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Home » मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज » Page 2

मार्खेज़: बड़ी अम्मा का फ्यूनरल: अनुवाद: अपर्णा मनोज

मार्खेज़ की यह कहानी १९६२ में प्रकाशित हुई थी, इसे लैटिन अमेरिका की संस्कृति और जीवन पर एक व्यंग्यात्मक आख्यान के रूप में देखा जाता है, यह एक महिला राजनीतिक बॉस की यादभर नहीं है, इसमें मार्खेज़ का जादुई स्पर्श सघन है. जे. एस. बर्नस्टीन ने १९६८ में इस कहानी का अनुवाद अंग्रेजी में किया था. अंग्रेजी के इसी अनुवाद पर अपर्णा मनोज का यह हिंदी अनुवाद आधारित है.

by arun dev
April 22, 2014
in अनुवाद
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तस्वीर कई जगह लगाईं गई थी. खस्ता -हाल बसों में, मंत्रियों के एलिवेटर्स में, उदास उजाड़ पड़े चायघरों में.…लोग इज्जत से तस्वीर की बात कर रहे थे… उसके चिपचिपे मलेरिया ग्रस्त प्रदेश की बात कर रहे थे. मोकेण्डो के सिवा जिसे और कोई नहीं जानता था, आज प्रिंट मिडिया ने उसे चंद घंटों में पूज्य बना दिया.

बूंदा-बांदी होने लगी थी. सुबह और धुंध ने राहियों को ढँक दिया. मृतक के लिए चर्च की घंटियां घनघना उठीं.

जब यह समाचार गणतंत्र के राष्ट्रपति के पास पहुंचा तो वह हैरत में पड़ गया. उस समय वह युद्ध मंत्री द्वारा फ़ौज़ में भर्ती नए केडेट्स को अभ्यास -सम्बन्धी सुझाव दे रहा था. उसने टेलीग्राम के पीछे अपने हाथ से एक नोट लिखा और अपना भाषण ख़त्म करने के बाद बड़ी अम्मा के सम्मान में एक मिनिट का मौन रखवा दिया.

मामा की मौत ने जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया. राष्ट्रपति भी इस प्रभाव से बच न सके हालांकि उनके पास ख़बरें छन-छन कर ही पहुँच रही थीं. लेकिन शहर में व्याप्त भयाकुलता को वह भांप गए थे. सब बंद था सिवा इक्का-दुक्का मामूली कॉफीघरों के. महानगर के प्रधान गिरजाघर में नौ दिन तक फ्यूनरल की रस्में होनी थीं.

राष्ट्रीय संसद भवन के डोरिक स्टाइल से बने खम्बों के नीचे, जहाँ भिखारी समाचारपत्र ओढ़ कर सोये रहते थे और जहाँ मृतक राष्ट्रपतियों की प्रतिमाएं शोभायमान थीं -वह भी आज रौशनी से नहाया हुआ था.

राष्ट्रपति जब अपने ऑफिस पहुंचे तो शोक का दृश्य देख द्रवित हो उठे. मंत्रियों ने फ्यूनरल गार्ब (पोशाक ) पहन रखा था. उनके चेहरे संगीन थे और वे सब खड़े हुए थे. वे सब राष्ट्रपति का इंतज़ार कर रहे थे. उस रात को होने वाली वारदातें ऐतिहासिक पाठ थीं.

केवल इसलिए नहीं कि इन घटनाओं ने ईसाइयत मिजाज़ और जन शक्ति के महान ऊँचे लोगों को आंदोलित किया था, बल्कि इसलिए भी कि बडम्मा जैसे काबिल-ए-शोहरत इंसान को दफ़नाने की बात पर अलग -अलग दिलचस्पियां और नफे खुलकर सामने आ गए थे. बडम्मा ने लम्बे समय तक अपनी सल्तनत को सामाजिक और सियासती हलचलों से महफूज़ रखा. इसका गुप्त राज़ जाली इलेक्टोरल सर्टिफिक्टेस थे जो तीन ट्रंक भरकर उनकी रियासत से मिले. उनके नौकरों, आश्रितों, किरायेदारों, छोटों-बड़ों सभी को अपने वोट के साथ सदियों से मरे लोगों के वोट डालने का भी अधिकार था.

उसने अपने परम्परागत पूर्वाधिकारों का इस्तेमाल नाशवान ताकतों पर किया, वर्ग-शक्ति का प्रयोग जन-सामान्य पर किया, ज्ञानातीत दैवी ताकतों को मानव-सुधार पर लगा दिया. चैनों-अमन के दिनों में उसने पादरियों की केनोरीज़ (जो उनके वित्त को देखती है) के प्रस्तावों को मंज़ूर-नामंज़ूर किया, उनकी पद -वृद्धि को अपने हाथ में रखा, आराम की नौकरियों पर नियंत्रण रखा और अपने दोस्तों के हितों पर आँख रखी. जरूरत पड़ने पर उसने चोरी-छुपे चालबाजियों को भी पनाह दी, जीत हासिल करने के लिए चुनाव की धोखेबाज़ियों को निभाया. मुसीबतों के दिनों में बड़ी मामा साथी-गुटों के लिए गुप्त रूप से हथियार जुटातीं पर जनता के सामने पीड़ित के साथ खड़ी दीखतीं.

वतन परस्ती की पुरजोशियों के सारे सम्मान उसी से ज़ामिन होते. गणतंत्र के राष्ट्रपति को अपने सलाहकारों से राय न लेनी पड़ती.

महल के पिछले हिस्से में एक पोर्त्त कौशेर (घरों के पिछवाड़े में बना पोर्टिको के साथ का द्वार) था, जहाँ से वॉयसराय भीतर आते थे; वहीँ उससे लगा सनौवर के पेड़ों का एक घना बगीचा था. यहाँ एक पुर्तगाली साधु ने प्यार में पड़कर आत्महत्या कर ली थी. ऐसा उपनिवेश के अंतिम दिनों में हुआ. तमाम पदकों से विभूषित बहुत से अफसरों के होते हुए भी राष्ट्रपति को उस दिन छोटे -से हुल्लड़ का अंदेशा तक नहीं हुआ था और न ही वह उसे रोक पाया था.

पर उस रात उसे पूर्वाभास होने लगे थे. उसे अपने भाग्योदय का आगा-पीछा सब याद हो आया. उसने बड़ी मामा की मौत पर नौ दिन के शोक की घोषणा की. उसने बड़ी मामा को वीरता का मरणोपरांत पुरस्कार दिया जो इस वीरांगना के लिए उपयुक्त था.

उस दिन सवेरे-सवेरे रेडिओ और टेलीविज़न पर हमवतनों के नाम राष्ट्रपति का नाटकीय प्रबोधन और सन्देश प्रसारित हुआ. देश के नेताओं ने भरोसा दिलाया कि बडम्मा का फ्यूनरल और उसके संस्कार दुनिया के सामने नयी मिसाल कायम करेंगे.

इतने महान काम में कुछ गंभीर अड़चनें तो आनी थीं. न्याय व्यवस्था बड़ी मामा के पूर्वजों की उपज थी. उसमें इस तरह की आकस्मिक घटनाओं का निदान न था. न्याय के बुद्धिमान पंडित, न्याय की मूर्तियों के प्रमाणित कीमियागर तरह -तरह की व्याख्याओं और न्याय की राह निकलने में डूब गए. वे ऐसी तरकीब निकाल लेना चाहते थे कि जिससे देश का राष्ट्रपति भी फ्यूनरल में शामिल हो सके.

बड़ी संकट की घड़ियाँ थीं ये. बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, पुरोहितों, वित्तदाताओं की जान सांसत में थी.

एक भव्य अर्धचन्द्राकार महासभा में; जो किसी अमूर्त कानून के तहत ख़ास वर्ग के लिए आरक्षित थी, जहाँ देश के नायकों – महा नायकों की ऑइल पेंटिंग्स लगी थीं; जहाँ ग्रीक अमर विचारकों की आवक्ष मूर्तियां थीं… बड़ी मामा का जनाज़ा पहुंचा. मोकेण्डो के कड़ियल सितम्बर ने मामा की देह को बुलबुला बना दिया था.

लोग पहली बार मामा को बिना रैटन कुर्सी के देख रहे थे. ये पहली दोपहर थी जब लोगों ने मामा की आँखों को भाव शून्य पाया. उसके शरीर पर सरसों का पुलटिस नहीं था. लोगों ने देखा कि मामा चिर नूतन हो गई थी. लोगों ने देखा कि मामा खूब उजली हो गई थी -जैसे किसी कहानी से चुलाकर किसी ने उसे निकाला हो.

कभी न खत्म होने वाला वक्त आवाज़ों से भरता गया, शब्दों से भरता गया, आवाज़ें गणतंत्र में गूंजती रहीं… छापे की दुनिया ने प्रवक्ताओं को मशहूर बना दिया.

कीटाणु रहित, कानून बनाने वालों की सभा को अचानक ये ख्याल आया कि बड़ी मामा की पार्थिव देह उनके निर्णय का इंतज़ार करते हुए ४५ डिग्री की छाया में पड़ी है. और तब जाकर यह ऐतिहासिक बवाल बंद हुआ.

पूरा वातावरण लिखित कानूनमय था. कोई इस पर असहमति दर्ज़ नहीं कर सकता था. फिर आदेश तैयार हुआ कि मामा के शव का लेप किया जाये.

जबकि नए नियमों को जोड़ा जाना था, विवादों पर सहमतियां होनी थीं और नया संशोधन किया जाना था कि राष्ट्रपति फ्यूनरल में शामिल होकर मामा को कैसे मिट्टी दे सके.

बहुत कुछ कहा जा चुका था. बहस हद पार कर चुकी थी. समुद्र लांघ चुकी थी और किसी पूर्व सूचना की तरह तेज़ी से बहती हुई कैस्टल गॉन्दोल्फो में पोप के निवास स्थान तक पहुँच गई थी.

मुख्य पुजारी खिड़की से बाहर झील की तरफ देख रहा था. वह अगस्त की सुस्ती से बाहर निकलकर आया था. झील में गोताखोर एक लड़की का सिर ढूंढ रहे थे. कुछ सप्ताहों से शाम के अख़बारों में कुछ ख़ास पढ़ने को नहीं होता था. पर उस शाम मुख्य पुजारी ने अख़बार में एक तस्वीर देखी. यह बाईस साल की युवती की तस्वीर थी. “बड़ी मामा…” पुजारी चौंक कर तस्वीर देखता रहा. वह धुँधली डैगेरोटाइप तस्वीर को देखते ही पहचान गया. कई साल पहले उसे ये तस्वीर तब भेंट में मिली थी जब संत पीटर के बाद वह गद्दी पर बैठा था.

मुख्य पुजारी के साथ बाकी पुजारियों का दल भी चिल्ला उठा… “बड़ी मामा.” और इस तरह तीसरी बार, बीसवीं शताब्दी में ईसाइयत की सल्तनत घंटों तक व्याकुलता, खीज और हैरानी में डूबी रही. ये हड़बड़ी तब दूर हुई जब मुख्य पुजारी अपनी काली लिमोज़ीन में बैठकर बडम्मा के शानदार फ्यूनरल को निकल पड़ा.

आडुओं के उजले बागान पीछे छूटते गए, एपियन के रास्तों पर फिल्म स्टार्स धूप सेंक रहे थे जो हर तरह के शोरगुल से बेखबर थे और संत एन्जिल का कैसल टाइबर नदी के मुहाने पर फीका-उदास था. झुटपुटा होने पर संत पीटर के चर्च और मोकेण्डो की घंटियों की आवाज़ें घुलमिल गईं. उसके दमघोटूं तम्बू के उस पार आपस में उलझे सरकंडों की झाड़ियाँ थीं, सन्नाटे में खोयी दलदल थी जो रोम के साम्राज्य और बड़ी मामा के खेतों के बीच सरहद बना रही थी.

रात का सफर था. रात भर बड़ा पुजारी बंदरों की आवाज़ सुनता रहा जो आने-जाने वालों से नाराज़ होकर चिल्ला रहे थे.

वह डोंगी में बैठ गया. डोंगी सामान और लोगों से ठसाठस थी. डोंगी में याकु की बोरियां लदी थीं, केलों के गुच्छे थे, मुर्गों के क्रेट्स थे और आदमी-औरत.. जो मामा की अंत्येष्टि पर अपना भाग्य आजमाने निकले थे.

रतजगे और मच्छरों के आतंक से चर्च के इतिहास में पहली बार किसी बड़े पुजारी की पवित्रता नष्ट हुई थी. लेकिन उस महान औरत के देश की शानदार सुबह ने, उसके आदिम दृश्यों ने, सेब के बगीचों, इगुआना की आवज़ों ने सफर के दर्द और तकलीफों को दूर कर दिया था.

दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ ने निकानू को उठा दिया. ये पवित्र दस्तक की आवाज़ थी जो पवित्र पुजारी के पहुँचने का पवित्र सन्देश थी.

मृत्यु ने घर पर कब्ज़ा कर लिया था.

बड़ी मामा का सुरक्षित शव मुख्य-भवन में रखा था. कांपते टेलीग्राम्स के ढेरों को ताकता शव. निर्णय की उम्मीद में इंतज़ार करता शव. राष्ट्रपति के एक के बाद एक दिए सम्बोधनों से प्रेरित, विवादों से कुंठित, लोग और सभाओं के बीच घिरा ….. और जिनके आने से अँधेरे गलियारे भी भर गए. रास्तों पर जाम लग गया. अटारियों पर सांस लेने की जगह नहीं बची; और जो थोड़ा देरी से आये वे चर्च के पास की दीवारों पर चढ़े, कटहरे पर चढ़े, शातिरों पर जा बैठ गए, मुंडेरों पर चढ़े….. जहाँ जगह मिली वहां चढ़ गए.

शव की रखवाली उनके नौ भतीजे बारी-बारी से करते रहे. रो-रो कर वे आधे रह गए थे.

और अभी भी इंतज़ार की घड़ियां खत्म नहीं हुई थीं. शहर के परिषद सदन में चार चमड़े के स्टूल रखे गए. एक साफ़ पानी का कलश रखा गया. एक खटोला रखा गया. बड़ा पुजारी अनिद्रा से परेशान था. रात-रात भर वह सरकारी हुक्मनामे पढता. दिन में बच्चों को इटली की कैंडी खिलाता. दोपहर कभी ईसाबेल के साथ तो कभी निकानू के साथ खाना खाता. इस तरह उसे कई दिनों तक वहां रहना पड़ा -गर्मी और इंतज़ार ने इन्हें और लम्बा कर दिया.

प्रतीक्षा का समय खत्म हुआ. पादरी पास्त्राना अपने ढोलची को लेकर नगर-चौक पहुँच गए थे. उन्होंने फरमान पढ़ने का ऐलान किया. डुगडुगी बजी… रैटटैट रैट टैट…… कि फरमान की प्रतियां लोगों के बीच बांटी जाएंगी… रैटटैट रैट और गणतंत्र के राष्टपति … रैटटैट रैट … जिनके पास विशेषाधिकार हैं.. रैटटैट, वही बताएँगे कि बडम्मा के फ्यूनरल में कौन शामिल होगा, रैटटैट टैटएट टैटएट टैटएट

वह शानदार, अज़ीम दिन आ गया. गलियां छकड़ों, खोमचेवालों, लॉटरी स्टॉल्स से खचाखच भर गईं. वहां सपेरे गले में सांप लटकाये घूमते नज़र आये. उनके पास एक ख़ास मलहम था जिससे विसर्प (ऐरीसिफलस ) दोष जीवनभर के लिए दूर हो जाता था.

इस तरह छोटे से चौक में लोगों ने अपने तम्बू गाड़ लिए और चटाइयां बिछा लीं. फुर्तीले तीरंदाज़ अफसरों के लिए रास्ता खाली करवा रहे थे.

सब मिलकर उस घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे… सान जॉर्ज से धोबिन चली आई थी, मोतियों का मछुआरा एनगा से आया था, झींगा लेकर कोई तसाजेरा से आया; एक ओझा मोजजाना का था. नमक बनाने वाले मनाउरे से थे. वालेदुपार से अकॉर्डियन बजाने वाले आये. अयापेर के घुड़सवार, सैन पैलायो के नुक्कड़ गीतकार, ला क्यूवा से मुर्गे पालने वाले, सबाना डी बोलिवर से अच्छे प्रबंधक, रेबोलो के बांके, मैग्डलीन के माझी, मोनपॉक्स के बदमाश…और भी कई लोग वहां इकट्ठे हुए.

यहाँ तक कि कर्नल ऑर्लिनो के सेवा-निवृत सिपाही, मर्लबर्ग का ड्यूक जो सिर पर शेर की खाल, नाखूनों और दांतों का ताज पहनता था, बड़ी मामा से सौ साल पुरानी नफरत भूलकर वहां आया था. ये लोग राष्ट्रपति को अपनी पैंशन याद दिलाना चाहते थे जिसे देश साठ साल से भूले बैठा था.

ग्यारह बजने को थे. पसीने से नहायी उन्मादी भीड़ को कुलीन लोगों के सिपाहियों ने रोक दिया. वे सुन्दर जैकेट्स पहने हुए थे. सिर पर मज़बूत लोहे का टोप था. वे तेज़ आवाज़ों में जयजयकार कर रहे थे. तभी टेलीग्राफ ऑफिस के पास कोट और टोपी पहने सम्मानित और गौरवशाली लोगों का हुजूम इकठ्ठा होने लगा. राष्ट्रपति के साथ उनके मंत्री थे, संसद के डेलीगेट्स, पूरा उच्चतम न्यायालय, राज सभा, सारे दल, पादरी लोग, बैंक के नुमाइंदे और भी बड़े लोग वहां थे.

गंजे, थुलथुले और बीमार राष्ट्रपति को हैरतअंगेज भीड़ परेड करते देख रही थी. इससे पहले उन्होंने उसे समारोहों का उद्घाटन करते ही देखा था. वे लोग तो ये भी नहीं जानते थे कि वह है कौन, लेकिन आज वे उसकी असलियत देख रहे थे.

पादरियों, मंत्रियों, चमकते सितारे और तमगों वाले फौजियों के बीच वह दुबला-पतला -कमज़ोर, देश का सबसे बड़ा नेता, ताकत का पुतला लग रहा था.

दूसरी कतार में क्रेप का शांत, शोक वस्त्र मुंह पर डाले देश की सुंदरियाँ परेड कर रही थीं. पहली बार वे दुनियावी चीज़ों का त्याग करके परेड को निकली थीं. सबसे आगे विश्व सुंदरी थी. उसके बाद सोयाबीन रानी थी. फिर ककड़ी रानी, केला रानी, याकू रानी, अमरुद रानी, नारियल रानी, सेम -फली रानी, इगुआना के अण्डों की रानी…..जो इस दिन को यादगार बनाने लायक नहीं थीं, बस वे ही छूटी थीं.

बडम्मा को बैंगनी कपड़ों में लपेटा गया था. दुनिया की सच्चाई से बचाने के लिए उन्हें आठ ताम्बे के टर्नबकल्स से बाँधा गया था. बड़ी मामा फॉर्मीलीडाइड -अमरता में डूबी अपनी शान-शौकत के कद को नाप -तौल रही थीं.

जिस वैभव के सपने वह अपनी बालकनी से दिन -रात जागते हुए देखती थी, वह इन ४८ घंटों के आनंदमयी पलों में पूरा हो गया. हर उम्र ने उसकी याद में श्रद्धांजलि दी थी.

एक समय थे जब बेसुधी में वह अक्सर मुख्य पुजारी की कल्पनाओं में खोयी रहती, वेटिकन के बगीचों पर तैरती और सोचा करती कि वह जो अपनी शानदार बग्घी में बैठकर सारे वेटिकन के बगीचों में घूमता है, जिसने गर्मी को ताड़ के पत्तों से बने पंखे से जीत लिया है, जो दुनिया की परम पदवी पर सुशोभित है… आज उसके फ्यूनरल में था.

ताकत के जलवों से चकाचौंध लोग बहुत कुछ नहीं देख पा रहे थे. उन्होंने घर की छत के नीचे की हलचल और लोलुपता को नहीं देखा. वे नहीं देख पाये कि शहर के महा-महिम खुली शव-गाडी को गली में ले जाने से पहले किस तरह के मोल-तोल कर रहे थे. किसी ने मोकेण्डो की तपती गलियों में शव गाड़ी पर गिद्धों की उड़ती परछाई को नहीं देखा. कोई यह नहीं देख पा रहा था कि आने वाले बड़े-बड़े लोग कैसे गलियों में रोग फ़ैलाने वाला कचरा छोड़ गए थे. किसी का ध्यान भतीजों, भगवत -संतानों, नौकरों, बडम्मा के आश्रितों पर नहीं गया कि कैसे अंतिम संस्कार के बाद घर के दरवाज़े, फट्टों की कीलें उखाड़ दी गईं और नींव का बंटवारा हो गया.

और जो सबने देखा- महसूस किया वह था – अंत्येष्टि का शोरगुल जिसमें राहत भरी साँसें नुमायां थीं. चौदह दिन की दुआओं, जोशीले भाषणों के बाद उन्हें चैन मिला था. उन्हें उस दिन तसल्ली मिली जिस दिन सीसे की नींव पर टिकी कब्र का मुंह बंद कर दिया गया.

और वहां खड़े लोगों में से कुछ ही इस बात को ठीक से जान रहे थे कि वे नए युग को जन्मते देख रहे हैं.

अब सबसे बड़े पुजारी की आत्मा और देह स्वर्ग की तरफ ऊपर उठ रहे थे, ज़मीन पर उसकी मुहिम पूरी हुई.

अब गणतंत्र का राष्ट्रपति आराम से बैठकर शासन कर सकता था. अपने फैसले खुद कर सकता था.

अब रानियां खुद अपनी मर्ज़ी से शादियां कर सकती थीं. बहुत से बच्चे पैदा कर सकती थीं.

अब प्रजा बेख़ौफ़ कहीं भी अपने तम्बू गाड़ सकती थी. उनके पास अपार ज़मीन थी. क्योंकि उन्हें कुचलने वाली बडम्मा अब सीसे की कब्र में दफ़न थी.

अब एक ही चीज़ छूट गई थी कि कोई वहां आये. अपना स्टूल वहां डाले और चौखट से टिककर बड़ी मामा की कहानी अपनी संततियों को सुनाये.

कि दुनिया के तमाम लामज़हब लोग इस कहानी को जान लें.

कि जान लें, ‘आने वाला कल बुधवार है.’

कि जान लें ज़मीन से कचरा बुहारने वाला कोई आएगा और अंत्येष्टि के बाद यहाँ कचरा न होगा. कचरा न होगा.

_________________________________
समाप्त

 

 

अपर्णा मनोज
कवि, कथाकार आलोचक, अनुवादक
aparnashrey@gmail.com

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Tags: मार्खेज़
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Comments 1

  1. Balkirti says:
    4 years ago

    अपर्णा आपका अनुवाद एक्सीलेंट आपने हर छोटी से छोटी अंतर ध्वनि को पकड़ा है

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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