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Home » पेद्रो पारामो : क़ब्रों का करुण-कोरस : रवीन्द्र व्यास

पेद्रो पारामो : क़ब्रों का करुण-कोरस : रवीन्द्र व्यास

स्पेनिश भाषा में 1955 में प्रकाशित युआन रूल्फ़ो के उपन्यास पेद्रो पारामो का ठंडा स्वागत हुआ. कुछ कृतियाँ अपने होने को साबित करने में वक्त लेती हैं. इसके महत्व का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि होर्खे लुइस बोर्खेस ने इसे किसी भी भाषा में लिखे गए सबसे महान ग्रंथों में से एक माना है. गैब्रिएल-गार्सिया-मार्खेज़ पर इसका स्पष्ट प्रभाव है, विशेष रूप से उनके उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ पर. तीस से अधिक भाषाओं में यह अनूदित हो चुकी है. हिंदी में इसका कोई अनुवाद मेरे देखने में नहीं आया है. रोड्रिगो पिएर्तो द्वारा निर्देशित इसी शीर्षक से इसी उपन्यास पर आधारित ‘पेद्रो पारामो’ नेटफ़्लिक्स पर प्रदर्शित हुई है. रवीन्द्र व्यास का यह आलेख उस फिल्म के देखने के असर का ब्यान है. जैसा कि होता है महान कृतियाँ अंतत: किसी प्रेम कथा पर आधारित होती हैं. यह भी है. पर और भी बहुत कुछ है. प्रस्तुत है.

by arun dev
January 9, 2025
in फ़िल्म
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पेद्रो पारामो : क़ब्रों का करुण-कोरस : रवीन्द्र व्यास
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पेद्रो पारामो
क़ब्रों का करुण-कोरस

रवीन्द्र व्यास

 

क्षणभर के लिए काली स्क्रीन दिखती है जिसके पीछे से मिली-जुली अबूझ ध्वनियों का एक सैलाब उमड़ता-घुमड़ता सुनाई देता है. जैसे बरसों से सीलनभरे अंधेरे में करवटें लेती आत्माओं की फुसफुसाहटें और लटके परिंदों के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ें उठ रही हों. इन ध्वनियों और फुसफुसाहटों का उभरना, दूर जाकर मद्धिम होकर बंद पड़ जाना रहस्य का झीना परदा खींचता है.

और फिर कैमरा कोमाला गाँव की उतार-चढ़ाव भरी ज़मीन की सतह से नीचे, किसी खोह या गहरे कुएँ में उतरता, एक ऊबड़-खाबड़ दीवार पर स्थिर होता है. दीवार से ईंटें हड्डी की तरह झांकती हैं और झरती धूल के बीच इधर-उधर सूख चुके तिनके जैसे बीते समय की सांस रोके चुप गवाह हों.

कैमरा धीरे-धीरे गहरे सरकता है और किसी बड़ी छाया से ढंक जाने वाले अंधेरे में डूब जाता है. पीछे से मद्धिम पड़ती ध्वनियाँ इसे और रहस्यमय बना देती हैं. कैमरा अंधेरे में ऐसे डूबता है, जैसे एक यातना-कथा को देखने-दिखाने की हिम्मत जुटाता हो, अपनी दुर्निवार अभिव्यक्ति के लिए.

अजीब कथा है, जैसे क़ब्रें ही करवटें लेकर अपने थरथराते हाथ बाहर निकालती हैं, क़ब्रों पर उग आई घास पर जमी ओस पोंछती हों. क़ब्र के पत्थरों पर उकेरे गए नामों पर समय की धूल हटाती हों. धीरे-धीरे नाम उभरते हैं. वहाँ किसी एक स्त्री का नहीं, किसी एक पुरुष का नहीं, तमाम स्त्रियों-पुरुषों का अलग-अलग विलाप मिलकर करुण-कोरस में बदलने लगता है. जैसे काला लबादा ओढ़े अपनी अनसुनी बेचैनियों और कहानियों को सुनाने की अनंत-अनवरत-अथाह फुसफुसाहटें.

एक मृतक करवट लेकर अपनी कथा फुसफुसाता है तो उसमें दूसरा मृतक उठकर अपनी कहानी फुसफुसाने लगता है. फुसफुसाहटों की टूटी-बिखरी कड़ियाँ, कराहों में लिपटी. यह फ़िल्म ‘पेदो पारामो’ मरणोपरांत मारक-कथाओं की अनुगूंज है. इसमें मृतकों की एकदूसरे जुड़ी कथाएँ खुलती-सिमटती रहती हैं. ये मृतक जीवंत होकर अपनी कथाएँ सुनाते हैं और दूसरे कमरे में चले जाते हैं और हम पीछे-पीछे जाते हैं तो पाते हैं कि वह मृतक अदृश्य हो गया है और दूसरा मृतक निकलकर अपनी कथा फुसफुसाने लगता है. मृतक इस चुपचाप ढंग से उभरते हैं जैसे वे खिड़कियों से हवा में उतरते हैं और इस तरह गायब हो जाते हैं जैसे दरवाज़ों पर डोलती छायाएँ. उजड़ी बस्ती के इन खंडहर चुके घरों के अंधेरे भरे कमरों और धूलभरी संकरी गलियों में जैसे मृतात्माएँ अपना सिर झटकती हैं और रास्ता भटक जाती हैं. भटकन से उन्हें कोई राहत नहीं. भूतहा घरों-गलियों में अनवरत अकेली भटकन.

पेद्रो पारामो से एक दृश्य

शुरुआती दृश्य कोमाला गाँव की वीरानियत को बहुत ही सुविचारित कैमरा-कोणों से इस तरह देखते-दिखाते हैं कि किसी समय हरेभरे रहे गाँव का बरसों का एकांत साकार होने लगता है. जब आबुंदियो और प्रेसिआदो (दोनों ही अलग-अलग मांओं से पैदा प्रेद्रो पारामो के बेटे हैं और यह रहस्य दोनों के शुरूआती संवादों में ही खुल जाता है) एक ढलान से उतरते कोमाला की ओर जाते हैं, उनके पीछे पत्थरों से अटे पड़े इस इलाके में एकमात्र हरा पेड़ इस तरह नुमाया होता है कि वह गाँव का इकलौता जीवित प्राणी हो जिसने गाँव को अनंत खाई में लुढ़कने से रोक रखा हो.

निर्देशक और सिनेमैटोग्राफर रोड्रिगो पिएर्तो का कैमरा इस तरह से ढलानों और संकरी गलियों को फिल्माता है कि हम जान पाते हैं कि बस्ती पूरी उजड़ी चुकी है और निचाट वीरानियत है. उजड़ी बस्ती भी इस तरह से एक चरित्र बन जाती है. यह वीरानियत कोमाला के लोगों के मन में धूल उड़ाती फैल गई है. इससे मुक्ति का कोई रास्ता नहीं.

सारे रास्ते क़ब्रों तक जाकर ख़त्म हो जाते हैं.

गाँव के एक घर के सामने प्रेसिआदो रूकता है तो उसके पीछे काला लबादा ओढ़े एक औरत क्षणांश में इस तरह गुज़रती है जैसे कोई काली छाया, रहस्य को गहराती. दूसरे ही दृश्य में हम देखते हैं कि वह स्त्री प्रेसिआदो को एदुविकेस के घर का पता बताकर लंगड़ाती रहस्यमयी और पत्थरों से लदी संकरी गली में खो जाती है.

और जब प्रेसिआदो एदुविकेस के घर के सामने ठहरता ही है कि दरवाज़ा खोलती एदुविकेस सामने होती है. जैसे उसे पता हो कि प्रेसिआदो आने वाला है. दोनों अंदर आते हैं और इधर उधर बिखरा सामान देखकर प्रेसिआदो कहता है- ‘इतना सामान किसका है?’  इसका जवाब फिल्म को और गहरा करता है जब एदुविकेस कहती है- ‘ये कबाड़ है. जाने वाले अपना सामान यहाँ रखते चले गए और लौटकर वापस लेने नहीं आए.’ कैमरा मोमबत्ती की रोशनी में इन किरदारों के संवाद के जरिए भूत-वर्तमान, मृतक-जीवित की दो दुनिया में संबंधों की पीड़ादीयी परतें खोलने लगता है.

प्रेसिआदो कुर्सी पर हैट रखता है, पुरानी लकड़ी की कुर्सी, जिस पर लैम्प की रौशनी समय की तरह पिघल कर फैल रही है. उस कमरे में जिसमें जाने वाले लोग अपना सामान छोड़ जाते हैं और लेने कभी नहीं आते.

और यहीं से फिल्म पीछे का रास्ता पकड़ती है…और वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान के बीच आंकी-बांकी विचरती रहती है.

फिल्म में जर्जर हो चुके, बदरंग दरवाजे-खिड़कियाँ एक रहस्य पर खुलते हैं और दूसरे रहस्य पर बंद हाते रहते हैं….मृतात्माओं की कहानियों की परतें इसमें किसी धूल की तरह झरती रहती हैं….मोमबत्तियों के छोटे से घेरे में मृतात्माएँ अपने पर हुए अत्याचारों की कहानियाँ फुसफुसाती हैं और मोमबत्तियाँ का छोटा घेरा आसपास गहराते अंधेरे में डूबता रहता है….मोमबत्तियों के उजाले-अंधेरे के सीमांत पर नुमाया होते चेहरों पर पड़ी समय की झुर्रियाँ साफ़ दिखाई देती हैं..इनमें उमड़ते-घुमड़ते भावों की लय में ख़ामोश कहानियों की इबारतें बोलती रहती हैं.

यह फ़िल्म एक अनंत यातना-कथा है, समय में धूल की तरह उड़ती-गुज़रती, समय के पार जाती, ओझल होकर भी ओझल नहीं होती, खंडहर हो चुके घरों की बदरंग दरो-दीवार पर अपनी अदृश्य निशानदेही और सांसें छोड़ती.

यह फ़िल्म मृतकों की अकथ कहानी, मृतकों की कही गई, मृतकों के बीच ही कही गई है. जैसे उजड़ी बस्ती में घूमता कोई बवंडर…छोटे छोटे बवंडरों से मिलकर बना एक दैत्याकार बवंडर. उसी में से उठता विकट-विलाप अपने कदमों की अनसुनी आहटों का अबूझ रेखांकन बनाता हुआ….

मंगलेश डबराल की कविता पंक्तियाँ हैं :

एक मरा हुआ मनुष्य इस समय
जीवित मनुष्य की तुलना में कहीं ज़्यादा कह रहा है
उसके शरीर से बहता हुआ रक्त
शरीर के भीतर दौड़ते हुए रक्त से कहीं ज़्यादा आवाज़ कर रहा है
एक तेज़ हवा चल रही है
और विचारों स्वप्नों स्मृतियों को फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ा रही है

और मंगलेशजी की डायरी के एक पन्ने की इबारत कहती है :

‘मृतकों का अपना जीवन है जो शायद हम जीवितों से कहीं ज़्यादा सुंदर, उद्दात और मानवीय है. इतने अद्भुत लोग, और जिंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए. जो नहीं हैं मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ वे मेरे मुँह से बोलें.’

‘पेद्रो पारामो’ फ़िल्म की तमाम मृतात्माएँ इसी शीर्षक के उपन्यास के लेखक युआन रुल्फों की आवाज़ में बोल रही हैं…रोड्रिगो पिएर्तो के निर्देशन में जीवंत होकर…

इनकी कथा इतनी विकट, त्रासद और पीड़ादायी है कि मृतकों के साथ आप मरणासन्न हो सकते हैं…

कभी ना पूरा हो सकने वाले स्वप्न को देखती चरित्रों की अपलक आँखें इस फिल्म में बार-बार दिखाए जाने वाले पत्थरों की तरह उदास दिखती हैं जिससे गर्म हवा टकरा कर अपनी सिर फोड़ती रहती हैं. चाहे डोलारेस हो, दामियाना हो, दोरोतिया हो या एदुविकेस या फिर सुसाना.

अनवरत उदासी और गहरी निराशा में डूबी ज़िंदगियाँ, बंद होती धड़कनों की प्रतिध्वनियाँ हैं. ये कोमाला की गलियों में गूंजती रहती हैं जिसके लिए कोई कान धरने वाला नहीं.

उनकी कराह का मुँह हमेशा दबोच लिया जाता है.

सब कुछ पाने की लालसा और सब कुछ खो देने की पीड़ा का यह बरसों का एकांत है.

फ़िल्म के अंतिम दृश्य में सुसाना की मृत्यु पर पादरी चर्च का घंटा बजाता है. घंटे की आवाज़ मृत्यु की अनुगूंज में बदल जाती है. यह अनुगूंज कोमाला की गलियों में दूर-दूर तक गूंजने लगती है. जैसे मृतात्मा अपना अनसुना विलाप सुनाना चाहती है, तमाम मृतात्माएँ विलाप सुनती हैं और गलियों-घरों से निकलकर मृत्यु का नृत्य करने लगती हैं. यह मृत्यु का जश्न दिखाई देता है. अनंत काले गहराते आकाश में बारूद के फूल अपनी तमाम रंग-बिरंगी रोशनियों में पल भर के लिए चमकते हैं और राख में बदल जाते हैं. यही राख जैसे कोमाला की गलियों, घरों, उनके दरवाज़ों और खिड़कियों पर चुपचाप गिरती हैं और पूरा कोमाला ही जैसे एक बड़ी क़ब्र में बदल जाता है.

फिल्म जीते-जागते मनुष्यों के स्वप्नों-दु:स्वप्नों, प्रेम-घृणा, त्याग-धोखे, आंसू और हंसी, अपराध और अपराधबोध के रसायन से मिलकर बनी है.

यह फ़िल्म कोमाला की क़ब्रों का करुण कोरस ही है.

यह जिस रसायन से मिलकर बनी है उसमें यथार्थ और स्वप्न, अतियथार्थ और जादुई यथार्थ के तत्वों का एक अद्भुत संतुलन है. इसकी बसाहट एक उजड़ी बस्ती में है जिसकी घुमती मुड़ती और रहस्य के कोहरे में लिपटी गलियाँ हैं, धूल उड़ाती ख़ाली और सूनसान, और उदास सड़के हैं और लगभग खंडहर हो चुके घरों के दरवाज़ें हैं जो किसी के दस्तक दिए जाने की प्रतीक्षा में सांस रोके हैं. खिड़कियाँ किसी दृश्य पर नहीं खुलती हैं और ना जाने किन दृश्यों पर बरसों से बंद पड़ी हुई थीं. बदरंग उन्हें और उदास बनाते हैं, डूबते सूरज मुर्दा धूप इन घरों को और भूतहा बना देती हैं.

हर नाम और चरित्र एक रहस्य है. ‘पेद्रो पारामो’ उपन्यास की भूमिका में गेब्रिएल गार्सिया मार्केज लिखते हैं कि

‘रुल्फ़ों कहते हैं या ऐसा दावा किया जाता है कि उन्होंने (युआन रूल्फ़ो) इस कहानी के लिए चरित्रों के नाम अपने गाँव जैलस्को के क़ब्रिस्तान में कब्रों पर लगे पत्थरों पर लिखे नामों से लिए हैं.’

लेकिन निर्देशक-सिनेमैटोग्राफर रोड्रिगो पिएर्तो अपने पेशेवराना निर्देशकीय कौशल और कल्पनाशील सिनेमैटोग्राफी से रूल्फ़ो की कहानी कहने की कला को अपने कला माध्यम में इस कलात्मकता से रूपांतरित करते हैं कि लगता है हर मृतक अपनी क़ब्र पर जमी ओस या धूल को आहिस्ता से अपने हाथों से पोंछता है, उग आई घास को हटाता है और क़ब्र में बिना आवाज़ करवट लिए इस तरह उठता है कि एक धड़कते इंसान में बदल जाता है. हाड़ मांस का सांस लेता मनुष्य. और ये सब कभी अंधेरे में, कभी मोमबत्ती के पीले उजाले में, धूलभरी सड़कों के सूनेपन में अपनी ही कहानी कहते किसी प्रेत की तरह इस तरह आते-जाते हैं कि इनके आने-जाने का अहसास अजीब सिहरन पैदा करता है.

पेद्रो पारामो से एक दृश्य

पिएर्तो रोड्रिगो की गतिशील दृश्य संरचना, दृश्य श्रृंखला और उसकी धीमी लय-गति इतनी कल्पनाशील और कथ्यानुरूप है कि मृतक और जीवितों के बीच एक ऐसी आवाजाही है कि मृतक कब जीवित होकर अपनी और दूसरों की भी कहानी कहने लगता है और जीवित कब मृतक होकर फुसफुसाने लगता है, वह अद्भुत है. दृश्यों में चरित्रों का आना, उनकी लय, गति और उन्हें घेरे हुए पीला-कत्थई उजाला अजीब रहस्य के कोहरे में घेर लेता है और फिर कैमरा अपनी गति और लय से एक और दुनिया रचता है जिसमें जीवित और मृतक की विभाजन रेखा विसर्जित  होती रहती है और रहस्य गहराता रहता है. मिसाल के लिए शुरुआती दृश्यों को ही ले लीजिए जब प्रेसिआदो, गाँव की एक स्त्री एदुविकेस के यहाँ जाता है. एदुविकेस मोमबत्तियाँ लिए कहानी सुनाते एक अंधेरे कमरे में जाकर अदृश्य हो जाती है और उसी कमरे से मोमबत्तियाँ लिए एक अन्य स्त्री चरित्र निकल आता है और प्रेसिआदो से संवाद करने लगता है. और इसी तरह मृतक और जीवित के बीच का फ़र्क़ मिटता रहता है. इनके फुसफुसाते शब्द ओस की ठंडक लिए इस तरह झरते हैं कि आप का खून जमा सकते हैं और कभी चिंगारी की तरह पलभर के लिए इनका गुस्सा और दु:ख सुलग कर अंधेरे में राख हो जाते हैं.

कोमाला एक ऐसा गाँव है जो क़ब्रों के करुण कोरस से बना हुआ है. यह कोरस सूनसान गलियों में प्रतिध्वनित होता रहता है.

यह कहानी किसी के कराहने की आवाज़, मरे इंसान के रोने और पुरानी फंसी हुई गूंज की कहानी है. एक अनंत रात जिसकी कोई सुबह नहीं. आप इस फ़िल्म को देखते हुए पेद्रो पारामो के बेटे प्रेसिआदो की तरह महसूस करते हैं जैसा कि उस उपन्यास के रचयिता युआन रूल्फो अपन पात्र के जरिए कहते हैं :

‘मैं हवा के लिए बाहर आया, लेकिन मैं जहाँ भी जाता मुझे गर्मी से निजात नहीं मिलती. वहाँ बाहर ज़रा भी हवा नहीं थी, सिर्फ़ मृतक थे, रात अब भी अगस्त की भयानक गर्मी से तप रही थी.’

इस फ़िल्म के शुरुआती दृश्यों में एक दृश्य है जिसमें प्रेसिदिओ एदुविकेसज के पीछे पीछे जाता है. वह कहता

है –  ‘मुझे किसी के कराहने की आवाज़ आ रही है.’ एदुविकेस कहती है – ‘यहाँ फंसी हुई कोई पुरानी गूंज हो सकती है.’

यह फ़िल्म सत्ता और वर्चस्व के विशिष्ट कालखंड की किसी अनसुनी कराह और फंसी हुई कोई पुरानी गूंज के बीच की एक यातना-कथा है.

_________

रवीन्द्र व्यास
10 अप्रैल 1961, इंदौर (म.प्र.)

इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक प्रभात किरण, दैनिक समाचार पत्र चौथा संसार, दैनिक भास्कर और नई दुनिया में पत्रकारिता. भोपाल, अहमदाबाद, जयपुर और इंदौर में एकल चित्र प्रदर्शनियां आयोजित. खजुराहो इंटरनेशनल आर्ट मार्ट, मालवा उत्सव और उस्ताद अमीर खां स्मृति समारोह के अंतर्गत रंग-अमीर चित्र प्रदर्शनी में चित्र प्रदर्शित. तीन इंटरनेशनल आर्ट गैलरी से पुरस्कृत. साहित्यिक पत्रकारिता के लिए क्षितिज सम्मान. मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के हिंदी सेवी सम्मान आदि से सम्मानित.संप्रति: इंदौर से प्रकाशित दैनिक अखबार प्रजातंत्र के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत.

ravindrasvyas@gmail.com

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Comments 7

  1. Jey sushil says:
    4 months ago

    Pedro Paramo कालजयी उपन्यास है. किसी भी ऐसी रचना को लोगों को समझने में समय लगता है जो अपने समय से आगे की होती है. इसके रचयिता रूल्फो ने इसके बाद कोई और उपन्यास नहीं लिखा. मेरी जानकारी में इस उपन्यास के अलावा उन्होंने एक और स्टोरी कलेक्शन ही लिखा और कुछ नहीं लिखा उन्होंने। अमेरिकी यूनिवर्सिटियों में दक्षिण अमेरिका से जुड़ा कोई कोर्स इस पुस्तक के बिना अधूरा माना जाता है।

    Reply
  2. आमिर हमज़ा says:
    4 months ago

    पिछले कुछ सालों से ‘क़ब्र और क़ब्रिस्तान’ दोनों मेरे बहुत गिर्द रहे हैं। कोई अतिशयोक्ति नहीं, मैंने क़ब्र को ठीक ठीक जिया है, ठीक ठीक क़ब्रिस्तान में रहा हूँ। युआन रूल्फ़ो के उपन्यास पेद्रो पारामो को तो पढ़ नहीं पाया लेकिन, नेटफ्लिक्स पर ‘पेद्रो पारामो’ को देखा। उस पर सादिक़ हिदायत के उपन्यास ‘अंधा उल्लू’ को पढ़ा। इस फ़िल्म और उपन्यास ने क़ब्र और क़ब्रिस्तान को जानने के कई दरवाज़े खोले। भीतर कुछ अटका सा था। रवीन्द्र व्यास के इस आलेख को पढ़कर थोड़ी सी गुत्थी ज़रूर सुलझी, बहुत सी बाक़ी है…मेरा मैं इन दिनों कुछ कुछ दफ़्न हो गया है।

    Reply
  3. कुमार अम्बुज says:
    4 months ago

    यह आलेख उपन्यास से गुज़रने का एक यात्रा संस्मरण की तरह है। उन जगहों और रास्तों से हमें भी गुज़ारता हुआ जो अनश्‍वर सवालों से स्पंदित हैं। अन्य साहित्य की स्मृति इसे व्यापक और मार्मिक बना रही है। मन की गठानें खोलने का उपक्रम इसमें अनायास शामिल हो गया है।
    बधाई और धन्यवाद।

    Reply
  4. रुस्तम सिंह says:
    4 months ago

    मैंने यह उपन्यास पढा है। 1955 में छपा यह पतला सा उपन्यास अद्भुत है। जहाँ तक मुझे पता है इसे पढ़कर ही मार्केज़ को “एकान्त के सौ वर्ष” लिखने की प्रेरणा मिली थी। “एकान्त के सौ वर्ष” पर इसका प्रभाव भी देखा जा सकता है। इस पर आधारित फिल्म कुछ दिन पहले मैंने देखी। पहले आधा घण्टा या चालीस मिनट के दौरान फ़िल्म अद्भुत है, वह एक असम्भव ऊँचाई को छू लेती है, और फ़िल्म का यह भाग “एकान्त के सौ वर्ष” पर आधारित हाल में बने सीरियल के किसी भी भाग से बेहतर है। लेकिन उसके बाद, ख़ासतौर पर जब पेड्रो पारामो का चरित्र फ़िल्म में आता है, फ़िल्म बिखर जाती है, निर्देशक उसे सम्भाल नहीं पाता और वह एक साधारण फ़िल्म जैसी लगने लगती है। इस तरह अपने बड़े हिस्से में फ़िल्म उपन्यास के स्तर को छू नहीं पाती, उससे न्याय नहीं कर पाती। पेड्रो पारामो को चित्रित करने वाला एक्टर इस फ़िल्म के लिए उचित नहीं था। इस एक्टर को मैंने अन्य सीरियलों में देखा है जहाँ वह बढ़िया एक्टिंग करता है, ख़ासतौर पर “The Lincoln Lawyer” नाम के सीरियल में। लेकिन पेड्रो पारामो के चरित्र के लिए वह miscast है। वह एक मेक्सिकन मूल का एक्टर है जो हॉलीवुड में काम करता है। मेरा ख्याल है उसकी बजाय एक लोकल मेक्सिकन एक्टर को लिया जाना चाहिए था।

    Reply
  5. अंजलि देशपांडे says:
    4 months ago

    उपन्यास तो नहीं पढ़ा पर फिल्म देखी है। यह लेख भी फिल्म की रहस्यात्मकता को बरकरार रखते हुए उसपर बस मोमबत्ती की इतनी रोशनी डालता है कि उपन्यास भी पढ़ने का मन करे और फिल्म देखने का भी। व्यास अच्छा लिखते हैं। चित्रकार की दृष्टि फिल्म के दृश्यों के वर्णन में साफ है। सुंदर लेख।

    Reply
  6. अनिल कुमार सिंह says:
    4 months ago

    अद्भुत उपन्यास है ।किताब की भूमिका में गार्सिया मार्क्वेज ने लिखा है कि इस उपन्यास को वे पाते ही रात में वे इसे तीन बार पढ़ गए थे । उपन्यास के एक पुराने संस्करण की भूमिका सूजन सोतांग ने लिखी थी । इस उपन्यास पर पहले भी एक फिल्म बन चुकी है जिसकी पटकथा दूसरे बड़े मेक्सिकन लेखक कार्लोस fuentas ने लिखी थी ।लेकिन ये यूट्यूब पर मिलती नहीं । सूजन सोतांग वाले संस्करण का अनुवाद भी मुझे बाद के अनुवाद से अच्छा लगा । ये आर्काइव पर उपलब्ध है ।

    Reply
  7. AMITA MISHRA says:
    4 months ago

    अच्छा लेख है . मृतक चरित्रों की कहानियाँ जीवन के समझने के लिए प्रेरित करती हैं।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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