इन दो प्रमुख नामों के बाद प्रदर्शन के आधार पर दिलीप कुमार को ‘ट्रेजिडी किंग’ (दुखांत का बादशाह) कहा गया, जो सचमुच उनकी तब की मेला, जोगन, शहीद, अन्दाज़, दीदार, शिकस्त,आदि फ़िल्मों की किरदारी ख़ासियत और उसे साकार करने की अभिनेयता का सच्चा साखी रहा,. इसका शीर्ष प्रमाण ‘देवदास’ है. फ़िल्मी दुनिया में छबि (इमैज) का दोहन होता है, उसे भुनाया जाता है. दिलीप कुमार की दुखांत छबि (ट्रैजिक इमेज) का भी यही हुआ. सो, कई-कई फ़िल्मों में कई-कई पारो के लिए मरते रहे, किसी चंद्रमुखी के साथ अगले जन्म में जीने की तमन्ना भी रखते रहे. अपने मरने को सच-सा जीवंत बनाने की सफल कोशिश करते रहे. और इसके बीच अभिनय में गहन अवसाद को निरंतर साकार करते-करते – यानी मरणान्तक अवसाद को जीते-जीते दिलीप साहब अपने वास्तविक जीवन में भी अवसाद (डिप्रेशन) में चले गये,. डूबकर अभिनय करने की उनकी कला-प्रक्रिया का इससे बड़ा ज्वलंत प्रमाण और क्या हो सकता है!! हालत ऐसी हुई कि उन्हें डॉक्टरों की शरण में जाना पड़ा. और डॉक्टरों ने कहीं देश-विदेश के एकांत-गुलज़ार पर्यटन-स्थलों पर जाकर कुछ दिन विश्रांति में रहने की सलाह दी, ताकि माहौल भी बदले, प्रदर्शन की सृजन-प्रक्रिया के तनाव से मुक्ति मिले एवं अवसाद के मनोरोग से छुटकारा मिले,. और हुआ भी ऐसा ही,. फिर वापसी के बाद डॉक्टरों के निर्देश पर ही ऐसी भूमिकाओं से बचने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में उन्होंने ‘लीडर’, ‘राम श्याम’, आज़ाद,’ ‘कोहिनूर’ जैसी फ़िल्मों में खिलन्दड़े प्रेमी की हास्य-विनोद से भरी मनोरंजक भूमिकाएँ कीं. ट्रेजीडी किंग में भी था तो रूमान ही, पर दुखांत हो जाता था. अब सुखांत यानी सारी जद्दोजहद के बाद नायिका को पाने वाले किरदार किये, जिनमे रूमानी नायक (रोमेंटिक हीरो) की छबि साकार हुई.
दिलीपजी के अभिनय में इस पूरी यात्रा का एक रूपक भी है, ‘मुगले आज़म’ में जब पहली बार अनारकली की क़ैद से रिहाई का कारण उसकी बेवफ़ाई को बता दिया गया है, तो उसे बेतरह झिड़ककर झापड़ की तरह धक्का मारते हुए ‘तुम मेरी अनारकली नही, एक झूठी क़सम थी, जो मेरा ईमान बिगाड़ गयी,’ आदि शब्दों में दुतकारने के बाद बेहद गमगीन हुए नौरोज़ की महफ़िल में आते हैं– बिलकुल ट्रेजेडी किंग बनकर. लेकिन जब अनारकली के गीत के बोल फूटते हैं – ‘इंसान किसी से दुनिया में इक बार मुहब्बत करता है’, तो डबडबायी-सी आँखें उत्सुकता से झपकनी शुरू होती हैं, फिर धीरे-धीरे खुलनी शुरू होती हैं और जैसे-जैसे मुहब्बत की बेबाक़ी और उसके लिए ही जीने के बुलंद इरादे गीत-नृत्य-अदाओँ में व्यक्त होते-होते अंत में बादशाह के पैरों पर क़टार रखते हुए ‘इश्क़ में जीना, इश्क़ में मरना और हमें अब करना क्या,’! पर परवान चढ़ते हैं, वैसे-वैसे सलीम भी खुलते-खिलते, गर्वान्वित होते-होते रूमान के आख़िरी पड़ाव पर ‘बाग़ी प्रेमी’ के अवतार में बादशाह से पहली बार मुख़ातिब होते हैं – मौन आमना-सामना पहले हो चुका था. यानी मुगले आज़म फ़िल्म का यह हिस्सा उनके फ़िल्म-कैरियर के डेढ़ दशक की अभिनय-कथा का ट्रेलर बन गया है.
ट्रेजीडी के बाद इस रूमानी व बाग़ी प्रेमी के अलावा अन्य बदलावों में पहले की फ़िल्म ‘पैग़ाम’ की सरणि में नया दौर, गंगा-जमुना, सगिना महतो, संघर्ष,आदि जैसी सोद्देश्य-समस्यामूलक फ़िल्में कीं. फिर तो ‘ट्रेजिडी किंग’ मात्र की छबि न रही, बदल गयी – ‘ट्रेजीडी किंग’ उनके काम का सही वाचक न रहा. लेकिन लेबल तो लग ही गया था और दुनिया तो लकीर की फ़क़ीर है, लिहाज़ा वह नाम हटा नहीं. लोग आज भी उन्हें ‘ट्रेजीडी किंग’ कहे जा रहे हैं, जो सही व उचित नहीं. यह नाम उनके कला-वैविध्य को सीमित कर देता है. दिलीप जी का बहुआयामी कलाकर उसमें समाता नहीं. उन्होंने ऐसा कोई ठप्पा लगाने न दिया अपने पर. हर तरह की भूमिकाएँ करते रहे, जिनके यथासंभव आकलन आगे होते रहेंगे.
इस मामले में भी दिलीप कुमार अपवाद रहे कि १९४२-४४ से १९९८ तक के लगभग ५८ सालों के फ़िल्मी सफ़र में कुल ६३ फ़िल्में की हैं, जिनका समूचा औसत एक साल में एक फ़िल्म का आता है. वैसे वर्ष १९४८ में सर्वाधिक ६ फ़िल्में (घर की इज्जत, शहीद, मेला, अनोखा प्यार, नादिया के पार, शबनम) प्रदर्शित होने का उनका अपना रेकॉर्ड ही कहा जायेगा,. फिर उसके अगले सालों में भी ३-३ फ़िल्में तो अकसर आ जाती रहीं. इस प्रकार १९६० तक लगभग १८ सालों के दौरान ३४ फ़िल्में आयीं– दो फ़िल्में प्रति वर्ष का औसत. फिर अगले ४२ सालों में २९ फ़िल्में. लेकिन इन आँकड़ों के बरक्स देखें, तो ३७ सालों के सफ़र में अनुपम खेर ५०० फ़िल्में कर चुके हैं. माना कि नायक की भूमिका वाली खेर की बहुत कम फ़िल्में हैं, फिर भी!! लेकिन नायक के रूप में भी देखें, तो अक्षय कुमार व अजय देवगन जैसे लोग ३० सालों में सवा सौ फ़िल्में कर चुके हैं. तब समझ में आता है कि दिलीप साहब की फ़िल्में चल रही थीं, ढेर सारे प्रस्ताव (ऑफ़र्स) आ रहे थे, तो भी उन्होंने अन्य कलाकारों की तरह थोक में कभी फ़िल्में स्वीकार (साइन) नहीं कीं.
हमेशा चरित्रों को लेकर अपनी पसंद व निभायी जाने वाली भूमिकाओं के चयन के आग्रही रहे. आज के अक्षयकुमार, अजय देवगन, आदि लोग इतनी सारी फ़िल्में करने के अलावा एकाधिक कम्पनियाँ (प्रोडक्शन हाउसेज) भी चलाते हैं. कभी पत्नी निर्माता होती है, कभी बच्चे तो कभी घर (का नाम) भी. अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए हैं फ़िल्म-दुनिया में कदम रखे, और तापसी पन्नू ने अपनी कम्पनी खोल ली. ये अभिनेता इन कम्पनियों के प्रबंधन-संचालन व हिसाब-किताब का भी काम करते हैं. आयकर से उलझते हैं, व्यय के विधान से जूझते हैं,और इतने सबके बीच धड़ा-धड़ अभिनय किये जा रहे हैं. शायद आज के यांत्रिक-भौतिक युग ने आदमी की सृजन-चेतना में, उसके दिल व ज़ेहन में भी स्वचालित मशीन या कम्प्यूटर फ़िट कर दिया है.
अब अभिनय जैसी कला भी ज़ेहनी (बल्कि मैनुअल भी) न रहकर मशीनी हो गयी है. अब तो (फ़िल्म ‘डैडी’,वग़ैरह के बाद) अवसाद की वैसी फ़िल्में बनतीं भी नहीं. क्योंकि आदमी ने टूटकर प्यार करना अमूमन छोड़ दिया है. सो, प्यार के टूटने-छूटने का कोई असर नहीं. हर दस-पंद्रह साल पर बीवी तक बदलने की प्रवृत्ति चल पड़ी है. कलाकार पति-पत्नी साथ मिलकर तलाक़ की जन-घोषणाएँ करते हैं. आज का प्यार व भाषा देखें – ‘रिलेशन में हैं’ और ‘ब्रेक-अप हो गया है’, कहना ऐसा लगता है, जैसे ‘खा रहे हैं’ व ‘खा लिया है’,कहा जा रहा हो. ऐसे में किसी के अवसाद में जाने का मामला ही नहीं बनता – यानी आदमी बदल गया है. अब तो ‘ऐंग्री यंग मैन’ की भूमिका वाली दर्जन भर फ़िल्में करके भी आदमी शरीफ़ ही नहीं, ‘महान’ और ‘देव’ बना रहता है. ऐसा सब कमोबेस उस समय भी होता रहा,परंतु दिलीप साहब का ऐसा न था. उन्होंने तो कोई विज्ञापन फ़िल्म भी नहीं की – सिवाय किसी मित्र के लिए एक फ़िल्म के, जिसका कोई पैसा नहीं लिया. वे भूमिका चुनते भी थे जाँच-परख कर, जिसमें कोई ख़ास जगह व्यावसायिकता के लिए न होती. फिर उस चरित्र के साथ तदवत (आइडेंटिफाइ) होने की मानसिक प्रक्रिया को व्यवहार में उतारते रहते– कृष्णमय होने की विद्यापति की राधा की तरह– ‘अनुखन माधव-माधव रटइत सुंदरि भेलि मधाई’. प्रस्तावों को अस्वीकार करते हुए वे बाक़ायदा अपने चयन और फ़िल्म पर पूरा समय देने तथा भूमिका के साथ अधिकतम एकाकार होने की अपनी बात को साफ़-साफ़ कहते भी थे. इसके लिए उन्होंने कमाई को ही नहीं त्यागा, खुद उन्हीं के एक साक्षात्कार के साक्ष्य पर इस कला-मूल्य के लिए जीवन तक की क़ुर्बानी दी.
मधुबाला के प्रति अनन्य अनुरक्ति के बावजूद इस कला-मूल्य के लिए वहाँ भी नहीं झुके. मधुबाला के पिता अताउल्ला खां देहलवी नहीं चाहते थे कि बेटी शादी करके कहीं जाये और उनकी इतनी बड़ी आमदनी, जिससे ११ बच्चों वाला उनका घर चलता था, बंद हो जाये. लेकिन इन दोनो के बढ़ते प्रेम-सम्बंधों के चलते उन्होंने एक चाल चली. कहा कि उनकी एक फ़िल्म-निर्माण कम्पनी है. शादी के बाद उन दोनो को सिर्फ़ उन्हीं की कम्पनी के लिए फ़िल्में करनी होंगी. ज़ाहिर है कि घर के ही दो-दो सुपर स्टार के साथ वे मनचाही फ़िल्में बना-बनवा कर लाखों-करोड़ों का फ़ायदा कमाना चाहते थे. इसी बीच मधु-दिलीप की भूमिका वाली फ़िल्म ‘नया दौर’ बनने लगी, जिसे फ़िल्माने के लिए पूरे समूह (यूनिट) को मध्यप्रदेश जाना था. दिलीप की उपस्थिति में अताउल्लाजी ने बेटी को जाने से मना कर दिया. तब अंतत: मधुबाला की जगह वैजयंती माला को लेकर बी. आर. चोपड़ा ने नए सिरे से फ़िल्म शुरू की. और मुक़दमा भी शुरू हो गया. गवाही में दिलीप कुमार ने मधुबाला के प्रति अपने बेइंतहा प्रेम का खुल कर इज़हार किया, लेकिन मधुबाला के पिता पर बेटी के शोषण से लेकर उसके पेशेवर जीवन में बेजा दख़लंदाज़ी के आरोप भी खुलकर लगाए, इतनी बेबाक़ी की उम्मीद मधुबाला को नहीं थी.
उधर अब भी दिलीप साहब अपनी ‘मधु’ से शादी के लिए तैयार थे और उन्हें अपने प्रेम पर विश्वास भी था. लेकिन मधुबाला ने दिलीप कुमार के सामने अपने पिता से माफ़ी माँगने या खेद व्यक्त करने (सॉरी बोलने) की कठिन व बेजा शर्त रख दी, जो दिलीप साहब को कदापि मंज़ूर न हुई. इस प्रकार इस कलाकार ने अपनी मनचाही ज़िंदगी छोड़ दी. अपने कलामूल्य के लिए जीवन को हार दिया– वार दिया. नैतिकता और मूल्यवत्ता के ऐसे द्वंद्वों के समय ही सही व खाँटी की पहचान होती है. ऐसी जानलेवा कशमकश के बीच ही मनुष्य की प्रतिबद्धताओं का पता चलता है. बहरहाल, मधुबाला के अंतिम दिन काफ़ी त्रासद रहे. तब दिलीप साहब उन्हें देखने भी गये थे– गोया ‘जज़्बात निभाये हैं उसूलों की जगह’. जीवन और कला के प्रति यह निष्ठा ही दिलीप कुमार को दिलीप कुमार बनाती है. कहते हैं कि देखने जाने की पहल पत्नी सायरा ने करायी थी- दोनों के घनिष्ठ सम्बंधों को जानने के बावजूद.
अंतस्थ की प्रक्रिया और अपनी उसूली प्रतिबद्धता के साथ दिलीप कुमार के अभिनय की वाह्य स्थिति को जोड़ कर देखें, तो उनकी अदाकारी की रेखीयता (ग्राफ़) और कलामयता के फलक (रेंज मान लें) को समझा जा सकता है. यह बात कहीं पढ़ने-जानने से नहीं, अपने निरीक्षण से एक प्रयोग की तरह कह रहा हूँ और इसकी पुष्टि का मुंतज़िर भी रहूँगा कि दिलीप साहब इकले कलाकार हैं, जिनके शरीर का सबसे कम हिस्सा पर्दे पर खुला दिखता है– चेहरा और कलाई के बाहर का हाथ, बस, कभी खाट से उतरने वग़ैरह के दृश्य में अपवाद स्वरूप (शायद ‘आदमी’ फ़िल्म में) पैरों का निचला हिस्सा अवश्य दिख गया है, लेकिन और कुछ नहीं. इससे बने अफ़साने नहीं, अफ़वाह की बात यह कि उनके भर शरीर में बाल थे और इस अफ़वाह की कोई तसदीक मेरे पास नहीं. अनिल कपूर,आदि जैसे कुछ कलाकर हैं, जो बालों के कभी दिख जाने से आपत्ति नहीं करते. लेकिन इससे उलट दिलीप साहब ने किसी को कभी इसकी भनक तक न लगने दी– झलक तक न दिखने दी, लेकिन मुझे तो यहाँ उस कमाल की बात करनी है, जिस पर आप भी गौर कीजिए कि अभिनय में देह सबसे प्रमुख है– बल्कि कालिदास के शब्दों में कहें, तो ‘शरीरमाद्यम खलु धर्म साधनम्’ (शरीर ही सभी धर्म-साधनाओँ का आदि माध्यम) है. और उसी आदि माध्यम के कम से कम हिस्से का इस्तेमाल करके अधिक से अधिक परिणाम (आउटकम) देने की यह क्षमता कला के उस प्रतिमान की मिसाल है, जिसमें सबसे कम साधन का इस्तेमाल करके सबसे अधिक प्रभावी अभिव्यक्ति होती है. इसके तहत साहित्य को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि ‘कविहिं अरथ-आखर बल साँचा’– अक्षर भर ही उसके साधन हैं और कम अक्षरों में असीम अर्थ भरने की प्रतिज्ञा भी उसमें निहित है– ‘अरथ अमित अति, आखर थोरे’. तो दिलीप साहब के अभिनय के ‘अरथ-आखर’ हैं – चेहरा और कलाई के बाहर का हाथ. इसी पिंड में वे रचते हैं अभिनय का ब्रह्माण्ड या इसी में होता है अभिनय का ‘असीम अवसित’.
अब कहने का मोह-संवरण नहीं हो पा रहा कि यह कलामानक आज कितना गिर गया है– कैलाश वाजपेयी के शब्दों में ‘कितना उघड़-उधड़ गया है’ कि बिना शर्ट उतारे व बिना समूची देह दिखाये आज के सितारों की फ़िल्म का चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) बनता ही नहीं. और तो और क्या कहें चंद्र प्रकाश द्विवेदी जैसे कलमर्मज्ञ को, जिनने इतना अच्छा तो सीरियल बनाया ‘चाणक्य’, लेकिन उसके चंद्रगुप्त की उठी हुई छाती बार-बार न जाने क्यों दिखाते रहे और कभी यह न देख पाये कि वह आकृति ऊँट की पीठ जैसी उभर आती है. ऐसे कला-स्खलन के समय में दिलीप साहब का अभिनय जो मानक रचता है, उसे छूना तो क्या, उस तक नज़र उठा पाना भी आज के नामी-गरामी कलाकारों के लिए सम्भव न रहा,और जिनमे सम्भव है- आज का फ़िल्म-उद्योग उसे समझता ही नहीं– तवज्जो ही नहीं देता,. ऐसे कला मूल्य आज कालबाह्य (आउट ओफ़ डेट) समझे जाते हैं. यह उद्योग कमोबेस ऐसा ही तब भी था, लेकिन इस तरह की सारी व्यावसायिकता व भौतिकता को विजित करके दिलीप कुमार ने फ़िल्म-संसार में अपना अलग मुक़ाम बनाया.
बड़ा दिलचस्प रहा इसे पढ़ना। सोचा था बाद में पढ़ूंगी क्योंकि काम करने के लिए लैपटॉप ऑन हो चुका था। फिर भी एक सांस में पढ़ गई।
अभी कुछ दिनों पहले सुरेखा जी के लिए कुछ ऐसे ही अद्भुत पोस्ट को आप ने हमसे साझा किया , और अब दिलीप जी के लिए । धन्यवाद ।
आप की लेखनी की कला बिल्कुल वैसे ही है जैसे दिलीप जी कला नामों से परे रही ।
दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन थोड़े बेमिसाल नक्षत्रों में से हैं जिनके अभिनय की कला और गहराई पर किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो सकता है।उनकी गिनती मोतीलाल, बलराज साहनी,संजीव कुमार,प्राण जैसे कालजयी अदाकारों की परंपरा में होती है। इसमें दो राय नहीं है कि दिलीप कुमार बार बार पैदा नहीं होते। यह आलेख उनके जीवन के विविध प्रसंगों और पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है।
जीवन में पढ़ने -लिखने का सिलसिला जबसे चला है तब से लेकर अब तक कई सारे लेखों को पढ़ा है किंतु सर के लेख को लेकर जो उत्सुकता जो होती है वो शायद ही कहीं और देख पाती हूं ।कुछ दिन पहले सर के ही माध्यम से साझा एक पोस्ट सुरेखा जी को लेकर देखा सुखद अनुभव हुआ ठीक वैसे ही आज यूसुफ़ से दिलीप का सफर और कलाकार अपना अंदाज़ यह जानने और समझने का मौका इस लेख के ज़रिए मिला । सौभाग्य ही है जो कुछ बातों का फर्क करना और फर्क समझना इनके सानिध्य से प्राप्त हुआ है नहीं तो क्या फर्क पड़ता की दिलीप,दिलीप के अलावा भी यूसुफ़ और न जाने क्या -क्या हैं ।बहुत फर्क पड़ता है कलाकार को सिर्फ कलाकार होते हुए देख ।
अप्रतिम लेख सर🙏पहले शब्द को पकड़कर मन बिल्कुल बहता हुआ अंतिम शब्द तक कब आया पता ही नहीं चला…कमाल!!
बहुत बेहतरीन अंदाज़े बयाँ, शीर्ष अभिनेता को आपने तहेदिल से उनकी शख्सियत के मुताबिक नवाज़ा ।
त्रिपाठी जी त्रिपाठी जी सदर प्रणाम,
बेहतरीन लेख। दिलीप कुमार पर यह संस्मरण/लेख पढ़ते हुए हम हिंदी सिनेमा के क्लासिक को समझने की दृष्टि अर्जित कर सकते हैं।
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उन कुचेष्टाओं का भी संज्ञान लिया है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दिखती हैं। बनाम और बरक्स का हवाला ऐसे कुत्सित अभियान का माकूल उत्तर है। दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ खान ने बनाम न चलने दिया, बरक्स ही चल निकला!
“अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.”
कलाद्वेषी जमात को सटीक जवाब।
जानकारी पूर्ण और बेहद मार्मिक। शुक्रिया सत्यदेव जी ।
😅 लेख बहुत लम्बा था! पढ़ने में काफ़ी समय लगा और पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा।
There are so many films you’ve cited here; I didn’t know half of them. 😂 But I am glad I know them now.
What I liked the most is your unique way of leading the reader through Dilip Kumar’s acting style, delivering dialogues, genres of films, his personal life and all of this without a hitch.
Loved reading this. Honestly, next when I watch Mughal e azam, I shall be watching it in a new light😀
Forever grateful to you for showing things with a new interpretation.
Der se padh payi… Kintu hamesha ka tarah sachmuch atyant sunder likha hai….