• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » दीप्ति कुशवाह की कविताएँ

दीप्ति कुशवाह की कविताएँ

नासामुक्ता, कर्णफूल, मेखला, कंठहार, चूड़ामणि, वलय, बाहुबंद, नूपुर, ग्रीवासूत्र, मुद्रिका जैसे आभूषणों पर लिखी दीप्ति कुशवाह की ये कविताएँ देश और काल की यात्रा करती हैं. अलंकृत के तन को ही नहीं मन को भी आलोकित करती हैं, जिससे सदियों की संचित वेदना दिखने लगती है. ये निरे अलंकार नहीं हैं, दुःख-सुख के सहचर हैं. इनके होने से एक स्त्री-कथा आकार लेती है. आभूषणों का भी यह एक पाठ हो सकता है. ये कविताएँ इसे कुशलता से संभव करती हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 25, 2025
in कविता
A A
दीप्ति कुशवाह की कविताएँ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
अलंकरण: समय, स्मृति और स्वर
दीप्ति कुशवाह की कविताएँ 

 

नासामुक्ता

अनगिनत कामनाओं का श्रृंगार
असंख्य बिछोहों की साक्षी भी

नासिका की सुशोभन ढलान पर बूँद भर ठहरी रही
उष्ण सांसों का आह्वान लिए
नियति की संहिति में होने को विलीन

श्वास के सबसे समीप
रति की प्रथम आहट भी सुनती है
और अंतिम सिसकी भी

पद्मिनी के अरुणिम अधरों को चूमती
वह एक दुर्लभ कस्तूरी थी
रात्रि की चुप में बंधी अखंडित प्रतीक्षा
जो होम होने से पहले एक बार फिर काँपी थी

शहरज़ाद के शब्दों में सम्मोहन जगाती
मोती की मृदुल अभिव्यक्ति
हर कथा के अंत में जब सुल्तान का संदेह जागता
चिराग की लौ में सिहर उठती

इन सबसे परे कई नथें उतरती रहीं
चंद्रबिंब से झरती ज्योत्स्नाओं के रूप में
जो उषा की देहरी तक
पहुँचने से पहले ही राख हो गईं

नासालंकार मात्र अलंकार नहीं
अभिप्राय की मोहर है
कभी प्रेमिल अभिसार
कभी अवश विधि के विधान की.

 

 

 कर्णफूल

कानों की दहलीज पर झुके दो चंद्रमा
जिन तक पहुँचती हैं, शब्द से पहले की अस्फुट पुकारें

इनके दोलन में संचित हैं चाह की प्रतिध्वनियाँ
कभी किसी अभिषिक्त रानी की
कभी किसी नवोढ़ा की
जिसने दर्पण में पहली बार पढ़ी
अपनी लावण्यमयी देहभाषा

वे झूमते थे दिगदिगंत में बिजलियाँ समेटे
शिवगंगई की माटी में अब तक गूँजता है इनका नाद
जब घोड़े की पीठ पर सवार वेलु
रक्त से सँवार रही थी इतिहास

ये फूल नहीं
खुले-अनखुले रहस्य हैं
लय में डूबे मंत्र उच्चारण की तरह
जो कानों में बाद में
मन में पहले झूलते हैं.

 

मेखला

राजकन्याओं की कटि पर
धरा गया रेशमी अंकुश
वनवासिनी के वस्त्र को
गाँठ बन थामे रहने का सहारा

गति और ठहराव के बीच
संयम की वह डोर है मेखला
जो देह को लास्य में
और मन को तरंग में बाँधती है

अबक्का की कमर पर लिपटा यह बंध
जैसे लहरों ने सहेज रखे हों
उर्मियों के उजले चिह्न
एक जलीय मणि, चंद्रिका में जगमग

धरती की धूल में रची-बसी
दुर्गावती की कटिमाल
उसकी आदिम जड़ों में अटी एक स्फुर्लिंग थी
तरंगित हो उठती आंदोलन-सी
देह से विलग होकर भी
दीपशिखा सी दहकती है.

 

 

कंठहार

यह उच्चारण के पहले का संवाद है
ध्वनियों के जन्म से पूर्व
धड़कन की लय पर झूमता
हृदय की गहराइयों में डूबता-उतराता
एक मुखर अभिमंत्र

किसी तपस्विनी के
त्याग में झरते रहे कंठाभूषण
और मांगल्य की प्रत्याशा में
सौभाग्य के क्षितिज की बुनावट बने

यह संयोगिता की वरमाला है
जो निर्भीक हाथों से उठी
पुष्प की जड़ताओं को चीरकर
मोह के उद्घोष में बदल गई

ऐनी बोलिन की ग्रीवा पर
अंतिम स्पर्श की तरह ठहर जाने वाली
एक आर्द्र आकुल याद
प्रारब्ध की शिला पर
अनुत्तरित प्रश्न-सी फिसल गई

यह कंठ-प्रसाधन ही नहीं
समय के श्वासमार्ग में अटकी प्रतिज्ञा है
जो पूरी होकर भी विस्मृत नहीं होती
बल्कि किसी नई पुकार का
उपसंहार रचती है.

 

 

चूड़ामणि

शिखर पर ठिठका कोई श्लोक
धूप से भी उज्ज्वल
हिम से भी शीतल प्रभापुंज
जैसे कांचन किरणों में नहाया
श्री का इन्द्रनील
जो सोहता है शिरोरेखा पर

आभूषण नहीं तब चूड़ामणि
एक नेत्र था
जो प्रतीक्षारत रहा लंका के स्वर्ण
और अशोक की छाँह के बीच
एक अनकहे संदेश का वाहक
लिखा नहीं गया था तूलिका से
पढ़ा गया विरह की विकलता में

केशीय लहरों पर बहता कोई दीपक यह
समर्पित किसी नाम को
जलता रहा चिरंतन अनंत काल तक.

 

 

वलय

एक चक्र जो आरंभ और अंत के भेद को
मिटा देता है
अनुभूतियाँ बस आरोह-अवरोह में जीवित रहती हैं

करबंध से लिपटे वलय
कभी किसी विह्वल विदाई में होते विसर्जित
कभी प्रथम युति का उत्सव मनाते

वर्तुल परिधि में बंद हैं असंख्य समयरेखाएँ
जिन पर घड़ी की बालू गिरती रहती है
मोहनजोदाड़ो की चूड़ियाँ
विलुप्त सभ्यता के बाहर भी साँस लेती हैं

शोक की स्मृतियाँ भी
कंगन में जड़ी गईं
मॉर्निंग ब्रेसलेट की श्यामल आभा में
बचा रह जाता था टीसता विरह

चूड़ियों को छूती अंजुरियाँ
स्नेह की अर्चना संजो रखती हैं
यह काल के हस्ताक्षर की वह सुष्ठु लिपि है
जो नित्य नवीकृत होती रहती है.

 

 

बाहुबंद

नर्मदा के तट पर धूम में दिपदिपाता था
नील के किनारे रेत में धंसी देह से झाँकता था
युद्ध की गर्जना में कसता बाहुबंद
और प्रणय पलों में ढीला पड़ जाता था

नीलाभ जल में प्रतिबिंब देखती
कोई यक्षिणी डूबती है
अनावृत्त कंधों पर फिसलती
केयूरयुक्त बाहुओं की स्वप्निल गाथाओं में

रुद्रमा की रणभेरी में अंगारे बन दहक उठे
क्लियोपेट्रा के दुर्लंघ्य विश्वास में उतरे स्वर्णिम वशीकरण

स्त्रीदेह से लिपटे ये अभिमंत्रित रत्नचित्र
जो न हारे, न जीते गए
बस कोमलता और कठोरता से आप्लावित
धूप-छाँह में क्रीडारत रहे.

 

 

नूपुर

पगडंडियों से प्रासादों तक
चौपालों से नृत्यशालाओं तक
अपने अंतस की हिचकियों से
ध्वनियों के ग्रंथ रचते हैं नूपुर

इनकी अनुगूंज में जब भी खुलता है
विगत का पन्ना कोई
अरावली की गोद में थिरकते पग घुंघरू बाँध
उतर आते हैं
अगरु-गंध में डूबी वीथिका पर
जहाँ चरण आराधना के सर्ग रचते हैं
नेपथ्य में बजती है मोरपंखिया बाँसुरी

कहीं और
श्लथ पड़ी है सेज पर थिरकन नूपुरों की
प्रताड़नाओं के मौन में बिलखती
बंदिशों और बोलियों से आहत

मीठी बैरन भी हो जाती है पायल
जब कोई अभिसारिका चाहती है
ओस की बूँद-सी रिस जाना
रात की साँसों में निःशब्द घुलकर.

 

ग्रीवासूत्र

वक्ष पर उत्कीर्ण अलंकृत रेखा
कंठ की लय में बंधा एक स्पंदन है
कभी चंद्रकिरण-सी सिहरती
कभी सृष्टि की लय में घुलती
सुधियों की मृदुल ग्रंथि

इसके द्रव्य में संचित हैं
अदृश्य संकेत, सौंदर्य की सजीव मुद्राएँ
और कहे-अनकहे की स्निग्ध रेखाएँ
विवश यशोधरा ने इसे छोड़ा था
संन्यास की निर्मम निस्तब्धता में
जब अनुराग का संकल्प
निर्वाण की चौखट पर ठहर गया था

हर शपथ मौन की परिणति पाए
यह आवश्यक नहीं
ग्रीवा से लिपटे सूत्र की कणिकाएँ
वसंत के छोर थामे
अलक्षित प्रवाह में
संभावनाओं के संवाद रचती हैं.

 

मुद्रिका

हर मुद्रिका का होता है एक वृत्त
एक गोलाई जो लौटती है वहीं
जहाँ से चली थी
व्याकुल हिज्जों की चारुलता
जो प्रिय के नाम की आराधना में
उँगलियों पर लिखी जाती है

यह आसक्ति का आलय है
जो दो अस्तित्वों के बीच
निर्द्वन्द्व संवाद का सेतु बनता है

कभी यह शकुंतला की मुद्रिका
जिसे काल लील लेता है
पर परछाईं में अक्षय रहता है अर्थ
और कभी इफलैंड रिंग है यह
एक तरफ गर्व, दूजी तरफ श्राप से बंधी हुई
सृजन की पवित्रता और नियति की सीमाएँ
टिमटिमाती हैं एक साथ

जब कभी तर्क की आँधी बिखेरने लगती है
संपर्क के तंतुओं को
अँगूठी सहेज लेती है उनके अक्षांश और देशांतर
जो उसी पड़ाव पर लौट कर बताते हैं कि
बंधनों से मुक्त होना
सम्बन्धों से मुक्त होना नहीं है.

 

सन्दर्भ:

शहरज़ाद : प्रसिद्ध ‘अरेबियन नाइट्स’ की नायिका. वह फारस के राजा शहरयार की पत्नी थी, जिसने पूर्व पत्नी के विश्वासघात के कारण प्रतिशोध में प्रतिदिन एक नई रानी से विवाह कर सुबह उसे मार डालने का निश्चय किया था. शहरज़ाद ने हर रात राजा को रोचक कहानियाँ सुनानी शुरू कीं और हर कहानी को अधूरा छोड़ देती, जिससे राजा जिज्ञासावश उसकी हत्या टालता रहा. यह सिलसिला हजार एक रातों तक चला, जिसमें उसने अली बाबा और चालीस चोर, सिंदबाद जहाज़ी जैसी अनेक प्रसिद्ध कथाएँ सुनाईं. अंततः राजा ने उस पर विश्वास कर लिया और उसका वध नहीं किया. शहरज़ाद बुद्धिमत्ता, धैर्य और कथा-कला की प्रतीक थी, उसकी मोती की नथ का ज़िक्र होता है.
वेलु नाचियार (1730-1796) शिवगंगई, तमिलनाडु की वीर रानी थीं, जिन्हें भारत की स्वतंत्रता संग्राम की पहली महिला योद्धा माना जाता है. तस्वीरों में उनके दक्षिण शैली के कर्णफूल दृष्टिगोचर होते हैं.

रानी अबक्का चौटा (1525-1599) दक्षिण कर्नाटक के उल्लाल रियासत की वीर स्वतंत्रता सेनानी| उन पर जारी भारत सरकार के डाक टिकट में वे कटिमाल पहने दिखती हैं.
ऐनी बोलिन (1501 – 1536) : इंग्लैंड की रानी, एलिज़ाबेथ प्रथम की माँ. झूठे आरोपों में टॉवर ऑफ लंदन में सिर कलम कर दिया गया| इतिहास में एक महत्वाकांक्षी, बुद्धिमान और प्रभावशाली महिला के रूप में देखा जाता है.
मॉर्निंग ब्रेसलेट : विक्टोरियन काल में ब्लैक जेट स्टोन की चूड़ियां प्रचलित थीं, जिन्हें मॉर्निंग ब्रेसलेट कहा जाता था| प्रियजन के निधन के बाद शोक में पहना जाता था.
केयूर – बाजूबंद, बाहुबंद
रानी रुद्रमा देवी (१२५९-१२८९) : काकतीय वंश की महिला शासक. भारत में सम्राटों के रूप में शासन करने वाली बहुत कम स्त्रियों में से एक| घुड़सवार के रूप में युद्धभूषा पहनी प्रतिमाओं में उनका बाजूबंद द्रष्टव्य है.
इफलैंड रिंग : यह अंगूठी जर्मनी भाषा के महान अभिनेताओं और थिएटर कलाकारों को दिया जाना वाला एक प्रतिष्ठित पुरस्कार है. ऑगस्ट विलहेम इफलैंड जर्मनी के महान अभिनेता और नाटककार थे. 28 हीरों से सज्जित इफलैंड रिंग से पुरस्कृत व्यक्ति ही रिंग के अगले उत्तराधिकारी का चुनाव करता है. लेकिन यह उसके मरने के बाद पता चलता है. वह एक पर्ची पर नाम लिखकर एक तिजोरी में रख देता है. विएना स्थित उस तिजोरी की सख्त सुरक्षा की जाती है. जब मौजूदा इफलैंड रिंगधारक की मौत हो जाती है तो अधिकारियों का एक दल तिजोरी को खोलता है.
अभिशाप : 1911 में यह अंगूठी अल्फ्रेड बैसरमैन को दी गई. उन्होंने जिसे उत्तराधिकारी चुना, उसकी मौत हो गई. उन्होंने तीन उत्तराधिकारी बनाए और तीनों की मौत हो गई. उसके बाद बैसरमैन ने आखिरी उत्तराधिकारी के ताबूत के साथ अंगूठी को भी दफनाना चाहा. लेकिन ऑस्ट्रिया के बड़े प्लेहाउस बर्गथिएटर के निदेशक ने अंगूठी को बचा लिया. 1952 में बैसरमैन का निधन हो गया. उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी नहीं चुना था.

वर्तमान स्वामी : 16 जून 2024 को यह अंगूठी जर्मनी के महान थिएटर कलाकार जेंस हार्जर को भेंट की गई है. जेंस हार्जर से पहले प्रसिद्ध स्विस ऐक्टर ब्रूनो गैंज के पास यह अंगूठी थी. फरवरी में उनका निधन हो गया. गैंज विम वेंडर्स की फिल्म विंग्स ऑफ डिजायर में एंजल की भूमिका निभाने के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं.


दीप्ति कुशवाह
(नरसिंहपुर, मध्य प्रदेश)
‘आशाएँ हैं आयुध’ कविता संग्रह प्रकाशित
deepti.dbimpressions@gmail.com

 

 

Tags: 20252025 कविताएँआभूषण पर कविताएँकंठहारकर्णफूलग्रीवासूत्रचूड़ामणिदीप्ति कुशवाहनासामुक्तानूपुरबाहुबंदमुद्रिकामेखलावलय
ShareTweetSend
Previous Post

विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास : बसंत त्रिपाठी

Next Post

बुद्ध, कविता और सौंदर्य दृष्टि : गगन गिल

Related Posts

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ
समीक्षा

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

बाबुषा की ग्यारह नयी कविताएँ
कविता

बाबुषा की ग्यारह नयी कविताएँ

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा
समीक्षा

हार्ट लैंप : सरिता शर्मा

Comments 21

  1. Braj Shrivastav says:
    3 months ago

    दीप्ति कुशवाहा नवसृजन की मौलिक कवि रही हैं.एक अवकाश लेकर वह नया स्फूर्त लेकर फिर उदित हुई हैं. इन चेष्टाओं में हम कितनी नव्य भाषा देख रहे हैं. इन कल्पनाओं में समाकर कौन न निजता अनुभव करेगा, कौन न चकित होगा इन आभूषणों के काव्यात्मक वर्ण पर.
    एक महत्वपूर्ण श्रृंखला आई है. समालोचन का आभार.

    Reply
  2. हीरालाल नागर says:
    3 months ago

    दीप्ति कुशवाह की कविताओं ने मुझे अच्छा खासा झिंझोड़ा। यह पहली बार देख रहा हूं की कोई कवि किरदार पर नहीं, किरदार के उपादानों पर कविता लिखता है। सौन्दर्य की कमनीयता कोमल अंगों नहीं, उन पर धारण करनेवाले गहनों और आभूषणों से झलकती है। इन कविताओं के पीछे दीप्ति का वह विशद् अध्ययन कौध पैदा करता है, जिसमें मानवीय
    इतिहास की हजारों साल पुरानी संस्कृति और सभ्यता दिखाई देती है। महान कथाओं की नायिकाओं के सौन्दर्य की श्रीवृद्धि में इन गहनों और आभूषणों खा बड़ा हाथ है। उपभोक्तावादी संस्कृति आज की नहीं हजारों साल की है जो सौन्दर्य की मेखला को आज भी लालायित और आकर्षित करती है।
    दीप्ति को इन कविताओं के लिए बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

    Reply
  3. Teji Grover says:
    3 months ago

    सुन्दर और बेहद दिलचस्प कविताएं हैं यह। इन्हें एकबारगी पूरी तरह आत्मसात करना मुमकिन भी नहीं है, न होना चाहिए. सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अभिप्रायों की छटा इन्हें विशिष्ट बनाती है.
    सन्दर्भ अपने आप में भी कई कथाओं को सहेजे हुए हैं और इन्हें यहाँ देना उचित ही है. ऐसी कविताओं को नोट्स के साथ पढ़ना एक अलग काव्यानुभव है.
    बावजूद इस सबके पंक्तियों के बीच कुछ पुल अगर और टूट सकते, यानि हर कविता का तर्क इतना अकाट्य न होता तो और व्यंजना पैदा होती..
    हो सकता है बार बार पढ़ने पर आख़री बात ठीक न भी लगे मुझे।

    Reply
  4. Rustam Singh says:
    3 months ago

    सुन्दर और सुगठित कविताएँ हैं। काफ़ी समय बाद कुछ वाकई अच्छी कविताएँ पढ़ने को मिलीं। मैंने इनकी कविताएँ पहले नहीं पढ़ी थीं।

    Reply
  5. Pramod Kumar Rawat says:
    3 months ago

    अचरज करने वाली कविताएं l हिंदी कविताओं की अनेक धाराओं मे से ये एकदम अलग स्वर है l इनकी नवीणता, बाकी कविताओं से भिन्न है l आभूषण देखने की एकदम अलग दृष्टि है l

    Reply
  6. Neelima karaiya says:
    3 months ago

    बहुत ही सुंदर कविताएं हैं पढ़कर मन मोहित हो गया। संदर्भ देने के कारण कविताओं को समझना और सहज हो गया। बहुत ही सुंदर काव्यकला । भाव पक्ष व कला पक्ष !हर दृष्टि से उत्कृष्ट शब्द संयोजन भी काफी कुशलता के साथ किया गया है। बहुत-बहुत बधाइयांँ आपको इन बेहतरीन रचनाओं के लिये। अद्भुत रहा है इसको पढ़ना।

    Reply
  7. Anirudh Umat says:
    3 months ago

    भाषा का अपना वैभव, स्थापत्य होता है। अपना अतीत और अपना लोक भी। कौन रचनाकार इससे कितना संलग्न है यह उसके सृजन से लक्षित हो जाता है। इन कविताओं को पढ़ते लगता है कवि किस केंद्र किस विधि निवास कर रहा है। इस तरह रहे बिना ये रचनाएं संभव नहीं होती। यही बात आज अन्य रचनाकारों पर बनती है यदि वे अपने से इतर इन रचनाओं को भी कुछ स्थान दें तो समझ आएगा कि फांक है यहीं, कि वे कहां किस मुद्रा में अवस्थित है, निर्वासित हैं। इन कविताओं को आज की रचनाओं की तरह अखबारी विधि से नहीं पढ़ा जा सकता यही इनका सौंदर्यात्मक प्रतिकार है।

    Reply
  8. Pramod Kumar Rawat says:
    3 months ago

    आश्चर्य करने वाली कविताओं की श्रखलाओ की अनेक धाराओं मे से, एकदम अलग स्तर है l इनकी नवीनता बाकी कविताओं से एकदम अलग l आभूषओ को देखने का अलग अंदाज l मेरी शुभकामनायें एवं बधाई l

    Reply
  9. Dharmendra Kumar Maurya says:
    3 months ago

    अद्भुत लिखती हैं दीप्ति कुशवाह जी! पहली बार इन्हें पढ़ रहा हूँ। आश्चर्य होता है कि कोई रचनाकार कैसे किसी विषय को सामान्य से विशेष बना देता है अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से। ऐसे ही नहीं कहा गया है- “कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू।” नितान्त नये विषयों पर इतिहास तथा विश्व-साहित्य के चरित्रों के सन्दर्भ और प्रेम,वेदना तथा त्रासद विडम्बनापूर्ण प्रतीकों के माध्यम से एक स्त्री के जीवन की कारुणिकता व विवशता का स्वाभाविक चित्रण द्रष्टव्य है। मधुर, लालित्यपूर्ण, मर्मस्पर्शी व आत्मीय कविताएँ।

    Reply
  10. Sandeep Tiwari says:
    3 months ago

    शब्दों में कितना सम्मोहन है! चमक आभूषणों जैसी. ऐसी कविताएँ बहुत ठहर कर और श्रम से संभव होती हैं. बहुत अच्छी कविताएँ हैं. अच्छा लगा पढ़कर. बहुत बधाई💐💐

    Reply
  11. M P Haridev says:
    3 months ago

    कुछ पाठकों ने कवयित्री का नाम और उपनाम लिखा और कुछ ने नाम । उनकी विषयवस्तु पढ़कर याद नहीं किया जा सकता । दूसरी से पाँचवीं जमात तक रट रट कर पहाड़े याद किए थे । लय बनती, मज़ा आता । जैसे फ़ौजी बैंड को सुनते हुए । गणतंत्र दिवस के बाद २९ जनवरी की शाम चार बजे बीटिंग रिट्रीट समारोह को टीवी स्क्रीन पर सुनते हैं ।
    बहरहाल, तेजी जी ग्रोवर जानती हैं पंजाबी परिवारों में कम तरह के गहने पहनने का रिवाज था । ग़रीब पंजाबी परिवारों में कम आभूषण पहनते । गले के नीचे और गले के नज़दीक कंठाभूषण के नाम पर काली डोरी जिसमें ताँबे का पुराना एक पैसा या तीन या दोनों । कोई कोई डोरी में रक्ख बाँधती । हमारी माँ [बोली में भाभी] हार को गानी कहती । मुद्रा [दीप्ति जी ने क्या शब्द प्रयोग किया याद नहीं] अँगूठी उसे मुंदरी या छाप कहती । हमने माँ की कलाइयों में सोने की एक एक कम वज़नी [कम क़ीमत की] चूड़ी देखी ।

    अलबत्ता बुआ [भूआ] को दहेज [दाज] में दी पायल नहीं पाज़ेब की क़रीब पौने दो इंच चौड़ी और दोनों का वज़न क़रीब तीन सौ ग्राम था । वह खुर्द-बुर्द हो गई । अन्यथा विंटेज होती ।
    कविताएँ पहले से आकर्षक थीं । ऐतिहासिक संदर्भ देकर चमक भर दी । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म
    गुल हुई जाती है अफ़सुर्द: सुलगती हुई शाम
    धुल के निकलेगी अभी चश्म:-ए-महताब से रात
    और मुश्ताक़ निगाहों की सुनी जायेगी
    और उन हाथों से मस होंगे ये तरसे हुए हात

    Reply
  12. Nanu India says:
    3 months ago

    अचभित करने वाली कविताओं का संग्रह कविताओं की बिभिन्न धाराओं से एकदम अलग नवीनतम स्वर l बाकी कविताओं से हटकर l आभूषनो को देखने की नई शैली l बधाई एवं अभिनन्दन l

    Reply
  13. अनिमेष रावत says:
    3 months ago

    अपूर्व शब्दभंडार मिलता है इन कविताओं मे जो आजकल दुर्लभ है l कविताओं मे स्मृति लोक के साथ सार्थकता भी है l कवित्री के अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी होता जिसमे उन्हें पुरुस्कार अर्जित है तो जायदा बेहतर था l और हाँ उनका निवास पूना है नरसिंगपुर नहीं l

    Reply
  14. शरद कोकास says:
    3 months ago

    दीप्ति कुशवाह काफी पहले से कविताएं लिखती रही है । उनके पहले कविता संकलन आशाएं हैं आयुध के बाद “पहल” में प्रकाशित उनकी कविता “निर्वीर्य दुनिया के बाशिंदे ” ने सबका ध्यान आकर्षित किया था । दीप्ति नागपुर में रही हैं और दैनिक भास्कर अखबार के कला va संस्कृति संबंधी कालम का संपादन भी करती रही है ।फिलहाल पुणे में है। महाराष्ट्र सरकार के साहित्य अकादमी के पुरस्कार भी उन्हें मिले हैं कविता ही नहीं बल्कि गद्य भी वे बहुत सुंदर लिखती हैं। नरसिंहपुर मध्य प्रदेश उनका मायका है ।
    उनकी पहले की कविताओं की तुलना में इन कविताओं में शिल्प एवं कथ्य के स्तर पर भी बहुत विकास दिखाई देता है । व्यंजना इन कविताओं का प्रमुख गुण है। हां इस तरह की कविताओं को संदर्भ के साथ पढ़ना आवश्यक है इसलिए इन्हें बार-बार पढ़ा जाना चाहिए ताकि उनमें निहित अर्थ पूरी तरह खुल सके।

    Reply
  15. Sushil Manav says:
    3 months ago

    आदिम काल के आभूषणों का ग़ज़ब भाष्य विन्यास रचा है दीप्ति जी ने.. उनकी मेहनत कविताओं में झलकती है… समय – काल के सापेक्ष इन कविताओं के लिए जो भाषा गढ़ी है वो भी बेहतरीन है.. फ़ौरी तौर पर इतनी ही बात हो सकती है.

    Reply
  16. Rajaram Bhadu says:
    3 months ago

    कविताओं के साथ दीप्ति कुशवाह का परिचय नहीं है। दीप्ति वर्षों से लोक में प्रचलित शिल्प, दस्तकारी और हस्तकलाओं पर काम करती रही हैं। इन कलाओं में स्त्रियों की सर्वत्र महती भूमिका रही है। स्वाभाविक ही दीप्ति का ध्यान स्त्रियों के आभूषणों पर जाता, जहां से उन्होंने ये कविताएँ अर्जित की हैं। स्त्री- विमर्श आभूषणों का प्रश्न बहुत उलझा हुआ रहा है। एक तरफ इन्हें उन्हें स्त्री के लिए बंधनों की तरह माना गया है, तो दूसरी ओर स्वयं स्त्रियां उन्हें अपने आलंबन की भांति देखती रही हैं। दीप्ति इन कविताओं में इस अन्तर्विरोध को स्त्री- दृष्टि से ऐतिहासिक फलक में संबोधित करती हैं। उन्हें इनके लिए हार्दिक शुभकामनाएं और समालोचन को प्रस्तुतीकरण हेतु बधाई !

    Reply
  17. Pallavi vinod says:
    3 months ago

    आपकी कविताएँ अचंभित कर रही हैं। शब्दों का अलंकरण और भाषा की सरसता ने कविताओं को विशिष्ट बना दिया है। आभूषणों पर इतना सुंदर कवित्त पहली बार पढ़ा है। पढ़ने के संदर्भ पढ़कर इन्हें फिर से पढ़ने की इच्छा हुई।
    इन अनूठी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई आपको

    Reply
  18. सुधीर सक्सेना says:
    3 months ago

    सुंदर, लालित्यपूर्ण और परिष्कृत सर्वथा भिन्न रचनायें।ये नया पायदान रचती हैं और परंपरा में नया जोड़ती हैं।भाषा भावानुगामिनी।बिंब टटके।
    प्रेमोर्मियों का उद्दाम आवेग।
    दीर्घ परिश्रम और गहन अनुभूतियों की परिणति परिलक्षित होती है कविताओं में। जीवन के प्रति आसक्ति इनमें अंतर्धारा सी बहती है।
    बधाई कवयित्री को।

    Reply
  19. नीरज नीर says:
    3 months ago

    ये कविताएं कई बार का पाठ मांगती है। इन कविताओं के भाषा सौन्दर्य के गहरे प्रभाव में हूँ। बहुत बधाई दीप्ति जी इन उत्कृष्ट कविताओं के सृजन के लिए।

    Reply
  20. Vivek Chaturvedi says:
    3 months ago

    दीप्ति ने एक इस बार बात कहने का एक भिन्न मार्ग चुना है इसमें तत्सम की सीमाओं ने उनने स्वयं को बॉंधा है अभिव्यक्ति के विराट जगत में इस तरह से अपनी बागुड़ खुद लगाना उनके रचनात्मक साहस को ध्वनित करता है वे कविता में पहले स्पार्क के बाद गढ़न में शिल्प का धैर्य रखती हैं अपने अनुभव जगत में ये कविताएँ प्राचीन मूर्ति शिल्प की प्रतीति कराती हैं … बहुत बहुत शुभकामनायें दीप्ति

    Reply
  21. अनुराधा ओस says:
    3 months ago

    अद्भुत बिंब और अलंकार से युक्त,चमत्कृत करती हुई नए क्लेवर की कविताएं पढ़ रही हूं,दीप्ति जी की कविताएं नए वाक्य विन्यास पहन कर उपस्थित हैं।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक