सुकृता पॉल कुमार भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य की प्रतिष्ठित पहचान हैं. सृष्टि के विस्तार को उसकी विराटता में देखने की रचनाकांक्षा सुकृता की कविताओं की प्रेरक है. उनकी कविता का कैनवस, कल्पना की उड़ान, दर्शन की गहराई, परिवेश और यथार्थ के मानवीय अनुभव, प्रकृति के विराट में एकलय होते मानवीय अस्तित्व, रिश्तों की प्रगाढ़ता, स्त्री के नैसर्गिक रूप के अद्भुत बिंब, बेघरों के जीवन संघर्षों के ब्यौरों जैसी अनेक छोटी-बड़ी बातों से रचा गया है. सुकृता जितनी अच्छी कवयित्री हैं उतनी ही कुशल चित्रकार भी. कहना मुश्किल है कि उनके चित्र कविताओं में ढलते हैं या शब्द, चित्र बन जाते हैं. रंग-रेखाओं से सजी इन कविताओं में, एक-एक शब्द तनी हुई रस्सी पर खिंचा-बँधा चलता है. शब्द और मौन मिलकर इस संसार को रचते हैंI दोनों को साथ पकड़ पाना, उनसे समान अनुराग रखना मानवीयता के दीर्घजीवी प्राण को पकड़ने जैसा है जिसमें ‘एब्सल्यूट’ की कोई तानाशाही नहीं, उन्मुक्तता है सबको साथ लेकर, सबको साथ पाकर, उत्साह और उत्फुल्लता से जीने कीI जीने की जगह जब सिकुड़ती जा रही है तब सकारात्मकता का यह भाव आश्वस्त करता हैI
उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं – ‘साल्ट एंड पैपर’ (सिलेक्टेड पोएम्स 2023), ‘वैनिशिंग वर्डस’ (2022), ‘मोमेंट्स ऑफ बींग’ (2019), अनटाइटलड (2015), ‘ड्रीम कैचर’ (2014), ‘विदआउट मर्जिंस’ (2004), ‘अपूर्ण’ (1988), ‘ऑसिलेशन्स’ (1974). उन्होंने कम शब्दों में पूरी बात कहने की निजी शैली विकसित की है, जिसे वे poemlets कहती हैं. उनका नवीनतम संग्रह ‘येलो’ (2024) ऐसी ही लघु-कविताओं का संकलन है.
गुलज़ार ने उनकी कविताओं के अनुवाद ‘पोएम्स कम होम’ शीर्षक से किये हैं. ‘समय की कसक’ शीर्षक से रेखा सेठी ने उनके काव्य संकलन Untitled का हिन्दी अनुवाद किया और सविता सिंह के साथ उनकी कविताओं की द्विभाषी प्रस्तुति ‘साथ चलते हुए’ में हुई है. उनके द्वारा किये अनुवादों में प्रमुख हैं ‘ब्लाइंड’ (जोगिन्दर पॉल का उपन्यास नादीद) तथा ‘न्यूड’ (विशाल भारद्वाज की कविताएँ).
सुकृता का साहित्यिक व कलात्मक योगदान उनके गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक बोध से रचा गया है. कविताओं सहित उनका आलोचनात्मक लेखन भारतीय समाज की जटिलताओं को प्रतिबिंबित करता है. आलोचना के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय आलोचनात्मक पुस्तके हैं – ‘नरेटिंग पार्टीशन’, ‘इस्मत आपा’ तथा ‘कॉन्वर्सेशन्स ऑन मॉडर्निज़म”. वे अनेक पुस्तकों की सह-संपादक भी रही हैं, जिनमें कृष्ण सोबती: ‘ए काउन्टर आर्काइव’, ‘स्पीकिंग फॉर हरसेल्फ: एशियन वीमेन्स राइटिंग्स’ शामिल हैं. ‘शांति की संस्कृति’ पर यूनेस्को परियोजना के निदेशक के रूप में उन्होंने ‘मैपिंग मेमोरिज़’ का संपादन किया जो भारत और पाकिस्तान की उर्दू लघु कथाओं का संकलन है.
सुकृता को, अमेरिका स्थित IOWA विश्वविद्यालय के International Writing Programme, में तीन माह की लेखन कार्यशाला के लिए, कवि रूप में आमंत्रित किया गया. उन्हें अनेक फ़ेलोशिप मिले हैं, जिनमें शिमला स्थित ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ का तथा भारतीय संस्कृति मंत्रालय का ‘टैगोर फ़ेलोशिप’ उल्लेखनीय हैं. 2023 में उन्हें ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर लिटरेरी प्राइज़’ से सम्मानित किया गया. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के अरुणा आसफ़ अली चेयर पद से सेवा निवृत्त हुईं. इसके साथ-साथ उन्होंने अतिथि संपादक के रूप में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं और जर्नल्स का संपादन भी किया. इन दिनों वे साहित्य अकादमी, भारत द्वारा प्रकाशित जर्नल ‘इंडियन लिटरेचर’ की अतिथि संपादक हैं.
रेखा सेठी
‘विभाजन ने मेरे जन्म और मेरी नियति को परिभाषित किया है.’
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सुकृता का व्यक्तित्व बहुआयामी है. कवि, चित्रकार, साहित्यिक समीक्षक, संपादक, शिक्षाविद, अनेक साहित्यिक कार्यक्रमों और योजनाओं की सूत्रधार, आपको अपनी कौन सी भूमिका सबसे प्रिय है?
मूलत:, मैं खुद को एक कवि मानती हूँ. जब मैं इस बारे में सोचती हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मेरे भीतर एक गहरी बेचैनी है, जो मुझे नए विचारों को जन्म देने और जानी-पहचानी राहों से हटकर कुछ नया तलाशने के लिए मजबूर करती है.
ये सफर जोखिम भरा हो सकता है- कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी ही बनाई हुई दुनिया के जंगल में खो गयी हूँ. लेकिन यही तो रोमांच है! अब यह अभिव्यक्ति रंगों और ब्रश से हो सकती है, शब्दों के जरिए हो सकती है, या फिर कक्षा में पढ़ाने की कला के माध्यम से, जहाँ मेरे छात्र भी इस अनोखी यात्रा में मेरे साथ होते हैं. दोस्तों और सहयोगियों के साथ भी मैंने कई तरह के “प्रोजेक्ट्स” पर काम किया है—ऐसा लगता है जैसे हम मिलकर किसी जादुई दुनिया की सैर कर रहे हों. मैं ये सब बिना किसी तय योजना के करती हूँ, लेकिन मुझे यकीन है कि इन सबके बीच एक गहरी काव्यात्मक संवेदनशीलता का सूत्र है, जो इन सबको जोड़े रखता है और उसे संजीदगी से आकार देने की माँग करती है. मुझे इनमें से किसी एक को चुनने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन हाँ, अगर कहूँ तो, एक कविता को जन्म देना मुझे सबसे ज़्यादा संतोष देता है.
जीवन के शुरुआती दौर में किसका प्रभाव सबसे अधिक रहा? एक साहित्यिक परिवार में जन्म लेकर बड़े होते हुए क्या लेखक पिता और प्राध्यापक माँ ने आपकी साहित्यिक अभिरुचियों को दिशा दी है?
बिलकुल, मेरे लेखक पिता का मुझ पर गहरा असर पड़ा. वे साहित्य में जीते थे, साहित्य रचते थे और कथा-जगत में डूबे रहते थे. मैं अक्सर कहती हूँ कि मैं एक कवि बनी, तो वह एक तरह की अवज्ञा थी- क्योंकि मेरे पिता चाहते थे कि मैं भी कहानियाँ लिखूँ या कहें कि कथा साहित्य की रचना करूँ. शायद मैं कुछ और कर सकती थी, लेकिन शब्दों के बीच रहना मेरी नियति बन गई.
मेरी बगावत बस इतनी ही थी, इससे आगे नहीं जा सकती थी- क्योंकि शब्दों के साथ खेलने की कला तो मैं अनजाने में ही सीख रही थी! मेरी माँ, हमेशा मेरी शिकायतों के लिए एक सहारे की तरह रही हैं- जहाँ मैं अपने असफलता के एहसास पर सिर धुनते हुए रो सकती थी. और फिर, वे चुपचाप मेरा हौसला वापस लौटा देतीं.
सुकृता जी, आपने ‘एक गहरी काव्यात्मक संवेदनशीलता’ की बात कही जबकि मुझे लगता है अंग्रेज़ी रचनाओं का मिजाज़ प्राय: इससे भिन्न ही होता है, उसमें एक तरह का अलगाव, तटस्थता और निरपेक्षता का भाव ज़्यादा दिखता है. आपकी कविता पर किसका प्रभाव है?
जहाँ तक मुझ पर प्रभाव की बात की जाए तो मेरे ऊपर सेम्युल बैकेट का प्रभाव है. वे मानते थे कि किसी भी साहित्यिक रचना में अभिव्यक्ति कम से कम शब्दों में होनी चाहिए. उनका नाटक ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ जिसमें उन्होंने बेहद कम शब्दों में बहुत कुछ लिख दिया. बैकेट की भाषा शब्दों में नहीं ख़ामोशी में बसती रही.
उनका कहना था कि शब्दों को इस तरह इस्तेमाल करना चाहिए कि ख़ामोशी का तस्सवुर बने. शब्दों के बीच की ख़ामोशी, पंक्तियों के बीच की चुप्पी…अल्पविराम… स्पेस एक पद से दूसरे पद के बीच…मैं ऐसा कई बार जानबूझकर भी करती हूँ. मैं नहीं चाहती की मेरी कविताओं में बहुत सारे शब्द हों क्योंकि बहुत अधिक शब्द कागज़ पर ‘लय’ की बजाए शोर उत्पन्न करते हैं. मेरा यह स्टाइल बन गया है. आप मेरी अनुवादक रही हैं आपने भी यह महसूस किया होगा.
जी बिलकुल ठीक कहा आपने. आपकी कविताओं के अनुवाद का मेरा अनुभव भी यही रहा. उसमें सबसे बड़ी समस्या मुझे यही आती थी कि जिस कसावट के साथ आप अपनी बात करती थी शायद मेरे मिजाज़ में उतनी कसावट नहीं है. कई बार ऐसा हुआ है कि दूसरे शब्द उसमें जुड़ गये या उसकी लय थोड़ी बदल गई. अनुवाद करते हुए इन बातों को लेकर मेरे मन में हमेशा यह दुविधा बनी रही. आपकी बहुत-सी कविताओं में आंतरिक संगीतात्मकता है, खासतौर पर आपकी कविता ‘द आर्ट ऑफ़ वेअरिंग बेंगल्स’, जो कविता की रचना प्रक्रिया पर है. आप उसमें व्याख्यायित करती हैं कि कविता कैसे रूप ग्रहण करती है. मैंने देखा कि पूरी कविता में आंतरिक लयात्मकता है लेकिन कई जगह ऐसा लगता है कि आपने उसे जबरन रोक लिया है ?
जिस कविता की आप बात कर रही हैं, वह पता नहीं कैसे लिखी गई. यह बात मुझे हैरान करती है क्योंकि ना मैं चूड़ियाँ पहनती हूँ न ही किसी को पहनते हुए देखती हूँ बल्कि उन्हें एक तरह से नज़र-अंदाज़ करती हूँ. पता नहीं कैसे अवचेतन से वह इमेज निकली. जब मैं अपने आप से पूछती हूँ तो सोचती हूँ शायद जब मैं चालीस साल पहले हैदराबाद गई थी तो चार मीनार के आस-पास चूड़ियों का बाज़ार है, वहाँ के दृश्य मेरे लिए एक कला बन गये. कैसे चूड़ी पहनाने वालों की नज़र चूड़ियों और कलाइयों के आकार पर रहती है.
चूड़ी बेचने वाला यह काम इस सावधानी से करता है कि टूट जाने पर चूड़ी चुभ न जाए. उस वक़्त वह सारा क्रिएटिव प्रोसेस मेरे अवचेतन में रजिस्टर कर गया होगा, पता नहीं ! इतने वर्षों के बाद वह इमेज कैसे उभरी, इस कविता को लिखते हुए, मुझे बड़ा आनंद आया. बरसों बाद, भीतर बसी कोई पुरानी चीज़ बाहर निकलती है मगर भीतर तो वह ताज़ा ही रहती है. उसकी ध्वनि, उसकी खुशबू, उसका माहौल किसी और चीज़ में ढल जाता है. किसी भी कविता को आप उसके माहौल से अलग नहीं कर सकते. उस कविता के मिजाज़ में, एक गहरी हिंन्दुस्तानियत तो हैलेकिन जब यह रूपक कविता लिखने की प्रक्रिया में ढलता है तो वह किसी एक संस्कृति तक सीमित नहीं रहता. ये चूड़ियाँ, ये नाज़ुक रिश्ते और रंग, उन्हें पहनाने के ढंग से एक कविता ही तो बनती है. यह सब बड़ा मज़ेदार अनुभव था. मुझे नहीं लगता उसमें अंग्रेज़ी अप्राकृतिक लगती है. अगर वह अप्राकृतिक लगती है तब इसका मतलब कुछ गड़बड़ है. भाषा कैसे सामग्री से विवाह करती है, कैसे उस संस्कृति को अपनाती है क्योंकि अंततः यह हैप्पी मैरिज है !
ये रूपक और बिंब आपकी कविता में इसलिए ज़्यादा आते हैं कि आपके पास एक चित्रकार की आँख भी है, जो रंग और रेखाओं से निरंतर नई-नई रचनाएँ करती रहती है.
आप यह ठीक कह रही हैं. इसमें एक और मुद्दा भी है. चित्रकारी मेरे लिए सिर्फ चित्रकला नहीं है. उसमें काव्यात्मकता आनी ही है. मुझे लगता है मेरे कवि होने के कारण शायद, मेरी चित्रकारी में भी कवित्व झलकता है. यह सिर्फ अलग माध्यम की बात नहीं है. अगर आप मेरी पेंटिंग देखें तो आपको लगेगा की ये एक कवि की पेंटिंग हैं.
मैं नहीं जानती कला-समीक्षक उन्हें कैसे देखते हैं. जिस वक़्त मैं चित्र बनाने बैठती हूँ मुझे उस वक़्त वैसी ही प्रेरणादायक अनुभूति होती है जैसी कविता लिखते समय होती है लेकिन मेरा मन उसे रंगों में चित्रित करने को करता है, उसे करने की प्रक्रिया बिलकुल अलग है. हालाँकि मेरी हर एक प्रक्रिया में चाहें वह लेखन हो, चित्रकारी या अध्यापन सभी में मानसिक स्थिति एक कवि की ही रहती है.
एक और बात जो मैंने आपकी कविताओं में पाई है कि यह जो पूरी सृष्टि है, जैसे हम भक्तिकाल की कविताएँ पढ़ते हैं उनमें आप अपने ‘मैं’ को समर्पित कर देते हैं, यह अहम् का विसर्जन ही बड़ी बात है. बड़ी गज़ब की बात है कि आप आधुनिक तेवर की कविता लिखतीं हैं फिर भी उस कविता में अपने आसपास के परिवेश से जो रिश्ता बनता है वह इसी तरह के समर्पण का है.
रेखा, मुझे नहीं पता कि यह समर्पण है कि कुछ और लेकिन मुझे लगता है कि आपके अपने भीतर की चाह को महसूस करने के लिए, समझने के लिए, आपको आज़ादी चाहिए.
मैं बार-बार कहती हूँ कि सभ्यता के विकास की जो दौलत है वह आपको विचार की घेरेबंदियों में डाल देती है. आपको नियम कायदे याद आने लगते हैं. कविता और जीवन में आपको उस जकड़न से मुक्ति चाहिए.
मैं आपकी कविता का अनुवाद पढ़ रही थी,
“आसमानों के एक छोर से
नीले रंग को उठा लेती हूँ
अर्पित कर देती हूँ
दूसरे छोर पर”—
इन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा लगा कि इन चार पंक्तियों में ही आपने अपनी सृजन की पूरी प्रक्रिया डाल दी है…
यह बहुत रोचक है यह बिंब उस समय बना जब मैं चाइना में ताई ची देख रही थी. मैंने अपनी चाइनीज़ दोस्त को यह बताया कि इस तकनीक में ऐसा लगता है जब वे अपने शरीर को बाहर की तरफ खींचते हैं, एक साइड से दूसरी तरफ तो लगता है कि उनके उस अभ्यास में सारा ब्रह्मांड स्पेस का घेरा बन जाता है.
अगर गौर से उसे देखा जाए तो उस बिम्ब में बड़ी दार्शनिकता है, तत्त्वमीमांसा है. मेरी चाइनीज़ दोस्त के पूछा कि मुझे यह कैसे पता लगा, क्या मैंने यह सब पढ़ा है. उसने दो-तीन चीनी दार्शनिकों के नाम लिए कि ताई ची के पीछे क्या है. मैंने कहा, यह सब पढ़ा नहीं है मगर शायद यह सोच हमारी दार्शनिकता में है. सारा ब्रह्मांड एक ही है जैसे चेतना का पिंड! सहज ज्ञान को सोखना हो जैसे. इसीलिए मेरे ख्याल में इस किताब का नाम भी ‘अनटाइटल्ड’ है क्योंकि मुझे लेबल के साथ शीर्षक तंग करते हैं. जब कोई लेबलिंग हो जाती है तब मुझे उससे कोफ़्त होने लगती है.
मुझे आपसे बातचीत करते हुए बहुत दिलचस्प लग रहा है कि कैसे कई बिंदु जो मेरे मन में थे एक-एक करके एक-साथ जुड़ते चले जा रहे हैं जैसे मैं आपसे सृष्टि की बात कर रही थी और आपने मुझे चीन का उदाहरण बताया. आपकी कविताओं में यात्राओं से बहुत सारे अनुभव इकट्ठे किए गए हैं.
हाँ, यात्रा करना मुझे अच्छा लगता है. शायद इसलिए कि वे मुझे आंतरिक निष्क्रियता से छुटकारा दिलाती हैं. यात्राओं से जुडी कविताएँ यात्रा-वृतांत की तरह नहीं है. कोई भी बाहरी यात्रा दरअसल एक भीतरी यात्रा का प्रेरणास्रोत बनती है. यह मैं अपने विश्वास के साथ कह रही हूँ कि अगर आप वह यात्रा नहीं करते तो यह खतरा होता है कि कहीं आंतरिक यात्रा भी बंद ही न हो जाए क्योंकि आपने अपनी जड़ें जमा लीं तो उससे जड़ता भी हो जाती है.
जब एक अनुभव होता है, जैसे चीन का हुआ, तो वह मुझे दूसरे मानसिक स्पेस की तरफ ले जाता है. इस तरह से यात्राओं में मानसिक स्पेस बनते हैं. इसी संग्रह की पगोड़ा कविताओं में भी वही बात है.
हाँ पगोड़ा कविताएँ हैं, शूलीभंजन मंदिर का एक बिंब है और हवाईं मिथक पर कविताएँ हैं…
हाँ, कुछ कविताएँ होंगी. एक और बात है, जब मैं पहले के समय में यात्राएँ करती थी तो वहाँ अकादमिक माहौल रहता था. पेपर पढ़ना होता था, अकादमिक चर्चाएँ होती थीं. तब भीतर की यात्रा के लिए स्पेस नहीं बन पाता था और अब यदि आप कविता उत्सवों के लिए यात्रा कर रहे हों तब आपके जीवन का वह पक्ष निकल कर आता है.
ये बाहरी यात्राएँ, कल्पना का विस्तार करती हैं. ये बाहरी तो है पर यह एक मानसिक अनुभव भी है. आपने मुझे इस ओर सोचने के लिए बाध्य किया, आपका शुक्रिया ! मैंने कभी ऐसा सोचा नहीं था कि जो चीज़ कहीं और की विरासत है जैसे पगोड़ा या शूलीभंजन, वह विरासत कैसे अपनी वर्तमान चेतना में जीवंत हो जाती है.
कविता और प्रकृति का एक अजब रिश्ता आपकी कविताओं में नज़र आता है. जिस विशुद्ध अनुभव की आप बात कर रहीं हैं, वह सच्चा खरा अनुभव प्रकृति से जुड़ी कविताओं में बहुत गहराई से महसूस होता है. प्रकृति कई तरह से आपकी कविताओं में आती है आपने अपनी कविता में लिखा है कि मैं उस रेखा को पकड़ना चाहती हूँ जहाँ चाँद और लहरें मिलती हैं.
इसके लिए आपको दाद देनी होगी ! आपने इन पंक्तियों को पकड़ा क्योंकि इस पर बहुत कम बात हुई है. कविता एक ऐसा माध्यम है जिसके ज़रिये आप खुद को पहचानने लगते हैं. अपने से मतलब, अपने अस्तित्व से है व्यक्तित्व से नहीं. यह मुझे आपके ज़रिये पता चला. लिखते समय तो आप उस स्तर पर रहते हैं जहाँ आपको अपनी कविताओं के बारे में सोचने का मौका आमतौर पर नहीं मिलता. किसी दूसरे के माध्यम से मिलता है, यही उसकी खूबसूरती है. जैसे मैंने आपको बताया कि गुलज़ार साहब मेरी कविताओं में हिन्दुस्तानियत ढूँढ रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि इनमें यही एक मुख्य चीज़ है और जब सविता सिंह ने मेरी कविताओं का अनुवाद किया, उसने स्त्री के संदर्भ में मेरी कविताओं को चुना और आप जो अनुवाद कर रही हैं, उसमें आपने आत्मीयता और दार्शनिक आधार को पकड़ा है लेकिन वह कोण मेरी व्यक्तित्व या मेरे लहू में है.
तमिल में शांति राजारमण ने मेरी कविताओं के अनुवाद किए हैं. तो कुल मिलकर, अब मैं आपके साथ जब इस बिंदु पर सोच रही हूँ, मैं उसके बारे में अधिक जागरूक हो रही हूँ. मैं उसे मानवीयता भी नहीं कहूँगी, अध्यात्म भी नहीं कहूँगी. वह मेरे भीतर ही मेरी संवेदना का हिस्सा है, शायद मेरी सक्रिय चेतना का नहीं.
आप उसे उदात्तता कह सकती हैं, सबलिमेशन.
हाँ, ज़मीन पर होते हुए भी ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठना. ‘सेन्स ऑफ़ बीइंग’ का यह आयाम मेरे व्यक्तित्व में काफी मज़बूत है. यह मेरी आदत है कि सुबह मैं सैर पर जाती हूँ तो चाहें पाँच मिनट हों या दस मिनट हों मुझे उस चीज़ से रोज़ जुड़ना है उसे क्या कहूँ मैं?
ध्यान कहूँ या वही ज़मीन से उठने वाली बात कहूँ? उस ब्रह्माण्ड को अपने भीतर लाना है, जिसे स्पेस कांटेक्ट कहते हैं वह करना है, मैं उसमें दस मिनट जरूर बैठती हूँ. जब मैं लिखने बैठती हूँ तो वह चीज़ मुझे ऊर्जा देती है. उसे मेटाफिज़िकल भी कह सकते हैं, वह आयाम है मेरे भीतर. उसी में मैं चुप्पियाँ ढूँढने की बात जोड़ूँगी क्योंकि कई बार चुप्पी मेरे लिए इतनी मानीखेज़ हो जाती है. चाहे वह चुप्पी शब्दों ने ही उत्पन्न की हो लेकिन उसे महसूस करना बहुत ज़रूरी है मेरे लिए. शायद मैं उसी की तलाश में रहती हूँ.
भाषा से आपका कैसा रिश्ता रहता है? जैसा आपने कहा कि आपका जीवन संस्कृति की बहुलता में बीता है.
यह बहुत अच्छा सवाल है लेकिन उस बहुलता का तेवर थोड़ा बदल गया ! उसका वह अंश इकाई में आ गया, बहुभाषी ज़ुबान कोई विरोधाभास नहीं है.
हमारे यहाँ बहुत-सी भाषाएँ एक ही साथ हमारे जीवन में समा जाती हैं. यह नहीं कह सकते कि एक भाषा, भीतर की दूसरी भाषा के साथ कोई विरोधाभास रखती है बल्कि इनका आपस में एक वार्तालाप चलता है और हमारी पहचान बहुभाषी बन जाती है.
आपकी कविताओं के बहुत सारे अनुवाद हुए हैं. बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने ये अनुवाद किये हैं जिनमें से एक प्रसिद्ध नाम गुलज़ार साहब का भी है. यह अनुवाद ‘हार्पर कॉलिंस’ से प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने कहा है कि एक तरह से यह इन कविताओं की घर वापसी है. आपको अपनी कविताओं के अनुवाद कैसे लगते हैं ?
देखिये मेरा यह विश्वास है कि जो अनुवाद करता है जब तक वह उस कविता को अपनी नहीं बना लेता तब तक वह अनुवाद ठीक से नहीं कर सकता. अगर अनुवादक कविता को पूरा अपना बना लेता है तो हक़ से स्वतंत्र अनुवाद कर सकता है. गुलज़ार साहब ने मेरी कविताओं का अनुवाद करते हुए ‘कविता की घर वापसी’ की बात कही इसलिए किताब का नाम भी यही है “पोयम्स कम होम”. यह गुलज़ार साहब का नज़रिया है कि इन कविताओं में उन्हें हिन्दुस्तानियत नज़र आती है. उन्होंने अपनी भूमिका में भी लिखा है कि उन्होंने इन कविताओं की हिन्दुस्तानियत उभारी है. उनका नज़रिया अपनी जगह सही है, लेकिन मेरे नज़रिये से अंग्रेज़ियत भी इन कविताओं का अहम अंश है और हिंदुस्तानी भी.
इन दोनों के संवाद से कविताओं में तीसरी सच्चाई उभरती है. मैं यह नहीं कहूँगी कि अंग्रेज़ी सिर्फ एक आवरण था क्योंकि अगर हमने उस भाषा को अपनाया न होता तो मैं अंग्रेज़ी में अपनी कविताएँ क्यों लिखूती? बचपन के पहले पन्द्रह साल कीनिया में गुज़ारने से मेरी भाषा को जो गति मिली, उसमें बचपन से ही अंग्रेज़ी का साथ रहा. आधिकारिक तौर पर हमने हिंदी कभी नहीं सीखी, यहाँ भारत में आकर हिंदी सीखी और इसके अलावा अपनी दादी के ज़रिये पंजाबी संस्कृति मेरे भीतर समाई हुई थी. यह जो बहुभाषिकता है जिसमें अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और पंजाबी शामिल हैं, यह सब मिलजुल कर मेरा एक व्यक्तित्व बनता है. उस व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति में हिंदुस्तानी ज़रूर झलकेगी. हर भाषा का अपना मिजाज़ होता है. मेरी कविता का मिजाज़ बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक है. यह तो आलोचक ही निर्णय करेंगे कि उस हिंदुस्तानी में अंग्रेज़ी कितनी अनिवार्य है.
अभी हम आपकी उन कविताओं की बात कर रहे थे जिनके अनुवाद गुलज़ार साहब ने किये हैं. इन कविताओं के बिंब खास तरह के भारतीय परिवेश से आते हैं. जब आपकी कविताओं के अनुवाद भारतीय भाषाओं में होते हैं तब उनकी पहचान बहुत सहजता से हो जाती है. क्या विदेशी भाषाओं में भी आपकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं?
बिलकुल हुए हैं, इटालियन और स्वाहिली, स्लोवाकियाई और अभी हाल ही में जापानी भाषा में भी हुए है. किसी रचना का अनुवाद करते समय अनुवादक उस कविता को उस देश की संस्कृति में ढाल सकता है. जब मैंने अपनी कविताएँ स्लोवाकियाई भाषा में सुनीं. यह बात ब्रातिस्लावा की है.
मुझे यह बहुत रोचक लग रहा था कि कैसे मेरी कविताएँ स्लोवाकियाई संगीतात्मकता में गोते लगा रहीं थीं. ये कविताएँ काफी भावनात्मक हो गई थीं. अगर मुझे अपनी कविता का स्वर ठीक नहीं लगता तो मैं उस कविता को निर्ममता से नष्ट कर देती हूँ. पहले मैं ऐसा नहीं कर पाती थी लेकिन अब मैं अपने लिखे में इसी तरह मौलिक सार तक पहुँचने की कोशिश करती हूँ. उसकी आंतरिक लय पर अधिक ज़ोर होता है. मैंने वहाँ पर देखा कि उस भाषा में कविता-पाठ में ही संगीत सुनाई दे रहा है. इस तरह कविता में अनुवाद के ज़रिये एक और आयाम जुड़ गया.
आपके लेखन में कुछ बातें विशेष ध्यान खींचती हैं, जैसे देश के विभाजन को लेकर जो आपका काम है या फिर भारत की बहुलतावादी संस्कृति और बहुभाषिकता को रेखांकित करने, बचाए रखने की आपकी मुहिम आपके लेखन में आद्यंत दिखाई पड़ती है.
मेरा जन्म और परवरिश केन्या में हुई, और इसका संदर्भ मुझे हमेशा इस रूप में दिया गया कि मेरे पिता 1947 के विभाजन के समय सरहद के उस पार से आए थे. एक शरणार्थी के रूप में उन्होंने मेरी माँ से विवाह किया और उनके साथ उनके देश, केन्या जाने के लिए तैयार हो गए, जहाँ मेरा जन्म हुआ.
एक तरह से विभाजन ने मेरे जन्म और मेरी नियति को परिभाषित किया. काफी समय बाद, एक शोधकर्ता के रूप में, मैंने विभाजन को इतिहास की बजाय साहित्य के माध्यम से समझने का निर्णय लिया. इस विषय पर मेरी किताब 2006 में प्रकाशित हुई. कुछ साल बाद, मैंने भारतीय भाषाओं के साहित्य के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक विविधता और भाषाई बहुलता के अध्ययन में गहरी रुचि ली. मेरी यह रुचि आज भी जारी है- चाहे वह साहित्य अकादेमी की पत्रिका Indian Literature के संपादन में हो, या उन किताबों की श्रृंखला में, जिनका मैं सह-संपादन कर रही हूँ.
इसी संदर्भ में ‘Writer in Context’ सीरीज़ पर बात करना ज़रूरी लग रहा है. उस परियोजना के बारे में कुछ और बताइए
Writer in Context’ की परिकल्पना भारतीय लेखकों के गहन अध्ययन को सुविधाजनक बनाने के लिए की गई थी, ताकि विभिन्न भारतीय भाषाओं के रचनाकारों को उनके भाषाई और सांस्कृतिक संदर्भ में समझने के लिए महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराई जा सके. इस श्रृंखला के आठ खंड प्रकाशित हो चुके हैं, जबकि देश के विभिन्न हिस्सों के विद्वानों द्वारा चार और खंड तैयार किए जा रहे हैं.
विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशियाई कार्यक्रमों के अंतर्गत भारतीय साहित्य का अध्ययन अध्यापन होता है, और अपने देश में भी जहाँ इन रचनाकारों को पढ़ाया जाता है, यह पुस्तक शृंखला प्राध्यापकों, शोधार्थियों, छात्रों तथा साहित्य-प्रेमियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी रहेगी. इस प्रयास से भारतीय साहित्य की उपस्थिति को विश्व के साहित्यिक मानचित्र पर दृढ़ करने में मदद मिलेगी, ऐसा हमारा विश्वास है!
Sukrita Paul Kumar, former Fellow of Indian Institute of Advanced Study, Shimla, held the prestigious Aruna Asaf Ali Chair at Delhi University. An honorary faculty at Corfu, Greece, she was an invited resident poet at the prestigious International Writing Programme at Iowa, USA. Her most recent collections of poems, are Yellow, Salt & Pepper (Selected Poems), Vanishing Words and Dream Catcher. She has been awarded Rabindranath Tagore Prize in 2024 and in 2022 she was honored with Vishwarang Samman, and the Bharat Nirman award earlier. Her poems have been translated into many Indian and foreign languages, the latest is the book of her poems translated into Italian, published by Besa Muci, Rome. Her critical books include Narrating Partition, and The New Story. She has co-edited many books, including Speaking for Herself: Asian Women’s Writings. An Honorary Fellow at HK Baptist University, Hong Kong, she has published many translations and has held exhibitions of her paintings. Currently she is series co-editor of “Writer in Context” volumes published by Routledge UK and South Asia. She is currently the Guest Editor of Indian Literature, a journal published by Sahitya Akademi, India. Email: sukrita.paulkumar@gmail.com |
रेखा सेठी, साहित्य समीक्षक, संपादक तथा अनुवादक हैं. वे दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं. उन्होंने 5 पुस्तकें लिखीं हैं, 7 संपादित की हैं तथा एक कविता संकलन का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद किया है. उनकी अद्यतन प्रकाशित पुस्तकों में हैं-‘स्त्री-कविता पक्ष और परिप्रेक्ष्य’ तथा ‘स्त्री-कविता पहचान और द्वंद्व’. उनके लिखे लेख व समीक्षाएँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा साहित्य उत्सवों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही है. उन्होंने सुकृता पॉल कुमार, के. सच्चिदानंदन, संजुक्ता दासगुप्ता, लक्ष्मी कण्णन सहित अनेक अंग्रेज़ी कवियों की कविताओं के अनुवाद किए हैं.
ई-मेलः reksethi22@gmail.com |
उन के पिता जोगेन्द्र पाल भी उर्दू के लब्ध प्रतिष्ठित कहानीकार तथा साहित्यकार थे। हालांकि वे मुझ से काफ़ी बड़े थे उनसे मेरी मित्रता भी थी कोई पचास वर्ष पुरानी। पाकिस्तान में भी उन का नाम बड़े अदब से लिया जाता है।
सुकृता जी से बातचीत रोचक और महत्वपूर्ण है।सृजन प्रक्रिया और चूड़ी पहनाने की कला का संबंध गहरी अंतर्दृष्टि का द्योतक है।और ज़मीन पर होते हुए भी ज़मीन से ऊपर उठना,विभाजन,यात्राओं —ऐसे अनेक रत्नों से संपन्न यह बातचीत लाजवाब है।
समृद्ध करने वाला साक्षात्कार .
न न, साक्षात्कार नहीं, संवाद!
मानो एक-दूसरे की रग में बस कर अपनी ही आतुर पुकारों को सुना-गहा जा रहा हो.
मानो बड़बोले शोर को काटतीं चुप्पियाँ संवाद के बाद अपने भीतर के उजास को देखने का आह्वान बन गई हों.
विश्वास है कि बहुत जल्द आप सुकृता जी की चुनिंदा कविताओं का अनुवाद भी उपलब्ध कराएँगे.