हर तरफ़ पसरी थी चुप्पी रवीन्द्र व्यास |

एक
ऑड्रे दीवान
मैं ख़ुद अपने गर्भपात के पीड़ादायी अनुभवों से गुजरी हूँ और गर्भपात पर बहुत कुछ पढ़ना चाहती थी. मेरे एक मित्र ने सलाह दी कि मैं एनी अर्नो का उपन्यास ‘हैपनिंग’ पढ़ूं. जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा तो मुझे पता लगा कि मैं गैरकानूनी गुप्त गर्भपात के बारे में कितना कम जानती हूँ . मैं अचंभित थी.
चिकित्सकीय और गैरकानूनी गुप्त गर्भपात में खास अंतर यह है कि गैरकानूनी गर्भपात बहुत आकस्मिक होता है. इस तरह का गर्भपात कराते स्त्रियों को लगता है, कहीं यह आपको पुलिस के हवाले तो नहीं कर देगा या सचमुच आपकी मदद करेगा? या फिर आपको इसके लिए जेल भी हो सकती है या किसी गंभीर अवस्था में अस्पताल जाना पड़ सकता है? यह दुविधा से ज्यादा जीवन-मरण का सवाल है.
मैं ऐसी फिल्म बनाना चाहती थी जो स्वतंत्रता के बारे में बात करते हुए गैरकानूनी गुप्त गर्भपात पर हो. मैं यह बिलकुल नहीं चाहती कि यह फिल्म किसी राजनीतिक घोषणापत्र की तरह हो. मेरी फिल्म में राजनीति होने के निहितार्थ यह हैं कि इसमें स्वतंत्रता के साथ आपके संबंध क्या और कैसे हैं. मैं समझती हूँ , ख़्वाहिश ख़ूबसूरत चीज़ है. मैं चाहती थी कि यह फिल्म सिर्फ पीड़ा को ही अभिव्यक्त न करे बल्कि वहाँ रौशनी हो, ख़्वाहिशें हों. मैंने इस उम्मीद में यह फ़िल्म बनाई कि वे तमाम लड़कियों एक दिन उस सामाजिक शर्म से आज़ाद होंगी, अपनी ख़्वाहिशों को महसूस करने के हक़ की रक्षा कर सकेंगी.
यह फ़िल्म सिर्फ गैरकानूनी गुप्त गर्भपात के बारे में ही नहीं है बल्कि स्त्री की स्वतंत्रता के बारे में भी है. और इसी कारण इस उपन्यास में मेरी दिलचस्पी पैदा हुई. यह एक ऐसी लड़की की कहानी है जो मध्यवर्गीय परिवार से यूनिवर्सिटी पढ़ने आई है. वह अपनी यौन इच्छाओं के बारे में ही नहीं सोचती बल्कि अपनी बौद्धिक इच्छाओं के बारे में खूब सोचती है. वह लेखिका बनना चाहती है, और कोशिश करती है कि हर तरह से वह स्वतंत्र हो. और इन्हीं ख़ूबियों के कारण मैं इस किरदार से प्रेम करती हूँ.
जब मैंने इस फ़िल्म को लिखना शुरू किया और इसके लिए फाइनेंस हासिल करने की कोशिश की तो फ्रांस में कई लोगों में मुझसे कहा कि ‘आप क्यों गैरकानूनी गर्भपात पर फिल्म बनाना चाहती हैं, इसके बारे में तो पहले से ही कानून बना हुआ है. मैंने ठान लिया था कि ‘हैपनिंग’ बनाने के लिए लड़ना होगा क्योंकि हर कोई यह कहता है कि यह तो अतीत में हो चुका है. लेकिन यह अतीत की बात नहीं है. हम जब फेस्टिवल के लिए वेनिस जा रहे थे तब हमने यह ख़बर सुनी की अमेरिका में गर्भपात को लेकर नया कानून पारित हो गया है. और मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि यह फ़िल्म अमेरिका के लिए इतनी सटीक साबित होगी. और देखिए, आज हर कोई कह रहा है कि यह फ़िल्म सामयिक है. लेकिन मैं कहना चाहती हूँ कि हम फ़िल्म इसलिए नहीं बनाते कि वह सामयिक हो. जब आप गंभीर और नाजुक मसले पर फिल्म बनाते हैं, वस्तुत: वह हमेशा समय को ही संबोधित होती है. और यही कारण है हम संबंधित विषय पर विचार-विमर्श के लिए फिर से दरवाज़े खोल देते हैं.
मुझे लगता है कि हमें एक बार फिर इस पर बहस से गुज़रना चाहिए, चाहे हम स्त्री को गर्भपात की अनुमति दे या नहीं. हमें यह जानना ही चाहिए कि वस्तुत: गैनकानूनी गर्भपात होता क्या है. मैंने लोगों से यह कहने की कोशिश नहीं कि मैं इस विषय पर क्या सोचती हूँ. मैं तो बस उस एक असल पल को चित्रित करना चाहती थी. मैं वह यथार्थ बताना चाहती थी कि एक लड़की कितनी पीड़ा और कितनी पीड़ादायी स्थितियों से होकर गुज़र रही है. मुझे लगता है यह उन लोगों की कुछ मदद करेगी जो गर्भपात के ख़िलाफ हैं लेकिन वे क़तई यह नहीं जानते कि गर्भपात कराने की यह यात्रा एक स्त्री के लिए कितनी त्रासद होती है. हो सकता है ये फ़िल्म वे लोग देखने जाएँ जो गर्भपात के ख़िलाफ हैं. और यह दिलचस्प है कि इसके जरिए हम मिलकर सही परिप्रेक्ष्य में विचार-विमर्श कर सकें और ऐसा करते हुए हमें एक दूसरे के खिलाफ न समझा जाए.
मैं किसी भी किरदार को लेकर कोई फ़ैसला नहीं देना चाहती थी, सिर्फ़ एक डॉक्टर के किरदार को छोड़कर. हम सब उसे लेकर सहमत थे. वह झूठा है लेकिन फिर भी मैं चाहती थी कि हर कोई अपने दिमाग में उठ रहे सवालों के साथ आज़ादी महसूस कर सके.
दर्शक-वर्ग पुरुष और महिलाओं से मिलकर बना होता है. वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल के पहले हमने इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग नहीं की थी और मुझे पता नहीं था कि दर्शक इसे देखकर क्या प्रतिक्रिया देंगे. लेकिन वेनिस में स्क्रीनिंग के बाद कई पुरुषों ने आकर मुझसे कहा:
‘हे भगवान! मैंने गहरी पीड़ा महसूस की. लगा कि मैं एक-डेढ़ घंटे के लिए स्त्री हो गया हूँ .‘
हर जेंडर के दर्शक ने इस फ़िल्म में उस लड़की के चरित्र में अपने को देखा है क्योंकि यह फिल्म लिखी ही इस तरह से गई है कि यह लैंगिक-बोध-भाव से आगे निकल जाती है. और मैं इसीलिए फ़िल्में और कला पसंद करती हूँ कि हम सहानुभूति के इस अनुभव को रच सकते हैं.
इस कहानी में मैं बहुत ही इंटीमेट तरीके से शामिल हूँ. मैं इसमें इस एक लड़की और उसकी स्वतंत्रता की कहानी कहना चाहती थी. और इसीलिए मुझे ज़रूरी लगा कि मैं उसकी यौन ज़िंदगी का चित्रण करूं और इस उपन्यास में उतना ज्यादा सेक्स नहीं है. जबकि एनी अर्नो अपनी दूसरी रचनाओं में सेक्स के बारे में बहुत कुछ कहती हैं लेकिन इस उपन्यास से ऐसा कुछ ज्यादा नहीं है.
मेरी इस फ़िल्म की सह-लेखिका मार्सिया रोमानो ने तय किया था कि फ़िल्म की कहानी लिखते समय कदम-दर-कदम चलें. इसमें लड़की की यौन ज़िंदगी की कहानी भी कदम-दर-कदम आगे बढ़े. पहले यह लड़की सिर्फ़ बातें ही करती है, अपने कमरे में फुसफुसाती हुई. उसके बाद वह एक किताब में इमेज देखती है और इमेज की तरह ही हस्तमैथुन करने की नकल करती है. बाद में असल में हस्तमैथुन करती है. और इसके बाद ही यह लड़की अपने यौन-आनंद की खोज करती है. और मैं चाहती थी कि इस सीक्वेंस को खूबसूरती के साथ फ़िलमाया जाए. और हमारे लिए उस लड़की के इस पल के लिए प्रेम था. हस्तमैथुन के दृश्य मेरे ख़ुद के अनुभवों से आए. जब मैं किशोर थी तो एक लड़की ने मुझे हस्तमैथुन करके दिखाया. उसने मुझे वे बातें बताई, जो उस वक़्त मैं नहीं जानती थी क्योंकि हम इस तरह की बातें नहीं कर सकते थे.
चुप्पी हर जगह पसरी हुई थी. और यह चुप्पी सिर्फ़ गर्भपात को लेकर ही नहीं थी. हर तरफ़ थी. यह लड़की की ज़िंदगी में आनंद और उसकी तमाम ख़्वाहिशों को लेकर भी थी कि वह अपनी ज़िंदगी में क्या चाहती है. और इसीलिए मैंने अपनी निजी ज़िंदगी के अनुभवों को इस फिल्म में शामिल किया. मैंने इस बारे में जब एनी अर्नो से बात की तो उन्होंने तुरंत कहा : बिलकुल. यह सही है.
फ़िल्म के अंत में इसकी किरदार एनी कहती है : मैं लेखिका बनना चाहती हूँ. मैंने आनामारिया की तरफ़ देखकर कहा- अब तुम ज़ोर से कहो कि मैं अभिनेत्री बनना चाहती हूँ .’
फ्रांस में चुनाव हुए हैं. और हम राजनीतिक परिवर्तन में दक्षिणपंथियों को बहुत क़रीब देख रहे हैं. और मैं जानती हूँ कि हाल ही में जो बाइडेन ने गर्भपात के बारे में क्या कहा था. इसलिए कोई भी यह नहीं सोच रहा है कि कुछ बदलाव होगा क्योंकि हम कई देशों में कानून में बदलाव देख रहे हैं. और यही कारण है कि मैं इस फ़िल्म ‘हैपनिंग’ को पीरियड फ़िल्म नहीं बनाना चाहती. मैंने अपनी टीम के साथ बहुत सावधानी से यह बात की कि इस फ़िल्म को कैसा होना है, इसे कालभ्रमित तो कतई नहीं होना चाहिए. यह फिल्म हमने इस तरह बनाई है कि दर्शकों को लगे कि यह अतीत में घटित है लेकिन साथ ही वर्तमान की कहानी भी महसूस हो. जब आप एक ख़ास वक़्त की कहानी यानी पीरियड फ़िल्म बनाते हैं तो उसमें एक तरह का नास्टेल्जिया होता है. मैं इस फिल्म में उस काल का ऐसा कोई नास्टेल्जिया नहीं चाहती थी और ख़ासतौर पर ऐसी फ़िल्म जो स्त्री अधिकारों की बात करती हो.
दो
एनी अर्नो

‘मेरे उपन्यास हैपनिंग पर बनी यह फिल्म मुझे सचमुच पसंद है.’ ऐसा एनी अर्नो का कहना है. निर्देशिका और इसकी अभिनेत्री ने अकेलेपन के भाव को बहुत ही मार्मिकता और गहराई से अभिव्यक्त किया है. मैंने यह फिल्म टेक्सास में देखी. हैपनिंग देखते हुए मुझे महसूस हुआ कि इस विषय को बार-बार कहा जाना चाहिए. यह मामला वक़्ती नहीं है, गर्भपात के अधिकार को एक बार फिर हमारे देश फ्रांस में चुनौती दी जा रही है.
मैं इस बात को दर्ज करना चाहती थी कि एक स्त्री अपने अधिकार के बिना, (ख़ासतौर पर गर्भपात पर प्रतिबंध के मामले में) क्या महसूस करती है. आप इस बात की कल्पना तक नहीं कर सकते कि एक स्त्री के लिए गर्भपात गैरकानूनी होने का क्या अर्थ है. उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आता, न परिवार, न नाते-रिश्तेदार, न दोस्त और न ही डॉक्टर. ये सब दूसरे ढंग से चीजों को देखते हैं. यह सब भयानक रूप से अकेलेपन का अहसास कराते हैं . यह एक तरह से मेरे सामने ईंटों की दीवार खड़ी कर देने जैसा है और कानून कहता है कि बस, रुक जाओ, तुम इसके आगे कतई नहीं जा सकती. उस समय मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि मैं रईस लड़कियों की तरह स्विट्ज़रलैंड जाकर अपनी पीड़ा (गर्भपात) से मुक्त हो सकूं.
मैं जब कॉलेज से बाहर निकली, मैंने पाया कि मैं गर्भवती हूँ . यह मेरे लिए अचानक घटित हुआ. उस समय अवैवाहिक गर्भवती होने का अर्थ था : गरीबी. उस समय यह इस बात की गारंटी थी कि आपको कभी भी आज़ाद नहीं किया जा सकता.
लेकिन यह आप ही तय करते हैं कि आपको किस तरह से ज़िंदगी जीनी है. और यदि आप इन प्रतिबंधों को स्वीकार कर लेती हैं तो हो सकता है आप मर जाएँ क्योंकि आप भयभीत होकर, सबकी नज़रों से बचकर घर के पिछवाड़े गली में किसी एबॉर्शनिस्ट के इमर्जेंसी रूम में जाकर सब कुछ खत्म कर देने को विवश होती हैं.
मुझमें जो सेल्फ डिटरमिनेशन है वह मुझमें मेरी मां की वज़ह से आया. उनके बिना आज मैं जहाँ हूँ , वहाँ शायद नहीं होती. सोशल एडवांसमेंट एक तरह से निर्वासन का रूप है. आप एक पूरा संसार अपने पीछे छोड़ देते हैं. यह एक तरह से अपने को ही अलविदा कहना होता है. यह करना सचमुच मुश्किल है. इसके लिए किसी की ज़रूरत होती है जो आपकी हिम्मत बढ़ा सके और आप वह काम संभव कर सकें. कोई ऐसा चाहिए होता है जो आपसे कह सके : आगे बढ़ो, छलांग लगा दो! वह नहीं जो आपको पीछे से पकड़ ले. तब भी जब उन्हें मालूम हो कि आगे आपके लिए रास्ता घातक है.
एक समय हमारे गाँव में महिलाएं अपनी बेटियों को बहुत निरुत्साहित करती थीं, कई तरह के प्रतिबंध लगाती थीं लेकिन मेरी मां ने कभी ऐसा नहीं किया. वे हमेशा कहती थीं कि तुम बहुत मूल्यवान हो, तुम्हारे होने का मतलब है. ‘हैपनिंग’ एक स्त्री के होने का मर्म है, उसकी पीड़ा और त्रासदी के बीच उसके जीने का हक है.
तीन
आनामारिया वर्तोलोमी

हैपनिंग में एनी की मुख्य भूमिका निभाने वाली इटैलियन अभिनेत्री आनामारिया वर्तोलोमी कहती हैं कि जब मैंने पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा तो मुझे यह कतई नहीं पता था कि गैरकानूनी गुप्त गर्भपात की प्रक्रिया क्या होती है. मुझे यह भी पता नहीं था कि गैरकानूनी गर्भपात के क्या मायने होते हैं. और तब मुझे अपने आप पर बहुत गुस्सा आया कि मैं कितनी अज्ञानी हूँ और इस संवेदनशील मुद्दे के प्रति कितनी उदासीन.
मुझे बहुत गर्व है कि मैं इस फिल्म का हिस्सा हूँ क्योंकि मुझे लगा कि हम इस विषय पर रौशनी डाल रहे हैं. आप जब स्पॉटलाइट में होते हैं तो आपको ऐसी फिल्में करना ही चाहिए जो बहुत मायने रखती हों. और मैं इस फिल्म का हिस्सा बनकर बहुत खुश थी क्योंकि यह फिल्म मार्मिक और यथार्थवादी ढंग से यह बताती है कि असल में हमारे समाज में कितना कुछ भयावह घटित हो रहा है. और जब मैं कहती हूँ यह घटित हो रहा है, इसके मायने हैं कि आज भी दुनिया के हर कोने में यह घटित हो रहा है. यह बहुत ही पीड़ाजनक है कि लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम ऐसी फिल्म में इस लड़की की भूमिका क्यों कर रही हो जो छठे दशक की दुनिया में रहती है. यह अतीत की बात तो बिलकुल ही नहीं है क्योंकि यह सब कुछ आज भी हो ही रहा है.
फ़िल्म की शूटिंग के दौरान निर्देशिका ऑड्रे दीवान ने मेरे द्वारा बोले गए हर शब्द, हर वाक्य पर विचार किया. यह इसलिए ज़रूरी था कि दर्शक एनी के किरदार में तात्कालिकता और उसकी जागरूकता को महसूस कर सकें. मिसाल के लिए फिल्म की शुरूआत में एक पार्टी का दृश्य है. एनी इसमें शामिल होती है और वह चाहती है कि कोई उस पर ध्यान दे. वह फ्लर्ट करना चाहती है. लेकिन धीरे-धीरे वह यह महसूस करती है कि वह किसी बात को अनदेखा भी कर रही है, किसी बात से भागना चाहती है. वह पकड़ी जाने के भाव से भयभीत है. और जैसे-जैसे वह अपने ‘गुप्त गर्भपात’ की तरफ बढ़ती है, वैसे-वैसे उसकी दुनिया पूरी तरह से उसके भीतर मुड़ जाती है. अब वह विभ्रम की मन:स्थिति में पहुंच चुकी है, लगभग पागलपन की कगार पर.
इस किरदार की इस नाजुक स्थिति पर मैंने और निर्देशिका ऑड्रे दीवान ने खूब काम किया. हमने किरदार की सांसों, उसकी हर भाव-भंगिमाओं पर सोचा. उस किरदार की देहभाषा पर काम किया कि दर्शक यह महसूस कर सकें कि उसके भीतर कितना कुछ घटित हो रहा है. हमने बातचीत करते हुए यह सोच लिया था कि हम नहीं चाहते थे कि इन सीन के लिए हम रिहर्सल करें क्योंकि ऑड्रे दीवान इन्हें यांत्रिक नहीं बनाना चाहती थीं. वहाँ ‘एक्शन’ और ‘कट’ के बीच सचमुच एक तरह का जादू था. हम रिहर्सल कर सकते थे लेकिन सेट पर जो कुछ भी हमारे बीच घटित हुआ वह रिहर्सल में एक फीसदी भी नहीं होता. यह सिर्फ महसूस करने की बात थी. इसलिए मैंने सब कुछ हो जाने दिया और अपनी निर्देशिका पर, उनके विज़न पर यक़ीन किया. उन्होंने मुझे भी और मेरी सांसों को भी निर्देशित किया. और हमने वह साथ-साथ महसूस किया कि किरदार कैसे जी रहा है और उस समय मैं अपने को पूरी तरह विस्मृत कर चुकी थी. सिर्फ किरदार थी.
मैंने इस चरित्र के लिए जितना मेहनत, उससे ज्यादा इस चरित्र ने मुझे दिया. वह लड़की साहसी और आत्मविश्वास से भरी है. एक दृढ़ निश्चयवाली स्त्री. और यही सब कुछ मैं उस चरित्र से चुराना चाहती थी. और यह चरित्र निभाने के बाद भी उसकी ये तमाम खूबियां मेरे साथ हैं.
निर्देशिका ऑड्रे दीवान से मैंने कई बार कहा भी कि इस फ़िल्म के लिए मैंने शुरूआत बतौर एक लड़की से की लेकिन फिल्म खत्म होते-होते मैं पूरी एक स्त्री में बदल गई. शूटिंग के दौरान मैं विकसित हुई. मैं इसके लिए ऑड्रे दीवान के प्रति कृतज्ञ हूँ . जैसा कि वह कहती भी हैं कि यह एक खोज और अपनी आज़ादी के लिए एक मक़सद भी है. मैं सोचती हूँ कि फ़िल्म पूरी हो जाने के बाद मैंने भी आज़ादी महसूस की और उन्होंने मुझे इस तरह से निर्देशित किया कि मैं आज़ाद और अपने अभिनय में भी आत्मविश्वास से भरी महसूस करने लगी, यह भी कि मैं क्या कुछ करने के क़ाबिल हूँ .
![]() 10 अप्रैल 1961, इंदौर (म.प्र.)इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक प्रभात किरण, दैनिक समाचार पत्र चौथा संसार, दैनिक भास्कर और नई दुनिया में पत्रकारिता. भोपाल, अहमदाबाद, जयपुर और इंदौर में एकल चित्र प्रदर्शनियां आयोजित. खजुराहो इंटरनेशनल आर्ट मार्ट, मालवा उत्सव और उस्ताद अमीर खां स्मृति समारोह के अंतर्गत रंग-अमीर चित्र प्रदर्शनी में चित्र प्रदर्शित. तीन इंटरनेशनल आर्ट गैलरी से पुरस्कृत. साहित्यिक पत्रकारिता के लिए क्षितिज सम्मान. मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के हिंदी सेवी सम्मान आदि से सम्मानित.संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार प्रजातंत्र के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत. ravindrasvyas@gmail.com
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गहरी पीड़ा को उद्घाटित करता एकदम सामयिक आलेख —हरिमोहन शर्मा
‘स्त्रियों को गर्भपात का अधिकार देने वाला पहला देश बना फ्रांस’ – इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से ठीक पहले आई यह ख़बर महिलाओं के लिए निश्चित ही सुकूनदाई और स्वागतेय है। दुनिया की हर स्त्री को यह अधिकार होना ही चाहिए। यह ख़बर एक नजीर है जिससे दुनिया के अन्य देशों से भी ऐसी ख़बर आने की उम्मीद और सम्भावना बढ़ गई है। यह महिलाओं द्वारा पीढ़ियों के संघर्ष का नतीजा है। इसी संघर्ष की कड़ी में बनी फ्रेंच फिल्म ‘हैपनिंग’ के बारे में, इसकी मेकिंग और इसकी विचार प्रक्रिया के बारे में जानने में यह आलेख बेहद महत्वपूर्ण है। इसे हम हिन्दीभाषी पाठकों को उपलब्ध कराने के लिए आदरणीय रवीन्द्र व्यास जी को और अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद।
अच्छा लेख।