ऐसे दिलीप कुमार का अभिनय जब अपने उरोज को पार कर रहा था, हम किशोरावस्था की देहलीज़ लांघ रहे थे और मुम्बई की डाक-तार सेवा में नौकरी पर लग गये थे. वही समय देवानंद, राजकपूर व राजकुमार के अभिनय के उत्कर्ष के असीम सीमांत का भी था. विभागीय प्रशिक्षण में मुम्बई से हम १२ लोग साथ थे और बारहों की नियुक्ति ‘एयरपोर्ट छँटाई कार्यालय’ में हो गयी थी. उनमें से हम चार लोगों की सिनेमा देखने की दीवानगी प्रशिक्षण-काल में सामने ही नहीं आ गयी थी, वरन कुछ रविवारों को खाने के बाद भाड़े की सायकल लेकर बड़ौदा शहर के थिएटरों तक भी ले गयी थी. उनमें संयोग ऐसा बना कि हम चारों की दीवानगियाँ भी इन चारो सितारों के प्रति अलग-अलग निकलीं, शैलेंद्र दुबे दीवाना निकला राजकुमार का, अशोक बेलवलकर देवानन्द का, चंद्रहास शानभाग राजकपूर का और मैं दिलीप कुमार का.
नियुक्ति के बाद हम चारो की स्थिति तब ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ की थी, सो चारो अपनी ड्यूटी अप्पा साहब ढमढेरे से अनुनय करके साथ लगवा लेते और ड्यूटी के बाद निकल जाते फ़िल्म देखने, इन चारों कलाकारों की फ़िल्में ख़ास निशाने पर होतीं और जिस फ़िल्म में इनमें से दो कलाकर साथ होते, उसके लिए तो हम कुछ भी करते, तब सिर्फ़ अलग तरह के मज़े के लिए ऐसा करते हुए यह पता न था कि मूल्यांकन सदा सापेक्ष्य हुआ करता है. और हम आनायास इन चारो को सापेक्ष्यता में देखने लगे थे. उन दिनों मुम्बई में रविवारों को सुबह ९ बजे का ‘मॉर्निंग शो’ भी होता था, जिसमें विरल फ़िल्में दिखायी जातीं. १२ बजे का मैटिनी शो तो रोज़ होता ही, जिसमें प्रायः अलग फ़िल्में लगतीं. हम ९ बजे के शो में दिलीप-राजकुमार अभिनीत ‘पैग़ाम’ देखने ग्रांट रोड के ‘अलंकार’ थिएटर पहुँच गये थे, तो दिलीप-राजकपूर की ‘अन्दाज़’ देखने सुबह ९ बजे ग्रैंट रोड पे ही ‘अप्सरा’ चले गये थे और दिलीप-देवानंद को लेकर बनी ‘इंसानियत’ हमें दादर के ‘ब्रोडवे’ (जो सबसे पहले शॉपिंग कोम्पलेक्स बना) में भेंटाई थी.
हम ढाई घंटे फ़िल्म देखते, फिर किसी ईरानी होटल में चाय पर अपने-अपने हीरोज़ के गुणगान और दूसरे की कमियाँ निकालते तीन घंटे बैठे-बैठे एक दूसरे से लड़ते-उलझते रहते. ‘पैग़ाम’ से निकलकर दुबे कहता– ‘दिलीप कुमार को खा गया है राजकुमार’. मैं कहता मिल मालिक सेठ की चमचागीरी (स्वामी-भक्ति) करने वाला राजकुमार क्या खाके खायेगा दिलीप कुमार को? अरे बड़ा भाई है, इसलिए लिहाज़ करने में दिलीप का किरदार ज़रा विनम्र है, बस. वरना मालिक से बहस करने और यूनियन का नेतृत्व करते हुए शोषण-अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष का मूल काम तो दिलीप कुमार ही करता है और अंत में उनकी भी आँखें खोलने का काम करके दिलीप कुमार ही विरोध की चेतना को अंजाम तक पहुँचाते हैं!!
गरज ये कि तब यही हमारी भाषा थी और यही समझ थी. पर आर-पार की इन्हीं अधकचरी बहसों में कहीं हमारी सिनेमाई समझ पनप रही थी या कुछ बन रही थी और वही शायद ‘सुबइ समय अनुकूल’ पाकर समीक्षा लिखने की तरफ़ ले गयी. अब तो मॉल और मल्टीप्लेक्स में न वे ईरानी होटेल बचे, न ९ बजे वाले सस्ते शोज़. उनके बिना यह मुम्बई हमें मुम्बई नहीं लगती– हमारी मुम्बई तो वहीं कहीं खो गयी. और अब क्या कहने की ज़रूरत है कि इसके केंद्र में कर्ता बनकर बैठे थे दिलीप कुमार, उन आरम्भिक दिनों में उनकी फ़िल्में न मिलतीं, तो इस विशाल कला-संसार में हमारा आना ही न होता,. होता भी, तो ऐसा न होता,और ऐसा तमाम लोगों के साथ हुआ होगा,, जिनकी रुचि फ़िल्म-कला में जगायी होगी दिलीप कुमार के अभिनय ने. यहीं कह दूँ कि ‘पैग़ाम’ के इसी किरदार का और प्रौढ़ व विश्वस्त रूप दिलीप कुमार के अंतिम दौर की फ़िल्म ‘मज़दूर’ में अधिक खुलता है, जो उनके पात्रत्व की प्रौढ़ उम्र के समानांतर होने से खूब खिलता भी है.
उल्लेख्य है कि दिलीप कुमार के अभिनय का असर ही ऐसा था- हमारी पीढ़ी तक तो था. या अब भी हो, हमें मालूम नहीं. लेकिन तब के असर के उदाहरण दे सकता हूँ. बेलवलकर ने अपनी बदली थाने करा ली– अपने घर के पास. हम तीन रह गये. राजकपूर का दीवाना शानभाग सबकी मिमिक्री करता था, लेकिन दिलीप कुमार की मिमिक्री के प्रस्ताव पर अपने कान पर हाथ रख लेता– ‘ना बाबा, उसकी नहीं कर सकता,बड़ा कलाकर है वो’. लगे हाथों यह कि दिलीप कुमार भी मिमिक्री करते थे, लेकिन जनता के बीच नहीं, घर में सायराबानो के सामने– हेलेन तक की मिमिक्री करने के उल्लेख मिलते हैं. जैसे करीना आइटम सॉंग करती है घर में सिर्फ़ अपने सैफ़ के लिए. लेकिन फ़िल्मों में ऐसा कई बार करते हुए देख सकते हैं- याद कीजिए ‘राम श्याम’ में काग़ज़ात पर दस्तख़त कराने आये पारसी किरदार के बोलने की नक़ल तुरत की तुरत करते हुए– ‘साहब, हम आटा टो है, मगर साइन नईं कड़ता’,. ख़ैर, खालसा हॉस्टल में मिला प्रतापगढ़ का रामचंद्र पांडेय, जो दिलीप कुमार की तरह के कपड़े पहनता, उन्हीं की तरह के बाल रखता, वैसे ही चलता-बोलता, और यह सब गम्भीरता पूर्वक करता. चिढ़ाने-उड़ाने की रौ में उसका नाम दिलीप कुमार पड़ा था, लेकिन इस पर वह गर्वान्वित होता, मिल में ड़ाइंग सुपरवाइज़र था और छात्रावास में रहने के लिए बी.ए. में दाखला ले रखा था. तब रहने का यह भी एक रास्ता था. खालसा से पढ़ाई पूरी हो जाने पर एन.एम. (विलेपार्ले) के लॉ कॉलेज में मैंने भी प्रवेश लेकर छात्रावास हासिल करने की कोशिश की थी. अब तो हॉस्टल भी न रहे, सो, पांडेय का उद्देश्य पास होना था ही नहीं. सब उससे पूछते– तुम्हारी योजना पंचवर्षीय है या सप्तवर्षीय? और ऐसा बंदा दिलीप कुमार की फ़िल्म लग जाये, तो अपनी ड्यूटी के हिसाब से पूरे सप्ताह का टिकट एक ही दिन खरीद लेता था. ऐसा पागल-दीवाना (क्रेजी) मैंने दूसरा न देखा.
मुझ पर असर की बात मेरे लिए ही अनिर्वचनीय है. दुबे के साथ ही ‘मधुमती’ देखी थी. डाकखाने की नौकरी मिले कुछ महीने ही हुए थे. कुछ पैसे इकट्ठा करके मां-बहनों-भांज़े-भांजियों के लिए कुछ लेके घर जाने की मंशा थी, लेकिन न जाने क्या हुआ, उस शाम इतना बेचैन हुआ कि दूसरे दिन ऑफ़िस में दस दिनों का मेडिकल भेज दिया और चालू डिब्बे में बैठ कर गाँव भाग गया, उस पीड़ा को आज तक बता नहीं सकता,तब घर पे मां-बहनों व गाँव को भी नहीं बता सका था कि नयी-नयी नौकरी से इस तरह कैसे और क्यों भाग आया !! लेकिन इससे बड़ा हादसा कुछ दिन बाद हुआ. तब नौकरी के साथ खालसा कॉलेज में बी.ए. में दाख़िला ले चुका था और फ़ुफ़ेरे बड़े भाई श्रीधर तिवारी के साथ रविवार के दिन शाम को घाटकोपर में ‘देवदास’ देख रहा था.
पारो-वियोग के बाद शराब में धुत दिलीप कुमार जिस तरह गहरी वेदना से तिक्त, सुर्ख़ डोरों भरी सूनी आँखों से किसी भी एक तरफ़ अपलक देखते हैं, तो देखते रह जाते हैं, उस सबका जाने क्या असर पड़ा कि मध्यांतर में हम चाय पीने चले और दो-चार लौंडे मुझे मारने के लिए अपनी सीटों से उठकर लपके, मुझे कुछ भान भी न हुआ, कि तब तक लम्बी-भारी देह-यष्टि वाले भैया बीच में आ गये, पता लगा कि उनके और साथ बैठी लड़की के मुताबिक़ मैं लड़की को घूर रहा था. भैया मेरी दीवानगी जानते थे,रविवार की सुबहों को उठकर छह लोगों के लिए दाल-भात-भाजी बनाके ९ बजे के ख़ास (स्पेशल) शो में दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने जाते देखते थे, बात-बात पर दिलीप कुमार के संवाद सुन-सुन के ऊब चुके थे, ‘मधुमती’ के बाद गाँव भाग जाने वाला हादसा रोक न सके थे,. लिहाज़ा उन बच्चों को समझाया- ‘भाई, वह किसी को नहीं देख रहा है. दिलीप कुमार के नशे में है’. कुछ अहसास मेरे चेहरे व आँखों ने भी कराया होगा, मामला शांत हो गया. उस दिन भैया न होते, तो जाने क्या होता !! कुछ गड़बड़ मेरी आँखों की ख़ामी के चलते किंचित तिर्यक देखने ने भी की होगी.
लेकिन उस दिन के बाद जब तक भैया के साथ रहा, उन्होंने दिलीप कुमार की फ़िल्म देखने मुझे अकेले न जाने दिया. किसी को साथ लगा देते. कुछेक बार तो अपने ट्यूशन वग़ैरह छोड़कर खुद भी आये, पर फ़िल्म देखने से न रोका– ऐसे लोग, ऐसे रिश्ते भी अब कहाँ रहे,!!
वही कालखंड किंवदंतियों से रू-ब-रू होने का भी था, क्योंकि मुख्य धारा से बाहर हम उस तबके में थे, जहां इन सितारों के जीवन की बातें तथ्यों से नहीं, इनके मुरीदों के मन-गढ़न्त वाक़यों से बनती हैं- ठीक वैसे ही जैसे ‘मैला आँचल’ के गाँव के लिए गांधीजी में ऐसी ताक़त थी कि अंग्रेजों के गोले-बारूद भी उनके शरीर पर बेअसर हो जाते थे. लेकिन उनका उल्लेख इसलिए ज़रूरी है कि आज दिलीप साहब पुराण (लीजेंड) बन गये हैं और पुराणों की निर्मिति में जनश्रुतियों का योगदान सबसे ज्यादा होता है– पुराण बन जाने का असली मतलब व परमान ही है- जन सामान्य तक पहुँच जाना. और यह काम किंवदंतीकार विषय को देखने-बखानने के बीच उसकी प्रवृत्तियों के बिलकुल अनुरूप अपनी लोक-कल्पना के पेबंद इस बारीकी और कौशल से लगाता है कि वह अपनी रोचकता में असल के भी कान काट ले.
उदाहरण के तौर पर फ़िल्म ‘संघर्ष’ को लेकर किंवदन्ती (या सचाई) यह बनी कि कुंदन (दिलीप कुमार) की पट्टीदारी के दो भाइयों में बड़े भाई गनेसी की जो भूमिका बलराज साहनी ने की, उसके लिए राजकुमार को लिया जाना था, जिसे सुनकर दिलीप कुमार ने फ़िल्म छोड़ देने की धमकी दे दी. मै इस बात से बेहद खुश हुआ कि अच्छा हुआ निर्देशक ने दिलीप साहब की बात मान ली और उन्हें ही नहीं बदल दिया, वरना ‘मोरे पैरों में घुँघरू बंधा दे’ वाले गाने पर दिलीप साहब के झमाकेदार अभिनय से तो हम वंचित रह ही जाते, एक संवाद भी ऐसा है, जिस पर फ़िदाई का मेरा मामला ज़ोरदार है. मेले में बिछड़ी बचपन की बालसखी मुन्नी जवान होकर नर्तकी वैजयंतीमाला बनकर तब नमूदार होती है, जब वही दोनो पट्टीदार भाई (बलराज साहनी व संजीव कुमार) शराब में ज़हर मिलाकर कुंदन (दिलीप) को पिलाना चाहते हैं और यह काम करने के लिए महसूल देकर मुन्नी को बुलाया गया था. लेकिन नाचते-नाचते वह अपने बाल सखा को पहचान जाती है और ज़हर वाला गिलास बदलकर संजीव कुमार को दे देती है. पार्टी के बाद नशे में झूमते-लड़खड़ाते कुंदन घर जा रहे हैं और पीछे से छिपकर मुन्नी उन्हें धीमे-धीमे बुलाती है. तब दिलीप कुमार भुनकते हैं–
‘जीयो द्वारका, क्या चीज़ पिलायी है,जो मन में है, उसकी आवाज़ भी सुनायी पड़ने लगी’!!
और इस छोटे से वाक्य में अनंत वियोग की वह कसक, लरिकइयवाँ के प्यार की वेदना और नशे में घुली रूमानियत यूँ घुमड़कर ढरक पड़ी है कि कलेजा चीर भी देती है, तर भी कर देती है,यूसुफ़ भाई ही कर सकते हैं यह कमाल.
राजकुमार के सामने भूमिका छोड़ने की इस किंवदंती का मर्म यही है कि हमारे दुबे की तरह बहुतों का मानना रहा कि राजकुमार के सामने कोई टिकता नहीं था, लेकिन ‘काजल’ में धर्मेंद्र, ‘दिल एक मंदिर’ में राजेंद्र कुमार, वक़्त’ व ‘हमराज’ में सुनीलदत्त, ‘मेरे हुज़ूर’ में जीतेंद्र कुमार, ‘मर्यादा’ में राजेश खन्ना, आदि जितनों को मैंने देखा, कोई भी अपनी भूमिका में ऐसे उखड़ते मुझे नज़र नहीं आया,. फिर दिलीप कुमार के यूँ उखड़ने व डरने का सवाल ही नहीं था. लेकिन किंवदन्ती दिलीप कुमार को ही लेकर बनी, जिसका आधार था – ‘पैग़ाम’ को लेकर बना अफ़साना, जिसमें राजकुमार द्वारा दिलीप कुमार को एक झापड़ मारने का दृश्य है. इसके औचित्य व मारने की बेजा तेज़ी को लेकर मन-मुटाव हुआ भी था. और इन सबको सिद्ध कर देता था यह इतिहास कि दोनो ने ३२ सालों तक साथ काम नहीं किया. और जब कार्य-काल (कैरियर) के अंतिम दौर में साथ आये ‘सौदागर’ में, तो सुभाष घई को बहुत बड़ा जोखिम लेने की ढेर सारी चेतावनियाँ मिली थीं, लोगों ने बहुत हड़काया था कि फ़िल्म पूरी न होगी,. इन सब कथित-घटित के बीच दिलीप साहब का सच तो यह है ही कि जिस अपने समकालीन व समकक्ष अभिनेता के साथ एक बार काम किया, फिर लगभग नहीं किया.
राजेंद्र कुमार की तो एक छोटे से किरदार के रूप में शुरुआत ही हुई थी दिलीप कुमार के सह-अभिनेता के रूप में- फ़िल्म ‘जोगन’ में. नरगिसजी थीं नायिका. फिर साथ न आये कभी,. राजकपूर तो हमवतन थे, सहपाठी (कॉलेजमेट) थे, उनके साथ काफ़ी शुरू में ही किया ‘अन्दाज़’, जो हिट भी हुई, लेकिन फिर कभी साथ काम न किया. सबसे त्रासद हादसा देवानंद साहब के साथ हुआ, जो इस दुनिया के सबसे अविवादित लोगों में प्रमुख थे. दोनो ने ‘इंसानियत’ (१९५५) के बाद फिर कभी साथ काम न किया. दोनो में कभी बोलचाल तक न हुई, जिसकी अन्य वजहों में विषयांतर के डर से अभी नहीं जाना है,. अभी यह बात पूरी हो जाये कि कुछ तो ऐसा था, जो दिलीप कुमार के साथ ही होता था और यही वह अवकाश (स्पेस) देता था लोगों को, जिससे ऐसी किंवदंतियाँ या अफ़साने बनते थे, जो पुरलुत्फ़ तो हैं ही, कला की जानिब से महान कलाकार के लक्षण भी हैं.
दूसरी ठोस किंवदंती फ़िल्म ‘शक्ति’ में अमिताभ बच्चन को लेकर बनी कि उसमें अमिताभ बच्चन से कहे अपने संवाद के बाद दिलीप कुमार उनकी तरफ़ देखते होते और अमितजी को संवाद बोलना था, लेकिन वे दिलीप साहब के देखने को देखते रह जाते और अपना संवाद भूल जाते – ३२ रीटेक हुए. अधिकतम तथ्य दो-चार रीटेक तक शायद हो सकता है, पर ३२ का आँकड़ा जितनी बड़ी अतिशयोक्ति है, अपने प्रिय कलाकार की उतनी ही बड़ी गरिमा की नियामक भी. जिस तरह ऐरे-ग़ैरे को मारकर नहीं, त्रिलोक के महान विजेता रावण को मारकर रामका रामत्व शीर्ष पर पहुँचता है, उसी प्रकार आधुनिक सिनेमा के सबसे बड़े सितारे के ३२ रीटेक से दिलीप कुमार के मुरीदों की जानिब से उनकी ऊँचाई आसमान छूती है.
ऐसी मार्मिक और निरापद अत्युक्तियाँ, जिसे सुनकर अमिताभ बच्चन भी लहालोट हो जाएँ, लोक मानस की फ़िदाई की जितनी बड़ी साखी हैं, उनकी कल्पना-शक्ति की उर्वरता (पोटेंसियलिटी) की उतनी ही बड़ी प्रमाण भी हैं. और अमिताभ से लेकर शाहरुख़ खान तक के तमाम लोगों में दिलीप कुमार के अभिनय व उनकी अदा के अक्स बहुत साफ़ हैं. शाहरुख़ के सम्बंध तो निजी जीवन में भी दिलीपजी के साथ काफ़ी घरेलू व पारिवारिक हुए, जिसके मूल में उनके अभिनय के प्रति शाहरुख़ की अपार मुतासिरी ही रही. और वैसे तो दिलीप साहब के अदा-ओ-अन्दाज़ की छापें कुछ न कुछ सबमें मिल जाती हैं,.
लेकिन देखने-समझने का असली मज़ा तब आया, जब चेतना कॉलेज पहुँचा और दिलीप साहब का परम दीवाना, सागर विवि से हिंदी में एम.ए. तथा हिंदी-मराठी का ठीकठाक समीक्षक अविनाश सहस्रबुद्धे (लायब्रेरियन) और अंग्रेज़ी अध्यापक व अंग्रेज़ी फ़िल्मों के रसिया जी.एफ. वासवानी से गाढ़ी दोस्तियाँ हुईं. वासवानी के कारण कुछ बड़ी अच्छी अंग्रेज़ी फ़िल्में अवश्य देखने के अवसर मिले, लेकिन वह हमारे साथ के लिए बतौर टाइम पास हिंदी फ़िल्में देखने आ जाता,. भगवान (अलबेला वाले) का दीवाना था. जब नशे में आ जाता, तो सड़क पर भी भगवान वाला नाच नाचते हुए ‘बजे रात के बारा, हाय तेरी याद ने मारा’ गाने लगता,तब सचमुच रात के १२ बजे भी होते, परंतु मेरी व अविनाश की रुचियाँ छनने लगीं, हममें बहसें छिड़ने लगीं, दिलीप कुमार की फ़िल्मों जितना ही दीवाना वह कबीर, निराला, मुक्तिबोध और धूमिल का था. असल में हिंदी साहित्य में इन्हीं चार को ही कवि मानता था और पूरे फ़िल्म जगत में कलाकार तो सिर्फ़ दिलीप साहब को मानता था. आप कह सकते हैं कि उसकी पसंद व मूल्यांकन का दायरा कितना तंग था, पर अपनी संवेदनात्मक वैचारिकी के प्रति उसकी जुनूनी प्रतिबद्धता कितनी खाँटी रही होगी कि तुलसी को कवि न मानने वाला शख़्स भी मेरा दोस्त रहा, क्योंकि दिलीप साहब की सर्वोच्च चोटी पर हम साथ थे. उनकी अभिनय की ख़ासियतों के द्वार मुझे शुरू-शुरू में उसी से विमर्श करते हुए खुलने-दिखने शुरू हुए,.
इन सबसे गुजरने के बाद कहने लायक़ हुआ और अब कह सकता हूँ कि देव-दिलीप-राज की मशहूर तिकड़ी में सभी खुद से बड़ा अभिनेता किसी को समझते न थे. राज तो चार्ली चैप्लिन को मान देते भी थे, लेकिन बाक़ी दोनो किसी को नहीं. देवानंद जितने बिंदास (उन्मुक्त) थे, दिलीप उतने ही आत्मसजग. राजकुमार की गणना इसमें नहीं होती थी, लेकिन तमाम दर्शकों व चर्चाओं में उनके दबंग अन्दाज़ एवं बुलंद आवाज़ का बोलबाला था. और दिलीप कुमार के साथ एक अनकही, पर बेहद उत्सुक होड़ सबकी हुआ करती थी, क्योंकि अभिनय तो भले ही सबका अपने-अपने अन्दाज़ व अपनी-अपनी तरह का बेजोड़ था, लेकिन बिना प्रशिक्षण के भी स्वनिर्मित रीतिसिद्ध अभिनय (मेथड ऐक्टिंग) का जो कौशल दिलीप साहब के पास था, वह वैसा किसी के पास नहीं था. उनके लिए ‘परफ़ेक्ट मेथड ऐक्टर’ नाम या विशेषण शायद सिने-संसार की अज़ीम हस्ती सत्यजित रे का दिया हुआ है.
वे भी इनकी अदाकारी को इसी रूप में मान देते. जिस तरह बोलते हुए दिलीप कुमार कथनीय के मुताबिक़ उर्दू भाषा के अपने अनुकूल तलाशे वाजिब शब्दों को अर्थ की तुला पर खरादते व अभिव्यक्ति की जानिब से तराशते थे, फिर अपने अन्दाज़-ओ-आवाज़ में बोलते नहीं, रचते थे, कि भाषा अलग तरह से बोलने लग जाती थी– वाणी का शृंगार हो जाती थी, उसी तरह अपेक्षित बात को अभिनय में उतारते हुए उसमें निहित भावों-विचारों के उपयुक्त क्रियाओं-गतियों-अंदाज़ों को जुहाते थे और सबको एक अद्भुत संगति में पिरोकर तदनुकूल वाणी व अदा के साथ प्रस्तुत करते, जिसमें प्रवाह व ठहराव (पॉज) का संतुलन लाजवाब होता. यह संगति व संतुलन विषय व भाव के मुताबिक़ पूरी तैयारी के साथ बनता और हर फ़िल्म में चरित्र के मुताबिक़ अलग-अलग होता तथा इसी से सबके सर चढ़कर बोलता,. उनके लगभग सभी दृश्य इस कला-कौशल की संगति से बने सौंदर्य के मानक हैं, जिसमें ‘देवदास’ फ़िल्म का चंद्रमुखी के सामने ‘कौन कम्बख़्त बर्दाश्त के लिए पीता है,’ से शुरू हुए काफ़ी लम्बे एकल संवाद का उदाहरण अक्सर दिया जाता है, जो है भी अद्भुत, लेकिन मैं यहाँ बोलने-करने की प्रमुखता के अनुसार दो दीगर उदाहरण दूँगा.
बड़ा दिलचस्प रहा इसे पढ़ना। सोचा था बाद में पढ़ूंगी क्योंकि काम करने के लिए लैपटॉप ऑन हो चुका था। फिर भी एक सांस में पढ़ गई।
अभी कुछ दिनों पहले सुरेखा जी के लिए कुछ ऐसे ही अद्भुत पोस्ट को आप ने हमसे साझा किया , और अब दिलीप जी के लिए । धन्यवाद ।
आप की लेखनी की कला बिल्कुल वैसे ही है जैसे दिलीप जी कला नामों से परे रही ।
दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन थोड़े बेमिसाल नक्षत्रों में से हैं जिनके अभिनय की कला और गहराई पर किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो सकता है।उनकी गिनती मोतीलाल, बलराज साहनी,संजीव कुमार,प्राण जैसे कालजयी अदाकारों की परंपरा में होती है। इसमें दो राय नहीं है कि दिलीप कुमार बार बार पैदा नहीं होते। यह आलेख उनके जीवन के विविध प्रसंगों और पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है।
जीवन में पढ़ने -लिखने का सिलसिला जबसे चला है तब से लेकर अब तक कई सारे लेखों को पढ़ा है किंतु सर के लेख को लेकर जो उत्सुकता जो होती है वो शायद ही कहीं और देख पाती हूं ।कुछ दिन पहले सर के ही माध्यम से साझा एक पोस्ट सुरेखा जी को लेकर देखा सुखद अनुभव हुआ ठीक वैसे ही आज यूसुफ़ से दिलीप का सफर और कलाकार अपना अंदाज़ यह जानने और समझने का मौका इस लेख के ज़रिए मिला । सौभाग्य ही है जो कुछ बातों का फर्क करना और फर्क समझना इनके सानिध्य से प्राप्त हुआ है नहीं तो क्या फर्क पड़ता की दिलीप,दिलीप के अलावा भी यूसुफ़ और न जाने क्या -क्या हैं ।बहुत फर्क पड़ता है कलाकार को सिर्फ कलाकार होते हुए देख ।
अप्रतिम लेख सर🙏पहले शब्द को पकड़कर मन बिल्कुल बहता हुआ अंतिम शब्द तक कब आया पता ही नहीं चला…कमाल!!
बहुत बेहतरीन अंदाज़े बयाँ, शीर्ष अभिनेता को आपने तहेदिल से उनकी शख्सियत के मुताबिक नवाज़ा ।
त्रिपाठी जी त्रिपाठी जी सदर प्रणाम,
बेहतरीन लेख। दिलीप कुमार पर यह संस्मरण/लेख पढ़ते हुए हम हिंदी सिनेमा के क्लासिक को समझने की दृष्टि अर्जित कर सकते हैं।
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उन कुचेष्टाओं का भी संज्ञान लिया है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दिखती हैं। बनाम और बरक्स का हवाला ऐसे कुत्सित अभियान का माकूल उत्तर है। दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ खान ने बनाम न चलने दिया, बरक्स ही चल निकला!
“अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.”
कलाद्वेषी जमात को सटीक जवाब।
जानकारी पूर्ण और बेहद मार्मिक। शुक्रिया सत्यदेव जी ।
😅 लेख बहुत लम्बा था! पढ़ने में काफ़ी समय लगा और पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा।
There are so many films you’ve cited here; I didn’t know half of them. 😂 But I am glad I know them now.
What I liked the most is your unique way of leading the reader through Dilip Kumar’s acting style, delivering dialogues, genres of films, his personal life and all of this without a hitch.
Loved reading this. Honestly, next when I watch Mughal e azam, I shall be watching it in a new light😀
Forever grateful to you for showing things with a new interpretation.
Der se padh payi… Kintu hamesha ka tarah sachmuch atyant sunder likha hai….