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समालोचन

Home » बहुभाषिकता, साहित्यिक संस्कृति और अवध: दलपत सिंह राजपुरोहित

बहुभाषिकता, साहित्यिक संस्कृति और अवध: दलपत सिंह राजपुरोहित

अपनी पहली ही पुस्तक, ‘The Hindi Public Sphere 1920-1940: Language and Literature in the Age of Nationalism, से विश्वभर में विख्यात लंदन विश्वविद्यालय (SOAS) की प्रोफ़ेसर फ़्रांचेस्का ऑर्सीनी की नयी पुस्तक, ‘East of Delhi: Multilingual Literary Culture and World Literature. तीन सप्ताह पहले ही Oxford University Press (USA) से प्रकाशित हुई है. यह पुस्तक विश्व साहित्य के सन्दर्भ में बहुभाषिकता को केंद्र में रखकर अवध क्षेत्र के लेखन की विवेचना करती है और साहित्य के इतिहास लेखन का नया रास्ता अख्तियार करती है. ‘सुंदर के स्वप्न’ पुस्तक से चर्चित टेक्सस विश्वविद्यालय (अमेरिका) के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर दलपत सिंह राजपुरोहित ने इस पुस्तक के प्रत्येक अध्याय की चर्चा करते हुए इनके महत्व पर प्रकाश डाला है. मध्यकालीन साहित्य में रुचि रखने वाले अध्येताओं के लिए यह पुस्तक सहायक होगी. ख़ास बात यह है कि इस पुस्तक पर यह पहली समीक्षा है. चूंकि यह किताब अंग्रेजी में प्रकाशित हुई है इसलिए कह सकते हैं कि विश्व में यह पहली समीक्षा है और यह हिंदी में लिखी गयी है. इसके लिए दलपत सिंह राजपुरोहित को अलग से बधाई. अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
August 14, 2023
in समीक्षा
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बहुभाषिकता, साहित्यिक संस्कृति और अवध: दलपत सिंह राजपुरोहित
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बहुभाषिकता, साहित्यिक संस्कृति और अवध
दलपत सिंह राजपुरोहित

फ्रांचेस्का ऑर्सीनी की हालिया प्रकाशित पुस्तक ईस्ट ऑफ़ डेल्ही: मल्टीलिंगुअल लिटरेरी कल्चर एंड वर्ल्ड लिटरेचर (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2023) अवध में रचित कथाओं (प्रेमाख्यान व प्रबंध काव्यों), संत साहित्य, वहाँ की ब्रजभाषा व फ़ारसी कविता तथा औपनिवेशिक काल में रचे हिन्दी-उर्दू साहित्य का विस्तृत और रोचक इतिहास है. वे अवध या पूरब क्षेत्र को एक ‘बहुभाषी लोकल’ के रूप में परिभाषित करती हैं और साहित्य के इतिहासलेखन का ऐसा मॉडल विकसित करती हैं जिसे आधार बनाकर भारत ही नहीं विश्व की अन्य बहुभाषिक साहित्यिक संस्कृतियों का अध्ययन किया जा सकता है.

 

एक

पहला अध्याय किताब के मूलभूत सवालों और सिद्धांतों को सामने रखता है. फ्रांचेस्का ऑर्सीनी के अनुसार अवध केवल एक भौगोलिक-सांस्कृतिक इकाई भर नहीं है वरन् ऐसा दृष्टिकोण या ‘स्टैंडपॉइंट’ है जिसके माध्यम से एक क्षेत्र, व्यक्ति या ग्रंथ विशेष द्वारा परस्पर संवादी या समानांतर चल रही साहित्यिक परंपराओं की ‘इकॉलोजी’ समझी जा सकती है.

गंगा-यमुना दोआब पर स्थित इस क्षेत्र में प्राचीन कोसल जनपद की राजधानी अयोध्या स्थित थी जिससे अवध नाम की व्युत्पत्ति हुई और जो क्षेत्र भारत के राजनीतिक केंद्र दिल्ली के पूर्व में होने के कारण ‘पूरब’ कहलाया. इस इलाक़े को फ़ारसी स्रोतों में ‘अवध’ कहा गया है. उत्तर में नेपाल की तराई व दक्षिण में बुंदेलखंड की कठोर भूमि के बीच स्थित यह क्षेत्र सदियों से ऐसे व्यापारिक मार्गों पर स्थित था जो बंगाल को अफ़ग़ानिस्तान से जोड़ते थे.

गोरखपुर, बहराइच, खैराबाद, और लखनऊ ‘सरकारों’ में विभक्त अवध मुग़लकाल में एक सूबा था. फ़्रेंचेस्का ऑर्सिनी अवधी भाषी उस विस्तृत क्षेत्र को अवध कहती हैं जिसे जॉर्ज ग्रियर्सन ने पूर्वी हिन्दी प्रदेश का हिस्सा माना था और जो अपने निकटवर्ती इलाहाबाद सूबे से भाषाई-सांस्कृतिक रूप में जुड़ा था. इलाहाबाद सूबे में ग़ाज़ीपुर, बनारस, जौनपुर, मानिकपुर, चुनार, कलिंजर, कड़ा आदि ‘क़स्बे’ आते थे.

यह पुस्तक ‘विश्व साहित्य’ (वर्ल्ड लिटरेचर) पर चल रही बहसों में भी एक हस्तक्षेप है. डेविड डेम्रोश द्वारा की गई परिभाषा कि “ऐसा साहित्य जो अपनी परंपरा से बाहर निकलकर दूसरे साहित्यिक परिवेश में प्रवेश करता है और वहाँ भी वह साहित्य के रूप में ही पढ़ा जाता है” ‘विश्व साहित्य’ कहलाता है, पर सवाल उठाकर ऑर्सिनी ‘विश्व साहित्य’ को एक व्यापक परिदृश्य में देखने की माँग करती हैं (पृ. 114).

डेविड डेम्रोश की परिभाषा में दरअसल वे कौनसे प्रतिमान हैं जिनके आधार पर वे किसी रचना का ‘साहित्य’ होना स्वीकारते हैं? और साहित्य क्या है इसकी परिभाषा किनके द्वारा की जाती रही है? ये सवाल ऑर्सिनी के लिए अहम हैं जिनके जवाब इस किताब में खोजे गये हैं.

‘विश्व साहित्य’ पर अब तक जो बहसें हुई हैं उसमें विश्व की अनेक साहित्यिक परंपराओं की अपनी विशेषताओं या उनकी विविधता को तो समझा गया लेकिन साहित्य को साम्राज्यवाद के प्रसार व वैश्विक पूंजीवाद के विकास और उसके फलस्वरूप पैदा हुए समरूप और इकहरे ‘स्पेस’ में स्थित वैश्विक व्यवस्था का अंग माना गया. उन्नीसवीं सदी में बहुत सा भारतीय साहित्य यूरोप पहुँचा जिसे पहले ‘प्राच्य साहित्य’ कहा गया और उसी से बाद में ‘विश्व साहित्य’ जैसी श्रेणी अस्तित्व में आई. ‘विश्व साहित्य’ की बहसों में साहित्य मात्र को देखने-परखने के जो नज़रिये विकसित हुए उनमें उपन्यास जैसी कुछ ख़ास विधाओं को ही प्रमुखता मिली. इसी तरह कुछ विशेष प्रवृत्तियों जैसे आधुनिकता को ‘विश्व साहित्य’ का एक मूल्य समझा गया. साहित्य के प्रचार की तकनीक के रूप में अनुवाद को एक प्रतिमान के रूप में पहचाना गया. इन प्रतिमानों के बनने से बहुत सा साहित्य पीछे छूट गया जो इन विधाओं और साहित्य की कोटियों में नहीं आता. ऐसी रचनाओं का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद भी होता रहा है लेकिन वे ‘विश्व साहित्य’ की बहसों से ओझल ही रही हैं.

उपर्युक्त बात को चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की कहानी के यूरोप में प्रकाशन के एक दिलचस्प उदाहरण से समझा जाए. जायसी का पद्मावत (1540 ई०) अपने लिखे जाने के कुछ समय बाद से ही अवध व दकन से लेकर बंगाल तक में प्रसिद्ध हो गया था. एक से अधिक लिपियों और भाषाओं में उसके रूपांतरण तथा अनुवाद हुए.

एक फ़्रेंच यात्री थियोडोर पवी ने ‘गार्सीं दे तासी’ के संग्रहालय में संकलित चित्तौड़ की रानी पद्मिनी संबंधी काव्य की पाण्डुलिपियों के आधार पर 1865 ई० में पेरिस में ‘चित्तौड़ की रानी पद्मिनी’ नामक कथा प्रकाशित की. थियोडोर पवी (और ‘दे तासी’ भी) जायसी के पद्मावत की प्रसिद्धि और प्रभाव को जानते थे लेकिन अपने फ़्रेंच अनुवाद के लिए पवी ने जायसी को न चुनकर उनके बाद के राजस्थानी कवि जटमल रचित ‘गोरा बादल कथा’ को आधार बनाया. थियोडोर पवी के अनुसार जायसी मुसलमान थे और पद्मिनी एक हिंदू रानी इसलिए राजस्थान के ‘हिंदू’ जटमल में उसको एक प्रामाणिक कवि नज़र आया और यह रचना सत्य के क़रीब लगी.

इस अनुवाद को आधार बनाकर फ़्रेंच संगीतकार लुई ललो ने 1922 ई० में ओपेरा प्रस्तुति के लिये ‘पद्मिनी’ नामक ‘लिब्रेटो’ लिखा था. अब सवाल यह है कि फ़्रांस में प्रकाशन हो जाने की इस घटना को क्या जायसी के ‘पद्मावत’ का ‘विश्व साहित्य’ की कोटि प्रवेश माना जा सकता है? अव्वल तो इस प्रकाशन ने ‘पद्मावत’ की भारत तथा यूरोप में प्रसिद्धि में कोई भूमिका नहीं निभाई. पद्मावत भारत में उससे पहले प्रसिद्ध हो चुका था और उसके उपर्युक्त फ़्रेंच अनुवाद पर लोगों की दृष्टि भी न के बराबर पड़ी. दूसरा कारण साहित्य के चुनाव से जुड़ा है जिसमें औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त थियोडोर पवी के लिए साहित्य के प्रामाणिक होने में लेखक की धार्मिक पहचान ही अहम थी.

ऑर्सीनी के अनुसार पद्मावत के प्रसार में अवध, बंगाल व पेरिस में केवल पेरिस (या यूरोप) को केंद्र नहीं मानकर ‘लोकल’ और वैश्विक दोनों दृष्टियों से उसकी लोकप्रियता का अध्ययन ज़रूरी है. वे यह प्रस्ताव रखती हैं कि,

“विश्व साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय होना ज़रूरी नहीं है वह अंतःराष्ट्रीय और अंतःक्षेत्रीय भी हो सकता है. वह एक क्षेत्र और व्यक्ति विशेष में समाहित ऐसा साहित्य है जो लेखन, सर्कुलेशन और ग्रहण की परस्पर बहुस्तरीय प्रक्रिया से निर्मित होता है.”(पृ. 21)

एक क्षेत्र विशेष को केंद्र बनाकर उसकी बहुभाषी साहित्यिक परंपराओं के इतिहास लेखन की इसी दृष्टि को फ्रांचेस्का ऑर्सीनी ‘लोकेटेड और बहुभाषिक’ ऐप्रोच कहती हैं.

 

दो

किताब का दूसरा अध्याय एक साहित्यिक विधा के रूप में ‘कथा’ का इतिहास है जिसमें चौदहवीं से लेकर उन्नीसवीं सदी तक हिंदवी (अवधी), फ़ारसी और उर्दू कथाओं का अध्ययन है. ऑर्सीनी ने ‘कथा’ संज्ञा उन सभी ग्रंथों के लिए चुनी है जिन्हें आधुनिक काल में सूफ़ी प्रेमाख्यान और प्रबंध काव्य कहा गया है. यहाँ आरंभिक आधुनिक काल में लिखित कथाओं की भाषा को अध्ययन की दृष्टि से ‘हिंदवी’ कहा गया है जो उन्हें आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी से अलगाता है.

दाऊद की डलमऊ में लिखी चंदायन (1379 ई०) अपने पूर्व की कथाओं से अलग है क्योंकि यह ग्रंथ अपने कथानक को महाकाव्य-पुराण से न लेकर लोक से लेता है. एक मौखिक-काव्य में फ़ारसी और अपभ्रंश के साहित्यिक तत्वों के साथ लोक परंपरा के तत्त्व मिलाकर दाऊद एक नई साहित्यिक विधा का सूत्रपात करते हैं. चंदायन अपने लिखे जाने की अगली दो-तीन शताब्दियों में बहुत लोकप्रिय रहा. बाद की पाण्डुलिपियों में मिले चित्रों में दाऊद को एक अर्धनग्न सूफ़ी दर्शाया है. मार्के की बात यह है कि यह ग्रंथ पाण्डुलिपियों में अक्सर फ़ारसी लिपि में लिखा जाता था लेकिन भाषा इसकी हिंदवी ही रही, यानी बिना अनुवाद के ही इसको इतनी प्रसिद्धि मिली. अब्दुल क़ुद्दस गंगोही (मृत्यु 1537 ई०) ने बहुत बाद में इस कथा का फ़ारसी में अनुवाद किया. चंदायन ऐसा पहला ‘हिंदवी’ ग्रंथ था जिसे एक किताब की शक्ल मिली और इसकी शुरुआती लगभग सभी पांडुलिपियाँ चित्रित हुईं.

अगली चार कथाएँ क़ुतुबन की मृगावती (1503), जायसी के पद्मावत और कन्हावत (1540) और मंझन की मधुमालती (1545) अपने शिल्प में चन्दायन का अनुगमन करते हुए भी कथा के अपने अवांतर प्रसंगों में जटिलता लिये हुए हैं. फ़ारसी और संस्कृत परंपराओं का संवाद, अफ़ग़ान अभिजात वर्ग का लोकल राजाओं के साथ सामाजिक जुड़ाव जिसमें सूफ़ियों की अहम भूमिका, संस्कृत में ‘रस’ की अवधारणा को सूफ़ियों के ‘प्रेम-रस’ में बदलने का नवाचार, प्रेम को एक ‘कोड’ के रूप में दर्शाना जिससे शासक और दरबारियों के बीच निष्ठा व स्वामिभक्ति बढ़े, योग व भोग की कश्मकश आदि इन कथाओं की मौलिक विशेषताएँ थीं. ये कथाएँ फ़ारसी, कैथी और बाद में देवनागरी लिपि में ‘ग़ैर सूफ़ी’ ग्रंथों के साथ बंधी मिलती हैं जिसने इनके एक मिश्रित पाठक-श्रोता वर्ग के होने का पता चलता है. पद्मावत की प्रसिद्धि इस बात में थी कि अपनी रचना के पचास साल के भीतर ही यह बीजापुर में दकनी में और अराकान में बंगाली में रूपांतरित हो गया था.

उपर्युक्त कथाओं के बाद मुग़ल काल की कथाएँ उस दौर में विकसित हुई नई अभिरुचि को दिखाती हैं. आलम की माधवानल कामकन्दला (1582) अकबर के साथ टोडरमल की प्रशस्ति करती है और दरबारी संगीत का विस्तृत वर्णन करती है. ग़ाज़ीपुर के उस्मान की चित्रावली (1613) कई धर्मों, जातियों, बाज़ारों और अपने विस्तृत भौगलिक चित्रण में एक शानदार ‘सार्वदेशिक’ (कॉस्मोपॉलिटन) कथा है. यह कथा स्वयं मुग़ल साम्राज्य के सार्वदेशिक फैलाव की ओर इशारा करती है.  पुहकर के रसरतन (1618) में चित्रकला मुख्य भूमिका में है जो सही मायनों में एक रीति-कथा जैसी लगती है. यह कथा सूफ़ी शब्दावली का प्रयोग न के बराबर करती है. तुलसीदास (1530-1623) की रामचरितमानस इन कथाओं से अलग है. तुलसीदास कथा विधा के तत्त्वों को एक नई दिशा में ले जाते हैं. मानस की शुरुआती पाण्डुलिपियों से यह बात सामने आती है कि उस समय विकसित हो रहे भक्ति के लोकवृत्त में यह ग्रंथ सर्वाधिक लोकप्रिय था. अवध में लालच जैसे कवियों की कृष्ण कथा की परंपरा भी इसी समय मिलती है.

मुग़ल काल में मृगावती का एक, मधुमालती के दो और पद्मावत के दो से अधिक फ़ारसी अनुवाद हुए. इन सभी अनुवादों पर फ़ारसीदाँ मुग़ल इलीट या दरबारी वर्ग की अभिरुचियों की स्पष्ट छाप है. कथाएँ अवध में बीसवीं सदी तक लिखी गईं. बनारस के राजा ने 1807 में फ़ारसी में पद्मावत लिखवाया तो रामपुर में 1838 में उर्दू में पद्मावत लिखा गया जो नवल किशोर प्रेस से छपा. छापेखानों में रामचरितमानस सर्वाधिक प्रसिद्ध रहा, वहीं औपनिवेशिक काल में ‘गुले बकावली’ जैसे नये क़िस्से प्रचलन में आये.

विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में किसी रचना के सर्कुलेशन का अध्ययन ज़रूरी है. इसलिए इस अध्याय में ऑर्सीनी दिखाती हैं कि कथाएँ उनके लिखने वालों की संवेदना या पाठक-श्रोता वर्ग की अभिरुचि के अनुसार कैसे नये नये रूप लेती हैं. वे उन कथाओं का संवादी स्वरूप (डायलॉगिज़्म) या उनकी समानताओं पर भी चर्चा करती हैं. चौदहवीं से उन्नीसवीं सदी तक कथा के ‘इतिहास’ के माध्यम से ऑर्सीनी एक व्यापक बहुभाषिक परिवेश को प्रस्तुत करती है जिसमें वे कथाओं का शिल्प, लेखन और वाचन, उनका फैलाव, दूसरी भाषाओं और लिपियों में उनका रूप-परिवर्तन, अनेक कालखंडों में उनकी निरंतर उपस्थिति तथा अवध या पूरब से बाहर उनकी प्रसिद्धि को अनेक प्रमाणों से पुष्ट करती हैं.

 

तीन

तीसरा अध्याय ‘विश्व साहित्य’ की अवधारणा में संत साहित्य की जगह की तलाश है. इसमें पूरब के गुलाल, भीखा, मलूकदास, पलटूदास, यारी साहब, बुल्ला साहब, जगजीवनदास, नेवलदास, दुलनदास, और केसोदास का अध्ययन है. संतों की वाणी के लिए ऑर्सीनी यहाँ ‘लिटरेचर’ संज्ञा के ‘स्कोप’ को व्यापक बनाते हुए ‘ओरेचर’ शब्द का प्रयोग करती हैं, जो ‘ओरल’ शब्द से जुड़ा है. वे केन्याई लेखक गूँगिं वा थियोंग’ओ से प्रभाव ग्रहण करते हुए कहती हैं कि लिखित साहित्य दुनिया के कुल सौंदर्यशास्त्रीय माध्यमों व अभिव्यंजना एक छोटा सा हिस्सा है. लिखित साहित्य को ही साहित्य मानने वाले अक्सर यह भूल जाते हैं कि गीत, कहानीकला और अन्य वाचिक या मौखिक कलाएँ ही दुनिया भर के साहित्य में प्राणों का संचार करती रही हैं (पृ. 76).

ऑर्सीनी एक तरफ़ संतवाणी की व्यापक प्रसिद्धि को प्रमाण मानकर काव्य की पारंपरिक परिभाषा में संतों के सौंदर्यबोध के लिए जगह तलाश करती हैं वहीं दूसरी तरफ़ विश्व साहित्य के सर्क्युलेशन के मूल में मानी जाने वाली तकनीकी जैसे अनुवाद तथा प्रिंटिंग आदि की अवधारणा को भी विकसित करने की माँग करती हैं. उनके अनुसार किसी कविता को स्मृति में रखना या कंठस्थ करने की कला, गायन और उपदेश देने की कला, किताबी-गुटके, चैपबुक आदि भी वाणी के सर्कुलेशन के प्राथमिक ज़रिये रहे हैं और उन्हीं से संत वाणी का वृहत्तर फैलाव हुआ.

मसलन सत्रहवीं सदी में इलाहाबाद के पास एक मुस्लिम-बहुल क़स्बे कड़ा से आये संत मलूकदास की वाणी को लिया जाए. कड़ा-मानिकपुर का बीसवीं सदी की शुरुआत में उर्दू में लिखा इतिहास वहाँ की मुस्लिम आबादी को ख़ास तौर पर रेखांकित करता है. मलूकदास की वाणी रूसी विचारक बाख्तिन की उस ‘संवादी रणनीति’ की सूचना देती है जिसमें अपने श्रोता वर्ग से जुड़ने के लिए मलूकदास सूफ़ी मुहावरों और आम इस्लामी शब्दावली का प्रयोग करते हैं. ऐसा करके वे अपने मुसलमान भक्तों और साथी संतों के साथ संवाद स्थापित करते हैं. मार्के की बात यह है कि मलूकदास बिना किसी अनुवाद के अरबी-फ़ारसी शब्दावली का अपनी हिंदवी में प्रयोग कर रहे हैं. दरअसल अनुवाद की ज़रूरत तब पड़ती है हम जब श्रोता-पाठक का एकभाषी होना मान के चलें.

मलूकदास जिस समाज से संवाद कर रहे थे बहुभाषिकता उसके परिवेश का हिस्सा थी. सुथरदास की मलूकदास की परचई में वे तेरहवीं सदी के कड़ा के मशहूर सूफ़ी संत ख़्वाजा कड़क शाह (‘असरार अल-मख़्दूमीन’ उनके जीवन से जुड़ा ग्रंथ है) से संवाद करते दिखाए गये हैं. एक तरफ़ जहाँ संत अपने संभाषी (इंटरलोक्यूटर) नाथ-सिद्धों के बारे में अक्सर चुप ही नज़र आते हैं वहीं सुथरदास की परचई यह सिद्ध करती है कि मलूकदास के सूफ़ी मुहावरे उनके ख़्वाजा कड़क शाह से हुए संवाद से आते हैं.

 

चार

चौथा अध्याय अवध के क़स्बों और छोटे दरबारों में ब्रजभाषा के रीति-काव्य और फ़ारसी कविता के परिवेश को सामने लाता है. यह परिवेश बिलग्राम क़स्बे में अद्भुत तरीक़े से विकसित हुआ. यह एक ऐसा बहुभाषी परिवेश था जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी फ़ारसी और ब्रज बाक़ायदा सीखी जाती थी. यानी उस समय की कॉस्मोपॉलिटन साहित्यिक अभिरुचि को छोटे क़स्बों में संरक्षित व संवर्द्धित किया जा रहा था. ब्रज और फ़ारसी दोनों समानांतर सीखी जाने वाली परम्पराएँ थीं जो एक ही कवि में मिल जाती हैं. हालाँकि इन दोनों परंपराओं में एक-दूसरे का ज़िक्र कभी-कभार ही होता था.

गुरु-शिष्य परंपरा या अपनी पीढ़ी में हुए साहित्य के पंडितों की स्मृति को ज़िंदा रखने और  उन्हें एक ख़ास भौगोलिक परिवेश में स्थित करने के लिए फ़ारसी में तज़किरा लेखन की परम्परा आई. तज़किरे फ़ारसी कवियों, आश्रयदाताओं के कोश और कविता संकलन हुआ करते थे. 1680 ई० के जजमऊ का एक वाक़या जो एक फ़ारसी तज़किरे में दर्ज हुआ वह बिलग्राम के मुग़ल दरबारी दीवान रहमतुल्लाह की ब्रजभाषा साहित्य पर गहरी पकड़ को दिखाता है. दीवान रहमतुल्लाह की ब्रजभाषा के कवि चिंतामणि के साथ साहित्यिक चर्चा को स्वयं चिंतामणि ने याद किया है जिस पर उन्होंने एक कवित्त लिखा है. फ़ारसी तज़किरों में ब्रजभाषा के कवियों का उल्लेख न के बराबर होता था इसलिए चिंतामणि का उपर्युक्त उदाहरण एक अपवाद है. ब्रज कवि तज़किरों के अनुसार ऐसे हिंदू कवि थे जो बिलग्राम जैसे क़स्बों में मुग़ल इलीट वर्ग को संस्कृत-ब्रज आदि सिखाते थे. 

आज़ाद बिलग्रामी (1704-1786) का तज़किरा सर्व-ए आज़ाद 143 फ़ारसी कवियों की दास्तान कहता है जिसमें 28 तो बिलग्राम में ही हुए थे. वह चिंतामणि और दिवाकर मिश्र जैसे संस्कृत व ब्रजभाषा के हिंदू कवियों का भी ज़िक्र करता है, जिनमें दिवाकर मिश्र के पिता कवि हरिबंस राय मिश्र ने आज़ाद बिलग्रामी के दादा को ब्रजभाषा काव्य सिखाया था. आज़ाद बिलग्रामी के दादा ने दिवाकर मिश्र की अनुशंसा दिल्ली के किंगमेकर सैयद बंधुओं से उन्हें वहाँ आश्रय पाने के लिए की थी. तज़किरा सर्व-ए आज़ाद आठ फ़ारसी के कवियों की ब्रजभाषा के काव्य शास्त्र, सतसई, छंद-अलंकारों पर महारत की शानदार बानगी देता है.

इन्हीं आठ कवियों में एक सैयद ग़ुलामनबी (1699-1750) थे जो हिन्दी में ‘रसलीन’ नाम से मशहूर हैं. रसलीन अवध के नवाब सफ़दरजंग के आश्रित थे और रोहिल्ला अफ़ग़ानों से हुए युद्ध में मारे गये थे. सर्व-ए-आज़ाद फ़ारसी तज़किरा उन्हें अरबी, फ़ारसी और हिंदी तीनों का महान पंडित कहता है. अवध में ही हुए भिखारीदास ने ब्रजभाषा में षट्भाषा के मिलन का उल्लेख किया जो उसी बहुभाषिक परिवेश को दर्शाता है. इसी क्षेत्र से आए शिवसिंह सेंगर ने हिन्दी साहित्य के शुरुआती इतिहासों में शुमार अपना ‘सरोज’ (1878) लिखा जो फ़ारसी के तज़किरों की शैली को दर्शाता है.

ऑर्सीनी अवध के इस पूरे बहुभाषिक परिवेश के क्षरण की कहानी कहती हैं जो अठारहवीं सदी के अंत से शुरू होती है. वे इसमें गहरी अंतर्दृष्टि भी देती हैं कि अठारहवीं सदी में उर्दू के बढ़ाव के साथ फ़ारसी-ब्रजभाषा यह परिवेश संकुचित तो हुआ लेकिन इसका पतन नहीं हुआ. लखनऊ जैसे शहरों में फ़ारसी-उर्दू द्विभाषी संस्कृति पनपी तो छोटे क़स्बों में ब्रजभाषा साहित्य का लिखा जाना जारी रहा. बनारस इसी दौर में ब्रजभाषा-हिन्दी का बड़ा केंद्र बना. लखनऊ में थियेटर में ब्रज कविता का प्रयोग जारी रहा और बनारस से उर्दू कवि निकले. छापेखानों में गीतों का प्रकाशन बहुधा होने लगा जिनमें फ़ारसी-उर्दू की ग़ज़ल, ब्रज की ख़्याल और ठुमरी, पूरबी की होरी और बसंत और पंजाबी के टप्पे मशहूर हुए. बहुभाषिक परिवेश के संकुचित होने के साथ लोगों की अभिरुचियाँ ख़त्म नहीं हुईं बल्कि पुन:नियोजित या ‘रिशफल’ हुईं. भाषाओं का प्रयोग और उनका सांस्कृतिक संदर्भ भी पुन:नियोजित हुआ.

अवध की संस्कृति की कहानी मुख्यतः नवाबी लखनऊ और उर्दू से जुड़ी है जो ग़लत नहीं होते हुए भी अवध के साहित्यिक परिवेश के इतिहास को धुंधला कर देती है. ख़ासकर वह परिवेश जो अठारहवीं सदी में अवध के मुग़लों से अलग रियासत के रूप में विकसित होने और उर्दू के उभार से पहले आरंभिक आधुनिक काल में बना था. औपनिवेशिक काल के दौरान अंग्रेज़ी के आगमन ने बहुभाषी साहित्यिक परिवेश व इतिहास बोध को गहराई से बदला ज़रूर लेकिन उस बदलते परिवेश में भी लोगों या लेखकों ने अपनी साहित्यिक अभिरुचि को पुन:नियोजित किया.

औपनिवेशिक काल में बहुभाषी शिक्षा, जो मुख्यतः बहुभाषाई साहित्य की शिक्षा होती थी, कैसे जारी रही इसे भानुप्रताप तिवारी की 1880 में लिखी आत्मकथा बड़े प्रभावी तरीक़े से दिखाती है. भानुप्रताप बनारस के निकट मिर्ज़ापुर के एक औपनिवेशिक दफ़्तर में क्लर्क थे. बचपन में भक्ति के दोहे कंठस्थ करना, फिर हिन्दी और संस्कृत शिक्षा उनकी शिक्षा का अंग था. उन्होंने एक पंडित से लल्लूलाल का प्रेमसागर और तुलसीदास के लगभग सभी ग्रंथ पढ़े. आठ साल की उम्र में वे एक स्थानीय चुनार मिशन स्कूल में भर्ती हुए जहाँ सादी का फ़ारसी गुलिस्ताँ, फिर मिर्ज़ापुर के ही एक उस्ताद से जामी का ग्रंथ यूसुफ़ ज़ुलेखा पढ़ा. साथ ही बहर-ए दानिश क़िस्सा संग्रह व पत्र लेखन का मैन्युअल ‘इंशा-ए ख़लीफ़ा’ पढ़ा. फिर स्थानीय उस्तादों से अबुल फ़ज़ल व हाफ़िज़ के ग्रंथ और निज़ामी गजनवी की मसनवी सिकंदरनामा पढ़ी. वे बाद में एक अंग्रेज़ी स्कूल में भर्ती हुए जहाँ से क्लर्क की नौकरी पाने से पहले उन्होंने बेलेंटाइन का ‘प्राइमर’ पढ़ना शुरू किया था. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1835 में ही प्रशासन और अदालतों की भाषा को फ़ारसी से अंग्रेज़ी व उर्दू कर दिया था लेकिन भानुप्रताप तिवारी की आत्मकथा शानदार तरीक़े से दिखाती है कि उसके बाद भी लोगों की शिक्षा में बहुभाषाई परिवेश लगातार बसा हुआ था.

 

पाँच

पाँचवे और अंतिम अध्याय में औपनिवेशिक काल में भारत (ख़ासकर अवध) के बुद्धिजीवियों, संस्थाओं और लेखकों द्वारा हिन्दी-उर्दू भाषा, साहित्य और इतिहास के नये प्रतिमानों को निर्मित करने में निभाई गई भूमिका का अध्ययन है. उन्नीसवीं सदी में अवध के क़स्बे बहुभाषाई प्रकाशन उद्योगों का केंद्र बने. मुंशी नवल किशोर (1836-1895) का छापाख़ाना ऐसी ही संस्था थी जिसमें उर्दू की किताबें बेशक सबसे ज़्यादा छपीं लेकिन उसके साथ अरबी, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं. इसी प्रेस से छपने वाला उर्दू अख़बार ‘अवध अख़बार’ (1859) 1877 में उत्तर भारत का पहला दैनिक अख़बार बना.

इलाहाबाद का इंडियन प्रेस स्थापित तो 1884 में हुआ लेकिन व्यापकता में बीसवीं सदी की शुरुआत में इसने नवल किशोर प्रेस को भी पीछे छोड़ दिया था. बाद में वहाँ का बेलवेडियर प्रेस आया. इसी दौरान बनारस और कानपुर में भी प्रेस की गतिविधियाँ तेज हुईं. जब हिन्दी और उर्दू को दो अलग भाषाएँ मानकर उनका अलग इतिहास लिखा जा रहा था तब प्रकाशन भवन बहुभाषी परिवेश का पोषण कर रहे थे. औपनिवेशिक शिक्षा अंग्रेज़ी की नक़ल और अंग्रेज़ी साहित्य से अनुवाद को ज़रूर बढ़ावा देती थी लेकिन स्कूल और कॉलेज ही साहित्यिक-राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र बने. हिन्दी की कम प्रतिष्ठा की वजह से उसका पाठ्यक्रम बनाने में देशी विचारकों को खुली छूट थी. इसलिए हिंदी शिक्षा वह माध्यम बनी जिससे औपनिवेशिक भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पनपा.

इसी दौरान ‘निज भाषा’ या ‘मातृभाषा’ का सवाल सामने आया. भाषाएँ इस काल से पहले अपने महत्त्व और प्रभाव के अनुसार सीखी और अपनाई जाती थीं. लेकिन ‘निज भाषा’ के सवाल ने भाषा को लिपि, समुदाय, व इतिहास के साथ निर्णायक रूप से जोड़ दिया. ग्रियर्सन के ‘लिंग्विस्टिक सर्वे’ और भाषाई क्षेत्रों की अवधारणा ने दैनन्दिन जीवन की बहुभाषिकता को लगभग अदृश्य कर दिया. उर्दू-हिन्दी का झगड़ा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उभार, नागरी आंदोलन इस दौर की विशेषता के रूप में सामने आते हैं. हिन्दी व उर्दू के अलग-अलग इतिहास बनते हैं. हिन्दी (हिंदवी, ब्रजभाषा) और उर्दू (फ़ारसी) के अलग प्रतिमान आरंभिक आधुनिक काल में भी उपस्थित थे लेकिन अब उन्हें अवधारणागत और स्पष्ट रूप से सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक अस्मिताओं से जोड़ा जाता है. एक तरह का नैतिक और राजनीतिक ‘टोन’ साहित्य व आलोचना में प्रवेश करता है. यह पूरी प्रक्रिया उस समय उपस्थित बहुभाषाई परिवेश को गहराई से ढक देती है. साहित्य की नई परिभाषा बनती है और समाज में उपस्थित बहुत सी मौखिक, वाचिक परम्पराएँ, गीत आदि “लोक-साहित्य” की उसी समय बनी श्रेणी में नत्थी कर दिये जाते हैं.

फ्रांचेस्का ऑर्सीनी की पुस्तक हमें यह दृष्टि देती है की साहित्य और इतिहास लेखन के हेजेमोनिक या डोमिनेंट विमर्श से इतर साहित्य के आर्काइव को कहाँ और कैसे देखा जाए. किसी क्षेत्र विशेष को बनाकर लिखा गया इतिहास इस बात को सामने लाता है कि अनेक तरह की और परस्पर विरोधी मानी गईं परंपराएँ कैसे उस क्षेत्र का साहित्यिक परिवेश निर्मित कर रही थीं.

विश्व साहित्य को अगर ज़्यादा अर्थपूर्ण बनना है तो एक भाषा, एक लिपि, और एक नेशन (जाति) की औपनिवेशिक विरासत से बाहर निकलकर साहित्य व उसके इतिहास को देखना होगा. उपन्यास से परे जाकर समाज में व्याप्त उन्य साहित्यिक-वाचिक विधाओं का अध्ययन करना होगा जो अक्सर साहित्य मात्र के विमर्श से अछूती रही हैं.

बहुभाषिक साहित्येतिहास लेखन यह सीख देता है कि आरंभिक आधुनिक काल में परस्पर संवादी और समानांतर चलने वाली भाषाई और साहित्यिक परंपराएँ एक साझी ‘इकॉलोजी’ का निर्माण कर रही थीं न कि हमारी आधुनिक समझ के अनुसार वे एक दूसरे के विरोध में खड़ी थीं.

किताब ख़त्म होते-होते एक विचारोत्तेजक और उपयोगी सवाल हमारे सामने आता है कि एक लेखक जब अपने सामने विकल्प के तौर पर उपस्थित अनेक साहित्यिक परंपराओं और भाषाओं में से किसी एक भाषा और साहित्यिक विधा का चुनाव करता है तो वह हमें तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक-साहित्यिक समुदायों के बारे में क्या बताता है?

ख़ासकर उस समुदाय के बारे में क्या पता चलता है जिसके लिये वह लेखक उस ग्रंथ को लिख रहा है. एक बहुभाषाई संस्कृति में लिखे साहित्य का कोई भी हिस्सा हम पढ़ने बैठे तो यह सवाल हमें हर बार पूछना चाहिए. 

 

फ्रांचेस्का ऑर्सीनी, लंदन के स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ की प्रोफ़ेसर रही हैं. The Hindi Public Sphere 1920-1940: Language and Literature in the Age of Nationalism, PRINT AND PLEASURE, Before the Divide: Hindi and Urdu Literary Culture आदि उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं. ‘The Hindi Public Sphere 1920-1940: Lang’uage and Literature in the Age of Nationalism’ का हिंदी में हिंदी लोकवृत्त’ के नाम से अनुवाद हो चुका है.

 

दलपत सिंह राजपुरोहित, टेक्सस विश्वविद्यालय, ऑस्टिन (अमेरिका) में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं. ‘सुंदर के स्वप्न’ इनकी बहुचर्चित आलोचना कृति है. राजस्थान के संतों पर हाइडलबर्ग, जर्मनी से मोनिका हॉर्स्टमैन के साथ इनकी हाल ही में ‘इन द श्राइन ऑफ़ द हार्ट’ पुस्तक आई है. आजकल ये रीति काल के कवि पद्माकर की हिम्मतबहादुर बिरदावली पर अपनी तीसरी पुस्तक पर काम कर रहे हैं जो हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की ‘मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी’ से आने वाली है.

यह पुस्तक आप यहाँ से खरीद सकते हैं. 

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Comments 6

  1. सूरज says:
    2 years ago

    महत्वपूर्ण समीक्षा।दलपत अपने हर काम में विशेष अंतर्दृष्टि और ईमानदारी के कारण हट कर नजर आते हैं।हिंदी अकादमिक जगत में ऐसी गंभीरता और पारदर्शिता स्तुत्य है।

    Reply
  2. शिव किशोर तिवारी says:
    2 years ago

    कैसा व्यवस्थित सारांश प्रस्तुत किया है! बहुत सुंदर!
    परंतु समीक्षा रह गई। अमेरिका से आ रही रिसर्चों में भारतेन्दु का बड़ा नकारात्मक चित्र प्रस्तुत हो रहा है। इस ग्रंथ में भी वही किया गया है यह अनुमान होता है।

    Reply
  3. अमरनाथ says:
    2 years ago

    बेहतरीन समीक्षा और पुस्तक भी। दलपत सिंह राजपुरोहित की इस समीक्षा के बहाने उनके गंभीर लेखन कार्य से पहली बार परिचित हुआ। परिचय कराने के लिए आभार आप का।

    Reply
  4. रमाशंकर सिंह says:
    2 years ago

    काफ़ी इंगेजिंग समीक्षा। दलपत जी ने अपनी राय और ओरसिनी की किताब के तर्क को अलग-अलग खूबसूरती से दिखाया है।

    Reply
  5. Kamlnand Jha says:
    2 years ago

    फ्रेंचेस्का गहरे उतरकर ही नहीं डूबकर काम करतीं हैं। उनकी शोध-दृष्टि क़ाबले तारीफ़ है। दलपति जी की समीक्षा से उनकी नयी किताब की खूबियों से हिन्दी पाठक परिचित हुए। समीक्षक ने भी खूब मेहनत की है। किताब की रूह में प्रवेश किया है। लेखक, समीक्षक और संपादक को बधाई।

    Reply
  6. चंद्रभूषण says:
    2 years ago

    दृष्टि बदल देने वाली किताब, और उतना ही सुंदर यह संक्षेपण

    Reply

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