ग़ालिब
तशरीह
नरगिस फ़ातिमा
(1)
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खैंच
अगर शराब नहीं इंतेज़ार-ए-साग़र खैंच
ग़ालिब साहेब का ये शेर मेरे पसंदीदा अशआर में से एक है. लेकिन इसकी तशरीह (व्याख्या) करने के क़िब्ल मौलाना जलालुद्दीन रूमी की तख़लीक़ (रचना) की कुछ सतरें पढ़ते हैं-
“अगर आप गोहर की तलब करते हैं, तो आप ख़ुद गोहर हैं
अगर आपको रोटी की हवस है, तो आप महज़ रोटी का इक टुकड़ा हैं
ये इक राज़ है जिसे अगर आप जान जाएँगे
तो जो आप बनना चाहते हैं वो बन जाएँगे “
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि आप जिस चीज़ की दिल से आरज़ू करते हैं वो आपको ज़रूर मिलती है इसलिए ऊँचे ख़्वाब देखिए. लेकिन अगर ख़ुदा न करे ख़्वाब पूरा न हो तो क्या करें? आइए ये जानने के लिए मिर्ज़ा ग़ालिब के ऊपर वाले शेर की तशरीह करते हैं.
ग़ालिब साहेब इस शेर में तम्बीह (नसीहत) कर रहे हैं और ख़ूबसूरत ज़िंदगी जीने का नुस्ख़ा भी बता रहे हैं. पहली सतर (पंक्ति) में वो फ़ारसी मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कह रहे कि इक साँस भी आरज़ू की अंजुमन से बाहर मत लो यानि इक लम्हा भी आरज़ू के बग़ैर ज़िंदगी बसर मत करो. दूसरी सतर में वो कह रहे कि अगर तुम मैख़ाने (शराबख़ाना) में बैठे हो और वहाँ शराब मयस्सर (मौजूद) नहीं तो वहीं बैठ कर शराब आने का इंतेज़ार करो.
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अगर आपकी दुआएँ क़ुबूल नहीं हो रहीं और आपकी आरज़ूएँ पूरी नहीं हो रही तो भी उम्मीद का दामन मत छोड़िए. इसी सरा (दुनिया) में रहकर अपनी बारी आने का इंतज़ार कीजिए. जब सबकी बारी इक न इक रोज़ आती है तो उम्मीद रखिए. किसी न किसी रोज़ आपकी आरज़ू भी ज़रूर पूरी होगी. मैख़ाने में अगर दूसरों के गिलास भरे जा रहे तो पुरउम्मीद रहिए आपका गिलास भी इक रोज़ मय (शराब) से लबरेज़ (ऊपर तक भरा हुआ) होगा. अगर कोई चीज़ अभी आपकी दस्तरस (पहुँच) में नहीं तो भी उसकी आरज़ू करते रहिए. आज नहीं तो कुछ वक्फ़े (समय) बाद वो आपको ज़रूर हासिल होगी.
वो फ़ैज़ कहते हैं ना –
“नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही”
उम्मीद ज़िंदगी है. नाउम्मीदी मौत है. दिल में कोई आरज़ू नहीं है तो आप ज़िंदा नहीं मुर्दा हैं. दिल में ख़्वाहिशात का होना ज़िंदगी की पुरज़ोर अलामत है. आरज़ू के बग़ैर ज़िंदगी बेकैफ़ हो जाती है. अगर हम किसी चीज़ को पा नहीं सकते तो कम अज़ कम उसे पाने की तड़प हमारे क़ल्ब (दिल) में होनी चाहिए. इसलिए हालात कैसे भी हों, हमें अपनी आरज़ू के हुसूल के लिए इंतज़ार करना ही चाहिए और उम्मीद के चराग़ को हमेशा रौशन रखना चाहिये. कैफ़ी आज़मी साहब कहते हैं ना-
“इक दिया नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है”
(2)
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर
इस मज़मून में मैंने ग़ालिब साहेब के जिन अशआर का इंतिखाब किया है उन अशआर में जनाब शिकवे से पुर (भरे हुए) हैं लेकिन इस क़दर शोख़ अन्दाज़ में शिकवा कर रहे कि कौन ना सुनकर शादमाँ (ख़ुश) हो जाए. इन अशआर से उनकी ख़ुदबीनी (आत्ममुग्धता) या नर्गिसियत भी झलक रही है लेकिन इतनी ख़ुदबीनी उन पर ज़ेब देती है. आइए अब इन अशआर की तशरीह (व्याख्या) करते हैं.
यहाँ ग़ालिब कह रहे कि मेरा वजूद इक शबनम के क़तरे जितना मामूली है. मैं तो शबनम (ओस) का वो क़तरा हूँ जो सेहरा (रेगिस्तान) में किसी ख़ार (काँटे) पर राइज (स्थित) है. मेरी ज़िंदगी तो ख़ुद ही कुछ लम्हों की है. मैं तो यूँ भी फ़ना (नष्ट) हो जाता. फिर आख़िरश सूरज मुझे तबाह करने पर क्यूँ तुला हुआ है? इस वजह से मैं काँप कर रह जाता हूँ.
इक तरह से वो कह रहे कि क़तरा-ए-शबनम (ओस की बूँद) होने के बावजूद मेरे वजूद में कुछ ऐसी ख़ास बात ज़रूर है कि सूरज मुझे तबाह करना चाहता है.
तो देखा आपने किस ख़ूबसूरती से ग़ालिब साहेब ने अपनी तारीफ़ की है. आइए इसी मौज़ू पर उनके दूसरे शेर की जानिब चलते हैं. इसमें भी वो वही बात और भी ख़ूबसूरत अन्दाज़ में कहते नज़र आ रहे हैं-
“या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं”
पहली सतर (पंक्ति) में ग़ालिब ख़ुदा से मुख़ातिब हैं और सवाल पूछ रहे हैं कि ये ज़माना आख़िरश मुझे मिटा कर ख़त्म क्यूँ करना चाहता है?
दूसरी सतर में वो कह रहे कि मैं इस ज़माने की तख़्ती पर दो बार लिखा हुआ हर्फ़ (अक्षर) तो नहीं हूँ. किसी लफ़्ज़ या हर्फ़ को तख़्ती पर ग़लती से दो बार लिख देते हैं तो दूसरे लफ़्ज़ या हर्फ़ को मिटा देते हैं. इस तरह के हर्फ़ (अक्षर) को हर्फ़-ए-मुक़र्रर कहते हैं.
यहाँ ग़ालिब कहना चाहते हैं कि मैं अपनेआप में बेमिसाल हूँ. मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है. ख़ुदा ने मुझे बेकार तो पैदा किया नहीं है. मेरा वुजूद (अस्तित्व) बेम’आनी (निरर्थक) तो नहीं है फिर ज़माना मुझे मिटाना क्यूँ चाहता है?
इसकी इक तशरीह यूँ भी की जा सकती है कि या रब ये ज़माना मुझे क्यूँ मिटाना चाहता है? मैं कोई ऐसा हर्फ़ तो नहीं हूँ जो दोबारा इस दुनिया की तख़्ती पर लिख जाएगा. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि मैं ख़ुदा की बेमिसाल तख़लीक़ हूँ. इक दफ़ा मैं इस दुनिया से चला गया तो चला ही जाऊँगा. मेरे जैसा कोई दूसरा इस ज़मीन पर फिर कभी नहीं आएगा. फिर ज़माना मुझे क्यूँ मिटाना चाहता है?
कितने दिलचस्प अन्दाज़ में ग़ालिब ने अपनी बात कही है ना! आइए इसी मौज़ू पर उनके दूसरे शेर की जानिब चलते हैं-
“हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आसमाँ अपना”
इस शेर में ग़ालिब साहेब कह रहे कि मैं कौन सा बहुत बड़ा दानिशमंद हूँ या किसी बेमिसाल फ़न का जानने वाला हूँ. आख़िरश आसमान यानि तक़दीर मेरी दुश्मन क्यूँ हो गई??
कहते हैं कि आसमान (तक़दीर) दानिशमंद और हुनरमंद इंसानों का दुश्मन हुआ करता है इसीलिए ग़ालिब साहेब ये नुक़्ता लेकर आये हैं. कितनी ख़ूबसूरती से उन्होंने ख़ुद को दानिशमंद और बेमिस्ल फ़नकार साबित कर दिया है!
तो देखा आपने ग़ालिब साहब इन अशआर में कितनी ख़ूबसूरती से शिकायत भी कर रहे साथ ही साथ अपनी तारीफ़ के क़सीदे भी पढ़ रहे. वाक़ई इतनी ख़ुदबीनी या नर्गिसियत उन पर जेब देती है. उनकी ज़बान, कहने का अन्दाज़, नयी बात निकालने का फ़न सब बेमिसाल है. इन अशआर की तशरीह करने के बाद मुझे मीर साहेब के चंद शेर याद आ रहे जो मैं ग़ालिब साहेब की जानिब से आपसे कहना चाहती हूँ-
“बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा
सई ओ तलाश बहुत सी रहेगी इस अंदाज़ के कहने की
सोहबत में उलमा फ़ुज़ला की जा कर पढ़िए गिनयेगा”
(३)
“आशिक़ हूँ प माशूक़ फ़रेबी है मेरा काम
मजनू को बुरा कहती है लैला मेरे आगे”
उर्दू शायरों में ख़ुद को बेहतर शायर के साथ-साथ बेहतर आशिक़ साबित करने की भी इक अज़ब होड़ सी रहती है. ग़ालिब का ये शेर ग़ालिब के उन अशआर में से है जिसमें उन्होंने ख़ुद को बेहतर से बेहतरीन आशिक़ साबित करने की कोशिश की है. ये ग़ालिब साहेब का बेहद शोख़ शेर है.
इस शेर में ग़ालिब कह रहे कि मैं आशिक़ हूँ लेकिन मैं माशूक़ के लिए दीवाना हो जाने वाला या उस पर मर मिटने वाला आशिक़ नहीं हूँ. मेरा काम माशूक़ को धोखा देना है. मैं उसे अपनी बात के दाम (जाल) में इस क़दर उलझाता हूँ कि लैला जैसी माशूक़ भी अपने सच्चे और जूनूनी आशिक़ मजनू की बुराई मुझसे करने लगती है. उस मजनू की जो आशिक़ी में सबसे ऊँचे मक़ाम पर फ़ायज़ है. मैं इक अय्यार और शातिर आशिक़ हूँ जो माशूक़ का ऐतबार हासिल कर लेता है.
इस शेर की दूसरी सतर की इक तशरीह यूँ भी हो सकती है कि मैं ऐसा आशिक़ हूँ जिसके सामने लैला जैसी माशूक़ को भी मजनू जैसे आशिक़ में बुराईयाँ नज़र आने लगती है. उस लैला को जिस लैला और मजनू की मुहब्बत की मिसालें दी जाती हैं. बस इतना भर ही नहीं, लैला ग़ालिब साहेब से मजनू की शिकायतें करने लगती है यानि आशिक़ी में ग़ालिब साहेब का दर्जा मजनू से बालातर है. उन्हें लैला की नज़र में वो मक़ाम हासिल है जो ख़ुद मजनू का भी नहीं था.
ग़ालिब साहेब का ये शेर पढ़कर मीर साहेब का वो शेर याद आ रहा-
“बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का”
आइए अब मीर साहेब की गली चलते हैं और देखते हैं वो इस मौज़ू पर क्या फ़रमा रहे-
“मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है या उस्ताद”
यहाँ मीर साहेब ने अपना मुक़ाबला फ़रहाद से किया है. जिस तरह फ़रहाद संगतराशी का काम करता है यानि संग (पत्थर) तराशता है बिल्कुल उसी तर्ज़ पर मीर साहेब अल्फ़ाज़ तराशते हैं. दोनों ही अपने आप में आला दर्जे के आशिक़ भी हैं. यहाँ वो कह रहे कि फ़रहाद अपना काम करते करते इतना उकता गया है कि उसने थक हार कर संगतराशी का अपना काम छोड़ कर अपना तेशा मीर के मज़ार के पत्थर पर रख दिया है.
या फिर यूँ भी कह सकते हैं कि फ़रहाद का काम इतना लम्बा है कि उकताहट की वजह से वो अपना काम आगे नहीं बढ़ा पा रहा है और चूँकि वो मीर को कारीगरी में अपना उस्ताद मानता है साथ ही इश्क़ में भी इसलिए वो मीर की दुआएँ लेने आया है.
इक तशरीह इस शेर की यूँ भी हो सकती है कि चूँकि फ़रहाद मीर को अपना रक़ीब मानता है इसलिए वो मीर की क़ब्र का नाम ओ निशान तक मिटा देना चाहता है इसी वास्ते वो तेशा लेकर मीर की क़ब्र पर आया है.
इक तरह से इस शेर से मीर साहेब ये साबित करना चाहते हैं कि कारीगरी और आशिक़ी में फ़रहाद जैसा कारीगर और आशिक़ भी उनका सानी नहीं है. वो भी उन्हें उस्ताद मानता है.
अब आप ही इन दोनों शेरों से ये नतीजा निकालिए कि ग़ालिब और मीर में से कौन बेहतर आशिक़ है?
(४)
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुद्दआ अनक़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का
ग़ालिब का ये शेर उनके ख़ूबसूरततरीन शेरों में से एक है. ये शेर उनकी ख़ुदपसंदी और ख़ुदबीनी को ज़ाहिर करता है. आइए इस शेर की तशरीह करने से पहले हम ये पता करते हैं कि ये अनक़ा क्या है?
अनक़ा इक ख़याली परिंदा है जो बहुत ऊँचा उड़ता है और जिसका वुजूद इस कायनात में कहीं नहीं है. ये इक पुरअसरार (रहस्यों से भर हुआ) परिंदा है जिसका ज़िक्र अरब माइथोलॉजी में कई जगह आया है. इसका ज़िक्र कई शोअरा (कवियों) ने भी किया है. कई अफ़सानों में भी इसका ज़िक्र है. ग़ालिब ने तो अपने कई शेरों में इसका इस्तेमाल किया है.
इस शेर में शायर अक़्ल को सय्याद या शिकारी फ़र्ज़ करते हुए कहता है कि अक़्ल चाहे जितने जाल बिछाए यानि बात समझने की कोशिश करे. मेरी तक़रीर का मफ़हूम चूँकि अनक़ा है यानि ख़याली है (और ख़याली शय जाल में फँस नहीं सकती) इसलिए मुद्दआ यानि की बात अक़्ल की गिरफ़्त में आ नहीं सकती है. अक़्ल मेरे कलाम की तह तक पहुँच नहीं सकती है. ग़ालिब को अपनी तख़लीक़ात (रचनाओं) के मुश्किल होने पर ग़ुरूर (गर्व) है. उन्हें लगता है कोई उनके अशआर के म’आनी की तह तक नहीं पहुँच सकता है. ऐसा क्यूँ है? ये बात वो अपने इस शेर में बता रहे हैं-
“गंजीना-ए-म’आनी का तिलिस्म उसको समझिए
जो लफ़्ज़ भी ग़ालिब मेरे अशआर में आए”
क्या मफ़हूम (अर्थ) हुआ इसका? शायर कह रहा है जो भी अल्फ़ाज़ मैंने अशआर में शामिल किए हैं उनको मैंने यूँ ही शामिल नहीं किया है. वो लफ़्ज़ म’आनी (अर्थ) का ख़ज़ाना हैं. यानि उनके शेरों में तहदारी है उन्हें समझना आसान नहीं है.
कहते हैं कि ज़िंदगी भर दीगर (दूसरे) शोअरा (शायर का बहुवचन) ग़ालिब को परेशान करते रहे कि कोई उनके कलाम को समझ नहीं पाता है. लोग उनसे आसान कहने की गुज़ारिश करते रहे लेकिन ग़ालिब यही कहते रहे-
“मुश्किल है ज़ बस कलाम मेरा ऐ दिल
सुन-सुन के ये सुख़नवराने कामिल
आसान कहने की करते हैं फ़रमाइश
दीगर मुश्किल दीगर न गोयम मुश्किल”
उनकी फ़ारसीज़दा (ऐसी उर्दू जिसमें फ़ारसी के शब्द अधिक हों) ज़बान किसी को पसंद नहीं आती थी. जब लोग कहते कि उनके अशआर में तो कोई म’आनी (अर्थ) नहीं होता तो ग़ालिब उन्हें यूँ जवाब देते-
“न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
न सही ग़र मेरे अशआर में म’आनी न सही”
मज़मून के आख़िर में हम ग़ालिब की शान में उन्हीं का शेर अर्ज़ करते हैं-
“आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है”
(५)
गिरनी थी हम पर बर्क़-ए-तजल्ली,न तूर पर
देते हैं बादह ज़र्फ़-ए-क़दह ख़्वार देख कर
ये शेर भी ग़ालिब के हसीनतर अशआर में से एक है. इस शेर की तशरीह करने से पहले हमें ये जानना ज़रूरी है यहाँ किस बर्क़-ए-तजल्ली यानि नूर की बात हो रही. यहाँ पर किस वाक़ये का ज़िक्र हो रहा है?
क़ुरआन में इक आयत में इस कोह-ए-तूर (तूर के पहाड़) के वाक़ये (क़िस्सा) का ज़िक्र है. इक दफ़ा हज़रत मूसा जो अल्लाह के नबी थे उन्हें ख़ुदा की ज़ियारत का शौक़ हुआ तो उन्होंने ख़ुदा से उस को देखने की ज़िद की. जवाब में ख़ुदा ने कहा “लन तरानी” यानि तुम मुझे हरगिज़ नहीं देख सकते हो. ख़ुदा के लाख मना करने के बावजूद जब वो नहीं माने तो ख़ुदा ने कहा “ठीक है! हम अपनी तजल्ली कोह-ए-तूर यानि तूर के पहाड़ पर नाज़िल करेंगे” लेकिन जब उन्होंने अपनी तजल्ली तूर पर नाज़िल की तो वो पहाड़ टुकड़े टुकड़े हो गया. हज़रत मूसा भी होश ओ हवास खो बैठे और बेहोश हो गये. तब उन्हें अपनी बेबसी का यक़ीन हो गया. वो समझ गये कि ख़ुदा को देख पाना इंसान के बस की बात नहीं है.
आइए अब इस शेर की तशरीह करते हैं. यहाँ तशरीह हम दूसरी सतर से शुरू करेंगे. यहाँ ग़ालिब कहते हैं शराब पीने वाले का ज़र्फ़ देखकर उसे शराब दी जाती है यानि उतनी ही शराब दी जाती है जितनी वो पी सके. पहली सतर में वो कहते हैं इसलिए जो बर्क़-ए-तजल्ली यानि ख़ुदा के नूर की बिजली कोह-ए-तूर पर गिरी वो उस पर न गिर कर उन पर गिरनी चाहिए थी. वो उसकी ताब ले आते यानि उसको बर्दाश्त करने का ज़र्फ़ उनमें था. उनमें वो बर्दाश्त वो क़ुव्वत है कि वो ख़ुदा के हुस्न की ज़ियारत कर सकें.
ग़ालिब ने इक और शोख़ से शेर में इस वाक़ये का ज़िक्र किया है.
“क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की”
यहाँ ग़ालिब कह रहे कि आओ हम भी तूर पहाड़ की सैर को चलते हैं. ज़रूरी नहीं कि जो हज़रत मूसा के साथ हुआ वही हमारे साथ भी हो. क्या पता हम उस ख़ुदा के नूर की ताब ला सकें यानि उसकी ज़ियारत कर सकें.
इन अशआर में ग़ालिब ने ख़ुद को हज़रत मूसा से भी आलाज़र्फ़ वाला साबित करने की कोशिश की है.
कैसी जुर्रत है!
कैसी ख़ुदपसंदी है!
कैसी शोख़ी है!
सौदा साहब ने इस मौज़ू पर बहुत प्यारा सा शेर कहा है-
“हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मूसा नहीं जो सैर करूँ कोह-ए-तूर का”
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि शायर कह रहा मुझे हर संग (पत्थर) में तेरे हुस्न की चिंगारी यानि तेरा नूर नज़र आता हैं. मुझे मूसा की तरह तेरी (ख़ुदा की) ज़ियारत के लिए कोह-ए-तूर पर जाने की ज़रूरत नहीं है.
(६)
ताअत में ता रहे न मय-ओ-अँगबीं की लाग
दोज़ख़ में डाल दो कोई ले कर बहिश्त को
मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर मज़हब और उसके मानने वालों पर गहरा तंज़ है. आइए इस ख़ूबसूरत से शेर की तशरीह से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं.
इस शेर में शायर कह रहा कि इबादत में मय यानि शराब और अँगबीं यानि शहद की लालच न रहे इसलिए बहिश्त यानि जन्नत को दोज़ख़ में डालकर फ़ना कर देना चाहिये.
इस्लाम में ऐसा माना जाता है कि इंसान को क़यामत के बाद उसके अच्छे और बुरे आमाल (कर्मों) के हिसाब से उसे जन्नत (स्वर्ग) या दोज़ख़ (नरक) में जगह मिलेगी.
जन्नत में शराब और शहद की नहरें होंगी. जन्नत में रहने वाले चाहे जितनी शराब और शहद का मज़ा ले सकते हैं जबकि दोज़ख़ या जहन्नुम में आग होगी जहाँ लोगों को उनके बुरे आमाल (कर्मों) की सज़ा मिलेगी. बहुत सारे लोग जहन्नुम के डर से और इस लालच में ख़ुदा की इबादत करते हैं कि उन्हें इसके एवज़ में जन्नत मिलेगी. यहाँ शराब और शहद का नाम लिया गया है बाक़ी और भी बहुत सारी चीज़ें हैं जन्नत में जिसकी लाग (चाहत) में लोग इबादत करते हैं, परहेज़गारी रखते हैं.
ग़ालिब इस शेर में ऐसे ही लोगों पर तंज़ कर रहे और कह रहे कि जिस जन्नत की लालच में लोग ख़ुदा की इबादत कर रहे ऐसी जन्नत को दोज़ख़ की आग में जला कर राख कर देना चाहिये जिससे बंदा ख़ुदा की इबादत बिना किसी ग़रज़ और बिना किसी लालच के कर सके.
आइए देखें इस शेर को भी जिसमें ग़ालिब साहब जन्नत में दोज़ख़ को शामिल करने की बात कर रहे हैं.
“क्यूँ न फ़िरदौस में दोज़ख़ को मिला लें यारब
सैर के वास्ते थोड़ी सी जगह और सही”
इस शेर में ग़ालिब मज़ाहिया तौर पर मुख़ातिब हैं. वो कह रहे हैं कि दोज़ख़ को भी फ़िरदौस में मिला लेना चाहिये. जन्नत नशीनों को घूमने के लिए थोड़ी जगह और मिल जाएगी और दोज़ख़ में लोगों को उनके गुनाहों की सज़ा पाते देख वो ख़ुश भी होंगे.
देखा आपने ग़ालिब साहेब जन्नत और जहन्नुम का वुजूद ही ख़त्म करने पर तुले हुए हैं. यही काम हज़रत राबिया-अल-बसरी भी करना चाहती थीं जो पहली महिला मुस्लिम सूफ़ी फ़क़ीर थीं.
इन अशआर की तशरीह पढ़ने के बाद आप भी मानेंगे कि ग़ालिब ख़ुद भी किसी सूफ़ी या वली से कम नहीं हैं. यूँ ही नहीं ग़ालिब ख़ुद ये कहते हैं-
“ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता”
(७)
क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
ग़ालिब के इस शेर की तशरीह से पहले ये जानना ज़रूरी है कि
जनाब ख़िज़्र कौन हैं?
और सिकन्दर कौन था?
जनाब ख़िज़्र मुसलमानों के वो पैग़म्बर हैं जो क़यामत तक ज़िंदा रहेंगे. साथ ही कहते हैं कि वो जंगलों में रास्ता भटकने वालों को राह भी दिखाते हैं. ये भी कहा जाता है कि उन्होंने आबे हयात के चश्मे का पानी पिया है इसलिए वो ज़िंदा ओ जावेद हैं. सिकंदर यूनान का बादशाह था जिसने सातों महाद्वीपों को जीत रखा था.
ग़ालिब के इस शेर में इशारा है उस दास्तान की तरफ़ जिसमें सिकंदर जनाब ख़िज़्र के साथ आबे हयात (ज़िंदगी का जल) के चश्मे (झरने) पर उस चश्मे का पानी पीने गया. मगर वहाँ जाकर उसने देखा कि जिन लोगों ने उस चश्मे का पानी पी लिया था, वो ज़िंदा तो थे लेकिन तवील (लम्बी) उम्र की वजह से इस क़दर ज़ईफ़ (बूढ़े) हो गए थे कि बेहिस ओ हरकत लेटे हुए थे. उनमें से कई फ़क़त गोश्त के टुकड़े की मानिंद चश्मे के चारों तरफ़ पड़े हुए थे. न वो उठ ही पा रहे थे,न ही बैठ ही पा रहे थे. ये देखकर सिकंदर घबरा गया और उसने चश्मे का पानी नहीं पिया और वापिस चला गया.
मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि अगर कोई शय तक़दीर में नहीं तो ख़िज़्र जैसे रहनुमा की रहनुमाई भी किसी काम की नहीं है. लिहाज़ा किसी को रहनुमा बनाना भी बेकार है. यहाँ ग़ालिब सवाल पूछते हैं ख़िज़्र ने क्या मदद की सिकंदर की?
ख़िज़्र जैसे रहनुमा के होते हुए भी वो आबे हयात के चश्मे का पानी पिए बग़ैर लौट आया और थोड़े ही वक़फ़े बाद वो इस फ़ानी दुनिया से कूच भी कर गया. अगर वो चश्मे का पानी पी लेता तो जनाब ख़िज़्र की तरह ज़िंदा ओ जावेद (अमर) हो जाता लेकिन जनाब ख़िज़्र ने उसकी ठीक रहनुमाई नहीं की. वो चाहते तो उसे उस चश्मे का पानी पीने पर राज़ी भी कर सकते थे.
ये क़िस्सा इक दूसरी तरह भी बयान किया जाता है. वो ये है कि जनाब ख़िज़्र ने सिकंदर से वादा किया था कि वो उसे आबे हयात के चश्मे तक लेकर जाएँगे उसकी रहनुमाई करेंगे. इसके पहले ही ख़ुदा की ‘वही’ नाज़िल हो गयी यानि ख़ुदा का इशारा हुआ और जनाब ख़िज़्र ग़ायब हो गए. यहाँ ग़ालिब ये कहना चाहते हैं कि जब ख़िज़्र जैसा रहनुमा सिकंदर की रहनुमाई नहीं कर सका तो इस दुनिया में कोई भी रहनुमा बनाने के क़ाबिल नहीं है.
आइए अब इस शेर की पहली तशरीह की बात को आगे बढ़ाते हुए ग़ालिब के ही दूसरे शेर की जानिब चलते हैं-
“हवस को है निशाते कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या है“
यहाँ ग़ालिब कहते हैं इस दुनिया में जो भी चहल पहल है काम करने की उमंग है वो इसलिए है क्यूँकि यहाँ रहने का वक़्फ़ा (समय) थोड़ा है. वैसे भी इस दुनिया में तवील (लम्बी) उम्र लेकर क्या करना है क्यूँकि ये इंसानी ख़सलत है कि जब किसी काम के लिए उसे तवील वक़्फ़ा मिल जाता है तो वो काम में ताख़ीर (देर) करता है, सहलअंगारी करता है.
ग़ालिब कहते हैं ख़्वाब ज़िंदगी का पीछा करते हैं और ज़िंदगी मौत का पीछा करती है इसलिए काम की सरगर्मी बनी रहती है. इंसान मरने के पहले सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है इसलिए वो जान तोड़ कर ज़िंदगी के कामों में मसरूफ़ रहता है.
ग़ालिब के पहले शेर की पहली वाली तशरीह में सिकंदर ने आबे हयात के चश्मे तक पहुँच जाने के बाद भी जान बूझकर उसका पानी पीने से मना कर दिया यानि इक तरह से उसने जावेदाँ ज़िंदगी (अमर जीवन ) जीने से इनकार कर दिया था.
हम कह सकते है कि इक तरह से उसने ग़ालिब की इस बात की तस्दीक़ ही की कि “न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या है”.
(८)
“क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं”
ग़ालिब का ये शेर मेरा पसंदीदा फ़लसफ़ियाना शेर है. इसमें भी वो अद्वैत दर्शन से मुतासिर नज़र आते हैं. इस शेर में उन्होंने मंसूर अल हज्जाज पर गहरा तंज़ किया है और बिल्कुल नया नुक़्ता लेकर आये हैं. वही मंसूर जिसने “अनलहक़” का नारा दिया था यानि जिसने कहा था “मैं ख़ुदा हूँ” और इस कुफ़्र के जुर्म में ख़लीफ़ा ने उसे सूली पर चढ़ा दिया था. मंसूर के गहरे फ़लसफ़े को उस वक़्त कोई न समझ सका था.
”अनलहक़” “अहम ब्रह्मासमी” का सीधा तर्जुमा नज़र आता है इसीलिए मुझे ये हमेशा ही लगता है कि ग़ालिब अद्वैत दर्शन में गहरी दिलचस्पी रखते थे.
इस शेर में ग़ालिब कह रहे कि मैं भी फ़क़त इक क़तरा नहीं बल्कि अपने अंदर इक समंदर समेटे हुए हूँ. मंसूर की तरह मैं भी इस हक़ीक़त से आशना हो गया हूँ लेकिन मैं मंसूर की तरह कमज़र्फ़ नहीं हूँ. जो मैं ये बात चिल्ला चिल्ला कर सबके सामने कहूँगा. ये ख़ुद समझने की बात है. ये समझकर ख़ुद ही अपने अंदर जज़्ब कर लेने वाली बात है.
अगर हम ख़ुद ही कहेंगे कि “हम ख़ुदा हैं” तो बात छोटी हो जाएगी. ग़ालिब ने यहाँ मंसूर की हँसी उड़ाई है. मंसूर को दीवाना साबित किया है. उनका कहना है कि आलाज़र्फ़ी इल्म हासिल कर चुप रह जाने में है. ये क़ुदरत का इक निहाँ राज़ है जिसे पोशीदा रखना हमारा फ़र्ज़ है.
क्या ख़ूबसूरतबयानी है !
ग़ालिब का जवाब नहीं!
मंसूर भी उनके इस अन्दाज़ पर मुस्कुरा पड़े होंगे. ग़ालिब ने यही बात इक और शेर में बड़े ही पुरलुत्फ़ अन्दाज़ में कही है.
“दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या “
(९)
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था
ग़ालिब के अमूमन तक़रीबन सभी अशआर में उनकी शोख़ तबियत की झलक मिल जाती है लेकिन इस अशआर में तो वो ख़ुदा से ही शोख़ी करते नज़र आ रहे हैं. ये शेर शोख़ी के ऐतबार से बेमिसाल है. इस शेर में वो नया नुक़्ता भी लेकर आये हैं.
इस्लाम में ऐसा माना जाता है कि फ़रिश्ते हमारे नेक और बद आमाल (कर्मों) का हिसाब किताब लिखते हैं. कहते हैं क़यामत (प्रलय) के रोज़ ये नामा-ए-आमाल (कर्मों का लेखा-जोखा) देखा जाएगा और सबको अपने आमाल (कर्मों) का हिसाब देना होगा. फिर उसी हिसाब किताब की बिना पर जज़ा या सज़ा मिलेगी. जन्नत (स्वर्ग) या दोज़ख़ (नरक) अता होगी.
आइए अब इस शेर की तशरीह करते हैं. इस शेर में ग़ालिब ख़ुदा से मुख़ातिब होकर दरयाफ़्त करते हैं कि जब फ़रिश्ते हमारा नामा-ए-आमाल (कर्मों का लेखाजोखा) तहरीर कर रहे थे तो क्या हमारा भी कोई आदमी उस दम मौजूद था?
इसका जवाब है ”नहीं” क्यूँकि फ़रिश्ते नामा-ए-आमाल किसी इंसान की मौजूदगी में नहीं लिखते हैं.
ग़ालिब कहते हैं फिर तो ये इंसाफ़ नहीं हुआ ना? ये तरीक़ा तो बिल्कुल इकतरफ़ा हुआ. फ़रिश्तों को कम से किसी इंसान की मौजूदगी में या हमें बताकर नामा-ए-आमाल लिखना चाहिए. फ़रिश्तों के इकतरफ़ा बयान की बिना पर हमें क्यूँ सज़ा दी जाती है?
ग़ालिब का ये पूछना जायज़ है क्यूँकि फ़रिश्ते तो यूँ भी इंसानों से ख़ाईफ़ रहते हैं क्यूँकि ख़ुदा ने फ़रिश्तों पर इंसानों का सजदा वाजिब करके इंसानों को फ़रिश्तों से अफ़ज़ल क़रार दे दिया था. फ़रिश्ते चूँकि आग से बने थे और इंसान मिट्टी से तो वो ख़ुद को इंसान से अफ़ज़ल ही मानते थे. यहाँ तक कि इब्लीस नाम के फ़रिश्ते ने तो आदम का सजदा करने तक से इनकार कर दिया और ख़ुदा ने उसे अपनी बारगाह से निकाल दिया.
इक लिहाज़ से ग़ालिब का कहना सही है कि जब फ़रिश्तों के दिल में हसद है तो फिर वो क्यूँकर इंसानों का नामा-ए-आमाल लिखने में इंसाफ़ करेंगे. वो अकबर इलाहाबादी कहते हैं ना-
“रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है”
(१०)
हो लिए क्यूँ नामाबर के साथ साथ
या रब अपने ख़त को हम पहुँचायें क्या
ग़ालिब के इस शेर के साथ इक दिलचस्प क़िस्सा मनसूब है. वो क़िस्सा कुछ यूँ है कि इक दफ़ा क़ैस यानि मजनू को इक घुड़सवार मिला. बातों बातों में पता चला कि वो लैला के गाँव जा रहा है. मजनू बेचैन हो गया और नाक़ासवार के साथ साथ चलने लगा. उसे बन नहीं पड़ रहा था कि वो उससे क्या न कह दे. वो कहता जाता कि लैला से ये कहना, लैला से वो कहना. इन्तेहा ये कि सवार के साथ चलते चलते और बातें करने में मजनू इस क़दर मशग़ूल हो गया कि उसे पता भी नहीं चला और लैला का गाँव भी आ गया.
इसी क़िस्से को नज़र में रखते हुए ग़ालिब साहेब अर्ज़ कर रहे कि हमारा दिल शौक़ से इस क़दर लबरेज़ है कि हम ख़ुद भी नामाबर के साथ हो लिये हैं. उसे समझा तो रहे हैं कि महबूब से यूँ कहना लेकिन उस पर यक़ीन नहीं हो पा रहा है कि वो हमारे जज़्बे की पाकीज़गी और हमारे दिल के इज़्तेराब को महबूब तक ठीक से पहुँचा पाएगा. तो क्या मजनू की तरह हम भी अपने ख़त को महबूब तलक ख़ुद ही पहुँचायेंगे?
ग़ालिब यूँ ही ग़ालिब नहीं हैं.
(११)
“दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक “
इस शेर में ग़ालिब साहब ने बिल्कुल नयी बात निकाली है.
आइए पहले इस शेर के मफ़हूम (अर्थ) से वाक़िफ़ होते हैं फिर उसकी तशरीह करेंगे. ग़ालिब यहाँ पहली सतर (पंक्ति) में कह रहे हैं कि समंदर की हर लहर के जाल में मगरमच्छ का हलक़ है और दूसरी सतर में कह रहे कि देखते हैं क़तरे को गुहर यानि मोती बनने में किन किन मुश्किलात का सामना करने पड़ता है.
इस शेर की तशरीह करने के लिए ईरान की इक क़दीम रवायत का सहारा लेना पड़ेगा. ईरान में साल की शुरुआत बहार यानि कि नौरोज़ से होती है. इसके इक्कीसवें दिन से नीसा का महीना शुरू होता है और इस महीने के बादल को अब्रे नीसा कहते हैं. अब्रे नीसा जब बरसता है सीप समंदर की सतह पर आकर मुँह खोल देते हैं. जब आबे नीसा का क़तरा सीप के मुँह में पड़ता है तो मोती बन जाता है. क़तरा जितना बड़ा होता है मोती भी उतना ही बड़ा होता है.
हर क़तरा चाहता है कि वो सीप के मुँह में पड़े और मोती बन जाये लेकिन आफ़त तो ये है कि समंदर की हर मौज में सीप के साथ सैकड़ों मगरमच्छ मुँह खोले हुए हैं. अब ये क़तरे की क़िस्मत है कि उसके हिस्से मगरमच्छ का मुँह आता है या सीप का मुँह.
ग़ालिब ने इस शेर में इंसानी ज़िंदगी की तशबीह ( तुलना) क़तरे से दी है. उनका कहना है कि क़तरे की ही तरह इंसान को भी कोई कमाल हासिल करने के लिए या उरूज (ऊँचाई) पर पहुँचने के लिए बेशुमार मुसीबतों, आफ़तों और मुश्किलात का सामना करना पड़ता है. इन्हीं दुश्वारियों (मुश्किलों) से गुज़र कर वो क़तरे से गुहर बनता है. हर जानिब से उस पर सद (सौ)हज़ार मुश्किलात मगरमच्छ की तरह मुँह खोले उसे निगलने के लिए बेसब्र हो रही होती हैं. इनसे मुक़ाबला करके ही वो ज़िंदगी जीने के हुनर में माहिर होता है और किसी कमाल तक पहुँचता है.
इसका मतलब ये हुआ जनाब कि अगर आपकी ज़िंदगी मुसलसल (लगातार) मुश्किलात और आफ़ात से जूझ रही हो तो समझ जाइए आप जल्द ही क़तरे से गुहर (गुहर) बनने वाले हैं यानि अपने कमाल में आप उरूज पर पहुँचने वाले हैं. ये दुश्वारियाँ सिर्फ़ उसी राह के पत्थर हैं जिन्हें चुन चुन कर आपको हटाना है.
(१२)
है परतवे ख़ुर से शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ इक इनायत की नज़र होने तक
मिर्ज़ा ग़ालिब को तसव्वुफ़ से ख़ास मुनासिबत (लगाव) थी. उनके तक़रीबन हर कलाम में फ़लसफ़ियाना रंग (दार्शनिक पहलू) नज़र आता है. उन्हें उर्दू ज़बान का पहला फ़लसफ़ी शायर भी माना जाता है. ग़ालिब न ही फ़लसफ़ी थे न ही सूफ़ी उनका तो सारा फ़लसफ़ा और तसव्वुफ़ (दर्शन) उनकी रोशन फ़िक्री की करिश्मासाज़ी है. ऊपर वाला शेर उनकी रौशन फ़िक्री और तख़य्युल (ख़याल, तसव्वुर, कल्पना) का ही इक करिश्मा है.
यहाँ ग़ालिब साहेब कह रहे कि जब सूरज की रौशनी शबनम (ओस की बूँद) पर पड़ती है तो वो मोती की मानिंद चमकने लगती है लेकिन सूरज में सिर्फ़ रौशनी ही नहीं होती है बल्कि गर्मी भी होती है इसलिए वो थोड़ी देर में उसकी हरारत (गर्मी) से फ़ना (नष्ट) हो जाती है.
अगली सतर (पंक्ति) में वो अपने महबूब से कह रहे कि शबनम की तरह मैं भी तुम्हारी मुहब्बत भरी नज़र पड़ने तक ही ज़िंदा हूँ. महबूब जब मेरी तरफ़ प्यार से देखेगा तब मेरा हाल भी मिस्ले शबनम ही होगा यानि मैं भी फ़ना हो जाऊँगा. यहाँ महबूब की तशबीह (तुलना) सूरज से दी गई है.
ये शेर दरअसल तसव्वुफ़ (दर्शन) के रंग में रंगा हुआ है. इस शेर की तशरीह (व्याख्या) ये भी हो सकती है कि हमारा वजूद भी तभी तक है जब तक ख़ुदा का नूर हम पर नहीं पड़ता. जब तक हमें इल्मे इरफ़ान हासिल नहीं होता. जब तक हम अपनी हक़ीक़त से ना आशना हैं. मफ़हूम (अर्थ) ये हुआ कि जब ख़ुदा हम पर इनायत की नज़र करेगा तब मेरा नूर उसके नूर में जज़्ब हो जाएगा और मेरे वुजूद का कोई निशाँ बाक़ी नहीं बचेगा. हमें पता चल जाएगा कि ख़ुदा के सिवा इस कायनात में कोई मौजूद नहीं है. इक तरह से हम अद्वैत अवस्था में पहुँच जाएँगे. हमारे और इस कायनात और ख़ुदा के बीच कोई परदा बाक़ी नहीं बचेगा. मेरा वुजूद वुजूद-ए-इलाही में फ़ना हो जाएगा.
यहाँ मिर्ज़ा ने अपनी दिली कैफ़ियात और हयात-ए-इंसानी की कश्मकश ही बयान की है लेकिन उसमें ख़ुद ब ख़ुद उनके फ़लसफ़ियाना ख़यालात ज़ाहिर हो गए हैं. ग़ालिब अपने कई अशआर में हिंदुस्तानी अद्वैत फ़लसफ़े से मुतास्सिर नज़र आते हैं और हम उनके फ़लसफ़े से मुतास्सिर हुए जाते हैं. ग़ालिब के ही अन्दाज़ में उनके बारे में कहेंगे-
“ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता”
(१३)
“नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तस्वीर का “
दीवान-ए-ग़ालिब की पहली ग़ज़ल का ये पहला शेर यानि मतला है. ये शेर मेरे चंद पसंदीदा अशआर में से है. बाज़ तख़क़ीककार कहते है कि इस शेर का कोई म’आनी और मफ़हूम नहीं हैं. कुछ कहते हैं कि अगर म’आनी देखें तो इसे सोने में तौला जा सकता है. आइए हम भी इसकी तशरीह (व्याख्या) करके देखते हैं कि कितने म’आनी (अर्थ) बरामद होते हैं. इस बात का यक़ीन रखें कि ग़ालिब आपको मायूस नहीं करेंगे.
इस शेर में ग़ालिब ने क़दीमी (पुरानी) इरानी रस्म का ज़िक्र किया है जिसमें फ़रियादी (शिकायतकर्ता) काग़ज़ के कपड़े पहनकर दरबार में फ़रियादरस होता है. इस रस्म से मिलती-जुलती रस्म का सुराग़ क़दीम रोम में भी मिलता है जहाँ हाकिम के पास लोग सफ़ेद कपड़े पहनकर रूदाद (दशा या हाल) लेकर जाते थे. अंग्रेज़ी का लफ़्ज़ candidate भी इसी रस्म की जानिब इशारा करता है. असल में लैटिन ज़बान में candid के मा’अनी होते थे सफ़ेद और candidatus के म’आनी होते थे सफ़ेद लिबास पहनने वाला यानि उम्मीदवार. यानि काग़ज़ी पैराहन पहनने के म’आनी फ़रियादी होने से है.
यहाँ नक़्श दरअसल इंसान है जिसका पैराहन (वस्त्र) काग़ज़ी है जो इंसान के फ़ानी (नश्वर) होने की ओर इशारा कर रहा है. आगे शायर कह रहा कि हर इंसान तस्वीर की तरह बेज़ुबान है और ज़ुबान-ए-बेज़ुबानी में ये फ़रियाद कर रहा है कि कौन है जिसने उसे दुःख में मुबतेला किया है?
इस शेर में ग़ालिब ने इंसानी वुजूद पर सवालिया निशान लगाया है. शोख़ी-ए-तहरीर के म’आनी यहाँ खेल-खेल में या शरारत से है. इंसान अपने बनाने वाले से कह रहा कि आख़िरश खेल-खेल में तूने मुझे क्यूँ बना डाला?
हम जानते हैं ग़ालिब कभी भी ख़ुदा को पूरी तरह से मानने वालों में से नहीं थे. उन्होंने कई दफ़ा ख़ुदा के वुजूद पर और उसके तौर तरीक़ों पर सवालिया निशान लगाया है. यहाँ भी वो यही कर रहे हैं. वो कह रहे कि हर इंसान अपने फ़ानी वुजूद के साथ ख़ुदा के दरबार में अपनी मजलूमियत, तकलीफ़ों और दुखों की फ़रियाद कर रहा हैं. यानि हर इंसान फ़रियादी है और फ़रियाद क्या है?
मुझे इस मामूर-ए-ग़म (दुनिया) में क्यूँ भेजा?
क्यूँ मुझे ख़ुद से दूर किया?
क्यूँ ये सारी कायनात इक रोज़ फ़ना हो जाएगी?
क्यूँ हमारा वुजूद फ़ानी (नश्वर) है ?
इक और तशरीह (व्याख्या) इसकी इस तरह हो सकती है कि ग़ालिब यहाँ अपनी बात कर रहे कि ग़ालिब को नक़्श देख कर ऐसा महसूस हो रहा है कि गोया नक़्श फ़रियाद कर रहा है. वो ता’अज्जुब करते हैं कि ऐसा नक़्श किसने बना डाला जो अपने बनाने वाले से ही ख़फ़ा है. वो पूछ रहा है कि उसने उसे क्यूँ बनाया जबकि बनाने वाले ने उसे बेहद ख़ूबसूरती और दिलकशी से बनाया है. शोख़ी-ए-तहरीर का इक म’आनी ख़ूबसूरती और दिलकशी से भी है. अजीब बात है कि तब भी ये नक़्श फ़रियाद कर रहा है कि मुझे आख़िर क्यूँ बनाया?
आख़िर शायर को पता कैसे चला कि ये नक़्श (तस्वीर) फ़रियाद कर रहा है. इसका जवाब दूसरी सतर है क्यूँकि तस्वीर में मौजूद हर नक़्श काग़ज़ का लिबास पहने हुए है. ईरान की रस्म के हवाले से लें तो काग़ज़ के पैरहन पहनने वाला फ़रियादी होता है. तस्वीर में मौजूद हर पैकर का लिबास काग़ज़ी ही होता है ये हम सब जानते हैं तो इसीलिए ग़ालिब ने ये जान लिया कि नक़्श फ़रियादी है.
यहाँ पर इक तशरीह ऐसे भी हो सकती है कि यहाँ ग़ालिब ख़ुद को तख़लीककार मानते हुए ये कह रहे कि मेरा लिखा हर नक़्श इस बात का ऐतराफ़ कर रहा कि उसे बेहद दिलकशी और ख़ूबसूरती से बनाया गया है लेकिन फिर भी वो ग़ालिब से फ़रियाद कर रहा है कि मुझे ख़ुद से अलग क्यूँ किया?
तो देखी आपने ग़ालिब की ख़ूबसूरती जो इस शेर के लफ़्ज-लफ़्ज से ज़ाहिर है! उनका तसव्वुफ़! इसीलिए हम ग़ालिब को अजीमतरीन,दिलचस्पतरीन और लतीफ़तरीन शायर कहते हैं. ग़ालिब ख़ुद भी ऐसे ही नहीं कहते कि “ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयाँ और”.
(१४)
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या
ग़ालिब का ये शेर उनके तसव्वुफ़ाना ज़ेहनी कसरत का नतीजा है. ये शेर भी ग़ालिब के मेरे पसंदीदा शेरों में से एक है. आइए इस शेर की तशरीह करते हैं.
पहली सतर में शायर कह रहा है कि हर क़तरे का दिल अपनी ज़बान से पुकार पुकार कर कह रहा है कि “अनलबहर” यानि “मैं समंदर हूँ”. हर क़तरे को ये ख़बर है कि वो समंदर का हिस्सा है. इसका म’आनी ये हुआ कि वो अपने अंदर इक समंदर को समेटे हुए है. उसे अहसास है कि वो समंदर से जुदा हुआ है और आख़िरश उसी में फ़ना हो जाना है.
दूसरी सतर में उसी तर्ज़ पर शायर कह रहा है कि जिस तरह हर क़तरा “अनलबहर” कह रहा है उसी तरह हर इंसान कह रहा है “अनलहक़” यानि “मैं ख़ुदा हूँ. मुहम्मद यूसुफ़ रासिख के अल्फ़ाज़ में “आज हर क़तरे से आती है अनल-हक़ की सदा”
हर इंसान को ये ख़बर है कि उसमें ख़ुदाई नूर है. वो ख़ुदा से ही जुदा होकर इस फ़ानी दुनिया में आया है और आख़िरश उसे उसी के नूर में फ़ना हो जाना है. साथ ही उसे इस बात का ग़ुरूर है कि उसमें उस ख़ुदा या उस जैसे माबूद का नूर है. इसी ग़ुरूर में वो कह रहा है कि हमारा क्या पूछते हो, हम तो उस ख़ुदा के बंदे हैं.
ग़ालिब अपने हर शेर में इक ताज़गी इक नयापन लेकर आते हैं. यहाँ पर “हम उसके हैं” की जगह किन्ही दूसरे अल्फ़ाज़ से ये म’आनी पैदा नहीं किया जा सकता है. कोई बड़ा अफ़सर हमारा दोस्त या रिश्तेदार होता है तो हममें कितना ग़ुरूर आ जाता है. हम तन जाते हैं. इन्तिहाई ग़ुरूर से हम अपना ता’अर्रूफ़ देते हैं कि फ़लां हमारा दोस्त है या रिश्तेदार है और फिर यहाँ तो ख़ुदा की बात है. ग़ालिब भी बिल्कुल उसी अन्दाज़ में मुख़ातिब हैं कि “हम उसके हैं”.
“अनलहक़” का नारा सबसे पहले मशहूर सूफ़ी “मंसूर अल हज्जाज” ने ९०० ईसवी में दिया था. ख़ुद को ख़ुदा मानने के जुर्म में उन्हें बग़दाद में फाँसी दे दी गई थी.
इसी मौज़ू पर उमर क़ुरैशी कहते हैं-
“तुम शोर-ए-अनल-हक़ को दबा ही नहीं सकते
ये जान लो मंसूर सर-ए-दार बहुत हैं”
ये भी कहा जाता है कि “अनलहक़” अद्वैत सिद्धांत और वैदिक विचारधारा के बेहद नज़दीक है. ” अनलहक़” के म’आनी “अहम् ब्रह्मास्मि” से भी लिए जा सकते हैं. इसका म’आनी ये हुआ कि हम ग़ालिब को हिंदुस्तानी अद्वैत सिद्धांत से मुतास्सिर मान सकते हैं.
(१५)
आग से पानी में बुझते वक़्त उठती है सदा
हर कोई वामांदगी में नाले से नाचार है
इस मज़मून में हम लोग ग़ालिब साहेब के दो अशआर की तशरीह करेंगे. आइए पहले इसी शेर की तशरीह करते हैं. इस शेर का मौज़ू बिल्कुल नायाब है. यहाँ शायर कह रहा कि जब आग पर पानी डाला जाता है तो तेज आवाज़ होती है यानि आग फ़ना होने के पहले बेबसी से नाला-ओ-फ़रियाद (विलाप) करती है. हम कह सकते हैं इस कायनात की हर शय मरने से क़िब्ल (पूर्व) यानि फ़ना होने के क़िब्ल आवाज़ उठाती है. मफ़हूम ये हुआ कि इस कायनात की कोई भी शय फ़ना होना नहीं चाहती है.
आइए अब दूसरे शेर की जानिब चलते हैं-
“था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था”
इसके पहले वाले शेर में शायर कह रहा था कि कायनात की तक़रीबन हर शय अपने फ़ना होने पर नाला-ओ-फ़रियाद (विलाप) करती है जबकि इस शेर में वो कह रहा है कि इंसान तो फ़ना होने के क़िब्ल (पूर्व) भी फ़ना होने के डर से फ़रियादरस रहता है. ख़ुदा ने उसे अक़्ल बख्शी है और उसकी क़ीमत उसे चुकानी पड़ती है.
आइए इस शेर की तफ़सील से तशरीह करते हैं. इस शेर की पहली सतर में वो कह रहा है कि इंसान ज़िंदगी भर मौत से डरता रहता है. दूसरी सतर में वो कह रहा है कि रूह के परिंदे के उड़ने के बाद ही नहीं बल्कि पहले ही इंसान का रंग मौत के डर से ज़र्द (पीला) पड़ा रहता है. उसे पता होता है कि वो इक रोज़ वो फ़ना हो जाएगा और ये ज़िंदगी की सरगर्मी ख़त्म हो जाएगी. फ़ना होने के डर से उसका रंग पीला पड़ा रहता है. मौत के डर से वो इस हसीन ज़िंदगी का लुत्फ़ नहीं ले पाता है.
इसी बात को ग़ालिब यूँ भी तो कहते हैं-
“मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती”
ऊपर वाले शेर में ग़ालिब ने ज़बान से इक ऐसा सहर (जादू) पैदा किया है कि हम समझ ही नहीं पाते कि रंग के उड़ने की बात हो रही या रूह के तायर (पक्षी) के उड़ने की बात हो रही है. वैसे भी हम जानते हैं कि रंग उड़ने के बाद जो रंग बचा रह जाता है वो रंग भी ज़र्द होता है. उर्दू में भी इक मुहावरा होता है “ रंग उड़ना” जिसका म’आनी भी होता है “रंग ज़र्द पड़ जाना”.
इस शेर की दूसरी तशरीह यूँ भी की जा सकती है. यहाँ शायर कह रहा है कि मैने ज़िंदगी में ही अपनी रूह को ज़र्द रंग में रंग लिया था. जोग उठा लिया था. इक तरह से कह सकते हैं मौत का लिबास यानि फ़ना का रंग पहन लिया था. इसका मफ़हूम (अर्थ) हुआ कि मैने अपने नफ़स पर क़ाबू पाकर उसे फ़ना कर दिया था या कह लें मैं मरने से क़िब्ल ही मर चुका था.
अगर हम ग़ालिब के इन दोनों अशआर का लब्बो लुआब निकालें तो यही निकलेगा कि इंसान कायनात की दूसरी अशयाअ से ऊँचे मक़ाम पर फ़ायज़ है क्यूँकि उसे पता है कि वो इक रोज़ फ़ना हो जाएगा. कायनात की दूसरी अशयाअ तो सिर्फ़ फ़ना होने पर नाला-ओ-फ़रियाद करती हैं लेकिन इंसान तो तज़िंदगी इस ग़म में मुब्तेला रहता है कि इक रोज़ वो फ़ना हो जाएगा. इस पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र भी करता रहता है इसलिए वो मरने से क़िब्ल ही कई दफ़ा मर चुका होता है.
हनीफ़ कैफ़ी साहब के अल्फ़ाज़ में कहें तो-
“अपने काँधों पे लिए फिरता हूँ अपनी ही सलीब
ख़ुद मिरी मौत का मातम है मिरे जीने में”
(१६)
“हूँ गर्मिये-निशात-ए-तसव्वुर से नग़मासंज
मैं अन्दलीब-ए-गुलशन-ए-नाअफ़रीदा हूँ”
ग़ालिब का ये शेर मेरा दिल अज़ीज़ है. ये शेर उनके दीवान में शामिल नहीं है. शेर की इक ख़ूबसूरती उसकी तहदारी भी होती है. तहदारी मतलब उसके कितने म’आनी निकल सकते हैं और इस शेर में तो न जाने कितने म’आनी छिपे हुए हैं.
इस शेर की पहली तशरीह यूँ है कि ग़ालिब यहाँ कहते हैं कि मैं जो चीज़ें पहले से देख लेता हूँ या जिनको ख़याल में लाता हूँ उसकी शादमानी (ख़ुशी) की हरारत (गर्मी) से मैं नग़मे गाता हूँ या अशआर लिखता हूँ. ग़ालिब ने अपने अशआरों में तसव्वुर या ख़याल को बारहा और बेतरह अहमियत दी है.
दूसरी सतर में वो कहते हैं कि मैं उस बाग़ का बुलबुल हूँ जो अभी बनना बाक़ी है. यानि मैं नग़मों से भरा हुआ तो हूँ लेकिन वैसा गुलशन अभी यहाँ मौजूद नहीं जहाँ मैं गा सकूँ. १५० बरस पहले ही ग़ालिब ये समझ चुके थे कि उनका दीवान उस ज़माने के लिए नहीं है बल्कि सैकड़ों बरस बाद आने वाले ज़मानों में किसी पाक किताब की तरह एहतेराम पाएगा.
ग़ालिब कहते हैं मैं उन तरानों को गाता हूँ जो मेरे तसव्वुर की ख़ुशी के जोश से वुजूद में आते हैं. मैं आज के बाग़ का बुलबुल नहीं हूँ. मैं उस आइंदा के बाग़ का बुलबुल हूँ जब ये बातें सिर्फ़ ख़याल परदाज़ी नहीं रह जायेंगी बल्कि सच हो जाएँगी और तब मुस्तक़बिल रौशन और ख़ूबसूरत होगा.
इस शेर की इक तशरीह इस तरह भी हो सकती है वो यूँ कि शायर कहता है कि मैं अपने महबूब के ख़याल की ख़ुशी में खोकर उसी की हरारत से विसाल (मिलन) के नग़मे गाता हूँ, जबकि हाज़िर में (प्रत्यक्ष रूप से) महबूब कहीं मौजूद नहीं है. मैं तो उस वक़्त के नग़मे गाता हूँ जब वो मेरे क़रीब होगा.
इस शेर की इक और तशरीह इस तरह भी की जा सकती है कि शायर ने ज़मीन पर ही बहिश्त इतनी गहराई से तसव्वुर कर लिया कि वो बेवजह ही इक हसीन तराना गाने लगा. अब शायर कहता है ये लहन (धुन) इतनी ख़ूबसूरत थी कि कोई बुलबुल भी मेरे मुक़ाबिल नहीं हो सकता था. इसे जहाँ गाना चाहिए वैसा हसीन बाग़ तो अभी तक बना ही नहीं.
देखिए ना! हम कितनी आसानी से इस १५० साल पहले लिखे शेर से ख़ुद को जोड़ सकते हैं. आप अच्छा काम कर रहे हैं वो चाहे जो भी काम हो और उसे वो अहमियत नहीं मिल रही जो उसे मिलनी चाहिए और कोई भी आपको या आपके काम को समझ नहीं पा रहा हो तो बिल्कुल उदास ना होइये. ग़ालिब के अन्दाज़ में ख़ुदऐतमादी के साथ उससे और ख़ुद से कहिए-
“मैं अन्दलीब-ए-गुलशन-ए-नाअफ़रीदा हूँ” और शादमाँ (ख़ुश) हो जाइए.
(१७)
यक नज़र बेश नहीं फ़ुरसत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है यक रक़्स-ए-शरर होने तक
मैंने तशरीह के लिए ग़ालिब के जिस शेर का इंतिख़ाब किया हैं वो ज़िंदगी के फ़ानी होने की जानिब इशारा करता हैं. हम सब जानते हैं इस फ़ानी दुनिया में जो भी ज़िंदा शय है उसे इक रोज़ फ़ना होना है. आइए देखें अब इसी मौज़ू पर ग़ालिब अपने मखसूस ( विशिष्ट) अन्दाज़ में क्या कहते हैं. ग़ालिब के तो तक़रीबन हर शेर में कुछ न कुछ तसव्वुफ़ (दर्शन) पाया जाता है. उनका ख़याल जाने कहाँ कहाँ पहुँचता है. उनके इसी शेर को देख लीजिए.
इस शेर में ग़ालिब कह रहे कि हमें लगता है कि हमारी ज़िंदगी तवील है. हमारे पास बहुत वक़्त है. हम ताज़िंदगी इस बात से ग़ाफ़िल रहते हैं कि हमारा वुजूद पल भर से इक लहज़ा भी ज़्यादा नहीं है या शायद उससे भी कम है. ये जो बज़्म यानि ज़िंदगी की सरगर्मी है वो सिर्फ़ इक चिंगारी की उम्र जितनी है यानि हमारे और तुम्हारे होने की सिर्फ़ इतनी ही वक़त है. इतने ही वक्फ़े (समय) के लिए हम इस दुनिया में हैं. हमें ये ख़याल में रखकर अपनी ज़िंदगी बसर करनी चाहिये कि हमारे पास यहाँ रहने का वक़्फ़ा बहुत मुख़्तसर (कम) है.
आइए इसी मौज़ू पर ग़ालिब साहेब के इक और शेर की तशरीह करते हैं-
“मैं चश्म वा कुशादह गुलशन नज़रफ़रेब
लेकिन अबस के शबनम ख़ुर्शीद दीदा हूँ”
यहाँ ग़ालिब साहेब फ़रमा रहे कि मैं बड़ी बड़ी आँखें खोलकर इस ख़ूबसूरत से गुलशन यानि दुनिया को देख रहा हूँ. लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरी हस्ती उस शबनम की बूँद की तरह है जिस पर सूरज की नज़र पड़ी हुई है. जिस तरह शबनम सूरज की तपिश से फ़ना हो जाती है वैसे ही मैं भी जल्द फ़ना हो जाऊँगा यानि मेरी ज़िंदगी भी शबनम की ज़िंदगी की मानिंद मुख़्तसर और फ़ानी (नश्वर) है.
“सब्ज़ा-ए-नौरुस्ता रहगुज़ार का हूँ
सिर उठाते ही हो गया पामाल “
ये शेर मीर साहेब का इसी मौज़ू पर बेहद ख़ूबसूरत शेर है. सब कहते हैं कि मीर के अशआर में सिर्फ़ आशिक़ी और रोना-धोना मिलता है. तसव्वुफ़ तो न के बराबर है लेकिन इस शेर में मीर के तसव्वुफ़ाना ख़याल की इक झलक मिलती है. इस शेर की पहली सतर में शायर कह रहा कि मैं किसी रहगुज़र पर उगी हुई छोटी घास की मानिंद हूँ.
दूसरी सतर में शायर कह रहा है कि मैं अभी थोड़ा सा ही ज़मीन से ऊपर उगता हूँ कि उस रहगुज़ार पर चलने वाले लोग मुझे रौंद डालते हैं.
यहाँ पर भी शायर इंसानी ज़िंदगी के मुख़्तसर और फ़ानी होने की जानिब इशारा कर रहा है. इंसान का वुजूद इतना भर ही है कि वो जैसे ही सिर उठाने के क़ाबिल होता है उसे क़ज़ा (मौत) आ जाती है. सिर उठाने के क़ाबिल होता हूँ का मफ़हूम ये हुआ कि जैसे ही मैं किसी काम को अंजाम देने लायक़ होता हूँ या फिर जैसे ही मुझे अपनी ज़िंदगी का मक़सद समझ आता है.
आइए अब मीर के ही दूसरे शेर की तरफ़ चलते है~
“कहा मैंने गुल का कितना है सबात
कली ने ये सुनकर तबस्सुम किया”
इस शेर में शायर कह रहा कि मैंने कली से पूछा कि फूल की ज़िंदगी कितनी होती है? ये सुन कर कली ने कोई जवाब नहीं दिया और इक तंज़ भरी हँसी हंसने लगी.
इस शेर में भी मीर इंसानी ज़िंदगी की तशबीह फूल की ज़िंदगी से देकर ये साबित करने की कोशिश कर रहे कि इस फ़ानी दुनिया के सारे मख़लूक़ फ़ानी हैं भले वो कितने ही दिलफ़रेब और हसीन क्यूँ न हों. उन्हें फूल की तरह ही इक दिन मुरझाना है और फ़ना हो जाना है. कली की मुस्कान इंसानी ज़िंदगी पर ख़ूबसूरततरीन तंज़ है.
तो देखा आपने जनाब मीर और ग़ालिब दोनों अपने-अपने अन्दाज़ में हमसे मुख़ातिब हैं और हमें नसीहत कर रहे कि हमें कभी भी ये फ़रामोश करना चाहिए कि हम इस सरा (दुनिया) में इक महदूद और मुख़्तसर वक़्त गुज़ारने के लिए ही आए हैं. हमें अपनी ज़िंदगी का मक़सद पहचानने में ताखीर (देर) नहीं करनी चाहिए. अपने कामों को फुर्ती और सरगर्मी से अंजाम देना चाहिये.
(१८)
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यूँ न जाए
आस्तान-ए-यार से उठ जाएँ क्या
आइए ग़ालिब साहेब के इस दिलचस्प से शेर की तशरीह करते हैं.
ग़ालिब और घबरा जायें. इस शेर में वो कह रहे भले ख़ून का दरिया सर पर से क्यूँ न गुज़र जाए वो माशूक़ के दर से उठने वाले नहीं हैं. माशूक़ उनके साथ चाहे कितनी ही ज़्यादती, कितनी ही जफ़ा, कितना ही जब्र क्यूँ न करे वो माशूक़ से मुँह नहीं मोड़ सकते. उसका दर छोड़ कर कहीं और नहीं जा सकते हैं.
इसी बात को वो इस तरह भी कहते हैं-
“उस फितना ख़ू के दर से अब उठते नहीं ‘असद’
इस में हमारे सिर पे क़यामत ही क्यूँ न हो”
यहाँ ग़ालिब उसी बात को और भी पुरज़ोर तरीक़े से कह रहे. कहते हैं कि क़यामत के रोज़ जबकि क़ब्रों से निकलकर मुर्दे भी उठ खड़े होंगे उस रोज़ भी हम अपने महबूब के दर से उठने वाले नहीं है.
देखा आपने?
क्या शोख़ी है!
क्या शरारत है !
कैसी ज़िद है!
ग़ालिब के ही अन्दाज़ में अगर कहें तो-
बला-ए-जाँ है ‘ग़ालिब’ उस की हर बात
इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या
वो ख़ुद यूँ ही नहीं कहते कि “ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयॉं और “.
आइए देखें इसी मौज़ू पर मीर क्या कहते हैं-
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
ये मीर साहेब की मशहूर ओ मारूफ़ ग़ज़ल का शेर है. ये मीर का ख़ूसूसी (विशिष्ट) अन्दाज़ है कर्ब ओ अन्दोह ( पीड़ा) से भरा हुआ. किस कर्ब से वो गुज़रे होंगे जब उन्होंने उसका दर छोडा होगा! फिर भी आख़िरश उन्हें हार मानकर माशूक़ के दर से उठना ही पड़ा. इस शेर में शायर कह रहा कि जैसे कोई इंसान इस फ़ानी (नश्वर) दुनिया से रूख़सत नहीं होना चाहता लेकिन फिर भी उसे मौत का बुलावा आने पर जाना ही पड़ता है. मीर हू ब हू उसी अन्दाज़ में माशूक़ के दर से उठे.
इस बात को ख़ुदा-ए-सुख़न ने किस ख़ूबसूरती से शेर में ढाला है इसीलिए तो ग़ालिब भी उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत (श्रद्धांजलि) पेश करते हुए कहते हैं-
रेख़ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
अगले ज़माने में कोई मीर भी था
आप इन अशआर से मीर साहेब और जनाब ग़ालिब के अंदाज़ में फ़र्क़ का अंदाज़ा लगा सकते हैं. एक ही मौज़ू (विषय) को दोनों ने कितनी अलग तरह से बरता है. आपकी आप जानें कि आपको इनमें से किसका अंदाज़-ए-बयॉं पसंद आया. हम तो फ़राज़ साहेब से अल्फ़ाज़ उधार लेकर ग़ालिब साहेब के बारे में यूँ कहेंगे-
उस का अपना ही करिश्मा है फ़ुसूँ है यूँ है
यूँ तो कहने को सभी कहते हैं यूँ है यूँ है
(१९)
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग
ग़ालिब का ये शेर ग़ालिब की शोख़ तबीयत का वाज़ेह सुबूत है लेकिन इस शेर में इक अलग तरह की शोख़ी है. दरअस्ल ये शेर इक हसीन शिकायत है जो बहुत खूबसूरत अल्फ़ाज़ में ख़ुदा से की गई है.
बज़ाहिर ग़ालिब इस शेर में ख़ुदा से अर्ज़ करते नज़र आ रहे कि से मेरे परवरदिगार मुझसे मेरे गुनाह का हिसाब मत माँग. इसका इक म’आनी ये हो सकता है कि मेरे गुनाह शुमार (संख्या) में इतने ज़ियादा हैं कि मैं उनका हिसाब नहीं दे पाऊँगा.
पहली सतर देखें तो शेर का दूसरा ही म’आनी नज़र आ रहा है. वो कह रहे है जब जब मैं अपने गुनाहों का शुमार करता हूँ मुझे मेरे वो ख़्वाहिशात याद आते हैं जो पूरे न हो सके यानि मुझे मेरे नाकरदा (जो नहीं किए जा सके) गुनाह याद आते हैं. तूने मेरी ख़्वाहिशात पूरी न करके जो दाग़ (ज़ख़्म) मेरे दिल पर लगाये हैं उन्हें भुलाना नामुमकिन है. जिस तरह मेरे गुनाह लातादाद (अनगिनत) हैं उसी तरह इन ख़्वाहिशात पूरी न होने के दाग़ जो तूने दिये हैं वो भी शुमार में उसी कसरत से हैं.
यानि इक तरह वो ख़ुदा से मुख़ातिब होकर कह रहे-
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इस शेर में शोख़ी ये है कि अपने करदा गुनाहों पर शर्मिंदा होने के बजाय ग़ालिब ख़ुदा से अपने नाकरदा गुनाहों का हिसाब माँग रहे हैं.
अगर सिर्फ़ दूसरी सतर पढ़ें तो यूँ महसूस होता है जैसे वो ख़ुदा से इल्तिजा कर रहे कि वो उनसे उनके गुनाहों का हिसाब न माँगे. इससे उन्हें उनके बेशुमार गुनाह याद आएँगे और वो शर्मिंदा हो जाएँगे. जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. वो तो ख़ुद ख़ुदा पर उनकी लातादाद ख़्वाहिशात पूरी न करने का इल्ज़ाम धरे दे रहे हैं. इक तरह से वो ख़ुदा को शर्मिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं. म’आनी ये हुआ कि अपने करदा गुनाहों पर शर्मिंदा होने के बजाय वो अपने नाकरदा गुनाहों को याद करके ग़मगीन हो रहे हैं. वो अफ़सोस कर रहे हैं कि काश! मुझे उन गुनाहों को करने का मौक़ा मिला होता.
तभी तो अपने इक और शेर में वो शिकायती लहजे में ख़ुदा से मुख़ातिब नज़र आ रहे हैं-
कहाँ है तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हमने दश्त-ए-इमकां को एक नक़्श-ए-पा पाया
(२०)
लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और
तनहा गये क्यूँ? अब रहो तनहा कोई दिन और
इस ग़ज़ल के अशआर मिर्ज़ा साहेब ने ज़ैनुलआबेदीन साहेब ख़ाँ आरिफ़ जो कि उनकी बीवी के भांजे थे उनकी वफ़ात पर लिखे थे. मिर्ज़ा साहेब ने उन्हें अपने बेटे की तरह पाला था. वो उनके दोस्त और सुख़नफ़हम शायर भी थे. आइए आज इसी ग़ज़ल के चंद अशआर की तशरीह करते हैं. इस पुरदर्द ग़ज़ल में तंज़ और शोख़ी का रंग भी मौजूद है. यही ग़ालिब साहब का ख़ुसूसी अन्दाज़ है. वो दर्द के रंग को भी शोख़ी अता कर देते हैं. पढ़ने वाले को महसूस ही नहीं होता कि किस कर्ब ओ अन्दोह (पीड़ा) में ये ग़ज़ल लिखी गई है.
ये मर्सिया है लेकिन लोग इसे ग़ज़ल ही समझते हैं. मर्सिया ग़ज़ल की तरह ही होता है जिसमें मरे हुए लोगों के लिए रंज का इज़हार किया जाता है. दरअसल ये उनकी याद में लिखा गया शोकगीत होता है.
आइए इसके पहले शेर की तशरीह करते हैं. यहाँ ग़ालिब साहेब आरिफ़ साहेब से मुख़ातिब होकर कह रहे कि तुमको अभी नहीं मरना चाहिए था बल्कि तुम्हें अभी कुछ और रोज़ इस सरा (दुनिया) में रहकर मेरा रस्ता देखना चाहिए था. फिर मेरे साथ ही इस फ़ानी दुनिया से कूच करना चाहिए था. अब चूँकि तुम मुझे इस दुनिया में तनहा छोड़कर मुल्के अदम (परलोक) चले गये हो तो अब तुम भी वहाँ तनहा होने का दर्द सहो. वहीं मेरा इंतेज़ार करो यानि मेरी वफ़ात का इंतेज़ार करो.
इस मर्सिये का इक और शेर मुझे पसंद है. आइए उसकी भी तशरीह करते हैं-
“जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब! क़यामत का है गोया कोई दिन और”
जो ये तुम मुझसे जुदा होते हुए मुझे समझा रहे हो कि अब हम क़यामत के रोज़ मिलेंगे. मुझे बताओ कि आज का रोज़ क्या मेरे लिये क़यामत के रोज़ से कम है इसलिए अपना वादा वफ़ा करो और मुझसे आन मिलो.
आपने देखा कि इस शेर का दूसरा मिसरा किस क़दर दर्द से पुर है! कितनी दिलकशी से ग़ालिब साहेब ने ये बात कही है कि मेरे लिए तो तुम्हारी वफ़ात का रोज़ ही क़यामत का रोज़ है!
बात का ये तर्ज़ और ऐसी पुरकशिश ज़बान जो दर्द में भी कशिश पैदा कर दे फ़क़त ग़ालिब साहेब के यहाँ ही मिलती है.
(२१)
दहर जुज़ जलवा-ए-यकताइ-ए-माशूक़ नहीं
हम कहाँ होते अगर हुस्न न होता ख़ुदबीं
आज का मेरा इन्तख़ाब ग़ालिब के इक क़सीदे का शेर है. जो ग़ालिब के तसववफ़ी होने की दलील है. ये शेर उनकी शख़्सियत के तस्ववफ़ाना (दर्शन से सम्बन्धित) पहलू को रौशनी में लाता है. आइए इसकी तशरीह (व्याख्या) करते हैं.
शेर की पहली सतर (पंक्ति) कहती है. ये दुनिया कुछ नहीं है सिवाय ख़ुदा के हुस्न के बेमिसाल और लाजवाब होने की दलील के. ये दुनिया बनाकर ख़ुदा ने अपना हुस्न ज़ाहिर किया है. ये दहर (दुनिया) उस हुस्न-ए-अववलीं (ख़ुदा) के लिए आईना है.
दूसरी सतर में ग़ालिब सवाल पूछ रहे कि हम कहाँ होते ?? यानि हम ना होते अगर हुस्न ए अज़ल यानि ख़ुदा-ए-लाशरीक अपने आप को देखने का इरादा न कर लेता. मफ़हूम ये हुआ कि हम सब उसी के नूर का हिस्सा हैं. पूरे दहर में जा-ब-जा उसी का हुस्न रौशन है. वही बात हुई अकबर इलाहाबादी वाली-
“हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है”
इस शेर की इक तशरीह इस तरह भी हो सकती है. हम कहाँ होते का म’आनी इस तरह भी लिया जा सकता है कि हम जाने किस जगह होते? ख़ुदा जाने इस जहान में होते या किसी और ही जहान में.
अब मीर साहेब का ये शेर पढ़िए-
“हक़ ढूँढ़ने का आप को आता नहीं वर्ना
आलम है सभी यार कहाँ यार न पाया”
देखिए मीर भी वही बात कह रहे हैं. सारा आलम ख़ुदा के हुस्न का अक़्क़ास है या कह लें सारे आलम के ज़र्रे ज़र्रे में ख़ुदा मौजूद है लेकिन फिर भी वो हमें नहीं मिलता है. हमें उसे तलाश करने का हुनर ही नहीं मालूम हैं. हम यहाँ वहाँ भटकते रहते हैं.
अब पढ़िए अमीर मीनाई साहेब क्या कह रहे हैं-
“कौन सी जा है जहाँ जलवा-ए-माशूक़ नहीं
शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर “
वही ग़ालिब वाली बात हुई ना! हर जगह माशूक़ यानि ख़ुदा जलवागर है. हर ज़र्रे में वो ही समाया हुआ है. बस हमारी आँखें उसकी वुसअत (व्यापकता) को समेट नहीं पातीं हैं यानि उसे देख नहीं पातीं हैं. उसे देखने के लिए नज़र पैदा करनी पड़ती है.
ये किस नज़र की बात कर रहे ये लोग?
वो कौन सा हुनर है जिसको पैदा करने की बात कर रहे ये लोग?
तो जनाब! ये आसान काम नहीं है. इसके लिए कबीर, फ़रीद, रूमी, शम्स, गौतम, राबिया, महावीर, ग़ालिब, मीर जैसा बनना पड़ता है. उनके जैसी नज़र पैदा करनी पड़ती है. उनके जैसा हुनर पैदा करना पड़ता है.
(२२)
नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से , ग़ालिब फ़ुरुअ को
ख़ामोशी से ही निकले है जो बात चाहिए
मज़मून कोई भी हो जिस भी मज़मून को मिर्ज़ा ग़ालिब ने छुआ वो जावेदानी (अमर) हो गया. ग़ालिब के अमूमन सभी अशआर में कोई न कोई तसव्वुफ़ाना (दर्शन से सम्बन्धित) पहलू निकल ही आता है. आइए पहले इस शेर की तशरीह करते हैं फिर ख़ामोशी के मौज़ू (विषय) पर कुछ बातें करते हैं.
पहली सतर (पंक्ति) में शायर कह रहा कि शाख़ें जड़ों से ही परवरिश पाती हैं और दूसरी सतर में कह रहा कि जो भी बातें हैं वो ख़ामोशी से ही वुजूद में आती हैं. ये तो वाज़ेह (स्पष्ट) म’आनी हो गया. आइए अब आगे इसकी तशरीह करते हैं.
ज़रा बताइए जड़ें कहाँ होती हैं पेड़ों की? ज़मीन के नीचे ना यानि तारीकी और ख़ामोशी में.
दूसरी सतर में शायर पहली सतर के म’आनी को ही वुसअत फ़राहम कर रहा है. कह रहा सारी बातें ख़ामोशी से ही पैदा होती हैं. वो काशिफ़ हुसैन साहेब कहते हैं ना-
“शोर जितना है कायनात में शोर
मेरे अंदर की ख़ामोशी से हुआ”
पहले हमारे ख़ामोश ज़ेहन में कोई बात आती है फिर हम उसे ज़बान से अदा कर उसे वुजूद में लाते हैं लेकिन म’आनी तो फिर भी ख़ामोशी के पर्दे में छिपा रहता है.
हर चीज़ तारीकी या ख़ामोशी से परवरिश पाती है यानि वहाँ से वजूद में आती हैं जिस जगह को या जिस चीज़ को हम नहीं जानते हैं. जो वाज़ेह (स्पष्ट) नहीं है. हम शाख़ें तो देखते हैं लेकिन जड़ों को नहीं देख सकते हैं. हम बातें तो सुनते हैं लेकिन उन बातों के म’आनी ख़ामोशी में ही पिंहा (छिपे) होते हैं. मफ़हूम ये हुआ कि हर बदन वाली चीज़ किसी बेबदन पैकर से ही वुजूद में आती है. ये पूरी कायनात जिस पैकर का शाहकार है वो पैकर बेबदन है. ख़ामोशी और तारीकी में गुम है. देखें नाज़िर वाहिद साहब क्या कह रहे-
रंग दरकार थे हम को तेरी ख़ामोशी के
एक आवाज़ की तस्वीर बनानी थी हमें
लेकिन यहाँ तो वो पैकर ही बेबदन है तो उसकी आवाज़ की क्या बात करें! उधर अजमल सिद्दिक़ी साहब कहते हैं-
“बोल पड़ता तो मेरी बात मेरी ही रहती
ख़ामोशी ने दिए हैं फ़साने क्या क्या”
म’आनी अगर वो बेबदन पैकर बोल पड़ता तो शायद हम उसके मुतल्लिक़ कोई अंदाज़ा लगा पाते लेकिन चुप रहकर तो उसने सबको उसको लेकर अलग अलग अफ़साने बनाने पर मजबूर कर दिया है. इसीलिए तो सब उस बेबदन पैकर यानि ख़ुदा की पहचान अलग अलग तरीक़े से बताते हैं. तो देखा आपने इस छोटे से शेर में कितना गहरा तसव्वुफ़ छिपा है.
मौलाना जलालुद्दीन रूमी भी खामोशी के मौज़ू पर कहते हैं ना-
हमारे दिल से होंठों के माबीन इक रास्ता होता है
जिसमें असरार-ए-ज़िंदगी पैवस्त होते हैं
ख़ामोशी से ये राज़ अयां हो जाते हैं
जबकि अल्फ़ाज़ इस रास्ते को बंद कर देते हैं
(२३)
अहल-ए-बीनश को है तूफ़ान-ए-हवादिस मकतब
लुत्मा-ए-मौज कम अज़ सैली-ए-उस्ताद नहीं
ग़ालिब साहेब अपने कई अशआर में इबरत फ़राहम करते नज़र आते हैं. ये शेर भी उन्हीं अशआर में से एक है.
इस शेर में शायर कहता है जो लोग दानिशमंद हैं और जिनकी बसीरत वा है,उनके लिए मुसीबतें, हादसे और ग़म की आँधी इक मकतब की तरह है. वो उससे इबरत हासिल करते हैं. उनके लिए हादसों के थपेड़े उस्ताद के थप्पड़ की मानिंद हैं. जिस तरह उस्ताद के थप्पड़ शागिर्द को सुधारते हैं, उसे एक ख़ूबसूरत साँचे में ढालते हैं, उसी तरह ग़म ओ अंदोह इंसान की शख़्सियत को संवारते हैं. इसलिए हादसों से घबराना नहीं चाहिए. उनसे ख़ौफ़ नहीं खाना चाहिए बल्कि उनसे इबरत (सीख) हासिल करनी चाहिये.
वो असग़र गोंडवी साहेब कहते हैं ना –
“चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए”
जिस तरह उस्ताद का थप्पड़ शागिर्द के हक़ में होता है, उसी तरह ख़ुदा भी इंसान की ज़िंदगी में मुश्किलात उसकी अच्छाई के लिए ही भेजता है. उसे कुछ नया सिखाने के लिए उसकी ज़िंदगी हादसों के हवाले कर देता है. जिस तरह हीरा तराशने के बाद चमकता है और सोना आतिश में तपकर कुंदन बनता है, उसी तरह शागिर्द भी उस्ताद के थप्पड़ सहकर दानिशमंद बनता है.
इसलिए अहले दानिश और अहले नज़र वही है जो ज़िंदगी के हादसों से ज़िंदगी के लिए ज़रूरी सबक़ हासिल करता है. क्यूँकि ये हादसे उसके लिए दरसगाह की मानिंद हैं.
इस शेर को पढ़कर मुझे रहीमदास जी का इक मशहूर दोहा याद आ रहा-
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय.
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय. .
यहाँ रहीमदास जी कह रहे हैं कि थोड़े रोज़ की मुसीबतें भी इंसानी ज़िंदगी में ज़रूरी हैं क्यूँकि बाज़ अवक़ात हमें मुसीबतों या हादसों के दरमियान ही पता चलता है कि कौन हमारा अच्छा चाहता है और कौन हमारा बुरा चाहता है. कौन हमारा सच्चा दोस्त है यह हमें ग़म के दिनों में ही पता चलता है.
तो जनाब मुश्किलात से कभी न घबरायें बल्कि डटकर उसका सामना करें. देखियेगा आपकी फ़ितरत के हुस्न में इज़ाफ़ा ही होगा.
नरगिस फ़ातिमा बनारस हिंदू विश्विद्यालय के रणवीर संस्कृत विद्यालय में गणित का अध्यापन. |
वाह ! शानदार !
अक्सर दफ़्तर पहुँचने की हड़बड़ी में सुबह कुछ पढ़ना नहीं हो पाता है। बाद के लिए छोड़ना पड़ता है, जो कई बार किश्तों में ही पूरा हो पाता है। आज ऐसा नहीं हुआ। ऐसा नहीं कर पाया।
नरगिस जी के इस गुलदस्ते की ख़ुशबू से बचकर नहीं निकल पाया। इसमें सिर्फ़ 23 फूल नहीं हैं, बल्कि इसमें तमाम गुलों की ख़ुशबू मौजूद है। यह मुसलसल चल रही एक गुफ़्तगू की तरह है, जिसमें तमाम शायर आ जा रहे हैं। रूमी, मीर, रहीम, अकबर इलाहाबादी, फ़ैज़, अमीर मीनाई, हनीफ़ कैफ़ी, उमर क़ुरैशी, कैफ़ी आज़मी, फ़राज़, सब बारी-बारी से गुलशन के कारोबार को जारी रखते हैं।
जिस प्यार और इत्मीनान से ग़ालिब को पेश किया गया है उसके लिए बार-बार मोहब्बत और सलाम पहुँचे।
ग़ालिब के मुश्किल काव्य पर यह ‘तशरीह’ बेहद दिलचस्प औ’ लाज़वाब है…
‘जन्नत की हकीकत’ जानने वाले ग़ालिब अकेले शायर हैं… कवि हैं… कोई ऐसा दूसरा कवि नहीं है जिसने जन्नत को दोज़ख में डाल दिया हो –
‘दोजख में डाल दो कोई लेकर बिहिश्त को’ और ‘क्यों नय फिरदौस को दोज़ख में मिला ले यारब !’
बेशक..
ग़ालिब को समझने वाले कम नहीं हैं… फिर भी ऐसा क्या है उनमें… जो पूरी तरह पकड़ में नहीं आता…!
नरगिस फ़ातिमाजी की यह ‘तशरीह’ बेहद मौज़ूं है…उन्हें सलाम…!
Be misaal aur laajawaab….
गलिब का अंदाज़ ज़ुदा है। उनके साथ हँसना, रोना, बतियाना मुमकिन है। तसवुफ़ की बात करते समय सबसे ऊँचे पायदान पर होते हैं। सफ़र मैं हूँ और यक़ीन मानिये सफ़र का पता है नहीं लग रहा। नरगिस जी और समलोचन का शुक्रिया। नरगिस जी से गुज़रिश है कि एक आलेख गालिब के बनारस प्रवास पर भी लिखें। उस शहर को उस तरह उनकी आँखें ही देख सकती थीं।
आपकी छोटी सी टिप्पणी भी कमाल की है, पूरा आलेख पढ़ने के लिए प्रेरित करती हुई. पढ़ता हूं
नागरी लिपि में उर्दू कविता पढ़ने वालों की ग़ालिब विषयक समझ में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा करने में समर्थ इस सुंदर आलेख के लिए नरगिस फ़तिमा जी को ह्रदय से धन्यवाद.
समय समय पर अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं के साहित्य पर ऐसे ही प्रबुद्ध लोगों के आलेख आगे भी छपें तो बेहतर है.
नरगिस फ़ातिमा जी ने काफ़ी मेहनत की है। शेरी तशरीह में उनकी पेशलफ़्ज़गी शायरी की उनकी समझ और ज़बाँदानी पर राय क़ायम कराने वाली है। आख़िर में ऐसे पाठ ही ज़्यादा कारगर होते हैं।
Behtreen, lajawaab….
Intehai dilchasp andaaz me pesh kia hai aapne Mohtarma Nargis Sahiba….
Please keep up the good work….
वाह क्या खूबसरत तशरीह है- ग़ालिब की शायरी की तहदारी में जाती हुई।यहाँ ग़ालिब के कलाम की गहराई ,उसका ज़िंदादिली और जीवन दर्शन सब जानते ही बनता है।बीच-बीच में दीगर शोहरा के उद्धरण इसकी पठनीयता को द्विगुणित करते हैं।यक़ीनन ‘समालोचन’ की एक अहम पेशकश!
और बेहतर तशरीह हो सकती थी, मसलन मुद्द’आ अन्क़ा है अपने आलम ए तक़रीर का में अपने से मुराद ख़ुद मुद्द’आ भी हो सकता है. हर तक़रीर का मुद्द’आ उसके आलम का अन्क़ा है.
बेहतर लेख हो सकता था ये लेख.
ग़ालिब वास्तव में कठिन शायर हैं पर नर्गिस जी ने इतना आसान बनाया कि मैं शेर के मानी समझता गया। मुझे उर्दू -फारसी बिल्कुल भी नहीं समझ आती। हम जैसों के लिए नर्गिस फातिमा ने बहुत अच्छे से लिखा है कि ग़ालिब की शायरी दिल में उतरती चली जातीअरुण। शेरों की यह व्याख्या मैं बहुत दिनों बाद पढ़ रहा हूं वो भी समालोचन के मार्फत। आज ग़ालिब की शेरो शायरी के फन को देखता चला गया। इसे किताब के रूप में जल्द ही आना चाहिए। समालोचन को धन्यवाद।
बहुत खूब विश्लेषण किया है निर्गिस जी ने. ग़ालिब को समझना थोड़ा कठिन है लेकिन नर्गिस जी ने उन्हें आसान शब्दों में हमतक पहुँचाया. साधुवाद.
बहुत अच्छा लिखा है!
ग़ालिब की शायरी पर लिखे गए इस मकाले ने मुझे दिलबंद कर दिया! साहिबा-ए-कलम ने ग़ालिब के अश’आर को नए सिरे से ताबीर किया है, और उनके जज़्बात का खूबसूरत तरीके से इज़हार किया है। यह ग़ालिब की शायरी की हक़ीक़त और हसीनत को बयां करता है।
इसमें ग़ालिब की शायरी की गहराई, दर्द, और जुदाई को महसूस किया जा सकता है। कातिबा ने ग़ालिब के लफ़्ज़ों को अपने दिल से गुज़ार कर कागज़ पर उतारा है, और यह पढ़कर लगता है कि ग़ालिब की रूह खुद बोल रही है। यह अदबी फहम तारीफ़ के काबिल है। इसकी ज़बान शफ़्फ़ाफ़ है, जो पढ़ने वाले को मुतासिर करती है। यह ग़ालिब के आशिक़ों के लिए एक तोहफ़ा है, और उन्हें ग़ालिब की शायरी के साथ-साथ ज़िन्दगी के गहरे मआनी को समझने का मौका देता है।
मेरी दिली दुआ है कि यह मकाला उर्दू अदब के आशिक़ों तक पहुँचे और उन्हें ग़ालिब की शायरी की गहराई से आश्ना कराये।