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Home » गुलज़ार : छवि और कवि : हरीश त्रिवेदी

गुलज़ार : छवि और कवि : हरीश त्रिवेदी

हिंदी फिल्मी गीतों को जिन गीतकारों ने संवेदनशील और सहनीय बनाए रखा है, उनमें गुलज़ार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है. इसके साथ ही, उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ, और उपन्यास भी लिखे हैं. बच्चों के लिए भी उनकी रचनाएँ हैं. उनके नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. गुलज़ार का एक समृद्ध साहित्यिक व्यक्तित्व है. इसी सोलह मई को उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था, लेकिन वे उपस्थित नहीं हो सके. प्रो. हरीश त्रिवेदी के इस आलेख में गुलज़ार के गीतकार की सूक्ष्मता से पहचान की गई है, साथ ही उनके साहित्यकार पक्ष की भी गहरी पड़ताल है. व्यक्तिगत संदर्भों ने इस लेख में जगह-जगह आत्मीयता की नमी बरकरार रखी है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 18, 2025
in आलेख
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गुलज़ार : छवि और कवि : हरीश त्रिवेदी
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गुलज़ार
छवि और कवि

हरीश त्रिवेदी

गुलज़ार साहेब को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा तो डेढ़ साल पहले हो चुकी थी पर पुरस्कार समारोह आयोजित हुआ अभी 16 मई को, और विडम्बना देखिये कि उसमें वे अस्वस्थ होने के कारण आ भी नहीं पाए. सुना जाता है कि इतना विलम्ब इसलिए हुआ कि उनके सह-विजेता श्री जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी इस बात पर अटल थे कि वे पुरस्कार लेंगे तो प्रधान मंत्री के हाथों ही लेंगे-– पर उनका यह हठ फलित न हो सका और अंततोगत्वा उन्हें राष्ट्रपति महोदया से ही संतोष करना पड़ा. (संभव है कि उनकी ज्योतिष-गणना में कोई त्रुटि रह गयी हो.)

यद्यपि अपने भाषण में उन्होंने अपने रचित ग्रंथों का स्वयं गुण-गान तो किया ही, “ऑपरेशन सिन्दूर” की भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की और कहा कि हमें “POK” लिए बिना संतोष नहीं करना चाहिए. साथ ही यह व्यंग्य भी करते गए कि “मैंने क़व्वाली नहीं लिखी, शेर-ओ शायरी नहीं की,” बल्कि महाकाव्य और प्रवचन ही रचे क्योंकि साहित्य “मनोरंजन के लिए” नहीं है, उसका उद्देश्य कहीं ऊंचा है.

दिल्ली के विज्ञान भवन के भव्य सभागार से जब मैं बाहर निकला (और वहीं मैंने 1969 में फ़िराक साहेब को यही पुरस्कार इंदिरा गाँधी के हाथों लेते देखा था और उनका पुरलुत्फ भाषण सुना था) तो मुझे लगा कि चलो अच्छा ही हुआ कि गुलज़ार साहेब नहीं आ पाए और यह सब देखने-सुनने से सुरक्षित बचे रहे. वैसे आए होते तो ज़रूर एक महीन और मीठी-सी चुटकी लेते, और फिर उस पूरे हॉल में ऐसे ठहाके फूटते कि पूरा माहौल ही बदल जाता.

 

 

जीवन, जीवनी और कृतित्व

गुलज़ार साहेब पिछले साल नब्बे के हो गए और ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा होने के पहले से ही उनका पूरा जीवन और समूचा कृतित्व संकलित और समग्र रूप में प्रकाशित करने की कई योजनायें चल रही थीं. पिछले पंद्रह बरसों से यतीन्द्र मिश्र उनकी जीवनी लिख रहे थे जो “गुलज़ार साहेब: हज़ार राहें मुड़ के देखीं” शीर्षक से 515 पृष्ठों में मुकम्मल हो कर आई. इसमें और ब्योरों के अलावा यतीन्द्र जी का गुलज़ार साहेब के साथ लिया गया एक इंटरव्यू है जो 135 पृष्ठों में फैला हुआ है और जिसमें गुलज़ार साहेब अपनी ज़िन्दगी के बारे में खुद अपने ही शब्दों में कई खुलासे करते हैं और कुछ जवाबदेही भी.

साथ ही गुलज़ार साहेब की नज्मों की अब तक जो छह किताबें शाया हो चुकी थीं वे सब की सब पिछले साल एक ही जिल्द में आयीं “बाल-ओ पर” नाम से देवनागरी लिपि में, और उस किताब में डॉ. रख्शंदा जलील का तीन-चार साल लगा कर और खुद गुलज़ार साहेब से लगातार मशविरा करके किया गया अंग्रेज़ी तर्जुमा भी शामिल है, “Fur and Feathers”. इसको गुलज़ार साहेब की द्विभाषी कुल्लियात समझा जा सकता है, और इसके मुखपृष्ठ पर लिखा भी है “Collected Poems”.

इन दो किताबों का 2024 में फरवरी में हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (JLF) में दो अलग-अलग सत्रों में लोकार्पण हुआ, और जितनी बेतहाशा भीड़ इन दोनों सत्रों में दिखी वह पूरे देश के इस सबसे बड़े और सबसे नामी साहित्यिक मेले के किसी और सत्र में किसी और लेखक के लिए पूरे पांच दिनों में देखने को नहीं मिली. इधर कई बरसों से गुलज़ार साहेब का कुछ ऐसा जलवा है कि जहाँ भी वे पहुँच जाते हैं वहाँ ऐसा घिर जाते हैं कि उन्हें निकलना (या निकालना) मुश्किल हो जाता है. उनके चाहने वाले बेशुमार हैं और बहुत सारे तो ऐसे हैं कि उनको दीवाना कहना चाहिए.

 

शोहरत और अदब २०१४

गुलज़ार साहेब की यह खुशकिस्मती है कि उनकी शोहरत उन फ़िल्मी सितारों जैसी है जो सीधे सिनेमा के परदे पर देखे जाते है, जब कि गुलज़ार साहेब तो हरदम परदे की ओट में छिपे रहे, गीतकार ही नहीं बल्कि फिल्म-निदेशक के तौर पर भी. पर ऐसी शोहरत एक तरह से उनकी बदकिस्मती भी है. वे अपने को सबसे पहले एक शायर मानते हैं और एक अदीब यानी साहित्यकार, पर सिनेमा की पहुंच इतनी दूर तक है कि उसके सामने उनकी किताबें और उनका साहित्यिक अवदान कुछ पीछे रह जाते हैं. गुलज़ार साहेब की छवि इतनी व्यापक है कि उनका कवि उसमें छिप-सा जाता है, जैसे उसको सिनेमा का ग्रहण लग गया हो.

पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने से यह हालत बहुत कुछ बदली है और ज़रूरी है कि और भी बदले. इस इनाम को वे शायद खुद अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हासिल मानेंगे-– उनको मिले कुल 22 फिल्मफेयर इनामों से बड़ा, उनके ऑस्कर और ग्रैमी से बड़ा, और शायद उनको 2014 में मिले दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के ही समकक्ष. जैसे आजीवन साहित्यिक अवदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलता है वैसे ही आजीवन फ़िल्मी योगदान के लिए फाल्के पुरस्कार, और कभी किसी और व्यक्ति को पहले ये दोनों शीर्ष पुरस्कार न मिले हैं और न मिल सकने की सम्भावना ही दिखी है. लगता है कि इतनी दूर आकर उम्र के इस पड़ाव पर गुलज़ार साहेब की अपार लोकप्रियता और उनकी साहित्यिक उत्कृष्टता दोनों में कुछ संतुलन सधा है, दोनों पलड़े बराबर हुए हैं.

सन 1965 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना शुरू हुआ और पूरे हिन्दुस्तान की सभी भाषाओं को मिलाकर देखते हुए बस किसी एक लेखक को दिया जाने वाला यह वार्षिक पुरस्कार इस साठ साल के अरसे में अब तक उर्दू भाषा के बस चार और लेखकों को मिला था: फ़िराक़ साहेब को (1969), कुर्रतुल-ऐन हैदर को (1989), सरदार जाफरी को (1997) और शहरयार को (2008). इनमें फ़िराक़ साहेब का तो मुक़ाम ही अलग है और वे गुलज़ार साहेब के भी सबसे चहेते शायरों में एक हैं, और कुर्रतुलऐन हैदर इनमें अकेली अफ़साना-निगार हैं, पर सरदार, शहरयार और गुलज़ार की तुक सब तरह से मिलती है.

 

ग़ज़लें, नज़्में, Blank Verse, Free Verse

गुलज़ार साहेब हमारे अपने ज़माने की उर्दू शायरी की बड़ी भारी शख्सियत तो हैं ही पर उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनके जैसा शायर उर्दू में पहले कभी नहीं हुआ. वे हर तरह से लीक छोड़ कर चलने वाले शायर रहे हैं और यही उनकी सबसे बड़ी पहचान भी है और उनकी नायाब कामयाबी का राज़ भी.

जैसा कि सभी जानते हैं, उर्दू शायरी की एक जानी-पहचानी रिवायत यानी परम्परा है ग़ज़ल-गोई की और वही उसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण भी है. किसी ग़ज़ल का पहला शे’र (यानी “मतला”) पढ़ते या सुनते ही हम आगे आने वाले हर शे’र पर तुरंत दाद देने और वाह-वाह कहने को तैयार हो जाते हैं, और कई जानी-पहचानी (बल्कि घिसी-पिटी) तुकों (यानी रदीफ़-काफिया) के आने-जाने के बाद जब आखिरी शे’र आता है, मक़ता, जिसमें- शायर का तखल्लुस आना ज़रूरी होता है और जिसकी आड़ में शायर खुद अपनी ही तारीफ के पुल बांध देता है, तो तालियों की गडगडाहट से पूरा शामियाना ही हिलने लगता है. तो उर्दू शायरी क्या है एक जश्न-ए तरन्नुम है, एक आम जलसा है.

अब ताज्जुब यह जान के कीजिये कि गुलज़ार साहेब ने ग़ज़लें लिखीं तो-  उसके बिना तो उर्दू शायरी में गुज़ारा नहीं है- पर अधिकतर नज्में ही लिखीं हैं. उनकी ग़ज़लों का बस एक ही संग्रह है, “कुछ तो कहिये” (2017) नाम से, जब कि नज्मों के छः, और उनकी ये चन्द ग़ज़लें भी कुछ उनके ख़ास अंदाज़ में ही हैं. पहली बात यह कि उनमें वे अपने मशहूर तखल्लुस “गुलज़ार” का एक बार भी इस्तेमाल नहीं करते तो उनका मक़ता गुमनाम रहता है, और अपने मुँह अपनी तारीफ करने का तो वे अपने को मौका ही नहीं देते! और दूसरे कि वे बीच-बीच में बहर की चूलें भी कुछ ढीली करते चलते हैं, जैसे कभी-कभी “फ़िराक़” साहेब भी कर दिया करते थे.

“ना जाने कहाँ छोड़ आये उसे वो शख्स जिसे हम जानते थे,
आहट से नज़र आ जाता था, परछाईं से हम पहचानते थे.”
(“कुछ तो कहिये,” 86)

एक और गज़ल है जिसका मतला है:

“ज़िन्दगी यूं हुई बसर तनहा
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तनहा”
(113)

जिससे बाज़ सुनने वालों को एक शायरा की एक ग़ज़ल याद आ सकती है जिसकी बहर भी यही है और रदीफ़ भी, गो क़ाफ़िया ज़रूर फ़र्क है.

जहाँ तक नज्मों का सवाल है, उनमें तुक की तो बात ही न कीजिये, कई मर्तबे बहर तक नहीं है, यानी सभी लाइनें बराबर भी नहीं हैं. जैसा गुलज़ार साहेब ने खुद समझाया है, उनकी नज्में blank verse में है, मतलब वे तुक का इस्तेमाल नहीं करते, जो कि नज्मों में पहले से होता आया है और हाल में भी फ़िराक और फैज़ वगैरह सभी ने किया है. लेकिन जो और नई बात है वो यह कि ये नज्में अधिकतर free verse में भी है, मतलब लाइनें छोटी-बड़ी भी होती रहेंगी.

यह उस तरह की छंद-मुक्त कविता है जिसकी शुरुआत अंग्रेजी में टी. एस, एलियट ने और हिंदी में “निराला” ने करीब सौ साल पहले की थी. उर्दू में भी नून. मीम. राशिद जैसे एक-दो शायरों ने यह प्रयोग किया तो था लेकिन वह प्रयोग बन कर ही रह गया. यह गुलज़ार साहेब ही हैं जिन्होने बिना-तुक और बिना-बहर की शायरी को भी वही लोकप्रियता दिलाई जो सदियों से चली आ रही उर्दू शायरी की ग़ज़ल-गोई के बाज़ उम्दा नमूनों को मिलती रही थी.

तुलनात्मक साहित्य (Comparative Literature) के एक आला उस्ताद प्रोफेसर स्वपन मजूमदार ने कुछ साल पहले लिखा था कि हमारी सभी भारतीय भाषाएँ तो उन्नीसवीं सदी में ही या बीसवीं की शुरुआत में मध्य-काल (यानी श्रृंगार-प्रधान रीति-काल) को छोड़ कर आधुनिक काल में प्रवेश कर चुकी थीं, बस एक उर्दू है जिसका रीतिकाल अब तक चले जा रहा है — यानी वही बेरहम और बेवफा माशूका और उसी पर जान देते और आँखों तक से लहू बहाते वही आशिक!

इस कसी-बंधी-अकड़ी-जकड़ी शायरी की बेड़ियों को तोड़ कर और उससे आगे बढ़ कर मद्धिम आवाज़ में आम-आदमी के अनुभवों और अहसासों के बारे में शायरी करना गुलज़ार साहेब ने ही शुरू किया. सदियों से उर्दू जिस ऊंचे बुखार में तड़प रही थी उसे नार्मल पर लाकर आहिस्ता से और आराम से बात करना उसे गुलज़ार साहेब ने सिखाया. साथ ही खयाली-रूमानी इश्क से दामन छुडाकर दुनिया के रोज़मर्रा के खुरदुरे मसलों पर आम ज़ुबान और सबके मुहावरे में कुछ कहना उन्हीं के साथ शुरू हुआ.

 

महानगर का त्रास और प्रकृति का मरहम

इसी वजह से गुलज़ार साहेब की उर्दू शायरी का दायरा पहले की उर्दू शायरी से कहीं ज्यादा बड़ा है. उनकी नज्मों में जो नए विषय बार-बार लौट कर आते हैं उनमें एक है बड़े शहरों की ज़िन्दगी की मुश्किलात, अकेलापन, और वक़्त यूं ही गुज़र जाने का दर्द.

“मुझे खर्ची में पूरा एक दिन रोज़ मिलता है,
मगर रोज़ कोई छीन लेता है, झपट लेता है अंटी से.
कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की आहट भी नहीं होती…”
(“बाल-ओ पर,” पृष्ठ ६७४)

एक और नज़्म में यह अहसास ज्यादा मायूस और गहरा है:

“क्या करना है ऐसे शहर में रहकर जिसमें
खाल उतर जाती है दिन की…
बेचारा मिमियाता दिन शाम होने तक
अपने आप ज़िबह-खाने तक आ जाता है.”
(934)

देश-विदेश के बड़े-बड़े शहरों पर गुलज़ार साहेब ने नज्में लिखी हैं, हर एक का अलग-अलग ज़ायका देते हुए: मद्रास, बम्बई, न्यू यॉर्क, दिल्ली, कलकत्ता, बग़दाद (644-661, 566)

ऐसे कठोर और निर्मम महानगरीय जीवन का अगर कोई जवाब है या इलाज है तो प्रकृति है.

“बादल ने फिर गरज के गला साफ़ किया है
पत्ते बजा के गायेगा मल्हार ज़मीं पर

ये शहर डूब जाता है लम्बे अलाप में.”
(1228)

जैसे कुछ भरोसा-सा दिलाते हुए कुछ दृश्य हैं फितरत यानी प्रकृति के — फूल, पेड़, पहाड़, समुन्दर, नावें, रात, चाँद-तारे — जिनकी ऐसी छोटी-छोटी तस्वीरें खींच दी है गुलज़ार साहेब ने जैसे हम उन्हें अपने सामने खड़ा देख रहे हों.

“गीली-गीली सी धूप के गुच्छे
ठंडी-ठंडी सी आग की लपटें
सुर्ख चमकीला गुलमोहर का पेड़”
(140)

इसी तरह एक ओर पहाड़ खड़े हैं:

“चोटियाँ बादलों में उडती हैं
पाँव बर्फाब बहते पानी में
कितनी संजीदगी से जीते हैं
किस क़दर मुस्तक़िल-मिज़ाज हैं ये
अच्छे लगते हैं ये पहाड़ मुझे.”
(634)

फिर एक और पहाड़ है कुछ दूसरी ही शक्ल का:

“पंद्रह बीस घरों की एक पहाड़ी बस्ती के सिरहाने,
आलती-पालती मारे बैठा
सूखा गंजा एक पहाड़,
दिन में कितने सारे रूप बदलता है.”
(632)

दूसरी तरफ गुलज़ार साहेब का समुन्दर भी कुछ अलग ही दीखता है.

“ठहरे-ठहरे से शांत सागर में
फूले-फूले से बादबानों में
अपने बोझल उदास सीनों में
साँस भर-भर के थाम रखी है”
(170)
एक नज़्म है जिसमें खिली हुई चांदनी को दूर कहीं अकेले में महसूस करने से कुछ जादुई-सा रूहानी तादात्म्य बनता है:

“पूर्णमाशी की रात जंगल में
बूढ़े शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो, जानम,
चांदनी में धुली हुई मद्धम
भीगी-भीगी उदास आवाजें
नाम लेकर पुकारती हैं तुम्हें.”
(188)

इन नज़्मों में गुलज़ार साहेब बस एक सजीव तस्वीर खींच के छोड़ देते हैं. उससे न कोई नतीजे निकालते हैं, न उसमें अपनी तरफ से कोई जज़्बा मिलाते हैं, न कोई फ़लसफ़ा पेश करते है. ये चीज़ें बस है, और हम और आप ज़िन्दगी की आपा-धापी में दो पल रुक कर इन्हें देख रहे हैं, इतना ही काफी है. उनका मानी वे खुद आप ही हैं.

यहाँ तक कि उनकी एक नज़्म है जिसका उनवान (या शीर्षक) ही है “इमेज” और एक दूसरी का है “इमेजेज़”. इस तरह की बिम्ब-मात्र की कविता, या imagist poem, लिखना हिन्दी-उर्दू में कम ही हुआ है. इसका चलन अंग्रेजी में Ezra Pound के ज़माने से शुरू हुआ था, और जापानी में haiku के रूप में तो सदियों से रहा है. गुलज़ार साहेब की ऐसी नज्मों का शुमार दुनिया की इस तरह की बेहतरीन कविताओं में हो सकता है. कहा जा सकता है कि ऐसी नज्में खालिस शायरी हैं या pure poetry.

 

सृष्टि और ब्रह्माण्ड

प्रकृति से ऐसे बिम्बात्मक लगाव को गुलज़ार साहेब और आगे ले जाकर, अपनी निगाह उफ़क या क्षितिज से परे और ऊपर उठा कर, ऐसे उदात्त या sublime स्तर तक पहुंच जाते हैं कि लगता है कि जैसे उनकी शायरी ब्रह्माण्ड के दूसरे छोर तक पहुँच जाना चाहती हो. उनकी एक नज़्म है जिसमें प्लूटो का ज़िक्र आता है, जो हमारे सौर-मण्डल (Solar system) का नवाँ ग्रह माना जाता था पर जिसे सन 2016 में पश्चिम के वैज्ञानिकों ने “ग्रह” की एक नई परिभाषा बना कर कहा कि अब आगे से यह ग्रह नहीं माना जायेगा.

गुलज़ार साहेब ने अपनी इस नज़्म में कहा है कि उन्होंने तो अपनी जेब में रक्खे हमेशा नौ कंचे ही गिने थे, तो अब एक कम कैसे हो गया! (594) उनके इस कुछ मासूम लेकिन शरारती सवाल के पीछे निश्चित ही यह धारणा भी है कि हमारी संस्कृति में तो बहुत पहले से नौ ग्रह ही माने गए हैं, भले पश्चिम कुछ भी कहता रहे! बाद में उनकी नज्मों का एक पूरा संग्रह निकला जिसका शीर्षक ही है “प्लूटो.”

यहीं नहीं, गुलज़ार साहेब ने शुरू से ही बेशुमार ऐसी नज्में लिखी हैं जो चाँद-सितारों से आगे बढ़ कर अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के बारे में हैं. (उनके लिए तो शब्दशः, “सितारों के आगे जहाँ और भी हैं”!) उन्होंने “कायनात” (ब्रह्माण्ड) नाम से चार नज्में लिखी हैं और “इब्तिदा” (सृष्टि का आरम्भ) और “खुदा” नाम से चार-चार और. इस उदात्त सर्वव्यापी कवि-दृष्टि के दो-तीन उदाहरण ही यहाँ दिए जा सकते हैं. “कायनात” वाली एक नज़्म वे इतनी बड़ी सृष्टि की कल्पना करते हैं जिसमें हम जिस सौर मंडल में रहते हैं वह उनके लिए नाकाफ़ी पड़ने लगता है:

“बहुत बौना हैं ये सूरज!…
ये मेरी कुल हदों तक रौशनी पहुंचा नहीं पाता.
मैं “मार्स” और “जुपिटर” से जब गुज़रता हूँ
ब्लैक होलों के भँवर से
मुझे मिलते हैं रस्ते में
सियाह गर्दाब चकराते ही रहते हैं
मसल के जुस्तजू के नंगे सहराओं में वापस फेंक देते हैं
ज़मीं से इस तरह बाँधा गया हूँ मैं
गले से “ग्रेविटी” का दायेमी पट्टा नहीं खुलता!”
(262)

कुछ आगे “खुदा” वाली एक नज़्म में वे कहते हैं:

“मैं दीवार की इस जानिब हूँ!
इस जानिब तो धूप भी है, हरियाली भी,
ओस भी गिरती है पत्तों पर. . .
जो मौसम आता है, सारे रस देता है.

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज़ नहीं करता लेकिन
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है!”

(268)
यह एक नई काव्यात्मक उद्भावना ही नहीं है, इसका स्पष्ट ही एक गहरा अर्थ भी है जो द्वैत-अद्वैत और निर्गुण-सगुण के पारस्परिक सम्बन्ध से जुड़ा हुआ है.

सृष्टि और ब्रह्माण्ड के बारे में इतने चाव और लगाव से बार-बार लिखने वाला कोई और शायर उर्दू-हिंदी में शायद ही पाया जाय और बाहर भी मुश्किल से ही मिलेगा. अंग्रेज़ी के कवि W. H. Auden की एक कविता याद आती है जिसमें वे कहते हैं:

“Admirer as I think I am/ Of stars that do not give a damn…,” यानी, “मैं तो सितारों को बहुत चाहता हूँ/ पर सितारों को लगता होगा कि उनकी बला से.” फिर Auden कहते हैं कि सितारों और मेरे बीच अगर बराबर का अनुराग नहीं हो सकता तो ठीक है, मेरा ही अनुराग अधिक रहे (“Let the more loving one be me.”) कुछ उसी तरह गुलज़ार साहेब हैं — और वे उर्दू के शायर हैं तो एकतरफा मुहब्बत के आदी होंगे!

 

समाज और राजनीति: मंदिर-मस्जिद

ऐसा नहीं है कि गुलज़ार साहेब की निगाह दूर खलाओं में ही अटक के रह जाती है. हमारी इस दुनिया के जो सामाजिक-राजनैतिक मसले हैं उनका चित्रण वे और भी शिद्दत से करते हैं. देश के विभाजन के समय उन्हें अपने परिवार के साथ दीना नाम का अपना गाँव छोड़ नए बने पाकिस्तान से भाग कर हिन्दुस्तान आना पड़ा जिसका दर्द उन्हें ज़िन्दगी-भर सालता रहा है. उनका एक शेर है:

“ज़िक्र झेलम का है, बात है दीने की.
चाँद पुखराज का, रात पश्मीने की.”

उनके नज्मों के पहले दो संग्रहों के शीर्षक इसी शे’र की दूसरी लाइन से लिए गए हैं.

गुलज़ार (या सम्पूरन सिंह कालरा, क्योंकि अभी वे शायर नहीं हुए थे) तब तेरह साल के थे और पूरी तरह से होश सम्हाल चुके थे तो उनको उस वक़्त की दहशत और पाशविक बर्बरता अच्छी तरह याद है. उनकी सबसे मशहूर नज़्मों में एक इसी अनुभव के बारे में है,

“भमीरी” (जिसे फिरकी या चक्करघिन्नी भी कहते हैं):
“हम सब भाग रहे थे,
रेफ्यूजी थे…
आग धुएं और चीख पुकार के जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुंए में भाग रहे थे
हाथ किसी आंधी की आँते फाड़ रहे थे
आँखें अपने जबड़े खोले भौंक रही थीं
माँ ने दौड़ते-दौड़ते खून की कै कर दी थी.”
(24)

उनकी एक नज़्म का शीर्षक है “एमरजेंसी (1975-77)” (पृष्ठ 16), और “फ़सादात” नाम से लिखी छह अलग-अलग नज्मों में एक में ऐसी आग है जिसे

“ग़रीबों की कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मन्दिर-ओ मस्जिद की गिज़ा खाती है
लोगों के हाथों में अब आग नहीं…
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब.”
(290)

“त्रिवेणी” नाम से उन्होंने जो एक नया छन्द ईजाद किया है, दो लाइनों के बाद एक ट्रम्प-कार्ड जैसी तीसरी लाइन जोड़ के, उसमें तो उन्होंने एक और भी तीखी बात कही है:

“बसों, कारों के हर जानिब अलाव जल रहे हैं
सड़क से रक्स करते गुल मचाते दंगे गुज़रे हैं

कभी ये भी तो दिखलाओ “रिपब्लिक डे” की झांकी में”
(1164)

वैसे जहाँ कहीं आपसी भाईचारा और सहज सह-अस्तित्व नज़र आ जाता है उसकी तस्वीर भी वे पुरअसर खींचते हैं. एक दफ़ा शिमला से नीचे उतरती सड़क के किनारे उन्हें ये मंज़र दिखा.

“…एक पहाड़ी के कोने में
बस्ते जैसी बस्ती थी इक
बटुए जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिद, वो भी लॉकेट जितनी
नींद भरी दो बाँहें
जैसे मस्जिद के मीनार गले में मंदिर के
दो मासूम खुदा सोये थे!

 

 

विसाल-फ़िराक़ और तन्हाई

गुलज़ार साहेब की शायरी में इश्क़ भी है, जो होना ही था, मगर एक अलग ही तरह का. यह जुनूनी आशिकों का खयाली इश्क नहीं है जिन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें हुआ क्या है या वे चाहते क्या हैं. यह उन लोगों का इश्क है जो पहले से इश्क में मुब्तिला रहे हैं और उसके कई ऊंचे-नीचे पड़ाव पार कर चुके हैं. यह भोगा हुआ, भुगता हुआ, परिपक्व प्रेम है, और इसमें सिर्फ फ़िराक़ ही नहीं है बल्कि विसाल भी है और फिर आगे आने वाले फ़िराक़ या वियोग का अंदेशा भी है. यह इश्क जैसे इश्क़िया शायरी के सारे भुलावों से आगे निकल आया है, जिसमें पहले के गुज़रे तजुर्बात हैं और अब तक सुलगती एक अनबुझी आग भी है.

“मैंने माज़ी से कई खुश्क सी शाखें काटी
तुमने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले
… रात भर फूँकों से हर लौ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्तों को तापा हमने.”
(68)

एक और नाज़ुक-सा लम्हा है:

“हथेलियों में अभी तलक
तेरे नर्म चेहरे का लम्स ऐसे छलक रहा है
कि जैसे सुबह को ओक में भर लिया हो मैंने…”
(88)

औए फिर इतनी ही शिद्दत से मह्सूस होता फ़िराक़ आता है “तनहा” नाम की इस छोटी सी नज़्म में:

“कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाये हैं तूने अपने गुलाबी हाथों के ठंढे फाये
कहाँ है तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज? तू कहाँ है?
…ये मेरे बिस्तर पर कैसा सन्नाटा सो रहा है?”
(206)

 

मज़ाक और तंज़: व्यंग्य और विडम्बना

एक और पहलू है गुलज़ार साहेब की शायरी का जो उनकी जिंदादिली, खुशमिज़ाजी और साथ ही पैनी नज़र से पैदा होता है. उनकी नज्मों का एक पूरा संग्रह ही है जिसका नाम है “पाजी नज्में”! इसमें नज़्मों के बारे में भी कुछ मज़ाकिया नज़्में हैं जैसे कि

“नज्में भी सब्जी मंडी में बिकती तो कुछ और ज्यादा बिकतीं
…लोग अपनी फुर्सत के बट्टे रख के तोलते
‘बस-बस, इतनी काफी हैं…
इक छोटी वाली और चढ़ा दो’”
(48)

इश्क पर भी मज़ाक-मज़ाक में एक सच्ची बात कह दी गयी है:

“इश्क में ‘रेफ़री’ नहीं होता

‘फ़ाउल’ होते हैं बेशुमार मगर
‘पेनल्टी कॉर्नर’ नहीं मिलता
… इश्क में जो भी हो वो जाइज़ है.
इश्क में ‘रेफ़री’ नहीं होता.
(19)

एक नज़्म मोबाइल फ़ोन पर भी है:

“इक मय्यत में देखा, कान लगाए कोई
सरगोशी में बोल रहा था
शायद पूछ रहा हो किसी फ़रिश्ते से
गया है जो, पहुंचा कि नहीं?”
(34-35)

 

दायरा और मौलिकता

गुलज़ार साहेब की शायरी के इतने अलग-अलग रंग हैं कि एक साथ कम ही शायरों के यहाँ मिलते हैं. जैसा कि ऊपर देखा गया, उनमें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की विफलताएं और परेशानियाँ हैं, उनके बरक्स प्रकृति है, फिर और ऊंचे उठकर ब्रह्माण्ड का भव्य विस्तार है, करतार के बारे में जिज्ञासा है, साथ ही समाज और राजनीति में जो घटित हो रहा है उसकी गहरी व्यथा है, इश्क़ का मिलन-वियोग है, और मज़ाक़ और तंज़ भी है. कम से कम ये सात रंग तो उनकी शायरी में मिलते ही मिलते हैं.

रहा उनका शायरी करने का अंदाज़ तो वो भी रिवायत से काफी हट के है. उर्दू शायरी की खूबी और ताक़त यह रही है कि हर शायर का अंदाज़-ए बयाँ (कम से कम उसकी अपनी राय में) दुनिया के और सभी सुखनवरों से अलग और बढ़ कर होता है, बात बनाने से बात बनती है, लोग बिना तलवार के लड़ जाते हैं, सभी तदबीरें उलटी हो जाती हैं, शायर रात-भर सड़कों पर आवारा फिरते हैं, कभी हिसाब करने पर कुछ लोग बेहिसाब याद आते हैं, और महबूब (यानी महबूबा) को हिदायतें दी जाती हैं कि देखो, कहीं और मिला करो, और पहले सी मोहब्बत अब हरगिज़ न मांगना. कहीं नाज़ुक-खयाली नज़र आती है तो कहीं लफ़्ज़ों की चका-चौंध, कहीं फड़कती हुई तुकबंदी और कहीं तड़कता हुआ उक्ति-चातुर्य.

गुलज़ार साहेब में यह सब शायद ही मिले. उनकी शायराना आवाज़ मद्धिम है, नरम है, नमनाक है. उसमें जो लफ्ज़ रोज़ इस्तेमाल किये जाते हैं वे ही पाए जाते हैं, अरबी-फारसी इतनी कम है कि देवनागरी में जब उनकी किताबें छपती हैं तो बीसियों नज्में गुज़र जाती हैं जिनमें एक भी फुटनोट लगाने की ज़रुरत नहीं होती. हिन्दुस्तानी में कितना कुछ कहा जा सकता है यह देखना हो तो कोई गुलज़ार को पढ़े. रहे उनके मज़मून तो उनकी शायरी में वही सब दीखता है जो हम रोज़ देखते हैं, बस जैसे उन पर से धूल की परत उतार दी गयी होती है तो वे नए लगने लगते हैं. जैसा कि गुलज़ार साहेब ने हाल में ही मुझसे कहा, “मैं तो लम्हे छीलता हूँ” — यानी चीजों पर से छिलका उतार के वे रस और गूदा सामने ले आते हैं.

जैसे कि इस वाक्य में भी देखा जा सकता है, गुलज़ार साहेब ज्यादा लफ़्ज़ों के बजाय बिम्बों से काम लेते हैं. कई बिम्ब उनकी शायरी में घूम-फिर के बार-बार आते हैं. इनमें एक है मोड़ और उससे सामने फूटती या पीछे छूटती राहें. एक और है हवा में उड़ते सूखे पत्ते, एक है ओक में कुछ भर लेना, और एक है जागते हुए कटी रात. और चाँद तो इतने अनगिनत रूपों में आता है कि उन पर हाल में छपी एक पुस्तक के शीर्षक में गुलज़ार साहेब को “The Moonsmith” कहा गया है, यानी चाँद-साज़ या चन्द्र-कार!

इसके अलावा उनके बिम्बों के प्रयोग में एक बहुत ही ख़ास बात यह है कि उनके यहाँ कई बार मुँह का काम आँख करने लगती है, आँख का काम नाक, और स्पर्श तरल जल सा हो जाता है. जैसे कि ऊपर आये उद्धरणों में, आँखें अपने “जबड़े खोले” भूँक रही हैं (24), या “कहाँ हैं तेरे लबों के चेहरे” (206), या “तुम्हारी आँखें महकती हैं इस उदासी में” (764), या “तेरे नर्म चेहरे का लम्स ऐसे छलक रहा है… (88).” जब संवेदना के अवयव या हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ इस तरह मिल-जुल या अदल-बदल जाती हैं तो जैसे हमारी चेतना के नए द्वार खुलते हैं, लगता है कि ऐसा अद्भुत और मार्मिक अनुभव जो हमें इस कविता के द्वारा हो रहा है वह हमें वास्तविक जीवन में तो कभी नहीं हुआ था. (अंग्रेजी में इसे Coleridge ने synaesthesia का नाम दिया था पर वहाँ के भी कवियों से यह अधिक सधा नहीं.)

 

विविध विधाओं के साधक गुलज़ार साहेब

गुलज़ार साहेब की शायरी के कम से कम सात रंग तो हैं ही जैसा कि ऊपर देखा गया, पर साथ-ही शायरी के अलावा उन्होंने छह-सात और विधाओं में भी साहित्य रचा है. “रावी पार” नाम के उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह में एक कहानी है जिसका शीर्षक है “सतरंगा.” एक गाँव में एक पागल-सा निठल्ला-सा आदमी है जो दिन-रात गाँव भर में डोला करता है और कोई ढंग का काम करता नहीं दिखता. कभी किसी के बैलों के गले में घंटियाँ बाँध देता है, कभी बांसुरी बजाता रहता है, कभी किसी के दरवाज़े पर चाक़ू से एक मोर या हिरन बना देता है, कभी शर्माते हुए किसी औरत के लिए रंग-बिरंगा परांदा गूंथ देता है, और कभी पनघट पर किसी औरत की गगरी पर कई रंगों के बेल-बूटे बना देता है. लगता है कि “खैरू” नाम का यह सतरंगा शख्स कहीं गुलज़ार साहेब का अपना ही सेल्फ-पोर्ट्रेट या आत्म-छवि तो नहीं है जिससे उनका self-identification या तादात्म्य हो?

विविध विधाओं की दृष्टि से देखें तो उनके एक-दो नहीं, आठ कहानी-संग्रह हैं. फिर एक उपन्यास भी है, “दो लोग,” जिसमें विभाजन के पहले का हिन्दुस्तान है, फिर दोनों अलग हो गए मुल्क दिखाए गए हैं, इंग्लैंड भी आता है जहाँ कई अँगरेज़ और हिन्दुस्तानी चरित्र रहते हैं, और फिर कथानक वापस हिंदुस्तान में 1984 के सिख-विरोधी दंगों से गुजरता हुआ 1999 के कारगिल युद्ध तक पहुँचता है. संस्मरण की एक किताब है जो मूलतः बंगाली में धारावाहिक लिखी गयी थी और जिसका अंग्रेजी अनुवाद में विनम्र शीर्षक है “Actually I Met Them!” यानी मैं सचमुच इन हस्तियों से मिला हूँ. अनेक व्यतिगत कारणों से उनको बंगाली बहुत अच्छी आती है, जिसमें बिमल रॉय का बड़ा योगदान है जिनके गुलज़ार कई साल सहायक निदेशक रहे, और फिर राखी का भी.

साहित्यिक व्यक्तित्वों या कृतियों पर आधारित उनके बहुत सारे मंज़रनामे यानी पटकथाएं हैं जिनमें मीरा हैं, ग़ालिब हैं, और प्रेमचंद का “गोदान” है और “निर्मला” है. तीन-चार साल पहले शिमला में हुए साहित्य अकादमी के एक महा-साहित्योत्सव में उन्होंने मंच से कहा भी था कि पटकथाओं को भी साहित्य की एक नयी विधा मान लेना चाहिए. फिर उनके अनुवाद हैं जिनमें शामिल हैं टैगोर की कविताओं की दो पुस्तकों के सीधे बंगाली से उर्दू अनुवाद. इस भाषाओं के बीच ऐसा सीधा वार्तालाप कम ही लोगों ने करवाया होगा.

उनकी बाल-साहित्य की पुस्तकें भी आधा दर्ज़न तो ज़रूर होंगी. और फिर उनके द्वारा सम्पादित है एक ऐसा विशाल-काय और अनूठा अखिल-भारतीय कविता संग्रह जिसे एकत्र करने और अनुवाद करने/कराने में उन्हें नौ साल लगे. 940 पृष्ठों के इस महा-संकलन का शीर्षक है, “A Poem a Day,” और इसमें साल के हर दिन के लिए 365 कविताएँ   हैं जो 34 भारतीय भाषाओं के 279 आधुनिक कवियों द्वारा लिखी गयी हैं. हर कविता अंग्रेजी अनुवाद में भी छपी है और हिंदी अनुवाद में भी. (दो अंग्रेजी अनुवाद मेरे भी हैं जो गिलहरी के रामसेतु बनाने में अकिंचन अवदान की भाँति हैं.)

तो शायरी के अलावा ये छह-सात विधाएं और हो गयीं जिनमें से हर एक में गुलज़ार साहेब का महत्त्वपूर्ण योगदान है. वे केवल खुद ही लेखक या साहित्यकार नहीं हैं, वे औरों के लिखे साहित्य में भी ऊपर से नीचे तक तरबतर हैं, आकण्ठ निमग्न हैं.

 

सिनेमा और साहित्य

तब भी गुलज़ार साहेब की ख्याति मुख्यतः फिल्मों के गीतकार, पटकथा-लेखक और (उन्नीस फिल्मों के) निदेशक के रूप में ही रही है, यह वे जानते भी हैं और शायद कुछ बुझे दिल से मानते भी हैं. वैसे उनके कई फ़िल्मी गीत हैं जो कई लेखकों की साहित्यिक कृतियों पर भारी पड़ेंगे. “मोरा गोरा अंग लइ ले …” वाले उनके अपने गीतकार जीवन के शुरू में ही लिखे एक गाने में भक्तिभीनी शृंगारिक तल्लीनता की एक मौलिक उद्भावना है, कि राधा का गोरा अंग यदि श्याम रंग का हो जाय तो उनके कृष्ण के साथ मिलन को कोई देख ही नहीं पायेगा तो रोक-टोक कैसे करेगा, यहाँ तक कि ऊपर से झांकता बैरी चन्द्रमा भी नहीं!

यह कल्पना मुझे तो ढूँढने पर भी न सूर में मिली न मीरा में न रसखान में और न बिहारी में. हाँ बिहारी में एक दोहा है जिसमें चांदनी रात को कृष्ण और राधा एक गली में साथ चलते हैं तो अगर वे छाया में चलते हैं तो कृष्ण नहीं दिखते और अगर चांदनी में तो राधा नहीं दिखती — पर यह तो काफी दूर की कौड़ी है.

एक बार गोवा में जब सिर्फ उनकी और मेरी यूँही एक दिन तीन घन्टे की लम्बी बैठक जमी (हम दोनों वहाँ एक साहित्यिक समारोह में बोलने गये थे और एक ही Resort में अगल-बगल की cottages में तीन दिन ठहरे हुए थे) और मैंने भाँति-भाँति की भक्ति/रीति-कालीन कृष्णाभिसारिका नायिकाओं के सन्दर्भ में उनकी मौलिकता की यह बात उनसे कही तो वे बोले:

“अगर कहीं से चुराया होता तो आपको तो बता ही देता!” (मेरी खुशकिस्मती कि मैं उनको पंद्रह-सोलह साल से जानता हूँ, तभी से जब हम दस-बारह लेखकों के एक साहित्यिक डेलेगेशन में साथ-साथ दस दिन जापान में घूमे थे, उन्हीं मंचों से बोले थे, उन्हीं होटलों में साथ रहे थे — और उसके बाद भी हम देश-विदेश में कई शहरों में मिलते रहे हैं, और ईमेल और फ़ोन पर तो गुफ्तगू चलती ही रहती है.)

ऐसी मीठी चुटकी और सहज विनम्रता उनके स्वभाव का विशेष गुण है यह उन सबको पता है जो उनके साथ उठे-बैठे हैं. जैसी उनकी सरल-सहज, पारदर्शी, लेकिन साथ ही अतल गहराई वाली शायरी है वैसी ही उनकी शख्सियत भी है.

इस गीत की ही तरह उनके कुछ और गीत भी साहित्य के स्तर के माने जा सकते हैं. पिछले ही वर्ष गुलज़ार साहेब के 500 चुनिन्दा फ़िल्मी गानों का एक संग्रह आया है “गुनगुनाइए” नाम से, जिसके पिछले आवरण-पृष्ठ पर छपी संस्तुतियों में लता मंगेशकर का कथन है कि उनके गीत गाते हुए उन्हें “एक बेहतर कविता” गाने का सुख मिलता था, अमृता प्रीतम ने कहा है कि अपने गीतों में भी गुलज़ार साहेब ने “उस ख़ामोशी की अज़मत रख ली है जो…होंठों पर आना नहीं जानती,” और इस नाचीज़ की राय में “उनकी कविता और उनके गीत बचपन से बिछड़े जुड़वां भाई लगते हैं जो हैं तो एक ही कोख से जनमे.”

ख़ुद गुलज़ार साहेब अपने फ़िल्मी गानों और अपने शायरी में, यानी अपने नगमों और अपनी नज्मों में, फर्क मानते रहे हैं और दोनों को अलग-अलग ही प्रकाशित करते रहे हैं. सिनेमा और साहित्य में किसका क्या स्थान है और कितना महत्त्व है इसके बारे में उनकी अपनी धारणा बिलकुल स्पष्ट रही है. यतीन्द्र मिश्र को दिए हुए एक इंटरव्यू में वे पहले ही कह चुके हैं:

“मैं हमेशा से साहित्य को सिनेमा से बहुत आगे मानता हूँ. इसलिए भी कि साहित्य (या पटकथा) की ज़मीन पर ही आप सिनेमा खड़ा करते हैं….साहित्य खुले आसमान की तरह हमेशा मौजूद रहने वाला है. फिल्म तो जब किसी कथानक पर बनेगी तो वह उस बादल (और बारिश) की तरह होगी जो आई और आसमान के नीचे छा गयी, मगर एक निश्चित समय के बाद बरस कर चली भी गयी.”
(“गुलज़ार साहेब: हज़ार राहें”, 435)

गुलज़ार साहेब बहुत बरसों से बहुत बरसे हैं और बखूबी बरसे हैं, और हम सब को रस में भिगोते रहे हैं. और जब भी उनकी फिल्मों के बादल छंटने को होंगे उसके बाद भी वे साहित्य के खुले आसमान (या निरभ्र आकाश) की तरह हम सब के लिए लगातार मौजूद रहेंगे.

__________

हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे.  फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की,  और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में  विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस  देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं.  हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है ‘अब्दुर रहीम खानखाना’ पर. (वाणी, 2019). 

harish.trivedi@gmail.com

Tags: गुलज़ारगुलज़ार की नज्मेंसाहित्यकार गुलज़ारहरीश त्रिवेदी
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Comments 1

  1. mohd.hammad.farooqui@gmail.com Farooqui says:
    2 hours ago

    हक तो ये है कि हरीश जी ने दोस्ती,सहृदय समीक्षक,रसिक होने का हक़ अदा कर दिया।

    Reply

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