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समालोचन

Home » देवी प्रसाद मिश्र : फ़रवरी की कविता

देवी प्रसाद मिश्र : फ़रवरी की कविता

फ़रवरी प्रेम का महीना है, यह बदलाव और सृजन का भी है. इस कविता में विडंबनाओं की जलती हुई सीढ़ियाँ चढ़ता फ़रवरी है. वह अग्निधर्मा है. देवी प्रसाद मिश्र कविता को वहाँ लेकर जाते हैं जहाँ वह अपने समय के रूपक में बदल जाती है. यह साहस भी काव्य-मूल्य है. यह वही ज़मीन है जहाँ हम आज खड़े हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
February 25, 2023
in कविता
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देवी प्रसाद मिश्र : फ़रवरी की कविता
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देवी प्रसाद मिश्र

फ़रवरी

(एक)

युवा होने के ख़तरों से मैं दूर आ गया हूँ लेकिन नसों में कितनी ही फ़रवरियों का ख़ून बह रहा है

फ़रवरी में फ़रवरी से बेहतर महीना ढूँढने का
यह वक्त नहीं है

मनुष्यों से अधिक पेड़
एक नयी दुनिया बनाने के संकल्प से भरे हैं
लेकिन नये पत्ते नये अर्थ का प्रतीक बनने से
गुरेज़ कर रहे हैं

कौन जाने यह वसंत है भी कि नहीं –
अनिश्चयों के इस शमशेर सन्नाटे में

राजनीति को मैं बदल नहीं सका
पर्दे मैंने बदल दिये हैं कि तुम आओगी
नई माचिस ले आया हूं कि रगड़ते ही जल उठें तीलियाँ और भक्क से निकलने वाली हँसी और आग में मैं चाय बनाता रहूँ
और तुम मुझे देखो
एक मनमाने स्वतंत्रचेता पशु की
लाल आँखों से कि
कोई भी प्रेम अपूर्णता ही क्यों है

व्यक्तियों को न बदलने के अवसाद के साथ मैंने चादर बदल दी है अधिक फूलों वाली चादर की जगह ज़मीन के रंग वाली चादर बिछा दी है

यह एक अनाथ भूभाग है
इच्छाएं हमें जहाँ निर्लज्ज बना देंगी
लालसा के तारे दमक रहे होंगे
विद्रोही वासना के सूने आकाश में

होगा उल्कापात पूरी रात

तामसिक उजाले में हम होते जाएंगे अगाध और अप्रमेय की गोधूलि का झुटपुटा

वैधता का धर्मग्रंथ मैं फाड़ दूँगा

कुछ भी नहीं होगा सोशली करेक्ट
पोलिटिकल करेक्टनेस हासिल कर लेंगे
ठीक ही कहा था लेनिन ने कि
रणनीतियाँ प्रक्रिया में बनती हैं;
बहुत पहले से तो पूर्वग्रह होते हैं- यह मैंने कहा लेकिन क्या तुमने सुना
हमारे बीच हुई
हिंसाओं में दृष्टिकोण,
चयन और आग्रहों का रक्तपात है

तुम्हारा आना एक दृष्टिकोण का आना है जिसकी जगह बनाने के लिए मैंने कमरों की जो सफाई शुरू की तो इतनी धूल उड़ी कि पड़ोसी गोली मारने आ गया जिससे मैंने कहा कि प्रेम करने के बाद मैं मरने के लिए उसके घर आ जाऊँगा ज़्यादा नाराज़ होकर वह लौट गया यह कहते हुए कि उसकी हिंदू चाय को लेकर मेरी अन्यमनस्कता मुझे महँगी पड़ेगी

मुझसे बेहतर कवि होने के लिए
मुझसे अधिक दुख उठाने होंगे
और मुझसे खराब कविता लिखने के लिए
करने होंगे वैचारिक अपराध

भागती रेलगाड़ी की खिड़की के पास बैठा अच्छी कविता लिखने का फार्मूला बाहर फेंकता ब्लू-ब्लैक स्याही की दवात-सा मैं प्रगाढ़तर होता उजास हूँ अगर हवास हूँ

मेरे गाँव का नाम हरखपुर है- यहाँ के नारीवाद पर मैं किताब ढूँढ रहा हूँ कवितावली वाली अवधी में राउटलेज और सेज की किताबें मध्यवर्गीय धर्मग्रंथ हैं

नहाने की जगह मैंने रगड़कर साफ़ की
तेज़ाब से मेरी जल गईं उंगलियाँ
दुनिया के दाग़दार फर्श को इतनी ही शिद्दत से साफ़ करूँगा यह तय किया है

बाथरूम के शीशे में मेरा चेहरा उस आदमी के चेहरे-सा था जिसके राज्यसत्ता के साथ बहुत बुरे सम्बन्ध रहे- वह स्याह पूरे घर में फैल गया है

भारतीय वसंत और पतझड़ के बीच फैले इस अपारदर्शी में अब और भी जरूरत है मुझे तुम्हारी प्यार और अपरायजिंग में होती पराजयों ने मुझे
रोते हुए हँसने का नमूना बना रखा है

मेरे पास आना एक ज़ख्मी आदमी की
कराह सुनने के धीरज के साथ आना है

मेरे और निराला के तख्त के बीच बमुश्किल तीन मील का फासला होगा- मैं इलाहाबाद की आंख और घाव से टपका खून का आख़िरी कतरा तो नहीं ही हूँ

मैंने घर को तुम्हारे आने के लिए तैयार कर रखा है जबकि तुमने कह दिया है कि तुम नहीं आओगी फ़रवरी में – कारण न मैं जानता हूँ न तुम

प्रेम एक टेढ़ी नदी है जो पहाड़ों की घाटियों से शिखरों की तरफ बहती है उल्टी

उल्टियाँ करने का मेरा मन होता रहा है
सिर कितना घूमताssरहा है गेंदबाज़ चंद्रशेखर की लेग स्पिन- सा

तुम्हें याद करना एक बोझ उठाना है
और न याद करना निरुद्देश्य पर्वतारोही हो जाना है

शोकसभा के बाद बिछी रह गई दरी सी है
फरवरी

अट्ठाईस दिनों की फ़रवरी में अगर तुम नहीं आ रही हो तो इसे मैं तीस और इकतीस दिनों का कर दूँगा

इससे ज्यादा क्या चाहती हो क्या कर दूँ पूरा कैलेंडर बदल दूँ ?

 

Painting curtsey: Priyantha Udagedara (Taprobane)

(दो)

मैं तुम्हें विचलित करने के लिए कहता हूँ कि तुम अविश्वसनीय हो इसलिए उत्तेजक हो

तुम कहती हो कि तीन साल पुराना प्रेम डेढ क्विंटल राख है

प्रेम के फ़ायरप्लेस में अब संस्मरणों की सूखी लकड़ियाँ जल रही हैं

जलाने के लिए तुम्हारी चिट्ठियाँ नहीं हैं मेरे पास तुम्हारी आवाज़ है और उसके अपरिमित संस्करण जो मुझे पहाड़ों की तरह घेरे रहते हैं और ऐन छत को छूकर गुज़रते हवाई जहाज़ की तरह गूँजते हैं

यह बता पाना मुश्किल है कि तुम्हें याद करना वृत्त में घूमना है या एक दीवार को छूकर दूसरी दीवार तक जाना है- तुम्हारी स्मृति कारावास है या आभासीय आवासीयता का अनोखा आसमान

हम अलगाव के उजाड़ तुग़लकाबाद में घूम रहे हैं

हमने गणतंत्र दिवस पर एक दूसरे से स्वतंत्र होने का अभिनय किया दो राष्ट्र बना लिए और एक कँटीली फेंस डाल दी बीच में और ज़ल्दबाज़ी में एक दूसरे का संविधान उठा लाये

इतना दुख था कि जैसे प्रेम में घायलों की आख़िरी प्रजाति थे हम और आसक्ति की संस्कृति में कई बार मरने के क्रम का पहला मरना

हमारी स्वायत्तता अब
हमारा अकेलापन है

मालूम है
आधुनिकता अपारगम्य कलह है

तुम्हारी तरफ जाने वाला रास्ता
और मेरी तरफ आने वाली पगडंडी
इस बात की मिसाल हैं
कि हमने सरल को समाधान नहीं माना

मंगलेश के साथ हिंदी के हर सरल वाक्य की मृत्यु हो गई क्या

तुम्हारा फोन नहीं आ रहा इक्कीसवीं सदी के पहले चतुर्थांश का यह अहंवाद है जिसमें स्त्री बोहेमियन हो सकती है

मेरे पास हजारों साल पुराना पुरुष होने का नियंत्रक अहंकार है जो एकनिष्ठ होने का नाट्य कर सकता है और जो एकाधिकार की दार्शनिकता को अभिपुष्ट कर सकता है

मोबाइल एक ब्लैक बोर्ड की तरह ख़ाली है जहाँ नहीं चमकता तुम्हारे संदेश का लाल तारा

व्हाट्सऐप हरे चौकोर घास के मैदान सा निर्जन है

यह डूबने के लिए झुका हुआ जहाज है
पूरा नहीं ध्वस्त है आधा जला बंदरगाह

भूख के उदाहरणों से भरे शहर में
प्रेम छीन लिया गया
जैसे थाली हटा ली जाती है
बुभुक्षु के सामने से

क्या प्रेम सेक्स के रनवे  तक पहुँचने की खड़ंजा वाली मनरेगा रोड भर है

तुमसे अलग होने का दुख पूछता रहा है कि क्यों खत्म होता है आरंभ- वह चाहता है कि लौट आए उस पहले वाक्य की उदग्रता उस दूसरे वाक्य की उसाँस उस तीसरे वाक्य का धैर्य उस नवें वाक्य की असहमति उस तेरहवें वाक्य का विषण्ण और जो इस निरुपाय हठ से भरा है कि फरवरी के फर फर में उड़ती धूप के पर्दे पर उसकी कथा फिल्म देखी जाये निस्सहायता परिभाषित हो और पारस्परिकता के नष्ट होने को एक बड़ी त्रासदी माना जाये

यह प्यार का एकेश्वरवाद था- पत्थरों की उपासना के वैविध्य से भरा बहुदेववाद: पत्थर के सनम, तुझे हमने मुहब्बत का ख़ुदा माना

एक ढहते हुए रेस्तरां में एक मेज़ और आमने सामने रखी घुन खाई दो कुर्सियाँ संवाद के आख़िरी नमूने हैं

उच्चस्थानीय एक प्रतिशत के पास चालीस प्रतिशत और आखिरी पचास प्रतिशत के पास तीन प्रतिशत परिसंपत्ति है और यही हमारी केंद्रीय विपत्ति है, यह कहकर हमने एक दूसरे को कॉमरेड कहा और फिर कभी बात न करने का फैसला किया

रेनेसां की बजाय हमारे पास धार्मिक छिछोरापन है, गाय बचाने की पाशविकता और मनुष्य मारने का सलफास और नागरिकता का मुँह चमकाने की फिटकिरी और हर साल कला और साहित्य के लिए दिये गये पुरस्कारों का कई टन तांबा, टीन और लक्कड़

जले हुए प्रेम के पुस्तकालय के नालंदा के उजाड़ में हैं हम

पत्तों के वस्त्र पहनकर मैं जंगल की तरफ जा रहा हूँ तुम भी आ जाओ री, अनिवारणीय ! सुबह के झुटपुटे अनार के रंग वाली

आओ,
हम प्रकृति के दो पर्ण हो जाएँ
और हिंदी के आरंभिक
उत्तर-मनुष्य

हम दुर्भाग्य के मारे हैं हमारे पास
न नवजागरण है और न साम्यवाद
और न अनीश्वरवाद का महास्नान
एक डग डग प्रधानमंत्री और एक धक धक पूंजीपति के बीच हम क्रांति में न मरने का जेनेटिक डिज़ाइन
और वंशानुगत इनसेस्टुअस मतदाता होने की हेडलाइन हैं भारतीय लोकतंत्र में इच्छाओं
का प्रतिनिधित्व नहीं आसान
क्या अपराधी ही बनाते हैं सरकार, मेरी जान.
_______________
(देवी प्रसाद मिश्र की कविता फ़रवरी का पहला हिस्सा ‘फ़रवरी-एक’ सदानीरा पत्रिका  में भी प्रकाशित हुई है. यह उसका संवर्धित रूप है. फ़रवरी श्रृंखला की कविताएँ आगे भी यहीं प्रकाशित होंगी.)

देवी प्रसाद मिश्र
d.pm@hotmail.com
Tags: 20232023 कवितादेवी प्रसाद मिश्रफ़रवरी की कविता
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Comments 30

  1. राजेन्द्र दानी says:
    4 weeks ago

    इस कविता को पढ़ कर सिर्फ निःशब्द हुआ जा सकता है । पॉलिटिक्स को फरवरी के प्रेम के बासंती दिनों में उसके करेक्टनेस के साथ घोलना , मिलाना कुछ पूर्ववर्ती कविताओं का मुझे बेहतर स्थानापन्न लगता है । सौंदर्य मय बौद्धिकता के आकर्षण का यह गुण जो देवी की कविताओं में मिलता है उसे अगर हमारी आलोचना अपना ले तो वह बेहद पठनीय हो जायेगी । मैंने जो कहा उसे आप प्रभात त्रिपाठी के यहां पा सकते हैं ।

    Reply
  2. Savita Singh says:
    4 weeks ago

    पढ़ती चली गई। अपना समय ही ऐसा है की कविता अगर कहने प्रवास जाएं की हमारी मनुष्यता का कुछ हो रहा है तो शायद ऐसी ही वह बन जायेगी। हम से ज्यादा पेड़ इस दुनिया को बदलना चाहते हैं!

    Reply
  3. Anupam Ojha says:
    4 weeks ago

    सुख और दर्द के साथ एक तीसरी कोई बात भी है जिससे कविता बनती है। शायद वह खड़ंजा वाली मनरेगा की सड़क है जो प्रेम के रनवे तक ले जाती है। बेहतरीन कविता की बधाई कवि।

    Reply
  4. मनोज मोहन says:
    4 weeks ago

    बाधित रक्त-संचार को गति देती कविता निःशब्द मनःस्थिति में ले जाती है….

    Reply
  5. लल्लन चतुर्वेदी says:
    4 weeks ago

    देवी प्रसाद मिश्र हमारे समय के सजग कवि हैं।इस कविता में कवि ने मनुष्य की आदिम प्रवृतियों से लेकर ,पुरुष – सता, वर्तमान प्रेम के स्वरूप, राजनीति के बदरूप चेहरे को अनेक न‌ए उपमानों और बिम्बों के साथ प्रस्तुत किया है।इस कविता में गहरी अंतर्दृष्टि तो है ही,कवि का श्रम भी झलकता है। मुझे लगता है यह कविता न एक सिटिंग में लिखी जा सकती है,न एक सिटिंग में पढ़ी जा सकती है।इस व्याखेय कविता के लिए कवि और समालोचन दोनों को समवेत बधाई!

    Reply
  6. Dr Om Nishchal says:
    4 weeks ago

    लौकिकता को तबाह करने वाले पूंजी के इस दौर में ऐसी ही फरवरियां अब शेष रह गई हैं प्रेम की अपराजेयता को चुनौती देती हुई ; फिर भी यह नष्टप्राय न हुई तो ग्लोबल गर्मी क्या कम है और सत्ता के पाशविक छिछोरेपन का क्या कहना जो एक पत्ते के जरा से हिलने से हिंसक और डगमग होने लगता है।

    फरवरी में इसीलिए फरवरी लगातार कम होती जा रही है। नया सोपान गढ़ती कविता। कौन भला इस सभ्यता की ऐसी धुलाई कर रहा है!

    Reply
  7. क्या रक्खा है. says:
    4 weeks ago

    इस कविता को मैंने क़तरा-क़तरा करके पढ़ा. अधबीच में ही छोड़ दिया. फिर ऊपर लौट आया. फिर से पढ़ना शुरू किया. नए सिरे से. नए सिरे से पढ़ने पर यकायक नए-नए सिरे फूटते चले गए. अब भी कविता में ही डूब-उतरा रहा हूँ.

    Reply
  8. दया शंकर शरण says:
    4 weeks ago

    देवी प्र मिश्र की यह लंबी कविता अपनी कहन की भंगिमा से हमें न केवल चकित करती है बल्कि अपना एक अलग काव्य मुहावरा रचती है। हम जिस समय में जीने को अभिशप्त हैं,यहाँ उस समय की गवाही और शिनाख्त है।फरवरी प्रेम का मौसम है और कविता प्रेम की गंगोत्री।लाख दुष्चक्र और पहरों के बाद भी यह गंगा बह रही है।दुष्यंत का शेर है-हो गई है पीर पर्बत सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

    Reply
  9. ममता कालिया says:
    4 weeks ago

    फरवरी की कविता,इसी दुनिया में रह कर किया गया प्रेम का प्रतिमान है।यह हम नही चाहते कि प्रेम हर सवाल का जवाब ढूंढे।उसे इन सब विषमताओं के बीच बचे रहना है।देवीप्रसाद मिश्र की कहन कई धरातल स्पर्श करती है

    Reply
  10. Ashish K Singh says:
    4 weeks ago

    अद्भुत देवी जी अद्भुत। बार-बार पढ़ना अधिकाधिक आनंददायक बनता जाता है। ‘फरवरी’ कविता की ‘अक्तूबर क्रांति’ है।

    Reply
  11. विनय कुमार says:
    4 weeks ago

    अरसे बाद कोई कविता मिली जिसमें चेतना के तीनों स्तर अपनी-अपनी चोटों के साथ अयां !

    Reply
  12. आरती says:
    4 weeks ago

    प्रेम की उत्कट आकांक्षा के बीच दुनिया दरकिनार नहीं होती. आपका समय प्रेम को भी किस तरह प्रभावित करता है कि फरवरी उस तरह की फरवरी नहीं रहती जैसा कि अपनी तासीर में उसे होना चाहिए। कविता निज जीवन के साथ समष्टि को भी उतनी ही गहराई से व्यक्त करती जाती है। देवी प्रसाद जी की कविता का पाठ करके हुये आप केवल प्रेम तक सीमित नहीं रह सकते, दुनियावी चीजे भी उस प्रेम की चिंता में दर्ज होती जाती हैं जो होना ही चाहिए।
    बहुत-बहुत बधाई।

    Reply
  13. शिव प्रकाश says:
    4 weeks ago

    बेहद संवेदनशील कविता। फरवरी उतनी ही प्रेम कविता है जितनी कि वह राजनीतिक कविता है। प्रेम इतना ही राजनीतिक होता है जितना दो स्वतंत्र व्यक्ति। प्रेम सामाजिक वृत्ति के केंद्र होता है इसीलिए वह हर घटने वाली परिस्थितियों से प्रभावित होता है। इस कविता में जो तनाव है वह बेहद कसा हुआ और उत्तरोत्तर विकसित हुआ है। कमल के बिम्ब रचे हैं देवी प्रसाद जी ने। अंतर्मन को आन्दोलित करती है इज कविता।

    Reply
  14. मनीष कुमार यादव says:
    4 weeks ago

    ‘भूख के उदाहरणों से भरे शहर में
    प्रेम छीन लिया गया
    जैसे थाली हटा ली जाती है
    बुभुक्षु के सामने से’

    देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं का सौंदर्यबोध और सहजता ओढ़ी हुई नहीं है बल्कि नैसर्गिक है और कथ्य का आयतन हर बार पढ़े जाने पे हमें समृद्ध ही करता है!

    Reply
  15. Deep Kumar Bharti says:
    4 weeks ago

    जब वर्ष की घटनाएं किसी प्रतियोगिता दर्पण में दर्ज़ होकर आती हों तो माह को इस रूप में पढ़ना, इतनी उपमाओं में जानना, जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में दर्ज़ होना चाहिए। देप्रमि अपनी हर कविता में समाज को कुछ नया देते हैं।

    Reply
  16. Pankaj Tripathi says:
    4 weeks ago

    युवा होने के ख़तरों से मैं दूर आ गया हूँ लेकिन नसों में कितनी ही फ़रवरियों का ख़ून बह रहा है

    किसी भी कवि ने चिंतन और कविता का ऐसा प्रतिमान नहीं गढ़ा। न गढ़ सकता है। देवी ने कविता के जिस शिखर को छुआ है उस तक पहुंचना अब यकीनन संभव नहीं है। समालोचन को धन्यवाद।

    Reply
  17. Anonymous says:
    4 weeks ago

    कविता के मोह पाश में फँसे बग़ैर कविता कैसे कहीं जाती है ये कोई आप से सीखे।
    बहुत ख़ूब क़िबला

    Reply
  18. अजेय says:
    4 weeks ago

    आभार इन कविताओं के लिए अभी दोचार बार और पढूंगा

    Reply
    • Navin kumar says:
      3 weeks ago

      मार्खेज से शीर्षक उधार लें और परिमार्जित कर लें तो ऐसे होगा- 21st century love poem in the time of fascism

      Reply
  19. डॉ. भूपेन्द्र बिष्ट says:
    4 weeks ago

    देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं पढ़ते हुए अवचेतन में रहने लगा है कि पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आकर कोई अपने घोड़े सिंधु में उतार रहा हो जैसे और चट्टानों पर वीर्य बिखेर देता हो. वह राम से उतना ही डरता हो, जितना पी. ए. सी. के सिपाही से. …..
    परंतु देवी की “फरवरी की कविता” पढ़ते हुए वाक् और वांग्मय, इतिहास और समकाल, आरंभिक और उत्तर मनुष्य के मध्य खिराम और रानाई का बोध होता है, क्षोभ भी होता है और मज़ा भी मिलता है.

    फरवरी की प्रेममय व्याख्या से अलग यह कविता हमें समकालीन भदेसपन, तिकड़म, राजनीति, निरर्थक उत्तेजना और अनिर्वचनीय ठंडेपन के वृत की परिधि का फैलता दायरा दिखाती है और चीजों की ऑब्जेक्टिविटी से अपडेट भी करती जाती है. चाहे इच्छाएं हमको कितना ही निर्लज्ज बना दें और वासना का उल्पाकात सारी रात होता रहे. परिणामी तौर पर हम रोमांटिसिज्म के तल से गिर पड़ते हैं अचानक और पाते हैं कि शोकसभा के बाद बिछी रह गई दरी सी है फरवरी, क्योंकि मंगलेश के अवसान के बाद हर सरल वाक्य की मृत्यु हो चुकी है.
    जोरदार और शानदार कविता.

    Reply
  20. Vijay Rahi says:
    4 weeks ago

    बहुत सुंदर और ज़रूरी कविताएँ ।

    Reply
  21. Anonymous says:
    3 weeks ago

    I am moved to tears while reading this poem. One of my favourite poets, Faiz Ahmed Faiz, used to draw such seamless synchronisites between love and revolution in most of his poems. It used to be the thematic undercurrent of his verses. I sense something so similar in this poem of yours. Love is revolutionary, love is inherently political; and the only reasonable antidote to the politics of hate is through the cultural extrapolation and exchange of love. Although it seems such an underrated yet staunch thought, it’s so seamlessly encapsulated by the poem. The poem talks about the vagaries of human existence which derives all its necessary meaning from both love and revolution in an otherwise meaningless life, but fails to carry them in any possible way. It’s the ultimate human limitation, one of the biggest human tragedies. Life is bittersweet at its core, and so is this poem. Thank you for such a beautiful, marvellous creation. Much to ponder and reflect on.

    Reply
  22. मूलचन्द गौतम says:
    3 weeks ago

    कविता का रचाव और चुस्त हो सकता था ।चालू प्रेमिल फिकरों और जुमलों से अधिक थोड़ी सहजता जरूरी थी ।

    Reply
  23. Narsingh says:
    3 weeks ago

    यह कविता नहीं एक नदी है जो उबड़खाबड़जमीन के बीच से गुजरती हुई जीवन के हर हिस्सों को भिगोकर रख देने का सामर्थ्य रखती है👍👍

    Reply
  24. Vinod Srivastava says:
    3 weeks ago

    Fabraury me Farwari, saalon baad… Vinod Srivastava.

    Reply
  25. Dinesh Kumar Shukla says:
    3 weeks ago

    कवि देवीप्रसाद मिश्र की आँखों ने इधर खासकर इधर कुछ ऐसी बीनाई पाई है कि वो आसपास बिखरी हुई चिरपरिचित रूटीन चीजों में,बातों में,भाषा में छुपे हुए कौतुक को देख कर उसके कुछ चित्र कविता के माध्यम से हमें भी दिखा रहे हैं । एक वक्त गुजर गया लेकिन अदृश्य संसार अभी टिका है यहीं कि हम उसे देखें ,और जानें कि हमने दूसरों को कितना अनदेखा किया,उन्हें दुख दिया,उपेक्षा की ….। देवी की यह कविता और अधिक मनुष्य हो पाने की अभिलाषा बल्कि लालसा की अभिव्यक्ति है। फरवरी जा रही है। वसंत अब नहीं आता।अब उस तरह दौड़कर मिलने कोई नहीं आता। जहाज आधा टेढ़ा हो कर डूबने को है। लेकिन जहाज का पंछी कहाँ जायगा ,क्या होगा उसका। लेकिन मैं इसी कविता में दूसरा जहाज भी देख रहा हूं- जैसे बचाने वाला रेस्क्यू इस आ पहुंचा है। अच्छी कविता की यही तो ताकत है कि वह बचाने आ ही जाती है- “आइ गयउ जिमि पोत'”।अब बात चूंकि फरवरिया रही है सो अपनी एक बेहद पुरानी कविता भी जड़ दे रहा हूं-

    रंग बिरंगे फूल
    भावना की सुवास है
    हफ़्ते भर का है वसंत
    फरवरी मास है

    इतने बरसों बाद
    तुम्हारा दो दिन का दिल्ली प्रवास है

    मिलना हुआ और होकर भी
    जो कुछ है सब कुछ उदास है…

    Reply
  26. Rajesh Kamal says:
    3 weeks ago

    अदभुत है दूसरा भाग ,आप लगातार लाजवाब करते जा रहे हैं ।कविता पढ़ते हुए आँखें नम होती हैं ,कई बार ऐंज़ाइयटी में ले जाती है फिर निकालती भी है ।

    Reply
  27. Anonymous says:
    3 weeks ago

    बहुत ज़रूरी कविताएँ

    Reply
  28. Shampa Shah says:
    2 weeks ago

    कुछ थिर करती, कुछ थिर हो कर पढ़ने को बाध्य करती कविता☘️☘️☘️

    Reply
  29. चन्द्र प्रकाश श्रीवास्तव says:
    1 week ago

    ऐसी कविता रची जाने की अनिवार्य शर्त है कि कवि की रगों में अनेक फरवरियों का रक्त दौड़ रहा हो.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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