‘उसे कुछ नहीं चाहिए था’’ सुदीप्ति |
गगन गिल का काव्य-संसार जीवन के स्वप्न और उसके यथार्थ के बीच मौजूद व्यक्ति की समूची उपस्थिति का निर्वचन है. इस संसार में उनकी स्वयं की उपस्थिति ऐसी सघन है कि पाठक उसमें प्रवेश से पहले उनके एकान्त में ख़लल डालने, उस गम्भीर एकान्त को तोड़ने के संकोच से भरा होता है. लेकिन एक बार जब वह अपने को उनकी गहन भावाभिव्यक्ति के हाथों में सौंप देता है तो फिर वह काव्य-संसार उसका भी उतना ही अपना हो जाता है.
मूर्त उदाहरण से कहना हो तो गगन गिल की कविता में प्रविष्ट होना ऐसा है मानो किसी अपरिचित और सम्मानित के घर में आप उससे बिना पूछे चले जाएँ और वह अचानक सहजता से आपके सामने आ जाएँ. और, सामने आकर कवि की उपस्थिति क्या करती है? कभी तो वह चुपके से एक उचटती दृष्टि आप पर डाल चली जाती है, कभी आपको अपने-जैसा पा अँकवारी में भींच लेती है और कभी हाथ थाम कोई अछूता कोना दिखाने लगती है. आप उसे देख ठगे-से रहते हैं- निस्तब्ध! मानो वह आपके भीतर का कोई दर्पण हो. उसके सामने आपको अपना दुःख दिखाने में संकोच नहीं, पर वहाँ तक जहाँ तक उसका अपना एकान्त भंग हो जाने का भय नहीं. उसने जितनी इजाज़त दी है आप उतना ही ले सकते हैं.
यही चीज़ गगन गिल को अलग बनाती है. भंगुर नहीं पर हाथ बढ़ाकर छूने से परे. यह मात्र कवि-व्यक्तित्व की बात नहीं कविताओं की भी उतनी ही है. आत्मस्थ. अपने में डूबी हुईं. साथ ही पाठक को भी डुबा लेने वाली. याद कीजिए या फिर कल्पना ही कीजिए कि चैत की एक ऊँघती-उचटती ढलती दुपहर में आप अपने गाँव के बगीचे में किसी पुराने गहरे तालाब के किनारे बैठे हों. वातावरण की नीरवता से उस तालाब का पानी इतना निथरा हुआ होता है कि उसमें नीम की पत्तियाँ तक अपनी सभी बारीकियों के साथ साफ़-साफ़ झाँकती दिखाई पड़ती हैं. उस स्थिर पानी में आसमान का रंग नीचे की पीली मिट्टी के रंग में घुलकर एक सम्मोहन पैदा करता है. आप उसके जादुई मोह में पड़े उस झिलमिल को देखते हुए किनारे बैठे भी डूब ही जाते हैं. आपका एक मन कहता है उस सुन्दरता में उतर पड़ने का, दूसरा कहता है उसे निहारना ही ज़्यादा बेहतर! कवि ने अपने डूबने को कई कविताओं में निर्द्वंद्व भाव से स्वीकारा है:
“वह बिना किसी पूर्व-योजना के आ निकलता है तुम्हारे घर की तरफ़, और जानना चाहता है, तुम उसके साथ डूबने चल रहे हो या नहीं. प्रेम तुम्हें भली-भाँति मरने की पूरी मोहलत देता है.”
यह डूबना हर ओर है, चाहे प्रेम में हो, जीवन में, चाहे शोक में-
“तू मेरे भीतर है
शोक की जगह पर”,
“शोक मत कर
पिता ने कहा
अब शोक ही तेरा पिता है.”
यहाँ करुणा है पर उससे अधिक उसमें गहरे पैठ जाना है. निशब्द! मौन! शब्द की आन्तरिक गति और उदास संगीत के साथ. यह उदास करने वाला नहीं जकड़ लेने वाला है. आकर्षक! निरभ्र! Lou Andreas-Salome ने कहीं लिखा है,
“यदि तुम्हारे पास देने के लिए आनन्द नहीं है तो तुम मुझे अपनी वेदना दे दो.”
कोई वेदना दे तो दे पर लेने की पात्रता क्या आपके पास है? गगन जी की कविताओं में गहरी वेदना है. उसे लेने की पात्रता किनमें है? क्योंकि यह वेदना अलग है. यह जीवन के गहरे राग से उत्पन्न हुई है, आनन्द की शून्यता के कारण नहीं उसकी पूर्णता के बाद की उदासी से उपजी है. इसीलिए यह वेदना है- थिर. प्रशांत. निर्मल. मुझे उनकी काव्य-यात्रा का सत्त्व इसी वेदना और इससे उत्पन्न करुणा में सबका सिमट जाना लगता है. पिता, माँ, बच्ची, जिसकी आकांक्षा तक न पनपने दी गई वह पुत्र और प्रिय- सभी मूर्त आत्मीय सम्बन्धों में छूट जाने का बोध और जीवन-पथ जिसमें-
“धार की तरह है यह अनुपस्थिति
अदीख व छाया-रहित
जिस पर वह चलती है.”
इस अनुपस्थिति के बोध में संन्यस्त भाव नहीं है. गहरे राग के साथ उस वेदना से मुक्ति की आकांक्षा है. वहीं मिलते हैं फिर अँधेरे में बुद्ध:
“घूम रहे हैं कुछ बुद्ध
उद्विग्न इस पृथ्वी पर.”
इस घूमने और ढूँढ़ने के क्रम में फिर कवि को शिकायत नहीं-
“मैं क्यों कहूँगी तुम से
अब और नहीं
सहा जाता मेरे ईश्वर”
रामविलास शर्मा ने निराला के सन्दर्भ में जो बात कही उससे जोड़कर देखें तो, अगर शिकायत नहीं होती तो फिर ज़िक्र ही क्यों करना था? शिकायत नहीं भी हो तब भी कुछ तो है. और उसका होना कविता के भीतर का स्पंदन है. उसका नहीं होना फिर सिर्फ़ दर्शन का होना होता. गगन गिल तो उस दर्शन को भी पुकार के रास्ते खोलती हैं-
“आप खोलते हैं अपने लंगर
और कोई नहीं रोकता
आपकी राह
कोई नहीं पुकारता
किनारे से
कोई यह तक नहीं देखता
कि आप उठ गए हैं
सभा से.”
देह के सादापन और आत्मा के भीतर बसे शोक से लंगर खोलने तक की यह आकांक्षा-भरी यात्रा, अपनी वेदना कवि आपको सौंपती हैं, लेकिन सवाल वही है कि कविता की दुनिया के नागरिक की मनुष्य होने की पात्रता क्या है? क्या यह कि “किसी दूसरे का प्रेम भूल से कुछ देर के लिए हमारे जीवन में आ जाता है” उसे हम सँभाल सकते हैं या नहीं!
गगन गिल की अधिकांश कविताएँ गहरे भावों की हैं मगर शब्दों के साथ उनका रिश्ता भावात्मक से ज़्यादा बौद्धिक है. हर एक कविता में शब्द एकदम कसे हुए. सुगठित. विलंबित काव्य भाषा है- आन्तरिक लय से भरी सहज गद्य की भाषा, जिसमें किसी एक शब्द को भी अतिरिक्त रूप से रहने की इजाज़त नहीं, कोई पंक्ति भी अनावश्यक नहीं.
हम कई बार मान बैठते हैं कि कविता तो भावों की अभिव्यक्ति है वह जैसी लिख गई, लिख गई. और तो और, कई लोग तो यह शेखी भी बघारते हैं कि वह अपनी कविता पर दुबारा काम नहीं करते, संपादन तो दूर उस पर ठीक से नज़र भी नहीं डालते लेकिन गगन गिल की कविताएँ ऐसी नहीं हैं. वे बतौर कला/क्राफ़्ट कविता की परिपूर्णता का बेहतरीन उदाहरण हैं. उनकी कविताओं की बनावट, कसाव और कवि का संयम इस बात को ज़ाहिर करते हैं कि उन पर एक तीक्ष्ण बौद्धिक संयम से काम किया गया है.
ऐतिहासिक क्रम से उनकी रचनाशीलता से गुज़रने का एक लाभ यह होता है कि बतौर कवि उनका एक स्पष्ट विकास-क्रम भी दिखता है. ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ की ‘लड़की’ अपनी आकांक्षाओं, वेदना, विषाद, राग-विराग, मोह-विमोह और बुद्धत्व के जीवन-पथ पर चलते-चलते ‘मैं जब तक बाहर आई’ की पूर्ण स्त्री बन जाती है. यह नदी का सागर में मिलना नहीं नदी का स्वयं सागर बन जाना है. गगन गिल अपनी दृष्टि को स्त्रीवादी नहीं मानती हैं. और जैसा कि वे अपने वक्तव्यों में कहती हैं-
‘मैंने स्त्रियों को विशेष ध्यान में रखकर या स्वयं की स्त्री को ध्यान में रखकर कविताएँ नहीं लिखीं.’
लेकिन स्त्रीवादी या स्त्री के नज़रिये से नहीं देखने के आग्रह के बाद भी कविताएँ मुखरता से घोषित करती हैं कि उन्हें एक सचेतन स्त्री ने लिखा है. उस स्त्री की छाप से अछूती नहीं रह सकती हैं कविताएँ. स्त्री की आवाज़ कैसे नहीं होंगी फिर ये कविताएँ?
पहले संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ के तीन उपखंडों ‘लड़की बैठी है हँसी के बारूद पर’, ‘दोस्त : पाँच कविताएँ’, ‘देह की मुँडेर पर’ में कहने वाली और जिसके विषय में कहा जा रहा है वह एक लड़की है- सदेह. सप्राण. साबुत. साकार. यह लड़की ‘अ-स्त्री’ नहीं है. यह एक आवेगपूर्ण स्त्री है. लड़की होने के अल्हड़पन से भरी; स्त्री होने के हर सुख-दुख से परिपूर्ण; जीवन की आकांक्षी लड़की. इन उपखंडों की सारी कविताएँ उस लड़की के होने-भर को बताती-जताती हैं, जो
“प्रेम तो नहीं है यह लड़की
देखती हो हर किसी को
एक ही निगाह से
आँखों में आँखें डाल”;
जिसकी
“एक इच्छा चूड़ियों में चलती है”
और वह इच्छा भी कैसी कि
“पहले वह टूटें उसके बिस्तर पर
फिर टूटें उसकी चौखट पर”
आप हैरान हो जाएंगे कि अमूमन औरतें चूड़ियों और आलते के साथ श्मशान जाने की मन्नतें माँगती हैं और यह लड़की जानती है-
“औरत जो विधवा
है नहीं लेकिन
हो जाएगी जो”
इस पंक्ति को पढ़ते-पढ़ते आप उस शोकमयी लड़की के भीतर झाँक पाते हैं और मानो कुएँ की एक मुँडेर है उसका मन. देर तक आप उसके सम्मोहन में उसमें झाँकते रहते हैं. विस्मित!
“लेकिन लड़की तो लड़की है
उसमें वही आदिम भोलापन
पागलपन, मरनपन भरा है
जिसकी सज़ा
किसी आनेवाले कल
वह उस आदमी को देगी
जब तोड़ेगी अपनी चूड़ियाँ”
यह लड़की कितनी अलग है पहले आ चुकी लड़कियों से. आदिम! सच्ची! अनढकी! इस लड़की में मुझे सबसे प्यारी बात यह लगती है कि इसके दोस्त बहुत हैं या कहूँ कि जो इसके दोस्त हैं वह सच्चे दोस्त हैं.
दो
गगन गिल ने दोस्तों पर या दोस्ती के भाव पर जितनी कविताएँ लिखी हैं अमूमन स्त्री कौन कहे पुरुष कवियों के यहाँ भी वह नहीं मिलता है. प्रेम से इतर दोस्ती, प्रेमी से इतर दोस्त. ज़्यादातर स्त्रियों का जीवन ऐसी दोस्ती से कम ही समृद्ध हो पाता है इसलिए उनके अनुभव संसार में जेंडर न्यूट्रल दोस्ती कम दिखती है. अगर अनुभव-संसार में हो तब भी लोग रचना-संसार में उसको डालने में संकोच करते हैं या फिर अक्षम होते हैं. लेकिन गगन जी ने कई कविताओं में दोस्ती के मूल भाव को बख़ूबी पकड़ा है. हालाँकि उन्होंने सच ही लिखा है-
“दोस्त जब पूछेगा लड़की
कोई ख़ाली कोना है भी तुम्हारे पास
मुझे देने के लिए,
क्या जवाब दोगी?”
प्रेम में सब कुछ दे देने वाली लड़की के पास दोस्त को देने के लिए अलग से क्या बचता है? प्रेम तो नहीं है यह लेकिन प्रेम से इतर, प्रेम से परे जो कुछ है…ऐसे ही लड़की एक बार ‘दोस्त के इन्तज़ार में भूलकर अब तक की मनौतियाँ’ मनाती है
“कि दोस्त न आए
कुछ हो जाए
और दोस्त न आए
कि जितनी भी बची है स्मृति उसके सुख की
बच जाए,
कि उससे दूर जाकर वह कहीं भी छिप जाए”
दोस्ती की सुखद स्मृतियाँ बची रह जाएँ. इतना कोमल भाव. इतना अछूता. फिर एक जो ख़ालीपन है दोस्तविहीन शहर और शामों का-
“शहर में उसके
दोस्त नहीं,
उनके न होने का दुख बसता है”…
“लेकिन कोई दोस्त होता जो उसके शहर
तो कोई दिन भला
मुश्किल क्यों होता?”
इन कविताओं को पढ़कर यह हसरत जगती है कि किसी भी लड़की के पास ऐसे दोस्त होने चाहिए जिनसे-
“किसी-किसी शाम खुलते
सुख-दुख के रहस्य की बात”
की जा सके. गगन गिल स्वयं ‘अँधेरे में बुद्ध’ संग्रह में सिमोन वेल को उद्धृत करते हुए लिखती हैं-
“कभी स्वयं को दोस्ती का स्वप्न देखने की इजाज़त मत देना. दोस्ती एक चमत्कार है…”
लेकिन इस चमत्कार की उपस्थिति उनकी कविता में ख़ूब है. मृत्यु और प्रियजनों की अनुपस्थिति, उस अनुपस्थिति से उपजा अकेलापन, अकेलेपन के विषादजन्य अवसाद को हावी न होने देने के लिए लौकिकता से परे एक संधान- इसकी यात्रा कविता करती है. मृत्यु की उपस्थिति या बोध गगन गिल की किसी एक कविता में या मात्र किसी एक संग्रह की कुछ कविताओं में नहीं बल्कि आरम्भिक संग्रह से लेकर हालिया संग्रह तक बार-बार है. पहले संग्रह की पहली कविता है- ‘लड़की अभी उदास नहीं है’ उसमें लिखती हैं-
“सिर्फ़ वह अनजान है सपने की गुड़-गुड़ से
उस मृत्यु से भी बेख़बर
जो इसके बाद पाँव पसारेगी”
वहीं से मृत्यु की गंध शुरू हो जाती है. दादी, जो बेटे के मातम में है; दादी को देखती लड़की जो पूछती है- “दादी जब मर जाएगी कहाँ जाएगी?” लेकिन इसके बावजूद ‘अँधेरे में बुद्ध’ का आन्तरिक स्वर मृत्यु है. ‘कुछ इस तरह मृत्यु’, ‘कंजिका : कुछ विलाप’, ‘छाया बहनें’—यह सभी उपखंड अपनी उपस्थिति में सघन मृत्युबोध लेकर आते हैं. हालाँकि तब भी मैं कहूँगी, मृत्यु-बोध कविता को शोकगीत नहीं बनाता है. उनके यहाँ वह जीवन की यात्रा में शामिल निस्सरता, निर्मोह का बोध है.
उनकी एक गद्य कविता है ‘नि:संतान’. उसकी आख़िरी पंक्तियाँ हैं-
“बहुत दिन हुए ईश्वर ने चुरा लिए थे उनके बच्चे. अब वे सिर्फ़ उन्हें ढूँढ़ती फिर सकती हैं.”
ऐसी दारुण कोमल कविता और उन औरतों के मन का सटीक चित्रण जिनके बच्चे या तो कम उम्र में नहीं रहे या गर्भ में ही नष्ट हो गए-मुझे नहीं लगता मैंने कहीं और पढ़ा है. ‘ईश्वर ने चुरा लिए’- आह! कैसा आक्षेप! कैसी विडम्बना! ऐसी अपार वेदना. मृत्यु का एक ऐसा रूप जहाँ करुणा भी अवसादग्रस्त हो जाए. संतान की मृत्यु का दंश झेलती माँ को ढाढ़स बँधाते वे कहती हैं-
“वे सब वसु थे, माँ
मरने आए थे
तुम्हारी गोद में
मुक्ति पाने
जल्द-से-जल्द”
एक तरफ़ ऐसी आत्मिक निजी अभिव्यक्ति और वहीं एक ऐसा दौर है-
“एक के बाद एक
चौबीस लोग
खड़े होते हैं एक क़तार में
एक के बाद एक
चौबीस लोग
गिरते हैं उस क़तार में.”
मृत्यु की कविता वहाँ प्रतिरोध की आवाज़ बन उठती है जब वे ‘पंजाब की एक बस में’ ‘कहाँ लगी थी गोली?’ की बात कहती हैं. कवि अगर कोमल का सर्जक है तो अपने समय और समाज से विलग तो नहीं. दहशतगर्दी के दौर और सत्ता से दी जा रही यंत्रणा दोनों पर उसकी पैनी नज़र होती है. गगन गिल की विशिष्टता इसी में है कि आत्मस्थ कविताओं में भी समाज की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ अपनी मुखरता में उपस्थित हैं. जब कभी आप मान लेते हैं कि गगन गिल संन्यस्त भाव से, निरपेक्ष होकर जीवन को देख रही हैं और वे प्रार्थना के दर्शन में डूब गई हैं तभी एक ठोस राजनीतिक और सामाजिक कविता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं.
तीन
गगन गिल के यहाँ बुद्ध की केन्द्रीय उपस्थिति है. पर यह जो अँधेरे में टटोलते हुए बुद्ध मिले वह हैं क्या आख़िर? उनके यहाँ वह उसी अर्थ में नहीं जिस अर्थ में हम जानते हैं. संसार को पा लेने की अपनी चाहनाओं और सांसारिकता से परे अमरत्व की आकांक्षाओं को कहीं विसर्जित किए मन की एक छवि है इस बुद्ध में. जगत में होते हुए जगत से ऊपर कुछ. ऐसा नहीं कि संसार का महत्व गगन गिल कम करके आँकती हैं-
“तुम नहीं होगे
तो हम नहीं होंगे
हम नहीं होंगे
तो दुनिया नहीं होगी
दुनिया नहीं होगी
तो भिक्षु छोड़ेंगे क्या?”
यह दुनिया ऐसी है जिसमें
“बुद्ध भी थक गए हैं
बुद्ध होते-होते”
लेकिन कुछ दुख हैं जिन्हें पीछे छोड़ देने की आकांक्षा में होना है भिक्षु होना. इस बुद्ध के लिए भी कवि के प्रश्न बीच-बीच में अकुलाकर उमड़ पड़ते हैं-
“दिव्य यदि
वह है तो
मैला हो
सकता है क्या
छूने
भर से?”
इसे पढ़ते हुए अचानक कपिलवस्तु के खँडहर की याद आ जाती है- “स्त्री के वक्ष पर रखा तुम्हारा हाथ, ठिठक गया था जो उस दिन, वह अब भी यहाँ है. ठहरा था एक ईश्वर जो उस रात- तुम्हारी स्त्रियों के मुख पर, तुम्हारी अ-पुरुष हुई देह में अचानक- वह अब भी यहाँ है.”
इस अ-पुरुष और अ-स्त्री की बात उनकी कई कविताओं में है. मसलन जब वे लिखती हैं-
“दिन के दुख अलग थे
रात के अलग
दिन में उन्हें
छिपाना पड़ता था
रात में उनसे छिपना”
तो यह सिर्फ़ स्त्रियों के और उसमें भी स्त्रियों की देह के दुख नहीं हैं. यहाँ रात भी वही रात नहीं है जो दिन और रात के सन्दर्भ में है. एक दुख जो हम बाँट सकते हैं और एक दुख जो हमें सबसे छुपाकर अपने सीने पर रखना पड़ता है वह-
“दुख जो सोचते थे
दिन में
वे रात में नहीं
जो रात को रुलाते
वह दिन में नहीं.”
वह दुख स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करता है. “धीरे-धीरे दृश्य से ओझल होता आदमी” भी सिर्फ़ आदमी या कोई औरत नहीं है, वह आज का मनुष्य है. देह से ऊपर होकर संवेदना का यह धरातल गगन गिल के यहाँ सहज उपलब्ध है.
उन्होंने व्यक्तियों पर भी बहुत सारी कविताएँ लिखी हैं. कुछ लोग जो नज़दीकी पारिवारिक दायरे से आते हैं, जैसे पिता, माँ, दादी. फिर आसपास के लोग भी, जैसे-एक अनजान पड़ोसन, जिसने अचानक एक दोपहर आत्महत्या कर ली थी. साथ ही वे लोग जो एक बौद्धिक दायरे से जुड़े हुए थे. दूर देशों के मित्र, भाव और अनुभव जगत को विस्तृत करने वाले अन्य सर्जक- इनके लिए भी उन्होंने ख़ूब लिखा. एनरिके, झांग यीगाँग, लक्ष्मण गायकवाड़, आर्लीन, तेज़ी और फ़्रीडा काहलों के लिए लिखी उनकी कविताएँ ख़ास उल्लेखनीय हैं.
गगन गिल के दो संग्रहों- ‘अँधेरे में बुद्ध’ और ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ में कई गद्य कविताएँ हैं. ऐसा गद्य जो अपने मूल स्वभाव में कविता की तरलता, प्रवाह और आकांक्षा लिये हुए है. आज के समय में जब हम मुक्तछंद और छंदमुक्त कविताएँ ही लिखते-पढ़ते हैं, उसमें गद्य कविता को अलग से रेखांकित करने की क्या बात हुई? अपने मूल स्वभाव में अन्य कविताएँ भी गद्यात्मक ही हैं तो एक अलग श्रेणी गद्य-कविता की क्यों भला? इसका ठीक-ठीक जवाब तो गगन गिल ही दे सकती हैं लेकिन मुझे लगता है वे कविताएँ अपने स्वरूप में ज़रा अधिक ठोस और विचारपूर्ण हैं. उनके पूर्ण वाक्य काव्यात्मक हैं पर ठोस गद्य हैं. जैसे, ‘श्राद्ध के दिनों में’ शीर्षक कविता में वे लिखती हैं—
“शान्ति के लिए हम भटकते थे, हमारी माँएँ भटकती थीं, लेकिन तर्पण हम पिताओं का ही करते थे.”
‘कव्वे’ शीर्षक में लिखा है-
“कोई नहीं रुकेगा. जितनों को उड़ाओगे, सब चले जाएंगे. बैठ जाएंगे जाकर किसी दूसरे जन्म की शिला पर. फिर से करने लगेंगे तुम्हारी प्रतीक्षा….नहीं, यह स्मृति-पर्वत नहीं हैं. जो माँगते हैं उत्तर, वह दीखते नहीं हैं.”
लड़की, दोस्त, प्रेम, इच्छा, मृत्यु, निर्वाण- इन सबके बाद एक बड़ी श्रेणी इत्यादि की भी है. प्रकृति की चेतना और चिन्ता उनके यहाँ मिलती है. शिकार हो जाने वाले पेड़ की भी, मछली की भी. “जंगल अगवानी के लिए प्रस्तुत है” लेकिन तुम? बुद्ध या बुद्धत्व के बोध में एक चिन्ता-
“थक गई है अग्नि
थक गया है बोध
थक गया है बैल भी
पृथ्वी के नीचे.”
ऐसी ही एक और कोमल पंक्ति है-
“उसने सोचा
आज पेड़ आकाश के गले लग कर रोए हैं
अच्छा हुआ
गुबार निकल गया
अब सहज प्रसन्न होंगे.”
इस इत्यादि को देख उनके विस्तृत फलक पर सन्तोष होता है. यह कविताएँ आपसे कुछ और नहीं माँगती हैं मन के सिवा, कवि के ही शब्दों में कहूँ तो-
“उसने उससे कहा
आत्मा नहीं
मुझे तुम्हारा मन चाहिए”
दीजिए, फिर…
सुदीप्ति sudiptispv@gmail.com |
Gagan ke kavita sansar mein sahaj path pradarshan.
गगन गिल जी की किताबें देख कर बरबस मंजीत बावा की याद आ गई ।
Bhaut aham kam he yehGagan
Ji hamare samey ke bhaut badi shayara hain
Sudipti ने बहुत सुन्दर, रम कर लिखा है। गगनजी के काव्य में शोक की, जीवन और जगत से उनकी प्रशान्त दिखने वाली किन्तु उद्वेगपूर्ण अन्तर्क्रियाओं की, एक आध्यात्मिक खोज की जो अनुगूंजें मिलती हैं वे एक ऐसे पाठक की मांग करती हैं जिसमें उनके लिए पर्याप्त सजल ग्रहणशीलता हो।
बारीकियां बहुत ही सुन्दर और मुलायम तरीके से पेश किया गया और पढ़ते हुए हम डूबने लगे।
विशिष्ट 👍
The few representative extracts that Sudipti has brought forth from among various poems of Gagan Gill through different stages of her literary life are well selected.
Gagan’s ethereal world and the metaphysical that enters in her poems distinguishes her from the rest of our poets of today.
Congratulations n thanks to both Gagan Gill n Sudipti.
Warm regards,Arun Deb ji,and thanks for presenting this piece.
Deepak Sharma
सुदीप्ति आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपके लाइव सुनकर जो आनंद आता था, आज आपके लिखे को पढ़कर भी उतना ही अच्छा लगा। गगन गिल के संसार का जो अपना habitat है , आपने लगभग उस संसार में कुछ पल रहने का सुकूँ दिया ।
गगन गिल की कविताओं की बात होगी तो आपके इस लेख की भी बात होगी , उन्हें ऑनलाइन ही पढ़ा है अब संजोने का मन हो रहा ।
सुदीप्ति ने बडे मनोयोग से लिखा है। उनकी कविताओं से संवाद के लिए मन और योग असल में पूर्व- शर्त जैसी हैं। सुदीप्ति एकदम सही कहती हैं कि इन कविताओं में स्त्रीपक्ष गहरे विन्यस्त है। उनकी कविताएँ एक सांस्कृतिक परिवेश भी रचती हैं, जो नितांत भारतीय है। वहाँ दर्शन और अध्यात्म जीवन के साथ स्पंदित हैं। … सुदीप्ति उन्हें बेहतर जानती होंगी।
बहुत धीमे पग, सुदीप्ति पहुंच ही गई है गगन जी के काव्य संसार में। खूब भालो!
कितना सुन्दर आलेख लगा था कि इसे तुरंत फुरंत पढ़ कर प्रतिक्रिया देने का मन नहीं किया। सोचा इसे ठहर ठहर कर अनुभूति के साथ पढूंगी । इतनी सूक्ष्मता से आपने गगन जी की कविताओं की तहें खोली हैं मन आनंदित हो उठा। सहेजने योग्य लिखा है। क्या कहूं बस खूब लिखें यूं ही। बहुत शुभकामनाएं