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समालोचन

Home » शैलेन्द्र चौहान की कविताएँ

शैलेन्द्र चौहान की कविताएँ

हमारे बचपन में एक क़ुतुबनुमा (compass) रहता था. अचरज से देखते थे कि देखो उत्तर (दिशा) तलाश ही लेता है. अरसे बाद वह वरिष्ठ कवि शैलेन्द्र चौहान की कविता में दिखा. वह खो गया है. उसे वह दिशा देने वाली कविताओं में खोजते हैं. एक समवेत स्वर हो जैसे. हाहाकार की तरह उठता हुआ. शैलेन्द्र चौहान की कुछ नई कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
October 4, 2024
in कविता
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शैलेन्द्र चौहान की कविताएँ
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शैलेन्द्र चौहान की कविताएँ

 

क़ुतुबनुमा खो गया है

हम कहाँ हैं क्यूँ हैं कैसे हैं
क्या फर्क पड़ता है
जहाँ हैं जैसे हैं बस हैं
चल रहे हैं क्योंकि
सांसें चल रही हैं
न चमक आँखों में न उछाह न ललक
है पसरा मोतियाबिंद
जो न होता यह
तो भी होता कुछ ऐसा ही
कोई मुश्किल नहीं कराना ऑपरेशन मोतियाबिंद का
आँख से हट भी जाये गर धुंधलका
कैसे हटेगा दृष्टि से

कहा था पाश ने
‘सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी जमी बर्फ़ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है’
सच में खतरनाक है यह स्थिति
पर खतरे के मुखालिफ न हाथ हैं न लोहा
मंद हो गई रोशनी टॉर्च की

ग़ालिबन ग़ालिब याद आते हैं
फरमाते हैं
‘कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नजर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती’

दुष्यंत ने कहा
‘कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारो’
और
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों

गाया हमने बहुत ‘शलभ’ को
‘नफ़स नफ़स कदम कदम
बस एक फिक्र दमबदम
घिरे हैं हम सवाल से
हमें जवाब चाहिए
जवाब दर सवाल है
कि इन्कलाब चाहिए’
सिर्फ सवाल ही सवाल हैं हकीकत में
हर जवाब घिरा है धुंधलके से

फ़ैज़ से रहे वाबस्ता
लबालब थे जोश से, गुनगुनाते थे
‘हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के का’बे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे’
हुआ यह बैठे हैं गिद्ध मसनद पर
हम चप्पल चटकाते घूमते रहते हैं गलियों में

गाते थे कभी
‘हर जोर जुल्म की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है’
नारे जज़्ब
हो गये हवा में
वक्त बीतते हाथ फटकारने की आदत भी हवा हुई

बावजूद साहिर की बात ताउम्र याद रही
‘ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यूं देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम’
लेकिन इस नजर ने हमें बेगाना बनाया इतना कि
‘कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया’
और
रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें सताए क्यों..
फिर ग़ालिबन ग़ालिबआँसू सूख गये

अदम ने बखाना फलसफा इस तरह
‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?’
चले गये अदम छोड़कर दुनिया को ऐसा ही
‘छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है
बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ
और कुश्ती काग़ज़ी पतवार के साये में है’
दिखाया आईना कुछ यूं
जिस्म क्या है, रुह तक सब कुछ खुलासा देखिए
आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिए
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज,
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए’

दिशाहीन सफर है अब
मेरे पास था एक क़ुतुबनुमा
किस राह खो गया पता नहीं
तब निराला के अहसास को दरकिनार कैसे करें
‘मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सांध्य वेला
पके आधे बाल मेरे,
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती आ रही,
हट रहा मेला
जानता हूँ, नदी-झरने,
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला’

ऐसे में दुष्यंत याद आते हैं
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है
यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है
कोई रहने की जगह है मिरे सपनों के लिए
वो घरौंदा सही मिट्टी का भी घर होता है
सिर से सीने में कभी पेट से पाँव में कभी
इक जगह हो तो कहें दर्द इधर होता है
ऐसा लगता है कि उड़ कर भी कहाँ पहुँचेंगे
हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है’

यूं प्रोफेशनल मोटिवेटर बहुत हैं दुनिया में
उपदेशक भी लेकिन
विडंबना है कि झेलना अकेले ही है
चाहे कह गये हों मुक्तिबोध
मुक्ति अकेले में अकेले की नहीं हो सकती
मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती

मसला इतना है बकौल गालिब
‘ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता’
जो यहाँ कहीं नहीं हैं
दूर तक सन्नाटा पसरा है

और अंत में शमशेर की ख्वाहिश से रूबरू हों
‘हकीकत को लाये तखैयुल से बाहर
मेरी मुश्किलों का हल जो पाये’

जाहिर है
कुछ और भ्रम टूटेंगे अभी
मुझे कुछ और गलत होना बाक़ी है.

 

 

नासेह उर्फ नसीहतबाज़

मुझे तुम्हारी नसीहतों और भर्त्सनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता
असल में तुम्हारी सकारात्मकता और नकारात्मकता की परिभाषा मंतव्य प्रेरित है
यह साबित करने के लिए कि तुम बहुत समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति हो
यह कोरा पाखंड है, घोर आडंबर है
सोचो कितने लोगों को तुमने बिना नसीहत दिए समझने की कोशिश की
उनके कंधे पर हाथ रखकर उनके साथ कुछ कदम चले
हंसे-हंसाए बोले-बतियाये
उनके साथ होने का उन्हें अहसास कराया
गंतव्य न सही किसी मोड़ तक पहुंचाया
किसी को परनिर्भर न बनने देकर
उसके आत्मसम्मान को तिरोहित होने से बचाया
यह भी सच है कि
यह जिम्मेदारी अकेली तुम्हारी ही नहीं
हम सबकी है
समझने की जरूरत है
समाज की विसंगतियों से उपजी हताशा निराशा किसी अकेले व्यक्ति की नहीं होती
इसे महज उसकी कमजोरी कहकर पल्ला झाड़ लेना
चतुराई हो सकती है सदाशयता कतई नहीं
अगर तुम यह नहीं समझ सके
तो तुम से अधिक अहमक और धूर्त कोई नहीं
इसलिए किसी को नसीहत देने का तुम्हें कोई हक नहीं
फिर चाहे तुम कितने ही बड़े तीसमार खां, पंडित-मुल्ला-पादरी, गुरुता से लदे-फंदे जाहिल विद्वान या स्वघोषित क्रांतिकारी ही क्यों न होओ
ऐसे शोहदों की इस समाज और दुनिया को कोई जरूरत नहीं
बेहतर होगा तुम किसी अच्छे मनोचिकित्सक से
अपने इस भ्रम (रोग) का इलाज कराओ कि तुम
औरों से बेहतर हो

 

 

लोकतंत्र की जलेबी

वह एक ढुलमुल लोकतंत्रवादी था
लोकतंत्र की उसकी समझ उसकी अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर विकसित हुई थी
उसने लोकतंत्र के बारे में जो भी जाना वह चंद अखबारों, मोहल्ले की गल्प गोष्ठियों, सभा-सम्मेलनों और परिचित मित्रों के बहस मुबाहिसों का परिणाम था
अब्राहम लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति उसकी समझ को दृढ़ करती थी
लोकतंत्र के इतिहास के बारे में इतनी जानकारी पर्याप्त थी

एथेंस और ग्रीक सभ्यताएं उसकी जानकारी की परिधि से दूर थीं
क्लीस्थनीज और एथेर्नियन डेमोक्रेसी का जिक्र कभी किसी ने किया नहीं
एल. लोवेल , जॉन लाँक, जेजे रूसो, जे एस मिल, सी बी मैक्फर्सन, जोसेफ शुंपीटर, रॉबर्ट ए डाहल सब राजनीति शास्त्र विद्यार्थियों और अध्यापकों के खाते में थे
मुझे नहीं पता
किसे इतनी फुर्सत कि इनकी जानकारी बटोरे
और जानकर भी क्या कर सकूंगा

भारतीय संविधान और बाबासाहेब आंबेडकर उसके लिए श्रद्धा के पात्र थे
यद्यपि न उसने संविधान पढ़ने की जहमत उठाई थी न बाबा साहेब के विचार पढ़े थे
भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा हाल के बारे में उसकी धारणा अच्छी नहीं थी लेकिन अब जैसा भी है रहना यहीं है
जो सत्ता में है वह मनमानी करेगा
दुनिया के हर देश में ऐसा ही है
अफ्रीकी स्वतंत्रता और नस्ली वैमनस्य के बारे में चिनुआ अचेबे के विचार उसने जान लिए थे

कुछ वाम लेखकों के साथ रहकर उसने सामाजिक लोकतंत्र जैसा शब्द अपने कब्जे में कर लिया था
वह सोशल डेमोक्रेट के खांचे में अपने आपको फिट पाता था
समाजवाद शब्द उसे लुभाता था
लोहिया का दबंग देशी अंदाज उसे भाता था
अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म इन्हें बचाये रखना हमारा कर्तव्य है
सर्वसमावेश और सर्वधर्म समभाव से ही समाज की प्रगति होती है

वह कट्टर धर्मावलंबियों से भी संवाद रखता था
उनके मंच पर कविता पढ़ता था
वह सांप्रदायिक नहीं था लेकिन धार्मिक तो था
ईश्वर और देवी देवताओं में उसकी पूरी आस्था थी
मार्क्सवाद का विचार अच्‍छा है लेकिन व्यवहारिक नहीं है
यह उसे लगता था

समाज और राजनीति में सुधार होना आवश्यक है
हर व्यक्ति को इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए
ये नेता भी हमारे समाज से ही आते हैं
जैसा समाज होगा वैसे ही लोग होंगे
अगर कोई उससे पूछे कि समाज कैसे सुधरेगा
अपने आपको सुधार लो समाज सुधर जायेगा

हर व्यक्ति अपने आपको क्यों और कैसे सुधारे इसका कोई तरीका?
जवाब है, जागरण !
कौन करेगा यह? कहाँ हैं समाज सुधारक?
वे इसी समाज से जन्म लेंगे
कब लेंगे पता नहीं!

बहरहाल गोल गोल जलेबी बनाता और उसका मीठा रस चूसता एक अविजित विजेता की तरह वह दृश्य से ओझल हो जाता है
यही लोकतंत्र का मूलमंत्र है
लोकतंत्र अमर रहे!

_____________

शैलेंद्र चौहान
8 फरवरी 1954


‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’  ’श्वेतपत्र’ ’और कितने प्रकाश वर्ष’ ’ईश्वर की चौखट पर’ तथा ‘सीने में फाँस की तरह’ (कविता संग्रह). ’नहीं यह कोई कहानी नहीं’ तथा ‘गंगा से कावेरी’ (कहानी संग्रह). ‘पांव जमीन पर’ (उपन्यास) ‘कविता का जनपक्ष (आलोचना), ‘भारत का स्वाधीनता संग्राम और क्रांतिकारी’  आदि प्रकाशित

संपादन : ’धरती’ अनियतकालिक साहित्यिक पत्रिका

संपर्क :
34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033

Tags: 20242024 कविताशैलेंद्र चौहान
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Comments 4

  1. केशव तिवारी says:
    8 months ago

    अपने वक़्त को चींहती उससे संवाद करतीं अच्छी कवितायें l

    Reply
  2. कैलाश मनहर says:
    8 months ago

    समय से संवाद करती उम्दा कवितायें

    Reply
  3. Saloni says:
    8 months ago

    आदरणीय महोदय की कविताएं आज के परिपेक्ष्य में खरी उतरने वाली हैं।निर्भीक स्वर से पढ़ी जाने वाली कविताएं प्रेरणास्पद भी हैं। मुझें ‘नासेह उर्फ नसीहतबाज’ बहुत अच्छी लगी।

    Reply
  4. भानु प्रकाश रघुवंशी says:
    7 months ago

    पहली और दूसरी कविता पहले भी पढ़ी हैं। अच्छी कविताएं पढ़ने को मिलीं। आदरणीय शैलेन्द्र चौहान जी को हार्दिक बधाई।

    Reply

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