‘गोदान’ में ‘स्पेकुलेशन’ की चर्चारविभूषण |
“मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कीजिए. यह जो आज सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं. रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिन्स का सट्टा कीजिए, मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है. काम जरा अटपटा है. बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं. आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरंदेश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं. बाजार का चढ़ाव-उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं. इसका भी विज्ञान है. एक बार उसे गौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाय.‘‘
(गोदान, 1980, सरस्वती प्रेस, पृष्ठ 76-77)
यह कथन बैंक के मैनेजर और शक्कर मिल के मैनेजिंग डायरेक्टर मिस्टर खन्ना का राय साहब अमरपाल सिंह से हैं. ‘गोदान’ पर इतना अधिक लिखा-कहा जा चुका है कि कभी-कभी ऐसा लगता है अब नये सिरे से इस उपन्यास पर कुछ भी कहना-लिखना संभव नहीं है, पर क्लासिक रचना की यही विशेषता है कि उसका कोई पाठ अंतिम नहीं होता. यह निर्भर इस पर करता है कि हम किसी रचना या कृति का पाठ कैसे करते हैं.
टेरी इगलटन (22.2.1943) ने साहित्य और कविता पढ़ने का जो तरीका (‘हाउ टू रीड लिटरेचर’, 2013 और ‘हाउ टू रीड ए पोयम’, 2007) बताया है, शायद उस तरह उपन्यास पढ़ने का तरीका किसी आलोचक ने ‘हाउ टू रीड ए नावेल’ लिखकर नहीं बताया पर उपन्यास का गंभीर पाठक और आलोचक यह जानता है कि उपन्यास की पाठ-विधि क्या है.
बार-बार ‘गोदान’ पढ़ने पर भी बहुत कुछ छूट जाता है. राय साहब के यहाँ आयोजित धनुष-यज्ञ पर भी अधिक विचार नहीं किया गया है और न इस उत्सव पर आमंत्रित दैनिक पत्र ‘बिजली’ के सम्पादक पंडित ओंकारनाथ, वकील, बीमा कम्पनी के दलाल, ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने वाले श्याम बिहारी तंखा, मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर खन्ना की पत्नी पर विशेष ध्यान दिया गया है.
यूनिवर्सिटी में दर्शनशास़्त्र के अध्यापक मिस्टर बी. मेहता और इंग्लैण्ड से डॉक्टरी पढ़ कर आने वाली डॉक्टर मालती सब के ध्यान में है, पर मिस्टर खन्ना अधिक नहीं हैं. प्रेमचन्द ने खन्ना के बारे में लिखा है-
‘‘खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान आादमी थे. गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग, बातचीत में बड़े कुशल’’, जिनके लिए “नई थ्योरी है मुक्त भोग. बंधन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं.’’
प्रेमचंद की खूबी यह है कि वे अपने समय में पूंजी के उस रूप या पक्ष को अच्छी तरह देख-समझ रहे थे, जिसके भारत-आगमन के बहुत दिन नहीं हुए थे.
‘गोदान’ की रचना में उनके बम्बई-प्रवास की भी भूमिका है. बम्बई को उन्होंने ‘एक बिलकुल नयी दुनिया’ कहा है, जिसे ‘साहित्य से बहुत कम सरोकार है’. (कलम का सिपाही पृष्ठ 539) बम्बई वे 31 मई 1934 को पहुंचे थे और जुलाई 1934 में शिवरानी देवी बेटी और उसकी बच्ची के साथ बम्बई पहुँच गईं. उस समय ‘गोदान’ पर काम ‘चींटी की चाल से’ चल रहा था. प्रेमचन्द प्रेस के ऊपर कर्ज को ‘पाटने के लिए’ बम्बई गये थे. सरस्वती प्रेस, ‘हंस’, ‘जागरण’ सब घाटे में था. कहानियाँ लिख कर देने का वहाँ प्रेमचन्द को ‘साल भर का ठेका’ था. तीस के दशक के आरंभिक वर्षों में ही फिल्म को इंडस्ट्री समझने वाले फिल्म जगत में प्रमुख थे. प्रेमचन्द ने हशमउद्दीन गोरी के एक फिल्म-संबंधी लेख पर बधाई देते हुए उन्हें यह लिखा था कि फिल्म इंडस्ट्री एक्सप्लायट करना जाती है और यहाँ इंसान के मुकद्दसतरीन (पवित्रतम) जज्बात (भावनाओं)को एक्सपलायट कर रही है. प्रेमचन्द ‘जिन्दगी में एक नया तजुर्बा हासिल’ करने के लिए भी गये थे. अगर वे वहाँ नहीं गये होते, तो खन्ना कहाँ से आते? खन्ना जैसा चरित्र बम्बई जाने के बाद ही वे रच सकते थे. साल भर का कंट्रैक्ट खत्म होने से पहले ही वे 25 मार्च 1935 को बनारस रवाना हुए – ‘अपने वतन’. बम्बई से लौट कर प्रेमचन्द ‘गोदान’ में ‘जी-जान’ से जुट गये. अमृत राय ने लिखा है कि ‘गोदान’ पूरा करने के बाद ही उन्होंने लमही छोड़ा.
प्रेमचन्द के अर्थशास्त्रीय पक्ष और चिन्तन पर कम विचार हुआ है. ‘महाजनी सभ्यता’ की याद सबको है, पर उनके समस्त कथा-साहित्य एवं लेखों-टिप्पणियों में भी अर्थ और पूंजी संबंधी सोच-विचार देखा जा सकता है. रामविलास शर्मा ने जिस ‘राय साहब-खन्ना सम्प्रदाय’ की बात कही है, वह भी ओझल रहा. ‘‘प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ तब लिखा था, जब वह बम्बई के फिल्म-संसार को अच्छी तरह देख चुके थे, जब सिनेमा पर पूंजीपतियों के अधिकार ने उन्हें लेखक की पराधीनता का कड़वा अनुभव चखा दिया था, जब वह पुराने अड्डे पर आने के लिए व्याकुल हो रहे थे.’’ (‘प्रेमचन्द और उनका युग’, 1995, पृष्ठ 96) बम्बई जाने के बाद ही वे यह जान सके थे कि मुनाफे और मिहनत की दुनिया के बीच कितनी खाई है. स्वाधीन भारत में यह खाई कहीं अधिक बड़ी हो चुकी है.
‘गोदान’ में मिल-मालिक खन्ना सामान्य पूंजीपति नहीं हैं. ‘‘खन्ना हिन्दुस्तान के उन पूंजीपतियों में हैं, जिनके कब्जे में बैंक है और जो इस बैंक-पूंजी के बल पर उद्योग-धंधों पर कब्जा कर लेते हैं… मिल में और भी हिस्सेदार हैं, लेकिन वहाँ चलती है सिर्फ खन्ना की. एक बड़े जमींदार से उनकी दोस्ती आकस्मिक नहीं है. इस तरह के पूंजीपति सामंती हितों से बहुत नजदीकी संबंध कायम रखते हैं’’ (वही, पृष्ठ 103). विश्व का सबसे पुराना बैंक 1472 में इटली में स्थापित हो चुका था और लगभग दो सौ वर्ष बाद भारत में ‘मद्रास बैंक’ (1683) खुला. इसके बाद ही बैंक ऑफ बॉम्बे’ (1720), ‘बैंक ऑफ हिन्दुस्तान’ (1770) और ‘बैंक ऑफ कलकत्ता’ (1806) का जन्म हुआ. ‘बैंक ऑफ कलकत्ता’ 1921 में समाप्त होकर ‘बैंक ऑफ बॉम्बे’ और ‘बैंक ऑफ मद्रास’ में विलीन हुआ. ‘मद्रास बैंक’ ‘ब्रिटिश बैंक ऑफ मद्रास’ (1795) से भी पुराना था, जो 1843 में बंद हुआ. भारत में बैंक की स्थापना के बाद ‘बैंक पूंजी’ अस्तित्व में आई.
मिस्टर खन्ना पहले क्लर्क थे. बाद में वह अपने ‘अध्यवसाय’, ‘पुरुषार्थ और प्रतिभा से’ शहर में पूजे जाने लगे. राय साहब के मित्र हैं मिस्टर खन्ना और ‘‘मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों से बढ़ते देखा था और उनकी कार्य-क्षमता के कायल हो गये थे.’’ खन्ना ने राय साहब को कहा- ‘‘बैंक आपका है… अभी आपने जिन्दगी इंश्योर्ड न करायी होगी. मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पॉलिसी खरीद लीजिए. सौ-दो सौ रुपये तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं. और इकट्ठी रकम मिल जाएगी-चालीस-पचास हजार. लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबंध आप नहीं कर सकते.’’
बदलते भारत का एक उदाहरण है मिस्टर खन्ना. यूरोपीय समुदायों को ध्यान में रख कर अनीता भास्वर ने 1818 में कलकत्ता में ‘ओरियंटल लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी’ आरंभ की थी. वर्षों बाद 1870 में बम्बई म्यूचअल लाइफ इंश्योरेंस सोसायटी की स्थापना हुई थी. बीसवीं सदी में कई इंश्योरेंस कम्पनियाँ खुलीं. गोर्धन दास ने 1906 में नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी की स्थापना की. प्रेमचन्द ने बम्बई में बिलकुल एक नयी दुनिया देखी, जो गाँवों और शहरों की दुनिया से एकदम अलग थी. राय साहब अमरपाल सिंह सेमरी में रहते थे और शहर में रहने वाले अपने मित्रों को उन्होंने ‘रामलीला’ के अवसर पर ‘धनुष-यज्ञ’ में आमंत्रित किया था. उन्होंने धनुष-यज्ञ के अवसर पर खेले जाने के लिए एक ‘प्रहसन’ भी लिखा था. ‘गोदान’ की कई चीजों पर हमारा अधिक ध्यान नहीं जाता. धनुष-यज्ञ प्रहसन सब का समय वहाँ निर्धारित है. धनुष-यज्ञ का अभिनय दस से एक तक था और एक से तीन तक प्रहसन था. मेहमानों के लिए भोजन में शराब और माँस था. धर्म, रामलीला, धनुष-यज्ञ सब यहाँ एक प्रयोजन से है. धर्म में दिखावा, पाखंड आदि प्रवेश कर चुका है. दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम है. सब शिकारी हैं. राय साहब होरी का शिकार करते हैं. होरी को पता नहीं चलता. खन्ना रायसाहब का शिकार करने को बेचैन हैं शगुन के उत्सव पर राय साहब ने अपने तीनों सहपाठियों सम्पादक पंडित ओंकारनाथ, वकील और दलाल श्याम बिहारी तंखा और प्रोफेसर मेहता को भी आमंत्रित किया हुआ है. तंखा वकील हाने के साथ-साथ दलाल भी है. तब दलाल बढ़ने भी लगे थे. दलाल-संस्कृति फैलने लगी थी.
शिकार-यात्रा में खन्ना राय साहब को अपने शुगर मिल में शामिल होने को कहता है. ‘शिकार के प्रोग्राम’ में जो तीन टोलियाँ निकलती हैं, उनमें से एक टोली में राय साहब और खन्ना हैं. प्रेमचन्द ने यह लिख कर कि खन्ना ‘शिकारी सूट’ में थे, उनके भीतर के शिकारी रूप के भी संकेत दे दिये हैं. राय साहब का ‘‘खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था.’’ राय साहब का, ताल्लुकेदार का समय समाप्त हो रहा है और पूंजीपतियों का समय आ चुका है. राय साहब ने मेहता से कहा है – ‘‘हम नाम के राजा हैं. असली राजा तो हमारे बैंकर हैं.’’ (गोदान, पृष्ठ 199).
रामविलास शर्मा ने ‘गोदान’ पर लिखते हुए ‘बैंक-पूंजी’ की बात कही है- ‘गोदान’ के आलोचक जितना अधिक विचार राय साहब- होरी, होरी-धनिया, मालती-मेहता, दातादीन-मातादीन पर करते हैं, उतना खन्ना पर नहीं. अर्थ-संस्कृति और पूंजीवादी सभ्यता जिस प्रकार विकसित हो रही थी, प्रेमचन्द ने उधर पूरा ध्यान दिया है. ‘गोदान’ के साथ ‘महाजनी सभ्यता’ को भी रख कर देखने की जरूरत है. दोनों का रचना-समय एक है. क्या ‘गोदान’, ‘महाजनी सभ्यता’ और प्रगतिशील लेखक संघ का उनका अध्यक्षीय भाषण-तीनों को एक साथ रख कर विचार करने की जरूरत है या नहीं?
प्रेमचन्द का ‘सबाल्टर्न पाठ’ उनके बृहत-समग्र पाठ, जिसमें धन और पूंजी का पाठ सर्वप्रमुख है, को हाशिये पर रख कर नहीं किया जा सकता. जैनेन्द्र को उन्होंने कहा था कि उन्हें ‘धन से दुश्मनी’ है. ‘गोदान’ में झींगुरी सिंह दातादीन को समझाता है – ‘‘कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है. कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है.’’ (‘गोदान’, पृष्ठ 205).
खन्ना की पत्नी गोविन्दी धन के बारे में कहती है –
‘‘हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा है, उतना महत्व उसमें नहीं है.’
(वही, पृष्ठ 244).
शहर में रहने वाले गोबर ने भी यह समझ लिया है –
‘‘दुनिया पैसे की है, हुक्का पानी कोई नहीं पूछता.’’
(वही, पृष्ठ 178).
मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ (1848) में यह लिखा था कि अर्थ-संस्कृति, पूंजी-संस्कृति किस प्रकार संबंधों को, तमाम रिश्तों को निगल जाती है. प्रेमचन्द ने ‘महाजनी सभ्यता’ में अर्थ को ही समस्त विकृतियों की जड़ कहा था, पूंजीवादी सभ्यता की आलोचना की थी. ‘महाजनी सभ्यता’ और ‘गोदान’ दोनों में ‘बिजनेस इज बिजनेस’ कहा गया है, फिर भी ‘गोदान’ का सबाल्टर्न पाठ किया जाता है. इस अर्थ-संस्कृति के कारण ही दाम्पत्य-जीवन मधुर नहीं रह पाता, अगर पति-पत्नी में से कोई एक अर्थ-पूजक नहीं है. खन्ना और गोविंदी के स्वभाव-विचार में भिन्नता है.
‘‘सम्पत्ति की यह दीवार दिन-दिन ऊँची होती जाती थी और दम्पत्ति को एक दूसरे से दूर और पृथक् करती थी. खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र था, घर में उतना ही कटु और उदण्ड… शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थी, मन का संस्कार नहीं.’’
राय-साहब और असामी के बीच का संबंध और बैंक एवं पूंजीपति से ग्राहकों का संबंध बहुत भिन्न नहीं है. ताल्लुकेदार और किसान अब प्रमुख नहीं रहे. ‘गोदान’ में होरी की मृत्यु का जिम्मेदार क्या केवल दातादीन है? खन्ना बैंक का मैनेजर है. प्रेमचन्द उद्योगपति और पूंजीपति दोनों का अंतर देख रहे थे.
उद्योग-धन्धों में पूंजी मुनाफा या लाभ देती है. इस पूंजी का मालिक उद्योगपति है. इसके विपरीत सूद देने वाली पूंजी का मालिक महाजन या पूंजीपति है. मार्क्स ने ‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड में सूदखोर पूंजी के संबंध में लिखा है. मार्क्स के जीवन-काल (5.5.1818-14.3.1883) में केवल ‘पूंजी’ का पहला खण्ड ही 1867 में प्रकाशित हुआ था. उनके निधन के एक वर्ष बाद ‘पूंजी’ का दूसरा खण्ड और ग्यारह वर्ष बाद तीसरा खण्ड प्रकाशित हुआ. उनके नोट्स को तैयार कर एंगेल्स (28.11.1820-5.8.1895) ने दूसरा-तीसरा खण्ड प्रकाशित किया. ‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड में मार्क्स ने सूद देने वाली सूदखोर पूंजी पर प्रकाश डाला है. सूद देने वाली पूंजी मुनाफा देने वाली पूंजी के बाद की अवस्था है. उद्योगपति के बाद आता है पूंजीपति.
खन्ना उद्योगपति है और पूंजीपति बनने की प्रक्रिया में है. मिल होने के कारण वह उद्योगपति है, पर वह ‘स्पेकुलेशन’ की भी बात करता है, जो महाजनी पूंजी की एक अवस्था है. औद्योगिक पूंजीवाद में जहाँ पूंजी उत्पादन से जुड़ी होती है, वहाँ महाजनी पूंजीवाद में वह उत्पादन रहित हो जाती है. पूंजी की परजीविता पर रामविलास शर्मा को छोड़कर किसी आलोचक ने विचार नहीं किया है. उत्पादन से विलग होने के बाद ही पूंजी परजीवी होती है और इसमें होने वाली वृद्धि सट्टेबाजी और धोखाधड़ी के साथ बढ़ती है.
‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड (1894) की भूमिका एंगेल्स ने लिखी थी और इसके दो वर्ष बाद 1896 में लेनिन (22.4.1870-21.1.1924) ने बैंक को ‘पूंजी बटोरने वाले बड़े-बड़े भंडार’ कहा था, जो पूंजीपतियों को उधार देते हैं. (कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-2, पृष्ठ 109)
एंगेल्स ने सभी देशों से पूंजी एकत्र कर यूरोप और अमरीका के पूंजीपतियों में बाँट देने की बात कही है. बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी के घुलन-मिलन की जो बात लेनिन ने कही थी, उसे हम ‘गोदान’ में पूर्णतः न सही, पर खन्ना में अवश्य देख सकते हैं. आज बैंकों का कर्ज जिन किसानों पर है, वे आत्महत्या कर रहे हैं और बैंक से कई-कई गुना कर्ज लेकर जो पूंजीपति विदेश भाग गये, उसमें ‘बैंक पूंजी’ की कोई भूमिका थी या नहीं? लेनिन ने प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान चार बड़े इजारेदार देशों- ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और अमरीका का उल्लेख कर यह बताया है कि इनके पास ‘दुनिया की महाजनी पूंजी का लगभग अस्सी प्रतिशत इकट्ठा है और ये चारो देश ‘अन्तरराष्ट्रीय बैंक-व्यवस्था’ के देश हैं.
रामविलास शर्मा ‘गोदान’ के संभवतः अकेले आलोचक हैं, जिन्होंने शिकार के लिए जाते समय खन्ना और रायसाहब की बातचीत पर विशेष ध्यान दिया और खन्ना द्वारा राय साहब को सट्टेबाजी की सलाह देने की भी बात लिखी पर अपनी आलोचना में ‘सट्टेबाजी’ या ‘स्पेकुलेशन’ पर उन्होंने विस्तार से विचार नहीं ‘गोदान’ उपन्यास के विवेचन में उनके लिए ‘स्पेकुलेशन’ या ‘जुआड़ी सभ्यता’ पर विचार आवश्यक नहीं था.
हिन्दी में ‘बड़े’ आलोचकों का अभाव नहीं है, पर प्रेमचन्द पर लेख या पुस्तक लिखते हुए किसी आलोचक ने खन्ना पर समुचित ध्यान नहीं दिया. खन्ना पर विचार उपन्यास के मात्र एक पात्र पर नहीं है. वह एक संस्कृति का प्रतीक भी है. आज जब तीस वर्ष से भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था पूरी तरह जवान होकर मचल रही है, सट्टेबाजों की पौ-बारह है और जब सेंसेक्स के चढ़ने-गिरने से यहाँ का ‘आर्थिक विकास’ जोड़ा जा रहा है, तब इस समय प्रेमचन्द और उनके उपन्यास ‘गोदान’ का अर्थशास्त्रीय पाठ भी जरूरी है. देश लगभग सट्टेबाजों, दलालों, पूंजीपतियों और कॉरपोरेटों के हवाले है.
रामविलास शर्मा ने ‘भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद का विवेचन’ को लेकर जो सात पुस्तिकाएँ लिखी थीं, वे बाद में पुस्तकाकार रूप में ‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’ (1992) पुस्तक के रूप में सामने आई. उनकी पाँचवीं पुस्तिका ‘महाजनी पूंजीवाद’ पर थी. इस पुस्तिका में उन्होंने मार्क्स और एंगेल्स का यह कथन उद्धृत किया है कि लंदन की तरह न्यूयार्क भी सट्टेबाजी का केन्द्र बन गया है.
सट्टेबाजी पहले सट्टा बाजार तक ही सीमित थी. महाजनी पूंजी के विकास के साथ ‘हर बैंक सट्टा बाजार’ बन गया. ध्यान देना चाहिए कि खन्ना मिल का मालिक और बैंक का मैनेजर दोनों है. होरी ने शोभा से कहा है –
‘‘जिस खन्ना बाबू का मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है… कुशल इसी में है कि झिंगुरी सिंह के हाथ-पाँव जोड़ो. हम जाल में फँसे हुए हैं, जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही और जकड़ते जाओगे.’’
होरी जिस तरह ‘खन्ना बाबू’ को समझता है, क्या उसी तरह हिन्दी के आलोचक भी ‘खन्ना बाबू’ को समझते हैं? झिंगुरी सिंह का मिल के मैनेजर से संबंध है. वह ईख की तौल शुरू होते ही मिल के फाटक पर आसन जमाता है और होरी को मिले एक सौ बीस रुपये में सूद समेत सौ काटकर होरी को पचीस रुपये’ देता है. प्रेमचन्द ने लिखा है शक्कर का मिल खुल जाने के बाद-
‘‘उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे.’’ (गोदान, वही, पृष्ठ 152).
भारत का पहला चीनी मिल बेतिया (बिहार) में 1840 में स्थापित हुआ था. जहाँ तक उत्तर प्रदेश की बात है, देवरिया जिले के प्रतापपुर में 1903 में चीनी मिल खुली थी. मुजफ्फरनगर जिला के खतौनी त्रिवेणी सुगर मिल को एशिया का सबसे बड़ा चीनी मिल कहा जाता है, जो 1933 में चालू हुआ था. खन्ना की जिस मिल का उल्लेख ‘गोदान’ में है, उसका कोई नाम नहीं है, पर लगता है प्रेमचन्द के दिमाग में खतौनी त्रिवेणी सुगर मिल रही हो. पूरा गाँव कम कीमत पर भी खड़ी ऊख बेचने को तैयार है. किसानों की चिंता तत्काल की हैं प्रश्न धैर्य का नहीं जरूरतों का है, कर्ज का है. सभी बयाने ले चुके थे. होरी ‘बैलों की गोई’ लेना चाहता है. वह महाजनों से घिरा है. कुछ कर नहीं सकता. केवल, दातादीन ही नहीं, मंगरू, दुलारी और झिंगुरी सिंह भी है. प्रेमचन्द ने इन सबके द्वारा होरी के ‘प्राण खाये जाने’ की बात कही है.
बड़ा शिकारी खन्ना है, जिसके पास मिल और बैंक है. जानवरों का शिकार करने की उसे फुरसत नहीं है. वह असामियों का शिकार करता हैं खन्ना की एक बड़े जमींदार से दोस्ती दो शिकारियों की दोस्ती है. राय साहब की तुलना मे खन्ना बड़ा शिकारी है.
‘‘खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहीं, अव्वल दरजे का बंगला है, अव्वल दर्जे का फर्नीचर, अव्वल दरजे की कार और अपार धन.’’
प्रेमचन्द की भाषा पर जो गंभीरता से विचार नहीं करते, वे तीन बार ‘अव्वल’ शब्द-प्रयोग पर ध्यान दें. खन्ना ऊपर से अव्वल दीखता है, पर भीतर से नहीं है. सामान, धन, पद, बंगला से किसी के भी अव्वल होने को प्रेमचन्द खारिज करते हैं. ‘गोदान’ में मजदूर खन्ना से लड़ते हैं –
‘‘शक्कर मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा-फसाद करने पर आमादा थे.’’
खन्ना को मजदूरों की कोई चिंता नहीं है. अगर सचमुच पूंजीपतियों को, उद्योगपतियों को मजदूरों की चिंता होती तो क्या ‘ट्रेड यूनियन’ बनता? मेहता ने खन्ना से कहा है –
‘‘आपके मजदूर बिलों में रहते हैं- गंदे बदबूदार बिलों में, जहाँ आप एक मिनट भी रह जाएँ तो आपको कै हो जाए. कपड़े जो वे पहनते हैं, उनसे आप जूते भी न पोंछेंगे. खाना जो वे खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा… आप उनकी रोटियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारी का पेट भरना चाहते हैं.’’
प्रेमचन्द केवल किसानों के लेखक नहीं थे. वे मजदूरों के भी लेखक थे. स्वयं ‘कलम का मजदूर’ थे. खन्ना और राय साहब ‘सहपाठी’ थे, पर खन्ना राय साहब को ठगने की चिंता में रहते थे, मुंह पर खुशामद भी करते थे. खन्ना राय साहब को सट्टा में लाना चाहते हैं. खन्ना “साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़ने वाले. दो बार जेल हो आए थे. किसी से दबना न जानते थे. खद्दर न पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे. अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफें झेल सकते थे.’’
शिकार करने के दौरान खन्ना ने अपने मित्र राय साहब को शुगर मिल के हिस्से खरीदने को कहा. प्रेमचंद बताते हैं की खन्ना अपने मित्र का शिकार कर रहे हैं, जहाँ बंदूक न चलकर विश्वास चलता है. प्रेमचन्द के अनुसार यह युग विश्वास का नहीं धोखे का है. क्या आज के जनप्रतिनिधि अपने मतदाताओं को धोखा नहीं देते? खन्ना व्यावहारिक है, व्यासाय-पटु है. वह आगे का सोचता है. प्रेमचन्द ने उसके ‘स्पेकुलेशन’ का उदाहरण भी दिया है. शिकार के समय एक देहाती ने उसे औषधियाँ दिखाई. दाम पूछने पर आठ आना बताया. खन्ना ने एक रुपया फेंक कर औषधियों को पड़ाव तक रख आने को कहा. राय साहब के यह पूछने पर कि यह ‘घास-पात लेकर’ क्या करेगा, खन्ना ने कहा-
‘‘इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा. मैं कीमियागर हूँ. यह आपको शायद नहीं मालूम… मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबका पड़ता है. कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे और आप यह चीज उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ऋणी हो जायेंगे एक रुपये में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है? जरा-से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं.’’
(गोदान, पृष्ठ 77)
प्रेमचन्द खन्ना जैसे पात्रों से सावधान कराते हैं. ठग अब केवल ठग के वेश में नहीं है. उसने अनेक वेश धारण कर लिये हैं. खन्ना अंधविश्वास बढ़ाता है. वह राय साहब को कहता है-
‘‘आप जो इन बड़े-बड़े अफसरों को देखते हैं और इन लम्बी पूंछ वाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं. मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधे का नाम तक नहीं जानते.’’
(वही, पृष्ठ 78)
प्रेमचन्द ने खन्ना के जरिये जिस ‘मुक्त भोग’ की बात कही है, उसे हम अस्सी के दशक से उपभोक्तावाद में कहीं अधिक देखते हैं- वित्तीय पूंजी और बाजार पूंजी के दौर में. प्रेमचन्द ने तीस के दशक में ही इस पूंजीवाद की पहचान कर ली थी. यह बदलते समय की पहचान है. सम्पादक ओंकारनाथ सोचता है –
“समय कितना बदल गया है. समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा.’’
(वही, पृष्ठ 58).
राय साहब के यहाँ जमी मजलिस में पठान के सामने सभी डरे-सहमे हैं, पर होरी नहीं. वह किसान है और किसानों में जितना साहस होता है, उतना दूसरों में नहीं. होरी पठान को पटक देता है. पता चला कि पठान के वेश में मेहता है. जो साहसी है, उपन्यास के अंत में उसकी मृत्यु होती है. आज जो साहसी और निर्भीक है, उस पर मुकदमे ठोके जा रहे हैं, से जेलों में बंद किया जा रहा है. खुर्शेद ने खन्ना के बारे में बताया है कि उसके एक दिन की आमदनी पाँच-सौ एक हजार की है. आज अगर अडानी की एक दिन की आय एक हजार करोड़ रुपये से अधिक है तो क्या आश्चर्य. खन्ना के दरवाजे पर हजारों ‘नाक रगड़ते हैं.’’ पत्नी गोविन्दी से वह कहता है- ‘‘कौन राजा या ताल्लुकेदार है, जो मुझे दण्डवत् नहीं करता. सैकड़ों को उल्लू बनाकर छोड़ दिया.’’
औद्योगिक पूंजीवाद में सैकड़ों को उल्लू नहीं बनाया जाता था. यह ‘स्पेकुलेशन’ पूंजी के दौर में अधिक संभव हुआ. खन्ना राय साहब को अपने शुगर मिल में शामिल करना चाहते हैं, जो हिस्सा खरीदे बिना संभव नहीं हैं राय साहब को उन्होंने कहा- ‘‘हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं, आप ज्यादा नहीं, एक हजार हिस्से खरीद लें. कुल पचास हजार ही तो होते हैं – उनमें भी अभी 25 फीसदी ही देना है’’
यह जानकर कि राय साहब के पास रुपयों की कमी है. वे कहते हैं ‘‘बैंक आपका है.’’ आज पास में रुपये हो या नहीं, बैंक हमारे दरवाजे पर है. वह हमारे भविष्य को गिरवी रख रहा है और पूंजी का यह नया दौर है. राय साहब खन्ना की कार्य-क्षमता के कायल हैं. प्रेमचन्द ने ‘महाजन सभ्यता’ में लिखा है महाजनी सभ्यता में ‘आज महाजनों का ही राज्य है’ और ‘‘महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है.’’ इस महाजनी सभ्यता के पास ‘‘ईर्ष्या, जोर-जबर्दस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या, अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, चोरी-डाके’’ आदि का कोई इलाज नहीं है क्योंकि इन सबकी सृष्टि इसी सभ्यता ने की है.
पूंजीवाद के विकास और पूंजीवादी सभ्यता के कई चरण हैं. गोदान में ‘स्पेकुलशन’ का उल्लेख कर प्रेमचन्द ‘स्पेकुलेशन कैपिटल’ की बात कर रहे थे. इस पूंजी और सभ्यता की विशेषताएँ ‘धोखाधड़ी, घूस और भ्रष्टाचार’ है. लेनिन ने अपने समय में ‘पुराने होड़वाले पूंजीवाद’ और ‘सट्टा बाजार’ पर विचार के बाद समाजीकरण से सट्टेबाजों को लाभ पहुंचने की बात कही.
‘स्पेकुलेशन’ से कुछ समय में ही करोड़पति बना जाता है. इसी दौर में 15 सवालों के सही जवाब देकर करोड़पति बना गया है. ‘स्पेकुलेशन’ का श्रम और उत्पादन से कोई संबंध नहीं है. यह अनुत्पादक पूंजी है. औद्योगिक पूंजी उत्पादक है, पर सट्टेबाजी और हेराफेरी वाली पूंजी का उत्पादन से कोई संबंध नहीं है. अकारण नहीं है कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में ही लाखों की संख्या में किसानों ने आत्महत्या की, छोटे उद्योग-धंधे नष्ट हुए. यह उदारवादी अर्थव्यवस्था अनुदारवादी थी जिसने उदारवादी होने का लबादा ओढ़ लिया. अब हम सब ‘निगरानी पूंजीवाद’ (‘द एज ऑफ सर्वेलांस कैपिटल्जिम: द फाइट फॉर ए ह्यूमन फ्यूचर ऐट द न्यू फ्रंटियर ऑफ पावर, शोशना जुबौफ, 2018) और डिजिटल पूंजीवाद (हाउ टू थिंक अबाउट इंफार्मेशन एण्ड डिजिटल कैपिटलिज़्म: नेट वर्किंग द ग्लोबल मार्केट सिस्टम, डैन शिलर, 1999 और माइकेल बेटनकोर्ट के पुस्तक ‘द क्रिटीक आफॅ डिजिटल कैपिटलिज्म: ऐन अनालिसिस ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी आफॅ डिजिटल कल्चर एण्ड टेक्नोलॉजी, 2015) के दौर में है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सब कुछ ‘डिजिटल’ करना चाहते हैं. वे ‘डिजिटल इंडिया’ के निर्माता होंगे.
प्रेमचन्द ने ‘स्पेकुलेशन’ की चर्चा कर ‘गोदान’ में यह स्पष्ट कर दिया था कि हम सब एक दूसरे पूंजीवाद के दौर में प्रवेश कर रहे हैं, जो औद्योगिक पूंजीवाद के दौर से भिन्न है. ‘रंगभूमि’ का प्रकाशन 1924 में हुआ था और ‘गोदान’ का 1936 में. इन दोनों उपन्यासों के प्रकाशन में बारह वर्ष का अंतर है. ‘रंगभूमि’ में जॉन सेवक ने सूरदास को कहा था- ‘‘अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसको तारों का निशाना मारने वाली तोपें हैं’’.
व्यापार 1936 में बदल चुका है. पहली बार किसी उपन्यास में ‘बिजनेस इज बिजनेस’ की बात कही गयी है. क्या ‘गोदान’ और ‘महाजनी सभ्यता’ के पहले और कहीं प्रेमचन्द ने ‘बिजनेस इज बिजनेस’ का उल्लेख किया है? कब और कहाँ? ‘रंगभूमि’ में औद्योगिक पूंजीवाद है, ‘गोदान’ में ‘महाजनी पूंजीवाद’. दोनों में अंतर है. मार्क्स ने अपने समय में ही ‘काल्पनिक पूंजी’ (फिक्टिशस कैपिटल) की बात कही थी. इस ‘संकट’ को उन्होंने ‘द क्रिटीक ऑफ पॉलिटिकल इकॉनॉमी’ (1859) में रखा और फिर ‘पूंजी’ के तीसरे खण्ड के 25वें अध्याय में इस पर विचार किया.
‘फिक्टिशस कैपिटल’ को हम हिन्दी में काल्पनिक, अवास्तविक, फर्जी और बनावटी पूंजी कह सकते हैं, जो मार्क्स की वास्तविक पूंजी के विरूद्ध हैं वास्तविक पूंजी मुद्रा पूंजी या द्रव्य पूंजी (मनी कैपिटल) है. और काल्पनिक या अवास्तविक पूंजी भी ‘स्पेकुलेशन’ सट्टा-फाटका है. मार्क्स ने इसकी उत्पत्ति उधार पद्धति (क्रेडिट सिस्टम) और संयुक्त स्टॉक प्रणाली (ज्वायंट स्टॉक सिस्टम) में देखी है. यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि 1606 ईसवी में किंग जेम्स 1 ने एक चार्टर के जरिये इसे ग्रांट किया था. शेयर धारकों द्वारा खरीद और बिक्री.
पहला औपचारिक शेयर बाजार एम्सटर्डम स्टॉक एक्सचेंज सत्रहवीं शताब्दी के डच गणराज्य में खुला जिसने वित्त पूंजीवाद के एक नये युग की शुरूआत में मदद की. ज्वायंट स्टॉक कम्पनी को कॉरपोरेशंस या सीमित कम्पनियाँ भी कहा जाता है. 1602 में पहली ज्वायंट कम्पनी स्थापित हुई. मुम्बई स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना बहुत बाद 2 जुलाई 1875 में हुई. भारत में कपास-उद्योग के बाद कृषि आधारित सबसे बड़ा उद्योग चीनी उद्योग था और ‘गोदान’ के खन्ना की चीनी मिल है.
‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ का अध्ययन पूंजी के दो बदलते रूपों- औद्योगिक पूंजी और स्पेकुलेटिव पूंजी को ध्यान में रखकर भी किया जाना चाहिए. ‘रंगभूमि’ में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह जॉन सेवक के सहायक हैं और ‘गोदान’ में खन्ना राय साहब को अपने साथ लाना चाहता है. औद्योगिक पूंजी से कहीं अधिक ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ के दौर में किसानों का सर्वाधिक नुकसान हुआ है. गौतम अडानी अस्सी के दशक के मध्य तक अहमदाबाद में स्कूटर की सीट पर बैठते थे और अब? अब वे दुनिया के चौथे सबसे बड़े अमीर हैं. क्या यह औद्योगिक पूंजी के जरिये हुआ या स्पेकुलेटिव पूंजी के जरिये?
मार्क्स ने जिस ‘फिक्टिशस, कैपिटल’ की पहचान अपने समय में कर ली थी. वह आज कहीं शक्तिशाली रूप में उपस्थित है. अमेरिका के 2007-08 के संकट के बाद पूंजी के इस रूप पर पुनः विचार होने लगा. फ्रेंच अर्थशास्त्री सेड्रिक ड्यूराँ ने अपनी पुस्तक ‘फिक्टिशस कैपिटल: हाउ फाइनेंस इज एप्रोप्रिएटिंग आवर फ्यूचर’ (2014) के पहले टेबल में मार्क्स के यहाँ की इस पूंजी के आधारभूत कैटेगरीज को प्रस्तुत किया है. इस प्रकार की पूंजी हमारे स्वभाव और परिवार को भी प्रभावित करती है. खन्ना का जीवन ‘दोहरा या दो-रूखी’ है.
“एक ओर वह त्याग और जन-सेवा और उपकार के भक्त थे, तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के. कौन उनका असली रूप था, यह कहना कठिन है.’’
(गोदान, पृष्ठ 239).
प्रेमचन्द धन-संचय के विरूद्ध हैं. खन्ना को मजदूरों की नहीं, ‘शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित’ की अधिक चिंता है. अर्थ का आधिक्य मनुष्य के स्वभाव और चरित्र को भी प्रभावित करता है. खन्ना के लिए कबड्डी का खेल गँवारों का खेल है. उनके लिए टेनिस प्रमुख है. प्रेमचन्द ने सदैव पूंजी और धन की आलोचना की है. खुर्शेद लक्ष्मी को ठोकर मारने वालों में है. अगर एक ओर खन्ना को टेनिस प्रिय है, तो दूसरी ओर खुर्शेद ने कबड्डी का आयोजन किया. मिर्जा खुर्शेद के लिए लूट की कमाई हराम है. तंखा से वह कहता है –
“मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था. दौलत मेरे पाँव पूजती थी. मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इन्सान को कितना खुद-गरज बना देती है, कितना ऐश-पसन्द, कितना मक्कार, कितना बेगैरत.’’
(वही, पृष्ठ 82).
खन्ना ने शिकार खेलने के जमाने से संस्कृति के बहुत आगे बढ़ जाने की बात कही है. प्रेमचन्द अनेक स्थलों पर मित कथन से बहुत बातें कही हैं. कृषि-संस्कृति समाप्त हो रही है, औद्योगिक पूंजी ने जो संस्कृति निर्मित की थी, वह भी जा रही है और अब भोगवादी संस्कृति फैल रही है, जिसका संबंध औद्योगिक पूंजीवाद से कहीं अधिक हेराफेरी वाले और स्पेकुलेटिव पूंजीवाद से है. उत्पादक शक्ति और उसकी संस्कृति का नाश हो रहा है और उपभोक्ता संस्कृति एवं उपभोक्तावाद फैल रहा है. ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ नामवर सिंह का ध्यान ‘स्पेकुलेटिव’ पर न जाकर मार्क्स के ‘कैपिटल’ पर जाता है–
‘क्या ‘गोदान’ में प्रेमचन्द के लिए ‘गाय’ वही है, जो ‘दास कैपिटल’ में मार्क्स के लिए ‘कैपिटल’ या पूंजी?… जीवन के अंतिम निचोड़ के रूप में कैपिटल विनाश का रूप भी लेता है, कैपिटलिज़्म के रूप में. कैपिटल जो है, वह पूंजी का दूसरा अर्थ भी देती है.’’
(‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’ 2010, पृष्ठ 175)
नामवर सिंह अपनी मौलिक उद्भावनाओं के कारण विख्यात हैं. इसी लेख में उन्होंने कालजयी कृतियों को समझने के लिए ‘एक निश्चित देश-काल’ आवश्यक माना है – ‘‘समझने के लिए जरूरी है उसका टेक्स्ट और कॉन्टेक्स्ट’’.
(वही, पृष्ठ 162)
प्रेमचन्द के यहाँ अर्थपति से अधिक महत्व पति का है, पर खन्ना में अर्थाशक्ति और ‘रूपाशक्ति’ इतनी अधिक है कि उसे अपनी पत्नी गोविन्दी की चिंता नहीं है. गोविन्दी बालिका विद्यालय में पढ़ते समय कविता लिखती थी. अब ‘‘खन्ना उसकी कविताएँ देखते, तो उसका मजाक उड़ाते और कभी-कभी फाड़कर फेंक देते.’’ (गोदान, पृष्ठ 159)
हम चाहें तो खन्ना के व्यक्तित्व और स्वभाव में, उसके चरित्र और क्रिया कलाप में ‘स्पेकुलेटिव’ पूंजी का प्रभाव भी देख सकते हैं. पूंजी अपने अनुसार हमारा मानस निर्मित करती है. सारे संबंध नष्ट हो जाते हैं और केवल रुपया-पैसा प्रमुख रह जाता है. ‘महाजनी सभ्यता’ में विस्तार से प्रेमचन्द ने इस पर विचार किया है. गोविन्दी ‘खारे सागर में प्यासी पड़ी रहती है…’’ यह अपार सम्पत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती है’’ (वही, पृष्ठ 158)
खन्ना के लिए जीवन व्यापार है. मालती के प्रति अपने पति की आसक्ति से गोविन्दी अवगत है. अपने छोटे बच्चे की चिकित्सा के लिए भी वह उसे बुलाना नहीं चाहती. पति-पत्नी में झड़प होती है. खन्ना गोविन्दी के दोनो कान पकड़ कर ऐंठते हैं और उसे तीन तमाचे भी लगात हैं. पत्नी के प्रति ऐसा व्यवहार और मित्र राय साहब के प्रति भी उनका व्यवहार व्यापार-चालित है. राय साहब और वे ‘साथ के पढ़े हुए, साथ के बैठने वाले’ हैं, फिर भी खन्ना राय साहब से अपना कमीशन चाहते हैं –
‘‘बैंक ने एक तरह से लेन-देन का काम बंद कर दिया है. मैं कोशिश करूँगा कि आपके साथ रिआयत की जाय; लेकिन बिजनेस इज बिजनेस… व्यापार एक दूसरा क्षेत्र है. यहाँ कोई किसी का दोस्त नहीं, कोई किसी का भाई नहीं… आपको भी मेरे कमीशन में रिआयत के लिए आग्रह न करना चाहिए.” (वही, पृष्ठ 196).
प्रेमचन्द ‘गोदान’ में बैंक का महत्व बताते हैं. यह बैंक-पूंजी का महत्व है. मेहता ने खन्ना से कहा – ‘‘आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ में है. सरकार उनके हाथ का खिलौना है. (वही, पृष्ठ 199).
‘गोदान’ में प्रेमचन्द का आर्थिक चिन्तन स्पष्ट है. राय साहब को कर्ज चाहिए और वह उन्हें बैंक से ही प्राप्त हो सकता है. राय साहब का रूतबा होरी के लिए या उसके गाँव बेलारी के लोगों के लिए जितना हो पर खन्ना से मिलने के लिए उनके यहाँ वे आधा घंटा बैठते हैं. बेटी की शादी और इलेक्शन लड़ने से पहले खन्ना से की जाने वाली भेंट के लिए उन्हें इन्तजार करना पड़ता है. मित्र होने के बाद भी अब एक जमींदार और ताल्लुकेदार मिल-मालिक और बैंक मैनेजर के सामने कोई महत्व नहीं रखता. राय साहब की अपनी जायदाद पचास लाख और ससुराल की जायदाद भी लगभग इतनी ही है. कुल एक करोड़, जिस पर वे दस-पाँच लाख का ऋण लेने के लिए खन्ना के पास जाते हैं, पर खन्ना राय साहब की जायदाद पचास लाख की न मानकर ‘मुश्किल से पचीस लाख की’ बताते हैं –
‘‘इस दशा में कोई बैंक आपको कर्ज नहीं दे सकता. यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं. एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में पहुँचा सकती है.’’ (गोदान; पृष्ठ 195)
प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में ‘स्पेकुलेशन’ की बात कर ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ की बात कही है. यह पूंजी शेयर बाजार से जुड़ी हुई है. प्रेमचन्द के समय शेयर बाजार बढ़ने लगा था. 1900 में शेयर धारकों की संख्या जहाँ 44 लाख थी, वह 1932 में बढ़ कर (32 वर्ष में) 2 करोड़ 60 लाख हो गयी. हॉफस्ट्रा यूनिवर्सिटी में चालीस वर्ष से अधिक ‘बिजनेस हिस्ट्री’ के प्रोफेसर और अमरीकी आर्थिक एवं व्यापारिक इतिहास के दो दर्जन पुस्तकों के लेखक रॉबर्ट नाथेन सोबेल (19.2.1931-2.6.1999) ने अपनी पुस्तक ‘द मनी मेनियाज: द एरा’ज ऑफ ग्रेट स्पेकुलेशन इन अमरीका 1770-1970’ (1973) में अमरीका में जन्मे और विकसित हो रहे ‘स्पेकुलेशन’ पर विस्तार से विचार किया है. मालूम नहीं किसी भारतीय अर्थशास्त्री ने भारत में ‘स्पेकुलेशन’ को लेकर ऐसी कोई पुस्तक लिखी है या नहीं?
हिन्दी के जिन कथाकारों ने 1990-91 के बाद के भारत पर विशेष ध्यान दिया है, उन्होंने ‘स्पेकुलेशन’ पर जरूर ध्यान दिया होगा.
वित्तीय पूंजी के विविध रूपों में ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ को एक नया रूप माना गया है. प्रेमचन्द का ध्यान वित्तीय पूंजी (फाइनेंस कैपिटल) पर भी था. पूंजी के विविध रूपों– औद्योगिक पूंजी, बैंक पूंजी, वित्तीय पूंजी, सट्टा पूंजी को वे देख रहे थे. वित्तीय पूंजी (फाइनेंस कैपिटल) के अर्थशास्त्र के पाठ्य-ग्रंथों में ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ (सट्टा पूंजी) का अलग से कोई उल्लेख नहीं है. आधुनिक अर्थव्यवस्था की पहचान इस पूंजी को समझे बिना नहीं की जा सकती. वैश्विक अर्थ व्यवस्था के ‘अदृश्य हाथ’ की समझ के लिए नसीर सबीर की पुस्तक ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल: द इनविजिबुल हैंड ऑफ ग्लोबल फाइनेंस’ (1999) सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. प्रेमचन्द अर्थशास्त्री नहीं थे, पर पूंजी की चाल, उसके बदलते रूपों पर ध्यान देने के बाद ही उन्होंने ‘स्पेकुलेशन’ की बात कही. खन्ना को अखबारों से पता चला कि
‘‘उनके कई स्टाकों का दर गिर गया था, जिसमें उन्हें कई हजार की हानि होती है… नफे की आशा से चाँदी खरीदी थी, मगर उसका दर आज और भी गिर गया था. लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुकदमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था.’’ (गोदान, पृष्ठ 159).
खन्ना ने राय साहब को बीमा कराने की सलाह दी थी, पर उन्होंने अपने मिल का ‘आग-बीमा’ नहीं कराया था. पहली मिल में उन्हें बीस प्रतिशत का नफा मिला था. ‘‘प्रोत्साहित होकर उन्होंने दूसरी मिल खोली, जिसमें आधे रुपये उसके लगे थे. बैंक के दो लाख रुपये मिल में लगा दिये.’’
प्रेमचन्द, खन्ना को लोभी और धनलोलुप होने के कारण उसे सभी मोर्चे पर पिटते दिखाते हैं. शेयर बाजार में उसे नुकसान हुआ, मिल में आग लगी और बैंक का कर्जदार हुआ.
‘‘मैं एक घंटा नहीं, आधा घंटा पहले, दस लाख का आदमी था… मगर इस वक्त फाकेमस्त हूँ – नहीं दिवालिया हूँ. मुझे बैंक को दो लाख देना है. जिस मकान में रहता हूँ, वह अब मेरा नहीं है. जिस बर्तन में खाता हूँ, वह भी मेरा नहीं है. बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा. खन्ना अब धूल में मिल गया है… आप नहीं जानते मिस्टर मेहता, मैंने अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या की है. कितनी रिश्वतें दी हैं. कितनी रिश्वतें ली हैं. किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखे, कैसे नकली बाट रखे.’’
(‘गोदान’, पृष्ठ 242-43).
इसके बाद ही खन्ना ने मेहता-मालती को संसार में अपना आदमी कहा है. घर आकर वह गोविन्दी के चरणों पर गिरना चाहता है. अब उसके लिए ‘धन’ ‘सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम’ है.
प्रेमचन्द ने ‘गोदान’ में जिस ‘स्पेकुलेशन’ की बात कही है, उस पर अब तक ध्यान न दिये जाने का क्या अर्थ है, जबकि हम सब अब ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ ‘सर्वेलांस कैपिटलिज्म’ और ‘डिजिटल कैपिटलिज्म’ के दौर में ला दिए गये हैं. यह पूंजी का भयावह रूप है. नव उदारवादी अर्थ-व्यवस्था के आरंभ में ही कई अर्थशास्त्रियों ने ‘स्पेकुलेशन’ पर ध्यान दिया था, पर हमने ‘गोदान’ का यह आवश्यक पाठ नहीं किया. ब्रेमर एण्ड ब्रेमर की पुस्तक ‘गैम्बलिंग एण्ड स्पेकुलशन : ए थ्योरी, ए हिस्ट्री एण्ड ए फ्यूचर ऑफ सम ह्यूमन डायमेंशंस’, 1990 में आई. इसके पहले सुसन स्ट्रैंज ने ‘कैसिनो कैपिटलिज्म’ (1986) में भूमंडलीकरण की जड़ों और वित्त संसार का विवेचन किया था. यह बताया था कि प्रति दिन कैसिनो में खेले गये ‘गेम्स’ में कितनी अधिक मुद्रा फँसती-उलझती है. जिम डेविस ने ‘ग्लोबलाइजेशन एंड सोशल जस्टिस कांफ्रेंस’ (शिकागो, 9-11 मई, 2002) में ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ (सट्टे की पूंजी) पर प्रस्तुत अपने लेख का आरंभ सुबह साढ़े आठ से शाम के साढ़े छह तक प्रत्येक दो घंटे पर खुलने वाली उस बस के उल्लेख से किया था, जो जुआड़ियों से भरी रहती थी और शिकागो इंटरटेनमेंट टूअर्स से इंडियाना के द हॉर्स शू कैसिनो जाती थी.
जिम डेविस ने ही लंदन से प्रकाशित ‘रेस एण्ड क्लास’ के 40वें वॉल्यूम संख्या 2/3 में प्रकाशित अपने लेख ‘रीथिंकिंग ग्लोबलाइजेशन’ में यह कहा है कि भूमंडलीकरण इलेक्ट्रानिक्स के युग का पूंजीवाद है- एक विशेष प्रकार की तकनीक आधारशीला से उत्पन्न. हम इलेक्ट्रॉनिक्स से जुड़ी अर्थ-व्यवस्था के दौर में हैं. जिसे ‘नव उदारवाद’ काहा जाता है वह ‘स्पेकुलेटिव कैपिटल’ का राजनीतिक एजेण्डा है. यह पूंजी धन और गरीबी दोनों को ध्रुवित करती है. पूंजी के आत्म विस्तार का यह एक विशेष व्यवहार है. सटोरियों, सट्टेबाजों की चाँदी ही चाँदी है. देश की अर्थ-व्यवस्था पर ऐसी शक्तियाँ काबिज हैं. डेविड लेवलांग और विलियम वर्न हार्ड ने बाईस वर्ष पहले 2000 में इसकी राजनीति- ‘द पॉलिटिक्स ऑफ स्पेकुलेटिव अटैक्स इन इंडस्ट्रियल डेमोक्रेसीज’ (इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन, वॉल्यूम 54, नं.-2, स्प्रिंग 2000, एमआईटी प्रेस) में स्पष्ट कर दी थी.
मुख्य सवाल यह है कि हम प्रेमचन्द का पाठ कैसे करें? ‘गोदान’ का सबाल्टर्न पाठ महत्वपूर्ण है या यह पाठ और अन्य पाठ? जिस समय प्रेमचन्द ‘स्पेकुलेशन’ की बात कर रहे थे, उस समय क्या कोई भारतीय अर्थशास्त्री पूंजी के इस रूप पर भी गंभीरता के साथ विचार कर रहा था? इन पंक्तियों के लेखक को इसकी कोई जानकारी नहीं है.
रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
वरिष्ठ आलोचक-विचारक
रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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मौलिक दृष्टि से लिखा गया बेहद समृद्ध और विस्तृत आलेख।महाजनी सभ्यता के गर्भ में पलती पूंजी वादी सभ्यता,उसका विकास।इसके फैलते पंजों में फंसता किसान, मजदूर और श्रमजीवी वर्ग। इससे पूर्व गोदान का ऐसा मौलिक और नयी जमीन का पाठ शायद ही हुआ हो। आवारा पूंजी के आज के भयावह दौर का बीजारोपण क्या प्रेमचंद गोदान में देख पा रहे थे??अनेक अनेक सवालों को उठाता है यह आलेख। शुक्रिया अरुण जी।
नया और बेहतरीन नजरिया, पुनर्पाठ के लिए प्रेरित करता हुआ। आभार ।
आदरणीय रविभूषण जी को इस गहन दृष्टि-सम्पन्न आलेख के लिए साधुवाद।
इसे पढ़ते हुए महसूस होता है कि हमारे समय में क़ायदे की आलोचना लिखने के लिए साहित्येतर विषयों,खास तौर से समाजविज्ञान की कितनी पढ़ाई-लिखाई और तैयारी ज़रूरी है।याद आ रहे हैं मुक्तिबोध जिन्होंने बहुत पहले साहित्य के लिए साहित्य से बाहर जाना जरूरी बताया था।
यह आलेख संभवतः गोदान का अद्यतन समकालीन पाठ-विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी और समालोचन की पूरी टीम को धन्यवाद।
अच्छा आलेख।इस ढंग से प्रेमचंद की अन्य कृतियों को भी खंगाले जाने की जरूरत है। किसी भी लेखक की व्यंजना की सूक्ष्मता को देखे जाने की जरूरत होती है।अच्छा लेख वाक्य क्या शब्दों पर भी श्रम करता है। प्रेमचंद को कलम का सिपाही यूं ही नहीं कहा गया है। अमृत राय उनके श्रम के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस आलेख को पढ़ते हुए यह ध्यान में आया।
इन दिनों तो Nomad Capitalism का विस्तार प्रचार और सिद्धांत निरूपण होता दीख रहा है। भारत की नागरिकता और सैकड़ों करोड़ तक की भारतीय पूंजी बेचकर सचमुच ” लाखों ” सेठ दूसरे देशों की –चीन तक की–नागरिकता खरीद चुके और खरीद रहे हैं!
इस पर आश्चर्य या रोष जताते समय हम यह देख कर दंग रह जाते हैं कि ऐसा तो कनाडा ब्रिटेन चीन आदि सभी देशों के धन्ना
सेठ कर रहे हैं!
माॅडल इस ” घुमंतू पूंजीवाद ” का यह है कि सारे अंडे एक ही टोकरी में मत रखो। चार छह देशों की नागरिकता खरीद लो। अपने उद्योग और धंधे दस बीस देशों में फैला कर रखो। सो, अगर टैक्स या जनता की बगावत या सरकारी प्रकोप के कारण एक जगह से
भागना भी पड़े तो दस जगह अपने ही राजमहल मौजूद हों और कमाई के संसाधन भी।
अर्थ शास्त्री ही बताएं कि यह ,–आजकल के कोविड कोरोना की भांति, ही– पूंजीवाद का कौन सा अवतार है! क्या यह बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद का नया संस्करण है?आवारा पूंजीवाद का विस्तार है?अपराध-राजनीति-पूंजी की त्रिमूर्ति की नयी लीला है? लोकल-ग्लोबल का नया मुरब्बा है?
क्या गोदान का उत्तरोत्तर पाठ हमें आज की हक़ीक़त सुलझाने में कुछ और मदद कर सकता है!
यह आलेख मोटा मोटी एक बार पढ़ लिया है, शाम को दोबारा पढ़ने के लिए रखा है|
कई बार हम कथा में इतना खो जाते हैं कि बहुत से पाठ छूट जाते हैं|
सामान्य साहित्य जगत स्पेकुलेशन को न पढ़े तो समझ आता है पर मेरे जैसा पाठक जो पूंजी और कॉर्पोरेट क्षेत्र में रमता है, न पढ़े तो तब आश्चर्य होता है|
मुझे गोदान एक बार फिर पढ़ने की आवश्यकता है|
इस आलेख के आलोक में गोदान को नये सिरे से पढ़ना है।
विभूषण जी ने प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ की जीवन पर्यंत प्रासंगिक रहने वाली व्याख्या की है । मैं जितना समझ पाया हूँ इस तरह ‘गोदान’ सहित प्रेमचंद का रचना संसार कभी कालबाह्य नहीं हो सकता । मैंने गेलेक्सी की एक परिभाषा सुनी है । गेलेक्सी जीवंत है और साँस ले रही है । यह बढ़ रही है और हमें अरबों वर्ष पीछे ले जाती है ताकि हम ब्रह्मांड के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकें ।
काल जब भी पीछे मुड़कर देखता है तो उससे आगे बढ़ने के मार्ग निकलते हैं । प्रेमचंद के बारे में यह कहना उपयुक्त होगा ।
मार्क्स की तरह प्रेमचंद भी एक भविष्यदर्शी चिंतक थे।अपने कथा साहित्य में उन्होंने पूँजी के अनेक रूपों को चिन्हित किया है । सामंती अर्थ व्यवस्था की कृषि संस्कृति से लेकर औद्योगिक पूँजी से निर्मित संस्कृति,महाजनी संस्कृति एवं उसके बाद की आवारा पूँजी की भयावह भोगवादी संस्कृति- इन सबकी पहचान होती है। गोदान के संदर्भ में इन प्रवृत्तियों की चर्चा इस महत्वपूर्ण आलेख में भी हुई है । साधुवाद !
इतना बढ़िया लिखा गया लेख है कि क्या कहूँ! मेरी जितनी समझ है मुंशी जी की कृतियों पर ऐसे और लेख लिखे जाने चाहिए। बहुत बधाई रविभूषण जी और अरुण सर को 🙏🙏
बहुत समृद्ध और सारगर्भित आलेख ! रविभूषण जी और समालोचन – दोनों को बधाई!
वाकई गहन शोध और वेधक अंतर दृष्टि से लिखा गया बेहद महत्वपूर्ण आलेख.
प्रेमचंद पर जितने शोध-लेख लिखे गए हैं ,रविभूषण जी के इस लेख का स्थान उनमें अन्यतम है.यह लेख प्रेमचंद को देखने उनके लिखे हुए को पढ़ने के कई आयाम देता है.इस लेख में प्रेमचंद को समझने ,उनके समाज को समझने के कई सूत्र रविभूषण जी ने दिए है.आलोचक को साधुवाद और अरुण जी का बहुत आभार .
गोदान को नए ढंग से पढ़ने और समझने के लिए आपके इस लेख ने प्रेरित किया । लेखक वाकई में दूरदर्शी होते हैं जो आनेवाले समय और देश के भविष्य को भांप लेते हैं, आपके इस महत्वपूर्ण एवं तर्क आधारित लेख और उसमें निहित प्रश्नों ने सिद्ध कर दिया। जिस गोदान को अब तक केवल किसान जीवन का महाकाव्य कहा जाता था अब इसे यदि ‘गो–दान : स्पेकुलेटिव पूंजी का आरंभिक दौर’ कहा जाए तो अनुचित नहीं। गोदान को इस दृष्टिकोण से पढ़ने, समझने और देखने का यह पहला अवसर है। बहुत धन्यवाद सर इतने विशाल फलक पर गोदान को इस रूप में व्याख्यायित करने हेतु। शोधार्थियों को इस विषय पर सोचने के लिए एक नया दृष्टिकोण अवश्य मिलेगा।
बहुत ही सारगर्भित, अति सुंदर लेख