अयोध्या नगरी का विलाप |
नब्बे के दशक के आरंभ में देश के माहौल का ख़ासकर उत्तर भारत के माहौल का अंदाज़ा कोई इसी से लगा सकता है कि मुसलमानों के लिए अयोध्या का मतलब वह जगह थी, जहाँ बाबरी मस्जिद गिराई गई थी और हिन्दुओं के लिए एक ऐसी जगह थी जहाँ कुछ कारसेवकों ने अपना शौर्य दिखाते हुए ‘इतिहास’ का बदला लिया था, उस ‘इतिहास’ का बदला जो भाजपा द्वारा बताया गया. बहुत स्पष्ट है कि एक ही घटना को दो अलग-अलग संप्रदायों में देखने का नजरिया अलग-अलग था क्योंकि समाज सांप्रदायिक आधार पर बंट चुका था. उस बंटे हुए समाज को एक करने की कोशिश न तो कभी किसी सरकार ने की न अदालतों ने. ‘नो वन किल्ड जेसिका’ की तर्ज़ पर ‘बाबरी मस्जिद ध्वंस का अपराधी कोई नहीं’ का फ़ैसला कहीं न कहीं उसी सांप्रदायिक माहौल का प्रतिबिम्ब है.
जब शीर्ष की सांप्रदायिकता सूक्ष्म तक पहुँच गई हो, ऐसे हालात में वाम प्रकाशन के ज़ीरो माइल सीरीज़ में कृष्ण प्रताप सिंह की किताब ‘अयोध्या’ बताती है कि वास्तव में क्या-क्या नष्ट कर दिया गया जो भारतीयों अथवा हिन्दुओं की सांस्कृतिक धरोहर हुआ करती थी और उस संस्कृति में मुसलमानों ने कितनी सकारात्मक भूमिका निभाई थी.
लेखक ने ‘अयोध्या’ के अर्थ से शुरूआत की है. अयोध्या का अर्थ, वह जगह है जिसे युद्ध में जीता न जा सके. जहाँ किसी का ‘वध’ नहीं किया जा सकता, उस ‘अवध’ राज्य की राजधानी थी अयोध्या. पर वहाँ ‘वध’ हुए. इसलिए कहा जा सकता है कि यह किताब 6 दिसंबर 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के पहले और बाद की अयोध्या नगरी का विलाप है.
उसी तरह लेखक ने सरयू नदी का नाम सरयू कैसे पड़ा, इस पर भी विचार किया है और अम्बेडकरवादी लेखक और चित्रकार शांति स्वरूप बौद्ध के हवाले से बताया कि पुष्यमित्र शुंग के दौर (185 – 149 ईसा पूर्व) में जब बौद्धों के क़त्लेआम का आदेश जारी हुआ होगा तो बौद्धों के सिरों से नदी भर गई होगी इसलिए नदी के उसी हिस्से का नाम, जो अयोध्या से गुज़रती है, सरयू पड़ गया. उस नदी का नाम न तो आगे कहीं सरयू मिलता है न पीछे.
इस किताब में लेखक ने बताया है कि अयोध्या नगरी से जैन और बौद्ध धर्म का नाता बहुत गहरा है. इतिहास में इसका पुराना नाम साकेत नगरी मिलता है. दूसरे अन्य नाम भी मिलते हैं जिनमें ; इक्ष्वाकुपुरी, प्रथमपुरी, कोशल, विशाखा, विनीता और अवध प्रमुख हैं. जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव की जन्म स्थली और कर्म स्थली दोनों ही अयोध्या रही है. अयोध्या स्थित उनका मंदिर समस्त जैन धर्म मानने वालों का केंद्र है और गौतम बुद्ध ने भी अपने कई वर्षाकाल अयोध्या और उसके आस पास गुज़ारे हैं. इसीलिए लेखक कहते हैं कि धर्मध्वंसियों के उत्पातों के पहले सर्वधर्म समभाव की मिसाल अयोध्या से बेहतर कोई जगह नहीं थी. उनका इशारा बाबरी मस्जिद ध्वंस करने वालों की तरफ़ है. वे साफ़-साफ़ अनुभव करते हैं उसके बाद समुदायों में बहुत गहरी खाई पड़ गई. इसीलिए वे उस दिन का ज़िक्र करते हैं जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी, उस दिन दैनिक ‘जनमोर्चा’ के दफ़्तर में लोग बार-बार आकर पूछते थे कि मस्जिद गिराये जाने की ख़बर सही या ग़लत. सही बताने पर वे मानने को तैयार नहीं होते थे. क्योंकि अयोध्या की संस्कृति में ही मस्जिद गिराना नहीं है. बड़े विश्वास से लेखक यह बताने की कोशिश करते हैं कि जिन्होंने मस्जिद गिराई थी, वे अयोध्यावासी नहीं थे. फिर लेखक ने उनकी मंशा पर सवाल उठाया है कि बाबरी मस्जिद पर तो विवाद था लेकिन उस दिन (6 दिसंबर 1992) कारसेवकों ने 24 अविवादित मस्जिदों को भी नुकसान पहुँचाया, कब्रें तोड़ीं और मुसलमानों के चार सौ से भी अधिक घर और दुकानें जला दीं. यह धर्मध्वंसियों की मंशा ज़ाहिर करता है. इस किताब से यह सवाल ख़ुद ही उभर कर सामने आता है कि मस्जिद तोड़ने वालों का मकसद अगर विवाद को ख़त्म करना या इतिहास का बदला लेना था तो एक अशक्त बुढ़िया को चारपाई से बाँध कर ज़िंदा क्यों जला दिया? या ध्वंस के लगभग ग्यारह महीने के बाद 16 नवंबर 1993 को रामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी लालदास की हत्या क्यों हो गई? क्या इसलिए कि वे बाबरी मस्जिद ध्वंस के चश्मदीद गवाह थे ?
सवाल यह भी उभरता है कि अगर बाबरी मस्जिद ध्वंस हिन्दू शौर्य दिवस था तो अदालत में उसके केस को ‘नौ-वन किल्ड जेसिका’ टाइप केस बनाने की कोशिश क्यों की गई?
सद्भाव की संस्कृति
लेखक ने बार-बार अयोध्या की सद्भाव की संस्कृति को रेखांकित किया है और बताया है कि कई लोग अयोध्या को पैग़म्बरों की नगरी या मक्का ख़ुर्द भी कहते हैं. वहाँ की नौ गजी कब्र को कुछ लोग पैग़म्बर नूह की कब्र मानते हैं और कुछ लोग कहते हैं कि वहाँ उनकी नाव के टुकड़े दफ़न हैं. ऐसी अनेक जानकारियाँ भरी पड़ीं हैं इस किताब में.
इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए वे बताते हैं कि गंगा जमुनी संस्कृति के प्रतीक अयोध्या के हनुमानगढ़ी मंदिर के निर्माण में नवाब शुजाउद्दौला का उल्लेखनीय योगदान रहा है. किताब में दी गई सूचना के आधार पर इसी जगह संभवतः देश में सबसे पहले चुनाव और वयस्क मतदान का प्रयोग हुआ था. वह भी अठारहवीं शताब्दी की समाप्ति के बीस पचीस साल पहले. हनुमानगढ़ी का एक संविधान है फ़ारसी में और इसके निर्वाचित प्रतिनिधि को गद्दीनशीन कहते हैं. यह गद्दीनशीनी न तो गुरु शिष्य परंपरा से आती है न वंश परंपरा से. यह निर्वाचन से आती है. उसके संविधान में गद्दीनशीन के अपराधों के लिए भी सज़ा का प्रावधान है.
1857 का संघर्ष
अयोध्या के हिन्दू-मुसलमानों ने एक साथ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था और इस पूरी प्रक्रिया के दौरान पुराने तमाम गिले शिकवे दूर किये थे. यहाँ तक कि उस संघर्ष में एकता कायम करने के लिए मुसलमानों द्वारा बाबरी मस्जिद को हिन्दुओं को सौंप देने पर आम राय कायम कर ली गई थी. 26 जून 1857 को फ़ैज़ाबाद की बादशाही मस्जिद में मुसलमानों की तरफ़ से यह एलान भी कर दिया गया था. पर अंग्रेज़ों ने इस मंसूबे पर पानी फेर दिया और 1857 का विद्रोह कुचल दिया गया. उसके बाद अयोध्या के बाग़ियों के मनोबल को तोड़ने के मकसद से अपनी क़ैद में तीन नेताओं में से एक बेगमपुरा के अच्छन खां का सिर अंग्रेज़ों ने रेती से काट डाला. बाग़ी फिर भी नहीं टूटे तो अंततः हनुमानगढ़ी के तत्कालीन पुजारी बाबा रामचरण दास और हसनू कटरा (फ़ैज़ाबाद) के अमीर अली को अयोध्या के कुबेर टीले पर स्थित इमली के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई. बाद में अंग्रेज़ों ने उनकी शहादत की स्मृतियों को भी मिटा देने के लिए उस पेड़ को कटवा दिया. वह जगह अभी राममंदिर परिसर के दायरे में आती है.
1857 के एक अन्य दिलचस्प नायक मौलवी अहमदउल्लाह ‘डंका’ शाह का वर्णन करते हुए लेखक ने बताया कि डंका शाह जब चलते थे तो उनके आगे पीछे डंका बजाते हुए लोग चलते थे. उन्होंने भी बाग़ियों का नेतृत्व किया था और 8 जून 1857 को फ़ैज़ाबाद को अंग्रेज़ों से मुक्त भी करा लिया था और हिन्दू-मुस्लिम एकता के मद्देनज़र शाहगंज के राजा मान सिंह को फ़ैज़ाबाद का शासक बनाया. तत्कालीन अंग्रेज़ अधिकारी होम्स ने उनको ‘उत्तर भारत में अंग्रेज़ों का सबसे बड़ा शत्रु’ बताया और लिखा कि अंग्रेज़ों का दुर्भाग्य है कि यह आदमी पूरी तरह से जनता का आदमी था. उस समय अंग्रेज़ों ने उनके सिर की कीमत पचास हज़ार रुपये रखी थी. पैसों के लालच में उनके साथ धोखा हुआ और वे शाहजहांपुर में शहीद हुए और इतिहास का संयोग देखिये कि बाद में उसी शाहजहांपुर के क्रांतिकारी अशफ़ाकउल्लाह ख़ान फ़ैज़ाबाद में जाकर शहीद हुए.
महात्मा गांधी
यूं ही एक दिन में नहीं बन जाता है सद्भाव का माहौल. इसके लिए निरंतर कोशिश करनी होती है. अयोध्या में इसकी कोशिश के सिलसिले में लेखक ने गांधी जी का ज़िक्र किया है जिसकी जानकारी आज सबको होनी चाहिए.
अक्सर गांधी जी पर मुसलमानों की बेजा पक्षधरता का आरोप लगाया जाता है. ऐसे लोगों को यह जानना ज़रूरी है कि जब 10 फ़रवरी 1921 को गांधी जी अयोध्या- फ़ैज़ाबाद आये थे तो उन्होंने एक तरफ़ किसानों की हिंसक कार्रवाइयों का विरोध किया था तो दूसरी तरफ़ मुसलमानों अथवा ख़िलाफ़त के समर्थकों के तलवार लहराने की भर्त्सना भी की थी और कहा था कि तलवार लहराना कमज़ोरी और कायरता की निशानी है. यह कोई संयोग नहीं है कि हिन्दू मुसलमानों को हिंसा का रास्ता छोड़ने का संदेश देने के लिए उन्होंने राम की अयोध्या को चुना था. उसके बाद सब ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया. इसका असर यह हुआ कि ख़िलाफ़त कमेटी के लोगों ने बंबई में कसाइयों के पास जाकर गौकशी बंद करने का जब आग्रह किया तो कसाइयों ने उनकी बात मानते हुए गौकशी छोड़ दी. गांधी जी इस घटना का ज़िक्र करते हुए हिन्दुओं को कहते हैं कि “इसको कहते है गौ रक्षा. गाय के नाम पर मुसलमानों की जान लेने को गौ रक्षा नहीं कहते”. गांधी जी समझते थे कि गौकशी का सीधा संबंध कसाइयों के जीवनयापन से है इसलिए एक जगह गांधी जी कहते हैं कि “मैं तब तक एक भी गाय की रक्षा नहीं करूँगा जब तक उन मुसलमानों को यह न बता दिया जाए कि वे इसकी जगह पर कौन से पेशा अख्तियार कर लें”. गांधी जी ने अयोध्या के साधुओं को भी स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ा था.
जिस तरह गांधी जी की कोशिश थी चरखा कात कर और खादी पहन कर देश की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था विकसित करने की. उसी तरह से बहुत पहले ही अयोध्या ने इसकी पहल कर दी थी. 1881 में देश का पहला कमर्शियल बैंक फ़ैज़ाबाद में खुला था. नाम था अवध कमर्शियल बैंक. इसमें कोई विदेशी सदस्य नहीं था इसलिए इसे ‘हिन्दुस्तानियों का बैंक’ कहते हैं. इसने इतनी तरक्की कर ली थी कि रामपुर के नवाब की सरपरस्ती में चलने वाले ‘बैंक ऑफ़ रूहेलखंड’ का भी अधिग्रहण कर लिया.
रमजान अर्मा तांडवी
वैसे तो अयोध्या–फ़ैज़ाबाद (अभी का आंबेडकरनगर) में अनेक ऐसी विभूतियाँ हुई हैं जिन्होंने समाज को इंसानियत का पैग़ाम दिया है. लेखक ने जिन विभूतियों का ज़िक्र किया है उनमें से एक का ज़िक्र करना बड़ा प्रासंगिक होगा. रमजान अर्मा तांडवी ऐसे ही एक विभूति थे जिनकी ‘सनक’ के किस्से अयोध्या – फ़ैज़ाबाद में बहुत मशहूर हैं. उन्होंने समाज को इंसानियत का संदेश देने के लिए बिल्कुल अनोखा तरीक़ा निकाला और मनुष्य जाति का प्रमाण पत्र बनवाने के लिए संबंधित विभाग पहुँच गए और एक बार तो अपनी मुश्किलों से तंग आकर भगवान् के ख़िलाफ़ एफ़आईआर लिखवाने पुलिस थाने में भी पहुँच गये. जब पूछा गया कि भगवान् का पता बताओ तो उन्होंने कई धर्मों के धर्माधीशों का नाम लेकर कहा कि ज़रूर इन्होंने उसे कहीं छिपा दिया होगा उनसे ही पुलिस को पूछना चाहिए. बरबस किसी को भी अक्षय कुमार और परेश रावल अभिनीत हिंदी फ़िल्म ‘ओ माई गॉड’ याद आ सकती है. पर रमजान अर्मा तांडवी कोई सिनेमा के काल्पनिक पात्र नहीं थे बल्कि जीवन के रंगमंच के जीते जागते पात्र थे.
6 दिसंबर 1992 के बाद अयोध्या में सद्भाव की हर कोशिश पर सद्भाव – कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया या उन्हें परेशान किया गया ताकि सांप्रदायिक राजनीति के मुद्दे बहाल किये जा सकें. लेखक ने ‘ध्वंस’ के बाद की अयोध्या पर लिखते हुए अपनी अभिव्यक्ति के लिए उर्दू – हिंदी की कई मार्मिक कविताओं का सहारा भी लिया है. साथ ही अदालतों के फ़ैसलों को ‘इंसाफ़ नहीं, फ़ैसला’ कह कर अपना पक्ष भी स्पष्ट कर दिया है लेकिन इसमें मृदंग वादक पागल दास का वर्णन बड़ा मार्मिक है. स्वामी पागल दास की चर्चा उन्होंने प्रतिरोध के नायक के रूप में की है.
स्वामी पागल दास
वर्तमान राजनीति, आज से नहीं बल्कि काफ़ी पहले से, न सिर्फ़ सद्भाव में अवरोध पैदा करती रही है बल्कि सद्भाव की स्मृतियों का भी ध्वंस करती रही है और यह निरंतर जारी है. मृदंग वादक पागल दास के शहर में उन्हें नज़रअंदाज़ करके लता मंगेशकर के नाम पर चौराहे का नाम रखना उसी कड़ी का हिस्सा है. सिर्फ़ इसलिए कि स्वामी पागल दास ने कभी सांप्रदायिक राजनीति के सामने सिर नहीं झुकाया और ध्वंस के बाद निरंतर बेचैन रहे.
‘अयोध्या’ के लेखक कृष्ण प्रताप सिंह ने इस किताब में इस पर भी विचार किया कि हम धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक लोग कहाँ चूक गये. इस क्रम में वे समाजवादी नेता सुरेन्द्र मोहन को उद्धृत करते हैं: ‘समाजवादी और साम्यवादी सांप्रदायिकता को “दुश्मन नंबर वन” बना कर बहुत बड़ी ग़लती कर रहे हैं क्योंकि असली दुश्मन तो भूमंडलीकरण की ये जनविरोधी आर्थिक नीतियाँ हैं, देश की कोई भी सरकार जिन पर पुनर्विचार का साहस नहीं कर पा रही है’. उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक देश में आर्थिक तनाव बरकरार रहेंगे सांप्रदायिकता को ख़त्म नहीं किया जा सकेगा. निश्चय ही यह किताब इतिहास के कई अछूते पहलुओं से परिचित कराती है और हमारी आँखें खोलती हैं. यह वर्तमान राजनीति और समाज का एक ‘क्रिटीक’ भी है.
ज़ीरो माइल अयोध्या
लेखक – कृष्ण प्रताप सिंह
प्रकाशक – वाम प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ – 151
मूल्य – 250 रुपये
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फ़रीद ख़ाँ मुंबई में रहते हैं और टीवी तथा सिनेमा के लिए पट कथाएं आदि लिखते हैं. उनकी कविताएँ सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं.
kfaridbaba@gmail.com
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मैं के पी सिंह की पत्रकारिता, प्रतिबद्धता सादगी भरी लेखनी का कायल रहा हूँ। फ़रीद ख़ाँ की इस बेहतरीन समीक्षा ने ‘ज़ीरो माइल अयोध्या’ पढ़ने की ललक पैदा कर दी है।
समीक्षा पढ़कर लगा किताब अच्छी होगी। इसमें पंडित लालदास का ज़िक्र आया जिनकी हत्या हुई थी। जहाँ तक मुझे पता है उनका नाम रामदास था। राजीव गाँधी के समय में मस्जिद के ताले खुलने पर कोर्ट द्वारा उन्हें पुजारी निर्धारित किया गया था। मस्जिद तोड़ने को जो लहर थी वह उसके विरोधी थे। उनका कहना था मस्जिद भी भगवान का घर है। पूजा यहाँ हो रही है अब इसको गिराना राजनीति के अलावा कुछ नहीं। मन्दिर के नाम पर इकट्ठा की जा रही धन सम्पत्ति पर भी वह सवाल खड़ा कर ते थे कि यह पैसा कहाँ जा रहा है। वह जागरूक थे और कई मुद्दो पर सवाल उठा रहे थे। अडवानी जोशी अटल सबकी मंशा और राजनीति पर खुले आम बोलते थे। मस्जिद टूटने के बाद वह सब छोड़कर चले गये थे और अपने गाँव में खेती करते थे जब उनकी हत्या हुई। दूसरी चीज़ सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद ढहाने के कृत को अपराध तो माना है बस अपराधियो के नाम नहीं लिये गये। ASI की रिपोर्ट से भी कोर्ट पूरी तरह से सहमत नहीं था। लेकिन जो फ़ैसला हुआ वह ठीक ही था। मस्जिद गिरने के बाद दुबारा वहाँ मस्जिद बन नहीं सकती थी। सिर्फ़ साम्प्रदायकता की आग में घी डालने जैसा होता। लेकिन मेरा सवाल यह है कि अब लगातार कोर्ट हर मस्जिद पर मन्दिर होने का अरोपण लगी अर्ज़ियों को स्वीकार क्यों कर रही है। ज़ाहिर है इतनी पुरानी इमारतो पर सुबूत इकट्ठे नहीं हो सकते। ख़ैर किताब पढ़ूंगी।
अयोध्या पर दर्जनों किताबें लिखी गई हैं लेकिन उसमें बेबाकी नहीं है. कृष्णप्रताप सिँह ने अयोध्या को नये नजरिये से देखा है. बधाई हो मित्रवर. फरीद खान साहब ने बहुत उम्दा लिखा है..
‘ज़ीरो माइल अयोध्या’ देश के प्रत्येक नागरिक को पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक के लेखक कृष्ण प्रताप सिंह की दृष्टि और सोच बहुत साफ है। यह क़िताब इस मुद्दे पर पड़े धुंध और भ्रम पर से पर्दा उठाती है। उक्त समीक्षा लेखक के गंभीर अध्ययन को दर्शाती है। समीक्षक फरीद खां को बहुत बहुत बधाई। साथ ही समालोचन को लगातार बेहतरीन रचना से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया।