देवी प्रसाद मिश्र की कविताएँ |
प्रेम
इस प्रेम की शुरुआत इस तरह से हुई कि
जब एक स्त्री ने फ़ोन लगाया और दूसरे
आदमी ने फ़ोन उठा लिया तो स्त्री ने यह
पूछा कि आप कौन बात कर रहे हैं और पुरुष
ने बहुत नर्मी से पूछा कि आप किससे बात
करना चाह रही हैं तो स्त्री ने कहा कि
फ़िलहाल तो वह बात करना चाह रही है तो
पुरुष ने कहा कि कीजिए बात और वे बातें
करने लगे और फिर रोज़ बातें करने लगे और
फिर इतनी बातें करने लगे कि बातें ख़त्म ही
न हों और फिर वे एक दूसरे से प्रेम करने
लगे और फिर ज़्यादा प्रेम करने लगे
और फिर इतना ज़्यादा प्रेम करने लगे कि जिसको
महसूस करना और फिर सहना मुश्किल होने
लगा और जब प्रेम को कह पाना और महसूस
करना और सह पाना हदों से पार होने लगा
तो उन्होंने कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं
और एक दूसरे को भेजनी लेकिन जल्दी ही
कविताएँ कम पड़ने लगीं तो उन्होंने पुराने
प्रेमों में लिखी कविताएँ नए प्रेम के लिए
प्रयुक्त करना शुरू कर दीं और इस तरह
पुराने प्रेम की सामग्री नए प्रेम में काम आने
लगी और यह काम दोनों ने ही किया और
दोनों के मन में यह भी था कि अगर कोई
अगला प्रेम करना पड़ा तो इस प्रेम की
सामग्री उस प्रेम में बख़ूबी काम आएगी.
गेम
मेरे बहुत बग़ल से गोलियाँ चलने की आवाज़ें
आ रही थीं तो मैं ने देखा कि एक आदमी
वीडियो गेम चलाए हुए था और उसका चेहरा
भिंचा हुआ था जिसमें मारने की क्रूरता थी
और जब उसने मुझे अपनी तरफ़ देखते हुए
देखा तो उसके चेहरे की हिंसा अधिक प्रगाढ़
हो गई और मैंने डर महसूस किया लेकिन
वह डर बहुत देर तक मेरे साथ नहीं रहा
बल्कि मेरे मन में यह आया कि उससे कहूँ
कि क्या उसके पास मनुष्य को बचाने का
वीडियो गेम भी है.
न मरने का कारण
यह पता नहीं किस तरह हुआ लेकिन हुआ
यही कि आज दोपहर का खाना खाने के बाद
जब मुझे नींद आने लगी तो मुझे लगा कि
मेरा अन्त हो रहा है.
मेरी नींद टूट गई.
मैं खिड़की की तरफ़ गया और मैंने सोचा कि
तब यानी कि मृत्यु के बाद खिड़की तक जाना
नहीं होगा और उसके बाहर देख पाना नहीं
होगा. मैंने चेहरे पर पसीना महसूस किया. मैं
ने अपनी अंत्येष्टि में आने वालों की फ़ेहरिस्त
बनानी शुरू की तो लगा कि किसी भी नाम
को लेकर मेरे मन में निश्चिंतता नहीं है.
मैं 12 वीं मंज़िल पर रहता हूँ. मैं लिफ़्ट की
तरफ़ गया और मुझे लगा कि मेरी मृत देह
को लिफ़्ट में ले जाना मुश्किल होगा.
उस दोपहर मरने के बाद के झंझट को देखते
हुए मैंने न मरने का फ़ैसला किया.
कंधे पर हाथ रखने की राजनीति
आए दिन ड्राइवर के कन्धे पर हाथ रखने
वाले और उसका वीडियो बनाकर फ़ेसबुक पर
डाल कर इस बात का मुज़ाहिरा करने वाले
कि वह अपने नौकर चाकरों से कितना
आत्मीय है एक मालिक के कन्धे पर जब
एक दिन ड्राइवर ने भी हाथ रख दिया तो
मालिक को कुछ समझ में आया और कुछ
समझ में नहीं आया कि यह हो क्या गया
कि ड्राइवर ने उसे उसके बराबर मान कैसे
लिया और उसकी हिम्मत कैसे हुई कि वह
उसके कन्धे पर हाथ रख दे कि यह उसकी
ही ग़लती थी कि उसने ड्राइवर को यह छूट
दी लेकिन अब वह करे तो क्या और ड्राइवर
को इसकी कौन सी सज़ा दे—वह लगातार
सज़ा के बारे में सोचता रहा और बहुत उचाट
रहा और कुढ़ता रहा और तड़पता रहा कि
कैसे इस बारे में सोचे न लेकिन और कुछ
उसके दिमाग़ में आता ही नहीं था सिवाय
इसके कि जो उसके बराबर नहीं है और
जिसने उसके बराबर होने की कोशिश की
उसके समान होने के दुस्साहस को किस तरह
से डील किया जाए तो उसने ड्राइवर को सबसे
बड़ी सज़ा देने का फ़ैसला किया जो मौत से
कम क्या होती तो उसने ड्राइवर को गोली
मारने का निश्चय किया और इस के लिए
एक सुनसान जगह पर ड्राइवर को कार रोकने
के लिए कहा कि वह पेशाब करना चाहता है
और ड्राइवर उसका तौलिया लेकर बाहर आ
जाए और जब ड्राइवर बाहर आ गया तो अपने
को मालिक समझने वाले ने उससे जिसे वह
अपने से बहुत छोटा समझता था कहा कि
उसे वह इस बात के लिए गोली मार देना
चाहता है कि मालिक के बराबर अपने को
समझने का ख़याल उसके दिमाग़ में आया
ही कैसे तो ड्राइवर ने कहा कि यदि रिवॉल्वर चलाना
ही है तो इसका ऐतिहासिक इस्तेमाल
कीजिए और सब बराबर नहीं हैं इस विचार
पर चला दीजिए गोली जिसे सुनकर मालिक
को कुछ ज़्यादा समझ में नहीं आया और वह
कुछ विभ्रम की स्थित में ही था तो ड्राइवर
ने मालिक के काँपते हाथों से पिस्तौल ले ली
और अपने को ऊपर समझने वाले पर गोली
चला दी यह कहते हुए कि सब बराबर नहीं
हैं के विचार पर मैं गोली चला रहा हूँ – एक
ऐसी हरकत जो अधीन माने जाने वाले द्वारा
अधिपति के कन्धे पर हाथ रखने के विचार
से अधिक मूलगामी, समकालीन और
फ़ोटोजेनिक है और सात्विक हिंसा का वक्र-
तिर्यक उदाहरण.
कहन
मैं एक ज़रूरतमंद की तरह उससे मिलता.
अमूमन वह किसी रेस्तराँ में मिलने के लिए
कहता. जगह के चुनाव को लेकर मैं घबराता
लेकिन मैं हाँ भी कर देता. मिलते ही वह
कहता कि मुझे तो भूख लगी है. आपको?
वह चाहता था कि मैं कहूँ कि मुझे तो नहीं
लगी है. लेकिन पैदल, बस, मेट्रो में हलकान
होने के बावजूद मैं स्याह चेहरे और सूखते
होंठों से उससे यह कहता था कि मुझे भूख
नहीं लगती. इससे वह जितना आश्वस्त होता,
शर्मिंदा भी उतना ही.
सब कुछ को लुटा देने का सुख
मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने
गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है.
और कहीं गैस तो नहीं खुली है.
और अगर नल खुला रह गया होगा…तो.
और अगर हीटर चला रह गया होगा…तो.
मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा.
हो सकता है कि घर राख मिले या पानी में
डूबा.
हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है.
मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
विस्मित होता रहूँ.
और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
दिखे उसे.
टिफ़िन लेकर बदलाव के लिए निकलना
वे पिछले कुछ दिनों से तानाशाह को हटाने
के कारोबार में लगे थे.
वे सुबह ही निकल जाते थे.
यह स्वतंत्रता के लिए घर से निकलना था.
कुछ लोग टिफ़िन लेकर जाते थे.
पूरे दिन लड़ना है तो दोपहर का खाना लेकर
निकलना चाहिए.
लेकिन यह शाम को न लौटने के लिए जाना
था.
यह तीसरे दिन भी न लौटने के लिए जाना
था.
यह बदलाव के लिए मारे जाने के लिए जाना
था—शहर के चौक की तरफ़ दोपहर का खाना
लेकर.
अकारण
यह एक अजीब समाज है
तिपहिया में बैठे लोग ड्राइवर की तरफ देखेंगे भी नहीं अगर तिपहिया का धुरा टूट जाए
और वह कहे कि भाई साहब ज़रा सा तिपहिया में हाथ लगा दीजिए और उठा दीजिए
यह समाज कृतघ्न समाज कब बन गया
कोई याद नहीं करना चाहता
कोई किसी के लिए ज़िम्मेदार नहीं दिखता
कोई किसी की मदद के लिए नहीं रुकता
विद्रोह का कारण उनके पास है
जिनका घऱ ढहा दिया गया
जो भूखे हैं उनके पास
युद्ध के बड़े कारण हैं
नाराज़ होकर इकट्ठा होने के इतने कारण हैं कि
असंगठित होना आपराधिक होना है
तमाम कारण हैं जिस समाज के पास वह
अकारण होता जा रहा है
कबाड़
घरों से कूड़ा ले जानेवाला न चलती बैटरियाँ
और न चलती बच्चों की साइकलें लेकर जा रहा है
फ़र्नीचर जिन पर बैठकर कमज़ोर लोगों के विरुद्ध फ़ैसले लिए गये
वे मृत्यु की तरह पड़े हुए हैं उन्हें ले जाता है एक लँगड़ाता हुआ आदमी
न चलती राजनीति और न चलता समाज
और न चलता यह ढाँचा उसके कबाड़ का हिस्सा हो
मेरी तरह आप यह चाहें या नहीं किसी दिन वह लँगड़ाता हुआ आएगा ज़रूर
फटे पुराने कपड़ों में
और सदन के महाद्वार पर दिखेगा कि इस कबाड़ को ले जाने आया हूँ
पता नहीं इसे वह रिसायकिल करेगा या जला देगा
अपील
दोपहर का वक़्त है
यात्री कम हैं
छोटा सा स्टेशन जहाँ
पटरियों के पार उस ओर बाईँ तरफ़ दूर जहाँ प्लेटफ़ॉर्म शुरू या ख़त्म होता है
एक लड़का एक लड़की का हाथ अपने हाथ में लेने के बाद उसे चूमना चाहता है
मैं अपना चेहरा दूसरी तरफ़ कर लेता हूँ
कि न लगे कि मैं उन्हें देख रहा हूँ
मैंने दुनिया में प्रेमियों के लिए जगह बनाई
आप भी यही करें
____________
कवि-कथाकार-विचारक-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ ज़िले के रामपुर कसिहा नामक गाँव में अपनी नानी के घर में हुआ. बचपन पिता के स्थानांतरणों के साथ ग्वालियर, रीवा, इलाहाबाद में बीता. पढ़ने में वह हर कक्षा में अव्वल रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए करने तक. पता नहीं क्या ख़ब्त थी कि पूरे दो साल के अध्ययन के बाद एम.ए. (इतिहास) की फ़ाइनल परीक्षा में नहीं बैठे. इस तरह भटकने का सर्टिफ़िकेट लेकर बेमन कभी यहाँ, कभी वहाँ इलाहाबाद, दिल्ली और बंबई में पत्रकारिता के संस्थानों में कुछ-कुछ समय काम किया. कॉलम लिखे. फिर बचपन के दोस्त निशीथ की संस्था ‘नॉलेज लिंक्स’ में जीविका के निमित्त ग्रामीण सामुदायिक जीवन को लेकर उपयोगितावादी वृत्तचित्र बनाते रहे. तीन दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया कि जब पहली और एक मात्र कविता की किताब प्रार्थना के शिल्प में नहीं आयी थी. इस तरह देवी हिन्दी में लगभग बिना किताब का लेखक होकर काम करते रहे हैं जिसके लिए हिन्दी विवेक के प्रति वह अवनत हैं. प्रकाशित होने की ललक से हीन वह किताबों को अब धीरे-धीरे इसलिए छपवाने के लिए पर्युत्सुक हैं कि उनके न रहने पर कोई दूसरा उनकी किताबों को संपादित करते हुए रचनाओं के भिन्न-भिन्न संस्करणों के बिखराव में उलझकर रचनाओं के अशोधित वर्ज़न किताबों में न डाल दे. ‘जिधर कुछ नहीं’ इस कड़ी की ही काव्य-पुस्तक है. उन्हें कविता के लिए ‘भारतभूषण स्मृति सम्मान’, ‘शरद बिल्लौरे सम्मान’ और ‘संस्कृति सम्मान’ मिला और हेम ज्योतिका के साथ बनाये वृत्तचित्र के लिए ‘राष्ट्रीय सम्मान’ जिसे उन्होंने एक मोड़ पर सरकार के फ़ासिस्टी रवैये के विरोध में वापस कर दिया. इलस्ट्रेटेड वीकली ने उन्हें 1993 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले 13 अग्रणी लोगों में शामिल किया. उनकी आजीविका का आधार फ़िल्में बनती रही हैं. उनकी फ़िल्म सतत को कान के शॉर्ट फ़िल्म कॉरनर में शामिल किया गया और निष्क्रमण नाम की फ़िल्म को फ़्रांस की गोनेला कंपनी ने विश्वव्यापी वितरण के लिए स्वीकार किया. ये दोनों ही फ़िल्में गुना ज़िले के ग़ैरपेशेवर आदिवासी बच्चों को चरित्र बना कर बनायी गयीं. यह सब इसलिए कि नाम की उनकी फ़िल्म कवयित्री ज्योत्सना पर बनायी गयी डॉक्यूमेंट्री है जिन्होंने हिन्दी कविता की मुख्यधारा को धता बताते हुए एक असहमत और आज़ाद जीवन जिया और ज़िंदगी को उसकी आत्यंतिकता में समझने की कोशिश में हँसी-खेल में उसे ख़त्म कर दिया. उन्होंने नज़ीर अकबराबादी और महादेवी वर्मा पर आदमीनामा और पंथ होने दो अपरिचित शीर्षक से दो शैक्षिक वृत्तचित्र केंद्रीय हिन्दी संस्थान के लिए बनाये. देवी ग़ाज़ियाबाद में राज नगर एक्सटेंशन में रहते हैं. |
देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं हमेशा से अच्छी होती हैं हमेशा नया विषय और नया कलेवर के साथ में उपस्थित होते हैं उन्हें मेरा साधुवाद
देवी भाई की कविताओं कि आकाशगंगा निरंतर नए नए ग्रहों की खोज में रहती है। जीवन, जिज्ञासा, बेचैनी बदलाव अंधेरों उजालों के अंतर्मन में बसने वाले कल्पनाओ, मनुष्यता की जद्दोजहद ख्वाबों के रंगों को बिखेरती नव नव आकृतियों के जन्म के साथ आपकी स्मृति का हिस्सा बन जाती है। बहुत-बहुत शुक्रिया देवी भाई आपकी कलम यूं ही इन स्वरों को रचती रहें
देवीप्रसाद मिश्र नब्बे के दशक के उन विरल कवियों में हैं जो सतत प्रयोगशील रहते हैं | वे अपनी पीढ़ी के अनूठे कवि हैं |
देवीप्रसाद मिश्र को पढ़ना आज के जटिल भाव बोध की यात्रा करना है। आपने उनके बारे में विस्तृत टीप देकर इसे बहुत उपयोगी बना दिया। धन्यवाद।
सोचा था एक दिन में सिर्फ़ एक कविता पढ़ूँगा, और एक पूरा दिन उस पर सोचूँगा। लेकिन ऐसा हो न सका। दस की दस कविताएँ एक के बाद एक करके पढ़नी पड़ीं। तब इस नतीजे पर पहुँचा कि देवी प्रसाद मिश्र की कई कविताएँ एक साथ नहीं पढ़ी जानी चाहिए। जितना समय वो एक कविता को जीने और काग़ज़ पर उतारने में लगाते हैं उसका कई गुना समय उन कविताओं को गुनने में लगाया जाना चाहिए। मैं ऐसा नहीं कर पाया इसलिए इन दसों कविताओं को अपनी स्मृति से मिटा देना चाहता हूँ। ताकि नए सिरे से दुनिया में प्रेमियों के लिए जगह बनाना सीख पाऊँ।
बिल्कुल नए अंदाज़ में रचित ये कविताएं हमारे समय-समाज का प्रभावशाली क्रिटीक प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं।
लगभग यही अंदाज़ कवि विनोद पदरज और एक हद तक पंकज चतुर्वेदी की कविताओं में भी झलकता है। यह अलग बात है कि पंकज प्रायः छोटी और नुकीली कविताएं रचते हैं।ये कविताएं हिंदी कविता की अंतर्वस्तु एवं शिल्प में परिवर्तन का सूचक हैं ।
यह तो जादू है। नमक में ताकत होती है कि वह हवा से भी पानी निकाल लेता है। देवी की इन कविताओं ने वही कर दिया। आम बोलचाल और बतकही से खालिस कविता निकाल कर रख दी। ये प्रेम भी तो टेलीफोन पाकर पगला गया है-बात मानिये मेरी, प्रेम बहुत ही सुलभ हो गया है बल्कि सहज मुखर और प्रगल्भतर हो गया है ।और इससे हुआ यह कि प्रेम के एक-एक कोने अँतरे में जाया जा सकता है। देवी की इन कविताओं ने बहुत सी चीजों को खोल कर इस तरह रख दिया है कि आप बरबस मुस्करा दें -कभी चीजों की ऑर्डिनरीनेस पर,कभी विडंबना में और कभी यूं ही। इस कविता ने मिस्टीक की धज ही बदल दी है। लेकिन देवी हैं इसेन्शियली रोमांटिक कवि -उन्होंने अपनी तरह का कुछ नया-सा मिस्टीक बनाया भी है। एक दो कविताएं पालिटिकली करेक्ट रहने की भी हैं । लेकिन इस भयानक “इन्टालेरेंस” के जमाने इसका कोई क्या करे। हां चलते चलते एक बात और , कवितासंग्रह में देवी का जो फोटू लगाया गया है ब्लैकएंडव्हाइ में उसमें फ्रेडरिक एंजेल्स का अजब-सा आभासमिल रह है । देवी ने कविता का नया सोता खोज निकाला है।बधाई।
– दिनेश कुमार शुक्ल
मिश्र जी मेरे प्रिय कवि हैं , उनका सब कुछ अलहदा है । यहां तक कि उन्होंने जो फिल्मों पर लिखा वह भी । उन पर विस्तार से कभी लिखने की इच्छा है ।
इतनी सरल कि तितली जैसे पंखों में विषयों को लेकर निकली हों और दृश्य को भर गई हों अपनी मौज़ूदगी से। और मर्मवती कविताएं सभी। मुझे लम्बे समय तक याद रहने वाली और सोच में डुबोया रखने वाली कविताएं ‘कन्धे पर हाथ रखने की राजनीति’ और ‘अपील’…नहीं मैं चुन नहीं पाऊँगी।
‘गेम’ कविता अपने किशोरवय बेटे को ज़रूर भेजूँगी। इन कविताओं पर बहुत कुछ कहने का मन हो रहा है। पर इतनी सांद्र हैं ये कि इन्हें पचने में समय तो लगेगा।
वाकई यह आज के दिन का हासिल है। कवि के व्यक्तित्व में जो एक फक्कड़पन है, वह कविताओं में भी आ गया है और भाषा भी उतनी ही बेलौस एवं खिलंदड़ । बधाई समालोचन एवं कवि को।
सार्थक और नये शिल्प में लिखी कविताएं। देवी प्रसाद मिश्र की कहानियां हों या कविताएं, उन्हें पढ़ना हमेशा नया आस्वाद देता है।
दो-तीन को छोड़कर कविताएँ साधारण हैं, कुछ जगह अनगढ़ भी। किसी और ने ये कविताएँ लिखी होतीं तो क्या इन्हें यह महत्व मिलता जो इन्हें दिया जा रहा है? व्यक्ति-पूजा हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में भी अब तक प्रचलित है। इस वक़्त हिन्दी कविता के क्षेत्र में कुछ और भी साधारण कवि हैं जिनकी व्यक्ति-पूजा की जाती है और जिन्हें बड़े कवियों के रूप में दिखाया जाता है।
देवी प्रसाद मिश्र ने समाज के छोटे तबक़ों को अपनी कविताओं का हिस्सा बनाया है । प्रेम पर पुराने प्रेमी के लिये लिखी गयीं कविताओं को दोनों नये प्रेमी काम में ले रहे हैं । लेकिन प्रेम में शरीर का पहलू अधिक होता है । इसलिये यह दरिया उतर जाता है । करुणामय होने तक की विरल साधना करना कठिन है ।
कबाड़ ख़रीदने वाला व्यक्ति उन मेज़ों को ख़रीदता है जिसके पीछे कुर्सी पर बैठा जज पूँजीपतियों के पक्ष में फ़ैसले लेता है ।
ड्राइवर पर लिखी गयी कविता का मर्म समझा जाना चाहिये । सभी कविताएँ बेहतरीन हैं । आख़िरी कविता पहले पढ़ी थी ।
आपको और देवी प्रसाद जी मिश्र को शुभकामनाएँ ।
शानदार और धारदार। कुछ तो मुकम्मिल लम्बी कहानियाँ हो सकती थीं पर उन्हें वैसे ही एक छोटी कविता बना दिया गया जैसा पंचम ने कभी कभी अपनी कई धुनों का इस्तेमाल सिर्फ़ एक ही गीत में कर दिया है। यह लीला भाव सिद्धि के बाद आता है।
आभार आप दोनों का।
एक अरसे से देवी को पढ़ा नहीं था और इन कविताओं को पढ़ते उनका वह चेहरा भी मन में उभर आया जिसे ट्रेन की खिड़की में फ्रेम किये वे मुझे सी ऑफ कर रहे थे। शहर भी याद नहीं। शायद कोई कार्यक्रम रहा होगा जिसमें हम लोग शिरकत कर रहे थे।
निश्चित ही देवी की इन कविताओं में ऐसे तत्त्व हैं जो बहुत सी तथाकथित जनवादी/प्रगतिशील कविता में नहीं होते। और मैं इन कविताओं के शिल्प से भी चकित हुई।।
नीचे परिचय में जहाँ ज्योत्स्ना का प्रसंग है वह मुझे स्पष्ट नहीं हुआ।
देवी से फिर मिलने का मन हो आया।
देवी प्रसाद मिश्र हमेशा अपनी कहन के नएपन से हमें विस्मित छोड़ देते हैं। शिल्प, संवेदना और विचार को इतनी सहजता से साधने वाले कवि कितने हैं?
इन कविताओं में जीवनानुभव से उपजे संघर्ष के कारण निकालने की जद्दोजहद दिखाई देती है. आसपास की दुनिया में बहुत से कारण अकारण ही रह जाते हैं. देवी प्रसाद जी तक पहुंचते हैं और पाठकों के लिए मौजू बनाते हैं।
शुक्रिया कवि और समालोचन का.
पहली कविता ‘प्रेम’ में कुछ है जो आकर्षित करता है। बाकी कविताओं से लगता है देवी प्रसाद का स्नेह निर्झर बह गया है। मोटामोटी निराशाजनक अनुभव रहा।
यह ‘देवी भाई’ कब से चालू हुआ?
देवी प्रसाद मिश्र जी की शब्दों की मितव्यता और भाषा में करुणा उपजाने की कला अद्भुत है. उनके दृश्य कहानी ही कहते हैं. और करुणा का संसार रचते हैं. कल से ही इंतज़ार था नई कविताओं का. वाह. बहुत धन्यवाद आपको और कवि को
मैं कुलदीप कुमार की बात से सहमत हूँ । सचमुच देवी प्रसाद की कविताएं अविष्कार की तरह है । वह अपनी भाषा और अंदाजे बयां से हमें चौंकाते हैं । उनकी कविताओं को समझने के लिए कई पाठ जरूरी है ।
हिंदी में उनके जैसा कोई नही है ।
तुरन्त कुछ कहना ऐसी कविताओं के साथ ज़्यादती होगी मेरे तईं। जिस वक़्त में एक अच्छी कविता के लिये खूब इंतज़ार करना पड़ता हो उस दौर में एक साथ इतनी अच्छी और पुरानी लीक को तोड़ने फोड़ने की कोशिश करती कविताएं इतनी मात्रा में एक उम्दा और समृद्ध करने वाली संगति है। कुछ दिन इसी संगति में रहना चाहूंगा। समालोचन का शुक्रिया
सचमुच विरल और विशिष्ट कविताएँ
देवी भाई की कविताएँ कई दशकों से पढ़ रहा हूँ। मेरे पसंदीदा कवि हैं । इनका मुरीद मैं तब हुआ जब इनकी कविता मुसलमान मैंने पढ़ी। कविता में इनके जैसा प्रयोगधर्मी कवि दूसरा नही। जो सब करते हैं , देवी भाई उसे कभी नही करते। उनके कविता के शिल्प में प्रार्थना का शिल्प देखने को मिलता है। बधाई। उनकी इतनी कविताएँ एक साथ पढ़ने को मिली समालोचना में।
देवी जी की कविताएं अपने शिल्प और कथ्य में अपूर्व हैं। आज के कई चर्चित कवि जब खुद को दोहराते नजर आ रहे हैं, फिर-फिर वही सब लिखते दिख रहे हैं, जो वे लिख चुके, देवी कविता में नवोन्मेष कर रहे हैं। वह उस लद्धड़ गद्य से भी कोसों दूर हैं, जिसकी इधर के कवियों की रचनाओं में सायास उपस्थिति है। देवी हमारे दौर के विरल कवि हैं। उनका अंदाज-ए- बयां और ही है। हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं में वह श्रेष्ठतम हैं। यह कहने में भी कोई संकोच नहीं कि उनकी कविता विश्व स्तर की है।
वे मुसलमान थे इसलिए बच के निकलते थे, वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे — ऐसे बारीक और मानवीय ऑब्जर्वेशन को ज्ञापित सिर्फ़ देवी प्रसाद मिश्र ही कर सके और आज भी सिर्फ़ वही बता सके — प्रेम की शुरुआत कैसे हुई और पुराने प्रेम की सामग्री नए प्रेम में कैसे काम में ली जाएगी.
अकविता के दौर से नई कविता, सदी के अंत में कविता, कभी भी ख़त्म नहीं होगी कविता ….का जो लंबा रास्ता है उसके तमाम पड़ाव के बाद आज देवी जी की ये 10 कविताएं एक नये mile stone की मानिंद लग रही हैं. कवि को बधाई, समालोचन का आभार !
आप की बहुत अलग कविताएं हैं बहुत अच्छी लगी ।
It is an absolute delight to read and immerse myself in the creative flow of Sri DeviPrasad Mishra. His genius is immaculate, visible through and through in this collection of short poems. Touching different aspects of life and weaving them together within and around the socio-political context so seamlessly is something he is exceptional at. These poems, especially, touch upon the core human condition, and how utterly existential it is- despite being so affected by the social, political and cultural contexts. One can sense the cry of an untouched revolution, the collective pathos of the current political landscape, the all-pervasive gendered power dynamics of the social structure and the overall feminist struggle that it hints towards, the meanings and undercurrents of being in love in such political times, the silences and vulnerabilities of just being human. He brings it all and more, so seamlessly. His collection is deeply emotive and powerful and vocalises so much by leaving a lingering, lasting impression.
देवी प्रसाद मिश्र की इन कविताओं में हमारे समय और समाज का जो चित्र है वह बिल्कुल नई भाषा और भंगिमा में चकित करता है।ये कविताएं देर तक और दूर तक साथ रहने वाली हैं।
समालोचन का शुक्रिया अभी इतनी शानदार कविताओं के लिए इतना ही ।मुझे पढ़नी होगी रुक रुक कर ये कविताएं
देवी प्रसाद मिश्र की इन कविताओं को पढ़कर हमें मानवीय मूल्यों और उनके साथ ही जीवन की तमाम बातों को समझने का मौका मिलता है। जिस तरह देवी अपनी कविताओं के संसार को रचते हैं वैसा हिंदी में कम देखने को मिलता है। देवी हिंदी के अकेले कवि हैं जो बगैर शोर-शराबे के अपनी कविताओं को रचते हैं। प्रार्थना के शिल्प के बाद उनका कोई संग्रह नहीं आया फिर भी देवी हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य में हिमालय के समान दिखाई देते हैं। सोचिए कि जब फेसबुक पर कवि तैयार हो रहे हैं और सोशल मीडिया पर रचनाओं का उफ़ान है उस समय देवी इन सब जंजाल से मुक्त होकर हमें ऐसी विरल रचनाएं दे रहे हैं। जिनकी कल्पना मात्र भी हम अन्य किसी कवि से नहीं कर सकते । समालोचन और देवी जी को धन्यवाद
ये कविताएँ हमेशा के लिए यह गई मन में
बहुत सुंदर, विशिष्ट और गहन कविताएंं
यहाँ प्रस्तुत सभी कविताएं आज की और हमारे आस पास की कविताएं हैं जिनसे गुज़रते हुए हम उन दृश्यों से दोबारा गुज़रते हैं जिनसे हम बिना कुछ गौर किये गुज़र गये थे।
अच्छी कविताओं के लिए देवी सर और समालोचन का आभार।
देवी प्रसाद की कविताओं पर कल से ही कोहराम मचा है। आरपार तारीफ भी है पर कुछ कसमसाहटें और असमंजस के स्वर भी चिकनाई की तरह तैर रहे हैं। पर ये कविताएं उनकी कविता परंपरा और चीजों को देखने की सतत बदलती दृष्टि के अनुरूप देखी जानी चाहिए। उनकी कविता का रेंज बहुत बड़ा और वैविध्यपूर्ण है। अंतर्वस्तु, मिजाज, मनुष्य को समझने के तौर तरीके, खामख्याली में नजरंदाज की जाने मानवीय आदतों और तमाम अन्यान्य जीवन के मसलों को लगातार कई कोणों से खंगालने वाले देवी प्रसाद ने बड़ा रास्ता तय किया है। ये कविताएं अव्वल तो अपना अलग फार्मेट रचती हैं, अलग वस्तु विधान और अलग टीप से बनाई गयी हैं। देखने की कला इनमें है। अब ये कविताएं ‘मुसलमान’ जैसी हैं कि नहीं, ‘हर इबारत में रहा बाकी’ की तरह हैं कि नहीं, यह अलग बात है। अभी तो उनकी लंबी कविता ‘जिधर कुछ नहीं’ ही चुनोती की तरह हिंदी समाज के सामने प्रस्तुत है। सब कुछ को एक कड़वे काढ़े और गरल की तरह पीने वाला यह कवि हर बार कविता को मापने के बटखरे उलट देता है। ये सारी कविताएं एक समान नहीं हैं। ये उनकी पिछली कविताओं की तरह शिखर पर भी आरूढ होने का दावा नही करतीं पर बताती हैं कि समाज को इस तरह भी पढ़ा जा सकता है। देवी प्रसाद जिसके भीतर छंद का गोदाम भरा है, अवध की चुहलबाजियां रची बसी हैं, सर्वत्र छाये औसतपने की मु्द्राओं को पहचान लेने का अचूक हुनर जिसके पास है, उसका हर अवलोकन कोई नई बात कहता है।
इन कविताओं में सपाटवयानी नहीं हैं । एक कहानी एक दृश्य एक शाट की तरह हैं इनमें कहे गए वाक्य। हिंदी कविताओं के अपार कबाड़ में ये कविताएं सार्थक और मानीखेज हैं। इनमें साधारण उक्तियों से असाधारण युक्तियॉं पैदा करने वाला अनुभवसाध्य कविमन है, प्रेमियों के लिए जो और जितना कर सकते हैं, उतनी भर जगह देने की अपील है, कबाड़ी को लक्ष्य कर किस किस चीज के कबाड़ होते जाने के बारे में क्या मारक प्रहार कवि ने अभिधा को मासूमियत में ढालते हुए किया है, यह देखने की बात है। तानाशाह को हटाने के कारोबार में लगे लोगों का हश्र बताती कविता हो, या घर पर कुछ खुला छूट जाने के संदेह में घिरे व्यक्ति की मनोदशा, कंधे पर हाथ रख कर ड्राइवर के प्रति दिखावे की आत्मीयता के बरक्स उस तथाकथित धीरोदात्त में गैरबराबरी के बीज खोज निकालना दाढ़ी में तिनका खोज लेने जैसा है। न मरने का कारण कितना मासूम है, यह देखने की बात है, और गेम में अचानक डर और भय के साथ मनुष्य को बचाने का ख्याल जैसे उसमें साहस भरता है और प्रेम जैसी शुरुआती कविता से तो ऐसा लगता है कि हर प्रेम एक जटिल प्रश्नपत्र की तरह है जिसकी कुंजी कहीं न कहीं पिछले प्रश्न पत्रों के हल खोज लेने में है।
कौन कहता है ये कविताएं निष्प्रभावी हैं, सारहीन हैं, और इस हुऑं में हुआं हुआं करने वालों की बेशक कुछ तादाद भी हो तो क्या? यही तो लोकतंत्र और कविता के लोकतंत्र की खूबी है। जिस कविता पर साक्षात्कार का संपादकीय था, उसमें भी कुछ शब्दों पर मुझे कुछ संशय था, उनसे इसका इज़हार भी किया और कहा भी कि ऐसे विचलन होंगे, होते रहेंगे पर इसी के बीच कविता की धार निरंतर पैनी होती रहेगी। जिस कवि ने मुसलमान, जो पीवे पीर नैना का, आवारा के दाग चाहिए, निजामुद्दीन और हर इबारत में रहा बाकी जैसी विलक्षण कविताएं लिखी हों जिसकी हर शब्द संरचना कविता के ढुलमुल स्थापत्य को हरबार कुछ हिलाती है और कितने ही कवियों को इसके लिए लजाती भी हो, उसे ध्यान से पढ़ना चाहिए। पहली ही ऐसी ऐतिहासिक कविता लिखने पर किसी संपादक ने उनके मरने का फतवा दियाथा, क्या हुआ? कौन जीवित है कविता में और कितना यह सब जानते हैं। देवीप्रसाद की हर कविता में एक चीख दबी हुई होती है जो हर किसी को सुनाई नहीं देती। यद्यपि चीखना उनकी कविता का स्वभाव नहीं है।
इन कविताओं पर कवि रुस्तम सिंह की टिप्पणी का सार है कि देवी की यहां हो रही प्रशंसा व्यक्तिपूजा के कारण है। एक अकिंचन कवि का यश न सह गया। मैं यह पढ़ कर विचलित हुआ कि रुस्तम जी ऐसा कह रहे हैं जैसे यह सब व्यक्तिपूजको का समवाय हो जो ऐसा कर करा रहा है।
इस मामले में कहना चाहूंगा कि रुस्तम जी। देवी कोई मोदी या कोई सत्तावान हैं जो उनके व्यक्तिपूजकों का दस्ता तैयार होगा? क्या उन्होंने ऐसा कोई प्रतिष्ठान बना रखा है जिससे वे लगातार ऐसे व्यक्तिपूजकों को उपकृत कर रहे हों या करते आ रहे हों। अपने ही एक कवि के बारे में ऐसा कहना उचित नहीं। बल्कि ऐसा कवि जो लगतार प्रतिरोध के लिए मुहिमबद्ध हो, खुद ही सत्ता के लिए अछूत है। हां उन्हें चाहने वालों की एक दुनिया है जो उनकी कविताएं पढ़ती है और विमुग्ध होती है। वे बोर्ड पर chalk घिसने वाले अध्यापक की तरह नहीं, पुनर्नवा काव्य शैलियों के निरंतर पथिक और अन्वेषी हैं।
और कम से कम इतना तो तय है कि वे नजरंदाज नही किए जा सकते और यह न भूलें कि अपार शेष को छोड़ दें तो केवल इन कुछ कविताओं से ही उनके कवि का एक बड़ा मेेेेयार बनता हैै । ये कवितायें साधारण पंक्तियां नहीं, ये कविता संरचना की दृष्टि से एक कवि के लिए अनिवार्य इकाइयां हैं। नए से नया अर्थ पाने और रचने की कोशिश हैै। देवी ने कविता में ऐसा कुुछ संभव किया है कि लोग उनकी कविताओं से जुड़ जाते हैं। ये जो कमेंटस देख पढ रहे हैं, वे किसी कन्वेसिंग का नतीजा नही, ये बड़े हस्ताक्षर हैं बहुश्रुत हैं, कवि हैं, कलाकार हैं, सच्चे पाठक हैं। यह व्यक्तिपूजा के लिए हांक कर एकत्र की गयी भीड़ नही है।
कवि क्या होता है और कविता क्या होती है इसे समझने के लिए देवीप्रसाद मिश्र को पढ़ा जाना चाहिए ।
फेसबुक पर देवी के बारे में टिप्पणियां देखीं जो निश्चित ही देवी की कविताओं के नहीं देवी के विरुद्ध हैं।
देवी, जिस तरह समाज और राज्य में फैली अव्यवस्था पर शब्दों का संसार रचते हैं और साथ ही कविताओं में वह उन मूल बिंदुओं को पकड़ते हैं जो अन्य कवि दरकिनार कर देते हैं। या यूं कहें कि अन्यत्र यह सूक्ष्म समस्याएं किसी कविता का हिस्सा होती ही नहीं हैं। जबकि देवी इनको केंद्र में ले आते हैं।
जो पीवे नीर नैना का, आवारा के दाग, कविताएं लिखनी चाहिए, फ्रेंच सिनेमा, निज़ामुद्दीन, मेज, तो सोच लो कि आदमी को मारना क्या है ? भूखे मनुष्य को न खिलाने का फ़ैसला, औरतें यहां नहीं दिखतीं या अन्य उनकी कोई भी कविता क्या हर बार कविताओं के परिभाषित स्वरूप को तोड़ते हुए नए प्रतिमान नहीं रचतीं ? क्या देवी की कविताएं एक नया नज़रिया नहीं देतीं कि कैसे उन तमाम मामूली बातों को देखा जाए, पढ़ा जाए या कहा जाए जो कही जानी चाहिए।
मैं एक मामूली पाठक हूं और देवी की कविताओं से उनको जितना जानता हूं वो यह है कि वर्तमान के श्रेष्ठतम कवियों में होने के साथ ही वह एक संवेदनशील व विचारवान मनुष्य भी हैं। यदि वो आज इतनी सार्थक रचनाओं के साथ, कवि के रूप में हमारे लिए उपलब्ध नहीं होते तो ज़रूर इलाहाबाद या पृथ्वी के किसी कोने में अंतिम कतार के मनुष्य के साथ होते।
देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं पढ़ने का अवसर मिला। देवी हमारी पीढ़ी के विरल कवि इस मायने में भी हैं जिनका कविता संग्रह हमारी पीढ़ी में सबसे पहले आया था।
ये कविताएं एक सांस में पढ़ता गया और देवी की कविताओं के माध्यम से कविता, कविता भाषा और आज के समय को जानने का संतोष प्राप्त किया। यह भी कि कविता अपनी मातृभाषा में होती है तो उसका होना तब विशिष्ट होता है जब वह मातृभाषा की संरचना की संरचना की तरह हो। जैसे यह कविताएं हिंदी में हैं तो मुझे यहां वह हिंदी मिलती है, जिसमें यह कवि पला बढ़ा है। जिस हिंदी के घर, गलियों, खेतों, स्कूलों, शहरों और बियाबानों से उसने हिंदी को जाना है। साथ ही जहां उसने अपने स्व और आत्म को पहचाना है। जहां के प्रेम, प्रेम करते हुए और कबाड़ चुनते हुए लोगों या काम ढूंढते हुए ,पाते हुए,खोते हुए या भटकते हुए लोगों की हिंदी के साथ रहा है। जहां हमारे अपने जीवन और संसार और भय हैं और कवि स्वयं भी उनमें से एक है और अनिश्चित के वर्तमान का सहचर है। उसके पास आज की अनिश्चितता के बीच कल की आशा है लेकिन यह आशा उसके जीवन, उसके आसपास के जीवन में जीते लोगों के अनुरूप है, उनकी भाषा में है,उनकी हिंदी में है जिसमें कवि की अपनी दृष्टि है। अपनी खीज और अपनी पुकार है। यहां निरर्थकता का त्याग है भले ही निरर्थकता इन दिनों बहुत चपल, उतफफुल, प्रकाशमान है। देवी को पढ़ते हुए अभी ऐसा ही लगा। अरुण देव जी को बधाई। नवल शुक्ल।
■हो यह भी सकता है क्रांति हो जाए
जिनको देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं के शिल्प में मेलो-ड्रामा देखने की आदत हो चुकी हैं और जिनको कविता की कला- रूढ़िवादिता की आदत हो चुकी हैं, ज़ाहिर है उनको सारे बिल्कुल नए तरह के काम परेशान करेंगे ही।
बेहद सहृदयता के साथ मेहनतकश वर्ग की राजनीति के साथ कला की एकात्मकता का यह द्वंद्वात्मक राजनीतिक उत्थान देवी की कविताओं के नए अंतर्विरोध हैं और लैंड-स्केप भी।
उनकी एक कविता है, सब कुछ लुटा देने का सुख ::
”
…मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने
गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है.
और कहीं गैस तो नहीं खुली है.
और अगर नल खुला रह गया होगा…तो.
और अगर हीटर चला रह गया होगा…तो.
मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा.
हो सकता है कि घर राख मिले या पानी में
डूबा.
हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है.
मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
विस्मित होता रहूँ.
और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
दिखे उसे.”
ज़ाहिर है कि काव्य-नायक निम्न पूँजीवादी पृष्ठभूमि से है और इस ऐतिहासिक अपराधबोध से घिरा हुआ कि मेहनतकश की लूट में इस वर्ग की भी बड़ी सचेतन भूमिका है।
पर साथ ही साथ कविता में निम्न-मध्यवर्ग के भीतर की सर्वहारा ग्रंथि का भी अंदाजा हो जाएगा, जब उसे अपनी ही पूँजीवादी ढंग की मेहनत से अर्जित की गई संपत्ति को क्रांति के पश्चात ‘लुटा देने’ का सुख हो, यह एक तरह से कविता में नई समाजवादी क्रांति के लिए बौद्धिक मध्य-वर्ग की तरफ़ से आह्वानमूलकता ही तो है।
कविता में मेहनतकश के असंतोष को मध्य-वर्ग की परिघटना के भीतर व्यक्त करने वाले तो हिंदी के कई बड़े कवि हैं, पर नया मुक्तिकामी समाज के लिए किसी भी तरह का यूटोपिया समकालीन में किसके पास है?
कविता की पृष्ठभूमि इसलिए अधिक बड़ी होती गई, मेहनतकश की पहचान बहुत मूर्त न होते हुए उसकी सांस्कृतिक अवस्थिति के साथ जुड़ जाती है। ज़ाहिर है साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक दमन का पाटा बेहद ही बर्बर तरीके से आदिवासी जन-समुदाय पर चलने की वजह से उसने चेतना के सहज विकास को आधुनिक नहीं किया, या तो उसे बेहद यांत्रिक बना दिया या तो अधिक रूढ़।
लेकिन देवी यहाँ एक आदर्श परिकल्पना के तहत मेहनतकश की सांस्कृतिक अस्मिता को भी लक्षित करते हैं, जो कि कविता का केंद्र प्रश्न है।
कवि अनुज लुगून अपनी एक कविता लालगढ़ में कहते हैं ::
“कुछ तो है ज़रूर साहब!
जो आदिम जनों की
आदिम वृत्ति को जगाता है
कुछ तो है
कुछ तो है ज़रूर साहब!”
सोचिए ऐतिहासिक-समाजिक-आर्थिक परिदृश्य में इससे आदर्श स्थिति क्या हो सकती हैं, जब सभ्यता-बोध बेहद सहजता के साथ विज्ञान और उत्पादन के फ़लक की क्रांतिकारी उन्नति के एकात्म की वह सहृदयता स्थापित कर सकें…
देवी का कवि इसलिए तो चाहता है ::
“हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है.
मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
विस्मित होता रहूँ.
और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
दिखे उसे.”
‘दिखे उसे’ पर गौर कीजिएगा।
◆तनुज
” नाम की उनकी फ़िल्म कवयित्री ज्योत्सना पर बनायी गयी डॉक्यूमेंट्री है जिन्होंने हिन्दी कविता की मुख्यधारा को धता बताते हुए एक असहमत और आज़ाद जीवन जिया और ज़िंदगी को उसकी आत्यंतिकता में समझने की कोशिश में हँसी-खेल में उसे ख़त्म कर दिया. ”
किस नाम की? इस डाक्यूमेंट्री को कहाँ देखा जा सकता है?
यह सवाल बहुत ज़रूरी है मेरे लिए. जल्दी जवाब दें.
‘ यह सब इसलिए कि’ नाम की फ़िल्म है। infowithashu@gmail.com पर मेल करें। आपको फिल्म का लिंक भेज दिया जाएगा।
Devi Prasad Mishra is a conscientious poet who has chosen to live dangerously in a time that’s replete with endless possibilities of fostering mediocrity. He has never been afraid of shattering conventions to say exactly what he means. And he has a lot to say, in ever-new ways.
He carries a high-precision violence detector. No matter how subtle, understated or well concealed, hypocrisy and social violence never escape him.
It’s a sheer delight to read his new poems published by Samalochan (edited by the indefatigable Arun Dev).
कुछ बात इस कविता के बारे में:
आत्मपरक शैली की इस कविता का ‘मैं’ कौन है ? जो अपने निजी जीवन में अपने घर से निकलते हुए इस संशय में है कि वह कुछ सामान्य सी चीजें जिसे करना चाहिए था , भूल गया है। और उस भूलने की कीमत यह भी हो सकती है कि उसका घर जलकर राख हो सकता है या की नल चलते रह जाने से पानी में डूबा मिल सकता है। कविता का ‘मैं’ एक ऐसा मध्यवर्गीय आदमी है जो अकेले रहता है और घर से बाहर जाकर कुछ काम करता है। उसकी मानसिक स्थिति कामों को करने या नहीं करने के स्मृति लोप या विस्मृति का शिकार है और अपनी भूलने की इस दिक्कत से आशंकाग्रस्त है , वह त्रास में है कि उसके पीछे कुछ भी हो सकता है , कोई भी क्षति हो सकती है। परंतु जब तक यह क्षति या घटित होना उसके निजी जीवन की संपत्ति से जुड़ा है तब तक अपनी इस स्थिति में वह उसके कार्य कारण संबंध को नहीं भूलता और न ही उसे अपनी आशंका की परिधि से बाहर भेजता है।
कविता के अगले हिस्से में वह ‘मैं’- मध्यवर्गीय आदमी अपनी इस संशयग्रस्त स्थिति में एक क्रांति के होने की बात कहता है। ‘हो यह भी सकता है कि क्रांति हो जाये’ । अब अगर इसको इसके पहले भाग से जोड़कर देखें तो जहां पूर्व भाग में भूलने और उसके बाद घर पानी में डूबने या जलकर राख होने में एक कारणात्मक सम्बन्ध है वहीं दूसरे भाग में वह गायब है या उसके कारणात्मक संबंघ के कहीं भी ध्वनित होने की कोई आहट नहीं है। न ही परिवेशीय जगत से इस ‘क्रांति’ के होने का कोई यथार्थ चित्रण। कुछ भी हो जाने की इस एब्सर्डिटी के ऊपर क्रांति का यूटोपिया तो नहीं ही खड़ा होगा। यह उस ‘मैं’ के, उस मध्यवर्गीय टाइप के , जो कविता में प्रस्तुत है के अपने परिवेशीय जीवन जगत से एक विच्छिन्नता को दिखाता है। अचानक से अपनी निजी संपत्ति की चिंताओं से क्रांति के होने की संभावना तक यह छलांग सायासऔर ओढ़ी हुई लगती है। यह कहीं भी क्रांति के कर्म में उस ‘मैं’ की अपनी भागीदारी के नहीं होने के अहसास को तो दर्शाती ही नहीं है। रचना में यह सैयाद क्योंकर आया है यह रचनाकार की रचनाकाल में मानसिक अवस्थिति को बयां तो करती ही है।
घर वापस आने और यह पाने पर की इस घर में एक आदिवासी रह रहा है उससे कविता के ‘मैं’ के चेहरे पर एक विस्मित का भाव है।
कविता में उस ‘मैं’ के माध्यम से , उस मध्यवर्गीय वर्गीय टाइप के माध्यम से – जिसकी रचना इस कविता में कई गयी है ; स्थिति की यह इमेजरी – उस मनः स्थिति की उपज है जो अपने में खोई हुई, रूमानी, अपराधबोध से लिपटी तथा समाज गतिकी की चालक शक्ति को पकड़ने में असमर्थ है। तभी तो यथार्थ के छोर से छिटकी और विस्मित है। यह विस्मित कर्मरत यथार्थबोध से युक्त नहीं है। इसी रूप में यह यथार्थ के धरातल पर खड़ी क्रांति की या क्रांति के बाद के समाज की या क्रांति के किसी पहलू की यूटोपिया नहीं है और इसी कारण यह अपने इस रूप में प्रगतिशील नहीं है।
◆प्रेम प्रकाश