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समालोचन

Home » मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज

मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज

मार्खेज़ की यह कहानी १९६२ में प्रकाशित हुई थी, इसे लैटिन अमेरिका की संस्कृति और जीवन पर एक व्यंग्यात्मक आख्यान के रूप में देखा जाता है, यह एक महिला राजनीतिक बॉस की यादभर नहीं है, इसमें मार्खेज़ का जादुई स्पर्श सघन है. जे. एस. बर्नस्टीन ने १९६८ में इस कहानी का अनुवाद अंग्रेजी में किया था. अंग्रेजी के इसी अनुवाद पर अपर्णा मनोज का यह हिंदी अनुवाद आधारित है.

by arun dev
April 22, 2014
in अनुवाद
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मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज
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BIG MAMA’S FUNERAL by Gabriel Garcia Marquez

बड़ी अम्मा  का फ्यूनरल

हिंदी अनुवाद अपर्णा मनोज

दुनिया के तमाम लामज़हब लोगों के लिए बडम्मा की यह सच्ची कहानी – जो मेकोंडो मुल्क की तानाशाह सुल्ताना थी. बानवे साल तक जो जिन्दा रही और पिछले साल सितम्बर के मंगलवार को जिसकी मुक़्क़दस रूह दुनिया से फ़ना हुई. जिसकी ग़मी में पोप ने शिरकत की. मुल्क जिसकी चूलें हिली हुई थीं, अब खुद को सँभालने की कोशिश में था; सैन जैसिंटो के मशक बीन वादक, गुआजीरा के तस्कर, सीनो के धान उगाने वाले ठेकेदार, कॉकामयाल की वेश्याएँ, सीअर्पे के जादूगर, अरकंटका के केले बागानों के मालिकों ने थका देने वाले रतजगों के बाद अपने बिस्तर समेट लिए थे और खोये सुकून को पाने की जद्दोजहद में थे.

गणतंत्र का राष्ट्रपति, उसके मंत्री, आवाम के नुमाइंदे और तमाम अलौकिक ताकतें जो उस भव्य जनाज़े के साथ थीं और जिनका नाम तवारीख में मुनक़्क़श हो जाना चाहिए, अब अपनी खोयी रियासतों को पाने में लगे थे; पवित्र पुजारी अपने जिस्म और रूह के साथ ज़न्नत की आरज़ू में थे; और अब मेकोंडो की गलियों से गुज़रना मुसीबत की तरह था चूँकि गलियां खाली बोतलों से अटी पड़ी थीं, जहाँ -तहाँ जली सिगरेट के टुकड़े बिखरे थे; चबाई हड्डियों, कबाड़ कनस्तरों और फ़टे -चीथड़ों का अम्बार लगा था, जिसे ग़म में शिरकत करने वाली भीड़ वहीँ छोड़ गई थी. यह वह समय था कि किसी तारीखनवीस के तामीर लिख लेने से पहले ही सामने के दरवाज़े पर तिपाई टिकाकर शुरू से आख़ीर तक कौमी ग़दर को लिख लेना था.

चौदह सप्ताह हुए इस बात को, कभी न खत्म होने वाली रातों तक सुल्ताना को पुल्टिस बाँधा गया, सरसों की पट्टी रखी गई और जोंक से उसका दर्द दूर करने की कोशिश की गई, लेकिन मौत के उन्माद और यातना ने उसे बहुत कमज़ोर बना दिया था; बडम्मा ने फरमान ज़ारी किया कि उसे बेंत की आराम कुर्सी पर बैठाया जाए ताकि वह अपनी आखिरी ख़्वाहिश बता सके. मरने से पहले एक यह काम वह पूरा करना चाहती थी. उस सुबह उसने फादर एंटनी इसाबेल के सामने अपने मन की बातें कह डालीं और अब वह अपने नौ भतीजे -भतीजियों यानी अपने वारिसों के सामने दुनियावी मामलातों को भी निपटा देना चाहती थी, जो उसे घेरे खड़े थे. पुजारी उम्र की सौंवी दहलीज़ पर था. कमरे में बैठा हुआ वह खुद कलामी कर रहा था. बडम्मा के कमरे तक उसे लाने में दस लोगों की जरुरत पड़ी थी, इसलिए यह तय किया गया था कि अंतिम घड़ी तक उसे वहीँ उसी कमरे में रहने दिया जाए.

सबसे बड़ा भतीजा निकानू नोटरी की तलाश में निकल गया. उसने खाकी रंग के कपडे और कांटेदार जूते पहने थे. देखने में भीमकाय और खूंखार था. उसकी कमीज में पिस्तौल का खोल रहता जिसमें .३८-कैलिबर की लम्बी नली वाली पिस्तौल रहती. विशालकाय दो मंज़िला हवेली जो कभी राब और अजवाइन से महका करती, जिसके कोठारे चार पुश्तों की तरह-तरह की तिजोरियों से भरे होते; धूलधूसरित दीखती थी. किसी होनी के डर से एक सप्ताह पहले ही वहां सन्नाटा पसर गया था. बीच के लम्बे गलियारे में जहाँ कभी उनींदे अगस्त के इतवारों में हुकों पर सूअर और हिरण लटके होते, उस फर्राशखाने में नौकर-चाकर औज़ारों और नमक के बोरों के इंतज़ामात के साथ फर्श पर सोये पड़े थे. उनके खच्चर जीन के साथ तैयार थे कि न जाने कब उन्हें ख़बर रियासत के चारों कोनों तक पहुंचनी पड़े. बाकी का परिवार अपनी बैठक में था. उनकी औरतें विरासत से चली आ रही कारगुज़ारियों से थकी -हारी, गुनूदगी में हैरां और पस्त जान पड़ती थीं, जैसे सालों से इकठ्ठा मातम उन्होंने ओढ़ रखा हो.

बड़म्मा की मातृसत्तात्मक सख़्ती ने उसके नाम और होनी की ऐसी सांस्कारिक दीवार खड़ी कर दी थी कि जिसमें चाचा अपनी भतीजियों की बेटियों से शादी कर सकता था, मौसेरा भाई अपनी मौसी से विवाह करने की छूट लेता और भाई अपनी भाभियों से. सगोत्रता का ऐसा जाल बिछ गया था जिसने पैदाइश को अनैतिक दायरे में फेंक दिया. सबसे छोटी भतीजी मैगडलिन इससे खुद को बचा सकी थी. डरावने ख्वाबों ने उसकी जान सोख ली थी. उसने फादर ईसाबेल से झाड़-फूँक करवाई. अपना सिर मुंडवा लिया और सांसारिक सुखों को छोड़कर नव -दीक्षित मिशन डिस्ट्रिक्ट में शामिल हो गई. अपने किसी भी नौकर की बीबी के साथ ज़मीदार इच्छानुसार रात गुज़ार सकता था; आदमियों ने कोख को जानवरों का बाड़ा बना दिया. अपने समझौतों और तरीकों से उन्होंने जारज संतानों की जमात खड़ी कर दी जो बिना उपनाम के नौकरों को दे दिए जाते थे. वे भगवान के बच्चे कहलाते और बडम्मा के आश्रय में कभी उनके प्यारे बनकर रहते तो कभी सेवक बनकर.

सिर पर मंडराती उसकी मौत ने बुझती हुई उम्मीद को फिर से रोशन कर दिया. मरती हुई इस औरत की आवाज़ को सज़दे और फ़र्माबरदारी की आदत थी. एक बंद कमरे में उसकी आवाज़ तुरही से भी ज्यादा बुलंद थी जो रियासत के दूर -दराज़ के कोनों तक सुनाई देती. उसकी मौत से कोई बेरुख न हो सकता था. इस सदी में भी बडम्मा मेकोंडो की धुरी थी, ठीक उसी तरह जैसे कभी उसके भाई, उसके माँ -बाप, उसके नाना-नानी या दादा-दादी हुआ करते थे और दो सदियों से इस मुल्क के बागपैरां थे. शहर का नाम उसी के खानदानी नाम से आबाद हुआ. रियासत के पास कितना है, उसकी क्या कीमत है -कोई जानता नहीं था, लेकिन लोगों को ये भरोसा हो चला था कि बडम्मा ही यहाँ के रुके या बहते पानी की मालकिन हैं. वही बरसात और सूखे की मल्लिका हैं. वही रियासत की तमाम सड़कों, तार के खम्बों, अधिवर्ष, गर्मी की लहरों की हाकिम हैं. इससे भी एक कदम बढ़कर उन्हें जिंदगी और मिलकियत पर बाप-दादों से हुकूमत का हक़ मिला है. अक्सर ठंडी दोपहर में जब वह अपनी बालकनी में पुरानी बेंत की आराम कुर्सी पर रुतबे और पेट के पूरे भार के साथ बैठी होती तो कुर्सी इस भार से नीचे धंस जाती. तब सचमुच ऐसा लगता कि वह दुनिया की अकूत दौलत की सबसे ताकतवर स्वामिनी है.

किसी के लिए भी यह सोचना मुश्किल था कि बड़ी अम्मा भी कभी दुनिया से रुखसत ले सकती हैं. यह केवल बड़ी अम्मा और उनके कबीले को पता था कि उनके मरने का पूर्वाभास बूढ़े पादरी ईसाबेल को हुआ है, जबकि बडम्मा को पूरा यक़ीन था कि अभी उन्हें सौ साल से भी ऊपर जीना है – ठीक वैसे जैसे उनकी नानी ने लम्बी उम्र देखी. उनकी नानी ने १८८५ की जंग में कर्नल ओरिलिआनो बूइंडिआ की गश्ती टुकड़ी को अपनी रसोई से आगे नहीं जाने दिया था. लेकिन इसी महीने के अप्रैल महीने में बडम्मा को इस सच्चाई का इल्म हुआ कि परवरदिगार ने उसे उतने भी ख़ास अधिकार नहीं दे दिए हैं कि वह अकेले ही संघियों के गिरोहों और उनकी खुले झगड़ों को यूँ कुचल सके.

पहले सप्ताह जब दर्द उठा तो परिवार के डॉक्टर ने सरसों की पट्टी बाँध कर गरम जुराबें पहना दीं. यह उनका पुश्तैनी डॉक्टर था. उसने मोन्टपेलिए से पढाई की थी. किसी तरह के दर्शन में उसकी आस्था नहीं थी. विज्ञान को वह तरक्की के लिए जरुरी मानता था. बड़ी अम्मा ने उसके साथ सांठ -गाँठ कर रखी थी. उसे अपनी रियासत में जीवनभर रहने का हक़ दिया था और बदले में यह भरोसा कि मेकेंडो में और कोई डॉक्टर नहीं रह सकता सिवा उसके. शाम पड़े घोड़े पर सवार वह आता, बीमार जरूरतमंदों के पास जाता और एक ही गश्त में सारे शहर का हाल चाल ले लेता. कुदरत बदले में उस पर खूब मेहरबान रहती. वह यहाँ कई बच्चों का पिता था. पर गठिया के कारण उसने बिस्तर पकड़ लिया था, इसलिए अब वह अपने मरीज़ों के पास नहीं जा पाता था और अपना रोज़ का काम पयाम और अटकलों से पूरा करता. बड़ी अम्मा ने उसे बुला भेजा था. उसे जाना पड़ा. पायजामा पहने,अपनी दो लाठियों पर झुकता -झुकाता नगर के चौक को पार करते हुए वह बडम्मा के पास पहुंचा. बीमार औरत के कमरे में उसने अपना डेरा डाल लिया. वहां जाकर ही उसे पता चला कि बड़ी अम्मा की जान आफत में है. तरह तरह के मल्हमों वाला लातिनी चीनी मिट्टी का जार उसने मंगवाया और तीन हफ़्ते तक मौत से लड़ती औरत को वह अंदर -बाहर सब जगह लेप लगाता रहा. उसने नाना मरहम लगाये. शानदार उत्तेजक दवाइयाँ दीं और कारगर बत्तियां लगाईं. उस पर भी जब दर्द न घटा तो उसने मोटे ताज़ा मेंढकों को दर्द की जगह लगाया. गुर्दों पर जोंक बैठाई. अगली सुबह होने तक वह तमाम इलाज करता रहा -तब तक जब तक वह इस दुहरी मुश्किल में न उलझ गया -कि अब और क्या चारा बचा है. या तो नाई को चीरा देने के लिए बुलवा भेजा जाए या फिर पादरी एंटनी ईसाबेल से झाड़-फूँक करवा दी जाए.

निकानू को पुजारी के पास भेजा गया. दस सबसे काबिल लोग पादरी को उसके उजाड़ मकान से उठकर लाये और बडम्मा के शयन कक्ष में बैठा दिया. बडम्मा चरमर चरमर करती बेंत की लचकदार कुर्सी पर विराजमान थीं. कुर्सी फफूँद लगी छतरी के नीचे पड़ी थी. यह शामियाना नुमा छतरी ख़ास मौकों पर ही काम आती थी. यह वायारक्रम था जहाँ मरणासन्न व्यक्ति से मिलने भीड़ जुटती थी. सितम्बर की उस गुनगुनी सुबह को मोकेन्डो की आवाम ने वायारक्रम से आने वाली छोटी घंटियों की आवाज़ सुनी जो सुबह उठने वाली सबसे पहली चेतावनी की पुकार थी. सूरज उठते -उठते नगर के उस छोटे से चौक के पास बड़ी अम्मा के घर के सामने जैसे मेला जुट गया.

ये जैसे किसी और ज़माने की यादें थीं. सत्तर साल की होने तक बड़ी अम्मा अपनी सालगिरह पुरशोर तरीके से मनातीं जो किसी त्योहार की तरह लम्बी चलती. रम के डेमिजोन (सुराहीनुमा लम्बी गर्दन की बोतलें ) लुटाए जाते. शहर के चौक में जानवरों की क़ुरबानी दी जाती. तीन दिन तक बिना रुके बैंड बजता. बादाम के धूसर पेड़ के नीचे जहाँ कभी शताब्दी के पहले सप्ताह में कर्नल ओरिलिआनो बूइंडिआ और उसके सिपहसालारों ने अपनी छावनी बनाई थी, वहीँ उसी जगह पर केले की शराब, रोल्स, ख़ूनी गुलगुलों, बारीक़ कटे तले -भुने गोश्त, गोश्त कचौड़ियों, लंगूचे, यूका पावरोटी, क्रॉलर्स, मकई पाव, मछली के पफ,लोंगानीसास, आंतें, नारियल न्यूगा, रम टोडीज़ के साथ तरह तरह के छोटे-मोटे सामान , मुर्गों की लड़ाई लॉटरी टिकट्स की दूकानें सजतीं. इस शोर गुल के बीच स्कैपुलर (कफ्तान या लबादा ) बिकते जिन पर बड़ी अम्मा का चित्र छपा होता. इस तरह सालगिरह के शुरू होने के दो दिन पहले से और खत्म होने तक गहमा -गहमी बनी रहती. पटाखों के शोर और पुराने पियानो की धुन पर थिरकते लोगों के नाच-गाने से बड़ी अम्मा का महल थर्राता रहता. ख़ास मेहमान, घर के लोगों के आलावा नाजायज़ औलादें भी नाचती-गातीं. सदारत बडम्मा करतीं. वह दालान के पिछले हिस्से में अपनी मलमल के तकियों वाली आराम कुर्सी डाल कर बैठ जाती. मौका देखकर बीच-बीच में अपने दायें हाथ से हिदायतें देती जाती. उसकी सारी उँगलियाँ अंगूठियों से दमकती रहतीं. उसी रात आने वाले साल की शादियों के फैसले हो जाते. इसमें प्रेमी जोड़ों की मिलीभगत रहती; लेकिन सलाह अम्मा की होती. जब सब खत्म हो जाता तो बडम्मा राज चिह्न और जापानी लालटेनों से सजी बालकनी में आ जाती और खूब सिक्के लुटाती.

लेकिन इधर कुछ ऐसा हुआ कि रवायतें गुमनामियों में दफ़्न गईं. घर में एक के बाद एक कई मौतें हुईं. सियासी बेसब्री बढ़ती गई. नई कौम ने जश्ने अज़ीम के बस किस्से ही सुने थे. उन्होंने कभी बडम्मा को भारी भीड़ से घिरे नहीं देखा था. उन्होंने नहीं देखा था कि सरकारी ओहदेदार अम्मा के मुरीद हो गए हों और अदब से उसके सामने सिर झुकाते हों.

भूली बिसरी यादों की तरह बूढ़े लोगों के मन में जवानी के दिनों की स्मृतियाँ छूटी हुई थीं. उन्हें मारिया डेल रुज़ारिओ कैस्टिनेडा ए मोंटेरो के वालिद की वफ़ात का वो दिन याद था जब भरी दोपहर में दो सौ गज़ का गलीचा उनके जायदाद में मिले घर से क़ुर्बानगाह तक बिछा दिया गया था. जब रुज़ारिआ अपने पिता की अंत्येष्टि से लौटीं तो उनका समूचा वज़ूद नयी गरिमा से दिपदिपा रहा था – इस तरह बाइस साल की वह लड़की बडम्मा में बदल गई.

उन दिनों मध्ययुगीन ख़्याल केवल परिवार के अतीत का हिस्सा नहीं होता था बल्कि पूरे मुल्क के विगत से उसकी साझेदारी रहती थी.

समय के साथ बडम्मा भी अपनी ही पुराकथा में पिघलती चली गईं.गर्मी की दोपहर में भी जो रतनजोत के फूलों के भार से लदी, अपनी बालकनी में अक्सर दिखा करती थी, अब मुश्किल से ही दीखती. वह जैसे दृश्य से ओझल हो चली थी, जैसे बहुत दूर चली गई थी.

उसने अपने सारे अधिकार निकानू को सौंप दिए थे.

कुछ वायदे अनकहे होते हैं, परम्पराएं उन्हें निभाती हैं. मामा ने भी किया. उन्होंने अपना वसीयतनामा वारिसों के नाम लिखकर मोहरबंद किया और उसी दिन वारिसों ने तीन रातों के सार्वजानिक उत्सव का ऐलान किया. लेकिन साथ ही सब ये सच भी जानते थे कि बड़ी अम्मा अपनी आखिरी ख़्वाहिश अंतिम घड़ी आ जाने से पहले किसी को न बताएंगी और कोई यह बात गंभीरता से ले नहीं पाता था कि वे भी कभी मरेंगी.

लेकिन आज सुबह वायकम की घंटियों ने जब मोकेण्डो को जगाया तो वहां की जनता को इस बात का भरोसा हुआ कि बडम्मा भी मनुष्य हैं और अलविदा की तैयारी में हैं.

धूल से सनी, पूरब के महीन क्रेप से तैयार छतरी के नीचे बड़ी अम्मा सन के बिछौने पर लेटी थीं. कानों तक उनके मलहम पुता था. जीवन की साँसें क्षीण हो चुकी थीं. कौन कह सकता था कि ये वही अम्मा थीं जिनकी छातियों तक में मातृसत्ता की घुट्टी जज़्ब थी.

जो मामा अपने पचास पूरे होने तक दुनिया के सबसे जोशीले विवाहार्थी को ख़ारिज कर दिया करती थी; या जिसे कुदरत ने इतनी ताकत दी थी कि वह अकेली ही अपनी रियाया का पेट पाल सके; आज कुँवारी, निपूती, निर्वंश दुनिया से चले जाने को तैयार बैठी थी.

हथेलियों पर तेल मलते समय पादरी ईसाबेल को अन्य लोगों को मदद के लिए बुलाना पड़ा. मामा की उँगलियों में हीरे की अंगूठियां दमक रही थीं और मौत की तीव्र वेदना वाली घड़ियों में भी मामा ने अपनी मुट्ठियाँ छाती पर भींच रखीं थीं. उनकी भतीजियों की हाज़िरी भी वहां बेकार सिद्ध हुई. किसी भी तरह उन्होंने मुट्ठी न खोली. उनकी निस्तेज आँखें जैसे सबसे कह रही थीं- ‘तुम सब लुटेरो हो.’

पादरी अपने सेवकों के साथ अनुष्ठानों में लगे थे. मामा सब देख रही थीं. सहज पर शांत और दृढ़. मामा बुद्बुदाईं – ‘ मैं मर रही हूँ.’ फिर उन्होंने अपनी हीरे जड़ी अंगूठी निकाली और मैगडेलेना को सौंप दी. मैगडेलेना की ही अंगूठी थी…. उनकी सबसे छोटी वारिस और नवदीक्षित नन. जिसने परम्परा को तोड़ते हुए चर्च को स्वीकार किया और विरासत को ठेंगा दिखाया.

अगले दिन तड़के ही बड़ी मामा ने निकानू को अपने पास बुलाया और उसे कई बातें पूरी सजगता के साथ समझाईं. आधा घंटे तक अपने कामकाज के बारे में समझाती रही. फिर उसने अपने अंतिम संस्कार को लेकर कुछ ख़ास निर्देश दिए. आखिर में चौकस होकर बोली – “अपनी आखें खुली रखना. सारी कीमती चीज़ें ताले में रखो. कई लोग तो केवल इन्हें झपटने की ताक में होंगे.”

इसके बाद एकांत में कुछ बातें उसने पादरी के साथ कीं. बहुत देर तक , पर बड़ी ईमानदारी से गुनाहों की खर्चीली माफ़ी मांगी और फिर रिश्तेदारों के साथ अमल इश्तिराक़ की चंद घड़ियां बिताईं. अंत में उसने बेंत की आराम कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया ताकि वह अपनी अंतिम इच्छा सबको सुना सके.

चौबीस पेजों का ये लेखा-जोखा था, जिसमें मख़्दूम मामा की ज़ायदाद का ख़ुलासा था. बहुत सुंदर लिखावट में निकानू ने इसे तैयार किया था.

डॉक्टर और पादरी को हाज़िर-नाज़िर मानते हुए मामा ने नोटरी को अपनी चल -अचल सम्पत्ति लिखवा दी थी. जिन दिनों उपनिवेश बना, सरकारी हुक्म के साथ ठीक-ठाक मिक़दार में ये रियासत तीन जिलों से मिलकर बनाई गई. लेकिन समय के साथ सारी ताकत मामा के हाथ में चली गई. शादी ब्याह भी उसकी मर्जी से होते.

पांच कस्बों की परती ज़मीन थी ये. दो सौ बावन परिवारों की ज़मीन थी ये. लेकिन किसी के पास भी अपनी ज़मीन न थी. जो भी किसान थे सब के सब बँटाईदार थे. अपने जन्मदिन पर बडम्मा अपने घर के ओसारे पर बैठ जाती और लोगों से लगान वसूल करती. उसके पूर्वज भी यही करते आये थे. यह काम तीन दिन तक चलता. उगाही वसूलने के बाद मामा का आँगन सूअरों, फीलमुर्ग और मुर्गों से खचाखच भर जाता. बागानों के फलों का दशमांश उस तक पहुँच जाता. फसल के नाम पर ले देकर केवल यही एक फसल साल भर में होती थी, उसके बाद ज़मीन में कुछ न उगता.

पारम्परिक परिस्थितियों ने यह तय कर दिया था कि इन पाँचों कस्बों को अपनी सरहदों के भीतर ही पनपना था. यही हाल काउंटी के गढ़ का भी था. किसी को संपत्ति का अधिकार नहीं था. सारी ज़मीन मामा की थी. मकानों के किराए उसे ही दिए जाते. शहर की सड़कों तक पर मामा का अधिकार था.

बस्ती के बाहर आवारा मवेशी बड़ी तादाद में भटका करते. भूख -प्यास से ये मर जाते थे. उन्हें तालानुमा आकृति से दागा जाता. ये एक पारम्परिक लुआठा था जिसकी कहनियाँ लोग दूर-दराज़ तक तक सुनते – सुनाते. इस लुआठे से मरते मवेशियों के आंकड़ों का नहीं, बल्कि बिगड़े हालातों का पता मिलता था. कारण कोई बताता नहीं था. पिछले गृह युद्ध में घरों के सारे अस्तबल खाली हो गए. उनकी जगह गन्ने का रस निकालने वाले कोल्हू आ गए; दूध की डेरियां आयीं और चावल की मिलें खड़ी हो गईं.

अपनी वसीयत में गिनायीं तमाम चीज़ों के अलावा मामा ने तीन सोने के घड़ों का ज़िक्र किया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान घर में ही ज़मींदोज़ हुए थे. कई सालों की खुदाई के बाद भी इनका पता नहीं चला. किराए की सारी ज़मीन भी खोद डाली गई; ज़मीनों की उपज का दसवां भाग भी मिलता रहा; बाग़ -बगीचों से फल भी मिलते रहे; बड़े -बड़े दान भी मिले; आने वाली हर पीढ़ी ने सारा कच्चा -चिटठा सहेज कर भी रखा, लेकिन दबे खज़ाने का कहीं पता नहीं चला.

अपनी चल-अचल संपत्ति को बताने में बड़ी अम्मा को तीन घंटे लगे. जैसे -जैसे वह ब्यौरा देती जाती, उसकी गरिमा का पता लोगों को मिलता जाता.

जब दस्तखत करने के लिए उसने कांपते हाथ कागज़ पर रखे और उसके दस्तखत के नीचे गवाह अपनी सही देने को उद्यत हुए, राज़भरा ज़लज़ला भीड़ के दिलों को थर्रा गया. भीड़ जो नगर चौक में सुबह से उमड़ आई थी. भीड़ जो धूल से सने बादाम के पेड़ों के नीचे जमा थी.

अब यदि कुछ बताने से छूट गया था तो वह था न दिखने वाली मामूली दौलत. बड़ी मामा ने वही किया जो उनके पूर्वज करते आये थे.

मामा अपने भारी कूल्हों पर थोड़ा उचकीं और गंभीर, दबंग आवाज़ में कुछ कहते हुए पुरानी यादों में गुम हो गईं. फिर उन्होंने अपनी अलक्ष्य दौलत के बारे में इतनाभर बताया – ज़मीन के नीचे दबे सारे खनिज उसके हैं. यहाँ-वहां बहता हुआ पानी, झंडे का रंग, देश की संप्रभुता, सारे पारम्परिक दल, आदमियों के अधिकार, नागरिकों के अधिकार, देश का नेतृत्व, अपील करने का अधिकार…सब उसके हैं. कांग्रेस की सुनवाइयां, सिफारिशी खत, ऐतिहासिक अभिलेख, दस्तावेज़, मुक्त चुनाव , रानी सुंदरियाँ, यादगार भाषण, बड़े-बड़े प्रदर्शन…सब उसके हैं. अलग दिखने वाली औरतें, सज्जन पुरुष, अति शिष्टाचारी फौजी, राष्ट्रपति की गरिमा, उच्चतम न्यायालय, सारा सामान जिसके आयात पर रोक लगा दी गई है, उदार स्त्रियां, मीट की समस्या, भाषा की शुद्धता, अच्छे उदाहरण की जरुरत, आज़ाद और ज़िम्मेदार मिडिया…सब उसके हैं. दक्षिण अमेरिका का एथेंस (बोगोटा), जनता की राय, जम्हूरियत के सवाल, ईसाईयों की नैतिकता, विदेशी मुद्रा का अभाव, पागलखाने के अधिकार, साम्यवाद का आतंक, राज्य रुपी जहाज़, जीवन यापन की उच्च लागत, गणतंत्र के तौर-तरीके, राजनैतिक समर्थनों के लिए दिए गए बयान…

वह अपनी बात पूरी न कर सकी. इतनी मेहनत से दिए गए आंकड़ों ने उसकी आखिरी सांस हर ली. अपने परिवार की अर्जित ताकत का प्रमाण देते-देते वह न जाने किस अदृश्य कोलाहल में डूब गई. बडम्मा ने बड़ी हिचकी ली और उनके प्राण पखेरू उड़ गए.

उसी दोपहर को दूरस्थ राजधानी के निवासियों ने एक बाईस साल की नव-यौवना की तस्वीर समाचार पत्र के एक्स्ट्रा एडिशन में देखी. लोगों ने सोचा कि ये कोई रानी-सुंदरी है. इस तरह बड़ी मामा एक बार फिर ज़िंदा होकर अपने क्षण भंगुर यौवन के साथ चार-चार स्तम्भों में दिखाई दे रही थीं और वह भी नए परिष्कृत रूप में

उनके घने बाल हाथी दांत की कंघी से करीने से बंधे हुए थे. गले के कॉलर पर मुकुट जैसी कोर थी. गली के किसी फोटोग्राफर ने मोकेण्डो से गुज़रते हुए यह तस्वीर कभी खींची थी और समाचारपत्र के एक सेक्शन के लिए बतौर अनाम लोगों की सूची में रख छोड़ी थी, जिसे अब इस तरह भावी पीढ़ियों की स्मृतियों में जुड़ जाना था.

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Comments 1

  1. Balkirti says:
    2 years ago

    अपर्णा आपका अनुवाद एक्सीलेंट आपने हर छोटी से छोटी अंतर ध्वनि को पकड़ा है

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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