रोशनी के वृत्त में आने से क्यों रह गईं सुशीला?
संदर्भ: मार्कण्डेय की कहानी ‘हंसा जाई अकेला’राकेश बिहारी
‘साहित्य में जीवन की पुनर्रचना’ शीर्षक लेख के आरंभ में मुक्तिबोध कहते हैं-
“जिया या भोगा जानेवाला यह जो व्यापक जीवन है, वह जितना आंतरिक है, उतना ही बाह्य. बाह्य और आंतरिक के बीच स्पष्ट रेखा खींचना मुश्किल है, यद्यपि हमें बौद्धिक आकलन की सुविधा की दृष्टि से भेद तो करना ही पड़ता है. किन्तु आंतरिक और बाह्य का यह भेद प्रकार-भेद नहीं. उससे तो केवल यह सूचित होता कि प्रकाश-क्षेपक यंत्र किस स्थान पर या किस कोण में रखा हुआ है. एक कोण से देखने पर जो आंतरिक है, वह दूसरे कोण से देखने पर बाह्य प्रतीत होगा.”
मार्कण्डेय की संभवतः सर्वाधिक चर्चित कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ में आंतरिक और बाह्य की यह आवाजाही लगातार देखी जा सकती है. आंतरिक और बाह्य की द्विरूपी छवियों को देखने और पाठकों तक संप्रेषित करने के लिए मार्कण्डेय अपने प्रकाश-क्षेपक यंत्र को अलग-अलग पात्रों के पीछे रखते हैं. एक पात्र से दूसरे पात्र के पीछे पहुँचने की प्रक्रिया में उनका प्रकाश-क्षेपक यंत्र बदले हुए कोणों पर अवस्थित होकर अंदर और बाहर की चाहे जितनी भी छवियों को उद्भासित करे, उनकी कथा-योजना आद्योपांत उसके फोकस को हंसा से अलग नहीं होने देती. मुझे यह कहने में भी कोई झिझक नहीं कि हंसा के प्रति करुणा और सहानुभूति की एकनिष्ठ केन्द्रीयता उन्हें कहीं और टिक कर देखने ही नहीं देती. ऐसा कहने का आशय इस महत्त्वपूर्ण कहानी को कमतर बताना नहीं है. बल्कि उस कारण की तरफ इशारा करना है जिसके चलते सुशीला जी का चरित्र रोशनी के उस वृत्त में दाखिल नहीं हो पाता जिसकी अकूत संभावनाएं उसमें निहित हैं. ‘हंसा जाई अकेला’ पर केन्द्रित यह टिप्पणी उसमें निहित आंतरिक और बाह्य की आवाजाही के विश्लेषण के साथ सुशीला जी के चरित्र में अनुस्यूत उन संभावनाओं पर ही केन्द्रित है.
इस पर बहस हो सकती है कि इस कहानी को गांधी दर्शन के आलोक में विकसित एक सामाजिक-राजनैतिक आख्यान कहा जाय या प्रेम की असफलता से उत्पन्न अकेलेपन की त्रासदी की करुण कथा. लेकिन दोनों ही स्थितियों में रोशनी के घेरे में हंसा ही होगा, कभी बाह्य संसार में प्रक्षेपित अपनी सामाजिक छवि के साथ तो कभी
अकेलेपन, उदासी और उपेक्षा के रेशों से निर्मित अपने अंतर्जगत में बेआवाज बिसूरता हुआ. इसमें कोई संदेह नहीं कि हंसा को रचते हुये मार्कण्डेय गांधी के ‘आखिरी व्यक्ति’, जो समाज और व्यवस्था प्रदत्त परिस्थितियों की अनिवार्य उत्पत्ति और निष्कलुष मनुष्य दोनों ही है, की स्थापना करते हैं. हंसा के रूप में समाज के उस आखिरी व्यक्ति के अंतस और बाह्य का प्रदीप्तिकरण ही इस कहानी का केंद्रीय उद्देश्य भी है. लेकिन हंसा के चरित्र को यह केन्द्रीयता प्रदान करने में उसकी अपनी स्थिति से ज्यादा सुशीला जी और उसके प्रेम की पारस्परिकता की भूमिका है. यह तो सच है कि हंसा आद्योपांत कहानी के केंद्र में स्थित है, लेकिन इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि कहानी और उसके जीवन में सुशीला के आने के पहले जहां वह समाज में उपहास का पात्र था वहीं सुशीला के आगमन के बाद उसका चरित्र नायकत्व को प्राप्त होता है जो सुशीला की मृत्यु के बाद उत्पन्न अकेलेपन में करुणा के पात्र में बदल जाता है. उपहास से नायकत्व और नायकत्व से करुणा तक की हंसा की यह यात्रा ही यहाँ एक दिलचस्प लेकिन उदास कर देनेवाली कहानी की शक्ल में उपस्थित होती है.
हंसा और सुशीला के सम्बन्धों का कहा-अनकहा सौंदर्य कई बार ‘तीसरी कसम’ के हिरामन और हीराबाई की याद भी दिलाता है. यदि मुझे ठीक-ठीक याद है तो फणीश्वर नाथ रेणु की अमर कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ 1956 में प्रकाशित हुई थी. मार्कण्डेय का बहुचर्चित कहानी-संग्रह ‘हंसा जाई अकेला’ संभवतः 1957 में प्रकाशित हुआ था. इन दोनों कहानियों में कौन पहले प्रकाशित हुई यह शोधार्थियों की रुचि का प्रश्न हो सकता है. पर इतना तो तय है कि ये दोनों कहानियाँ दो-एक साल आगे-पीछे यानी लगभग एक ही कालखंड में प्रकाशित हुई थीं. क्या संयोग है कि हिरामन और हंसा दोनों ही अविवाहित हैं और अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों के बीच दोनों ही अंततः अकेले रह जाते हैं. इससे भी बड़ी समानता यह कि दोनों ही कहानियों में पुरुष का प्रेम ज्यादा मुखर रूप में दर्ज हुआ है. पुरुष और स्त्री की सामाजिक स्थितियों के अनुरूप कह कर इसे तर्कसंगत भी बताया जा सकता है. लेकिन मेरा प्रश्न यह है कि आखिर वे कौन से कारण हैं कि रेणु और मार्कण्डेय दोनों के प्रकाश-क्षेपक यंत्रों का मुख्य फोकस उनके स्त्री चरित्रों पर नहीं होता है? क्या इसे लेखकीय विशेषाधिकार का विषय मानकर यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए या इसके सांस्कृतिक-राजनैतिक और लैंगिक निहितार्थ भी हैं? दो पुरुष कथाकारों द्वारा लगभग एक ही कालखंड में लिखी गईं दो महत्त्वपूर्ण कहानियों के मुख्य स्त्री पात्रों का अपने सर्जकों के प्रकाश-क्षेपक यंत्रों के फोकस में आने से रह जाने की इन रचनात्मक नियतियों के मूल में कहीं परकाया प्रवेश की क्षमता का अभाव तो नहीं है? ये प्रश्न अलग से एक स्वतंत्र लेख की मांग करते हैं और इस लेख का उद्देश्य ‘तीसरी कसम’ और ‘हंसा जाई अकेला’ का तुलनात्मक अध्ययन है भी नहीं, अतः इन प्रश्नों को संकेतक की तरह यहीं छोड़ते हुये आइये पुनः विवेच्य कहानी की तरफ लौटते हैं.
हंसा एक अति साधारण बल्कि कहिए बेवकूफ होने की हद तक का मासूम इंसान है. रतौंधी होने के कारण वह रात को ठीक से देख भी नहीं पाता. एक रात वह बाबा और अन्य ग्रामीणों के साथ ‘मजगवां का दंगल’ देखकर लौट रहा होता है कि रास्ते में एक बूढ़े की जवान बहू से टकरा जाता है. बहू चीख उठती है और उसका ससुर डंडा लेकर उन्हें दौड़ा देता है. खाइयों-खंदकों में गिरता पड़ता हंसा भी बाद में उन तक जा पहुंचता है. तत्पश्चात बाबा की झुंझलाहट और अन्य लोगों द्वारा हंसा का उपहास किए जाने के दृश्य के साथ ही कहानी की शुरुआत होती है. हंसा की मासूमियत का यह आलम है कि लोग उसकी खिल्ली उड़ा रहें हैं और वह अपना प्रिय निर्गुन, जो कहानी का शीर्षक भी है, गा रहा है, लोगों से अपनी गलती बता रहा है. लोग उसके कुँवारेपन का मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते, पर हंसा इन बातों का बुरा नहीं मानता.
ऊपर से बेवकूफ दिखनेवाला हंसा भीतर से एक जागरूक इंसान है. बार-बार उपहास और मजाक का पात्र बनने के बाद भी वह बाबा के दालान पर जरूर आता है क्योंकि वहाँ देश-विदेश, रामायण-महाभारत और ‘गन्ही महत्मा’ की बात होती है. ऐसे ही किसी दिन बाबा के दालान पर पता चलता है कि कांग्रेस का प्रचार करने के लिए सुशीला बहिन जी आ रही हैं. ‘गन्ही महत्मा’ की बातों में विशेष रुचि रखनेवाला हंसा एक लाठी में फटहे झण्डे को टांग गले में ढोलक लटका कर पूरे गाँव में सुशीला बहिन जी के आने की मुनादी कर आता है. ढोलक पर गमकती ‘धड़म-धड़म घुम-घुम’ की थाप के बीच ‘जागा हो बलमुआ गन्हीं टोपी वाले आय गइलै’ की सरस धुन वाले प्रचार का यह असर होता है कि सुशीला बहिन जी को सुनने के लिए लोग बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं. सीधी-सादी सी लगनेवाली ग्रामीण कहानी का यह वह मोड़ है जहां से हंसा का कायांतरण शुरू होता है. लगातार लोगों के उपहास का केंद्र बना रहनेवाला हंसा यहाँ तक आते-आते अत्यधिक प्रभावशाली हो उठता है-
“क्षण भर में ही जैसे सारे गाँव को हंसा ने जगा दिया हो. जिधर से देखो लोग चले आ रहे हैं. लड़के गांधी बाबा को क्या जानें, उनके लिए तो हंसा ही सबकुछ था. एक उनके आगे झण्डा तानकर कहता, “बोलो हंसा दादा की…!”
हालांकि उसके बाद भी कुछ लोग उसका उपहास करना नहीं छोड़ते, लेकिन उपर्युक्त उद्धरण में ‘हंसा द्वारा सारे गाँव को जगा देने’ और ‘लड़कों के लिए हंसा का ही सबकुछ होने’ की बातों से यह स्पष्ट हो उठता है कि अब हंसा का कायाकल्प होना शुरू हो चुका है. कहानी में इस बात के पर्याप्त और मुखर संकेत हैं कि हंसा के इस उत्साह का कारण उसकी महात्मा गांधी के विचारों में दिलचस्पी है. लेकिन यह उसके कायांतरण का बाह्य कारक भर है. अनायास ही हंसा में संचरित हो रहे उत्साह के आंतरिक कारणों का सूत्र सुशीला के प्रति उसके लगाव और आकर्षण से जुड़ता है, जो कहानी के परवर्ती हिस्से में गहन प्रेम में परिवर्तित हो जाता है.
सुशीला बहिन जी के आने के बाद बाबा के दालान पर जो सभा होती है उसमें सुशीला ठीक हंसा के सामने बैठी हैं. वह उनकी बातें बहुत ध्यान और उत्कट समर्पण के साथ सुनता है- “हंसा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि सुशीला जी आ गयी हैं. वह बाबा के पास बैठ उनकी बातें बड़े ध्यान पूर्वक पीने लगा.” ध्यान दिया जाना चाहिए कि हंसा सुशीला की बातों को सुन नहीं रहा, ‘पी’ रहा है. किसी के लिए किसी के शब्दों का रस में परिवर्तित हो जाना कोई सामान्य स्थिति नहीं है. लालटेन जल रही है, लेकिन वह उन्हें देख नहीं सकता. सुशीला की आवाज़ में खोए हंसा को कहीं से गन्ने के ताजे रस की महक सी आती है. क्षण भर पहले सुशीला के शब्द रस में बदले थे, अब तो जैसे उसका पूरा वजूद ही रस हुआ जाता है. कहानी के इस प्रसंग को बारीकी से देखें तो पता चलता है कि हंसा का यह आकर्षण तात्कालिक नहीं है. इसकी जड़ें साल भर पुरानी है-
“हंसा खो गया. सुशीला का साल भर पहले का गाना, ‘जागा हो बलमुआ गन्हीं टोपी वाले आय गइलै…’ उसके होंठों पर थिरक उठा. साँवला-साँवला सा रंग था, लंबा छरहरा बदन, रूखे-सूखे से बाल और तेज आँखें. कैसा अच्छा गाती थी!-हंसा सोचता रहा.”
इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि पूरी कहानी में यह अकेला प्रसंग है जहां सुशीला के कायिक सौन्दर्य का वर्णन हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि सुशीला के सौन्दर्य का यह वर्णन नैरेटर या कहानी का कोई अन्य पात्र नहीं करता. बल्कि यह हंसा की साल भर पुरानी स्मृति का हिस्सा है. जाहिर है तब उसे रतौंधी नहीं रही होगी या तब उसने सुशीला को दिन के उजाले में देखा होगा. आज वह उसे मन की आँखों से देख रहा है. सुशीला के आगमन की सूचना पाते ही उसके भीतर संचरित उत्साह के इस आंतरिक कारण पर पाठकों-आलोचकों ने अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया है. यह अकारण नहीं है कि ‘गन्ही महत्मा’ की बातों में विशेष रुचि रखनेवाला हंसा सुशीला के पैने स्वर से हृदय तक बिंधा ‘गन्ही महत्मा’ को पूरी तरह भूल कर खंजड़ी की डिम डिम और झांझ की झंकार में ऐसा डूब हुआ है कि उसकी नसों में रक्त की झनझनाहट भर जाती है- “एकाएक ‘गन्ही महत्मा की…’ सुनकर, वह चौंक पड़ा और जोर से चिल्ला पड़ा, ‘जय…जय…’” हंसा के इस चेहरे में बार-बार ‘हिरामन’ (‘तीसरी कसम’) का चेहरा दमक उठता है. लेकिन सुशीला ‘हीराबाई’ की अनुकृति नहीं है. आकर्षण, प्रेम और आसक्ति के रसायन उसके व्यक्तित्व में भी समान रूप से शामिल हैं.
परिस्थिति को मनःस्थिति में और मनःस्थिति को परिस्थिति में बदल डालने की अद्भुत कला का उदाहरण देते हुये मार्कण्डेय कहानी को कुछ इस तरह आगे बढ़ाते हैं-
“बहुत रात बीत चुकी है. हंसा के घर में पूड़ियाँ छानने की तैयारी हो रही है. आटा गूँधा जा रहा है. तरकारी कट रही है. आग जल रही है. पर भीतर के कमरे की भंडरिया से घी कौन निकाले? हंसा वहीं इधर-उधर डोलता है. उसकी आँखें सुशीला जी की आवाज़ का पीछा कर रही हैं. सुशीला जी कभी-कभी संकोच में पड़ती हैं, पर हंसा के चौड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में वह खो जाती हैं. कितना पौरुषी आदमी है!”
हंसा की रसोई में जल रही आग दरअसल हंसा और सुशीला के भीतर एक दूसरे के लिए जल रही प्रेमाग्नि का प्रतीक है. हंसा की मनोदशा तो कहानी में पहले ही मुखरित हो चुकी थी, ‘हंसा के चौड़े सीने पर उगे हुए बालों के जंगल में सुशीला का खोना’ हंसा के प्रति उसकी ऐंद्रिक आकांक्षाओं को भी रेखांकित कर जाता है.
हंसा और सुशीला के परस्पर आकर्षण और प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए मार्कण्डेय गीत, ध्वनि, खुशबू और स्पर्श का अवलंब लेते हैं. हिन्दी कहानी में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए इन उपकरणों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग रेणु की कहानियों में देखने को मिलता है. ‘तीसरी कसम’ और ‘रसप्रिया’ जैसी कहानियां इस मामले में संवेदना की जिन ऊंचाइयों को छूती हैं, उनसे ‘हंसा जाई अकेला’ की तुलना तो नहीं की जा सकती, लेकिन इस कहानी के अलग-अलग दृश्यों में आवाज़, गंध और छुअन की विविध रूपाभिव्यक्तियाँ रेणु की याद तो दिलाती ही हैं.
सावन की अंधियारी रात में बादलों की रिम-झिम और हवा के सर्द झोंकों के बीच कहानी कुछ और आगे बढ़ती है. भंडार गृह से घी लाने में मदद करने के लिए सुशीला हंसा के साथ जाती है. अंधेरे में लालटेन ले जाने का प्रस्ताव मना कर दिया जाता है… “अँधेरे में जैसे आँख, तैसे बे-आँख. दोनों को सहारा चाहिए. कभी वह लुढ़कता है, कभी वह लुढ़कती है, और दोनों दृष्टिवान हो जाते हैं-दिव्यदृष्टिवान.” हंसा कुँवारा है और सुशीला विधवा. यहाँ अंधेरे का द्विआयामी उपयोग हुआ है. यह अंधेरा रात का ही नहीं उन दोनों के जीवन में व्याप्त अकेलेपन का अंधेरा भी है. अकेलेपन के अंधेरे में दो बेसहाराओं का एक दूसरे का सहारा बनने का निर्णय ही उन्हें दृष्टिवान बनाता है, दिव्यदृष्टिवान! इस प्रसंग में यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि भंडार गृह में घी लेने जाते हुये सुशीला और हंसा की देह भाषा में नैरेटर को मेनका और विश्वामित्र की छवि दिखाई पड़ती है…
“मेनका के कंधे पर विश्वामित्र के उलंब बाहु.”
रातों रात इस प्रेम प्रसंग की खबर पंचायत तक पहुँचती है और यह तय किया जाता है कि गाँव में आगे से औरत-सौरत यानी सुशीला जी का भाषण नहीं होने दिया जाएगा, इससे बहू बेटियों पर खराब असर पड़ता है. कहा जाता है कि देवराज इन्द्र ने मेनका नाम की अप्सरा को विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा था. ऊपर विश्लेषित प्रसंगों की दृश्य रचना और प्रतीक योजना से स्पष्ट है कि हंसा और सुशीला में से किसी का प्रेम एकतरफा और तात्कालिक नहीं है. ऐसे में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि नैरेटर ने सुशीला को मेनका और विश्वामित्र को हंसा क्यों कहा? सुशीला के चरित्र पर लोगों द्वारा लांछन लगाये जाने को तो एक बार समझा जा सकता है, लेकिन नैरेटर द्वारा मेनका और विश्वामित्र का रूपक खड़ा करना अंततः सुशीला को ही आरोपों के कटघरे में खड़ा करने जैसा है.
इस आलेख के आरंभ में मैंने सुशीला के प्रकाश-क्षेपक यंत्र के फोकस में आने से रह जाने की बात करते हुये यह प्रश्न उठाया था कि इसे लेखकीय विशेषाधिकार का विषय मानकर यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिए या इसके सांस्कृतिक-राजनैतिक और लैंगिक निहितार्थ भी हैं? स्त्री पुरुष के परस्पर प्रेम को, जिसके कई प्रमाण सहज ही कहानी में मौजूद हैं, की अनदेखी करते हुये सुशीला को मेनका बताकर उन्हें एक खास तरह के आरोप वृत्त में ला खड़ा करना इस कहानी की लैंगिक राजनीति पर प्रश्न खड़े करता है.
इसके बाद कहानी एक बार फिर नई करवट लेती है. हंसा और सुशीला का परस्पर अनुराग तो बना रहता है, लेकिन लेखक का प्रकाश-क्षेपक यंत्र एक बार फिर आंतरिक से हटकर बाह्य पर फोकस हो जाता है. कहानी पूरी तरह चुनाव की गतिविधियों पर केंद्रित हो जाती है. सुशीला के प्रेम में खोया ‘गन्ही महत्मा’ को लगभग भूल चुका हंसा पूरा स्वयंसेवक और कांग्रेस का समर्पित कार्यकर्ता बन जाता है. विरोधी दल के लोग हंसा-सुशीला के संबंधों को लगातार प्रचारित और लांछित करते हैं. रामलीला में रावण बना हंसा बाबू साहब की पार्टी से बने राम और उसकी सेना के आगे रामलीला की तय कथा योजना के अनुरूप हार नहीं मानता और लोगों के बीच नायक बनकर उभरता है. सुशीला जी खंजड़ी बजाती घूम-घूम कर पार्टी का प्रचार करती हैं. चुनाव के दो दिन पहले बापू के आदर्शों को तोड़ने के आरोप में उन्हें पार्टी के काम से अलग किए जाने की नोटिस मिलती है… “वह हंस पड़ी थी, ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहते हैं.” लेकिन सुशीला हार नहीं मानतीं. चुनाव के ठीक दो दिन पहले उन्हें निमोनिया हो जाता है. उनकी पार्टी चुनाव तो जीत जाती है, लेकिन वह ज़िंदगी का जंग नहीं जीत पातीं. हंसा एक बार फिर से अकेला हो जाता है. लेकिन यह अकेलापन उसके लिए और मारक है. आजादी के बाद उसे राजनैतिक पीड़ित घोषित कर अनुदान तो दिया जाता है, लेकिन वह विक्षिप्त हो कर वही निर्गुण गाता फिरता है… “हंसा जाई अकेला…” हंसा कहानी के शुरू में भी अकेला था और अंत में भी अकेला ही हो गया. पर बावजूद इस अकेलेपन के यह वही हंसा नहीं है, जो कहानी के आरंभ में था. कहानी की शुरुआत में जो हंसा लोगों के लिये उपहास का पात्र था, कहानी के अंत तक आते-आते विक्षिप्त होकर लोगों की करुणा का पात्र बन जाता है.
हंसा और सुशीला दोनों अकेले थे. दोनों ने एक दूसरे से प्रेम किया. गाँधीवादी विचारों वाली सुशीला एक सर्पित कार्यकर्ता और प्रचारक थी, जबकि हंसा की कोई राजनैतिक हैसियत नहीं थी. आखिर क्या कारण है कि आरंभ से ही कुशल नेत्री और प्रचारक रही सुशीला सामाजिक लांछन के साथ मृत्यु को प्राप्त हुईं और महज मुनादी करने वाला हंसा आंदोलन का केन्द्रीय चेहरा बन गया? प्रेम तो दोनों ने किया, पर लांछन सिर्फ सुशीला के हिस्से ही क्यों आया? सुशीला के अंतस की उन संभावित ताकतों को लेखक ने केन्द्रीयता क्यों नहीं प्रदान की, जिसकी कई सशक्त गवाहियाँ इस कहानी में जहाँ तहाँ बिखरी पड़ी हैं? कहानी का मुख्य किरदार हो सकने की तमाम सामर्थ्यों के बावजूद सुशीला जी के हिस्से सहयोगी पात्र की भूमिका ही क्यों आई? सवाल और भी कई सारे हो सकते हैं. जवाब में कहा जा सकता है कि लेखक को हंसा की कहानी ही कहनी थी. ऐसे में सवाल की सूई घूम फिर कर वहीं आ अटकती है कि ‘तीसरी कसम’ हो या ‘हंसा जाई अकेला’, लेखकों(पुरुष) का प्रकाश क्षेपक यंत्र पुरुष चरित्रों पर ही क्यों फोकस हो कर रहा जाता है? तमाम खूबियों के बावजूद स्त्रियाँ रोशनी के उस वृत्त में आने से क्यों रह जाती हैं? ‘हीराबाइयों’ और ‘सुशीलाओं’ की कहानी कौन लिखेगा? कोई 65 वर्षों के बाद ‘हीराबाई’ का पक्ष ‘तीसरी कसम उर्फ महुआ घटावारिन को डूबना होगा’ में तब आया जब उसे एक स्त्री (कहानीकार कविता) ने रचा. हंसा के बाह्यांतरिक पर एकनिष्ठ होने के कारण सुशीला की छूट गई अंतर्कथाओं को भी किसी स्त्री कथाकार का इंतजार है.
राकेश बिहारी कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय. प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह). केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना) सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन),‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित ‘अर्य संदेश’ का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित), दो खंडों में प्रकाशित ‘रचना समय’ के कहानी विशेषांक, ‘पुस्तकनामा’ की साहित्य वार्षिकी. ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान (2015), वनमाली आलोचना सम्मान (2024) तथा सूरज प्रकाश मारवाह साहित्य सम्मान से सम्मानित. ईमेल – brakesh1110@gmail.com |
छोटा लेख है । पढ़ लिया । ‘गन्ही मन्हता’ जैसा शब्द लिखा है । जिन्हें आँचलिक भाषा के शब्द मालूम नहीं उनके लिए कोष्ठक में हिन्दी में लिखते ।
इस कहानी में सुशीला नाम की बेवा को पात्र मानकर कथा लिखी । पुरुष पात्र को रतौंधी है । प्रेम होना स्वाभाविक है । इसी प्रेम ने मुनादी कराई ।
इस कहानी का बहुत सुंदर विश्लेषण किया है राकेश बिहारी ने। बहुत सुंदर आलेख। बधाई एवं शुभकामनाएं। साथ ही कथाकार मार्कण्डेय की स्मृति को हमारा प्रणाम।
कहानी बहुत अच्छी और interesting है किन्तु सुशीला जी का अन्त बहुत मार्मिक रहा, प्रेम दोनो करते हैं लांछित सिर्फ औरत होती है, ये बहुत बड़ी विडंबना है हमारे समाज की।
शानदार विश्लेषण, खूब ठहरकर कहानी के हर रेशे को खोला है।