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समालोचन

Home » प्रेमकुमार मणि से मनोज मोहन की बातचीत

प्रेमकुमार मणि से मनोज मोहन की बातचीत

गांधी की आलोचना की जा सकती है, लेकिन उनसे प्यार करना नहीं छोड़ा जा सकता. ऐसा व्यक्ति सभ्यता का अर्जित सार होता है. उनसे प्यार करने का तरीका ही यही है कि उनके विचारों का आलोचनात्मक विकास हो. उनसे नफ़रत आपको हत्यारा बना सकती है. गांधी जयंती के इस कड़ी में लेखक-राजनीतिज्ञ प्रेमकुमार मणि की यह ख़ास संवाद प्रस्तुत है. गांधी-नेहरू द्वैत के बीच अनेक प्रासंगिक प्रश्न यहाँ लेखक मनोज मोहन ने उठाये हैं.

by arun dev
October 4, 2025
in बातचीत
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प्रेमकुमार मणि से मनोज मोहन की बातचीत
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प्रेमकुमार मणि से मनोज मोहन की बातचीत

१.

आज नेहरू पर हमले तेज हुए हैं. अप्रत्यक्ष तौर पर गांधीजी की भी आलोचना होती है कि 1946 में अनेक सक्षम नेताओं के होते हुए गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री के लिए क्यों चुना? यहाँ तक कि उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया. इस विषय पर आप क्या सोचते हैं?

यह एक पहेली की तरह लगने वाली बात तो है. 1946 में जब जवाहरलाल जी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, क्योंकि कांग्रेस को ही अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमन्त्रित किया जाता, तब की स्थितियाँ क्या थीं, इस पर हमें गौर करना चाहिए.

दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था. ब्रिटेन में लेबर पार्टी को जीत हुई थी और प्रधानमंत्री क्लीमेंट रिचर्ड एटली बने थे. विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की जीत हुई थी इसलिए भारत को फिलहाल आज़ादी नहीं भी दी जाती तो चल सकता था. चर्चिल प्रधानमंत्री होते तब शायद नहीं ही देते. लेकिन अनेक ऐसी स्थितियाँ थीं जिनसे ब्रिटेन पर दबाव था. अमेरिका और रूस भी इस पक्ष में थे कि भारत में ब्रिटिश राज ख़त्म हो. यह एक दबाव ही था. एटली तो चुनाव में ही कह चुके थे कि हम भारत को स्वशासन देंगे. सोवियत रूस और अमेरिका का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रुतबा विश्वयुद्ध के बाद काफी बढ़ा था. ब्रिटेन का गौण हुआ था. इन तमाम परिस्थितियों में भारत को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत थी जो विश्व राजनीति के पेच-ओ-ख़म समझता हो.

कांग्रेस वर्किंग कमिटी और प्रांतीय कांग्रेस कमिटियों का बहुमत निश्चित ही जवाहरलाल जी के पक्ष में नहीं था. इस पर अनेक तरह की बातें कही जाती रही हैं. जैसे किस ने किस से क्या कहा और कौन किस तरह और क्यों चुप लगा गए. लेकिन मानी हुई बात है कि कांग्रेस संगठन में सरदार पटेल की स्थिति कहीं अधिक मजबूत थी. कई कारण थे. पटेल राजनीति के होलटाइमर थे. उन्हें डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया नहीं लिखनी थी. वह अपनी तरह के इंसान थे. दिन रात कांग्रेस के काम में लगे रहते थे. उनका समाजवाद वगैरह से कोई लगाव नहीं था. लेकिन देश से था. उनकी अपनी सोच थी. गांधी पर उनकी निष्ठा थी. दोनों ने गुजरात में और फिर पूरे देश में साथ-साथ काम किया था.

पटेल किसान परिवार से थे. नेहरू वकील परिवार से. लेकिन दोनों ने गांधी के साथ काम किया था. दोनों अपनी-अपनी तरह से गांधी को समझते थे और देश को भी. दरअसल समस्या गांधी में थी. लोग समझते हैं कि गांधी नेहरू से अलग तरह से सोचते थे. गांधी ने हिन्द-स्वराज में एक प्रश्न का जवाब देते हुए इटली के मैजिनी और गैरीबाल्डी के राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का अंतर स्पष्ट किया है. बताया है गैरीबाल्डी के लिए इटली का अर्थ है वहाँ का राजा और उसके दरबारी, लेकिन मेजिनी के लिए इटली का अर्थ है वहाँ के किसान. वहाँ के मेहनतकश लोग.

यह गांधी का भी दृष्टिकोण था. वह किसान नजरिये से भारत को देखते थे. यह अनायास नहीं था. वह एक विचार परंपरा से जुड़े थे. वह देख रहे थे भारत में जो राजनीतिक सक्रियता है वह किसानों की  है. मुगलिया ज़माने से ही किसान अपनी मुक्ति अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे थे. इतिहासकारों ने इसे ठीक से रखने की कोशिश नहीं की. सिक्ख किसानों का विद्रोह, जाट विद्रोह, सतनामी विद्रोह और डेक्कन का मराठा विद्रोह जो शिवाजी के नेतृत्व में लड़ा गया सब के सब किसानों के विद्रोह थे. इसी कड़ी में 1857 का विद्रोह भी था. तात्या, लक्ष्मी बाई, कुंअर सिंह, बहादुर शाह जफर आदि उस विद्रोह के नेता नहीं थे. उनके वास्तविक नेता किसान थे. ये राजे रजवाड़े उनके अधिक से अधिक झंडे थे. किसानों से ग़लती हुई कि उनका अपना नेता कोई नहीं था. उधार के नेताओं के कारण अनेक गड़बड़ियाँ हुईं. गांधी ने इन चीजों पर लिखा भले ही बहुत नहीं हो, लेकिन समझ सब रहे थे.

कांग्रेस संगठन को उन्होंने किसानोन्मुख किया. चम्पारण और खेड़ा के किसान आंदोलनों को पकड़ कर उन्होंने देश की नब्ज़ टटोली. कांग्रेस को अपने काबू में लेते ही उसे वकीलों की जगह किसानों का संगठन बनाने पर जोर दिया. वह फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे थे. 1930 के पूर्व के गांधी कुछ हैं, उसके बाद के कुछ और. 1940 के बाद के गांधी कुछ और होते हैं. गांधी के इस विकासक्रम को, मेटामॉर्फोसिस को जो नहीं समझते वे राष्ट्रीय आंदोलन को भी नहीं समझ पाते. गांधी की निर्मिति अनेक विचारों से होती है. उन पर वैष्णवता का भी प्रभाव है और ईसाइयत का भी.

वह टॉलस्टॉय से भी प्रभावित होते हैं और रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी. 1932 में जब उनकी वैचारिक टक्कर आंबेडकर से होती है तब वह एक बार फिर बदलते हैं. जिस वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा के 1930 के पूर्व वह प्रशंसक थे, अब शंकित हो जाते हैं. 1940 के बाद वह अधिक स्पष्ट हो जाते हैं. 1940 के बाद के गांधी समाजवादियों की संगत में अधिक होते हैं. यहाँ तक कि सुभाष बोस से प्रभावित होते हैं. इस प्रभाव को समझना चाहिए .

प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ गांधी ने इस नैतिकता के आधार पर किया था कि शत्रु भी जब मुश्किल में हो तो उसकी मदद करनी चाहिए. दूसरे विश्वयुद्ध के समय सुभाष बोस रणनीति के तहत मुश्किल में पड़े अंग्रेजों पर हमला करने के पक्ष में थे. बिना कुछ कहे 1942 में गांधी ने भी यही किया. अन्यथा अंग्रेज द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रथम विश्वयुद्ध की अपेक्षा अधिक मुश्किल में थे. गांधी ने अपने ही नैतिक मानदंड की ऐसी-तैसी करके भारत छोड़ो आंदोलन शुरू कर दिया. अंग्रेजों को मुश्किल में ला दिया. भारत छोड़ो आंदोलन पर सुभाष का प्रभाव परिलक्षित है. तो इस तरह गांधी की निर्मिति होती है. वह राष्ट्र नायक और अंततः राष्ट्रपिता यूँ ही नहीं बन जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया को समझना होगा. जो इसे समझेगा वही यह समझ पायेगा कि उन्होंने जवाहरलाल जी को अपना उत्तराधिकारी क्यों घोषित किया. जवाहरलाल जी गांधीवाद के आलोचक है, लेकिन गांधीवाद का वास्तविक विकास वही हैं.

उपनिषदों के दर्शन को वेदांत कहा गया है. वेदों का अंत. लेकिन वैदिक ज्ञान का विकास भी उपनिषद में ही होता है. नेहरू के विचार गांधी के विचारों का अंत भी है और उसका विकास भी.

नेहरू को प्रधानमन्त्री चुने जाने का जहाँ तक प्रश्न है, जो लोग पूरी सच्चाई को नहीं जानना चाहते वही, गांधी के हस्तक्षेप की बात करते हैं कि उन्होंने नेहरू को पिछले दरवाज़े से प्रधान बना दिया. कांग्रेस में नेहरू तो क्या स्वयं गांधी वोट के मामले में सुभाष बोस से 1939 में पिट गए थे, तब गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या अध्यक्ष का चुनाव हार गए थे. लेकिन जीत जाने के बाद भी सुभाष कांग्रेस पर कब्ज़ा क्यों नहीं जमा सके?

1970 में कांग्रेस वर्किंग कमिटी में राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने के सवाल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का प्रस्ताव गिर गया. स्पष्ट था कांग्रेस वर्किंग कमिटी में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अल्पमत में थीं. बहुत हंगामा हुआ. लेकिन आने वाले समय ने बता दिया कि वास्तविक कांग्रेस कहाँ है. यह सब जो नहीं जानते वही इन बातों पर अधिक जोर देते हैं कि गांधी ने ग़लत किया. यदि सुभाष बोस जीवित होते और कांग्रेस में होते तो प्रधानमंत्री का चुनाव नेहरू और सुभाष के बीच होता. पटेल इस दौड़ में ही नहीं होते.

 

 

2.

नेहरू समाजवादी रुझान के नेता थे. समाजवाद को लागू करना चाहते थे. शुरुआती दौर में गांधी ने इसे न लागू करने की सलाह दी, लेकिन बाद में जब गांधी ने उन्हें याद दिलाई तब जवाहरलाल जी ने कहा अभी बहुत परेशानियाँ हैं. इसे बाद में देखेंगे.

इस ब्योरे को मैं  नहीं जानता. हाँ, यह जानता हूँ कि नेहरू समाजवादी तबीयत के थे. वह वैज्ञानिक समाजवाद की जगह फेबियन समाजवाद से प्रभावित थे जो लोकतान्त्रिक ढाँचे में ही उदारवादी और सुधारवादी विचारों पर जोर देती है. समतावादी मूल्यों का समर्थन करता है. बर्नाड शॉ जैसे लेखक इससे प्रभावित थे और ब्रिटेन में उन्नीसवीं सदी के आखिर में इसका कुछ जोर था. ध्यान देने की बात यह भी है कि कांग्रेस के अंदर काम करने वाले प्रायः सभी समाजवादी जैसे-  नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश, लोहिया आदि नेहरू से प्रभावित थे. ये सब नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे.

मेरा मानना है कि इन्हीं नौजवानों की भावना पर गांधी ने अपना वीटो लगाया था. लेकिन आज़ादी मिलने के अगले वर्ष ही सीएसपी यानी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े लोगों ने कांग्रेस से अलग हो कर एक नई पार्टी सोशलिस्ट पार्टी बना ली. ऐसे में कांग्रेस में दक्षिणपंथी शक्तियाँ मजबूत स्थिति में आ गयीं. ऐसी स्थिति में ही नेहरू संविधान बनाने से लेकर, शरणार्थियों के पुनर्वास, रजवाड़े इकाइयों के भारत संघ में शामिल करने से लेकर जाने कितनी समस्याओं से जूझ रहे थे.

गांधीजी ने कब क्या कहा इसके बारे में मैं बहुत कुछ नहीं जानता. आज़ादी मिलने के छह माह के भीतर उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी हत्या राजनीतिक थी. एक खास विचारधारा के लोगों द्वारा की गई हत्या थी. इन सब से नेहरू को रू-ब-रू होना पड़ा था. उस दौर में जो भी प्रधानमंत्री होता उसे इन कठिनाइयों से रू-ब-रू होना पड़ता. संविधान सभा भी कोई आदर्श सभा नहीं थी. संविधान सभा के चुनाव के समय आबादी के केवल दस फीसद लोगों को ही मताधिकार था. किसान मजदूर तबक़े के हिमायती कुछ लोग थे जरूर, लेकिन किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व वहाँ नहीं हो रहा था. ऐसी स्थिति में भूमि सुधार के काम प्रांतों पर छोड़ दिए गए.

ज़मींदारी प्रथा को ख़त्म नहीं किया जा सका. नेहरू विचलित थे. लेकिन वह कर क्या सकते थे. निश्चित ही इस बीच उन्होंने अनेक समझौते किए, वैचारिक तौर पर कह सकते हैं कुछ झुके, लेकिन बने रहे. उनकी इस मनोदशा पर लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने एक एकांकी की रचना की है ‘उत्तर नेहरू चरितम’. इसे पढ़िए तो बदलते हुए नेहरू को आप समझ पाएंगे. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि समाजवादियों ने उनसे प्रेम करना छोड़ दिया था. उनकी शिकायतें जरूर थीं. वे वाजिब भी थीं. हमें यह बात जान लेनी चाहिए कि आज़ादी के बाद जब सोशलिस्ट कांग्रेस से हट गए तब कांग्रेस दक्षिणपंथियों का अड्डा बन गया, जिसके नेता नेहरू थे. रस्साकशी को समझना बहुत मुश्किल नहीं है.

1950 के बाद कांग्रेस की इन्हीं शक्तियों ने हिन्दू महासभाई नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में एक नई पार्टी जनसंघ का गठन किया. जनसंघ के गठन में आरएसएस की बड़ी भूमिका नहीं थी. गोलवलकर इसे लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे. मुखर्जी के अनुरोध पर उन्होंने आरएसएस के पांच लोगों को काम करने केलिए मुखर्जी को सौंपा था. बस. दरअसल जनसंघ के निर्माण में कांग्रेस के दक्षिणपंथी धड़े की बड़ी भूमिका थी. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन सब की समुचित विवेचना नहीं हुई है. मैंने अनेक बार कहा है कि आरएसएस हिंदुत्व का केवल एक स्कूल है. 1950 तक उत्तरभारत में इसका विस्तार बहुत कम था. देश विभाजन वस्तुतः पंजाब और बंगाल का विभाजन था. बिहार को छोड़ दें तो सांप्रदायिक दंगे भी मुख्यतया यहीं हुए थे.

इन दोनों जगहों पर आरएसएस मजबूत नहीं था. पंजाब में हिन्दू महासभा और बंगाल में अनुशीलन समाज था. आरएसएस उस दौर में नागपुर के आसपास तक सीमित था और इस पर पुणे के चितपावन मण्डली का प्रभाव था. इनके राष्ट्रवाद का केन्द्रक पेशवाराज की यादें थीं. हिन्दुओं का सैन्यीकरण और राजनीति का हिन्दुकरण का जो नारा सावरकर ने दिया था, उसे संघ अपने स्तर से यथार्थ रूप देना चाहता था. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस रस्साकशी पर भी ध्यान नहीं दिया गया. आरएसएस का प्रचार कम्युनिस्टों ने उसका विरोध कर अधिक किया. आज वह एक ताकत के रूप में दिखती है.

 

 

३.

आज कल नेहरू की नीतियों को लेकर आये दिन विवाद खड़े किए जाते हैं, इसके पीछे मनसा क्या है ?

यह तो विवाद खड़ा करने वाले लोग बताएंगे कि उनकी मनसा क्या है. मैं अनुमान कर सकता हूँ. और वह यह है कि अपने को स्थापित करने के लिए पूर्व की स्थापित मूर्तियों का भंजन किया जाये. वे अपने कार्यों से नेहरू के समानांतर एक लम्बी लकीर भी खींच सकते थे. लेकिन इसके लिए क़ुव्वत चाहिए. ऐसे में स्थापित मूर्तियों को तोड़ना उन्हें जरूरी लगता होगा. यूँ मूर्तिभंजक चरित्र हमेशा बुरा नहीं होता है. मजबूत आलोचना से भी मूर्तिभंजन होता है. मूर्तिभंजन फुले, दयानन्द, पेरियार वगैरह ने भी किया है.

लेकिन नेहरू की आलोचना नहीं, निन्दा हो रही है. उनके विचारों, उनकी सोच और उनके नजरिये की निन्दा हो रही है. इसमें कोई दम नहीं है. यदि नेहरू में कुछ बात होगी तो उनकी हस्ती को ध्वस्त करना मुश्किल होगा. बुद्ध की मूर्तियाँ, उन पर लिखी किताबें नष्ट कर दी गईं. इसी ज़माने में बामियान बुद्ध की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया गया. लेकिन बुद्ध आज भी हैं और शायद आगे भी रहेंगे. उसी तरह मुझे लगता है नेहरू को ख़त्म करना उनके विरोधियों के लिए मुश्किल होगा.

 

 

४.

वर्तमान सत्ता-विचारधारा अपने आरंभिक दौर में गांधी और नेहरू दोनों के प्रति हमलावर थी. बाद में उनका गांधी विरोध थम गया. लेकिन नेहरू विरोध अधिक तेज हुआ. इसे आप कैसे देखते हैं?

गांधी का विरोध अनेक लोगों ने किया है. विचारधारा का विरोध बुरा नहीं है. लेकिन विरोध का तरीका लोकतांत्रिक होना चाहिए. कभी-कभी विरोध उससे बेहतर के लिए किया जाता है. इस एक का निषेध हम करते हैं कि इसके बरअक्स अधिक अच्छी चीज या विचार है. यह तो होना चाहिए. सभ्यता के इतिहास में अच्छे का शत्रु बुरा नहीं, बल्कि और अच्छा होता है. यही होना चाहिए. एक समय गांधी का सबसे अधिक विरोध कम्युनिस्टों ने किया.

समाजवादी भी उनके ग्रामवाद और अनेक अ-वैज्ञानिक विचारों से सहमत नहीं थे. मैंने अपने युवा काल में यशपाल की छोटी-पतली किताबें पढ़ी थीं- रामराज की पुड़िया और गांधीवाद की शव परीक्षा. ये सब गांधीवाद की आलोचना थी. ये सब खूब पढ़ी जाती थीं. राष्ट्रीय आंदोलन के उल्लेखनीय नेताओं में सावरकर तो विरोधी थे ही, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस भी अनेक मामलों में गांधी से असहमत थे. पटेल की असहमति भी जगजाहिर है. आंबेडकर राष्ट्रीय आंदोलन में फ्रंट पर नहीं थे, कभी न कांग्रेस में रहे, न जेल गए. लेकिन अपने विचारों को लेकर खास कर 1936 में जातिवाद के विनाश की सार्वजनिक घोषणा के बाद उनके विचार राष्ट्रीय आंदोलन के विमर्श में शामिल हो गए थे, वह भी गांधीवाद के समर्थक नहीं थे. बल्कि गांधीवाद का सबसे व्यवस्थित विरोध आंबेडकर ने ही किया. लेकिन हाल में गांधी का विरोध जो शुरू हुआ है उसका चरित्र भिन्न है.

वह गांधीवाद को उस तरह उखाड़ फेंकना चाहता है जिस तरह कभी बौद्धों को उखाड़ फेंका था. यह एक अलग तरह का विरोध है. कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों और अम्बेडकरवादियों का विरोध यह था कि गांधी उनके सपनों को समझें, वह बेहतर बनें. उनके विचार से असहमत लोग भी यह स्वीकार करते थे कि राष्ट्रीय नेता गांधी जी ही हैं. आंबेडकर ने कहा गांधी आधा संत और आधा राजनेता हैं. वह गांधी को पूरा संत देखने के इच्छुक थे. वह गांधी से प्रेम करते थे. नेहरू गांधी को वैज्ञानिक समझ के निकट लाना चाहते थे. सुभाष चाहते थे गांधी पूरी तरह राजनेता बनें. वह समाज सुधारक बनें जैसे तुर्की में कमाल पाशा बने हैं. इन सबके विरोध में प्रेम का भाव था. वह गांधी को अपने सपनों के अनुकूल देखना चाहते थे. जैसे हम चाहते हैं कि हमारे पिता ऐसा बनें. लेकिन आज जो लोग उनका विरोध कर रहे हैं वह नाथूराम गोडसे की तरह का है. वह गांधी को गोली मारने वाले लोग हैं. इन्हें गांधीवाद से नफ़रत है तो इसलिए कि यह गांधी किसानों, मजदूरों, दलितों, मुसलमानों सबको एक साथ लेकर चलना चाहता है. इस गांधी को हम गोली मार देंगे. ऐसे हर किसी को गोली मार देंगे जो इस विचार का होगा. यह विरोध का एक अलग तरीका है. इसकी आलोचना तो होनी ही चाहिए.

आप के प्रश्न का दूसरा हिस्सा है कि अब गांधी विरोध स्थगित हो गया है और केवल नेहरू विरोध कायम है. ऐसा नहीं है. गांधी विरोध आज भी है. नाथूराम गोडसे की खुली अभ्यर्थना शुरू हो चुकी है. आप मराठी लेखक भालचन्द्र नेमाड़े का उपन्यास हिन्दू पढ़ें. गांधी की हत्या की खबर जब महाराष्ट्र के गाँवों में पहुंची तब पिछड़े दलित लोगों ने ब्राह्मणों के घरों पर हमले कर दिए. इसलिए कि महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने गांधी हत्या का उत्सव मनाया था और मिठाइयाँ बांटी थीं. गांधी की हत्या पर रोने वाले नेहरू थे, आंबेडकर उनकी शवयात्रा में कुछ दूर तक डायबिटिक होने के बावजूद पाँव पैदल गए थे. गांधी की राजनीति का विरोध करने वाले महाराष्ट्रीय दलितों ने उनकी हत्या पर मातम मनाया. लेकिन कुछ लोग उत्सव भी मना रहे थे. वही लोग आज खुल कर गांधी और नेहरू का विरोध कर रहे हैं.

 

 

५.

गांधी और नेहरू भारतीय मानस के प्रगतिशील चेहरे हैं. उनको गुज़रे ज़माना हो गया. कोई विकल्प, कोई दूसरा चेहरा क्यों नहीं आया?

गांधी और नेहरू दोनों देश में पर्याप्त लोकप्रिय थे. इसका कारण यह था कि दोनों भारत के जनसामान्य से बे-इंतहा प्रेम करते थे. दोनों के लिए भारत कोई भौगोलिक इकाई नहीं, यहाँ की जनता थी. इसमें कई तबीयत, कई नस्लों, विचारों और विश्वासों के लोग थे. गांधी के व्यक्तित्व की जड़ें वैष्णव धर्म में थी, जो हिन्दू धर्म की एक शाखा है. वैष्णव परंपरा से अहिंसा में विश्वास करते हैं. दूसरों को तकलीफ देने से बचते हैं, बल्कि दूसरों की तकलीफ दूर करना ही धर्म समझते हैं. गांधी का प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जेने पीर पराई जानी रे’ था. वैष्णव वह है जो दूसरों की पीड़ा समझता है. इसलिए उनकी अहिंसा या दूसरों से प्रेम करने की बातें कोई आयातित नहीं थीं, उनकी घुट्टी में थी. गांधी ने इसे ही हिन्दू धर्म का सार माना था.

वह जब पढ़ाई के लिए यूरोप गए और ईसाइयत के संपर्क में आये तो वहाँ भी देखा कि ईसा कहते हैं तुम्हें कोई प्रेम करता है और तुम भी उससे प्रेम करते हो तो यह कोई बड़प्पन की बात नहीं हुई, यह तो लेन देन वाली बात हुई, बड़प्पन इसमें है कि तुमसे कोई नफ़रत करे तब भी तुम उससे प्रेम करो. इसमें प्रेम की परीक्षा होती है. यह धर्म है. इसी तरह उन्होंने इस्लाम के मूल शांति, सच्चाई और भाईचारा को समझने की कोशिश की. उन्होंने देखा कि धर्मों में कोई बुराई नहीं है. बुराई उसके मानने वालों में है. एक धर्म के लोग दूसरे पर वर्चस्व चाहते हैं. समस्या यहाँ से होती है. इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद ने तमाम अरबी कुनबों को इस्लाम के नाम पर एकीकृत किया था. कहा अल्ला एक है.

गांधी ने अपने वैष्णव धर्म, ईसाइयत और इस्लाम में कोई मौलिक भेद नहीं देखा. इसलिए उन्होंने मार्क्स या नीत्शे जैसे आधुनिक यूरोपीय दार्शनिकों की तरह ईश्वर का निषेध नहीं किया. ईश्वरों को एक किया. रघुपति वाले भजन में उन्होंने ईश्वर अल्ला एक ही नाम सबको सम्मति दे भगवान की एक नई पंक्ति जोड़ी. धर्मों के उन्मूलन की जगह उन्होंने सर्वधर्मसमभाव का विचार रखा. पुरानी चीजों को नए अर्थ देना एक बात है गांधी का इसी पर यकीन था. वह नई चीज खड़ी करने के पक्ष में नहीं रहे. उनकी आधुनिकता भी बाहर की अपेक्षा भीतर के बदलाव की थी.

गांधी पर बात करते हुए इस पर भी विचार करना चाहिए कि राजनीति में उनकी जड़ें कहाँ थीं. कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई. जैसे ही यह संगठन अखिल भारतीय हुआ इसमें वैचारिक टकराव बढ़ने लगे. अगले बीस वर्षों में लार्ड कर्जन के ज़माने तक वहाँ मॉडरेट और रेडिकल आमने सामने थे. इस बीच बंग भंग आंदोलन ने राष्ट्रीयता को एक नया आवेग दिया. 1907 के सूरत कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक जो रेडिकल शक्तियों का नेतृत्व कर रहे थे और शेष मॉडरेट लोगों के बीच जूतम पैजार की नौबत आ गई और तिलक को कांग्रेस से बरखास्त कर दिया गया. अब तक गांधी भारतीय परिदृश्य पर नहीं थे. वह दक्षिण अफ्रीका में थे. अब कांग्रेस का अर्थ था मॉडरेट विचार से जुड़े लोगों का संगठन. इस बीच कई तरह के काम हुए. मुस्लिम लीग का गठन हुआ.

1907 में सावरकर की 1857 के पचास वर्ष पूरा होने पर एक किताब प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने उसे प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष माना. 1909 में दो और किताबें आईं. एक थी गांधी की पतली सी किताब हिन्द स्वराज और दूसरा एक उपन्यास ‘गोरा’ जिसके लेखक थे रवीन्द्रनाथ टैगोर. इन दोनों किताबों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए. इसमें नए राष्ट्र का एक वैचारिक ढांचा आपको मिलेगा. 1911 में बंग-भंग वापस हो जाता है और ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली आ जाती है. इन सब घटनाओं के चार साल बाद 1915 में गांधी भारत लौटते हैं. वह गोपालकृष्ण गोखले के राजनीतिक शिष्य हैं. जिन्ना भी गोखले के सहयोगी हैं. गौर करने की बात यह है कि गांधी ने कांग्रेस के सुधारवादी पक्ष का साथ दिया. क्रान्तिकारी और गर्म दलीय तिलक के लोगों से दूरी बनाये रखी.

यह देखने वाली बात है कि हिंदी पट्टी के पढ़े लिखे लोगों पर जो प्रायः ऊँची जातियों के थे, पर तिलक का गहरा प्रभाव था. बंगाल और महाराष्ट्र में सामाजिक नवजागरण की जो धारा थी उससे जुड़े लोग प्रायः मॉडरेट पक्ष में थे. गोखले सबका नेतृत्व कर रहे थे. वह स्वशासन के पक्षधर थे, लेकिन अंग्रेजों से सीखना भी चाहते थे. वह हर बात में अंग्रेजों का विरोध नहीं चाहते थे. मॉडरेट लोगों की यह भी मान्यता थी कि सामाजिक सुधारों के बिना राजनीतिक प्रगति संभव नहीं है. हिंदी पट्टी में मोतीलाल नेहरू इस बात के हिमायती थे. इसलिए जब 1907 के आसपास गोखले इलाहाबाद आए तब तिलकवादियों ने उनका बहिष्कार किया, लेकिन मोतीलाल नेहरू अपने सहयोगियों के साथ उनके स्वागत के लिए तत्पर हुए. इस परिवार से गांधी का भी सम्बन्ध बना रहा और यह संपर्क ही जवाहरलाल और गांधी के बीच विकसित होता रहा. जवाहरलाल जी ने स्वयं को गांधी का पोलिटिकल चाइल्ड (राजनीतिक संतान) माना है.

1928 से ही जवाहरलाल जी में समाजवादी ज्वार उफान मारने लगा था. गांधी ने फटकार लगाई कि रफ़्तार अधिक मत बढ़ाओ. जवाहरलाल जी ने माफ़ी मांगी है. इस तरह गुरु शिष्य का संबंध रहा है. गांधी जो बनना चाहते थे उसका कुछ अंश वह जवाहरलाल में विकसित होता हुआ देख रहे थे. इसलिए जवाहरलाल जी पर उनकी नजर थी. महाभारत की पौराणिकता से उधार लें तो द्रोण और अर्जुन की तरह दोनों का सम्बन्ध था. इसमें सुभाष का अंगूठा काटने से भी उन्हें गुरेज नहीं हुआ.

राष्ट्रीय आंदोलन में तकलीफ़-देह बात यह हुई कि जवाहरलाल जी की मूर्ति खड़ी करने में सुभाष बोस की उपेक्षा की गई. आने वाला समय इस पर विचार करेगा. लेकिन गांधी और नेहरू की विरासत जिस तरह संघ और भाजपा के लोग नष्ट करना चाहते हैं वह सीधे तौर पर प्रतिगामी तेवर का है. वह उस पूरी विरासत को ख़त्म करना चाहते हैं जिससे गांधी, टैगोर, जवाहर, सुभाष, भगत सिंह, आंबेडकर वगैरह जुड़े हैं. इनमें आपस में कुछ भेद हैं लेकिन कमोबेस सबकी धारा एक है. संघ की विचारधारा अलग है. इस पर यहाँ टिप्पणी करना मुनासिब नहीं होगा. विषयांतर हो जाएगा.

 

 

६.

हम गांधी, नेहरू के बाद आज़ाद भारत की स्थितियों पर चर्चा करें. समाजवादी आंदोलन के विकास और पराभव को आप किस तरह देखते हैं?  राममनोहर लोहिया के प्रभाव की चर्चा होती है. गैर-कांग्रेस विरोध के नाम पर जनसंघ और संघ से उनके जुड़ाव को देखा जाता है. लोहिया का प्रभाव साहित्य पर भी देखा जाता है. उनका नेहरू विरोध भी चर्चित रहा है. इन सबको आप किस तरह देखते हैं ?

भारत में समाजवादी आंदोलन का विकास 1930 के दशक में हुआ. 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कानपुर में हुई थी. लेकिन उनका भी विकास 1930 के दशक में ही हुआ. घटना 1933 की है. समाजवाद से प्रभावित कुछ युवा मित्रों ने नासिक जेल में कांग्रेस के भीतर ही एक सोशलिस्ट ब्लॉक स्थापित करने का संकल्प लिया. अगले वर्ष कांग्रेस के गया अधिवेशन से लौट कर 17 मई 1934 के दिन पटना के एक छोटे से अंजुमन इस्लामिआ हॉल में इस युवा दस्ते ने एक सम्मेलन किया और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना का संकल्प लिया. उसी वर्ष 22 और 23 अक्टूबर को बॉम्बे में पूरे उत्साह के साथ इसका प्रथम अधिवेशन हुआ. सम्मेलन स्थल लाल झंडों और कार्ल मार्क्स व लेनिन की तस्वीरों से पटा हुआ था. स्वाभाविक था इसे लेकर उत्साह पूरे देश में था. विशेष कर युवा वर्ग में.

कांग्रेस का दक्षिणपंथी खेमा बहुत नाराज़ हुआ. बात गांधीजी तक पहुंची. जवाहरलाल जी के रुख की फ़िक्र सबको थी. कुछ ही पहले उनकी एक किताब Whither India प्रकाशित हुई थी, जिस में उन्होंने समाजवाद का पक्ष रखा था. हालांकि सीएसपी के सम्मेलन के समय वह जेल में थे, किन्तु गांधी जी ने एक पत्र में एक साथी को लिखा यदि जवाहरलाल बाहर होते तब वह भी वहीं होते. अगले कुछ वर्षों तक भारतीय राजनीति में समाजवाद की जोरदार चर्चा हुई.

कांग्रेस के भीतर जेपी और उनके साथी तो थे ही, जवाहरलाल और सुभाष समाजवाद के घोषित चेहरे थे. भगत सिंह का बलिदान इतना ऊपर हो गया कि उनके विचारों की चर्चा कम हुई, लेकिन सब जानते हैं, समाजवाद का बिगुल उन्होंने क्रांतिकारी दस्ते में फैला दिया था. क्रांतिकारियों की जमात को हथियार की जगह विचार केंद्रित करने में भगत सिंह की बड़ी भूमिका थी. वह क्रांतिकारियों के बीच जवाहरलाल की तरह समादृत थे. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन बातों की यथोचित चर्चा हमारे आज के लोगों के बीच नहीं होती है. लेकिन आज़ादी मिलते ही समाजवादियों का कांग्रेस से अलग हो जाना शायद सही निर्णय नहीं था.

गांधी भी मानते थे कि कांग्रेस जिस लक्ष्य के लिए स्थापित हुई थी, यानी उपनिवेशवाद से मुक्ति का लक्ष्य, वह हासिल हो चुका है इसलिए कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए. लेकिन नेहरू और पटेल जैसे लोग सोच रहे थे कि राष्ट्र निर्माण का काम भी कठिन है. एक राष्ट्रीय चरित्र वाली पार्टी का होना जरूरी है. नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में डॉ भीमराव आंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कई ऐसे लोगों को शामिल किया जो कांग्रेस के सदस्य नहीं थे, न होने वाले थे. नेहरू ने इन सबका सहयोग लेने का प्रयास किया. 1952 के आम चुनाव के बाद, जो सबको बालिग मताधिकार के बाद बनी पहली सरकार थी, में ऐसा नहीं हुआ. अब कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिल गया था. अब राष्ट्रीय नहीं, एक पार्टी की सरकार का दौर आ गया. यह शायद अच्छा नहीं हुआ. कुछ वर्षों तक उस परंपरा को बनाये रखना चाहिए था जिसमें राष्ट्रीय हितों के लिए दल से ऊपर उठ कर सोचने की बात थी. यह ख़त्म हो गया.

समाजवादियों को अपेक्षित चुनावी सफलता नहीं मिली. 1952 के आखिर में ही समाजवादी और कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेता कृपलानी की पार्टी किसान मजदूर प्रजा पार्टी को एकीकृत कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनी. कृपलानी ने जिद की कि वर्ग संघर्ष की नीति समाजवादियों को छोड़नी पड़ेगी. समाजवादी मान गए. यह एक बड़ी वैचारिक फिसलन थी. नरेन्द्रदेव ने दुःख के साथ कहा अब हमारे पास बच ही क्या गया है. कुछ समय बाद जेपी ने राजनीति से संन्यास ले लिया.

1954 में केरल के थानु पिल्लई सरकार द्वारा गोलीकांड के बाद लोहिया के व्यक्तव्य को लेकर पार्टी में विवाद हुआ हुआ और अंततः लोहिया को पार्टी से बरखास्त कर दिया गया. 1956 के आरम्भ में ही नरेन्द्रदेव का निधन हो गया. अशोक मेहता और कई युवा समाजवादी कांग्रेस में शामिल हो गए. ऐसे में समाजवादी आंदोलन मृतपाय हो गया था. इसी हालत में राममनोहर लोहिया ने एक बार फिर सोशलिस्टों को इकट्ठा करने का प्रयास किया. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी थी. सोशलिस्ट लोग बार बार चुनाव हार रहे थे. इसी स्थिति में दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे चलने की नीति स्वीकार करते हुए लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का एक फलसफा तैयार किया.

1962 में चीन से पराजय के बाद राष्ट्रीय नैराश्य का वातावरण बना था. इस का फायदा दक्षिणपंथी तत्व उठा सकते थे. लोहिया ने अपनी तरह से हस्तक्षेप किया. वह विलक्षण व्यक्तित्व के थे और प्रतिभाशाली भी थे. नेहरू के साथ काम किया था. उनकी रचनात्मक प्रतिभा के कायल नरेन्द्रदेव और जेपी दोनों थे. लेकिन हर प्रतिभावान में कुछ कमियाँ भी हो सकती हैं. लोहिया अपवाद नहीं थे. नेहरू विरोध को कुछ लोगों ने पसंद किया और फिर उस पर वह बढ़ते गए. कवि अज्ञेय ने दिनमान के एक सम्पादकीय लेख में लोहिया की इस बात के लिए कड़ी आलोचना उनके होते हुए लिखी है. बावजूद लोहिया ने मृतप्राय समाजवादी आंदोलन को हिंदी पट्टी में इतना मज़बूत कर दिया कि आश्चर्य होता है. गाँव-गाँव में समाजवादी कार्यकर्ता मिल जायेंगे.

गांधी के बाद इतना सघन राजनीतिक-सामाजिक अभियान किसी और दल ने नहीं चलाया. वह भारत से नेहरू की तरह ही प्रेम करते थे. वह सत्ता में नहीं रहे इसलिए उन्हें घूमने समझने का अवसर अधिक मिला. भारतीय पौराणिकता की उनकी व्याख्या दिलचस्प है. जाति और वर्ण के सवाल को उन्होंने समझने की कोशिश की. समाजवादी वर्ग पर अधिक जोर देते थे और जाति विमर्श को उसमें बाधक समझते थे. लोहिया ने वर्ण और वर्ग के सवालों को जोड़ कर देखा. वर्ग स्थिर नहीं होता, वर्ण स्थिर हो जाता है. क्यों ? इन सवालों पर सबका ध्यान खींचा. उत्तरभारत में दक्षिण भारत की तरह पहली बार कोटा पॉलिटिक्स की आवाज उठाई. अनुसूचित जातियों जनजातियों की तरह पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी महकमों में विशेष अवसर की नीति अपनाने की बात राजनीतिक पटल पर रखी. उनके इन ख्यालों को अनेक राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने तो पसंद किया ही रचनाकारों ने भी पसंद किया.

लोहिया को पसंद करने वाले रचनाकार हिंदी ही नहीं अन्य जबानों में भी थे. उन सबने साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. यु आर अनंतमूर्ति, रेणु, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही जैसे दिग्गज रचनाकार उनसे प्रभावित रहे. सब मिला कर लोहिया ने उसी भारत को विकसित करने की कोशिश की जिसे रवीन्द्रनाथ टैगोर, गांधी और नेहरू ने करना चाहा था. उनकी परंपरा वही रही. हाँ, नेहरू को लेकर उनके विरोध भाव को बहुतों ने, मैंने भी पसंद नहीं किया. यूँ वह गांधी के भी अंधभक्त नहीं रहे. उन्होंने स्वयं को कुजात गांधीवादी कहा. दरअसल लोहिया किसी के भी अंधभक्त नहीं हो सकते थे, मार्क्स के भी नहीं. यह उनका चरित्र था.

 

 

७.

क्या भारतीय राजनीति से गांधी, नेहरू, जेपी, लोहिया या फिर वामपंथ की पूरी परंपरा अब ख़त्म हो जाएगी या इनका कुछ भविष्य होगा? अभी दक्षिणपंथी राजनीति का घटाटोप दिख रहा है. क्या भविष्य का भारत इसी विचारधारा के साये में रहेगा?

मुझे लगता है कि दक्षिणपंथी राजनीति को भी आगे बढ़ने यानी अधिक समय तक चलने के लिए आंतरिक तौर पर बदलना होगा. नफ़रत, भय और बहिष्करण के वातावरण में किसी समाज को लम्बे समय तक आप नहीं रख सकते. मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इसके उलट जो धारा है यानी गांधी-नेहरू की कांग्रेस वाली धारा जिसमें राष्ट्रीय-आंदोलन के मूल्य जुड़े थे, या फिर समाजवादियों और कम्युनिस्टों की धारा, उन्हें भी बदलना होगा. बल्कि उन्हें अधिक बदलना होगा. दुनिया की बदलती हुई सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के अनुकूल उन्हें ढलना होगा. पिछले कुछ दशकों में अनेक तरह के सामाजिक-राजनीतिक और तकनीकी परिवर्तन हुए हैं. उत्पादन के नए तरीके विकसित हुए हैं. नया ज्ञान केंद्रित समाज अस्तित्व में आया है. मध्यवर्ग का चरित्र और आकार बदला है. इन सबके अनुकूल समाजवादी और कांग्रेस के लोग नहीं बदले. वे आज भी इस पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि वे लगातार पीछे क्यों हो रहे हैं.

कांग्रेस इंदिरा गांधी के आरम्भिक समय में ऐसे संकट में आई थी. 1967 में लोहिया के गैर-कांग्रेस की रणनीति ने कांग्रेस को मुसीबत में ला दिया था. अनेक प्रांतों में गैर-कांग्रेस सरकारें बन गईं. केंद्र में भी मामूली बहुमत था. कांग्रेस के भीतर बूढ़े कांग्रेस जनों का सिंडिकेट था. ये इंदिरा गांधी को अपने प्रभाव में रखना चाहते थे. लेकिन तब कांग्रेस के भीतर के युवा समाजवादियों और प्रभुनारायण हक्सर जैसे प्रबुद्ध ब्यूरोक्रेट ने मिल-जुल कर इंदिरा गांधी को प्रगतिशील रास्ते पर लाया. बैंकों का राष्ट्रीयकरण, शाही थैली और राजाओं के विशेषाधिकारों की समाप्ति, भूमि सुधार, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कुछ नए फैसलों ने कांग्रेस को एक बार फिर जीवन्त कर दिया. 1971 और 1972 के चुनावों में कांग्रेस नए समाजवादी स्वरूप में मजबूत हो कर आई. लेकिन इसी समय इन्दिरा जी के बेटे संजय गांधी ने अपनी सक्रियता बढ़ाई. फिर जो हुआ सब जानते हैं.

आपातकाल का फैसला भी संजय का था. उस ने कांग्रेस को अराजक-लम्पट तत्वों से भर दिया. 1977 में इंदिरा गांधी की पराजय हुई. जेपी के नेतृत्व में जनता पार्टी की पंचमेल राजनीति का प्रयोग सफल नहीं हुआ. 1980 में कांग्रेस फिर सत्ता में आ गई. लेकिन यह बदली हुई कांग्रेस थी. संजय ने इसे बदल दिया था. 1980 में ही संजय गांधी की मौत हो गई और इंदिरा गांधी की भी 1984 में हत्या कर दी गई. इसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को जीत तो मिली, लेकिन उसका वैचारिक आधार तब तक खिसक चुका था. यह सोच पाना ही मुश्किल होता है कि कांग्रेस ने शाहबानो मामले में मुसलमानों के दकियानूसी दस्ते का पक्ष लिया और 1990 में मंडल कमीशन वाले मुद्दे पर राजीव गांधी ने पिछड़े वर्गों के हितों का विरोध किया. ऐसे में दक्षिणपंथियों का प्रभाव बढ़ना ही था. बढ़ा और बढ़ता चला गया.

आज परिवर्तित स्थितियों में समय की मांग है कि जो लोग भी लोकतान्त्रिक, समावेशी और सेकुलर भारत की सोच रखते हैं, वे जिद त्याग कर एक साझा राजनीतिक सम्मेलन का प्रस्ताव रखें. मिल-बैठ कर एक ऐसा संयुक्त मोर्चा गठित करें जो गांधी, नेहरू, आंबेडकर, लोहिया सबके विचारों के आलोक में कॉमन प्रोग्राम तय करे. इन सब के पास अलग रहने के जितने कारण हैं, उनसे अधिक साथ रहने के आधार हैं. यह एकता जिस दिन बनी दक्षिणपंथ की राजनीति का वर्चस्व खत्म होना तय है. भारत जैसे देश में अनुदार और कट्टरतावादी राजनीति के लिए कोई जगह लंबे समय तक नहीं बनती. यदि आज जगह बनी है तो इसलिए कि प्रगतिशील खेमा बिखरा हुआ और वैचारिक दरिद्रता का शिकार है. इसे एक वैचारिक आवेग और एकबद्ध होने की जरूरत है.

 

प्रेमकुमार मणि

बिहार के किसान पृष्ठभूमि के एक स्वतन्त्रता सेनानी पिता और शिक्षिका माँ के घर 25 जुलाई 1953 को जन्मे मणि ने विज्ञान विषयों के साथ स्नातक किया और फिर नवनालन्दा महाविहार में भिक्षु जगदीश काश्यप के सान्निध्य में रह कर बौद्धधर्म दर्शन की अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त की. छात्र जीवन में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, कुछ समय तक सरकारी नौकरी की और छोड़ी, राजनीतिक आन्दोलनों और सक्रियताओं से जुड़े, कथाकार, उपन्यासकार और प्रतिनिधि लेखक के रूप में पहचान बनाई और कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया. निरन्तर समसामयिक विषयों पर भी लिखते रहे. पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और लेखों के पाँच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं एवं अनेक कहानियों के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रांसिसी, उर्दू, तेलगु, बांग्ला, गुजराती और मराठी आदि भाषाओं में हो चुके हैं. लेखन के साथ वह अपनी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं.

943166221

मनोज मोहन

मनोज मोहन वरिष्ठ पत्रकार व लेखक. वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमानः समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक.इन दिनों सीएसडीएस की आर्काइव परियोजना के अंतर्गत आज़ादी से दशक भर पहले से लेकर सातवें-आठवें दशक की हिंदी पत्रिकाओं के आलेखों, कविताओं और कहानियों के दस्तावेज़ीकरण जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं.

manojmohan2828@gmail.com

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Comments 1

  1. Mahesh Mishra says:
    2 months ago

    उम्दा बातचीत, बढ़िया सवाल -सुचिंतित जवाब…
    यह बात अच्छी लगी – “जवाहरलाल जी गांधीवाद के आलोचक है, लेकिन गांधीवाद का वास्तविक विकास वही हैं.”

    Reply

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