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समालोचन

Home » गांधी और स्त्रियाँ: रूबल से  के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत  

गांधी और स्त्रियाँ: रूबल से  के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत  

गांधी सप्ताह के इस समापन अंक में आप युवा अध्येता रूबल और लेखिका के. मंजरी श्रीवास्तव की गांधी और स्त्री-प्रश्न पर यह बातचीत पढ़ेंगे. गम्भीर है और कुछ नयी बातें निकल कर आयीं हैं. इस तरह से समालोचन ने गांधी सप्ताह के अंतर्गत आठ एकल अंक प्रकाशित किये जिनमें विविधता है, नवोन्मेष है. गांधी के प्रति अध्येताओं में रुचि फिर से जगी है, रचनात्मक माध्यम में कार्यरत लोग उन्हें तरह-तरह से लिख रहें हैं. यह आयोजन आपको कैसा लगा. आपकी प्रतिक्रियाएं भी इस आयोजन का अनिवार्य हिस्सा हैं.

by arun dev
October 9, 2022
in विशेष
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गांधी और स्त्रियाँ: रूबल से  के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत  
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गांधी और स्त्रियाँ
रूबल से  के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

1.
आपके शोध का विषय है ‘फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया‘. इसमें गांधी कहाँ जुड़ते हैं


  

अपने शोध के दौरान मैंने पाया कि स्त्री चाहे वह फिलिस्तीन में रहती हो या इजरायल में, दोनों का जीवन एक सूत्र में बंधा हुआ है. वह सूत्र जो उसे उसके स्वतंत्र मनुष्य होने की निम्नतम श्रेणी से भी वंचित करता है. थोड़ा और आगे बढ़कर देखने पर मैंने यही भारतीय स्त्री के संदर्भ में भी पाया.

गांधी स्त्री-जगत को उसकी मनोवैज्ञानिक बारीकियों के साथ पहचानते थे. गांधी की स्त्री किसी एक देश की स्त्री नहीं है, वह हर जगह है. एक तरह से कहूँ तो मेरे शोध के दौरान ही गांधी कहीं धीमे-धीमे मुझमें चल रहे थे. सच पूछिए तो मैं ‘गांधी’ पर बात अब कर रही हूँ आपसे पर मैं मन ही मन न जाने कबसे ‘गांधी’ से विभिन्न मुद्दों पर बात करती चली आ रही हूँ.

 

२.
आधुनिक भारतीय इतिहास में गांधी से पहले जो स्त्री-प्रश्न थे उन्हें भारतीय विचारक और बुद्धिजीवी किस तरह देखते थे?   

 

आधुनिक भारतीय इतिहास में ‘स्त्री–प्रश्न’ एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है. इस बात की पुष्टि इस तरह से भी की जा सकती है कि अंग्रेजी उपनिवेशवाद से लड़ने के लिए जितने भी सांस्कृतिक प्रतिरोध भारतीयों द्वारा रचे गए उनमें स्त्री-प्रश्न को प्रमुखता दी गयी. लेकिन यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि स्त्री-प्रश्न की भारतीय वैचारिक संरचना की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश उपनिवेश के द्वारा स्थापित किये गए स्त्री-प्रश्न भी थे. इन प्रश्नों को चुनौती देना वर्चस्व की राजनीति को चुनौती देना था.

औपनिवेशिक शासन की राजनीति ने भारतीय सभ्यता के पतन को स्त्री की स्थिति से जोड़ कर दिखाया. एक गरिमामय सभ्यता और देश को उसकी गरिमा वापिस दिलाने के लिए अंग्रेजों ने स्त्री मुक्ति के प्रश्नों का खूब इस्तेमाल किया. ऐसा करते हुए उन्होंने भारतीय समाज को एक ऐसे कारखाने में बदल दिया, जहाँ वे कोई भी कलपुर्जा ठीक या ख़राब कर सकते थे. इस व्यवस्था के अन्दर भारतीय स्त्री को कलपुर्जे के तौर पर चुनकर, भारतीय समाज की मरम्मत वे  अपनी शर्तों के अनुसार करते रहे.

इसी के प्रतिउत्तर में भारतीयों के स्त्री-प्रश्न का आधार निर्मित होता है. इसकी शुरुआत भारतीय समाज में धीरे-धीरे बौद्धिक प्रतिबद्धता से होती है, जो औपनिवेशिक  पौरुषेय राजतन्त्र के आतंक से भारतीय समाज और उसके सम्मान को बचाना चाहती थी.

भारत में स्त्री से जुड़े सवालों को जोरदार आवाज़ में उठाने वाले उन्नीसवीं सदी के भारतीय विचारक और समाज सुधारक थे. लेकिन ये सब एक हद तक यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय परम्परा के घेरे में ही प्रश्नों और उनके समाधानों के लिए सीमित प्रयास करते दिखे. इन सुधारकों में स्त्री के प्रति सहानुभूति जरूर थी मगर स्त्री के प्रति जो अंग्रेजों का नज़रिया था, जो आधुनिक दृष्टि थी उसके प्रति वे उदासीन थे. स्त्री उनके लिए एक माध्यम थी, जिससे वो अंग्रेजों को जवाब दे सकते थे. वहां स्त्री थी ही नहीं सिर्फ उसका विमर्श था. इस विमर्श में स्त्री की भागीदारी नहीं थी, उनको साथ लेकर उनके विषय में सोचा नहीं जा रहा था. उनका लक्ष्य स्त्री के माध्यम से राष्ट्र की चेतना का विकास करना था. स्त्री परियोजना का हिस्सा थी, मगर उसमें शामिल नहीं थी. ऐसा कहना इसीलिए अतिवाद नहीं होगा कि स्त्री प्रश्न को गढ़ने  के लिए स्त्री थी ही नहीं. उन्नीसवीं सदी के सामाजिक सुधारों की सबसे बेशकीमती उम्मीद जिसपर आश्रित हो भारतीय समाज आधुनिक बनने और वर्चस्व से टक्कर लेने की कोशिश कर रहा था, उसमें स्त्री होकर भी शामिल नहीं की गयी.

महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर भारत में स्त्री प्रश्नों को समझने की दृष्टि में परिवर्तन होना शुरू हुआ. इस बात को लेकर ज्यादातर विद्वानों में विवाद नहीं हैं कि गांधी की वजह से स्त्रियों को बाहर की दुनिया में एक सशक्त पहचान मिली. राष्ट्रवाद के वृहत्तर आईने में स्त्री की उपस्थिति गांधी के प्रयत्नों से बढ़ी. कई विद्वानों ने गांधी को पूर्ववर्ती सुधारवादियों से अलगाते हुए यह दिखाने की कोशिश की है कि गांधी अपने समय की स्त्री को पहचान रहे थे. भारतीय समाज में उसकी भागीदारी को तलाशते हुए राष्ट्रवादी संघर्ष में उसकी भूमिका सुनिश्चित कर रहे थे. गांधी स्त्री को उसकी अपनी पहचान देने में यकीन करते थे, ऐसी पहचान जो किसी के संरक्षण पर निर्भर न होकर खुद से बनती है.

ज्यादातर का तर्क है कि गांधी ने स्त्रियों को पिछले सुधारवादियों की तरह समस्या या वस्तु की तरह नहीं देखा. गांधी के लिए स्त्री अपने जीवन की नियति खुद संभाल सकती थी उसे किसी दूसरे से सुधार की अपेक्षा नहीं थी. इस सन्दर्भ में विद्वानों ने पूर्व सुधारवादियों से गांधी को पूरी तरह से अलगाया है. गांधी के सन्दर्भ में यह प्रश्न पूछना जरूरी लगता है कि गांधी स्त्री की भूमिका को किस रूप में देख रहे थे?  स्त्री को लेकर गांधी की क्या योजनाएं थीं ? क्या गांधी स्त्री प्रश्न को भारतीय राष्ट्रवाद के दायरे में देख रहे थे? बीसवीं शताब्दी तक आते-आते स्त्री का प्रश्न समाज का एक जरूरी प्रश्न बन गया था, ऐसे में गांधी के समक्ष भी स्त्री का प्रश्न निश्चित रूप से रहा होगा. परन्तु गांधी के लिए ये चुनौती थी कि राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को पौरुष में बदलने के बजाय स्त्री चेतना से किस तरह अंतर्भूत किया जाये?

महात्मा गांधी के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न, उस प्रतिरोध के पक्ष में खड़ा होना था- जहां से व्यक्ति और समाज के अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई शुरू होती है. गांधी अस्तित्व के इस बुनियादी प्रश्न को अपनी दृष्टि में आत्मसात कर रहे थे. इसलिए यह प्रश्न उनके वजूद, उनके व्यक्तित्व, उनकी अंतर्दृष्टि और उनके विचार सब में स्वाभाविक तौर पर विन्यस्त था. स्त्री के सन्दर्भ में गांधी की इसी दृष्टि को देखा जाना अपने आप में समाज के बुनियादी प्रश्नों से रूबरू होने जैसा है. यहां भारतीय स्त्री कहना उस विस्तृत दायरे को छोटा कर देने जैसा है जिसके तहत गांधी स्त्री और उससे जुड़े संसार को देखने समझने की कोशिश कर रहे थे. गांधी के लिए स्त्री का सवाल कोई बाहरी या किसी और का सवाल नहीं था. उनका अपना सम्पूर्ण जीवन, स्त्री और उसके समाज के साथ अपने वजूद को तलाशने जैसा था. एक गतिशील जद्दोजहद.

 

3.
गांधी स्त्री को किस तरह से देखते थे? यह देखना अलग कैसे है ?

 

गांधी के अनुसार स्त्री का संसार एक झूठी नैतिकता से भर दिया गया है. जहाँ व्यक्ति समाज रूपी मुखौटा चढ़ाये मनुष्यता को ऐसे कर्मकांडो में बदल देता है, जिसमें सामाजिकता के नाम पर सिर्फ झूठी नैतिकता बची रहती है, जो उसे एक छद्म मनुष्य होने का बोध तो देती है पर असल में वह उसे गुलामी और परतंत्रता में बांध कर रखती है. इसी संवेदना शून्य सामाजिकता में गांधी, स्त्री से जुड़ी हुई अस्मिता की बात करते हैं. यहाँ गांधी का स्त्री-चिंतन उसी मनुष्य की सतत परियोजना का हिस्सा है, जहाँ से उसकी नैतिकता का निर्णय लिया गया. अंतर सिर्फ यह था कि यह निर्णय समग्र मनुष्यता का निर्णय नहीं था. स्त्री इस समग्रता से बाहर कर दी गयी थी.

गांधी ने उसे बोलने के लिए आत्मविश्वास दिया. प्रतिरोध के स्वर में उन्होंने स्त्री को अपने साथ मिला लिया. यहाँ राष्ट्रवाद के साथ-साथ सालों से बनी नैतिकता के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करने का सवाल था.

गांधी स्त्री दृष्टि का एक ऐसा पाठ तैयार करते हैं, जो किसी भी पुराने पाठ से अलग था. वह अधिक समकालीन, व्यवहारिक और समृद्ध था. यहाँ स्त्री-दृष्टि को किसी वाद में नहीं बांधा गया, यहाँ एक मनुष्य के तौर पर स्त्री थी. उसका स्वतंत्र विकास था. उसकी नई बनती हुई सामूहिक और सांस्कृतिक चेतना थी. स्त्रीवाद की मंजिल दूर थी.

ऐसा नहीं है कि गांधी का स्त्री से जुड़ा यह पाठ किसी भी अन्तर्विरोध के बगैर रचा गया. गांधी की अपने पूर्ववर्ती सुधारवादियों से भिन्न भूमिका निर्धारित करने के बाद भी गांधी पर स्त्री को एक विशेष परिधि में रखने की उनकी मानसिकता पर सवाल खड़े किये जाते रहे. माना जाता रहा कि गांधी अपने सामाजिक परिवेश से कभी बाहर आ ही नहीं पाए.

गांधी और स्त्री को एक साथ पढ़ते हुए यह बात बार-बार सामने लायी जाने लगी कि गांधी स्त्रैण-शुचितावाद के सबसे बड़े समर्थक रहे और उनका किसी भी प्रकार का स्त्री-मुक्ति का प्रश्न उसी शुचितावाद के चारों ओर चक्कर लगाता रहा. एक और आरोप गांधी पर लगता रहा कि स्त्री की मुक्ति से सम्बन्धित गंतव्य चाहे बहुत बड़ा रहा हो, लेकिन गांधी की सामूहिक स्त्री-चेतना की लहर का बड़ा हिस्सा अभिजन समाज की स्त्री के लिए ज्यादा उपयोगी साबित रहा. माना जाता रहा कि गांधी कुछ खास वर्ग की ही चिंता में अपने प्रश्नों का हल ढूंढते रहे. अर्थ और अभ्यास का यह मिश्रण गांधी को विक्टोरिया युग के गांधी कहने से भी गुरेज नहीं करता.

इसी के साथ-साथ गांधी के अपने निजी जीवन से भी विद्वानों ने उनके और स्त्रियों के साथ उनके संबंध को अपने रडार पर रखा. यहाँ निजता के प्रश्न के साथ गांधी के स्त्री के साथ सामाजिक संबंधों को बार-बार परखा और व्याख्यायित किया गया. और कुछ इस तरह गांधी से जुड़े स्त्री पाठ को अत्यंत सुविधापूर्ण तरीके से पढ़ने का क्रम सा चल निकला. जहाँ ये पहले ही मान लिया गया कि गांधी अपने जाति और सामाजिक चरित्र से स्त्री को कभी दूर नहीं ले जा सके. उनके नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में स्त्रियों की भागीदारी का स्वरूप उसी चरित्र से बल पाता है.

सामान्यतः गांधी के साथ स्त्री प्रश्नों को उठाते हुए ज्यादातर विद्वान गांधी को शुद्ध राजनीति से प्रेरित पाते हैं. कई बार गांधी को स्त्री मुक्ति के नाम पर भारत की स्वतंत्रता पर ज्यादा आश्रित दिखाया गया. उनका समूचा स्त्री से जुड़ा जीवन-बोध उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता का एक अवयव मान लिया गया और गांधी को स्त्री के सामाजिक प्रश्नों से तटस्थ होकर दिखाया गया.

जब गांधी अपने अलग-अलग तर्कों से स्त्री को उसी सामाजिक बेड़ियों से बाहर लाने की कोशिश करते हैं तो उनपर आरोप लगता रहा कि उनकी कोई भी कोशिश स्त्री के सामाजिक चरित्र में उतनी आक्रामक तरीके से सेंध लगाती नहीं दिखाई पड़ती. इसी बात को कई विद्वानों ने रेखांकित भी किया है कि गांधी स्त्री को मुक्त करने की बात कहते हुए भी उसे मुक्ति की वो स्वतंत्रता नहीं देते जितना भारतीय स्त्री अपने लिए चाह रहीं थी.

उनके अनुसार गांधी स्त्री को एक सीमा के अंदर ही अपना विकास करने की छूट देते हैं फिर उसका सारा भार पुरुषों को सौंप देते हैं. कुछ विद्वानों की बात मानी जाये तो गांधी स्त्री को एक स्वतंत्र मनुष्य मान रहे थे, लेकिन उसे उतना परिपक्व न मान मुख्य धारा से जोड़ने में कुछ हिचकिचा रहे थे. निजता के सवाल में अक्सर गांधी को ब्रह्मचर्य  के साथ उनके राजनीतिक जीवन से जोड़कर देखा जाने लगा, उनकी स्त्री से जुड़ी मानसिकता को इसी तराजू पर तोला जाने लगा.

लेकिन यहां यह कहना जरूरी लगता है कि गांधी का कोई भी कदम अकेले आदमी के लिए उठाया गया कदम नहीं होता था, उसमें सम्पूर्ण समाज जुड़ा होता था. गांधी अकेले ब्रह्मचर्य का विकास नहीं कर रहे थे, वह अपने समाज को भी उतना ही प्रभावित कर रहे थे. कहने को गांधी द्वारा दिया गया ब्रह्मचर्य समाज के चरित्र पर थोपा हुआ दिखता तो है पर गांधी के अनुदित नियमों में उनका ब्रह्मचर्य किसी एक इन्द्रिय शुद्धता का सिद्धांत नहीं था. वहां समाज की परिकल्पना एक बोध से निर्मित होती है, जिसमें समाज का सामाजिक चरित्र उसके शारीरिक बोध से न होकर मनुष्य के स्वाभाविक मानवीय रिश्तों से बनता है. गांधी का ब्रह्मचर्य असल में स्वतंत्रता की एक शुरुआत थी जहाँ से स्त्री भी अपने जीवन के निर्णय खुद कर सकती थी.

इस पूरे विमर्श को पढ़ा जरूर गया लेकिन इसमें गांधी के दो बिल्कुल विपरीत पक्ष के साथ दखल दी गयी. एक, जिसमें गांधी को अपने राजनीतिक लक्ष्य के लिए अपने आप को साधने के लिए ब्रह्मचर्य का उपयोग करने की बात रखी गयी. यहां गांधी को किसी एक साथ नहीं वरन पूरे समाज के लिए खुद को समर्पित करने का कारण ढूंढा गया. दूसरा पक्ष गांधी की मानसिक विक्षिप्त अवधारणा को उजागर करने के लिए तैयार किया गया.

यहां गांधी अपने ब्रह्मचर्य के आड़ में कुछ ऐसी भूलें करते दिखते रहें जिससे उनके अपने अंतिम दिनों के मानसिक दिवालियापन का संकेत मिलता है. कुल मिलाकर दोनों ही पक्ष गांधी के ब्रह्मचर्य को एक विशिष्ट स्थिति से पढ़ते रहें है. एक ओर गांधी इससे महात्मा बन गए तो दूसरी जगह एक सनकी वृद्ध जिसकी सुनना भारत ने काफी समय पहले छोड़ ही दिया था और फिर इन्हीं दो विपरीत प्रभाव में गांधी के ब्रह्मचर्य को विस्तार दिया गया.

गांधी की प्रतिबद्धता को इन्हीं दो विपरीत ध्रुवों से एकाकी किया जाता रहा. एक ओर जहां गांधी अपने आप को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए अपने शरीर के साथ कुछ प्रयास करते दिखाए गए है जिसकी परिणति उनके एक प्रतिबद्ध राजनीतिक पक्ष के साथ खत्म होती है वहीं दूसरी ओर गांधी के चरित्र की ये विशेषताएं उनके मानसिक परेशानियों और त्रुटियों के साथ उल्लिखित की गयीं. दोनों में ही गांधी के व्यक्ति विशेष को सबसे प्रमुख रखा गया. जहाँ एक ओर गांधी सिर्फ अपना विकास करते दिख रहे थे, सिर्फ अपने आप को सिद्धहस्त करते दिखाई दे रहे थे जहाँ माना जाता रहा कि इस पूरे ब्रह्मचर्य का प्रयोजन उनके मानसिक व शारीरिक तत्वों का एक विकास ही है. वही दूसरी ओर ब्रह्मचर्य गांधी के लिए एक सनक और विकार की तरह देखा गया जिसमें गांधी के चिंतन को इसके ऊबड़खाबड़ रास्तों से निकलता व मुठभेड़ करता दिखाया गया.

 

4.
गांधी का सबसे रचनात्मक प्रयोग क्या था
?

 

गांधी अपने समाज की हर उस अंधेरी कोठरी से परिचित थे जहां बहुत सारे सुधारवादियों का ध्यान उस तरीके से नहीं गया. गांधी इस बात से भलीभांति परिचित थे कि भारत का समाज दूसरे समाजों जैसा ही मुश्किल भरा है. और इस समाज के मनुष्य का मानस अपने आप में सबसे जटिल वस्तु है समझने के लिए. गांधी के द्वारा स्त्री के शरीर को उसके सामाजिक बंधन से मुक्त कराने की इसी कोशिश के कारण गांधी अपने साथ के लोगों से अलग हैं. उनकी अपनी योजनाएं थीं जिनसे वो सामाजिक तौर पर जुड़ना चाहते थे न कि सिर्फ राजनीतिक तौर से ऊपरी तह तक. और इसीलिए गांधी को मनोवैज्ञानिक कहना मुझे ज्यादा सही लगता है. वे समझ रहे थे कि जो समाज अपने बने बनाये रास्तों पर ही चलता रहता है उसमें बदलाव तो संभव है मगर ये बदलाव अचानक होनी वाली घटना नहीं होगी. इस बदलाव को उन्होंने लक्षित किया भी पर उसे प्रकट होने नहीं दिया.

वह अपनी योजना को किसी न किसी बहाने से समाज में सामने लाते थे और फिर अपने बाकी राजनीतिक प्रयोगों की तरह उसे वापिस खींच लेते थे. इस पूरे लक्ष्य को साध कर वापिस लेना गांधी का सबसे बड़ा रचनात्मक प्रयोग था. जिसे अंग्रेजी में Time Laging कहते है वहीं पर गांधी का सबसे ज्यादा ध्यान होता था. वह जानते थे कि समाज अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा है जहां आप अपने शत्रु को वो समझ रहे है जो सिर्फ बाहरी तौर पर दिखाई दे रहा है. जैसे ही ये शत्रु खत्म हो जाएगा समाज अपने को स्वतंत्र मान उन सभी मुश्किलों से फिर से घिर जाएगा जिसमें स्त्री सबसे गर्त में पिसती रहती है.

उनके पास ये वैचारिक द्वंद्व था कि स्त्री पुरुष संबंधों को लेकर जो वह भारत में एक सपना बुन रहे हैं वह कोई एक दिन या एक सीमित समय में यथार्थ नहीं बन सकता है. गांधी अपने समाज की सबसे विकट मानसिकता से बहुत अच्छे से परिचित थे जहाँ मनुष्य अपने आपको बाहरी परेशानी और डोमिनेशन ने दूर करते ही ताकत से बनाये हुए वर्चस्ववादी समाज में वापस लौट जायेंगे. और इस बार का लौटना पहले से ज्यादा ताकत से लैस उस पुरुष मानसिकता का लौटना होगा जो ताकत और सफलता के नशे में चूर होगा. गांधी की इस तरह से भारतीय समाज को देखने की दृष्टि उन्हें अन्य समाज सुधारकों/सुधारवादियों से अलग कर देती हैं.

 

5.
गांधी की  व्याख्या  होती रही है, हो भी रही है. उनमें अभी भी अपार संभावनाएं हैं.

 

वास्तव में गांधी ने कभी मुखर होकर स्त्री को आर्थिक आजादी के लिए लड़ने को न भी कहा हो पर उनका हर कदम स्त्री को इस योग्य बनाना था. गांधी ने भले ही पितृसत्तात्मक समाज पर सीधे उंगली न उठाई हो पर उनकी स्त्री से जुडी चिंताएं इसी दिशा में प्रतिबिंबित होती हैं. उनके लिए भारत का पूर्ण स्वाधीनता आन्दोलन स्त्रियों और हर उस हाशिये के लोगों के लिए सामाजिक आन्दोलन भी था जिन्हें उपनिवेशवाद के साथ-साथ अपने देश ने भी हाशिये पर धकेल रखा था.

सिर्फ यही नहीं, गांधी ने स्त्री और उससे जुड़े मनोविज्ञान को भी बारीकी से समझा. उपनिवेशवाद और देशी, दोनों ही सन्दर्भों में गांधी ने स्त्री को एक वस्तु के रूप में पाया. दोनों में स्त्री से जुड़ा विमर्श था पर स्वयं स्त्री नहीं थी. गांधी ने इस अप्रत्यक्ष स्त्री को उसकी अपनी लडाई में भागीदारी करने के लिए उसके और भारतीय समाज के मनोविज्ञान पर ध्यान लगाया.

गांधी ने स्त्री को सबसे पहले अपने बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया. उनका संवाद उस स्त्री से था जो अपने प्रश्न को अपने अनुसार सुलझाये. इसके लिए गांधी ने समाज के उस चरित्र पर बार-बार वार किए जो स्त्री को नैतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध कर बाहरी शत्रु से सामना करने के लिए उसे वस्तु के रूप में प्रयोग कर रहे थे. गांधी ने अपनी बहस की शुरुआत इसी बिंदु से की. उन्होंने स्त्री को स्वयं के लिए सोचने को कहा. यहाँ गांधी ने सिर्फ सामाजिक रूप में स्त्री को अपनी स्थिति साफ करने के लिए ही नहीं बोला, उन्होंने मानसिक रूप से भी उन्हें सबल बनने के लिए कहा.

गांधी के अनुसार स्त्री की वैचारिक बहस समाज से न होकर उसे उसके स्वयं के साथ पहले करनी चाहिए. जब तक स्त्री रूढ़ छवि से अपने दिमाग में स्वतंत्रता हासिल न कर ले तब तक गांधी के अनुसार ये सिर्फ एक ऊपरी बहस ही होगी.

गांधी ने स्त्री को पहली बार अपनी स्त्रैण (feminine) छवि के स्वतंत्र वजूद से संवाद करना सिखाया. उन्होंने स्त्री को स्त्री के रूप में उसके व्यक्तित्व का महत्व बताया. यहाँ उनकी स्त्री कोई वस्तु या प्रतिरोध की सामग्री नहीं थी बल्कि वह एक स्वतंत्र दिमाग की स्वामिनी थी. उनके लिए स्त्री न तो किसी ऐसे समूह का हिस्सा थी जिसका अक्स भारत के स्वर्णिम इतिहास से निकाली गई नायिका से मेल खाता हो और न ही वो ब्रिटिश लोगों द्वारा कुचले गए भारतीय समाज की नायिका थी जिसके पास भारतीय उपनिषद के साथ-साथ पश्चिमी शेक्सपियर का भी ज्ञान था. उनके लिए स्त्री किसी भी प्रतिरोध को अपने अनुसार रचने का माद्दा रखती है. गांधी की स्त्री प्रतिरोध रचती है लेकिन वह किसी और के रचे गए प्रतिरोध में वस्तु नहीं बनती. वहां स्त्री थी, जैसी वह है, न कि जैसे उसे समाज देखना चाहता था.

गांधी ने वस्तुतः स्त्रियों को बड़े पैमाने पर एक साथ संबोधित किया. देखने में यहाँ शहरी मध्यवर्ग और पढ़ी लिखी स्त्री की उपस्थिति ज्यादा प्रतीत होती हो, लेकिन गांधी के जीवन के प्रयोग हर उस मनुष्य को ध्यान में रख बुने गए थे जो दूर दराज भी स्वतंत्रता की आस लगाये बैठा हो. उनके लिए स्त्री उसी समाज का हिस्सा थी जिसका भविष्य औपनिवेशिक भारत में सबसे ज़्यादा अनिश्चित था.

उनके लिए भारतीय समाज की आजादी सिर्फ बाहरी बुराइयों से नहीं, उन सब द्वंद्वों से भी थी जिससे भारतीय समाज जूझ रहा था. ये द्वंद्व सिर्फ बाहर की दुनिया से नहीं जुड़े हुए थे, ये व्यक्ति के मानसिक संसार के भी सबसे बड़े प्रश्न थे. गांधी के लिए इन द्वंद्वों से निपटना न सिर्फ स्त्री–पुरुषों के बीच समानता के बीज बोना था बल्कि ये मानसिक रूप से भी समाज को स्वस्थ करना था. ये गांधी ने स्त्री के लिए नहीं किया बल्कि खुद के लिए किया.

गांधी और दूसरे सुधारकों में यही मूलभूत अंतर भी था. जहाँ दूसरों को स्त्री मुक्ति के प्रश्नों में दिलचस्पी समाज को कुरीतियों से बचाने और राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति में दिखती थी गांधी को ये सब स्वयं स्त्री के लिए जरूरी लगती है. उनके लिए बाहरी शत्रु से ज्यादा अपने अंदर की उस उलझन को समाप्त करना जरूरी था जिसके कारण व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को महसूस ही नहीं कर पाता.

गांधी ने स्त्री को उसके जीवन से जुड़ी रोजमर्रा की बारीकियों के साथ आगे बढ़ने का रास्ता बताया जिससे स्त्री रोज दो चार होती थी. चरखा और उसका प्रयोग इसी रौशनी में देखा जा सकता है. गांधी ने चरखे को घर-घर की जरूरत बताकर उस आख़िरी इन्सान को भी अपने साथ मिला लिया जिसके लिए राष्ट्र और देश से पहले उसके परिवार का भरण पोषण था. घर पर ही बंद रहने वाली स्त्री अब मानसिक तौर पर देश और राष्ट्र के साथ जुड़ सकती थी. आर्थिक रूप से आजाद होने का सपना देख सकती थी.

आज के सन्दर्भ में ऐसी पहल बहुत छोटी लग सकती है पर चाहे छोटे कदम ही हों लगातार आगे बढ़ने वाले कदम ही मंजिल तय करते हैं.  गांधी इन बातों को बहुत अच्छे से समझते थे.

अतः गांधी ने लैंगिक भेदों को असमानता का कारण नहीं बताया. असल में उनके लिए स्त्री और पुरुष शारीरिक रूप से भिन्न है किन्तु असमान नहीं. गांधी ने भारतीय समाज को स्त्री और पुरुष की बराबरी का सपना दिखाया. उन्होंने बार-बार आगाह किया कि जब तक मनुष्य स्वयं पर भरोसा करना नहीं सीखेगा तब तक किसी भी स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा.

गांधी को लेकर बहुत विचारकों को लगता है कि गांधी ने कभी भी स्त्री को मुखर होकर एक स्त्री आन्दोलन करने के लिए नहीं कहा. उनका मानना है गांधी सब कुछ राजनीतिक दृष्टि से ही करते थे और इसीलिए स्त्री कभी इसके बाहर नहीं जा सकी. गांधी वाकई कभी नारीवाद के मुखर चिन्तक नहीं रहे. गांधी के लेखन में कभी भी किसी नारीवाद की मुखर अभिव्यक्ति नहीं हैं लेकिन ये कहना भी गलत न होगा कि चाहे वह गांधी के रोजमर्रा की दिनचर्या हो, उनके आश्रम की जीवन शैली हो या स्वास्थ्य सम्बन्धी उनके विचार हों सभी के मूल में उनकी स्त्री चेतना की रचनाशीलता को देखा जा सकता है.

गांधी के जीवन में स्त्री की मुक्ति की आकांक्षा व आस्था दिखाई देनी मुश्किल नहीं हैं. इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि गांधी ने अपने आश्रम में कभी भी स्त्री को आने से नहीं मना किया, वे किसी जनसभा को संबोधित करें उसके लिए यह आवश्यक था कि ५० प्रतिशत स्त्रियों की भागीदारी उस जनसभा में हो. बीसवीं शताब्दी के भारत में जब स्त्री अपने घर से बाहर आने के लिए भी अपने घर के पुरुषों का मुंह देखती थी तब उनका गांधी के आश्रम आकर रहना कितना बड़ा कदम था. गांधी जानते थे कि किसी भी बात का महत्व इसमें नहीं हैं कि कोई आपको उसे अपने अनुभवों से समझाए बल्कि इससे है कि आप स्वयं उसे अपने अनुभवों से जानें.

गांधी का आश्रम सिर्फ एक आश्रम ही नहीं था, वह एक ऐसा साधन था जहाँ स्त्री और पुरुष जीवन अनुभव अपने तौर पर कर सकें. यहाँ जाति, धर्म की परम्पराएं उतनी जटिल नहीं थीं जितनी यहाँ आकर रहने वालों ने अपने घरों में देखीं थीं. यह गांधी का अपना अनोखा ढंग था जो सुधारवाद के भाषण के बजाये जीवन अनुभव पर आधारित था.

गांधी के जीवन में राजनीति की अवधारणा सतही नहीं थी. उनके सैद्धांतिक दृष्टिकोण को व्यावहारिक दृष्टिकोण से अलग नहीं किया जा सकता. उनके पास अनुभूत जीवन दर्शन था जिसपर किताबी ज्ञान की काल्पनिकता की बजाय अनुभव की प्रामाणिकता का प्रभाव अधिक था. उनके आश्रम में बारीक़ से बारीक़ बातों पर भी बातचीत की जाती थी. गांधी अपने आश्रम में रहने वाले स्त्री और पुरुष से उनके स्वास्थ्य से सम्बंधित प्रश्न पूछते रहते थे. ये सब कहने को बहुत मामूली बातें लग सकती हैं लेकिन इसने स्त्री को एक बड़ा आकाश दिया जो घर की चहारदीवारी से शत प्रतिशत बड़ा रहा होगा.

जब खुद गांधी बार-बार ये कहते रहें कि मेरा जीवन ही संदेश है तब क्यों हम गांधी को सिर्फ उनके लिखे से समझने की कोशिश करते हैं. ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि गांधी राजनीति और नैतिकता मिलाकर अपना विमर्श रचते थे. उनकी राजनीति नैतिक रूप से सजग थी. मेरा मानना है कि गांधी ने जितने रैडिकल तरीके से स्त्री के प्रश्न को जीवन अनुभव से सुलझाने की कोशिश की उसका कोई जवाब नहीं. कई-कई बार भारतीय समाज को गांधी अपने जीवन के माध्यम से स्त्री पुरुषों के संबंधों पर ध्यान और पुनर्मूल्यांकन करने का आग्रह करते दिखते हैं.

जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपने प्रयोगों से उन्होंने अपनी बात समाज के सामने रखने की कोशिश भी की पर उसमें भी वह सफल नहीं हो पाए. और शायद इसीलिए भारतीय समाज अपने सबसे ज्यादा रेडिकल चिंतक को उसके रेडिकल तरीकों के लिए नहीं और दूसरे कारणों से ज्यादा जानता है.

गांधी के बार-बार पढ़ने की आवश्यकता मुझे इसलिए महसूस हुई क्योंकि गांधी जितने रेडिकल थे उन्हें उनके उसी सन्दर्भ में समझा जाए. दूसरी बात आज भी भारत में या पूरे विश्व की ही बात करें तो स्त्रियों से जुड़े प्रश्नों और उनके समाधान के लिए गांधी आज भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहेंगे. इसलिए मुझे यह लगता है कि मेरे द्वारा ही नहीं समय-समय पर और भी लोगों द्वारा गांधी का पुनर्पाठ आवश्यक है. गांधी पर चिंतन-मनन होते रहना चाहिए.

यह कहना सर्वथा उचित होगा कि महात्मा गांधी को केंद्र में रख, काम करना चुनौती भरा है. चुनौती इसीलिए क्योंकि गांधी के जीवन व विचारों पर इतना अध्ययन हो  चुका  है कि किसी नए विचार को  पुनरावृति से बचाया नहीं जा सकता. फिर भी, यह भी सच है कि ऐसा कहकर हम गांधी को किसी एक वैचारिक घेरे में सीमित नहीं कर सकते. हर नए समय में महात्मा को समझने की चेष्टा होती रही है. ये उनके साथ-साथ देश और काल को भी समझने की कोशिश है.

यहाँ यह स्पष्ट रूप में कहा जा सकता है कि गांधी तक पहुँचने के मूलतः दो ही रास्ते हैं. जिसमें से पहला, गांधी के विचारकों के रास्ते गांधी तक पहुँचने का है और दूसरे की राह स्वयं गांधी द्वारा लिखे, संलग्न विचारों और लेखों से होकर निकलती है..

आपसे हुई यह बातचीत भी इन दोनों रास्तों से गुज़रती हुई एक तीसरे रास्ते पर जा अटकती है जहाँ साफ़ शब्दों में अंकित है गांधी का यह सन्देश कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है. इस बातचीत में आपके साथ साझा किये गए विचार इन्हीं तीन रास्तों से होकर यहाँ तक पहुंचे हैं. यह कहना सही नहीं होगा कि अब इसमें विचारों के परिवर्तन और विश्लेषण की कोई गुंजाइश नहीं. गांधी भी अपने सम्पूर्ण जीवन में परिवर्तन और विकास की बात करते रहे. यही अंतर-निरीक्षण आपसे हुई इस बातचीत का, इस बातचीत में व्यक्त मेरे विचारों का आधार है.
______________

उत्तराखंड के देहरादून में जन्मी रूबल हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप से लिखती हैं. उनके लेखन के केंद्र में गांधी और साम्राज्यवाद है. इन दिनों वे गांधी के चिंतन में स्त्री दृष्टि की पड़ताल कर रही है. फिलिस्तीन पर इजरायली उपनिवेशवाद की प्रक्रिया विषय पर उन्होंने जेएनयू से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है. फिलहाल केरल के एक कस्बे में रहते हुए वे स्वतंत्र लेखन कर रही हैं.
rubeljnu21@gmail.com

के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है.
manj.sriv@gmail.com

Tags: 2022के. मंजरी श्रीवास्तवगांधी और स्त्रियाँगांधी सप्ताहरूबल
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Comments 17

  1. मनोज रूपड़ा says:
    6 months ago

    ये आयोजन बहुत सार्थक था । गांधी के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार की जो आंधी चल रही है उसका रुख मोड़ने में इस आयोजन की भूमिका को याद किया जाएगा ।

    Reply
  2. Deepak Sharma says:
    6 months ago

    Congratulations !!
    Heartiest congratulations
    And heartfelt thanks🙏🙏
    For commemorating our Father of the Nation through these eight articles focussing on him.
    So remarkably assorted n diversified!👍👍👍
    Regards n best wishes 🙏🙏

    Reply
  3. राजीव रंजन गिरि says:
    6 months ago

    शानदार सप्ताह….. बेहद जरूरी भी. शुक्रिया समालोचन.

    Reply
  4. राजेन्द्र दानी says:
    6 months ago

    इस श्रंखला में स्त्री प्रश्न और गांधी पक्ष अभूतपूर्व है । मुझे नहीं लगता कि गांधी के संबंध में पहले इतने जटिल सवाल कभी उठे । गांधी को स्वतंत्रता दिलाने वाले नायक के रूप में ज्यादा व्याख्यायित किया गया , जो अगंभीर तो नहीं था पर बहुत सूक्ष्म और गहरे सामाजिक सरोकारों बार गांधी दृष्टि जैसे प्रश्न छूटे रहे जो यहां “समालोचन” में आलेखों अथवा साक्षात कारो में आ रहे हैं । मैं समझता हूं इन्हें एक किताब के रूप में बदल देना चाहिए । बहुउपयोगी दस्तावेज की तरह संजो दिया जाना चाहिए ।

    Reply
  5. कर्मेन्दु शिशिर says:
    6 months ago

    रूबल जी कहने को युवा अध्येता हैं लेकिन उनको पढ़ने के बाद उनकी परिपक्वता हैरान कर देती है। उन्होंने ऐसे कोण से गाँधी जी को देखा है जहाँ संभवतः इससे पहले शायद किसी की निगाह न पड़ी हो।उन्होंने गाँधी जी के स्त्रियों को लेकर विचारों की गतिशीलता की ओर भी संकेत किया है। गोकि यह इंटरव्यू है लेकिन उनके गद्य में कमाल का आकर्षण है। बहुत ही बढ़िया सामग्री दी है आपने।

    Reply
  6. रवि भूषण says:
    6 months ago

    गांधी पर सार्थक और आवश्यक आयोजन। हार्दिक बधाई। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।

    Reply
  7. Hemant Deolekar says:
    6 months ago

    बहुत ही विचारोत्तेजक संवाद। गांधीजी के स्त्री विमर्श पर ऐसा खुला संवाद कम ही देखा गया। बहुत धीर गंभीर और किसी हड़बड़ी या अति से मुक्त। रूबल जी को सलाम। मंजरी जी का जितना आभार उतना कम कि इतनी महत्वपूर्ण बातचीत को उपलब्ध कराया। समालोचन का को शुक्रिया

    Reply
  8. विनोद मिश्र says:
    6 months ago

    रुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत अच्छी हुई। गहरी और गम्भीर।यह पूरी श्रृंखला अत्यंत विचारोत्तेजक रही।1-2दिन में कृति बहुमत पोस्ट करने का काम पूरा हो जाएगा तो फिर से पढ़ूंगा। समालोचन साहित्यिक पत्रकारिता के लिए बेहद जरूरी मंच है।

    Reply
  9. प्रिया वर्मा says:
    6 months ago

    तल्लीन होकर पढ़ गई। पारदर्शी जवाबों के लिए यह इंटरव्यू मुझे याद रहेगा। रूबल जी ने तीसरा रास्ता कहकर उपसंहार किया है वह गांधी पर विचार की एक अनन्त संभावना को बनाता दिखता है। गांधी जन्म-उत्सव सप्ताह का यह अमूल्य आयोजन विचारणीय व सराहनीय रहा। इस संतुलित पत्रिका के लिए आभार

    Reply
  10. Raj Gopal Singh Verma says:
    6 months ago

    गाँधी स्त्री दृष्टि विषय पर नए आयाम सामने लाने के लिए आपको साधुवाद।
    औपनिवेशिक काम में स्त्रियों द्वारा किये गए सामाजिक-राजनीतिक चेतना के लिए किए गए प्रयासों को मैंने एक अध्ययनकर्ता के रूप में गहनता से समझने का प्रयास किया है। इसी क्रम में मैंने उस भाग को दो तरह से देखा है, एक तो 1857 से पूर्व, दूसरा उसके बाद 1947 तक।
    मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उस समय जिस छटपटाहट में भारतीय महिलाओं का जीवन गुजर रहा था, वह एक दयनीय, निकृष्टतम और आक्रोशित करने वाली स्थिति थी। समय विदेशी दासता का था, इसलिए शासकों के कानों पर जूं रेंगने में समय लगता था। उनको वह स्थिति अनुकूल भी लगती थी, पर स्वतंत्र भारत में जिस धीमी गति से काम हुआ है, वह निराशाजनक है।
    इस संदर्भ में महात्मा गांधी का जिक्र कर, उनके विचारों और कार्यकलापों का वास्ता देकर आपने हमारे ज्ञान में वृद्धि की है, धन्यवाद। स्त्री विमर्श के तत्कालीन झंडाबरदार भी अगर अपने घर की महिलाओं को मुख्य धारा में वंचित रखने के प्रयास करते रहे हों, तो यह निश्चित रूप से अवसादित करता है।
    आपके इस आकलन से मैं सहमत हूँ कि वह गांधी जी ही थे जिन्होंने स्त्रियों को आत्मविश्वास दिया, प्रतिरोध के स्वर का साथ दिया और राष्ट्रवाद के साथ छद्म नैतिकता के विरुद्ध आवाज उठाने का बल दिया।
    आपने विषय के हर बिन्दु पर विस्तार से बात की है, इसलिए कुछ और कहने को शेष नहीं है। आपका यह साक्षात्कार एक बेहतरीन संदर्भ स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। मेरी शुभकामनाएं।

    Reply
  11. Daya Shanker Sharan says:
    6 months ago

    स्त्री के सवाल पर गाँधी के विचारों को समझने में इस आलेख
    से कई नये आयाम और वातायन खुलते हैं।गाँधी का यह संदेश
    कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है-यह भी एक कसौटी है।रूबल
    जी का मंजरी जी से यह संवाद महत्वपूर्ण है और इस श्रंखला की उपलब्धि
    भी।इस पूरे आयोजन के लिए अरूण जी को साधुवाद!

    Reply
  12. धनंजय वर्मा says:
    6 months ago

    इस बातचीत में रूबल ने दअसल गांधी के स्त्री चिंतन को सही परिप्रेक्ष्य में लगभग समग्रतः देखा है ।यह सचमुच् एक पुनर अविष्कार है।यह सप्त वर्णी गांधी विमर्श , दरअसल गांधी का पुनः अन्वेषण की प्रेरणा भी देता है ।आपको अनेक धन्यवाद

    Reply
  13. मिथिलेश्वर says:
    6 months ago

    समालोचन के माध्यम से आप बहुत अच्छा कर रहे हैं।इस माध्यम में इससे अच्छा और नहीं हो सकता।इसके लिए मेरी हार्दिक शुभेच्छाएं आपके साथ हैं।
        

    Reply
  14. रवि रंजन says:
    6 months ago

    गांधी जन्म उत्सव सप्ताह के दौरान समालोचन का यह आयोजन क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।
    रूबल का यह आलेख गांधी की स्त्री-विषयक नज़रिए को समझने में सहायक है।इससे चिंतन के कई नए गवाक्ष खुलते हैं।
    बावजूद इसके,इसमें गांधी के स्त्री सम्बन्धी विचलनों और कुछ विवादास्पद हरकतों को सही नाम से पुकारने से बचा गया है।

    Reply
  15. Jayshree Purwar says:
    6 months ago

    स्त्री के प्रति गांधीजी के विचारों के कुछ नए दृष्टिकोण दिखें जिनके लिए साधुवाद । गांधीजी की स्त्री के प्रति दृष्टि भी उन्हें अपनी पत्नी के साथ संघर्ष से मिली जब कस्तूरबा ने उपवास और मौनव्रत के हथियार का प्रयोग किया । इसी से उन्होंने स्त्री की ताक़त को पहचाना और उनके मन में स्त्री- पुरुष समानता की बात पनपी ।

    Reply
  16. सुरेन्द्र मनन says:
    6 months ago

    अपने सीमित कलेवर के बावजूद समालोचन के इस आयोजन में गांधी जीवन और दर्शन के जिन विविध आयामों पर नए सिरे से विचार किया गया है, वह निश्चय ही महत्वपूर्ण और प्रशंसनीय है। रूबल से की गई बातचीत ने इस प्रयास में और भी योगदान दिया है l

    Reply
  17. Geeta gairola says:
    6 months ago

    समालोचन की गांधी पर की गई ये पहल सामयिक जरूरत को पूर्ण करती है।निसंदेह ये विश्लेषणात्मक सीरीज गहरे विमर्श का आयाम है।लेख में बिना किसी झिझक के सारे पक्षों को समेटा गया है।स्त्री विमर्श के पक्ष पर हम स्त्रीवादियों में भी गांधी को लेकर बहुत से प्रश्न रहते आए है।लेकिन हर व्यक्तित्व की अपनी सीमा और जिस देश कल परस्थिति में वो मौजूद होता है उसकी जरूरतें प्राथमिक होती है। गांधी को भी इससे मुक्त नही माना जा सकता।
    शानदार सीरीज के लिए समालोचन को बधाई

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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