एडवर्ड सईद प्राच्यवाद से पहले शीतांशु |
1978 में जब ‘ओरिएण्टलिज़्म’ प्रकाशित हुई तो इसने अकादमिक जगत को अभूतपूर्व ढंग से प्रभावित किया. एडवर्ड सईद को एक प्रतिष्ठित बौद्धिक के रूप में इसी पुस्तक ने स्थापित किया. इस पुस्तक के कुछ ही समय बाद एडवर्ड सईद की दो और पुस्तकें प्रकाशित हुईं- द क्वेश्चन ऑफ पैलेस्टाइन (1979) और कवरिंग इस्लाम (1981). बौद्धिक दुनिया द्वारा इन दोनों पुस्तकों को ‘ओरिएण्टलिज्म’ के साथ जोड़ कर एक ट्रिलॉजी के रूप में देखा गया. इन तीनों किताबों को क्रम से पढ़ने से सईद की वैचारिक निर्मिति की बुनावट काफी हद तक समझ में आने लगती है.
हालांकि जब सईद की रचनाधर्मिता की विकास-प्रक्रिया की समीक्षा की जाएगी, तो मेरी समझ से, इन पुस्तकों को उनके वैचारिक विकास के दूसरे चरण के रूप में देखा जाएगा. वस्तुतः इन पुस्तकों से पहले सईद ने दो और पुस्तकें लिखी थीं जिनसे उनके लेखन में सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना की जैसे बुनियाद तैयार होती है. उनकी चिन्ताओं, विचार-सरणी, प्रस्थान-बिन्दु और शिल्प को समझने में, उसकी संरचना को पहचानने में उनकी ये प्रारंभिक दो पुस्तकें अत्यधिक कारगर साबित होती हैं.
सईद की पहली रचना का नाम था ‘जोसेफ कोनराद ऐंड द फिक्शन ऑफ ऑटोबायोग्राफी’ (1966). यह एडवर्ड सईद के पीएच.डी. शोध-कार्य का भी विषय था. पहला सवाल जो हमारे दिमाग में आता है वह यह कि कोनराद ही क्यों? सईद ने क्या सोचकर कोनराद से आरंभ किया. इसका जवाब इस पुस्तक के आरंभ में लिखी गई एन्ड्र्यू एन.रूबिन की सारगर्भित प्रस्तावना से मिल जाता है. वस्तुतः विस्थापन, निर्वासन और हाशियाकरण सईद के चिन्तन और लेखन की महत्वपूर्ण धुरी हैं. एक फिलिस्तीनी के रूप में प्राप्त इन अनुभवों को अपनी चेतना में वे जैसे हमेशा बनाए रखते हैं. रूबिन बताते हैं कि यही अनुभव उन्हें जैसे कोनराद की ओर खींच कर ले जाते हैं. रूबिन लिखते हैं-
“विस्थापन, निर्वासन और हाशियाकरण के विचलित कर देने वाले अनुभव दोनो के पास थे. दो दुनियाओं के बीच फँसे (ओझल होते जा रहे प्राचीन साम्राज्य और औपनिवेशिक दुनिया, जहाँ से वे विस्थापित हुए और नई, अपरिचित और अनिश्चित दुनिया, जहाँ वे अंततः पहुँचे और रहने लगे) होने के कारण, उनके सांस्कृतिक और राजनीतिक उन्मूलन के कारण, जरूरी हो गया था कि कुछ समझौते किये जाएँ, कुछ ‘व्यवस्थाएँ’ की जाएँ, कुछ ‘सामंजस्य’ बैठाया जाए.”(एडवर्ड सईद, जोसेफ कोनराद ऐंड द फिक्शन ऑफ ऑटोबायोग्राफी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क, 2008, प्रस्तावना से)
एक फिलिस्तीनी के रूप में सईद की पुरानी दुनिया उजड़ गई थी और उन्हें फिलिस्तीन के बाहर जो नई दुनिया मिली उसके साथ तारतम्यता बैठाना पड़ा था. फिलिस्तीनियों की नियति हो गई है कि उन्हें कोई दिशा नहीं मिल रही और वे अजीबोगरीब परिस्थितियों में जैसे खोते चले जा रहे हैं. फिलिस्तीन से बाहर चले गए फिलिस्तीनी, अपनी विकट परिस्थिति में खुद को चलाए जाने के लिए, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अलग-अलग ढंग की कोशिशें करते हैं, व्यवस्थाएं करते हैं, नई स्थितियों से सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं. लेकिन उनकी नई दुनिया में हमेशा कुछ अपरिचित और अनिश्चित बना ही रहता है. सईद जब कोनराद का चुनाव करते हैं तो उनके जीवन से अपनी स्थितियों से जुड़े हुए कुछ तार उन्हें संचालित कर रहे होते हैं. रूबिन ने माना है कि ‘लॉस्टनेस और डिसओरिएण्टेशन’ के दुष्प्रभाव को कोनराद से बेहतर कोई उद्घाटित नहीं करता और विडंबना यह है कि वे इन स्थितियों को ‘अरेंजमेंट’ और ‘ऐकॉमॉडेशन’ से ‘रिप्लेस’ करने की कोशिश भी करते हैं. (वही, प्रस्तावना से) ऐसा लगता है कि इस पंक्ति को किसी विस्थापित फिलिस्तिनी के बारे में वैसे ही लागू किया जा सकता है जैसे इसे कोनराद के बारे में किया गया है. कोनराद सईद के अपने अनुभव का कुछ हिस्सा बन जाते हैं. उक्त पंक्तियों की तरह ही तमाम फिलिस्तीनी दुनिया के विभिन्न कोनो में जीवन यापन कर रहे हैं.
ओरिएण्टलिज्म से पहले लिखी गई इस पुस्तक में ओरिएण्टलिज्म के बीज तो मिल जाते हैं लेकिन उस स्तर के तर्क अभी नहीं दिखते जो बाद में दिखते हैं. सईद कोनराद की समीक्षा करते हुए यह जरूर पहचानने लगे कि साम्राज्य स्थापना और विस्तार में कौन-सी बातें कारगर होती हैं लेकिन जो राजनीतिक सचेतनता और तार्किकता बाद में दिखती है वह यहाँ एक अकादमिक के आवरण में रह जाती है. इसलिए यह जानते हुए भी कि कोनराद की नज़र से जो अफ्रीका हम देख रहे हैं वह वही नहीं है जो वास्तव में होना चाहिए, वे कोनराद को एक ऐसे अकादमिक की नज़र से ही देख पाते हैं जो एक अमरीकी विश्वविद्यालय में कार्यरत है. बाद में जब चिनुआ अचेबे कोनराद को ‘ब्लडी रेसिस्ट’ के रूप में रेखांकित करते हैं तो जो उत्तर-औपनिवेशिक लेखन सईद के चिन्तन से बहुत अधिक प्रभावित हुआ था वही कोनराद के अलग पाठ की ओर आगे बढ़ जाता है. यह पाठ निःसंदेह सईद के पाठ से काफी अलग था.
किन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भले ही सईद इस पुस्तक में कोनराद का वैसा विस्तृत पाठ नहीं कर पाते जैसा ओरिएण्टलिज्म पुस्तक में चयनिय पाठों में दिखाई देता है लेकिन यह जरूर है कि इसी पुस्तक से सईद की आलोचकीय क्षमता की विशेषताएँ दिखाई देनी शुरू हो जाती हैं. कोनराद की चिट्ठियों और लघु कथाओं में उतरकर उसकी भाषाई संरचना से जिस तरह वे विचार निकालकर लाते हैं वह एक नए लेखक के लिहाज से मानीखेज है.
वस्तुतः यहीं से दिखाई देने लगता है कि वे किसी लेखक की रचना को हमेशा व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में केन्द्रित कर उसका पाठ करते हैं. लेखक खुद एक पाठ की तरह दिखाई देता है. जहाँ ढेर सारे लेखक किसी रचना की कथा-वस्तु और उसके सौन्दर्य में भ्रमण करते रहते हैं वहीं सईद रचनाकार की मानसिक निर्मिति और पाठ की संरचना के सामाजिक कारक और पाठक के मानस पर उसके उत्तरोत्तर प्रभाव का भी अध्ययन करते चलते हैं. इसका आभास जोसेफ कोनराद के उनके अध्ययन से ही मिलने लगता है कि आलोचना एकरेखीय नहीं होनी चाहिए. अगले दस साल में उनका यह बहुलतावादी दृष्टिकोण पूरी गूढ़ता के साथ प्राच्यवाद पुस्तक के रूप में प्रकट होता है. सईद का कोई भी आलोचना-कर्म एक पाठ के सौन्दर्य तक सीमित नहीं रहता, बहुधा वह सभ्यता विमर्श में तब्दील हो जाता है.
आलोचना-कर्म में उनकी दृष्टि में पाठ की शिल्पगत परतें खोलने के साथ और क्या-क्या जरूरी है इसे इस पुस्तक में अपनाई गई पद्धति से भी समझा जा सकता है. सईद जब कोनराद के पत्रों के बारे में लिखते हैं कि
‘‘उनके पत्रों की बौद्धिक और आध्यात्मिक ऊँचाई- जब वे कोनराद के व्यक्तिगत इतिहास के बतौर देखी जाती हैं- न सिर्फ आत्मान्वेषण की आकांक्षा को पूरा करती हैं, बल्कि यूरोपीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण दौर के चरम से भी जुड़ती हैं. यह प्रथम विश्वयुद्ध का युग है.’’ (वही, पृ.xx)
तो वे अपने भविष्य की दिशा बताते दिखते हैं. बहुत सारे लेखकों को कोनराद की भाषा और शिल्प आकर्षित नहीं करता लेकिन सईद उनकी भाषा के रेटॉरिक और अनगढ़पन के पीछे छीपी बातों को तलाशते हैं. सईद को यह बात आकर्षित करती है कि एक विदेशी भाषा में वह व्यक्ति धुंधले अनुभवों को लिख रहा था. और कोनराद को यह बात पता भी थी. सईद के अध्ययन का तरीका यह होता है कि उसमें चेतना की पहचान होती है सिर्फ पाठ के अर्थों की नहीं. इसीलिए कोनराद में अतिरिक्त शब्दों की जो भरमार है उसका कारण सईद यह नहीं मानते कि वे एक असावधान लेखक थे बल्कि यह मानते हैं कि वे निरंतर खुद से संघर्ष कर रहे थे. अगर कहीं विशेषण बहुत ज्यादा हैं तो इसका कारण यह है कि वे अपने अनुभवों को स्पष्टतः रख पाने में एक बेहतर तरीका ढूँढने में असमर्थ थे. (वही, पृ.4) कोनराद के पत्र सईद के लिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि इनसे बतौर लेखक कोनराद की कठिनाइयाँ समझ आती हैं. इनसे कोनराद की चेतना, उनका टेंपरामेंट, पीड़ा, आकांक्षा, चरित्र, द्वंद्व और सबसे अधिक लेखकीय चिन्ताएँ समझ आती हैं.
साथ ही यह भी दिखाई देने लगता है कि सिद्धांतों का पाठों से गहरा संबंध होना चाहिए. सईद यह बोध बना कर रखते हैं कि पाठ के माध्यम से प्रवेश करके ही सिद्धांत गढ़े जा रहे हैं. सिद्धांत ऊपर से आवरण की तरह नहीं हैं. यही प्रक्रिया जारी रखते हुए उन्होंने पाठों का संकलन और उसमें से एक तारतम्यता की पहचान जारी रखी जिसकी परिणति प्राच्यवाद के सिद्धांत में हुई. यह प्रविधि आकर्षक है जब तक वह अतिरंजना की शिकार न हो जाए, जो कि बाद में सईद के लेखन में कई जगहों पर होने लगती है.
इस पुस्तक में सईद की जो मूल समस्या है वह यह कि अभी भी वे यूरोपीय उपनिवेशवाद की मार झेलने वाले एक अफ्रीकी की नज़र तक नहीं पहुँच पाए थे क्योंकि वे एक फिलिस्तीनी अस्मिता के साथ पाठ में अधिक प्रवेश करते हैं. होता यह है कि जिस तरह उनके चिंतन और लेखन की अन्य विशेषताएँ बीज रूप में इस पाठ में दिखाई देने लगती हैं उसी तरह उनकी उक्त समस्या भी यहीं दिखाई देने लगती हैं. उनकी फिलिस्तीनी अस्मिता कई बार उनके पाठालोचन की प्रक्रिया पर इतनी हावी रहती है कि दूसरे महत्वपूर्ण पाठ उसके आवरण से बाहर नहीं निकल पाते. यह समस्या बाद की पुस्तकों में भी बनी रहती है.
सईद की दूसरी पुस्तक ‘बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड’ अपने स्वरूप में साहित्य और पाठ से संबंधित सैद्धांतिक प्रश्नों से रूबरू कराने वाली बिल्कुल अलग ढंग की कृति जान पड़ती है लेकिन इसे निरंतरता में ही देखा जाना चाहिए क्योंकि सईद के शब्दों में
“हर लेखक, जो भी वह लिखने जा रहा है, उसके शुरुआत के बारे में उसका चयन सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि वह आगे जो आने वाला है उसे निर्धारित करता है बल्कि इसलिए भी है कि किसी कृति का आरंभ ही इसके प्रदेय का मुख्य द्वार है…. एक शुरुआत तुरंत ही पहले की कृतियों से संबंध कायम कर लेती है, या तो ये संबंध निरंतरता के होते हैं या विरोध के या फिर दोनों का सम्मिश्रण.’’ (एडवर्ड सईद, बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क, 1985, पृ.3)
इस पुस्तक में संरचनावादी प्रश्नों और उसके सिद्धांतकारों से सईद का एक गहरा संवाद दिखाई देता है. संरचनावादी शब्द और अर्थ की व्याख्या करते हुए संकेतक-संकेतित, लांग और परोल के आधार पर उसे जैसे व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं, सईद ‘आरंभ’ और इसके पीछे अंतर्निहित पूरे परिवेश को व्याख्यायित करने का प्रयास करते हैं. इसे करने के क्रम में भाषा की संभावनाओं और सीमाओं को वो अपने विचार का हिस्सा बनाते हैं. इसके साथ ही साहित्यालोचन में एक नए रुझान को विकसित करने की दिशा में वे आगे बढ़ते हैं और साहित्यालोचन की ऐसी भाषा और उपकरण का विकास करने का प्रयास करते हैं जो अभी तक की चली आ रही आलोचना से अपने आपको अलग करती है.
सईद ‘बिगिनिंग्स’ के संदर्भ में कहते हैं,
‘‘आरंभ सिर्फ एक तरह की क्रिया नहीं है, यह एक मानसिक अवस्थिति है, एक तरह का काम, एक प्रवृत्ति, एक चेतना…. किसी लेखक के लिए आरंभ करना प्रस्थान के एक निर्धारित बिन्दु से जुड़ने जैसा है.’’ वे कहते हैं कि इस पुस्तक में ‘‘मेरा उद्देश्य सिर्फ यह दिखाना नहीं है कि किस तरह की भाषा और विचार प्रयोग में लाए जाते हैं जब कोई आरंभ करता है या आरंभ के बारे में सोचता या लिखता है. बल्कि मैं यह भी दिखाने की आकांक्षा रखता हूँ कि उपन्यास जैसे रूप और पाठ जैसी अवधारणाएँ विश्व में अस्तित्वमान होने के और आरंभ के ही रूप हैं.’’ (वही, पृ. xv-xvi)
इस अवधारणा को वे संस्कृतियों के आरंभ और विकास की हमारी चली आ रही समझ पर भी लागू करते हैं और उस पर नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं. ओरिएंटलिज्म की ओर उनके प्रस्थान को ऐसे भी समझा जा सकता है.
संक्षेप में,
‘‘आरंभ का पद सामन्यतः बाद में आने वाले उद्देश्य के पद को शामिल किए चलता है….आरंभ किसी उपल्ब्धि या प्रक्रिया जिसकी एक अवधि या अर्थ हो उसका प्रथम बिंदु (देश, काल या क्रिया में) है. यानी आरंभ, अर्थ के उद्देश्यपूर्ण उत्पादन की दिशा में पहला कदम है.’’ (वही, पृ.5)
वे रेखांकित करते हैं कि किसी प्रक्रिया को आरंभ (बिगिनिंग) तभी कह सकते हैं जब कुछ स्थितियों को विकसित होते देखा जाए-
‘‘सबसे पहले आकांक्षा, दृढ़ इच्छा होनी चाहिए, फिर खुद को ही उलट देने की पूरी आजादी, फिर ‘रप्चर’ और ‘डिसकॉन्टिन्यूटी’ के खतरों को स्वीकार करने की आजादी…. हालांकि एकदम नई शुरुआत के साथ आरंभ करना बहुत कठिन है. अनेक पुरानी आदतें, वफादारियाँ और दबाव एक स्थापित उद्यम (एंटरप्राइज) के बरक्स एक नए की स्थापना को रोकते हैं.’’ (वही, पृ.34)
सईद की अगली पुस्तक ‘ओरिएण्टलिज्म’ को पढ़ते वक्त ‘आरंभ’ के संदर्भ में उक्त प्रवृत्तियों को सहज ही चिह्नित किया जा सकता है. इच्छा-आकांक्षा ही नहीं बल्कि अपनी आजादी का पूरा उपयोग करते हुए परंपरा से चली आ रही निरंतरता को तोड़ना और फिर नए सिरे से उसकी व्याख्या करना. कोनराद के अपने पाठ से इस पुस्तक में वे कहीं आगे निकल जाते हैं. प्राच्यवाद इस संदर्भ में सईद की मान्यताओं का सर्वोत्तम उदाहरण है. यह अंग्रेजी आलोचना की उस दौर तक चली आ रही परंपरा संबंधी समझ को भी प्रश्नांकित करती है. संरचनावाद के गर्भ से निकली नई दृष्टियों को आत्मसात करती है और इन सबके साथ कुछ नया करने की लेखक की निजी आकांक्षा को भी प्रत्यक्ष करती है.
‘बिगिनिंग्सः इंटेन्शन ऐंड मेथड’ इस बात का प्रमाण है कि सईद के पास साहित्य के गंभीर सैद्धांतिक प्रश्नों से जूझने की अकूत क्षमता थी. बिगिनिंग्स के कुछ निबंध 1965 के तुरंत बाद के वर्षों में लिखे गए थे. यह साफ दिखाई देता है कि मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी आक्रामकता के बाद जो बदलाव आए, उसने सईद द्वारा अध्ययन के लिए चुने गए प्रश्नों की दिशा बदल दी. यह वही दौर था जब मध्य-पूर्व की स्थितियों में और भी तीव्र बदलाव आ रहे थे. 1967 और 1973 की हिंसात्मक घटनाएँ सईद के जीवन और लेखन को गहरे निर्धारित करती हैं. बिगिनिंग्स का प्रकाशन पहली बार 1975 में होता है और इसी के बाद हम देखते हैं कि सईद रचना के शिल्प और संवेदना से जुड़े सैद्धांतिक प्रश्न से आगे जाते हुए ‘ओरिएण्टलिज्म’ की ओर बढ़ जाते हैं जिसमें विषय का चुनाव और उसकी संरचना दोनों ही गहरे स्तर पर विचारधारात्मक हो जाते हैं और समय और समाज से राजनीतिक स्तर पर भी संवाद करने में कायम होते हैं. ऐसा तब होता है जब सईद को यह पता ही नहीं था कि ओरिएण्टलिज्म का अभिग्रहण क्या होगा, लेकिन इसके तुरंत बाद सईद का पूरा लेखन ओरिएण्टलिज्म से उठे प्रश्नों और उनकी राजनीतिक चिन्ताओं से प्रभावित हो जाता है और सईद की चिन्ताधारा एक खास दिशा में आगे बढ़ जाती है. हालांकि, यह भी रोचक है कि ‘बिगिनिंग्स’ और ‘ओरिएण्टलिज्म’ का पाठ करने वाले अगर रचनाकार से परिचित न हों तो यह कहना मुश्किल हो जाएगा कि संवेदना के स्तर पर ये एक ही लेखक की रचनाएँ हैं, शिल्प के स्तर पर भले ही कोई यह पहचानने में समर्थ हो.
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![]() शीतांशु आलोचना में विशेष रुचि रखते हैं. फिलहाल हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय, दीफू परिसर में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में कार्यरत हैं. कंपनी राज और हिन्दी शीर्षक से उनकी एक पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. प्रकाशन संस्थान से उनकी दो संपादित पुस्तकें (प्रो.ओमप्रकाश सिंह के साथ संयुक्त रूप से संपादित) प्रकाशित हैं- पाठ और पाठ्यक्रम, उपन्यास का वर्तमान. |
अच्छा लेख। किंतु जटिल। अकादमिक दृष्टि से उत्कृष्ट। साधारण पाठक के लिए ऐसे महत्वपूर्ण लेखों को थोड़ा रोचक बनाने की जरूरत।
आम पाठक के लिए ‘प्रच्यावाद’ को समझने में सहायक संक्षिप्त एवं सारगर्भित आलेख.