्दर्भ में अवश्य सोचना चाहिए. इस दृष्टि से जान केली के अनुसार चार बिन्दुओं पर सोचा जा सकता है: पुरुष यौनिकता की तुलना में स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण स्त्रियों की आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भूमिकाएं (स्त्री-पुरुष के बीच श्रम-विभाजन, स्त्रियों का संपत्ति पर अधिकार, राजनीतिक अधिकार, श्रम के लिए मिलने वाले पारिश्रमिक की दर-पुरुषों की तुलना में, शिक्षा और रोज़गार के अवसर आदि )
समाज की सामूहिक सोच के निर्माण में स्त्रियों की सांस्कृतिक भूमिका पर विचार साथ ही इस कार्य के लिए उन्हें शिक्षा की कैसी सुविधाएँ मुहय्या करवाई गयी हैं
समाज में स्त्रियों के बारे में किस तरह की विचारधारात्मक निर्मितियां कार्य करती हैं ? तथा कला, साहित्य और दर्शन के अंतर्गत किस तरह की स्त्री-छवि का अंकन किया जाता है ?
वैचारिक मानदंड के अंतर्गत हमें दो बातों पर ध्यान देना चाहिए, पहला तो अनुमान के आधार पर ये अंदाजा लगाना कि किसी समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति क्या है और स्त्रियाँ अपने बारे में क्या और कैसे सोचती हैं? पुरुषों द्वारा लिखे हुए साहित्य में स्त्री-यौनिकता का प्रश्न था ही नहीं, यहाँ तक कि पश्चिम के पुनर्जागरण में भी स्त्री-यौनिकता की भूमिका पर नज़र डालने से कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं. ध्यान रहे कि यह वही पश्चिम है जहां स्त्री -शिक्षा पर सबसे ज्यादा बल दिया गया. यौनिकता के सम्बन्ध में पुनर्जागरण के दौर में स्त्री मुद्दों मसलन प्रेम, विवाह, शिक्षा, परिवार के सम्बन्ध में पितृसत्ताक समाज का नजरिया क्या भारतीय समाज से अलग था या उनकी यौनिकता के बारे में वहां भी अवकाश का उतना ही और वैसा ही अभाव था जैसा कि भारत में. इसके अतिरिक्त निजी संपत्ति पर आधिपत्य के सन्दर्भ में पश्चिम में स्त्रियों की तुलनात्मक रूप से क्या स्थिति थी, यह जानना ज़रूरी है.
प्राक-आधुनिक और आधुनिक स्त्री रचनाकारों के विषय में जानकारी एकत्र करना, उनके लिखे हुए को सम्पादित करके प्रकाशित करना इतिहास में स्त्री-रचनात्मकता की अप्राप्य और उपेक्षित धारा की विलुप्त कड़ियों को जोड़ना है. भारत और पश्चिम में स्त्री के लिखे हुए की उपेक्षा के सन्दर्भ में आश्चर्यजनक समानता लक्षित होती है. यूरोप के पुनर्जागरण और भारत के नवजागरण में स्त्री के मुद्दों पर ढेर सारी समानताओं के बिंदु मिलते हैं. स्त्रियों के लिखे के विषय में जानकारी हो या उनकी रचनाओं के संकलन हों, तब इनकी खोज और विश्लेषण इतिहास और शोध की दिशा में नई संभावनाओं के द्वार खोलने में मददगार हो सकता है, यद्यपि पिछले बीस वर्षों में स्त्री-अध्ययन और लैंगिक अध्ययन केन्द्रों द्वारा ऐसी बहुत सी पुस्तकों और पांडुलिपियों की खोज की गयी है जिससे इतिहास की दरारों को भरने में मदद मिली है और विशेषकर स्त्री रचनात्मकता का मुकम्मल इतिहास लिखने की दिशा में प्रयास हुए हैं, फिर भी स्त्री रचनात्मकता के बहुत से पहलू अभी भी उपेक्षित और अनछुए ही रह गए हैं.
हरदेवी सत्ता में स्त्री की भागीदारी की ज़रूरत महसूस करती हैं, वे दर्ज़ करती हैं कि अधिकांश स्त्रियों को उनके जीवन का उद्देश्य ही मालूम नहीं है, अक्सर परिवारों में वे मूलभूत अधिकारों से वंचित रहती हैं.नवजागरण के दौर में कई आंदोलनों के सामने आने से मौलिकता एक आलोचनात्मक पद के रूप में विकसित हुई. इतिहास को देखने और इतिहास में शामिल होने योग्य विषयों की सारवस्तु बदली. हमने मौलिकता की सामाजिक भूमिका को देखना शुरू किया, साथ ही समाज को एक आलोचनात्मक दलील (क्रिटिकल आर्गुमेंट) के रूप में देखने की कोशिश भी. इस दौर के रचनाकारों में लोकचिंता अपनी पूरी अकादमिक ईमानदारी के साथ दिखाई पड़ती है. इस लोक-चिंता के स्वरूप को दलील के रूप में देखे जाने की ज़रूरत है. आज की आलोचना इतिहास का सन्दर्भ (रेफ़रेंस) तो देती है लेकिन आज के लिए उसे ‘प्रसंग’ के रूप में इस्तेमाल नहीं करती.
इतिहास आज कितने स्तरों पर संघर्ष करता है, उससे प्रसंग का निर्माण होता है. स्त्रियों के लिखे हुए को इतिहास से, अपने मूल्यांकन के लिए किन-किन स्तरों पर जूझना -टकराना पड़ता है,कैसे वे लिखकर प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती हैं, इससे ही ‘प्रसंग’ पैदा होता है. आज के युग का इतिहास जो एजेंडा देता है, रचनाकार उससे टकरा कर ही ‘प्रसंग’ का निर्माण कर सकता है. इतिहास ही नहीं, इतिहास लेखन की पूरी परंपरा से टकराती ये उपेक्षित स्त्रियाँ क्या अपने लिखे हुए के पुनर्विश्लेषण की मांग नहीं करती हैं? हरदेवी के यात्रा वृत्तांतों को इतिहास की धारा में अपने हिस्से की किश्ती तलाशती स्त्री के प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए.
संदर्भ
[i] ‘हिन्दू लेडीज़’ श्रीमती हरदेवी और श्रीमती सेवाराम के लन्दन पहुँचने तथा स्वागत की सूचना ‘द इंडियन मैगजीन’ के अंक 181-182, नेशनल इंडियन असोसिएशन, लन्दन ,1886 में भी प्रकाशित हुई थी
[ii] Minutes of proceedings of the Institution of civil Engineers,1888, संपादक जेम्स फारेस्ट ,लन्दन,खंड XCIV,पृष्ठ 313-317
[iii] भारत -भगिनी के सर्कुलेशन का ब्यौरा देते हुए लिखा गया है “प्रोपराइटर :श्रीमती हरदेवी, कायस्थ, एज -42 ,डाटर ऑफ़ द लेट राय बहादुर कन्हैयालाल,एग्जीक्यूटिव इंजिनियर, लाहौर एंड वाइफ़ आफ़ रोशनलाल ,बी.ए .बैरिस्टर एट लॉ (01) पब्लिशर इज़ हेमराज खत्री, एज 34; द पंजाब प्रेस ,1880-1905, नार्मन जेरल्ड बैरियर, पॉल वेल्ज़, अंक 14 औफ़ ओकेजनल पेपर्स: साउथ एशिया सीरीज़, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी एशियन स्टडीज़ सेंटर, प्रकाशक रिसर्च कमिटी आफ पंजाब, 1970
[iv] हिन्दू विडोज़ बाई वन ऑफ़ देम, रिटन बाय अ यंग विडो, एंड ट्रांसलेटेड बाय एन इंग्लिश लेडी; जर्नल आफ द नॅशनल इंडियन एसोसियेशन इन एड आफ़ सोशल प्रोग्रेस इन इंडिया, नवम्बर 1881, लन्दन, सी.केगन पॉल एंड कंपनी ,पृष्ठ 624 -630
[v] एस. एन. मुख़र्जी ,क्लास कास्ट एंड पॉलिटिक्स इन कलकत्ता, 1815-38, इन हिज कलकत्ता: मिथ्स एंड हिस्ट्री ,कलकत्ता 1977,पृष्ठ 59
[vi] पार्थ चटर्जी ,द नेशनलिस्ट रेसोल्युशन ऑफ़ वुमन कुएश्चन इन री-कास्टिंग वुमन :एसेज इन कोलोनियल हिस्ट्री ,सम्पादित कुमकुम सांगरी और सुरेश वैद, नई दिल्ली, 1989,पृष्ठ 233-53
[vii] मेर्डिर्थ ब्रोथविक,द चेंजिंग रोल ऑफ़ वूमन इन बंगाल :1849-1905, प्रिंसटन, 1984, पृष्ठ 83
[viii] सच्चिदानंद सिन्हा, द कायस्थ समाचार, अप्रैल, 1902, पृष्ठ 436 -437
[ix] राममोहन राय ,माडर्न एन्क्रोचमेंटस आन द एंसियेंट राइट्स ऑफ़ फीमेल्स‘,नाग और बर्मन ,इंग्लिश वर्क्स ऑफ़ राममोहन राय ,1 कलकत्ता ,1945,पृष्ठ 9.
[x] डेविड काफ ,ब्रिटिश ओरिएंटलिस्म एंड इंडियन रेनेसां ,बर्कले ,1969 ,पृष्ठ 13-21
[xi] लन्दन यात्रा , पृष्ठ 5
[xii] वही पृष्ठ 9
[xiii] वही पृष्ठ 11
[xiv] लन्दन यात्रा, पृष्ठ 120
[xv] लन्दन यात्रा,पृष्ठ 113
[xvi] लन्दन यात्रा पृष्ठ 113
[xvii] नेटाली जेमन डेविस ,सोसायटी एंड कल्चर इन अर्ली माडर्न फ़्रांस ,लन्दन 1965,पृष्ठ 190
[xviii] लन्दन यात्रा ,पृष्ठ 120
[xix] लन्दन यात्रा ,पृष्ठ 62
[xx] राधा कुमार ,स्त्री संघर्ष का इतिहास पृष्ठ 119
[xxi] राधाकुमार की पुस्तक में उद्धृत ,जहाँ श्रीमती रोशनलाल टेनीसन का उल्लेख कर रही थीं,सन्दर्भ सीतारामसिंह,नेशनलिज्म एंड सोशल रिफोर्म्स इन इंडिया :1885 -1920 ,दिल्ली ,रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्ज़,पृष्ठ 87
[xxii] ओरिएन्टलिज्म ,पृष्ठ 52
[xxiii] हरदेवी ,लन्दन यात्रा ,भूमिका पृष्ठ 1-3
[xxiv] लन्दन यात्रा, पृष्ठ 4 -7
[xxv] लन्दन जुबली, पृष्ठ 8
[xxvi] लन्दन जुबली, पृष्ठ 8
[xxvii] वही, पृष्ठ 6
[xxviii] लंदन जुबली,पृष्ठ 31
प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव |
ऐसे शोधालेख हिंदी में बहुत कम है। निश्चित रूप से जरूरी अनुसंधानात्मक दस्तावेज
एक दुर्लभ यात्रा वृतांत से हिंदी पाठकों को परिचित कराने के लिए लेखिका को साधुवाद.
ऐसे महत्त्वपूर्ण शोधपत्र के प्रकाशन हेतु समालोचन सम्पादक को धन्यवाद.
आपने श्री मती हर देवी के योगदान पर अच्छी रोशनी डाली है।
वे बिहार के बाबू सच्चिदानंद सिन्हा की धर्मपत्नी श्रीमती राधिका सिन्हा की बुआ थीं। इन्डिया लाइब्रेरी के संग्रहालय मे उनकी अंग्रेजी पुस्तिका “Pamphlet on Female Education and Female Rights” (Queen press Allahabad 1893) और उर्दू मे लिखी “Talim i tiflan. (The Kindergarten System of Instruction, Lahore, 1888) भी उपलब्ध हैं।
उनके विचार और कर्म का प्रभाव सारे देश के प्रबुद्ध समाज पर था। स्वामी विवेकानंद की “प्रबुद्ध भारत” पत्रिका के जून 1902 अंक मे उनकी समाज सेवा और परोपकार के कार्यों का उल्लेख है। तेलुगु लेखिका Bhandaru Acchamamba (1874 – 1905) की रचनाओं मे भी उनकी पुस्तकों का उल्लेख है।
जी आपने सही कहा .विस्तृत जानकारी पुस्तक ‘हरदेवी की यात्रा ‘ की भूमिका में है .
इस तरह के यात्रावृत्तों को पढ़ना भारतीय स्त्रयों के इतिहास से गुजरना है और स्त्री-इतिहास में सार्थक-सर्जनात्मक हस्तक्षेप भी। पितृसत्ता की चूलें हिलाने में यात्रा लेखिका श्री मती हरदेवी की ऐतिहासिक भूमिका को गरिमा जी ने बेहतरीन ढंग से लक्षित किया है। बधाई।
बहुत ही सुंदर दस्तावेज़ है।
एक बात पर ध्यान अटका – रायबहादुर कन्हैयालाल खुद को लाला हरनारायण कायस्थ जलेसरी हाल-ए-मुवत्तिन शहरे लाहौरी’।
जलेसर से होने के कारण यह स्पष्ट है कि कुलश्रेष्ठ (जनसंख्या दृष्टि से और शाकाहारी होने से अधिक संभावना ) या सक्सेना (उपजाति विवाह कम प्रचलित थे पर सक्सेना घरों मे माँस पकता था, भले ही स्त्रियाँ कम ही खाती थीं सो गंध से वितृष्णा नहीं होनी चाहिए) रहे होंगे।
एटा और हाथरस जिले का यह भाग कुलश्रेष्ठ कायस्थों का इलाका है। मेरा खुद का उपनाम गहराना – जलेसर के पास के गाँव के नाम से लिया गया है। मेरे एक जीजा जी Kamal B. Kulshrestha के पूर्वजों में कुछ लोग इसी इलाके से लाहौर जाकर बसे भी थे। हमारे परिवार में भी चर्चा रही थी कि कभी लाहौर के आस पास ज़मीनें खरीदीं गई थीं, पर कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता।
श्रीमती हरदेवी भटनागर कायस्थ थीं .जब उन्होंने रोशनलाल सक्सेना से पुनर्विवाह किया था तो इन दोनों के इस निर्णय का विरोध हुआ था ,समाज में कड़ी आलोचना भी हुई थी .हरदेवी शाकाहारी थीं ,उन्होंने अपने यात्रा वृत्तान्त में इसका ज़िक्र किया है .लखनऊ के हिन्दुस्तानी अखबार में विधवा हरदेवी के विवाह की खबर यूँ छपी “यूँ तो हम विधवा विवाह के हिमायती हैं ,विशेषकर बाल -विधवाओं के लेकिन अभी वह वक़्त नहीं आया है जब इस तरह की नई रीति की शुरुआत की जाय ;अभी भी लोग सामान्यतः विधवा विवाह का नाम सुनते ही घृणा से मुंह बिचकाने लगते हैं .समाज को धीरे धीरे सुधारा जाता है ,आकस्मिक और बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने पर समाज सुधार की प्रक्रिया विकसित होने की बजाय क्षतिग्रस्त हो जाती है .लाला रोशन लाल तो बहुत भाग्यशाली थे कि इंग्लैण्ड से वापस लौटने पर हिन्दू धर्म के अनुसार बगैर प्रायश्चित किये उन्हें जाति से बहिष्कृत नहीं किया गया .उन्हें विधवा से विवाह नहीं करना चाहिए था .विशेषकर किसी दूसरे समुदाय की विधवा से .वे एक सक्सेना कायस्थ हैं जबकि सुश्री हरदेवी भटनागर हैं ,और कायस्थ के इन दो वर्गों में अंतरजातीय विवाह स्वीकृत नहीं है .इस कारण अब उनका जाति बाहर होना निश्चित है .”(selections from the Vernacular Newspapers 1890-09-30:issue 39,Page 11.)
इतिहास में मौजूद विस्मृत स्त्री लेखन और उसके प्रभावों की विशद व्याख्या करता यह शोध आलेख हमें अनुसंधान की ओर प्रेरित करता है। इससे हमारी उपलब्ध जानकारियों और संवेदनाओं में अधूरेपन की पूर्ति होती है। आदरणीय मैडम के श्रम और कार्य को सादर साधुवाद।
19वीं सदी के अंतिम दशकों में एक भारतीय स्त्री का अंतर्मन बाहरी परिस्थितियों से किस तरह संवाद करता है और किस तरह के बदलाव उसके अपने जीवन-जगत और समाज में आते हैं, हरदेवी की यात्रा में यह सब कुछ दर्ज है। इतने महत्वपूर्ण पाठ को प्रकाश में लाने के लिए गरिमा मैम को बहुत बधाई।
मौजूदा दौर में जब इतिहास को काट-छांटकर उसका समरूपीकरण किया जा रहा है, ऐसे प्रस्थानों की ज़रूरत और बढ़ जाती है. वाक़ई यह केवल विस्मृत का प्रतिष्ठापन नहीं है, इससे हमारे इतिहास का वह लंबा गलियारा भी रौशन होता है जिससे गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँचे हैं.