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समालोचन

Home » गांधी अगर तुम औरत होते: अपर्णा मनोज

गांधी अगर तुम औरत होते: अपर्णा मनोज

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन ने स्त्रियों को गहरे प्रभावित किया, जिस समाज में उनकी सार्वजनिक उपस्थिति लगभग नगण्य थी गांधी के आगमन के बाद वे दिखने लगीं. महात्मा गांधी एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनके सार्वजनिक जीवन में लगभग हर जगह स्त्रियाँ हैं. भारतीय स्त्रियों ने सदियों बाद ऐसा ‘पुरुष’ देखा था जिनके साथ वह अपने को सहज पाती थीं. बटवारे के समय स्त्रियों पर जो कहर टूटा उससे बाहर निकलने के रास्ते भी वही तलाश रही थीं. अपर्णा मनोज ने इस आलेख में ऐसी स्त्रियों को केंद्र में रखा है जो इससे जूझ रहीं थीं. गांधी-सप्ताह की अगली कड़ी ‘गांधी अगर तुम औरत होते’ प्रस्तुत है.

by arun dev
October 8, 2022
in विशेष
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गांधी अगर तुम औरत होते: अपर्णा मनोज
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गांधी अगर तुम औरत होते

अपर्णा मनोज

गांधी की एक सौ पच्चीस साल तक जीने की अदम्य लालसा अचानक मुरझाने लगी थी. उन्होंने राजा जी से कहा कि अब वह एक सौ पच्चीस साल तक नहीं जीना चाहते. हिंसा की लपटों में घिरे हिंदुस्तान ने उनके मन में घोर अकेलापन और निराशा भर दी थी. १९४७ की गर्मियों के दिनों में वह अक्सर अपनी बात दोहराया करते थे- “मैंने लम्बा जीवन-जीने की बात बंद कर दी है.”

सत्ता हस्तांतरण घोर पितृसत्तात्मक शब्द है जो दो भाइयों के संपत्ति के झगड़े को प्रतिध्वनित करता है. नीरद सी चौधरी की एक बात याद आ रही है कि उन्होंने इस सत्ता हस्तांतरण की तुलना एक ऑक्सब्रिज पिता द्वारा दूसरे ऑक्सब्रिज को संपत्ति सौंपे जाने से की थी. उन्होंने परिहास करते हुए कहा था कि मध्यकाल में कब्रों पर खुदा होता था- Hodi mihi Cras tibi अर्थात आज मेरी बारी है, कल तुम्हारी होगी. इस पर मुझे कबीर याद आ रहे हैं- फूले फूले चुनि लिए, कालि हमारी बारि!

सत्ता हस्तांतरण स्वराज्य का विपरीतार्थक है. स्वराज्य अनेकार्थी समन्वयसूचक पद है. गांधी की महान निर्माणकारी योजना (मैं इसे सृजनशील कहूंगी) में सत्याग्रह और अहिंसा गारा-मिट्टी हैं. सहकार और समानता के बिना स्वराज निरर्थक है. अंग्रेजों की निस्यंदन नीति के उलट गांधी का स्वराज सबसे छोटी इकाई अर्थात ग्राम को रिपब्लिक की तरह देखता था. मुझे बुद्धकालीन गणराज्य याद आते हैं. मुझे बुद्ध याद आते हैं.

गांधी लोकमत को स्थिर नहीं मानते थे. वह उसे चेतना से जोड़कर देखते थे और उसकी परिवर्तनशीलता सृजन से जुड़ी थी. जन-इच्छा यदि हिंसा की तरफ़ मुड़ जाए तो बदलाव लाने वाली आन्दोलनकारी शक्ति निष्प्रभ हो जाती है. अतः जब बंटवारे का प्रश्न उठा तो लोग गांधी को आशा से देखने लगे, लेकिन गांधी जानते थे कि किसी तरह के सांप्रदायिक उन्माद में कोई आन्दोलन जन्म नहीं ले सकता. इस उन्माद ने गांधी को हताश कर दिया.

16 अगस्त, 1946 का दिन हिंसा के रथ पर बैठकर आया. जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन की चेतावनी दुस्वप्न की तरह बंगाल को भोगनी पड़ी. गांधी का स्वराज बेमेल सिद्ध हो गया. कलकत्ता के दंगे ग्रामीण इलाकों तक फैले. 15 अक्तूबर सन 1946, दिल दहलाने वाली ख़बरें नोआखली और तिपेरा से आने लगीं. इन दंगों की विकरालता को स्त्रियों ने सबसे अधिक झेला. कितनों के बलात्कार हुए, कितनी अगवा कर ली गयीं. मैं यहाँ यास्मीन खान की क़िताब ‘विभाजन: भारत और पाकिस्तान से चंद  सतरें उधृत कर रही हूँ–

“बंगाल का दंगा एक ऐसे युग की खतरनाक शुरुआत को बताता है जब महिलाएँ राष्ट्रीय पहचानो की निधि बन गयीं और उनके जिस्मों का इस्तेमाल सीमाओं और स्थान के निर्धारण के लिए किया गया. मानो ‘दूसरे लिंग यानी महिलाओं’ पर पुरुष मानसिकता पूरी तरह हावी हो गयी.”

गांधी को स्त्रियों की सृजनशीलता और उनकी अहिंसा पर अटूट विश्वास था. वह स्त्रियों को पुरुषों से श्रेष्ठ मानते थे और पुरुषों के उसके प्रति अमानवीय व्यवहार पर क्षोभ प्रकट करते थे. एक बार सिंहली स्त्रियों से बात करते हुए उन्होंने कहा–

‘अगर मैं स्त्री होता तो पुरुष के किसी भी ऐसे विचार के विरुद्ध जो स्त्री को अपना खिलौना समझे, आवाज़ उठाता.’

वह कई बार इसे दोहराते रहे. अगर मैं स्त्री होता का भाव उनके भीतर की सहृदय स्त्री की आवाज़ थी. लिखने के इन क्षणों में मैं सोच रही हूँ कि बंगाल में स्त्रियों की दुर्दशा पर बापू तुम्हारा क्या हाल हुआ होगा? तुम्हारे स्वराज में घर से अधिक कोई पवित्र जगह थी नहीं और घर की स्वामिनी औरत को तुम श्रेष्ठ मानते थे. तुम्हें लगता था कि अहिंसा का सत्व स्त्री का हृदय है. उसमें सहने की अपार शक्ति है. तुम्हें लगता था कि केवल स्त्रियाँ ही सैनिकपने के विरुद्ध लड़ सकती हैं. तुमने ही पेरिस में लासेन से कभी कहा था कि

“यदि स्त्रियाँ यह भूल जाएँ कि वे पुरुषों से कम शक्तिशाली हैं तो पुरुषों की अपेक्षा युद्ध के विरोध में कहीं अधिक कार्य कर सकती हैं.”

नोआखली में अपने इस भरोसे के आधार पर ही शायद तुमने पहले सुचेता को भेज दिया था. अमतस सलाम वहां पहले से थीं. 24 दिनों से उपवास पर थीं. और 6 नवंबर को तुम भी पहुंचे. तुम्हारे हाथों अमतस ने उपवास तोड़ा. कृशकाय देह, अपने ही हाथ के बुने कम्बल में लिपटी और उधर हिंसा चलती रही थी. तुम्हारी अहिंसा, तुम्हारा चर्खा सब इतने निरुपाय हो गए! मैं तुम्हें महा-मानव का दर्ज़ा नहीं दे रही. हाँ तुम्हें अनेक असहमतियों के बीच दोस्त की तरह खड़ा पाती हूँ.

बरिसाल की औरतों को लेकर मैं तुमसे नाराज़ हो सकती हूँ. तुम्हारे शुद्धता और पवित्रता के विचार मुझे विद्रोही बनाते हैं. मैं विरोध करती हूँ. पर बंगाल में तुम सुचेता के साथ जिस तरह खड़े थे मुझे लगता है कि एक पुरुष को तुम्हारे जैसा होना चाहिए. तुम घर-घर घूमे. लोगों को समझाते कि टिके रहो अपने घरों में. अपनी प्रार्थना सभाओं में मुसलमान भाइयों का इंतज़ार करते. किस आहत भाव से तुमने लिखा था- ये कोई रपट थी, “वे गहरे व पुराने रिश्ते टूट गए हैं. जिस सत्य और अहिंसा की शपथ मैं लेता हूँ और जहाँ तक मैं जानता हूँ इन्होंने मुझे साठ वर्षों से जिंदा रखा हुआ था, वे यहाँ के लोगों पर असर डालने में विफल लगते हैं.”

यह एक तनावर बरगद कह रहा था. आज भी यह बरगद जिंदा है और आज़ाद हिंदुस्तान में टूटे-रिश्तों को जोड़ने की कोशिश कर रहा है.

मुझे एक घटना याद आ रही है, सुचेता ने इसका ज़िक्र किया था और यह बात कई किताबों में दर्ज़ है. मेरे पास भी किताबों की ज़िल्द ने इसे पहुँचाया है. यह दंगों में गुमशुदा लड़कियों की कहानी है. तीन लड़कियों की कहानी. हिंसा और युद्ध के बाद जो शांति होती है उसमें इन लड़कियों को रिकवर किया जाता है. ऐसा ही होता रहा है. युक्रेन में इन दिनों ऐसा ही बवंडर मचा है. तो खैर, ज़ालिम जंगलियों से बचाने की मंशा से सुचेता ने इन तीनों लड़कियों को एक मुसलमान परिवार को सौंपा था. वे तीन माह वहां सुरक्षित रहीं. तीन महीने बाद जब वे परिवार को लौटाई गयीं तो परिवार ने उन्हें स्वीकार नहीं किया. सुचेता हतप्रभ रह गयीं. उन्हें संभवतः वर्धा वाले आश्रम में भेज दिया गया. इसके आगे की कहानी मुझे किसी किताब में नहीं मिली. किसी उपन्यास या कहानी में वह बाद में लिखी गयी हो. कई अनाम शोधार्थी इस पर काम कर रहे होंगे. अजीब नौबतखाना है.

एक और घटना उन दिनों सुर्ख़ियों में थी. अपनी आत्मरक्षा के लिए कई औरतों ने आत्मघात किया. गांधी ने इस पर लिखा था. गांधी तुमने इस पर लिखा था. तुमने इसे साहसी कृत्य कहा था, फिर ऐसी ही घटना जब पंजाब के रावलपिंडी के छोटे से गाँव थोआ खालसा में घटी तो एक अंग्रेजी अखबार ‘द स्टेट्समैन ने इसे इस तरह का रंग देकर छापा था–

रावलपिंडी जिले के एक छोटे से गाँव थोआ खालसा की 90 औरतों की कहानी …जिन्होनें हाल की गड़बड़ियों के दौरान कुएँ में कूदकर जान दे दी थी. इस घटना ने पंजाब के लोगों की कल्पना को झकझोर कर रख दिया. जब उनके पुरुष उनकी रक्षा में समर्थ नहीं रह गए तो उन्होंने आत्मदाह की राजपूती परम्परा को पुनः जीवित कर दिया. वे भारतीय औरतें मिस्टर गांधी की सलाह पर भी चलीं कि विशिष्ट परिस्थितियों में आत्महत्या नैतिक रूप से बेहतर है.

भीष्म साहनी के ‘तमस’ में भी थोआ खालसा का दृश्य साकार हुआ है –

स्त्रियों का झुण्ड उस पक्के कुएँ की ओर बढ़ता जा रहा था, जो ढलान के नीचे दायें हाथ बना था, और जहाँ गाँवों की स्त्रियाँ नहाने, कपड़े धोने, बतियाने के लिए जाया करती थीं. मन्त्र मुग्ध सी सभी उस ओर बढ़ती जा रही थीं. किसी को उस समय ध्यान नहीं आया कि वे कहाँ जा रही हैं, क्यों जा रही हैं. छिटकी चांदनी में कुएँ पर जैसे अप्सराएँ उतरती आ रही हों..

कत्लगाह में जाती औरत अचानक ललना बन जाती है. आत्महत्या परिष्कृत जौहर में बदल जाती है, जैसे सैनिकवाद हर युद्ध में शहादत का महिमामंडन करता है. असंख्य हत्याएं बलिदान में बदल जाती हैं. स्त्री की देह को सम्मान और देश से जोड़कर देखने की परम्परा हमारी मानसिकता का हिस्सा है. जब भी बलवा मचेगा, युद्ध होंगे औरतों को अप्सरा बनना पड़ेगा. स्टेट्समैन जैसे अख़बार इसका ध्रुवीकरण करके छापेंगे. कई बुद्धों को, कई गांधियों को मिलकर कई सदी तक अहिंसा को सिखाना-सीखना होगा. शांति के अनुभवों को बच्चों के साथ साझा करते रहना होगा. औरत को देखने का नज़रिया अहिंसक कर लीजिये. एक औरत कई गांधी पैदा करने की सामर्थ्य रखती है. खैर, मैं गांधी की बात कर रही थी. उनसे मुखातिब हूँ.

मैं जानती हूँ कि तुम्हारे अवचेतन में स्त्रियों के संघर्ष का पूरा इतिहास जगमगाता रहा–पंडिता रमा बाई, सावित्री फूले से लेकर मुत्थुलक्ष्मी रेड्डी, बी अम्मन, भोपाल की बेगम, मार्ग्रेट कुंजिस, ऐनी बेसेंट, सरला देवी चौधरी, माधवी अय्यर… कितनी औरतें तुम्हें पाल रही थीं. तुम्हारा सृजन..और फिर कस्तूर बा. तुम्हारी पथ प्रदर्शक. लाखों औरतों को तुमने अपना चर्खा सौंप दिया था. चप्पा-चप्पा चर्खा चले.

अब मैं सिर्फ बंटवारे के दिनों में लौटूंगी. उन स्त्रियों की बात करूँगी जिन्होंने तुमसे ऊर्जा पायी और वे तुम्हारी ही तरह कई नोआखलियों में चली गयीं. आगजनी, रेप, हत्याओं के बीच बिना डरे अपनी बहनों की तलाश में. रामेश्वरी नेहरु, मृदुला साराभाई, अनीस  किदवई, कमला पटेल, सुशीला नैयर आदि. अनीस  की ‘आज़ादी की छाँव में’ और कमला बेन की ‘मूल सुद्धा उखड़लेन’  (टॉर्न फ्रॉम द रूट्स) महत्त्वपूर्ण प्रलेखन हैं. इसके अलावा अपर्णा बसु का मृदुला साराभाई पर काम (मृदुला साराभाई: रेबल विद ए कॉज़) बहुत महत्त्वपूर्ण है. इन आख्यानों का प्रयोग बंटवारे की  ओरल हिस्ट्री लिखने वालों ने अपनी-अपनी तरह किया है, जो इतिहास की क्षति-पूर्ति करता है. ये दस्तावेज़ बताते हैं कि कैसे भारत माता की अवधारणा इस साम्प्रदायिकता के खेल में विद्रूप हो गयी. बंटवारे की इस घटना ने लैरी कॉलिन्स को यह लिखने की छूट दी कि

“प्राचीनकाल में जिस तरह प्लेग का आक्रमण होता था, उसी तरह लगभग डेढ़ महीने तक उत्तर भारत के लोगों पर उस उन्माद के आक्रमण पर आक्रमण हुए, जिसमें एक-दूसरे को तड़पा-तड़पाकर मौत के घाट उतारने के अलावा किसी को कुछ न सूझा.”

तुमसे अधिक और कौन इस सच को जानता है कि कैसे मृदुला मुस्तैदी से भारत से पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थियों का मज़बूत कन्धा बन गयीं थीं. अमृतसर में उन्हें लोकल कांग्रेसी, आर.एस.एस, प्रबंध शिरोमणि की तीखी आलोचनाओं को सहना पड़ा, पर उनके हौसले पस्त नहीं हुए. गांधी और नेहरु उनके साथ थे. पश्चिम पंजाब से आने वाले सिख और हिन्दू शरणार्थियों के लिए भी उनके प्रयास सराहनीय थे. एक बहुत बड़े रेल हमले में मृदुला ने निर्भीकता से पाकिस्तान जाकर राहत कार्य में सहयोग दिया था. एक रेलगाड़ी हिन्दू और सिख शरणार्थियों को लेकर NWFP के बन्नू से हिंदुस्तान के लिए रवाना की गयी थी. रेलगाड़ी पाकिस्तान के गुजरात से लायी जा सकती थी, लेकिन गुजरात बहुत असुरक्षित था अतः उसे सरगोधा से निकलना तय किया. लेकिन गाड़ी का रुख गुजरात कर दिया गया. भारी कत्लेआम हुआ.

मृदुला इस खबर से बेचैन हो उठीं और तुरंत गुजरात पहुँचने का निर्णय लिया. इसमें बहुत जोख़िम था. उन्होंने पश्चिम पंजाब के पुलिस महानिरीक्षक खां कुरबान अली को अपने पहुँचने की इत्तला दी. मृदुला के प्रयत्नों से घायलों को गंगाराम अस्पताल लाहौर पहुंचवाया गया. इसी तरह अलवर-भरतपुर के मेवों, कांगड़ा में चम्बा के गुर्जर मुसलमानों को पुनः बसाने आदि जिम्मेदारियों को उन्होंने ईमानदारी से निभाया. जालंधर के गांधी वनिता आश्रम को भी वह अपनी सेवाएँ देती रहीं. लोग उन्हें मुरीद-ए-अल्लाह कह कर पुकारते थे.

अनीस  किदवई- 1947-48 तक सारा ड्रामा देखा: पति शफी साहब कुर्बान हुए, सोचती रहीं, नोटबुक पर लिखती रहीं और तब कहीं 1974 में ‘आज़ादी की छाँव’ के छपने की नौबत आई. कमला बेन पटेल पाकिस्तान के लाहौर में चुपचाप काम करती रहीं. सत्ताईस साल तक भोगी स्मृतियों को संजोती रहीं और 1977 में गुजराती में उनकी किताब शाया हुई. दोनों गांधी को प्यार करने वाली औरतें.

पति की मौत के बाद अनीस  तुम्हारे पास चली आई थीं, गांधी. तुमने उसे सुशीला नय्यर के पास भेज दिया था. पुराने किले का मुस्लिम कैंप. किले में मरीजों को खाना पहुंचातीं और अपने काम से मुतमइन.

गांधी मुझे इस वक्त असगर वज़ाहत की कहानी याद आ रही है– शाह आलम कैंप की रूहें. बापू मैं तुम्हारे आश्रम से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर हूँ. इस देश को रूहों की आदत हो गयी है. औरतों की रूहों से डरा करो. उन्हें आग जला नहीं सकती.

हम बात कर रहे थे ‘आज़ादी की छाँव की’. गांधी बार-बार इन औरतों के लिए गुहार लगा रहे थे– ‘जो इन मुसीबतजदा औरतों को लेने से इनकार करते हैं वे सबसे बड़े पापी हैं. वे लड़कियां तो पवित्र हैं, मुझसे ज्यादा पवित्र. वे गुनाह और बुराई से भागकर आई हैं और दूसरे के गुनाह का उन पर क्या दोष?’ दूसरी तरफ़ मुसलमानों को देखिये. अनीस  बता रही हैं कि वे खुद अपनी लड़कियों की तलाश करते कराते और जब मिल जातीं तो ख़ुशी-ख़ुशी अपना लेते. तुम्हारी बात ठीक है अनीस, लेकिन जब जमीला हाशमी बनवास जैसी कहानी लिखती हैं तो लगता है कि बंटवारे की औरतों के दुःख दर्द लगभग एक जैसे थे. तुमने खुद लिखा है कि पंजाब की मुसीबतजदा लड़कियां और यहाँ की तबाहहाल औरतें सबकी दास्ताँ एक थी. अच्छा ‘माल’ पुलिस और फ़ौज में बंटता, कानी खुदरी बाकी सबको मिलतीं. और फिर ये लड़कियां एक हाथ से दूसरे और दूसरे से तीसरे हाथ तक पहुंचतीं हुई चार-पांच जगह बिककर आखिर में होटलों की शोभा भी बनतीं या किसी मकान में पुलिस के अफसरों को तफ़रीह के लिए महफूज़ कर दी जातीं. बेगम अनीस तुमने कई जगह इन औरतों को माल या गल्ला कहा है.

‘कितने पाकिस्तान’ की सरदार बूटा सिंह और जैनब की कहानी को क्या प्रेम कहानी कहा जा सकता है? ‘पिंजर’ की पूरो क्या कभी रशीद के प्रेम को स्वीकार कर सकती है? प्रेम के बहाने इन स्त्रियों का हश्र क्या हुआ? जैनब जरूर बूटा सिंह को छोड़कर अपने खोये परिवार को पा गयी थी. पर वह बूटा सिंह से प्रेम कैसे कर सकती थी. उर्वशी बुटालिया ने जैनब के प्रछन्न इतिहास को ढूंढ़ते हुए जैनब की प्रेम कहानी की तहों तक जाने की कोशिश की है और सिद्ध किया है कि सारा मामला प्रेम का नहीं संपत्ति का था. ‘ख़ामोशी के उस पार’ किताब में यह दर्ज़ है.

कमला बेन पटेल भी लगभग वही कहानी कहती हैं जो अनीस कहती हैं या जिन्हें उर्वशी और ऋतु मेनन और कमला भसीन ने अपनी किताबों में संकलित किया है.

गांधी से यह किताब शुरू होती है. बंटवारे में औरतों का दर्द गांधी की पीड़ा से जाकर जुड़ता है जो कहा करता था कि ‘मैं अगर स्त्री होता.’

नवंबर 1947, शरणार्थियों का जैसे तांता लग गया था और अपहृत स्त्रियों की ख़बरें तेज़ी से आने लगी थीं. मृदुला साराभाई ने राजा गजनफर अली खान से इस पर संवाद स्थापित किया था जो पाकिस्तान के राहत एवं पुनर्वास मंत्री थे. परिणामस्वरूप 6 दिसम्बर, 1947 को लाहौर में एक कांफ्रेंस रखी गयी. दोनों देशों के जरूरी अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसमें शिरकत की. लापता लड़कियों को लेकर एक अग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किये गए. 7 दिसंबर को अपनी प्रार्थना सभा में गांधी ने इस पर अपनी राय रखी. कमला पटेल ने इसे रेखांकित किया है–

“आज मैं एक नाज़ुक मामले पर बोलने जा रहा हूँ. कल हिंदुस्तान से कुछ स्त्रियाँ लाहौर सम्मलेन के लिए गयी थीं. मुस्लिम स्त्रियाँ भी वहां थीं. दोनों देशों की अपहृत स्त्रियों को लेकर इस सभा में चर्चा हुई. इतनी बड़ी समस्या ऐसे कैसे सुलझाई जा सकती है? अटकलें लगाई जा रही हैं कि पाकिस्तान में हमारी पच्चीस हज़ार हिंदू-सिख स्त्रियां अगवा हैं और उनकी तकरीबन बारह हज़ार यहां हैं. कुछ का मानना है कि बढ़ा चढ़ा कर इसे दिखाया जा रहा है. अगर संख्या बहुत कम भी हो तो इससे क्या फर्क पड़ता है, मेरी निगाह में एक स्त्री का अपहरण भी शर्मनाक है. ऐसा क्यों होना चाहिए? हिंदू, मुस्लिम सिख आधार पर अगर स्त्री पुरुष की हवस का शिकार बनती है तो इससे बड़ा और क्या दुराचार होगा? लाहौर में इन स्त्रियों को घर लौटा लेने के लिए, इस पेचीदा मसले को सुलझाने की कोशिश हो रही है. राजा गजनफर अली खान के साथ कई अन्य दिग्गज वहां थे. रामेश्वरी नेहरू और मृदुला बेन ने मुझे सूचित किया किया है कि एक प्रस्ताव पास हुआ है जिसके तहत सबसे पहले इन अगवा औरतों को तलाश किया जाएगा. दोनों देशों से कुछ स्त्रियां पुलिस और फौजियों की हिफाज़त में पाकिस्तान और पूर्वी पंजाब जाकर इस काम को पूरा करने की कोशिश करेंगी. मुझे यह फैसला मुकम्मल नहीं लगता. कई अफ़वाह है कि कई स्त्रियां अपने परिवारों में लौटना नहीं चाह रहीं. उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया है और उनमें उनकी शादियां हो गईं हैं. इन कहानियों पर मेरा यकीन नहीं. किसी धर्म विशेष के लिए ऐसी बातें यकीन लायक नहीं और न ही ऐसी शादियां कोई कानूनी अर्थ रखती हैं. इन स्त्रियों के साथ वेश्याओं की तरह सुलूक हो रहा है. गजनफर अली ने खुद कहा कि दोनों देशों में यह अपराध हो रहा है. यह वक्त नहीं कि हम यह देखने बैठें कि पहल किसने की और किसने अधिक स्त्रियां अगवा की. जरूरत इस बात की है कि इन्हें सम्मान इनके घर लौटाया जाए. इन्हें कैद से छुड़ाया जाए. मेरी राय में पुलिस और फौज इसमें अधिक कुछ नहीं कर सकते. केवल सरकारें इसे कर सकती हैं. ऐसा मत सोचिएगा कि मैं दोनों सरकारों पर दोषारोपण कर रहा हूं. पाकिस्तान के मुसलमान और हिंदुस्तान के हिंदू-सिखों जिम्मेदार हैं. इनसे हमें स्त्रियों को वापिस लेना है. परिवारों को खुले हृदय से इन्हें अपनाना होगा. इसमें इन स्त्रियों का कोई दोष नहीं. कुछ बदमाशों ने उन्हें असहाय अवस्था में पहुंचा दिया है. इन्हें अस्वीकार करने का समाज को कोई हक नहीं. ऐसा कहना अन्याय की पराकाष्ठा है.

पुलिस और फौज दोनों में से कोई यह भगीरथ प्रयत्न नहीं कर पाएगा कि ये पच्चीस हज़ार या बारह हज़ार औरतें घर लौटाई जा सकें. उनकी सामर्थ्य के बाहर है ये.  अहम बात है कि लोक मत तैयार किया जाए. दुष्कृत्य करने वाले पुरुषों की संख्या अपहृत औरतों जितनी तो रही होगी. क्या ये सभी गुंडे थे? मेरा मानना है कि उन्माद ने इन्हें गुंडा बना दिया. अभी दोनों देशों की सरकारें कमज़ोर हैं. अभी उन्होंने इतनी ताकत अर्जित नहीं की है कि वे बिना विलंब इन गुमशुदा औरतों को ढूंढ़ निकालें. अगर ऐसा नहीं है तो पूर्वी पंजाब में यह नौबत ही कैसे आई?  तीन माह की आज़ादी में भला इतनी ताकत कैसे होगी? यह जुमला फेंक कर भी अपनी बहनों को नहीं बचा सकता कि यह सब पाकिस्तान का किया धरा है, उसका बोया विष बीज है. मेरी यही सलाह है कि दोनों सरकारें मिलकर अपनी पूरी सामर्थ्य से इस समस्या का निराकरण ढूंढें और उनके अधिकारी अपना जीवन समर्पित करने के लिए तैयार रहें. केवल यही एक रास्ता बचा है.”

गांधी तुम एकदम सही दिशा में देख रहे थे. इसलिए तुमने स्त्रियों को अधिक काबिल माना और बहुत सारी स्त्रियाँ इस काम में जुट गयीं. किताब पढ़कर मुझे यह नहीं पता चला कि वह तुमसे कभी मिली थी भी या नहीं, लेकिन वह यहीं गांधी आश्रम में प्रशिक्षित हुई थीं. नमक तोड़ो आन्दोलन में उनके पिता अस्सी सत्याग्रहियों में एक थे, जिन्हें गांधी ने चुना था. मृदुला साराभाई ने उन्हें लाहौर के लिए चुना था. यह बहुत चुनौतीपूर्ण काम था. कमला ने इसे पूर्ण निष्ठा और साहस से किया. बंटवारा एक साइकोलॉजिकल संकट भी था. एक साथ इतने सारे मन ‘टोबा टेक सिंह’ हो चुके थे. कमला को मैं मात्र सामाजिक कार्यकर्त्ता मानकर नहीं पढ़ सकती. चौंतीस साल की स्त्री और निपट अकेली लाहौर के गंगाराम अस्पताल में अपने बिस्तर-बंद और थोड़े से सामान के साथ खड़ी थी. अस्पताल क्या था..एकदम निर्जन और केवल ऊंची दीवारों का परकोटा. वह लड़की अपने सामान के साथ खड़े हुए सोच रही थी कि यहाँ जो मरीज़ थे, उनका क्या हुआ? क्या हुआ उनका? और वह भयभीत सी खुद में सिमट गयी थी. फिर धीरे-धीरे वह अपने भय से मुक्त होने लगी और दूसरों के दर्द पर मरहम लगाने के लिए तत्पर हो गयी. लम्बे-चौड़े पंजाबी जब उसके सामने फफ़क-फफ़क कर रोने लगते तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती. 1952 में वह हिंदुस्तान लौटी.

कमला की किताब और कृष्ण बलदेव वैद की ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ बार-बारी से मुझ पर खुलते हैं. वे अंतिम पंक्तियाँ मुझे कैद कर रही हैं–

लेकिन जब मैं वहां पहुंचा तो उस कोने में कुछ भी नहीं था. सिवाय एक लावारिस बच्चे के जो अकेला और नंगा पड़ा तड़प रहा था. देश की आज़ादी और अज़ाब से बेखबर. खून के छोटे से तालाब में. उसकी आँखें मुझ पर जम गयीं थीं. मैं अपने डगमगाते पैरों पर खड़ा झूलता हुआ उसकी आँखों में झांकता रहा था. आखिर उसकी तड़प ख़त्म हो गई थी. और मैंने उसके पास बैठ रोना शुरू कर दिया था. पता नहीं क्या गांधी रो रहा था? गांधी रो रहा है?

 

डॉ. अपर्णा मनोज
कविताएँ, कहानियां, आलेख और अनुवाद प्रकाशित
aparnashrey@gmail.com

Tags: 20222022 विशेषगांधी और औरतगांधी सप्ताह
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Comments 12

  1. मोहन शर्मा says:
    6 months ago

    ‘भारतीय स्त्रियों ने सदियों बाद ऐसा ‘पुरुष’ देखा था जिनके साथ वह अपने को सहज पातीं थीं.’ अरुण जी बहुत महत्वपूर्ण बात आपने कहीं है इस नज़र से कभी सोचा नहीं था.

    Reply
  2. Ravi Ranjan says:
    6 months ago

    गांधी पर नए सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित करने में समर्थ संवेदन आलेख के लिए अपर्णा जी को साधुवाद।

    Reply
  3. राजेन्द्र दानी says:
    6 months ago

    स्त्रियों पर गांधी जी के अविस्मरणीय विचार पढ़ने मिले । स्त्रियों को यह जानकारी ज्यादा से ज्यादा पहुंचे तो बहुत उपयोगी होगा । अपर्णा जी ने बेहद सराहनीय लिखा ।

    Reply
  4. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    6 months ago

    यह गांधी सप्ताह बहुत अच्छा चल रहा है| एक से एक बढ़िया प्रस्तुतियाँ हैं| अभी मनन साहब का संस्मरण मन में धूम रहा था कि आज अपर्णा जी का यह आलेख विचार आंदोलित कर गया| गांधी में स्त्री पर चर्चा होती रही है और यह सत्य है कि पुरुष का पौरुषीय विकास तभी है जब उसके अंदर स्त्री सांस लेती है|
    1947 पुरुष के पौरुषीय विकास और नर-पशु रूप के संघर्ष का एक प्रतीक है जिसमें पौरुषीय विकास के आरंभिक अवस्था में होने के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं|
    ऐसे समय में गांधी उचित ही स्त्रियों की तरफ देखते हैं| मैं स्त्री श्रेष्ठता की बात नहीं मान्यता परंतु यह स्पष्ट है कि स्त्रियों में मानवीय संवेदना स्वाभाविक रूप से अधिक होती है, अगर वह उन्हें मार न दें| गांधी को समझने के क्रम में यह बढ़िया प्रस्तुति है|

    Reply
  5. धनंजय वर्मा says:
    6 months ago

    अपर्णा मनोज का आलेख सहेज कर रखने वाला है.आविष्ट् करने वाला,स्त्री विमर्श को नई दिशा देने वाला सदानंद शाही की कविताएँ अपनी सरलता और सादगी में बेजोड़ हैं.

    Reply
  6. नवल शुक्ल says:
    6 months ago

    अपर्णा जी ने संदर्भों को अपना बनाते हुए ,इतने अच्छे ढंग से विषय पक्ष और अपने पक्ष को लिखा है कि उन तक मेरा अभिवादन पहुंचे।बहुत सलीके से,जेंटल अप्रोच और बौद्धिक संवाद की तरह।

    Reply
  7. सुरेन्द्र मनन says:
    6 months ago

    विचारोत्तेजक आलेख l संदर्भ और टिप्पणियां सोचने की नई राह खोलती हैं l

    Reply
  8. Dr Chaitali sinha says:
    6 months ago

    बहुत सुंदर और तार्किक दृष्टि। नवीन तथ्यों से अवगत हुई इस आलेख को पढ़ने के बाद। गांधी को अभी और भी पढ़े और गढ़े जाने की आवश्यकता है। गांधी एक व्यक्ति नहीं विचार हैं। आपको साधुवाद।

    Reply
  9. Anonymous says:
    6 months ago

    समालोचन ने अपने सृजनशील अंक में मुझे शामिल किया, मैं आभारी हूं। मंजरी जी से यह यात्रा शुरू हुई। कस्तूरबा देखिए अपने ही घर में कब ठीक से जानी जा रही हैं? कल्पित जी का दास्तान ए कत्ल ए गांधी जितना मार्मिक था उतना लिरिकल। गांधी चरखा चला रहे हों और उनके समीप बैठकर कोई दास्तान गा रहा हो। आवाज़ें समवेत गूंज रही हों। सुरजीत कुमार जी, स्त्री दर्पण तो हम स्त्रियों के लिए हमेशा से अलग मायने रखता है। सुरेंद्र मनन जी क्रिस्तान पर संस्मरण गहरी छाप छोड़ गया। चरखा तो मेरी पीढ़ी के लिए भी कौतुक है। जिन दिनों मैं झीनी झीनी बीनी चदरिया पढ़ रही थी, कई बार गांधी आश्रम गई। शायद वहां मुझे इंकलाब मिले? इंकलाब ढूंढने की चीज़ हो गया है। समालोचन को पुनः बधाई और शुभकामनाएं।

    Reply
  10. सुरेश थुवाल says:
    6 months ago

    अपर्णा जी आपने गांधी जी का महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण प्रभावपूर्ण तारीके से अभिव्यक्त किया है।
    बहुत बहुत साधुवाद।
    इस प्रकार के लेख आज़ की पीढी को गांधी जी को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगी

    Reply
  11. Hemant Deolekar says:
    6 months ago

    युद्ध हों या दंगे, इंतकाम औरतों से ही लिया गया। राजनीतिक, सामाजिक उथल पुथल उन पर ही कहर बनकर टूट पड़ी। देश के बंटवारे का अध्याय भी दोनों तरफ़ ऐसी ही बर्बरता से भरा पड़ा है। स्वतंत्रता से पहले महासंघर्ष का दौर और उसके बाद आज़ादी के गर्व की बेला में अमानवीयता के ये काले पृष्ठ अक्सर ही दबे छिपे रह जाते हैं। गांधीजी जैसे महात्मा व्यक्ति से ही मनुष्यता उम्मीद कर सकती थी कि यह हिंसा रोकी जाए। भाईचारा , सद्भाव फिर कायम किया जाए। बहुत ही झकझोरने वाला आलेख। अपर्णा जी को साधुवाद। समालोचन का शुक्रिया।

    Reply
  12. Prof Garima Srivastava says:
    6 months ago

    बेहद समृद्ध लेख के लिए अपर्णा जी को बधाई

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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