पहले बोलने का ही लें ‘मुगले आज़म’ से, कहना होगा कि यदि दिलीप साहब अभिनेता के पुराण हैं, तो ‘मुगले आज़म’ में उनका अभिनय ‘भागवत पुराण’ है. वैसे संवाद तो इकट्ठे इतने सारे कहाँ मिलेंगे,? कथन (नैरेशन) भले मिल जायें, और इनकी अदायगी भी बहुतेरी मिलेगी, पर दिलीप-पृथ्वीराज जैसी नहीं. मुक़ाबले मशहूर हैं दिलीपजी के साथ सबके, पर इस प्रायः एक ही फ़िल्म में मकबूलियत तो पृथ्वीराज के साथ ही सार्थक हुई है, जहां टकराहट कथा में है– कनीज से प्रेम व शाही ख़ानदान के बीच मूल्यों की है, इनके वाहक किरदारों में है, लेकिन अभिनेताओं में नहीं हैं. यही उसका उच्च स्तर है, जो राजकुमार के साथ कभी नहीं होता, क्योंकि वे एक पल के लिए भी नहीं भूलते कि वे राजकुमार हैं. तो फिर सामने वाले को भी सारी प्रणाली व किरदार में डूबने के बावजूद अपने निजी वजूद का अहसास दिला ही देते हैं. जबकि पृथ्वीराज जी निरंतर उस निजता से परे ले जाते-ले जाते खुद शहंशाह में डूबने व सामने वाले को सलीम में डूब जाने देने का पूरा अवसर देते हैं और दिलीप साहब की तो अपनी प्रणालीगत (वही मेथड वाली) वृत्ति ही यही है. युद्ध में सलीम के बंदी हो जाने के बाद न्याय-दरबार में जिरह वाले दृश्य को बाद कर दें, तो फ़िल्म में दोनों की समक्षता के दो अवसर बेहद ख़ास हैं. ‘जब प्यार किया,’ जैसे अर्थ-भाव-अदा-बेबाक़ी व ज्वलंत मौजूँपने वाले अनुपम गीत व अनारकली की गिरफ़्तारी के बाद की समक्षता यदि कारण है, तो युद्ध के ठीक पहले बाप की हैसियत से शहंशाह का सलीम के शिविर में मिलने जाने वाली समक्षता कार्य की विधायिनी है.
पहली आकस्मिक रूप से घटित होती है, तो दूसरी एक तरफ़ से नियोजित है. पहली में प्रेमिका के बंदी हो जाने से क्षुब्ध-विवश सलीम पहल करता है और बादशाह उससे बात तो क्या, उसकी मौजूदगी तक से भी ख़फ़ा हैं–
‘तुम्हारी मौजूदगी नाफ़रमानी की दलील है॰॰!!’ इस हेय दृष्टि वाली टिप्पणी को नज़र-अन्दाज़ करके सलीम सीधे मुद्दे पर आता है- तेवर के साथ–
‘अनारकली क़ैद कर ली गयी, और मै देखता रहा,’- शाही निरंकुशता पर सीधा सवाल.
और तुम कर भी क्या सकते थे’!! – सुल्तानी हेकड़ी और हिक़ारत.
‘एक अजीमुश्शान शहंशाह के सामने कोई कर भी क्या सकता है? बेबसी में लिपटा गहरा तंज तानाशाही पर.
ध्यातव्य है कि इस समक्षता में दिलीप कुमार के किरदार के सामने अपार अधिकार-ताक़त से सम्पन्न बादशाह है. तदनुसार शान-शौक़त भरा लिबास व शाही मुकुट आदि से सजी भव्यता है. अकबरी मूँछें है, शाही रुआब है. उसे निभाने वाले पृथ्वीराज कपूर का विशाल व्यक्तित्त्व है, भरे गले से फूटती गरज भरी बुलंद आवाज़ है, मुझे परशुराम के सामने अपने कथन में ही राम याद आ जाते हैं– ‘देव एक ग़ुन धनुष हमारे, नौ ग़ुन परम पुनीत तुम्हारे’. यहाँ भी दिलीप कुमार का व्यक्तित्त्व तो पृथ्वीराजजी का आधा भी नहीं. शहज़ादे का रुतबा भी कार्य रूप में रौंदा जा चुका है– प्रेमिका को दो-दो बार गिरफ़्तार कर लिया गया और शहज़ादे को इत्तला तक नहीं दी गयी. इस वक्त हर तरह से पस्ती का आलम तारी है. लेकिन इस किरदार के पास प्रेम की ताक़त है, सच का विश्वास है, एक व्यक्ति (इंडिविजुल) के अधिकार की हक़दारी का पक्ष है. और है एक ज़ेहनी कलाकर की अभिनय-क्षमता. वह बौखलाता नहीं, झींकता नहीं– जैसा कि उन हालात में होना था– शायद कोई दूसरा होता, तो वही सब होता. लेकिन दिलीप कुमार का रीतिसिद्ध अभिनय तथा जन्मना शाहजादे की भूमिका का संस्कारी रुतबा, तब तक लगभग दो दशकों का तजुर्बा भी हासिल कर चुका था.
वह सर्द-सख़्त-अडिग बना रहता है– भाव (एक्सप्रेशन) में पथरीला (स्टोनी), अदा (ऐक्शन) में स्थिर, लेकिन भाषा में बिलकुल खुला-साफगो. और इसी योजना-कौशल से एक मिनट भी सलीम की भूमिका ढलान की तरफ़ नहीं जाती – जस-जस आगे बढ़ती है, उत्तरोत्तर उठती जाती है,जस-जस भींजे कामरी, तस-तस गढुअर होय,.
संवाद-योजना भी कदम-दर-कदम शहंशाह को घेरती-लपेटती है. बादशाह तो वश में आता नहीं– दिली आरज़ू की माँग पर
‘आरज़ूएं कनीज हैं, बाँदी हैं, तो सारी ज़िंदगी इसी तरह ज़ब्त करना होगा’, का फ़रमान आ चुका है.
अतः बेटा बन के बाप को जगाया जाता है – ‘अपने लाड़ले बेटे के बाप बनकर मुझे अपने कलेजे से लगाके उन्हीं नज़रों से देखिए, जिनसे पहली बार देखा था’, किंतु बाप अब बादशाहत से राष्ट्र पर उतर आता है–
‘लाड़ले बेटे के तड़पते हुए दिल के लिए हिंदुस्तान की तक़दीर (मुस्तक़बिल ज्यादा अच्छा होता) नहीं बदल सकते’.
तब रक्षात्मक होकर अपनी गरज के इज़हार में मुहब्बत की साख़ का ऐतिहासिक प्रमाण दिया जाता है–
‘तक़दीरें बदल जाती हैं, सल्तनतें बदल जाती हैं, ज़माना बदल जाता है, तारीख़ें बदल जाती हैं, शहंशाह बदल जाते है, लेकिन मुहब्बत जिस इंसान का दामन थाम लेती है, वह इंसान नहीं बदलता,’
ताज्जुब भी होता है कि यहाँ तक आते-आते भी आवाज़ इतनी मद्धम नहीं हुई, कि कान पारना पड़े, तो भी न सुनायी पड़े, जैसा कि दिलीप का अक्सर हो जाता है और जिसके लिए मुहावरा है– ‘संवाद दिलीप कुमार (साइलेंट) हो गये’. ख़ैर, इसी मुकाम पर दृश्य से अकबर का निर्गमन सिद्ध करता है कि बाप भी निरुत्तर हो गया है और शहंशाह भी लाजवाब, इस तरह थीम अपनी मंज़िल को प्राप्त करती है. लेकिन जाते-जाते (‘पीठ दिखाते’ भी कह लें) बादशाह की टेक बनी रहती है– गोया पूँछ रह जाती है टेढ़ी की टेढ़ी – ‘तुझे बदलना होगा, सलीम, तुझे बदलना होगा,.
लेकिन दूसरी समक्षता इस अर्थ में भी इस पहली का विस्तार या पूरक है कि इसमें शहंशाह के भीतर बैठा पिता पहल करता है. उस बार के दृश्य में सलीम चल के अकबर की तरफ़ जाता था, इस बार बाप चल-चल कर बेटे के पास जा-जाके मनुहार करता है. उस बार सलीम अपनी बात और माँग के इज़हार करता था, इस बार बाप कर रहा. उस बार शहंशाह निर्णायक उत्तर देता था, इस बार बेटा मुंहतोड़ जवाब देता है. यानी यह समक्षता पहली की प्रतिरूप भी है एवं पूरक भी. और शहंशाह की पहल भी ऐसी-वैसी नहीं, प्रतिद्वंद्वी के ख़ेमे में अकेले जाने से मानसिंह द्वारा मना किये जाने के बावजूद हुई है बेधड़क. उस बार सलीम अपनी मुहब्बत माँग रहा था, इस बार पिता बड़ी मसर्रत से माँग रहा बेटे की मुहब्बत-
‘शेखू, ये बदनसीब बाप, जिसे दुनिया शहंशाह कहती है, अपने रूठे हुए बेटे को मनाने आया है, उससे मुहब्बत माँगने आया है.’
और अब पहली बार के शहंशाह की तरह इस बार बाग़ी बेटा झट से टुपकता है–
‘बेटे की मुहब्बत बर्बाद करके मुहब्बत माँगते हैं आप? (और पलटकर पीछे जाके) शहंशाह बाप का भेस बदल कर आया है’.
ध्यातव्य है कि सलीम का यह पहला ही संवाद, पूरे दृश्य का निचोड़ है– दृश्यांत में शहंशाह का यही भेस बदलना साबित होता है. लेकिन अभी तो वह मनव्वल में लगा है. बेटे के कंधे पर होंठ रखते हुए नितांत आर्त्त स्वर में –
‘शहंशाह रोया नहीं करते शेखू, बाप की आँखों में आंसू हैं. यह गरीब बाप शहंशाह के उसूलों से मजबूर है’,(तुरत पट से छिटक कर ज़रा दूर हटते हुए) ‘और सलीम अपनी मुहब्बत से’.
लेकिन इसके बाद भी अभी बाप बना हुआ है, पर बेटे को शहंशाह की याद दिलाता है–
‘तुम्हारे जज़्बात शहंशाह की बेपनाह ताक़त का मुक़ाबला नहीं कर सकते,’ की निरंतरता में ही सलीम – ‘इसका फ़ैसला जंग करेगी’, की चुनौती दे डालता है.
और अब बाप की खोल में छिपा शहंशाह प्रकट होता है, नियम के रूप में उसकी साज़िश भी खुलती है–
‘शहंशाह के फ़ैसले को जंग का इंतज़ार नही. (और पलट कर तनतनाते हुए वापस जाते-जाते) ‘जंग के नक्कारे की पहली चोप अनारकली की मौत का एलान कर देगी,’ और झनझनाकर सलीम की तलवार निकलती है, लेकिन सामने बाप को देखकर रुक जाती है. तब लौटते हुए शंहंशाह– ‘शेखू, क्या इसी दिन के लिए हमने माँगा था तुम्हें?’ और इस समय कुछ क्षणों के लिए दिलीप कुमार के चेहरे पर पछतावे व आक्रोश के संगमी भाव व्यक्त हुए हैं, उसी में बसती है उनकी अभिनय-कला की नेमत. उसे कैमरा ठहरकर दिखाता भी है और देखने वाला तो उस भाव पर बालि-बलि ही जाये, लेकिन इसके बाद जब पिता अपनी आख़िरी बात बोलके सच का पिता साबित होता है–
‘बेटे की ज़िद यदि बाप के सर से पूरी होती है, तो बाप हाज़िर है’ के समय हम जैसे को कैमरे पर कोफ़्त होती है कि वह दिलीप के चेहरे पर क्यों नहीं है– निर्देशक ने उस चेहरे को ओट में क्योंकर कर दिया !! लेकिन इसी ऐन वक्त पर अनारकली को लिए घायल अजित का हाँफते हुए प्रवेश होता है और गोया तलवार निकालने के परिहार स्वरूप और अपनी सफलता के गर्व के मिश्रित स्वरों में दिलीप की उक्ति ‘सलीम बिना जंग के कामयाब है– जंग नहीं होगी’ सब कुछ पर विराम देने वाली है, लेकिन शहंशाह को ऐसी शिकस्त मंज़ूर नहीं,सो, ‘जंग होगी’ के शाही एलान के साथ दृश्य पूरा होता है.
क्या आपको भी याद आया? मुझे तो ‘शक्ति’ देखते हुए जब बेटे (अमिताभ) की तनी पिस्तौल के सामने अचानक बाप (दिलीप कुमार) आ जाता है और बेटे का ट्रिगर दबाना रुक जाता है, तो इस ऐतिहासिक फ़िल्म का इतिहास एक बार फिर बनते-पूरा होते हुए दिखता है– गोया तब जिस बेटे ने अपने बाप को बख्शा था, उसके बाप बन जाने पर उसका बेटा (अमिताभ बच्चन) उसे बख्श कर फ़िल्म में इतिहास का प्रतिदान दे रहा हो– नया इतिहास रच रहा हो, जिसमें पिता-पुत्र की गहन सवेदनात्मकता (पिता वै जायते पुत्र:) की सनातनता बन रही हो– सारे दुनियावी छाल-प्रपंच-बदले,आदि से ऊपर उठकर.
बड़ा दिलचस्प रहा इसे पढ़ना। सोचा था बाद में पढ़ूंगी क्योंकि काम करने के लिए लैपटॉप ऑन हो चुका था। फिर भी एक सांस में पढ़ गई।
अभी कुछ दिनों पहले सुरेखा जी के लिए कुछ ऐसे ही अद्भुत पोस्ट को आप ने हमसे साझा किया , और अब दिलीप जी के लिए । धन्यवाद ।
आप की लेखनी की कला बिल्कुल वैसे ही है जैसे दिलीप जी कला नामों से परे रही ।
दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के उन थोड़े बेमिसाल नक्षत्रों में से हैं जिनके अभिनय की कला और गहराई पर किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो सकता है।उनकी गिनती मोतीलाल, बलराज साहनी,संजीव कुमार,प्राण जैसे कालजयी अदाकारों की परंपरा में होती है। इसमें दो राय नहीं है कि दिलीप कुमार बार बार पैदा नहीं होते। यह आलेख उनके जीवन के विविध प्रसंगों और पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है।
जीवन में पढ़ने -लिखने का सिलसिला जबसे चला है तब से लेकर अब तक कई सारे लेखों को पढ़ा है किंतु सर के लेख को लेकर जो उत्सुकता जो होती है वो शायद ही कहीं और देख पाती हूं ।कुछ दिन पहले सर के ही माध्यम से साझा एक पोस्ट सुरेखा जी को लेकर देखा सुखद अनुभव हुआ ठीक वैसे ही आज यूसुफ़ से दिलीप का सफर और कलाकार अपना अंदाज़ यह जानने और समझने का मौका इस लेख के ज़रिए मिला । सौभाग्य ही है जो कुछ बातों का फर्क करना और फर्क समझना इनके सानिध्य से प्राप्त हुआ है नहीं तो क्या फर्क पड़ता की दिलीप,दिलीप के अलावा भी यूसुफ़ और न जाने क्या -क्या हैं ।बहुत फर्क पड़ता है कलाकार को सिर्फ कलाकार होते हुए देख ।
अप्रतिम लेख सर🙏पहले शब्द को पकड़कर मन बिल्कुल बहता हुआ अंतिम शब्द तक कब आया पता ही नहीं चला…कमाल!!
बहुत बेहतरीन अंदाज़े बयाँ, शीर्ष अभिनेता को आपने तहेदिल से उनकी शख्सियत के मुताबिक नवाज़ा ।
त्रिपाठी जी त्रिपाठी जी सदर प्रणाम,
बेहतरीन लेख। दिलीप कुमार पर यह संस्मरण/लेख पढ़ते हुए हम हिंदी सिनेमा के क्लासिक को समझने की दृष्टि अर्जित कर सकते हैं।
सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उन कुचेष्टाओं का भी संज्ञान लिया है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर दिखती हैं। बनाम और बरक्स का हवाला ऐसे कुत्सित अभियान का माकूल उत्तर है। दिलीप कुमार उर्फ़ युसुफ खान ने बनाम न चलने दिया, बरक्स ही चल निकला!
“अद्भुत कला किसी नाम-जाति की मोहताज नहीं होती, न ऐसे किसी पैमाने से सधती. इन तुच्छ दुनियादारियों से परे जाकर ही परवान चढ़ती है.”
कलाद्वेषी जमात को सटीक जवाब।
जानकारी पूर्ण और बेहद मार्मिक। शुक्रिया सत्यदेव जी ।
😅 लेख बहुत लम्बा था! पढ़ने में काफ़ी समय लगा और पढ़कर बहुत अच्छा भी लगा।
There are so many films you’ve cited here; I didn’t know half of them. 😂 But I am glad I know them now.
What I liked the most is your unique way of leading the reader through Dilip Kumar’s acting style, delivering dialogues, genres of films, his personal life and all of this without a hitch.
Loved reading this. Honestly, next when I watch Mughal e azam, I shall be watching it in a new light😀
Forever grateful to you for showing things with a new interpretation.
Der se padh payi… Kintu hamesha ka tarah sachmuch atyant sunder likha hai….