भोजपुरी का पहला नाटक ‘देवाक्षर चरित्र’ और हिंदी-नागरी आंदोलन |
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जहाँ एक ओर भारतीय राजनीति और समाज में नई जागृति और सक्रियता का दौर शुरू हुआ. वहीं दूसरी ओर सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का विस्तार भी हो रहा था. राष्ट्रीय जीवन में अनुभव की जा रही इस जागृति और परिवर्तन से भारतीय भाषाएँ भी अछूती न रहीं, बल्कि वे ख़ुद ही इस जागृति का निमित्त बन गईं थीं. तमाम भारतीय भाषाओं में आधुनिकता की मनोवृत्ति के प्रसार का भी यही समय है. स्कूल और कॉलेज, पत्र-पत्रिकाएँ, सभा और संगठन, प्रिंटिंग प्रेस आदि ने सम्मिलित रूप में इस नवजागरण की भूमिका तैयार की.
सामाजिक-राजनीतिक जागरण की यह अनुगूँज भारतीय साहित्य में भी सुनाई पड़ रही थी. हिंदी साहित्य की ही बात करें तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र सरीखे लेखकों ने हिंदी नवजागरण की इस पूरी प्रक्रिया को गति देने में अहम भूमिका निभाई. जहाँ एक ओर इन लेखकों ने वर्तमान सामाजिक दशा पर टिप्पणी की, भारतीय समाज की तात्कालिक समस्याओं और रूढ़ियों को लक्षित किया, वहीं दूसरी ओर हिंदी भाषा को माँजने, उसे ‘नई चाल में ढालने’ का भी काम किया. निबंध, नाटक, व्यंग्य, इतिहास, जीवनचरित, कविता आदि विभिन्न विधाओं में इन लेखकों ने अपनी लेखनी चलाई, भाषा और शैली से जुड़े प्रयोग करने का साहस बटोरा. ‘कविवचन सुधा’, ‘हिंदी प्रदीप’ जैसी पत्रिकाएँ इसी दौर में निकलीं, जिनमें भाषा, साहित्य ही नहीं समाज, संस्कृति, राजनीति के तमाम ज्वलंत प्रश्नों को प्रमुखता से उठाया गया.
हिंदी में आधुनिक गद्य साहित्य का सृजन पहले-पहल नाटकों में ही हुआ. यहाँ भी भारतेन्दु ने रास्ता दिखाया, शुरू में तो उन्होंने बांग्ला के नाटकों के हिंदी अनुवाद किए. लेकिन आगे चलकर भारतेन्दु ने वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारतदुर्दशा, नीलदेवी, अंधेरनगरी, प्रेमयोगिनी जैसे मौलिक नाटकों की रचना की. इन नाटकों में भारतेन्दु ने ऐतिहासिक वृत्तांतों के साथ-साथ देश की वर्तमान दशा, धार्मिक व सामाजिक जीवन, पाखंड एवं कुरीतियों, देशी रजवाड़ों की स्थिति का वर्णन किया.[1]
उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु से पूर्व जो कुछेक नाटक लिखे गए थे, वे अधिकांशतः ब्रजभाषा में थे और उनमें नाटकत्व का भी अभाव था. ब्रजभाषा के इन नाटकों में रीवा के महाराजा विश्वनाथ सिंह कृत ‘आनंदरघुनन्दन’ और भारतेन्दु के पिता गिरिधर दास (वास्तविक नाम बाबू गोपालचंद्र) का लिखा ‘नहुष नाटक’ प्रमुख था. इसी प्रकार राजा लक्ष्मण सिंह ने कालिदास कृत अभिज्ञानशाकुंतल का ‘शकुंतला’ शीर्षक से अनुवाद किया. ध्यान देने की बात है कि राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा किए गए अनुवाद का गद्यांश हिंदी में तथा पद्यांश ब्रजभाषा में है, जो उस समय की काव्य-परम्परा के अनुरूप ही था.
नवजागरणकाल के आरम्भ में रचे गए नाटकों और उनमें अभिव्यक्त होने वाली सामाजिक चेतना के संदर्भ में रामस्वरूप चतुर्वेदी ने ठीक ही लिखा है कि ‘नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है. रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे ही उनका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है. इस स्थिति में पुनर्जागरण की व्यापक सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति के लिए नाटक ही सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम था. यों गद्य के क्षेत्र में नाट्य-माध्यम का पहला चुनाव करके भारतेन्दु ने अपनी सही ऐतिहासिक दृष्टि का परिचय दिया था.’[2]
भारतेन्दु और भारतेन्दु मंडल के दूसरे लेखकों ने न सिर्फ़ नाटक लिखे और रंगमंच को ज़रूरी प्रोत्साहन दिया, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर अभिनय करने में भी गुरेज़ नहीं किया. इसके साथ ही भारतेन्दु के समकालीन दूसरे लेखकों जैसे श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या, बालकृष्ण भट्ट, कृष्णदेवशरण सिंह ‘गोप’, काशीनाथ खत्री, देवकीनंदन त्रिपाठी, खड्ग बहादुर मल्ल, राधाकृष्ण दास, रामकृष्ण वर्मा, केशवराम भट्ट, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, अंबिकादत्त व्यास आदि ने भी नाटक लिखे. यही नहीं भारतेन्दु ने तो ‘नाटक’ विषय पर एक लंबा निबंध ही लिखा था. भारतेन्दु की इस बहुआयामी प्रतिभा के बारे में रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है कि :
अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परम्परा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचंद्र की श्रेणी में. एक ओर तो राधाकृष्ण की भक्ति में झूमते हुए नयी भक्तमाल गूँथते दिखाई देते थे, दूसरी ओर मंदिरों के अधिकारियों और टीकाधारी भक्तों के चरित्र की हँसी उड़ाते और मंदिरों, स्त्रीशिक्षा, समाजसुधार आदि पर व्याख्यान देते पाए जाते थे. प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का माधुर्य है.[3]
कुछ इन्हीं परिस्थितियों में वर्ष 1884 में बलिया निवासी पण्डित रविदत्त शुक्ल ने ‘देवाक्षर चरित्र’ शीर्षक से एक नाटक लिखा. जिसे ‘भोजपुरी का पहला नाटक’ होने का श्रेय प्राप्त है. हालाँकि इस नाटक में भोजपुरी के साथ-साथ हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी का भी प्रमुखता से इस्तेमाल हुआ. स्वयं रविदत्त शुक्ल ने इस नाटक को एक ‘हास्य रूपक’ (सीरियो-कॉमिक ड्रामा) की संज्ञा दी है. भोजपुरी के प्रसिद्ध अध्येता कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार,
‘भोजपुरी के सर्वप्रथम नाटककार पण्डित रविदत्त शुक्ल हैं और इनके द्वारा रचित ‘देवाक्षर चरित्र’ भोजपुरी का सर्वप्रथम नाटक है. भोजपुरी गद्य की विधाओं में नाटक का प्रादुर्भाव सबसे पहले हुआ और उन नाटकों में पं. रविदत्त शुक्ल का यह नाटक प्रथम स्थान का अधिकारी है.’[4]
देवाक्षर चरित्र : परिचय और पृष्ठभूमि
‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक का प्रकाशन बलिया की ही एक संस्था ‘आर्य देशोपकारिणी सभा’ के सहयोग से हुआ, जिसके अध्यक्ष तब बलिया के डिप्टी कलेक्टर मुंशी बिहारी लाल थे. बलिया के तमाम अधिकारी, रईस और ज़मींदार इस सभा के सदस्य थे. ‘देवाक्षर चरित्र’ का मुद्रण और प्रकाशन बनारस के गोपीनाथ पाठक द्वारा लाइट प्रेस से किया गया. ख़ुद रविदत्त शुक्ल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से गहरे प्रभावित थे. संयोग नहीं कि उन्होंने अपना यह नाटक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को ही समर्पित किया. उल्लेखनीय है कि 1884 में ही भारतेन्दु ने बलिया में आयोजित ददरी मेले में अपना प्रसिद्ध व्याख्यान दिया था. जिसका शीर्षक था ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’
उसी दौरान भारतेन्दु के सम्मान में बलिया इंस्टीट्यूट द्वारा एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें बलिया के कलेक्टर डी.टी. रॉबर्ट्स भी सम्मिलित हुए थे. ‘बलिया वाला भाषण’ नाम से प्रसिद्ध अपने इस व्याख्यान में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने तत्कालीन भारत की स्थिति, हिन्दी भाषा और हिन्दीभाषी समाज के बारे में अपने विचार प्रमुखता से रखे थे. उनके दो नाटकों- ‘सत्यहरिश्चंद्र’ एवं ‘नीलदेवी’- का मंचन भी उसी वर्ष बलिया में हुआ.
‘देवाक्षर चरित्र’ की भूमिका में रविदत्त शुक्ल ने लिखा है कि मुंशी चतुर्भुजलाल, जो बलिया के डिप्टी कलेक्टर (बन्दोबस्त) थे, ने बलिया में रामलीला को सुव्यवस्थित ढंग से और उचित रीति से करने का सुझाव दिया था. वैसे तो रामलीला बलिया में पहले से ही हो रही थी, किंतु चतुर्भुजलाल उसकी वर्तमान दशा व स्थिति से असंतुष्ट थे क्योंकि उनके अनुसार न तो उसमें सभ्य लोगों की रुचि होती थी और न ही उसका प्रभाव आम दर्शकों पर दिख रहा था. इसलिए चतुर्भुजलाल ने अपने मित्रों-सहयोगियों से सलाह-मशविरा कर बलिया में बढ़िया ढंग से रामलीला आयोजित करने का निर्णय लिया. इसके लिए बाक़ायदे चंदा इकट्ठा किया गया और रामलीला के आयोजन और उससे जुड़े प्रबंध को देखने के लिए एक समिति भी बनाई गई. समय व संसाधन के अभाव के बावजूद उस वर्ष रामलीला का मंचन सुंदर और प्रभावशाली ढंग से किया गया. जिसमें स्टेज, पर्दे और शामियाना का प्रबंध तो था ही साथ ही कलाकारों का अभिनय भी बेहतरीन रहा.
ख़ुद बलिया के ज़िलाधिकारी डी.टी. राबर्ट्स ने भी रामलीला देखकर उसकी मुक्तकंठ सराहना की. ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?’ शीर्षक वाले व्याख्यान के आरम्भ में ही भारतेन्दु ने डी.टी. रॉबर्ट्स का ज़िक्र कुछ इन शब्दों में किया है :
‘जहाँ रॉबर्ट्स साहब बहादुर ऐसे कलेक्टर हों वहाँ क्यों न ऐसा समाज हो. जिस देश और काल में ईश्वर ने अकबर को उत्पन्न किया था उसी में अबुल फ़ज़ल, बीरबल, टोडरमल को भी उत्पन्न किया. यहाँ रॉबर्ट्स साहब अकबर हैं तो मुंशी चतुर्भुजसहाय, मुंशी बिहारीलाल साहब आदि अबुल फ़ज़ल और टोडरमल हैं.’
जब बलिया में इस रामलीला का आयोजन हो रहा था, तभी रविदत्त शुक्ल के कुछ मित्रों ने उनसे सामयिक विषय पर कोई नया प्रहसन लिखने का आग्रह किया. जिससे लोगों को सुशिक्षा मिले और उनका मनोरंजन भी हो. अपने उन्हीं मित्रों से प्रेरणा लेकर महज़ दो-तीन दिन में ही रविदत्त शुक्ल ने ‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक लिखा, जिसकी भूमिका उन्होंने 1 अक्टूबर, 1884 को लिखी थी.[5]
उनके इस नाटक का उसी दौरान एक नाटक मंडली द्वारा मंचन किया गया, जिसकी स्थापना पण्डित मातादीन शुक्ल ने की थी. हज़ारों दर्शकों के सामने रविदत्त शुक्ल के इस नाटक का मंचन हुआ, जिसे अंग्रेज़ और भारतीय अधिकारियों और आम लोगों द्वारा सराहा गया.
‘देवाक्षर-चरित्र’ नाटक में कुल छह अंक (‘दृश्य’) हैं और यह कुल 47 पृष्ठों का नाटक है. इसके तीसरे और चौथे अंक भोजपुरी में हैं, जबकि शेष अंक खड़ी बोली में हैं. इसके साथ ही नाटक में कुछ अंश पद्य में है, जिसके लिए दोहा, सोरठा आदि छंदों का इस्तेमाल भी किया गया है.
‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक मुख्यतः कचहरी और अदालतों में, स्कूलों में देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा की वकालत करने के उद्देश्य से लिखा गया था.
ध्यान देने की बात है कि उस समय पश्चिमोत्तर प्रांत में हिंदी-नागरी आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दो-तीन दशकों में हिंदी-नागरी के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से बनारस, इलाहाबाद आदि कई शहरों में सभाओं की स्थापना हुई थी. ‘देवाक्षर चरित्र’ के प्रकाशन के नौ वर्ष बाद वर्ष 1893 में बनारस में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई थी, जिसने आगे चलकर हिंदी-नागरी आंदोलन में केंद्रीय भूमिका निभाई.
उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि की तुलना में हिंदी भाषा व देवनागरी लिपि की खूबियों और उसके महत्त्व का वर्णन भी इस नाटक में प्रमुखता से हुआ है. साथ ही, वस्तुस्थिति और आम जनता की सहूलियत को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ सरकार से हिंदी भाषा और नागरी लिपि की उपेक्षा न करने का आग्रह इस नाटक में किया गया है. उल्लेखनीय है कि उन दिनों पश्चिमोत्तर प्रांत की कचहरियों में फारसी लिपि का इस्तेमाल होता था और इसी के विरोध में हिन्दी-नागरी आंदोलन खड़ा हुआ. जिसकी प्रमुख मांग थी कि कचहरियों, अदालतों और स्कूलों में हिन्दी भाषा एवं नागरी लिपि के इस्तेमाल को वैधानिक स्वीकृति मिले.
हिंदी और नागरी लिपि की खूबियों का वर्णन करते हुए ‘देवाक्षर चरित्र’ में उर्दू और फ़ारसी लिपि से उपजने वाली भ्रम और संशय की स्थिति का भी विवरण दिया गया है. नुक़्तों के हेर-फेर से अर्थ का अनर्थ होने की हास्यास्पद स्थिति नाटक में दिखलाई गई है. जहाँ छप्पर के फेंकने के आदेश को ‘फूंकना’ पढ़ लिया जाता है और छप्पर फूंक दिया जाता है. या फिर ‘कश्तियाँ’ को ‘कस्वियाँ’ पढ़ लिए जाने से समस्या खड़ी हो जाती है. अकारण नहीं कि नाटक में अंग्रेज़ अधिकारी कहता है कि इन ‘नुक़्तों के फेर में सफ़ेद का स्याह राई का पहाड़, और ज़मीन का आसमान’ बनाया जा सकता है.
उल्लेखनीय है कि ‘देवाक्षर चरित्र’ के रचनाकाल के आस-पास ही हिंदी में भाषा और लिपि के प्रश्न पर कई अन्य महत्त्वपूर्ण नाटक भी लिखे गए थे. मसलन पंडित गौरीदत्त कृत ‘नागरी और उर्दू का स्वांग’, बाबू रत्न चंद्र द्वारा लिखित ‘हिंदी उर्दू का नाटक’ (1890) और सोहन प्रसाद कृत ‘हिंदी और उर्दू की लड़ाई’ (1886). ये तीनों नाटक क्रमशः मेरठ, प्रयाग और गोरखपुर से प्रकाशित हुए थे. ठीक उसी समय वर्ष 1885 में पंडित राम ग़रीब चौबे ने ‘नागरी विलाप’ नाटक लिखा था, जिसमें कचहरियों की भाषा उर्दू होने से हिंदी और नागरी की उपेक्षा और दुर्दशा का वर्णन किया गया था. उल्लेखनीय है कि यह नाटक भी बनारस के उसी ‘लाइट प्रेस’ से छपा था, जहाँ से ‘देवाक्षर चरित्र’ का प्रकाशन हुआ.
ज़मीन बंदोबस्त और सर्वे की हक़ीक़त
‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक में उस समय बलिया में चल रहे सर्वे और पैमाइश के काम, बन्दोबस्त की पूरी प्रक्रिया की जटिलता का वर्णन किया गया है. यहाँ भी भाषा का संदर्भ मुख्य है. नाटक में दिखाया गया है कि सर्वे का काम हिंदी और नागरी लिपि में न होने से आम लोगों और किसानों को कितनी तकलीफ़ उठानी पड़ रही थी. वे कचहरियों और वकीलों का चक्कर लगाने को मजबूर थे. उल्लेखनीय है कि बलिया ज़िले में वर्ष 1882 से 1885 के दौरान भूमि-बंदोबस्त का काम अंजाम दिया गया, जिसकी विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने का श्रेय बलिया के तत्कालीन ज़िलाधिकारी डी.टी. रॉबर्ट्स को जाता है.
उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में जब बलिया में ज़मीन सम्बन्धी सर्वेक्षण का काम शुरू हुआ. उस वक़्त बलिया ज़िले में ग़ाज़ीपुर से अलग हुए लखनेसर, कोपाचिट, ख़रीद के साथ-साथ दोआबा परगना भी शामिल था. रिपोर्ट में इन्हीं इलाक़ों का सर्वे सम्मिलित किया गया था. बलिया में बंदोबस्त की शुरुआत अगस्त 1880 में हुई. उसी दौरान विशेष रूप से नियुक्त किए गए डिप्टी कलेक्टरों द्वारा गाँवों की सीमाओं का निर्धारण किया गया. जिसके बाद सर्वे विभाग द्वारा बंदोबस्त विभाग को हरेक गाँव का नक़्शा सौंपा गया. भू-स्वामित्व सम्बन्धी दस्तावेज़ तैयार करने का काम नवम्बर 1882 में शुरू हुआ. इसके लिए एक परगना को कई सर्किल में बाँटा गया. हर सर्किल का काम अमीन के ज़िम्मे होता और अमीन मुंसरिम के अधीन काम करते. मुंसरिम आठ सर्किलों का ज़िम्मा सँभालता था और ज़िले के सभी मुंसरिम सदर मुंसरिम के अधीन होते थे. डिप्टी कलेक्टर द्वारा ख़ानापुरी सम्बन्धी काग़ज़ों की जाँच की जाती. इसके साथ ही वह ज़मीन से जुड़े सभी विवादों का निपटारा भी करता. आख़िरकार बलिया में बंदोबस्त का काम 31 अक्टूबर, 1885 को पूरा हुआ.
डी.टी. रॉबर्ट्स के निर्देश पर बलिया ज़िले में ज़मीन सम्बन्धी दस्तावेज़ फ़ारसी की बजाय नागरी लिपि में ही तैयार किए गए. इस निर्णय के पीछे रॉबर्ट्स द्वारा यह तर्क दिया गया कि कचहरी के अधिकारी और वक़ील आदि फ़ारसी लिपि से अनभिज्ञ हैं. बंदोबस्त विभाग द्वारा हिंदी में पहले खसरा तैयार किया गया और खसरा से जमाबंदी तैयार की गई. जिसे ज़मीन पर दावों और अन्य विवादों के निपटारे के बाद नागरी लिपि में अंतिम रूप दिया गया. उल्लेखनीय है कि फ़ारसी और नागरी लिपि के अलावा तब कैथी लिपि भी प्रचलन में थी, जिसे विशेषकर पटवारियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता था. जब यह बंदोबस्त सम्बन्धी काम बलिया में हो रहा था, तब भी कुछ पटवारियों ने कैथी लिपि में ही ज़मीन सम्बन्धी दस्तावेज़ सौंपे थे.
बलिया में सर्वे और ज़मीन बंदोबस्त की इस संक्षिप्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद अब हम वापस ‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक की ओर लौटें. नाटक में सर्वे का काम करने वाले अधिकारियों की मनमानी और आम लोगों में सर्वे के आतंक का वर्णन विस्तार से किया गया है. मसलन, एक ज़मींदार सर्वे विभाग के इस आतंक के बारे में नाटक में कहता है
‘जेहि गांव में ई लोगन कै डेरा डंडा पहुंचल उहां के लोगन कै परानै सूख जाला जान पड़ैला मानो जमराज कै सेना अकस्मात मानुष रूप धर के आइल हौ.’[6]
ख़ानापुरी की कार्यवाही पर भी ‘देवाक्षर चरित्र’ में व्यंग्य किया गया है (ख़ानापुरी मूलतः फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसके दो अर्थ होते हैं, पहला तो यह कि किसी फ़ॉर्म या रजिस्टर के ख़ानों को भरना और दूसरा केवल दिखाने के लिए बेदिली से कोई कार्य करना).
ख़ानापुरी की अलग-अलग व्याख्याएँ किसान और ज़मींदार द्वारा की जाती है. जहाँ किसान के अनुसार ख़ानापुरी का उद्देश्य वकील और मुखतारों की कमाई बढ़ाना और उनके लिए पैसा कमाने के नए-नए अवसर खोलना था. वहीं ज़मींदार ख़ानापुरी के बारे में मज़ाक़िया लहजे में टिप्पणी करता है कि ख़ानापुरी के इस काम में वे सभी इतनी बुरी तरह उलझे हुए हैं कि उन्हें घर की रसोई की बजाय हलवाई की बनाई हुई पूड़ी खाकर गुज़ारा करना पड़ रहा है. इसी वजह से ज़मींदार कहता है कि ख़ानापुरी का मतलब हुआ ‘पूरी खाना’.
किसान ख़ानापुरी के काग़ज़ात की अपठनीयता के विषय में कहता है कि ‘हमरे गांव में खनापुरी कै परचा बटल है से ओमें ना जानी का गुचुर बुचुर मकरी के टांग अस खांचल हौ. कुछ बूझी नाहीं परत.’ वह यह भी जोड़ता है कि अगर यही काग़ज़ नागरी लिपि में होता तो वह अपने बच्चे से पढ़ा लेता :
‘हमरे गांव में केहू फारसी पढ़ै वाला नाहीं बाय. भला नागरी में होत तो हमरै छोकरवा हल्काबन्दी मनरसा में पढ़ैला, टोय टाय के पढ़ि लेत.’
ज्ञापन, भाषा की राजनीति और अंग्रेज़ी राज की भाषा नीति
‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक में नागरी लिपि के प्रतिनिधि के रूप में एक पात्र है, जिसका नाम ‘देवाक्षर उपाध्याय’ है. अपना परिचय देते हुए देवाक्षर कहता है :
‘संस्कृत देव का बड़ा बेटा हूँ. यथार्थवादी हूँ अर्थात् जैसा लिखा जाता हूँ वैसा ही पढ़ा जाता हूँ.’
देवाक्षर द्वारा नागरी लिपि के पक्ष में अपनी बात एक मेमोरियल (प्रार्थना पत्र) के रूप में कही जाती है. इस मेमोरियल में जहाँ देवाक्षर एक ओर विल्सन, ग्रिफिथ, मोनियर विलियम्स, मैक्समूलर, बेलंटाइन, फैलन, ग्राउस आदि यूरोपीय विद्वानों का मत उद्धृत करता है. वहीं वह लॉर्ड रिपन के विचारों और शिक्षा आयोग की सिफ़ारिशों की भी चर्चा करता है. इस तरह नागरी लिपि के तमाम गुणों को गिनाकर और देशी-विदेशी विद्वानों के मत को बताने के बाद देवाक्षर यह सवाल करता है कि कचहरियों में इसका व्यवहार क्यों नहीं किया जाता. इतना ही नहीं नागरी के विरुद्ध दिए जाने वाले सभी तर्कों का भी जवाब देता है और इस बात पर ज़ोर देता है कि नागरी लिपि उर्दू और फ़ारसी लिपि से कहीं ज़्यादे सुविधाजनक है और इसका इस्तेमाल कचहरियों और स्कूलों में किया जाना चाहिए.
अंततः नाटक का समापन अधिकारी फ़ेयरप्ले द्वारा ज़मीन बंदोबस्त की ख़ानापुरी नागरी में करने के हुक्म के साथ होता है.
ग़ौरतलब है कि हिंदी-नागरी के पक्ष में दिए जाने वाले ज्ञापनों (मेमोरेंडम) की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में ही हो चुकी थी. शिक्षा विभाग में अधिकारी रहे राजा शिवप्रसाद ने 1868 में ही हिंदी का समर्थन करते हुए एक ज्ञापन लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘मेमोरेंडम : कोर्ट कैरेक्टर्स, इन द अपर प्रोविंसेज़ ऑफ़ इंडिया’. राजा शिवप्रसाद ने अपने मेमोरेंडम में सरकार से यह अनुरोध किया कि वह अदालतों से फ़ारसी लिपि को हटाकर हिंदी और नागरी लिपि का इस्तेमाल करे.
इसके पाँच साल बाद 1873 में हिंदी के समर्थकों द्वारा पश्चिमोत्तर प्रांत के लेफ़्टिनेंट गवर्नर विलियम म्योर को एक ज्ञापन सौंपा गया. वर्ष 1882 में जब शिक्षा के प्रश्न पर विचार करने के लिए हंटर आयोग की नियुक्ति हुई, तब हिंदी-नागरी के समर्थन में भाषाई संगठनों द्वारा 67,000 लोगों के हस्ताक्षर एकत्र कर भेजे तो गए ही साथ ही, हिंदी के पक्ष में हंटर आयोग को सौ से अधिक ज्ञापन भी सौंपे गए.[7]
इन ज्ञापनों में भाषा के हवाले से शिक्षा और रोजगार के अंतर-सम्बन्धों और उसे भाषाई अस्मिता से जिस तरह से जोड़ा गया, वह पूरी प्रक्रिया भाषा व सत्ता के जुड़ाव पर भी रोशनी डालती है. अकारण नहीं कि ‘देवाक्षर चरित्र’ में भी शिक्षा, भाषा और सरकारी नौकरी के सवाल को प्रमुखता से उठाया गया है.
हिंदी-नागरी आंदोलन में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ ‘देवाक्षर चरित्र’ के लिखे जाने के चौदह वर्ष बाद मार्च 1898 में तब आया, जब मदन मोहन मालवीय ने पश्चिमोत्तर प्रांत व अवध के तत्कालीन लेफ़्टिनेंट गवर्नर एंथनी मैकडोनेल को ज्ञापन सौंपा. मालवीय द्वारा तैयार किए गए इस ज्ञापन का शीर्षक था ‘कोर्ट कैरेक्टर एंड प्राइमरी एजुकेशन’. ज्ञापन के शीर्षक से ही स्पष्ट था कि मालवीय ने इस ज्ञापन में कचहरियों और स्कूलों में इस्तेमाल होने वाली भाषा और लिपि का मुद्दा उठाया था. अपने इस ज्ञापन में मालवीय ने 1837 से लेकर बाद के साठ वर्षों में ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेज़ी राज द्वारा उत्तर भारत में अपनाई गई भाषा नीति की समीक्षा की थी. जिसमें कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स, सदर बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यू, वाइसराय की व्यवस्थापिका सभा, पश्चिमोत्तर प्रांत के स्कूलों के डायरेक्टर जनरल द्वारा समय-समय पर लिए गए निर्णयों की विस्तार से नीर-क्षीर विवेचना की गई थी.
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1837 में गवर्नर-जनरल द्वारा बंगाल प्रेसीडेंसी में फ़ारसी की जगह देशी भाषाओं का प्रयोग करने का आदेश पारित किया गया. इसके दो साल पूर्व ही सागर के कमिश्नर एफ़.जे. शोर अपने क्षेत्र में फ़ारसी के स्थान पर हिंदुस्तानी और नागरी लिपि का प्रयोग शुरू कर चुके थे. कुमाऊँ जैसे पहाड़ी ज़िलों में भी अधिकारियों द्वारा 1835 से ही नागरी लिपि में लिखी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल किया जा रहा था.
वहीं बिहार में 1880 से ही नागरी और कैथी लिपि का प्रयोग आधिकारिक नीति का हिस्सा बन चुका था. बंगाल के लेफ़्टिनेंट-गवर्नर सर ऐशले ईडेन ने नागरी और कैथी लिपि को बिहार में बढ़ावा देने का निर्णय लिया था. वहीं पश्चिमोत्तर प्रांत में कैथी लिपि को लेकर अधिकारी वर्ग बँटा हुआ दिख रहा था. जहाँ 1871 में अवध के शिक्षा निदेशक कॉलिन ब्राउनिंग ने गाँवों के स्कूलों में कैथी लिपि के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी, वहीं उनके बाद शिक्षा निदेशक का पद ग्रहण करने वाले जे.सी. नेसफ़ील्ड ने ब्राउनिंग के उलट कैथी लिपि को सरकारी स्कूलों में प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई. बिहार और कुमाऊँ गढ़वाल में हिंदी व नागरी लिपि के आधिकारिक प्रयोग का उदाहरण ‘देवाक्षर चरित्र’ में आए मेमोरियल (प्रार्थना पत्र) में भी दिया गया है.
मैकडोनेल को दिए अपने ज्ञापन में मालवीय ने राजेंद्र लाल मित्र, रेवरेण्ड कैलॉग, जॉन बीम्स, फैलन, ग्राउस, फ़्रेडरिक पिंकाट, मोनियर-विलियम्स, आइजैक पिटमैन, अर्सकिन पेरी आदि के हिंदी भाषा और नागरी लिपि सम्बन्धी विचारों को अपने पक्ष में उद्धृत किया था. साथ ही, इसी विषय पर कलकत्ता रिव्यू, पायनियर आदि पत्रों में छपे लेखों की भी चर्चा भी मालवीय ने उक्त ज्ञापन में की थी. नागरी की तुलना में फ़ारसी लिपि को मालवीय ने ‘अवैज्ञानिक, अपूर्ण और अत्यंत भ्रामक’ बतलाया था.
हंटर आयोग द्वारा एकत्र किए गए आँकड़ों और उसकी सम्मतियों का इस्तेमाल भी मालवीय ने हिंदी-नागरी का पक्ष मज़बूत बनाने के लिए किया था. हिंदी-नागरी के समर्थन में मालवीय ने साक्षरता सम्बन्धी आँकड़े भी प्रस्तुत किए और यह तर्क दिया कि अन्य प्रांतों की तुलना में पश्चिमोत्तर प्रांत में साक्षरता की दर की कमी का कारण स्कूलों में हिंदी व नागरी लिपि का इस्तेमाल न किया जाना है. मालवीय के शब्दों में :
‘जब तक फ़ारसी और अरबी के शब्दों से पूरित होकर तथा फ़ारसी अक्षरों में लिखी जाकर उर्दू कचहरियों में उस निष्कंटक राज्य पद पर प्रतिष्ठित रहेगी, जो वास्तव में ब्रिटिश राज्य की नीति के अनुकूल हिंदी को दिया जाना चाहिए (क्योंकि उसी नीति के अनुसार न्याय विचार पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांत को छोड़कर सब प्रांतों में सरकार ने देश-भाषा का प्रचार किया है) तब तक जनता में हिंदी की विशेष उन्नति नहीं हो सकेगी और न विद्या और सभ्यता का प्रचार ही किसी प्रकार से संभव है’.[8]
ठीक यही बात 1884 में रविदत्त शुक्ल अपने नाटक ‘देवाक्षर चरित्र’ में लिख रहे थे. उनके अनुसार, ‘प्राइमरी एडुकेशन याने तालीम इब्तिदाई कभी कामयाब नहीं हो सक्ती जब तक नागरी अक्षर कचहरियों में न जारी किये जायंगे. जब तक कचहरी की वही ज़बान न होगी जो आम रिआया की ज़बान है तब तक हमारे सरिश्ते तालीम में लार्ड रिपन साहब के प्राइमरी एडुकेशन का कोई नतीजा नहीं हो सक्ता.’
‘देवाक्षर चरित्र’ के पात्रों के नाम भी ध्यान देने योग्य हैं. अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट का नाम ‘फेयरप्ले’ है, जो निष्पक्षता और न्यायप्रियता का संकेत देता है. अकारण नहीं कि नाटक के पात्र देवाक्षर द्वारा प्रस्तुत मेमोरियल में भी अंग्रेज़ अधिकारियों की न्यायप्रियता और विचारशीलता का हवाला दिया गया है. यही नहीं अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता का हवाला देने के लिए ‘देवाक्षर चरित्र’ में राजा शिवप्रसाद द्वारा लिखित इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘इतिहासतिमिरनाशक’ का भी उद्धरण दिया गया है. वहीं सर्वे विभाग के अधिकारी नाम मिस्टर बूबी है. अंग्रेज़ी में ‘बूबी’ शब्द अज्ञानी या मूर्ख व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया जाता है. किंतु नाटक में सर्वे विभाग का अधिकारी मिस्टर बूबी मूर्ख नहीं बल्कि चालाक और शोषक के रूप में सामने आता है, जोकि भारतीयों को हेय दृष्टि से देखता है.
अर्दली और सरिश्तेदार का नाम क्रमशः पीकदान अली और मुंशी पचक्को है. मुंशी पचक्को को अफ़ीमची, आलसी, सुस्त और चापलूस सरिश्तेदार के रूप में पेश किया गया है, जो कचहरियों में नागरी के इस्तेमाल की राह में अवरोध खड़े करने का प्रयास करता है. देवनागरी का प्रतिनिधि देवाक्षर है, तो किसान का नाम चिरकिट राय और ज़मींदार का नाम घोंघावसंत है.
इसके साथ ही नाटक में अंग्रेज़ अधिकारियों के भारतीयों के प्रति पूर्वग्रहों को भी दर्शाया गया है. मसलन, मिस्टर बूबी जोकि असिस्टेंट सर्वेयर है, अधिकारी फ़ेयरप्ले से कहता है कि हिंदुस्तान के लोग अभी इंग्लैंड की तरह सभ्य नहीं हुए हैं, इसलिए उनके साथ रहम और मुरव्वत से काम नहीं लिया जा सकता. वह हिंदुस्तानियों को ‘आधा जंगली’ बताते हुए कहता है ‘यहां का लोग अभी आधा जंगली है तो जंगली के साथ जंगली का माफ़िक बरताव करना अच्छा होता है.’ यह कथन उस उपनिवेशवादी मनोवृत्ति को भी दर्शाता है जिसके अनुसार उपनिवेशवादी शक्तियाँ एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के उपनिवेशों के बाशिंदों को “असभ्य और जंगली” मानकर उन्हें सभ्य बनाने के मिशन पर थीं.
‘देवाक्षर चरित्र’ की भाषा बिलकुल आम लोगों की बातचीत की भाषा है, सीधी, सरल और प्रवाहमान. ‘देवाक्षर चरित्र’ नाटक का महत्त्व रेखांकित करते हुए भोजपुरी के अप्रतिम विद्वान कृष्णदेव उपाध्याय लिखते हैं कि ‘अनेक दृष्टियों से इस अल्पकाय नाटक का बड़ा महत्त्व है. पहले तो यह भोजपुरी भाषा का सर्वप्रथम नाटक है, दूसरे इसमें तत्कालीन भोजपुरी समाज का बड़ा सुंदर चित्रण किया गया है. परंतु इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि आज से 90 वर्ष पूर्व इस नाटक के रचयिता ने नागरी लिपि का कचहरियों में प्रयोग तथा इसके प्रचार का प्रयास किया था.’
[1] आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी सहित्य का इतिहास (दिल्ली : प्रकाशन संस्थान, 2011 [1929]), पृ. 331.
[2] रामस्वरूप चतुर्वेदी, ‘हिंदी नाटक और रंगमंच का विकास’, रामकुमार वर्मा व अन्य (संपा.), हिंदी नाटक और रंगमंच (इलाहाबाद : हिंदुस्तानी एकेडेमी), पृ. 23.
[3] आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदी सहित्य का इतिहास, पृ. 332.
[4] कृष्णदेव उपाध्याय, भोजपुरी साहित्य का इतिहास (वाराणसी : भारतीय लोक संस्कृति शोध संस्थान, 1972), पृ. 312.
[5] पण्डित रविदत्त शुक्ल, देवाक्षर चरित्र (बनारस : लाइट प्रेस, 1884).
[6] पण्डित रविदत्त शुक्ल, देवाक्षर चरित्र, पृ. 17.
[7] क्रिस्टोफ़र आर. किंग, वन लैंग्वेज, टू स्क्रिप्ट्स : द हिंदी मूवमेंट इन नाइंटीन्थ सेंचुरी नॉर्थ इंडिया, पृ. 133.
[8] समीर कुमार पाठक (संपा.), मदन मोहन मालवीय विचार-यात्रा (नई दिल्ली : नैशनल बुक ट्रस्ट, 2013), पृ. 346.
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. हाल ही में जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत: राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन. ईमेल: kaushikshubhneet@gmail.com |
पढ़कर आश्चर्य है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कचहरियों में हिन्दी भाषा के प्रयोग करने का प्रयास किया । अंग्रेज़ों को मजबूर किया । उस समय भारतीय नागरिकों में अंग्रेज़ी भाषा का प्रभुत्व नहीं था । आज़ादी से पहले से ही अंग्रेज़ी की अनिवार्यता सिद्ध कर दी थी । ख़ासतौर पर मेडिकल की पढ़ाई अंग्रेज़ी, यूनानी और लतीनी भाषा के शब्द हैं ।
इसके बावजूद तत्कालीन आंदोलन समयानुकूल था । मुझे कैथी लिपि की जानकारी नहीं है । ज़िला स्तर की कचहरियों में भी युवा वकील हिन्दी भाषा में बहस करते हैं तो उर्दू और फ़ारसी लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं । ताकि बहस में प्राण फूँकें जा सके ।
कल का अंक पढ़ा था लेकिन टिप्पणी नहीं की । समालोचन ज्ञानवर्धक है ।
नाटक में कुछ नाटकीयता भी थी, या यह सिर्फ एक विचार का प्रचार था, भाई Shubhneet Kaushik? अपने घर में हिंदी की जो पहली साहित्यिक सामग्री मेरे हाथ लगी थी, वह भारतेंदु के नाटकों का संग्रह था। वैदिकी हिंसा और अंधेर नगरी जैसे उनके नाटकों के कुछ दृश्य आज भी मन पर छपे हुए हैं। लेकिन आपकी टिप्पणी से यह नाटक गहरे मानवीय भावों से असंपृक्त, किसी सरकारी प्रचार नाटिका जैसा ही लगता है, और कुछ भूमिका इसकी बिलकुल शुरुआती दौर में उर्दू विरोध का सांप्रदायिक माहौल बनाने में भी हो सकती है।
Chandra Bhushanभारतेंदु हरिश्चंद्र से प्रभावित जरूर थे रविदत्त शुक्ल। लेकिन भारतेंदु के नाटक जैसा प्रभाव पाठक पर छोड़ते हैं, उसका देवाक्षर चरित्र में अभाव है। उस दौर में कोर्ट कचहरी में नागरी लिपि के इस्तेमाल के पक्ष में अनेक नाटक लिखे गए, वे सभी प्रायः ऐसे ही हैं।
उर्दू से स्पर्धा नहीं थी। उर्दू लगातार हिंदी की अस्मिता पर आघात कर रही थी , उससे संघर्ष करना पड़ रहा था । सर सैयद अहमद खान ने कहा कि हिंदी गंवारों की भाषा है। स्पर्धा अंग्रेजी से थी।
हिंदी में उर्दू को बार-बार बहन कहा गया है। एक नाटिका में तो हिंदी ने उर्दू को बेटी भी कहा है। भारतेंदु उर्दू में गजलें भी कहते थे । रसा उपनाम से। प्रताप नारायण मिश्र उर्दू फारसी के अच्छे जानकार थे। पर जब राजनीतिक रूप से भाषा की सत्ता का प्रश्न आया तो इन सभी ने अपनी मातृभाषा का पक्ष लिया जैसे कि दूसरी मातृभाषा वाले अपनी मातृभाषा का पक्ष ले रहे थे।
बहुत रोचक जानकारी मिली भूमि सर्वे और भोजपुरी के पहले नाटक को लेकर , नागरी से भी संबंधित भी ।