कटघरे में आलोचना और उसका पक्ष |
हर देश-काल में रचना और आलोचना का अपना ‘समकाल’ होता है. पर, समकाल ‘समकालीनता’ का पर्याय नहीं. समकाल में ‘कंटेम्परेरी’ का बोध अधिक है जिसमें तात्कालिक, टेम्पेरेरी की अर्थध्वनि सुनाई देती है. हम जब साहित्य के संबंध में ‘समकालीन’ पद का प्रयोग करते हैं तो उसका अर्थ ‘निपट वर्तमान’ नहीं होता. वह देश-काल से बद्ध और संबद्ध होता है. जीवित आदर्शों, विचारों, परम्पराओं, मूल्यों और सपनों के साथ उसकी एक सुसंगति होती है, एक कंसिस्टेंसी होती है. वह समाज, इतिहास, साहित्य, संस्कृति आदि के साथ पहचाना जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें युगबोध के साथ-साथ विश्व-दृष्टि की भी गूँज-अनुगूँज होती है. पर आज ‘समकाल’ शब्द का बोलबाला अधिक है. इसके उच्चारण में जो खड्गपात है वह बहुत ही दर्दनाक है– समकाल. जैसे कोई काल सचमुच सिर पर मंडरा रहा हो. तो, इस समकाल को लेकर नौहागरी यह कि ‘आलोचना का समकाल’ बहुत संकट के दौर से गुजर रहा है.
यह आलोचना का शून्यकाल है. आलोचना का कोई स्वरूप ही नहीं बचा है. चारों ओर एक अराजकता है. आदि, इत्यादि. वैसे, देखा जाय तो आलोचना को लेकर सदा से ही इस तरह की बातें होती रही हैं. आलोचना की लानत-मलामत का इतिहास नया नहीं है. उसे न जाने किस-किस तरह के संज्ञा, सर्वनामों और विशेषणों से पुकारा और विभूषित किया गया है. उनके इतिहास में जाने का कोई अर्थ नहीं है.
आलोचना लोकप्रिय विधा कभी नहीं रही है. इसीलिए सदा से ही वह रचनाकारों के लिए ‘तख्त-ए-मश्क़’ बनी रहती है. हाँ, यह दीगर है कि एक-आध आलोचक हर समय में ऐसे भी होते हैं जो अपने को परमावतार से कम नहीं समझते और जिनकी भृकुटि-विलास मात्र से किसी रचना का समूल नाश हो जाता है– भृकुटि-विलास सृष्टि लय होई. पर इसे प्रवृत्ति नहीं प्रतिक्रिया ही मानना चाहिए. बहरहाल, पहले आलोचना को लेकर लगाए जाने वाले आरोपों, चिंताओं और संकटों पर बात करने का मुद्दा आज से भिन्न रहा है. बहुत पीछे न जाएँ हिंदुस्तान की आज़ादी और उसके के बाद के समय को ही पहलू में रखें तो हमें इसके उदाहरण मिल जाएँगे. जिस काल को हम ‘शीत-युद्ध-काल’ के नाम से जानते हैं वह मोटा-मोटी 1947 से 1991 तक का काल है.[1]
हम जानते हैं कि, शीत-युद्ध (cold war)[2] पद का प्रयोग सबसे पहले बिहार के मोतिहारी जिले में पैदा हुए एक अंग्रेज़ उपन्यासकार, निबंधकार, आलोचक और पत्रकार जॉर्ज ऑरवेल ने सन् 1945 में किया था. शीत-युद्ध को यहाँ याद करने का एक ही मक़सद है और वह है हिंदी आलोचना के तत्कालीन परिदृश्य (1947 से 1991 तक) और उसके तथाकथित संकट में होने वाली बात की जाँच-परख.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद उत्पन्न शीत-युद्ध कालीन युग-बोध और विश्व-बोध से हिंदी साहित्य भी प्रभावित हुए बिना न रह सका. हिंदी आलोचना के पाँचवें-छठवें दशक के परिदृश्य को थोड़ा याद किया जाय तो उस समय भी आलोचना के संकट की बात की गयी थी. यह संकट ‘परिमलवादियों’ और ‘मार्क्सवादियों’ के बीच की बहसो का प्रमुख मुद्दा था. जिसका प्रमुख स्वर था आलोचना में अराजकता की स्थिति का होना.
शुरू-शुरू में वह संकट राजनीति बनाम साहित्य के संकट के रूप में प्रस्तुत होता हुआ दिखता है पर शीघ्र ही उसका स्वर बदल जाता है और वह ‘विचारधारा की राजनीति’ बनाम ‘साहित्य की स्वायत्तता’ का संघर्ष बन जाता है. पाँचवें-छठवें दशक में यह संघर्ष प्रमुखतः विजयदेव नारायण साही और नामवर सिंह के बीच की बहसो में देखा जा सकता है. बस एक-एक बानगी लेते हैं :
“एक थका देने वाली एकरसता के साथ कम्युनिस्ट आलोचक लेखक के सम्मुख केवल इतना प्रश्न रखना ही पर्याप्त समझते हैं : कला कला के लिए है अथवा समाज के लिए. यह विरोधाभास कितना भ्रामक है, इसका संकेत हम पहले कर चुके हैं. लेखक स्पष्टत: यह मानता है कि कला समाज के लिए है. इसके पश्चात आलोचना का पूरा कर्तव्य इतना ही सिद्ध करना रह जाता है कि समाज का सच्चा हित कम्युनिस्ट पार्टी की विजय, उसके राज्य की स्थापना और उसके आदर्शों का पालन करने में ही है. साहित्यालोचन से अधिक इन तर्कों का क्षेत्र राजनीति से भी अधिक अंधश्रद्धा और अंधविश्वास का है.”[3]
“मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति’ के अनुसार समाज और साहित्य के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है लेखक का व्यक्तित्व. साहित्य के रूप में समाज की जो छाया प्रकट होती है वह लेखक के व्यक्तित्व के माध्यम से ही आती है. साहित्य के निर्माण में इस बीच की कड़ी – लेखक के व्यक्तित्व का महत्व है और इस महत्व की महत्ता इस बात में है कि एक ओर इसका संबंध समाज से है तो दूसरी ओर साहित्य से. साहित्य रचना की प्रक्रिया में समाज, लेखक और साहित्य परस्पर एक दूसरे को इस तरह से प्रभावित करते हैं कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः परिवर्तित और विकसित होता रहता है – समाज से लेखक, लेखक से साहित्य और साहित्य से पुनः समाज.”[4]
पांचवें-छठवें दशक का परिमल और प्रगतिशील आलोचकों के बीच यह संघर्ष थोड़े बहुत अंतराल के बीच जारी रहता है जो आगे चलकर ‘रूपवादी/कलावादी कहे जाने वाले रचनाकार-आलोचकों अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, निर्मल वर्मा और मार्क्सवादी आलोचकों के बीच बहस का मुद्दा बन जाता है. अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में खींच-तान कर यह संघर्ष नवें दशक तक किसी न किसी रूप में चलता है. इसके निशान आपको कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी द्वारा स्थापित भारत-भवन के साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों, आयोजनों और प्रकल्पनाओं में दिख जाएँगे. प्रसंगतः आलोचना की जरूरत को लेकर भारत-भवन में 11 से 13 जनवरी, 1987 को आयोजित ‘आलोचक त्रैवार्षिकी समवाय’ की एक ऐसी ही बहस का उल्लेख करना यहाँ उपयुक्त होगा. इस तीन दिवसीय ‘समवाय’ का विषय था ‘ आलोचना और समाज’. तीन दिनों की बातचीत और चर्चा के लिए जो विषय निर्धारित किए गए थे, उन विषयों पर मैं आज की पीढ़ी, नयी पीढ़ी के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ–
‘आलोचना, परंपरा और इतिहास’, ‘आलोचना की स्वतंत्रता/स्वायत्तता, ‘आलोचना और राजनीति’, और ‘समकालीन संस्कृति, संचार और आलोचना’.
इस सेमिनार में नामवर सिंह, अज्ञेय और निर्मल वर्मा तीनों थे. बाद में अशोक वाजपेयी के प्रयासों से उक्त विषयों पर दिए गए वक्तव्य, पढ़े गए लेख, बातों और चर्चाओं का प्रकाशन ‘पूर्वग्रह’ (जन.-अप्रैल, 1987) पत्रिका में हुआ. पत्रिका के संपादकीय से पता चलता है कि पत्रिका के छपकर आने से पहले अज्ञेय का निधन हो गया है. इस अंक के संपादकीय को छोड़ दिया जाय जो कि ज्ञानरंजन और नामवर सिंह के आरोपों के जवाब में लिखा गया है और उक्त सेमिनार को ही केंद्र में रख कर बात की जाय तो जिस बलाघात के साथ एक बात बार-बार आती है वह बलाघात है– आलोचना है, आलोचक नहीं. आलोचना नहीं आलोचक की जरूरत है. स्वयं अशोक वाजपेयी के आरंभिक वक्तव्य का शीर्षक ही है– आलोचना है आलोचक नहीं.
अज्ञेय के वक्तव्य का शीर्षक है– आलोचना है, आलोचक हैं, आलोक चाहिए. अशोक वाजपेयी के वक्तव्य का यह अंश आलोचक की जरूरत और उसकी अर्हता को किस तरह से रेखांकित करता है, उसे देखना चाहिए –
“पिछले कुछ वर्ष हिंदी आलोचना के नैतिक क्षरण के वर्ष कहे जा सकते हैं. पहले भी अक्सर आलोचना को प्रसंशा-निंदा में सरलीकृत किया जाता रहा है. पर इधर तो आलोचना, विशेषतः पत्रकारिता के साथ हुए उसके गठबंधन के बाद और संगठनात्मक सक्रियता का एक प्रमुख मोर्चा बनाने के साथ ही, साहित्य में शक्ति-संतुलन के दुष्चक्र में फँस गयी है. कुछ संगठनों की तरह उसे भी भ्रम हो गया लगता है कि वह साहित्य की भाग्यविधाता है और उसकी नियति और दिशा निर्धारित कर रही है….आलोचना में कुछ नया और अप्रत्याशित खोजने की इच्छा और साहस बचे हैं न ही जीवन और काला के सच के रहस्य के प्रति कोई उत्सुकता और आदर ही. सब कुछ दिये हुए का– वह भी अक्सर दूसरों के दिये हुए का– अधिक से अधिक चतुर पर हमेशा ही सर्वथा प्रत्याशित, पुनर्कथन भर है. हम व्यक्तित्वहीन आलोचना के भयानक दलदल में फँस गए हैं. आलोचना है पर आलोचक नहीं.”[5]
यह कुछ उदाहरण थे, कुछ प्रसंग, उस दौर के ‘आलोचना समकाल’ के. जब आलोचना में बहसो, सहमतियों, असहमतियों, संघर्षों की रगड़ से कुछ पाने खोजने की ज़रूरत महसूस की जाती थी. वहाँ आलोचना के संकट के मुद्दे कुछ और थे, लड़ाई के मैदान में ‘विचारधारा’ बीच में थी. आज वह मुद्दा भी नहीं है, वे मुद्दई भी नहीं हैं. इन्हीं संदर्भों में आलोचना के देश-काल को लेकर कुछ तीखे सवाल खुद से, कुछ अपने समय से और कुछ आने वाले समय के लिए.

1.
आज जिसे रचना और आलोचना का अपना ‘समकाल’ कहा जा रहा है उससे मुराद पिछले दो या तीन दशकों से है. नव-उदरवादी पूँजी-तंत्र और तद्जनित मुक्त वैश्विक-बाज़ार ने शीत-युद्ध के दौर को खत्म कर दिया. नब्बे के बाद का जो दौर आया, देखने में तो वह पूरी दुनिया को एक सूत्र में जोड़ने और बांधने वाला दिखता है पर वास्तविकता कुछ और है. यह केवल और केवल व्यापारिक गठबंधन है. मानवीय महत्ता और गरिमा की तकाजे से इसका कोई मूल्य नहीं. इस दृष्टि से से देखा जाय तो यह समय खंडित-आत्म, खंडित-चेतना और खंडित-दृष्टि की मनोदशा वाला एक खंडित-समय[6] है.
ऐसे समय में आलोचना की स्थिति और उपस्थिति पर बात करने से पहले उस पूरे परिदृश्य पर चर्चा जरूरी हो जाती है जिससे न केवल आलोचना बल्कि इस समय की साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश पर, उसको निर्मित करने वाली, उसका नेतृत्व करने वाली और संस्थाओं पर, ताकतों पर, उसका प्रबंधन करने वाली पूँजी पर बात होनी चाहिए. जैसे सामंतशाही और पूँजीवाद के दौर में कला, साहित्य और संस्कृति का नेतृत्व करने, उसे सुरक्षित और संरक्षित करने वाले पुरोहितों और अभिजात लोगों का औरा और दबदबा हुआ करता था वैसे ही आज के नव-उदारवादी या उत्तर-पूँजीवादी दौर में बाज़ार के नियमों और जरूरतों के अनुसार एक ख़ास तरह के ‘सांस्कृतिक-बिचौलियों’ का वर्ग बहुत तेज़ी से तैयार हुआ है या यह कहा जाय कि तैयार किया गया है.
ऐसे माहौल में, आते हैं उस दाख़िल मुक़द्दमे पर. हिन्दी-आलोचना को लेकर इधर बराबर यह संदेह प्रकट किया गया है और किया जा रहा रहा है कि वह लगातार कमजोर, लचर, सतही, असम्वादी और अविश्वसनीय हुई है. आलोचना ने अपनी साख गंवाई है. उसकी विश्वसनीयता का दायरा कमतर हुआ है. हिन्दी आलोचना में यह निराशा का दौर है. क्या सचमुच स्थिति इतनी निराशाजनक है? एक पक्ष से यह सही लग सकता है पर यह सिक्के का एक पहलू है. नजर यहाँ भी टिकानी चाहिए कि आलोचना की जरूरत आज किसे है? कौन आज आलोचना की परवाह करता है?
मैं शिद्दत से इस बात को महसूस कर रहा हूँ कि आज आलोचना का लोकतंत्र लगातार घटता-सिमटता जा रहा है? उसकी जगह धीरे-धीरे समाप्त करने के सारे प्रयास, सभी स्तरों और सभी रूपों में व्यवहार: जारी है. क्या इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि अब आलोचना और आलोचकों में वह बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी? अब आलोचना में वह धार, वह कंसिस्टेंसी नहीं रही. रचना तो अपने समय-समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है? जबकि आलोचना बहुत पीछे छूट गयी है? कभी अज्ञेय ने कहा था कि
“यह सच है कि, नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नकली आलोचकों का है– धातु उतना खोटा नहीं है जितनी कि कसौटियां ही झूठी हैं.”
लेकिन अब तो इसकी पहचान ही गड्डमड्ड हुयी जा रही है कि कौन नकलची है और कितने नकली हैं. ‘खोटा’ कहने की बात तो दूर अब तो हर ‘धातु’ बिना किसी कसौटी या ख़राद पर चढ़े-चढ़ाए, स्वतः ही अपने को कंचन ही मानकर महान हुए जा रही है. अगर कसौटी पर कसकर उसे आप काँसा या पीतल कहने की हिमाकत करते हैं तो ‘खोटा’ सिक्का अपने नक्कालेपन को जिस समानता, बराबरी, लोकतंत्र आदि के खोखे में सुरक्षित किये रहता है उन सबको भूलकर, मर्यादा की सारी हदें पार कर आपकी ऐसी-तैसी करके आपसे जीवन भर के सारे तकाजे तोड़ लेगा. असहिष्णुता की सारी हदें पार कर ‘युद्धं देहि’, ‘युद्धं देहि’ की मुद्रा में आ जायेगा. इस संघर्ष लिए रणभूमि सोशल मीडिया ने मुहैया करा ही दिया है. प्रच्छन्न लांछन, अस्पष्ट आरोप, अपुष्ट तथ्य और अतार्किक घामड़पन से आज के साहित्यिक-वातावरण (जिसे साहित्य का समकाल कहा जा रहा है) को निर्भीक, निर्भ्रांत सत्य बनाने की पूरी कवायद चल रही है.
भाषा सपाट, तीखी और लट्ठमार होती जा रही है. सनसनी और चटखारापन इसका मिजाज बनता जा रहा है और ‘कनकौवा उड़ाना’ इसकी प्रवृत्ति. सोशल मीडिया ने व्यक्तिगत मतभेद और विरोध को सामाजिक मतभेद और विरोध के नाम पर बुर्जुवा छल-प्रपंच का ऐसा मंच दिया है जिसकी कोई सीमा नहीं. उत्तर-पूंजीवादी समाज में मध्यवर्ग के झूठ और प्रवंचना का यह ऐसा जरिया बनता जा रहा है जिसमें हम सुनाना तो अधिक से अधिक चाहते हैं पर सुनना एकदम से पसंद नहीं करते. सुनाने की इतनी अधीर उग्रता और न सुनने की इतनी उद्धत उपेक्षा का माहौल पहले कभी नहीं रहा. तुरंत ‘निपटान’ सोशल मीडिया की रहन में है. अभी नहीं निपटाया तो सबकुछ ख़त्म हो जाएगा. पीछे छूट जाने का इतना भय.
यह कहा जा रहा है और सच ही कहा जा रहा है कि, मुद्रण-संस्थाओं के समानांतर सोशल मीडिया ने एक ऐसा ‘स्पेस’ दिया है जहाँ कोई भी लेखक, चिन्तक आलोचक, कवि, कथाकार कुछ भी हो सकता है. पर यदि, नज़र गड़ाई जाय और तवज्जोह दिया जाय तो दिखेगा कि, उस स्वतः सुलभ ‘स्पेस’ का अधिकांश हिस्सा पुनरुत्पादित, पुनरावृत्त, विचारहीन तलछट से आच्छादित प्रतिबिम्ब मात्र है, उससे अधिक कुछ नहीं. हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि राजेश जोशी एक किस्सा सुनाते हैं. किस्सा क्या है, नोबल सम्मान से सम्मानित अरबी भाषा के कथाकार नजीब महफ़ूज की एक छोटी सी कहानी है- मोती. जितेंद्र भाटिया ने जिसका हिंदी में अनुवाद किया है. तो किस्सा यूं है कि कथावाचक एक दिन एक सपना देखता है –
“किसी ने मेरे सपने में आकर मेरी ओर हाथी दाँत का एक डिब्बा बढ़ते हुए कहा, ‘इस तोहफ़े को कबूल करो’. जब मैं उठा तो डिब्बा मेरे तकिये पर रखा था. जुनून की हालत में मैंने डिब्बे को खोला और पाया कि उसमें अखरोट के आकार का एक बड़ा सा मोती है. समय-समय पर मैं उसे किसी मित्र या विशेषज्ञ को दिखला कर पूछता, ‘इस लाजवाब मोती के बारे में आपका क्या ख़याल है?’ वह आदमी अपना सिर हिलाता और फिर हँसते हुए कहता, कौन सा मोती? यह डिब्बा तो बिलकुल खाली है.”[7]
यह सच है कि वर्तमान को हम फूँक मारकर उड़ा नहीं सकते. वर्तमान की अपनी गति, अपनी अपरिहार्यता और अपनी तार्किकता होती है. पर यह भी सच है कि; वर्तमान की इस गति, इस अपरिहार्यता और इस तार्किकता में पूरी त्वरा के साथ शामिल जो कुछ है, वह इतना तात्कालिक, इतना अधिक समसामयिक है कि ‘अतीत’ होने पर उसकी ‘ऐतिहासिकता’ का कोई तकाजा नहीं बनता. क्योंकि, ‘ऐतिहासिक’ होने की भी अपनी अपरिहार्यता और अपनी तार्किकता होती है. अपने समय में बुर्जुवा-संस्कृति के संकट को पहचानने वाले मार्क्सवादी आलोचक और चिन्तक क्रिस्टोफ़र कॉडवेल के हवाले से कहा जाय तो,
“ऐतिहासिक वही होगा जो इतिहास का सृजनशील अभिकर्ता होगा.”[8]
रचना और आलोचना में बैर तो पुश्तैनी रहा है. परन्तु, इतना असम्वादी, असहिष्णु, ग़ैर-ज़िम्मेदाराना माहौल कभी नहीं रहा. पहले भी आलोचकों की खूब लानत-मलामत की गई है पर ‘लाग-डांट प्यार-बात’ का ‘स्पेस’ ख़त्म नहीं हुआ था. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जब निराला को नकारा या उनकी आलोचना की तो निराला ने ‘कालेज का बचुआ’ शीर्षक कविता लिखकर उनकी खबर ली. परन्तु वही निराला हिन्दी साहित्य सम्मलेन के फैजाबाद अधिवेशन में ‘शुकुल जी’ का अपमान बर्दाश्त नहीं करते हैं. रामविलास शर्मा लिखते हैं –
“फ़ैज़ाबाद में प्रांतीय साहित्य सम्मेलन हुआ. निराला श्रीनारायण चतुर्वेदी के यहाँ ठहरे थे. सभापति किसे बनाया जाय, इस चर्चा में निराला ने रामचन्द्र शुक्ल का नाम लिया. शुक्ल जी केवल साहित्य-शाखा के सभापति बनाए गए, पूर्ण सम्मेलन के सभापति बनाए गए पुरुषोत्तमदास टंडन. सम्पूर्णानन्द कला प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए बोले– कवियों को राजनीतिज्ञों का साथ देना चाहिए. निराला ने बीच में टोका- हिंदी के कवि राजनीतिज्ञों से आगे हैं. टंडन जी के आने पर आचार्य नरेन्द्रदेव ने जनता को संबोधित करते हुए कहा- आपके यहाँ दो-दो महापुरुष पधारे हुए हैं, एक हैं पूज्य माननीय बाबू पुरुषोत्तमदास जी टंडन और दूसरे माननीय सम्पूर्णानन्द जी. निराला को बुरा लगा, वहाँ रामचन्द्र शुक्ल भी बैठे थे, महापुरुषों में केवल राजनीतिज्ञों के नाम गिनाए जा रहे थे….शुक्ल और निराला दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे, पर कांग्रेसी नेताओं की रीति-नीति से न शुक्ल प्रसन्न थे, न निराला.”[9]
यह हिंदी के दो बड़े लेखकों का वह आचरण और चरित्र है, जो न जाने आज हमारे सार्वजनिक कहाँ गुम हो गया. आज तो लोग नेता, मंत्री, सांसद, विधायक के यहाँ घंटों-घंटों इस आस में बैठे रहते हैं की उनकी कृपादृष्टि पड़ जाती, कोई तो फल मिल जाता. इसलिए बात केवल इतनी सी भर नहीं है कि अमुक आलोचक ने अमुक रचना की प्रशंसा या निंदा की है, बात आलोचना और रचना जहाँ से पैदा होती हैं, उस परिवेश की है. उसके आचरण और चरित्र की है –
“हम जिस समाज, संस्कृति, परंपरा, युग और ऐतिहासिक आवर्त में रहते हैं, उन सबका प्रभाव हमारे हृदय का संस्कार करता है. हमारी आत्मा में जो कुछ है वह समाज प्रदत्त है– चाहे वह निष्कलुष अनिंद्य सौंदर्य ही क्यों न हो. हमारा सामाजिक व्यक्तित्व हमारी आत्मा है. आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है. व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक-विक्षेप है, इस विरोध का कोई अस्तित्व नहीं. जहाँ व्यक्ति समाज का विरोध करता सा दिखाई देता है, वहाँ वस्तुतः समाज के भीतर की ही एक सामाजिक प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति से टकराती है. वह समाज का अंतर्विरोध है न कि व्यक्ति के विरूद्ध समाज का या समाज के विरुद्ध व्यक्ति का….समाज के भीतर के अंतर-विरोधों के विकास की जो अवस्था-विशेष होगी, उसी के अनुसार सांस्कृतिक-श्रेणी के सामने विकल्प प्रस्तुत होंगे.”[10]
हम देखें, तो पाते हैं कि प्रसाद, पन्त, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध सबने अपने समय की आलोचना से मुठभेड़ किया है, जवाब दिया है, पर उसको विसंवादी नहीं होने दिया. परस्पर मिलने पर दुआ-सलाम, खैर-खातिर को बंद नहीं किया. यह नहीं कि, तुम होगे आलोचक-फालोचक, मेरे ठेंगे से. मुक्तिबोध, त्रिलोचन, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी किसको नहीं रही है अपने समय की आलोचना से शिकायत. फिर भी त्रिलोचन का यह कथन कम महत्वपूर्ण नहीं है.
“रचना और आलोचना में तत्वतः अंतर नहीं है….आलोचना का पृथक अनुशासन होता है. वह रचना और रचनकार के आधार पर बनाया जाए, यह आवश्यक नहीं.”[11]
पर ‘रचनात्मक आलोचना’ से आपकी मुराद क्या कविता, कहानी, उपन्यास या अन्य विधाओं में लिखने वाले रचनाकारों की लिखी आलोचना से है? क्या आलोचना स्वयं में एक विधा नहीं है? क्या आलोचना, केवल भाषिक गढ़न और रंगरोगन की काव्यमय उपलब्धि मात्र है? छंदों से बजते वाक्य, किलकते-दुलारते भाववाची विशेषण, आलंकारिक साज-सज्जा ही आलोचना है?
आलोचना का अपना एक अनुशासन होता है तदनुरूप उसकी अपनी एक भाषा भी होती है. इसलिए ‘आलोचना भी एक रचना है’. ‘रचनात्मक आलोचना’ और ‘अध्यापकीय आलोचना’ जैसे पद केवल सुविधाजनक ढंग से आलोचना की पिटाई करने के लिए बनाए गए पद हैं. मुक्तिबोध ने तो हिन्दी की प्रगतिवादी समीक्षा पद्धति की भी सधे शब्दों में खबर ली है.
विजयदेव नारायण साही जहाँ ‘मार्क्सवादी आलोचना की कमुनिस्ट परिणति’ दिखाते हैं तो धर्मवीर भारती की भी आलोचना करते हैं. ‘विवेचना’ गोष्ठी में सार्वजनिक तौर पर यह उद्घोष करते हैं कि ‘लोकायतन’ न पढ़ा है न पढूंगा. रामविलास शर्मा तो रचनाकारों के बीच खासे विवादी और नापसंद किये जाने वाले आलोचक रहे हैं. और केवल अपनी विचारधारा के प्रतिकूल रचनाकारों की ही नहीं वरन् खुद अपनी विचारधारा के हमनवा रचनाकारों को भी उन्होंने केवल और केवल प्रशंसा ही नहीं की. नामवर सिंह ने यह कार्य किया है. अशोक वाजपेयी अगर ‘अकेलेपन का वैभव’ लिखकर अज्ञेय के काव्य में “मनुष्य की हालत को प्रभावित करने वाली प्राकृतिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक शक्तियों” को चिन्हित करते हैं तो ‘बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए’ जैसा लेख लिखकर उनके शिथिल होने, लड़खड़ाने और पैस्टोरल को पहचानने का साहस भी उन्हीं का है. आज क्या सचमुच सब का सब बहुत अच्छा और महान लिखा जा रहा है?
भिन्न-भिन्न लेखक संगठनों, खित्तों, गुटों के अन्दर प्रशृत-पोषित, घोषित-अघोषित सभी तरह के रचनाकार ‘महान’ से नीचे का साहित्य लिखते ही नहीं है. ‘प्रमोटर’ की भूमिका पहले भी लोग निभाते रहे हैं पर साथ ही इसकी पहचान भी कराते रहे हैं कि अमुक रचनाकार बहुत ही कमजोर रचनाकार है. भले ही वह अपने संगठन का ही क्यों न हो? क्या वह नैतिक साहस बिला गया है या अब सच को सच कहने और सुनने की जगह लगातार सिकुड़ती-सिमटती जा रही है? आलोचना को लेकर क्या साहित्य भी उसी राष्ट्रीय चरित्र का अनुसरण करता जा रहा है? वस्तुतः एक रचनाकार या एक कलाकार या एक आलोचक ‘जड़ सांस्कृतिक परजीवी’ नहीं होता वरन् वह ‘संस्कृतियों’ के निरंतर सृजन, निर्माण और विकास का कर्ता भी होता है और संरक्षक भी. पर जिस समय-समाज में एक लेखक के भीतर से इस नैतिक और वैचारिक आत्मवत्ता का तिरोभाव हो जाता है, वह व्यवस्था के भीतर भी लेखकीय गरिमा के विरुद्ध आचरण करेगा और बाहर भी. व्यवस्था के भीतर रहते हुए साहित्येतर सुविधाओं के चलते वह अहमन्य और भीरु होता जाएगा और बाहर की जवाबदेहयों और दायित्वों के प्रति जोख़िम से गुजरने की स्थिति आने पर अंततः या तो व्यवस्था के भीतर ही शरण प्राप्त कर लेगा या उस लहर के साथ हो जाएगा जो ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ और ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर फ़ासीवादी परियोजनाओं को बहुत तेज़ी के साथ लोगों तक पहुँचने-पहुंचाने का काम कर रही है.
जिन लोगों को केवल अपनी रचना की निंदा-प्रसंशा, उठा-पटक, मोल-भाव आदि के बरक्स आलोचना के भविष्य की चिंता है वे लोग किसी न किसी रूप में अपने समय के बड़े संकट को ‘बौद्धिक-विक्षेप’ के जरिये आलोचना का संकट कह कर अपनी वैयक्तिक लालसा और सीमा दोनों का प्रदर्शन कर रहे होते हैं. आज जिनको यह ‘समय’ हैरान-परेशान नहीं कर रहा वे निश्चित ही उस ‘भावी’ के भी जिम्मेदार होंगे जिसके पदचाप वो नहीं सुन पा रहें हैं. आज, कट्टरता, धर्मांधता, पाखंड, झूठ, नफ़रत आदि के साथ-साथ देश की ‘संस्थाओं’ ‘अकादमियों’ को सरकार क्या बनाना चाहती है? ‘ललित कला अकादेमी’, ‘संगीत नाटक अकादमी’, ‘भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्’, ‘वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद’, ‘फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे’, ‘तीनमूर्ति संग्रहालय और पुस्तकालय’, विश्वविद्यालय, न्यायालय, संविधान, मीडिया आदि संस्थाएँ आज कितनी स्वायत्तता और स्व-विवेक के साथ काम कर पा रही हैं? सवाल यह है कि, क्या ये ख़त्म हो रहे हैं या इन्हें नए सिरे से बनाया जा रहा है? बुल्गारिया के कम्युनिस्ट नेता जॉर्ज़ दिमित्रोव के इस कथन को समझना चाहिए –
“फासीवादी समूचे जातीय इतिहास को टटोल रहे हैं, जिससे वे साबित कर सकें कि अतीत में जो कुछ भी वीरतापूर्ण और गौरवपूर्ण था उसके असली वारिस वे ही हैं. उनकी स्वनिर्मित परम्परा और संस्कृति की व्याख्या में आम जनता की जातीय भावना को आहत करने वाला जो कुछ भी घृणित या पतित है उस पर प्रहार करते हुए उसका उपयोग फासीवाद के शत्रुओं के खिलाफ करते हैं.”[12]
आज किसी भी फ्रंट पर आलोचना की कार्य-संस्कृति से जुड़े सभी लोग अपने जीवन में किसी न किसी प्रकार की सर्विलांस, संदिग्धता और भय का सामना कर रहे हैं. ऐसे में आप किस आलोचना के संकट का मुक़द्दमा लेकर हाजिर हुए हैं? आप भी केवल और केवल अपनी रचना की प्रशंसा सुनना चाहते हैं जैसे वे अपनी योजनाओं-परियोजनाओं की. क्या यह निरापद स्थिति है? साहित्य व संस्कृति कर्मियों की भूमिका समाज में क्या होती है? रचना और आलोचना का दायित्व क्या होता है, क्या हम उससे अपरिचित हैं?
इटली के महान विचारक अंटोनियो ग्राम्शी जिसे ‘सिविल सोसाइटी’ और ‘पॉलिटिकल सोसाइटी’ के अंतर्विरोध कहते हैं उसकी शिनाख्त करने में साहित्य हमारी सहायता करता है. साहित्य के द्वारा समाज और संस्कृति की जहाँ सामान्य वास्तविकताएं हमें उपरी तौर पर दिखती हैं वहीं साहित्य की आंतरिक परतों में वह अंतर्विरोध भी गहरे पैठा रहता है जो किसी भी नागरिक-समाज और सत्ता-तंत्र के रिश्तों की पहचान कराता है. यह सच है कि, एक बड़े ऐतिहासिक बदलाव के दौर में ‘सिविल सोसाइटी’ और ‘पॉलिटिकल सोसाइटी’ में अंतर्विरोध पैदा होते हैं, परंतु यदि ‘सिविल सोसाइटी’ के वैज्ञानिक और लोकतान्त्रिक निर्माण और विकास में ‘पॉलिटिकल सोसाइटी’ की धीरे-धीरे जवाबदेही खत्म होती जाय तो गहरी रिक्तता हमेशा के लिए जड़ जमा लेती है.
आज जिस तरह से शासन-व्यवस्था मनोनुकूल विधि-निषेधों को राष्ट्र-राज्य के तथाकथित हित और सुधार और बदलाव और विकास के नाम पर, जिस एजेंडे के साथ लागू करने का हर उद्यम कर रही है, उसकी सचमुच हमको जानकारी नहीं है या हम जानते हुए भी उससे आँख चुराकर किसी नकली संकट से लड़ रहे हैं. असल संकट कहीं और है. जरूरत इस अंतर्विरोध को समय रहते पहचानने की है. क्योंकि,
“साहित्य के अस्तित्व, महत्व, उत्थान, पतन और प्रभाव की व्याख्या समूची व्यवस्था के समग्र ऐतिहासिक प्रभाव में ही की जा सकती है. साहित्य का उद्भव और विकास समग्र ऐतिहासिक-सामाजिक प्रक्रिया का अंग है. साहित्यिक रचनाओं का सौंदर्यगत सारतत्व और मूल्य और इसलिए उसका प्रभाव उस सामान्य और समन्वित सामाजिक प्रक्रिया का अंग है, जिसमें मनुष्य चेतना के जरिए दुनिया को अपने काबू में करता है.”[13]
अतः एक लेखक की जो सृजनात्मक चिंता होती है वह महज अपनी कलम की चिंता नहीं होती, वरन् व्यापक स्तर पर उस ‘सिविल सोसाइटी’ की चिंता होती है जिसे सरकारें समय-समय पर कभी धर्म के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय-स्वाभिमान के नाम पर तो कभी विकास की इजारेदारी के छद्म में छलती रहती हैं. लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी अपने प्रतिरोधी हस्तक्षेप से समय-समय पर असंभव खतरों की संभावना से इस ‘सिविल सोसाइटी’ को ‘एलार्म’ करते रहते हैं. सरकारी तंत्र और व्यवस्था के लिए किसी भी सिविल सोसाइटी में बुर्जुआजी की यह सबसे जरूरी भूमिका होती है. सरकारें उनके इस कार्य-व्यवहार से घबराती हैं.
इसलिए केवल मात्र लाभ-लोभ की राजनीति के तहत किसी खास मकसद के लिए तैयार किया जाने वाला ‘रेटारिक’ बहुत खतरनाक होता है. ऐसा रेटारिक सार्वजनिक रूप से भीड़ के भावावेश को उभारता है और लोग बालोचित आशावाद में भ्रमित होकर झूठ सुनते हुए अपने को निश्चिंत और सुरक्षित महसूस करते रहते हैं. जिस समाज में हम इस कदर भटक जायँ कि खुद से ही झूठ बोलने लगें और उस झूठ पर विश्वास भी करने लगें तो उस समाज को कोई नहीं बचा सकता. आलोचना का कार्य रचना के साथ-साथ राजनीति और समाज को भी इस झूठे रेटारिक से सचेत करना और बचाना होता है. यही उसकी राजनीति है और यही उसकी विचारधारा. वाल्टर बेंजामिन के हवाले से कहें तो आलोचक सांस्कृतिक द्वंद्व और संघर्ष का रणनीतिकार होता है.
अतः जिस संकट को लेकर, जिस अन्याय को लेकर इस्तगासा लगाया जा रहा है, उसके कार्य-कारण संबंध, उसकी पूरी निर्मिति, उसके उद्देश्य को समझे बिना, वह इस्तगासा सिवाय और धुन्ध धाँधली फैलाने के और कुछ नहीं है. इसलिए चोट, असल दुश्मन कहाँ है उसे ढूँढ कर, उस पर की जानी चाहिए. सवाल आलोचना के इतने या कितने संकट का नहीं है. न ही बहस आलोचना के ‘डार्क-एज’ की है और न ही आलोचना और रचना के बीच पुश्तैनी बैर पर यह बहस है. यह बहस रचना और आलोचना के उस ‘देशकाल’ को लेकर है जिसका लक्ष्य रचना या आलोचना की पतनशीलता या सर्वश्रेष्ठता नहीं है, बल्कि एक बड़े संकट को लेकर है. यह बहस हमारे समय के उस अँधेरे की है जिससे रचना और आलोचना दोनों खतरे में हैं. इसलिए अंततः अपनी मूल चिंता में, यह बहस अँधेरे की भी नहीं है बल्कि अपने समय के आसन्न अँधेरे से लड़कर उजाले की ओर जाने को लेकर है. पर कुछ लोग इस मूल चिंता और संकट को आलोचना के और रचना की उत्कृष्टता और निकृष्टता में घटा देना चाहते हैं.
‘मीठा–मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू’ यह आलोचना का अनुशासन नहीं हो सकता. मनोनुकूल व्याख्या और निष्कर्षों के लिए जहाँ-तहां से उद्धरणों को पेश करना दरअसल पूरी बहस या विचार के ‘स्पिरिट’ को ख़त्म करना होता है. आजकल नेता और मीडिया इस काम को पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अंजाम तक पहुंचाने लगी है. आज की राजनीति में और उसकी ‘टेरेन ऑफ इन्क्वायरी’ की संस्था मीडिया में ‘बोध’ और ‘व्याख्या’ का जो ढंग विकसित हुआ है वह नितांत ही चिंतनीय है. आज मीडिया (सोशल मीडिया को भी इसमें शामिल माना जाय) द्वारा तैयार मानस ‘बोध’ और ‘व्याख्या’ की परिणति न केवल हम समाज के एक बड़े तबके की बीच बल्कि बड़े पैमाने पर साहित्य के क्षेत्र में भी देख सकते हैं.
हर आलोचक को पहले एक अच्छा पाठक होना चाहिए, ऐसा कहा गया है आज, सोशल मीडिया के इस दौर में, हर पाठक आलोचक है. फिर भी, कहा जा रहा है कि आलोचना संकट में है. आलोचना तो हमेशा ही संकट में रही है. आलोचना का संकट दूसरा है. उसे ‘अपना‘ ‘अपना‘ संकट बनाने का ‘प्रोपेगेंडा‘ नहीं किया जाना चाहिए. कभी, प्रसिद्ध आलोचक देवीशंकर अवस्थी ने तीन तरह के पाठकों की श्रेणी बनाई थी, जिसे आगे चलकर कथाकार और आलोचक दूधनाथ सिंह ने विस्तार दिया था. काश ! हर आलोचक पाठक हो सकता और हर पाठक आलोचक हो सकता? ‘आलोचना का संकट’ और ‘धर्मसंकट’ दोनों दूर हो जाते. दलिद्दर दूर हो जाता, स्वर्णयुग आ जाता. जैसे देश में इस समय किसी तरह का, कोई संकट नहीं है, स्वर्णयुग आया हुआ है.
चेक लेखक वात्स्लॉव हावेल के नाटक ‘द गार्डन पार्टी’ का नायक पहले कुछ सूक्तियों, कुछ नारों और कुछ प्रार्थनाओं को बार-बार दोहराता है, फिर इन नारों और सूक्तियों को अपनी व्यक्तिगत सफलता के लिए अस्त्र की तरह इस्तेमाल करता है और देखते-देखते अपने को सर्वशक्तिमान मान लेता है. मगर, गौर से देखने वाली बात यह है कि क्या सचमुच सर्वशक्तिमान वह तथाकथित नायक है अथवा वे नारे और सूक्तियाँ, जो एक असंगत और दूषित वातावरण में अपना मूल्य खो चुकी हैं. जैसे यह कि ‘हम सबके अमन-चैन की प्रार्थना करते हैं’. पर वास्तव में, उसके लिए इस प्रार्थना का न तो कोई अर्थ है, न ही मूल्य. ऐसा इसलिए कि उस नायक ने इस तरह की प्रार्थनाओं, सूक्तियों को नारों में बदल दिया और समाज को भीड़ में. फिर भीड़ से मनचाही मुरादें पूरी करने लगा. शोर मचाती हुई, चीखती-चिल्लाती एक दूसरे के खून के लिए आतुर भीड़. यह नाटक एक कॉमिक ट्रेजेडी है. समाज की क्रूर सचाई को बहुत सुगठित रूप से पेश करने वाली कॉमिक ट्रेजेडी. इसलिए हमारी चिंता इस समय के ‘बोध’ और ‘व्याख्या’ को लेकर होनी चाहिए है.
लूसिए गोल्डमान ने एक प्रसंग में ‘बोध’ और ‘व्याख्या’ के रिश्ते को अत्यंत ही गंभीरता से विश्लेषित किया है. अपने विश्लेषण में वह स्पष्ट करता है कि, ‘व्याख्या’ एक तात्कालिक समावेशी संघटन है. पर, वह ‘बोध’ के सन्दर्भों के साथ मनमानापन नहीं है. अगर यह मनमानापन सायास है तो ‘व्याख्या’ से मूल कहन को भटकाया जा सकता है. और अगर वह सायास नहीं है तब तो ‘बोधकर्ता’ की समझ ही प्रश्नांकित होती है. पहली वाली स्थिति में फिर भी बौद्धिक दिखने की तार्किकता उन पाठकों को मिल सकती है जो मूल कहन या सन्दर्भ से परचित नहीं हैं. पर, दूसरी स्थिति में लेखक हास्यास्पद और दयनीय स्थिति में पाठकों के समक्ष होता है. हमारी चिंता वर्तमान ‘साहित्यिक-वातावरण’ के उस मन-मिजाज, जिसमें अधीरता, तुरंत निपटाने की उद्धत प्रवृत्ति और सुनने की नहीं केवल सुनाने का जंगी जोश शामिल है, उसको लेकर होनी चाहिए है. लगातार लोकतान्त्रिक स्पेस के कम होते जाने को लेकर होनी चाहिए. हमारी चिंता इस ‘समय’ साहित्य और विचार के नाम पर इकट्ठे हो रहे ‘प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक गोबर के ढेर’ को लेकर होनी चाहिए. हमारी चिंता उस ‘बाजारवाद’ को लेकर है होनी चाहिए, जिसने आज हर चीज को ‘माल’ में तब्दील कर दिया है. अब हर चीज का मूल्य उसके ‘पण्य’ होने में है. ‘उत्पाद’ के फ़ायदे-नुकसान में है.
हिंदी के अनोखे और विरल कथाकार मनोहर श्याम जोशी का यह कथन याद आ रहा है –
“संस्कृति स्वयं में मूल्यहीन बना दी गई है और सांस्कृतिक उत्पाद का एकमात्र मूल्यांकन ‘मुक्त मंडी’ में प्रचलित उसके बाज़ार भाव द्वरा किया जाने लगा है. पैसा कमाने के लिए पहले उसमें विनिवेश किया जाता है और फिर उसका बाज़ार भाव बढ़ाने के लिए विज्ञापन का हर हथकंडा अपनाया जाता है. स्वयं रचनाकार अपना बाज़ार भाव बढ़ाने के लिए आत्म-विज्ञापन का सहारा लेते हैं. कलाकृतियाँ इसलिए ख़रीदी जाती हैं की उन्हें और भी ज़्यादा दाम पर बेचकर जबर्दस्त मुनाफ़ा कमाया जा सके और हाँ, उन्हें खरीद कर अपनी क्रय-शक्ति और सुरुचि विज्ञापित की जा सके. पुस्तकें इसलिए बेस्ट सेलर होती हैं कि हमें बताया जाता है कि उसके लेखक को प्रकाशक ने बतौर अग्रिम कितनी भारी रकम दी थी.”[14]
इसलिए सबसे बड़ी चिंता और चुनौती इन खतरों के प्रति आगाह करने की तुलना में रचना और आलोचना के द्वारा उन्हें न केवल भटकाये जाने को लेकर है बल्कि किसी न किसी तरह से उनको सहयोग देने को लेकर है. दरअसल, ‘समय’ पर उंगली रखना उसकी नकारात्मकता को छीलना और उकेरना भर नहीं होता वरन उन ‘द्वंद्वात्मक-सह-समबद्धताओं’ को उजागर करना होता है जिससे वह ‘समय’ बन रहा है, बनाया जा रहा है. नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था ने, उत्तर-पूंजीवाद की सांस्कृतिक-राजनीति ने आज संस्कृति की अवधारणा और पहचान को ही विकृत और विरूपित कर के रख दिया है. यह ‘अवधारणाओं’ और ‘परिभाषाओं’ को बदलने और विरूपित करने का भी समय है.
रेमंड विलियम्स ने अपनी पुस्तक ‘कल्चर एंड सोसाइटी’ (1950) में समाज और संस्कृति के विभिन्न कलारूपों के विकास और उनके पारस्परिक संबंधों के अध्ययन के लिए तीन आधारभूत बातें कही हैं : 1) सबसे पहले यह देखा जाना चाहिए कि, मानव-मानस के विकास की अवस्थाएँ क्या रही हैं? 2) इस विकास की प्रक्रियाएँ अर्थात् सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गतिविधियाँ किस तरह की रही हैं? 3) इन प्रक्रियाओं को पोषित करने वाला साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण कैसा रहा है? साहित्य, समाज और संस्कृति का सृजन बिना इनको पहचाने संभव नहीं.

2.
जातीय स्मृति के तर्क से भी और सामाजिक-ऐतिहासिक-राजनीतिक परिवर्तनों और विकास की दृष्टि से भी, किसी भी समय को जानने-समझने के लिए उस समय के साहित्य और साहित्य के पक्ष को एक जरूरी प्रमाण के रूप में देखा जाना चाहिए. आज साहित्य पर, साहित्य के पक्ष पर और साहित्य मात्र पर ही क्यों समूची सांस्कृतिक-निर्माण के प्रक्रिया पर बातचीत हमारे समय की ठोस वास्तविकताओं पर आधारित होनी चाहिए. लोकतान्त्रिक समाजों और आधुनिक राष्ट्र-राज्यों में भले ही यह माना जाता हो कि धर्म का राजनीतिक प्रभुत्व नहीं रहा. पर भारत जैसे समाजों के लिए यह पूर्णतः सच नहीं है.
आज भी भारतीय समाज का अधिकांश हिस्सा धार्मिक रूढ़ियों और ढकोसलों के ऊपर विश्वास और आस्थाओं से संचालित होता है. भारत ऐसे समाजों में आता है जहाँ धर्म आस्था से अधिक भीरुता के नाते, प्रेम से अधिक नफरत के नाते, नीति से अधिक राजनीति के नाते, भक्ति से अधिक पाखंड के नाते अपनी सत्ता और अपना वर्चस्व कायम किए हुए है. आज जो माहौल है, धार्मिक-उत्ताप और नागरिक-अवसाद के बीच जो गहरा संबंध है, उसमें एक लेखक, एक साहित्यकर्मी-संस्कृतिकर्मी के लिए जो सबसे बड़ा सवाल है, वह यह है कि हम साहित्य और संस्कृति का पक्ष किसके सापेक्ष, किसके बरक्स तय कर रहे हैं? किसी पूर्व-निर्धारित ‘मूल्य’ और ‘आदर्श’ के सापेक्ष, किसी निरपेक्ष सार्वभौम सम्पूर्ण सत्य के सापेक्ष, बाज़ार, माल और मूल्य के सापेक्ष अथवा अपने समय की मौजूद स्थितियों-परिस्थितयों की वास्तविक छवियों के सापेक्ष.
यह एक मनोवैज्ञानिक मान्यता है कि आप तनाव और चिंता में आनंद नहीं उठा सकते. किन्तु जब इस तनाव को ठोस भौतिक और लौकिक समस्याओं और चिंताओं से शिफ्ट कर के किसी आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति और उसके त्राणदाता स्वरूप में लय कर दिया जाता है तो वह तनाव में भी आनंद उठाने लगता है. कोरोना महामारी के बीच जिस तरह से ताली, थाली, शंख, घंटे, घड़ियाल बजवाये गए, जिस तरह से समूचे मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग की जनता के लिए रामायण और महाभारत जैसे टी. वी. धारावाहिकों की पुनर्बहाली की गयी उसका उद्देश्य स्पष्ट था. अबाध रूप से इस समय ‘ऑनलाइन’ तरह-तरह के रूप-रंग में साहित्य का जो ‘वर्चुअल’ बाज़ार सजा है, क्या उसका पक्ष और उद्देश्य भिन्न है?
बाज़ार में हम किसी एक उत्पाद या प्रतिष्ठान या दुकान के कुछ कारणों से निंदक और आलोचक हो सकते हैं. परंतु, बाज़ार आपकी आलोचना और निंदा के लिए पहले से ही ‘स्पेस’ बनाकर रखता है और हमारे-आपके मनोनुकूल मुहैया करा देता है. इसमें स्वाभाविक है कि मुनाफा बाज़ार का ही होता है पर प्रकारांतर से आपको लगता है कि चलो हम भी किसी न किसी तरह से इसका फायदा उठा ही लेंगे. इसलिए जिस निंदा और आलोचना के साथ आप प्रतिपक्ष में अपने को खड़ा मान रहे थे, बाज़ार ने आपको प्रतिद्वंद्विता में लाकर खड़ा कर दिया है –
“याद रखिए सर्वाधिकारवादी व्यवस्थाएं विरोधी कलाकारों को कारावास, देश निकाला, मृत्युदंड आदि से दंडित करती हैं मगर बाज़ारवादी व्यवस्था तो उन्हें सोखकर आत्मसात कर लेती है और उन्हें सजावट की सामग्री में बदल देती है और इस तरह उनके सम्पूर्ण विद्रोह के हाथ-पाँव ही काट-छांट देती है या यह कहें कि विद्रोह को तब तक ही तरजीह देती है जब तक वह बाज़ार में बिकने लायक हो.”[15]
बाकी, यह तो पता ही है कि प्रतिद्वंद्विता कभी भी समानता पर आधारित नहीं होती. बल्कि इसका आधार यह तथ्य होता है कि एक पक्ष दूसरे पक्ष पर असहनीय प्रहार करने की कितनी क्षमता रखता है. आज जब ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ से आगे ‘वोकल’ होने की बात की जा रही है तो हमें इस ‘वोकल’ के निहितार्थ को समझना होगा. ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ का नारा तो पुराना है, पर यह ‘वोकल’ नया है. इस ‘वोकल’ के साथ ही ‘आत्मनिर्भरता’ का नारा दिया गया है. ‘आत्म’ ही नहीं होगा तो ‘आत्मनिर्भरता’ क्या ‘वर्चुअल’ दुनिया से आएगी, जहाँ सब कुछ ‘वोकल’ ही ‘वोकल’ है.
खंडित आत्म, खंडित चेतना और खंडित समय की मनोदशा और साहित्य के रिश्ते और उसकी जरूरत के पक्ष से मैं जब यह बात कह रहा हूँ तो इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाय कि समय को निपट वर्तमान के अर्थ में ही देखा जा रहा हो. वास्तव में तो साहित्य के लिए समय वही नहीं है जो हमारा निपट वर्तमान है वरन् वह समय भी है जो हमें भविष्य में अपेक्षित है. इसलिए भी हमें आज इस पूरे साहित्यिक-माहौल को साहित्य के ‘बैलेंस शीट’ की तरह देखना चाहिए. प्रसिद्ध इतिहासकार रजनी पाम दत्त का उल्लेख करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि,
“जब समाज दोराहे पर खड़ा होता है, जहाँ उसे विकल्प की तलाश होती है, उस समय यदि जनतांत्रिक शक्तियाँ इतनी बलवती होती हैं कि विकल्प दे सकें तो विकल्प मिल जाता है, अगर ऐसा नहीं होता या भटकाव की स्थिति बनी रहती है तो फासीवाद का उदय होता है.”
भविष्य के बारे में अटकलें लगाना, उसकी दिशा और दशा के बारे में अपने से सवाल पूछना, जिंदगी जीने का एक हिस्सा होता है. जिस समय और समाज को लेकर हम चिंताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है? रोड मैप क्या है?
साहित्य और समाज की पुरानी चुनौतियों के साथ-साथ आज हमारे सामने अनेक नई और बहुविध चुनौतियाँ उभरकर आयी हैं. राजनीतिक उत्पातों से लेकर बाज़ार में उपलब्ध भिन्न-भिन्न उत्पादों (जिसमें साहित्यिक-उत्पाद/उत्पात भी सम्मिलित है) तक में आज एक निर्लज्ज किस्म का बाजारू प्रोपेगैंडा रचकर जिस तरह से रुचियों, जरूरतों, विचारों और चयन की स्वतंत्रताओं को प्रभावित किया जा रहा है, बिगाड़ा जा रहा है उसकी चिंता उसका प्रतिरोध साहित्य के अन्दर कहाँ है?
अगर टेरी ईगल्टन की माने तो क्या इस अरुचि का एक सीधा रिश्ता ‘कमोडीफिकेसन ऑफ लिटरेचर’ से नहीं है. नव उदारवादी/पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में, क्रय और विक्रय के तर्क से हर चीज एक ‘उत्पाद’ है, एक ‘माल’ है, इसके अलावा कुछ नहीं. क्या साहित्य भी, चूँकि बेचा-खरीदा जा रहा है, इसलिए माल मान लिया जाना चाहिए? माल के रूप में किसी वस्तु को उत्पाद बनाकर जब बाज़ार में जिस बाज़ार-मूल्य के साथ उतारा जाता है, उसके पहले ही उस उत्पाद का ‘अतिरिक्त-मूल्य’ मुनाफे के रूप में सेठ और उसके बिचौलियों तक पहुँच जाता है. घर बैठे आज जो ‘अतिरिक्त मूल्य’ पर ‘अतिरिक्त मूल्य’ कमाने की ‘ऑनलाइन’ कोशिश जारी है, वह ‘कॉमोडिटी’ नहीं तो क्या है?
हम जैसे अर्थशास्त्र का कुछ भी न जानने वाले इतना तो जानते हैं कि क्रय-विक्रय, लेन-देन, लाभ-हानि के गणित के बिना व्यक्ति अपनी सबसे छोटी उंगली जिसे कनिष्ठिका कहते हैं, वह भी नहीं हिलाता. कोविड महामारी में लॉकडाउन के दरम्यान ख़बर आती है कि फेसबुक जीयो (JIO) के यहाँ शेयर लगा रहा है. मुकेश अंबानी, अलीबाबा के मालिक जैक मा को पछाड़ कर दक्षिण एशिया के सबसे बड़े पूंजीपति बन जाते हैं. रिपोर्ट आती है कि इसी लॉकडाउन के दरम्यान गूगल, एप्पल, फेसबुक, अमेजन (GAFA) का फायदा अचानक बढ़ गया है. इसलिए, लाभ-हानि का गणित थोड़ा जटिल है, इतना मासूम भी नहीं.
साहित्य सचेत विचार का परिणाम होता है. साहित्य के लिए सदा से ही इस सरोकार की बात की जाती रही है कि उसे ‘भीड़’ को ‘समाज’ में बदलने का प्रयास करना है. यदि आप वास्तविक सामाजिक संघर्षों से जुड़े बगैर साहित्य और संस्कृति के प्रश्नों को हल करना चाहते हैं तो वह उतना ही आसान होगा जैसे केवल ‘क्रान्ति’ ‘कामरेड’ और ‘लाल सलाम’ जैसे शब्दों को ओढ़कर उग्र ‘वामपंथी’ बनना और झंडे गाड़कर शिविरों और शाखाओं में दंड पेलते हुए कट्टर सोच-विचार के साथ फासीवादी एजेंडे को मनवाने के लिए अति ‘दक्षिणपंथी’ होना. ईश्वर, धर्म, पंथ, विचार ये सब मनुष्य की ईजाद हैं. मनुष्य ने अपनी सामाजिकता और सामुदायिकता के लिए इन सबको बनाया. पर, आज ये सब मनुष्य के ऊपर उसकी सीमाओं से पार उसी को डराने और शोषित करने के माध्यम बन गए हैं. महान कथाकार गोर्की जब यह कहते हैं कि-
“मेरे ख्याल में दुनिया में ऐसे कोई भी विचार नहीं हैं जिनका अस्तित्व मनुष्य की सीमाओं से बाहर हो. मैं यह मानता हूँ कि केवल मनुष्य ही सब वस्तुओं और सब विचारों का रचयिता है. चमत्कारों को पैदा करने वाला और सभी प्राकृतिक शक्तियों का भावी स्वामी भी वही है. कलाओं की दुनिया में जो भी कुछ सबसे सुन्दर है, वह मनुष्य के श्रम द्वारा, उसके चतुर हाथों द्वारा निर्मित हुआ है. श्रम की ही प्रक्रिया में हमारे सभी विचार और भावनाएँ प्रस्फुटित हुई हैं और यह बात कला के इतिहास, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को देखकर और अधिक पुष्ट होती है. विचार तथ्य का अनुगमन करता है. मैं मानव के प्रति श्रद्धा से नत हूँ क्योंकि इस संसार में जो कुछ भी है वह मनुष्य के विवेक, उसकी कल्पना और विचार-शक्ति का ही परिणाम है. उसने उसी तरह ईश्वर का आविष्कार किया है जैसे फोटोग्राफी का. अंतर केवल इतना है कि कैमरा वही दिखता है जो कुछ वस्तुतः उपस्थित है, जबकि ईश्वर मनुष्य की अपने बारे में गढ़ी गई आदर्श कल्पना की तस्वीर है जो बनने की उसकी इच्छा है यानी सर्वांग, सर्व – शक्तिमान और पूर्णतः न्यायप्रिय हो सकने की कामना….यदि पवित्रता के विषय में कुछ कहने की जरूरत है तो मैं कहूँगा कि मेरे लिए पवित्रता का एक ही मतलब है, और वह है मनुष्य का स्वयं के प्रति असंतोष, जो वह है उससे बेहतर बनने की उसकी तड़प, जीवन में विकसित हो रही उन वाहियात चीजों के प्रति उसकी घृणा जिसे उसने खुद ही पैदा किया है. अपने से रचे उसके संसार के सभी लोगों में फैली ईर्ष्या, लोभ,अपराध, रोग, युद्ध और शत्रुता के समाप्त कर देने की उसकी इच्छा को भी मैं पवित्र मानता हूँ” –
तो स्पष्ट है कि वे मनुष्य की विचार-शक्ति और सत्ता को किस मुकाम पर रखना चाहते हैं.
मुझे याद आ रहा है, किसी अंग्रेजी पत्रिका में पढ़ा था, पिछली शताब्दी के नवें या आखिरी दशक में ब्रिटिश संसद के अपर-हाउस में ‘कविता’ की स्थिति और भविष्य को लेकर बहस हुई थी. कैसी कविताएँ लिखी जा रही हैं इस पर चिंता व्यक्त की गयी थी. सदन में यह प्रस्तावित किया गया था कि अच्छी कविताओं की जरूरत आज और अधिक है. हमारे देश की संसद के पास ऐसी किसी बहस या चिंता का कोई उदाहरण हमारे पास है क्या? इस देश में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर को मिलकर बहुत सारे राजनीतिक दल हैं. किसी भी दल में कोई साहित्यिक नीति है क्या? जो वामपंथी दल हैं उनकी भी साहित्य-विषयक कोई स्पष्ट नीति नहीं है कमोवेश उनके लेखक संगठनों के कुछ सक्रिय किन्तु निष्प्रभावी हस्तक्षेपों और प्रयासों के उदाहरण के अतिरिक्त.
आज राजनीतिक ही नहीं बल्कि ‘साहित्य’ और ‘लेखक’ जैसी संस्थाओं के साथ-साथ सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है. साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिंता नहीं. हमें इस पर नज़र रखने की ज़रूरत है कि राष्ट्र-राज्य के साथ-साथ बाज़ार सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण, संचालन और नियंत्रण कैसे कर रहा है? उसकी मूल मंशा क्या है? इन स्थितियों-परिस्थितयों में साहित्य का पक्ष क्या होना चाहिए इसका उत्तर पा लेने से पहले यह पूछा जाना चाहिए कि :
- जिस समय और समाज को लेकर हम चिंताग्रस्त हैं उसी समय और समाज के अन्दर पहुँचने और पसरने की कार्य-संस्कृति के लिए साहित्य के पास आज मुद्दा क्या है? रोड मैप क्या है?
- राजनीति जिन सवालों पर चुप है साहित्य अपने सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्व के साथ उन सवालों को, उन बिन्दुओं को उठा रहा है?
- सूचना की ‘महाक्रांति’ वाले इस समय में एक शाश्वत समयहीनता में गुजर-बसर कर रहे जी रहे लोगों को उनके समय से जोड़ने का कोई कार्य साहित्य कर पा रहा है?
- कॉमोडिटी में बदलते चले जाने की जो प्रवृत्ति इधर बहुत तेज़ी से साहित्य में पैदा हो गयी है, बाज़ारवाद के इन ‘जर्म्स’ से क्या हमारे समय का साहित्य बचा रह सकेगा?
- साहित्य में ‘प्रोपेगैंडा’ पहले भी चलता रहा है और आज भी है. पर, इधर दिखने और कहने में अति-लोकतांत्रिक पर वास्तविकता में कुछ और, सोशल मीडिया एवं अन्य सेटेलाईट माध्यमों के चलते साहित्य में एक ‘आतंरिक उपनिवेशवाद’ (Internal Colonialism) जैसी मनोवृत्ति और संरचना का विकास होता दिख रहा है. साहित्य में एक बड़े शहरी मध्यवर्ग के लोभ-लाभ के संस्कारों और बौद्धिक गतिविधियों के बीच जो दरार है, क्या साहित्य इसे प्रश्नांकित कर पा रहा है?
- 20-30 साल के आयु-वर्ग वालों की एक पूरी नयी पीढ़ी उभर कर आयी है. हमारे प्रधान मंत्री जिन्हें ‘माउस चार्मर’ पीढ़ी कहते हैं. यह पीढ़ी बहुत ‘स्मार्ट’ पीढ़ी है और इनके लिए ‘स्मार्टनेस’ का एक ही अर्थ है – ऐसी स्किल जो किसी भी तरह से अपना काम सिद्ध कर सके– और उस सिद्धि को, फल को मीडियाकरी के सहारे तार्किकता का जामा पहनाकर वैधता देने की कोशिश करे. यह स्किल, यह तार्किकता, यह वैधता दरअसल पूँजीवादी मूल्यों का, बाजार का विस्तार है, वैधता है. इस स्किल में वे युवा भी शामिल हैं जिन्हें मक्सिम गोर्की मानते हैं कि ‘वे साहित्य और संस्कृति के नाम पर अहमवादी व्यक्तित्व का मात्र खाल ओढ़े, आत्मा में थकान और मन में व्यग्र करने वाली आशंकाएं लिए कभी समाजवाद से इश्क फरमाते हैं तो कभी पूँजीवाद की खुशामद करते हैं. उनकी निराश एक भयंकर अनास्था का रूप ले लेती है. कल तक जिसकी वह पूजा करते आये थे आज उसी को उन्मादी की तरह नकारने और आग में झोंकने लगते हैं.’ क्या साहित्य इस चालाक ‘स्मार्टनेस’ को चिह्नित कर पा रहा है और यदि कर पा रहा है तो उसका पक्ष क्या है?
- साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में अब कितनी जान बची है? वे किस तरह की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं? राम विलास शर्मा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, “किसी भी संगठन को लुंजपुंज नहीं होना चाहिए. लुंजपुंज संगठनों से मेले हो सकते हैं , कोई ठोस काम नहीं.”
- आज साहित्य की ही नहीं सभी तरह की सांस्कृतिक संस्थाओं का जो क्षरण हुआ है, पतन हुआ है उसका हमारे समय पर, हमारी सोच पर, हमारी सृजनशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है. साहित्यिकों, सामाजिकों और राजनीतिकों में इस बात को लेकर कोई चिंता है?
- क्या धर्म संसद, विज्ञान कांग्रेस, इतिहास कांग्रेस, समाजविज्ञान कांग्रेस जैसी सालाना संसदों की तर्ज़ पर साहित्य संसद जैसी कोई सालाना बैठक है? ‘लिटरेरी फेस्टिवल’ की बात मैं यहाँ नहीं उठा रहा.
- सेटेलाईट माध्यमों के आक्रमण के आगे समाज का अधिकांश हिस्सा आत्मसमर्पण करता जा रहा है. हम अपने ही देश में सांस्कृतिक रूप से विस्थापित हैं. सांस्कृतिक-राजनीतिक मुँहजोरी का इतना भव्य और आकर्षक किन्तु विकृत रूप इतने अकुंठ भाव से पहले कभी नहीं हुआ. झूठ को इतना भव्य और आकर्षक बनाकर पेश करने की इतनी कोशिश पहले कभी नहीं दिखी. धर्म का वितंडा इधर न छटने वाले कुहासे की तरह पसरता जा रहा है. सनसनी और अफवाहें जहरबाद की तरह अपने असर में फैलती जा रही हैं. इस तरह की प्रवृत्तियों को रोकने के लिए साहित्यकार लेखन के अलावा और क्या कार्य कर सकते हैं?
इन उपर्युक्त प्रश्नों के अलावा और भी बहुत सारे प्रश्न हो सकते हैं. इन प्रश्नों में ही इस बात का उत्तर भी शायद मिल गाय हो कि ‘साहित्य का पक्ष’ आज क्या होना चाहिए. अगर, आज हमें इस बात की चिंता है कि, हमारे समय में साहित्य का पक्ष क्या हो, तो निश्चित तौर पर इन या इन जैसे और अनेक प्रश्नों के साथ सोचने-विचारने और उनका उत्तर पाने का माहौल बनाना चाहिए न कि साहित्य को ‘कॉमोडिटी’ में बदलते जाने में सहयोग देना चाहिए. यह तो तय है कि साहित्य कभी भी उस तरह से फ़ायदे-नुकसान का और सफलता-असफलता का मैदान नहीं है जिस तरह से बाज़ार में उपलब्ध अन्य वस्तुएँ. हिंदी के एक कवि की नज़र से देखें तो –
“जिनका लक्ष्य कैरियर है या व्यवसाय, सफलता जैसे शब्द का अर्थ उन्हीं के लिए सही हो सकता है….हर ईमानदार रचनाकार में असफल होने की गहरी टीस बनी रहती है जो दिनोंदिन और भी गहरी होती जाती है. यह असफलता ही उसकी रचना को प्रामाणिक बनाती है. मुक्तिबोध शायद इसीलिए बार-बार यह दोहराते रहते हैं कि ‘अब तक क्या किया जीवन क्या जिया’. यह पंक्ति एक अभूत बड़ी असफलता का शोकगीत ही तो है. हर रचनाकार को इस प्रश्न से बार-बार रूबरू होना पड़ता है. बार-बार टकराना पड़ता है. और बार-बार इस प्रश्न से टकराते हुए उसे असफलता का अहसास होता है. बाज़ार अगर इस अहसास को रचनाकार में कम करने या खत्म करने में सफल हो जाता है तो मान लेना चाहिए कि वह सृजनात्मकता को समाप्त कर देने में भी एक दिन सफल हो जाएगा….वह लेखक-कलाकार के सामने सफलता के नए-नए मायालोक रचता है. वह सर्जक की सोच-समझ को अपने अनुकूल करने के लिए उसे पथभ्रष्ट करने की कोशिश करता है….उसके तिलिस्म का सारा दारोमदार इस पर टिका होता है कि वह सर्जक को कितना भ्रष्ट कर पाता है.”[16]

3.
आज इक्कीसवीं सदी के दो दशक पूरा होते-होते ‘संस्कृति’ समाज की सहज परिभाषा के रूप में नहीं बल्कि ‘बाज़ार’ के नियंत्रण, संचालन और उसके द्वारा उपलब्ध कराये गए साँचों और विकल्पों में ही परिभाषित और पहचानी जाती है. पर, असफलता के बावजूद बड़े पैमाने पर न सही इस तरह की ‘बाज़ारू संस्कृति’ के प्रतिरोध में, उसके समानान्तर समाज की सहज परिभाषा गढ़ने और बनाने में कुछ रचनाकार और आलोचक अपना योगदान दे रहे हैं. रिक्तता और शून्यता के मूल्यांकन और उससे उत्पन्न निरर्थक हताशा केवल उपलब्धियों के आकलन से नहीं दूर होती है, प्रयत्न-पक्ष की संभावना और सराहना से ही दूर होगी. आलोचक को सबसे अधिक निराशावादी माना जाता है, पर हिंदी में आज उलटा हो रहा है. कुछ रचनाकारों और तथाकथित आलोचकों की हताशा चरम पर है. आशावादी होना गलत नहीं है, बालसुलभ आशावाद आत्मघाती होता है. भविष्य के बारे में सोचना, अटकलें लगाना, उसकी दिशा और दशा के बारे में दूसरों के साथ-साथ खुद से सवाल पूछना वास्तविक ज़िंदगी जीने का एक ज़रूरी तरीका होता है. अपने-अपने ढंग से रचनाकार और आलोचक दोनों यह कार्य करते हैं.
दुनिया भर में संकीर्णता और कट्टरता का जो भी इतिहास रहा हो पर सौभाग्य से हमेशा उसका प्रतिरोध मानवीय गरिमा और मानवाधिकार के पक्ष में लिखने, रचने और बोलने वाले साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृत कर्मियों ने ही किया है. जाति, धर्म, देश इन सबसे परे जाकर किया है. एक लेखक मानवीय गरिमा, धार्मिक-सहिष्णुता, वैचारिक-स्वातन्त्र्य, अभिव्यक्ति की आजादी और तार्किक व वैज्ञानिक समाज के निर्माण और विकास के पक्ष में अपने रुख को हमेशा से ही स्पष्ट करता रहा है, अपनी रचना और अपने व्यवहार दोनों में. जो लेखक और आलोचक आज तेजी से बदलते यथार्थ को एक बड़े फ़लक पर, उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक कोटियों को समझने-जानने और उसका आलोचनात्मक-सृजनात्मक पहलू ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं वे ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं. नाम न लेकर प्रवृत्तियों को रेखांकित किया जाय तो बात के ‘वस्तुनिष्ठ’ बने रहने की संभावना होती है.
आज कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में सक्रिय लोगों में से कुछ लोग अपनी सृजनात्मकता में जिस तरह से अपने समय के यथार्थ को रचकर सामने ला रहे हैं. आलोचना उससे एकदम अनभिज्ञ और अपरिचित है यह कैसे कहा जा सकता है. उत्पादन के नए रूपों की पहचान, आर्थिक, वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक शक्तियों के साथ ज्ञान के विनियोजन की पहचान, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विधान (आर्डर) के व्यवहार और विमर्श की जानकारी, राष्ट्रीयता और नागरिकता की नयी समस्यायों पर सूक्ष्म नजर, मिडिया का निरंतर पूँजी बटोरती और सच को झूठ रचती संस्था की ओर शिफ्ट होने आदि मसलों के साथ आलोचक अपने समय को रचना में तलाश रहे हैं, उसे पढ़ रहे हैं. मुश्किल तब होती है जब हम इसकी अपेक्षा करने लगते हैं कि आलोचना का कार्य ‘सभी चीजों के लिए जगह और हर चीज अपनी जगह’ को सिद्ध भर करना होता है. माफ करें, आलोचना को अनुशासन कहने का मतलब इतने सरलीकृत रूप में भी नहीं लगाना चाहिए. आलोचना पंसारी की दुकान तो नहीं ही है. ‘संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने’ आलोचना की प्राथमिक और अनिवार्य शर्त होती है. मुश्किल यह है कि हिंदी कुछ रचनाकार सफलता और उपलब्धियों को ही साहित्य का सच मान चुके हैं, ऐसे रचनाकारों की नज़र में अगर आलोचना का विकास अवरुद्ध सा हो गया जान पड़ता है तो यह आलोचना का संकट नहीं, बल्कि संकट कुछ और है.
वस्तुतः हिंदी में अभी भी हम शीत-युद्ध कालीन साम्राज्यवादी नीतियों की प्रेतछाया से लड़ रहे हैं, जबकि नए राजनीतिक-आर्थिक-विश्व ने उस प्रेतछाया का श्राद्ध-कर्म कर, न जाने कबका उससे मुक्ति पा ली है. दरअसल, समय के आवर्तों के साथ न चल पाने और एक ही तरह के सोच-विचार के चलते धीरे-धीरे विचारों और आग्रहों में भी एक खास तरह का ‘रीतिवाद’ (स्टीरियोटाईप) रूढ़ हो जाता है. इसके चलते एक अतिवादी आग्रह कई बार असंगत और अतार्किक होते-होते मूल मुद्दे से इतर ‘प्रेतछाया’ को ही सबकुछ मान लेता है. ‘भक्तमंडली’ इस प्रेतछाया को पूजने लगती है और विरोधी उसे दुराने लगते हैं. किसी भी रचना या रचनाकार को, इस ‘रूढ़’ आग्रह के द्वारा न देखा जा सकता है न ही निर्णायक उक्ति के साथ नाकारा जा सकता है. आलोचना का यह काम नहीं है.
“आलोचना को जीवनदायिनी होना चाहिए और उसे स्वभाव से अन्याय, आधिपत्य और अत्याचार का विरोधी होना चाहिए. उसका सामाजिक लक्ष्य है मनुष्य की स्वतंत्रता के पोषक ज्ञान का सहज उत्पादन. जो आलोचना मनुष्य की स्वतन्त्रता की पक्षधर होगी वही सच्चे अर्थों में सामाजिक होगी और साहित्यिक भी क्योंकि, सच्चे साहित्य का लक्ष्य मनुष्य की स्वतन्त्रता की साधना ही है. जो आलोचना केवल साहित्यिक रचना की कद्रदानी या पुरानी भाषा में रसास्वादन तक ही सीमित होगी वह परोपजीवी होने के लिए अभिशप्त है.”[17]
आलोचना अपनी प्रकृति में सच को सच की तरह और भ्रम व मिथ्या को मिथ्या-भ्रम की तरह देखने, परखने और पहचानने का एक एक जोख़िम भरा कार्य है. इसलिए ‘सब बढ़िया है, सब बढ़िया है’ का अनुकीर्तन आलोचना का काम नहीं है. इसी अर्थ में हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक शिवदान सिंह चौहान ने आलोचना को परिभाषित करते हुए लिखा है –
“व्यापक अर्थों में आलोचना मनुष्य की आत्मचेतना है. साहित्य और कला के रूप में निर्माण की हुई अपनी अर्थवान रचना के सुन्दर-असुंदर, शुभ-अशुभ, सत्य-असत्य पक्षों के प्रति जागृत चेतना है…. एक बार जब आलोचना का जन्म हो जाता है, तो वह साहित्य-कला की केवल तटस्थ व्याख्याता या निरपेक्ष द्रष्टा ही नहीं बनी रहती. सांस्कृतिक परम्परा और मनुष्य के अर्जित ज्ञान का समाहार करके वर्तमान की ऐतिहासिक चेतना लेकर संवेदनशील, युगद्रष्टा आलोचक प्राचीन और सामयिक साहित्य की कृतियों का मूल्य आंकते हुए नए व्याख्या सूत्रों की उद्भावना भी करता है…इस प्रकार आलोचना स्वयं एक रचनात्मक क्रिया है.”[18]
इस उद्धरण में संकेत में कही गयी बातों को समझने की कोशिश की जाय तो आलोचना के व्यापक और वृहत्तर सरोकारों की बात सामने आती है. मैं आलोचना को एक ऐसा दायित्वपूर्ण सजग आलोचनात्मक कार्यवाही मानता हूँ जो साहित्य के परिप्रेक्ष्य से उन सामाजिक- सांस्कृतिक स्थितियों-परिस्थितियों और उनको निर्मित करने वाली ‘संरचनाओं’ को विवेचित करे जिनमें हमारे समय-समाज के उन प्रश्नों और दबावों से उपजने वाली संघर्ष और तनावपूर्ण निर्मितियों के ‘ट्रेंड्स’ मिलते हों. इसी अर्थ में आलोचना मेरे लिए एक चुना हुआ बौद्धिक-अकादमिक दायित्व होने के साथ ही साहित्यिक और सामाजिक दायित्व भी है. जिसे हिंदी के एक महत्वपूर्ण आलोचक देवीशंकर अवस्थी ‘बौद्धिक-व्यवसाय’[19] के रूप में व्याख्यायित-परिभाषित करते हैं.
सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों को निर्मित करने वाले समकालीन प्रभावों को जाने-परखे बिना साहित्य की प्रवृत्तियों और धाराओं का विश्लेषण आलोचक नहीं कर सकता. इसलिए आलोचक को विविध ज्ञान और अनुशासन की जानकारी रखना भी उसका सरोकार है अन्यथा तो उससे साहित्य की जातीय-संस्कृति छूटती चली जायेगी. इसी को मुक्तिबोध ‘जिंदगी के प्रतिबिम्बों के विभिन्न पैटर्न्स’ कहते हैं –
“कहा जाता है कि, साहित्य जीवन का प्रतिबिम्ब है. इस खंड-तथ्य को हम यों भी कह सकते हैं कि, साहित्य में इन प्रतिबिम्बों की रचना अनेक पैटर्न्स में होती है….आलोचक या समीक्षक का कार्य, वस्तुतः कलाकार या लेखक से भी तन्मयतापूर्ण और सृजनशील होता है. उसे एक साथ जीवन के वास्तविक अनुभवों के समुद्र में डूबना पड़ता है और उससे उबरना भी पड़ता है, कि जिससे लहरों का पानी उसकी आँख में न घुस पड़े. अपने वर्ग, समाज या श्रेणी की जिन्दगी में अपनी जिन्दगी की सही हिस्सेदारी के बगैर, जो समीक्षक उस जिन्दगी के पैटर्न्स का मूल्यांकन करने बैठता है वह कभी भी सच्ची आलोचना नहीं कर सकता.”[20]
इसलिए आलोचना का यह दायित्व है कि वह गतिशील सामाजिक मूल्यों और बदलते हुए सांस्कृतिक व्यवहारों के साथ रचना को जोड़कर देखने, व्याख्यायित करने और मूल्यांकित करने की कोशिश करे. इसी सन्दर्भ में यह कहना होगा कि, आलोचना के मानदंड स्थिर नहीं हो सकते. आलोचना के क्षेत्र में कुछ भी निर्णीत नहीं होता. उसे निर्णीत बनाने की जिद होनी भी नहीं चाहिए. वह जो लेनिन ने कहा है न कि, ‘Nothing is final’. कुछ वैसी ही बात है. नियत मानदंड और प्रतिमान वाली आलोचना का रूप स्थिर और जड़ होगा. ऐसी आलोचना में अमूर्त मूल्यों का बिना सन्दर्भ के निर्गुण भाषा में प्रत्याख्यान और उपदेश प्रमुख हो जाता है. आलोचना इस तरह के किसी भी यथास्थितिवादी प्रवृत्ति से संघर्ष करती है.
जब इस प्रस्तावना और उद्देश्य साथ हम आज की आलोचना और उसके प्रयत्न-पक्ष पर नजर गड़ाते हैं तो जिस उद्देश्य और मुद्दे पर, जिस चिंता और चुनौती को लेकर आज की आलोचना सक्रिय है, वह नाउम्मीद नहीं करती. उग्र हिन्दूवाद, धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिकता, फासीवाद, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद, नव-साम्राज्यवादी पूँजी के खेल जैसे मानव-हितों की विरोधी प्रवृत्तियों के साथ दलित, स्त्री, आदिवासी समाजों की वर्गीय संरचनाओं और उनकी अस्मिताओं पर सामाजिक-आर्थिक नजरिये से आज की आलोचना सोच रही है और अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही है. साहित्य को भिन्न-भिन्न अनुशासनों, उसके सामाजिक-साहित्यिक परिप्रेक्ष्य, उन परिप्रेक्ष्य को निर्मित करने वाली शक्तियों, सत्ताओं, सत्ता-संस्थानों और संरचनाओं के अस्तित्व पर भी उसकी नजर है.
युवा-पीढ़ी की आलोचनात्मक-चेतना साहित्यिक और सांस्कृतिक विवेचन की दृष्टि से इधर निरंतर व्यापक और विस्तृत हुई है. युवा आलोचना ने समय के साथ साहित्य से अपने रिश्ते को लगातार गहरा और ईमानदार बनाया है. समकालीन रचनाशीलता के प्रति वह अधिक विचारवान हुयी है. हमारी पीढ़ी की आलोचना में परम्परा-बोध को, इतिहास को समझने और बरतने का ढंग बदला है. बहुत से लोगों का मानना है कि, युवा-पीढ़ी की आलोचना में परम्परा-बोध और इतिहास–बोध नहीं है. पर, यह कैसे संभव है? ‘आलोचना’ बिना इसके अपना कार्य कैसे कर सकती है. हाँ, यह जरूर है कि वह ‘परम्परा’, ‘इतिहास’ आदि के नाम पर संस्कृति के ‘ग्लोरिफिकेशन’ से वाक़िफ़ है. अगर, इस तर्क से देखा जाय तो परम्परा और इतिहास-बोध में दरार जरूर पैदा हुयी है.
“पुराने कुफ्र और आज के ईमान में अब कोई रिश्ता बाक़ी नहीं रह गया है.”[21]
आलोचना का एक महत्वपूर्ण सरोकार ‘समकालीन-रचनाशीलता’ से उसके संवादी रिश्ते को लेकर है. रचना और आलोचना के पारस्परिक रिश्ते को लेकर खूब लिखा-पढ़ा गया है. इनके बीच का रिश्ता अधिकतर विसंवादी ही रहा है. रचनाकार का यह आरोप कि, आलोचक ने उसकी रचना को समझा ही नहीं है, उसने अपने मन और विचार से असंगत निष्कर्षों को मेरी रचना पर थोप दिया है. दरअसल, मैं इसे आलोचना की कोई समस्या ही नहीं मानता. यह समस्या तब पैदा होती है जब हम आलोचना को केवल व्याख्यात्मक आलोचना के सीमित लक्ष्य में घटा कर देखते हैं.
आलोचना केवल व्याख्या भर नहीं है न ही वह केवल टीका है. पहले भी यह माना जाता रहा है और आज भी जो लेखक मानते हैं कि, आलोचना का कार्य केवल रचना की प्रक्रिया, अर्थवत्ता, सार्थकता और वर्ण्य-विषय की व्याख्या तक सीमित है वह आलोचना के दायित्व और सरोकार को कमतर करते हैं. दरअसल, यह माँग ‘रचना की स्वायत्तता’ की तरह ‘आलोचना की स्वायत्तता’ की मांग है. इसके पीछे ‘व्याख्यावादी’ भाष्यकार आलोचकों का यह तर्क है कि,
“आलोचना का कृति केन्द्रित व्याख्यात्मक रूप ही वस्तुनिष्ठ हो सकता है या कम से कम वहां आलोचना की स्वायत्तता की सम्भावना अधिक है.”[22]
सवाल यह है कि, क्या ‘व्याख्या’ केवल अर्थापन भर है, अर्थ की निष्पत्ति मात्र है या उस व्याख्या का कोई देश-काल भी होगा, कोई ‘कुल-शील’ भी होगा? अगर, ऐसा है तो आलोचना किसी न किसी दृष्टि-सापेक्षता में ही सम्पन्न होगी और उसे होना भी चाहिए. इसीलिए, किसी भी तरह की ‘स्वायत्तता’ निरपेक्ष नहीं होती. अब प्रश्न यह है कि, मनचाही ‘स्वायत्तताओं’ की सापेक्षिकता ही आलोचना का दायित्व है तब तो स्थिति चिंतनीय हो जायेगी.
आलोचक को राजशेखर ने बहुत पहले ही ‘आरोचकी’ और ‘तत्वाभिनिवेशी भावक’[23] की भूमिका में रखा है. किसी रचना की व्याख्या करना आलोचना का प्राथमिक किन्तु सीमित लक्ष्य है. उस रचना में अन्तर्निहित लक्ष्य को लक्षित कर उसे सांस्कृतिक-विवेक के साथ मूल्यांकित करना आलोचना का अंतिम और व्यापक उद्देश्य है और एक अनिवार्य सरोकार भी. आलोचना तो एक ‘इंटिग्रल टास्क’[24] है. इसीलिए उसका सरोकार इकहरा या आसान नहीं है वरन् अधिक चुनौतीपूर्ण और दायित्व वाला है. आलोचक ‘रचना की सांसारिकता’[25] का एक ऐसा चौकन्ना नागरिक है जिसकी नजर उसके हर पहलू पर टिकी रहती है. किसी कृति की व्याख्या में हम केवल यही नहीं करते हैं कि उसमें क्या कहा गया है.
समर्थ आलोचक वह होता है जो उस ‘कृति’ के उन ‘आशयों’ को ‘इन्टेंशन्स’ को पकड़ने की कोशिश करता है जो उस रचना में भी पूरी तरह रूपायित नहीं हो पाते हैं. इसीलिए आलोचना अपनी शर्तों पर भी ‘रचना’ को देखती है और रचनाकार की शर्तों की भी रक्षा करती है. इन दोनों तर्कों के बीच ही समर्थ आलोचना जन्म लेती है. एक आलोचक समकालीन रचना में अपने समय के चिह्न (imprints) ढूँढने का कार्य करता है. वह उन इम्प्रिंट्स के सहारे रचना के बीच से गुजरते हुए अगर एक ‘समझदारी भरा तनाव’ अपनी आलोचना में रचता है तो यह उस आलोचना का सृजनात्मक पक्ष है. यह समझदारी भरा तनाव ही ‘समकालीनता’ की आलोचक की समझ व परख और ‘समकालीनता’ से विचलन के संघर्ष को उजागर करता है.
आज जब मध्यवर्ग का अधिकांश हिस्सा ऐसे ‘कास्मोपोलिटन’ समय में रह रहा है जिसमें उसकी कोई एक ‘आईडेंटिटी’ नहीं है वह ‘मल्टिपल आईडेंटिटीज’ में रहने को ही ‘स्मार्टनेस’ मानता है ऐसे में पहचान की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं. ऐसे वर्ग को ‘रूटलेस फ्लोटिंग मॉस, कहा गया है जो अपने स्वार्थ और लाभ का ही एजेंडा समाज पर थोपना चाहता है. साहित्य में भी यह ‘रूटलेस फ्लोटिंग मॉस, अपनी ‘स्मार्टनेस’ के साथ सक्रिय है.
आलोचना का काम है कि, वह उस ‘स्मार्टनेस’ को, ‘मल्टिपल आईडेंटिटीज’ को पहचाने और जोखिम लेते हुए उन चालाक हितों को बेनकाब करे जो साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, संस्थाओं, सत्ता प्रतिष्ठानों हर कहीं अपने लोभ-लाभ का छद्म एजेंडा लिए नमूदार रहता है. शायद यही वह सरोकार होगा आज आलोचना का जो नए सन्दर्भों में पूछ सके कि
‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है.’
इसी बिंदु पर यहाँ यह सोचने-विचारने के लिए यह एक जरूरी प्रस्ताव हो सकता है कि प्रगतिशील विचार और इरादों से लिखी हर रचना अनिवार्यतः उत्कृष्ट और महान नहीं होती. जबकि हर उत्कृष्ट रचना प्रगतिशील धारणा, व्यवहार और क्रियान्वयन में सहयोगी जरूर होती है. पूरे विश्व-साहित्य में इसके अनेकों उदाहरण हैं. मैं यहाँ उन तफसीलों में नहीं जाना चाहता उसके लिए अवकाश यहाँ नहीं है. पर इस पर बलाघात जरूर है कि, आलोचना इतिहास निर्माण के लिए सहयोगी भूमिका का निर्वाह करती है इसलिए उसका सरोकार है कि वह ‘इतिहासभास’ के भ्रम को विछिन्न करे. आलोचना को अपने सहगामी और प्रतिगामी दोनों ही तरह की प्रच्छन्नओं से संघर्ष करना जरूरी होता है. वह जितना दूसरों की आलोचना है उससे अधिक वह खुद के प्रति एक सजग आलोचनात्मक कार्यवाही है. यह संघर्ष ही दरअसल एक आलोचक का संघर्ष होता है.
आलोचनात्मक-चेतना को हताश करने वाले, उसे हँसी में उड़ा देने वाले, अनियंत्रित प्रचार-माध्यमों से उस चेतना को खंडित-विखंडित करने वाले भ्रमों को काटते हुए आलोचना का उत्तरदायी होना मेरी समझ में आज सबसे बड़ा सरोकार बन जाता है. अच्छी रचना को आगे ले आना, उसको मान्यता दिलाना और ख़राब रचनाओं को खराब कहने का साहस और संकल्प आलोचनात्मक-चेतना की ईमानदारी का प्रमाण बनता है. अपने रचनात्मक-समय का एक अनुशासनात्मक-परिप्रेक्ष्य तैयार करने में सहयोग करना आलोचना का सरोकार है. खद्योत (ब्लिंकर्स) हर समय समय और हर युग में रहते हैं. उनकी पहचान भी उन युगों में की गयी है. पर हम जिस समय में रह रहे हैं उसमें कहीं ऐसा तो नहीं कि ये खद्योत ‘ब्लिंकर्स’ एक साथ मिलकर ‘सम्मिलित चकाचौंध’ पैदा कर रौशनी का भ्रम पैदा कर रहे हों. ऐसे ‘ब्लिंकर्स’ की पहचान करना और उनके द्वारा फैलाए जा रहे ‘रौशन अँधेरे’ को साफ़ करना आलोचक का ही काम है. मूल्य-मूढ़ता और वैचारिक-धुंध के प्रति आलोचनात्मक होना आलोचना का सजग दायित्व है. दरअसल, मूल्य-मूढ़ता जहाँ परम्परा–संस्कृति आदि को ‘ग्लोरिफाई’ करने में ही अपना दायित्व समझती है वहीं वैचारिक-धुंध ‘समकालीनता’ के तकाजे से कई महत्वपूर्ण प्रश्नों और जवाबदेहियों के मनमाने इस्तेमाल की सुविधा का माध्यम बन जाता है.
रचनाकार और आलोचक के संबंधों को आज उसी ढंग से नहीं समझा जा सकता जिस तरह पूंजीवादी समय में. आज के बदले आर्थिक-राजनीतिक प्रभावों के बीच इन दोनों के रिश्तों की समझ विकसित की जानी चाहिए. उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के विरूद्ध फूहड़ रुचियों और लालसाओं को बनाने में सक्रिय बाजारवाद के खिलाफ जनधर्मी और जीवनधर्मी सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरोधों को रचना, उत्तरदायी सृजन को आगे करना, उसकी तरफदारी करना केवल आलोचक का ही दायित्व नहीं है वरन दोनों का साझा सरोकार है. आलोचक से अधिक की अपेक्षा की जाती है इसलिए उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है. आज की समकालीन रचनाशीलता को केवल ‘साहित्यिकता’ के ‘पाठों’ और ‘प्रतिमानों’ से ही नहीं समझा जा सकता.
आलोचना का एक व्यापक और वृहत्तर सरोकार और दायित्व आज के बढ़ते सामाजिक-सांस्कृतिक खतरों को पहचान कर उन पर सही सार्थक बहस का माहौल पैदा करना और उसे रचना है. आलोचना साहित्यिक पाठ-मात्र को परिष्कृत और सूक्ष्म विधियों से अधिक उपभोग्य बनाने का उद्यम भर नहीं है, न ही पाठ का तुरत-फुरत में अर्थ-दोहन कर उसकी राजनीतिक भूमिका तय करने, उस पर मूल्य-निर्णय सुनाने की गतिविधि है. आलोचना साहित्यिक पाठ को पढ़ने की किसी एक पद्धति का नाम नहीं वह सांस्कृतिक-राजनीति की वृहत्तर कठिनतर कार्यवाही है. इस कार्यवाही में वह विभिन्न पद्धतियों का विवेकपूर्ण उपयोग कर सकती है स्वयं को समृद्ध करने के लिए उसे करना भी चाहिए.
“आज साहित्य, समाज, संस्कृति इस तरह एक दूसरे से गुथे और संश्लिष्ट रूप से बहते चले जा रहे हैं कि एक साहित्यिक कृति की आलोचना लगभग समूची संस्कृति और समूची सामाजिक व्यवस्था की चुनौती बन जाती है…. क्योंकि सत्ता केवल कुछ राजनैतिक विचारधाराओं के रूप में ही अपने को व्यक्त नहीं कर रही है बल्कि अनेक सांस्कृतिक मूल्यों, जीवन मूल्यों द्वारा साहित्य को और आलोचना कर्म को प्रभावित कर रही है.”[26]
‘स्टेट आपरेटस’ आज जिस तरह धर्म, राजनीति आदि को अविश्वसनीय, विवादी, संदेहास्पद और व्यक्तिकेंद्री बनाते चले जा रहे हैं वहाँ आलोचना के सरोकार और चुनौती-पूर्ण हो जाते हैं. ‘राज्य शक्ति’ का आज साहित्य और संस्कृति से क्या सम्बन्ध रह गया है? क्या ‘राज्यशक्ति’ आलोचनात्मक ‘स्पेस’ को लगातार ख़त्म करती जा रही है?
“यह सही है कि, आलोचना के प्रतिरोध का स्वर अंततः ‘साहित्यिक’ होगा पर उसका लक्ष्य सभ्यता को हर तरह की बर्बरता और दमन से बचाए रखने का है.”[27]
अतः आलोचना के संकट की जगह इस समय आलोचना पर संकट की चिंता की जानी चाहिए. अगर आलोचना, सचाई को रचने-कहने वाली एक ‘संस्था; के रूप साहित्य और समाज में चिन्हित की जाती है तो सच हवा में नहीं कहा जाता. आज तो यह स्थिति है कि सच कहने भर से ‘सच’ की सत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती.
यह ‘पोस्ट-ट्रुथ’ का समय है. एक सत्य को काटती हुई समानान्तर सत्य की अनेक-अनेक झूठी छवियाँ आपके सामने परोस दी जाएंगी. बाथ यूनिवर्सिटी, ब्रिटेन में सोशल एंड पॉलिसी साइंस के प्रोफेसर और समाज-वैज्ञानिक डेविड मिलर के शब्दों में कहें तो यह ‘प्रोपेगैंडा मैनेज्ड डेमोक्रेसी’[28] का दौर है. इसलिए ऐसे समय में सत्य बोलने भर से कुछ नहीं होने वाला, सत्य को प्रामाणिक बनाने वाले आचरण की जरूरत है.
ब्रेख्त के नाटक ‘गैलीलियो’ में शिष्य अपने गुरु से पूछता है कि
“सत्य अगर सत्य है तो वह स्वयं ही सामने आ जाएगा.”
गुरु गैलीलियो का जवाब है
“नहीं, हज़ार बार नहीं. सत्य स्वयं कभी सामने नहीं आता. उसे सामने लाना पड़ता है.”
जोखिम तो है, पर जोखिम तो गैलीलियो ने भी उठाया ही था.
आखिर में बस, इतना ही कि उपर्युक्त वर्णित स्थितियों, देश-काल की परिस्थितियों, उसके कार्य-कारण संबन्धों के संकेत, उल्लेख और विवेचन-विश्लेषण के हवाले से आलोचना की चिंताओं और चुनौतियों के साथ पूर्व की उसकी समृद्ध वैचारिक उपलब्धियों और वर्तमान में उसके प्रयत्न-पक्ष की अपार संभावनाओं की ओर आज की कुछ विशिष्ट साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं, उसके बनावट के कुछ पैटर्न्स, कुछ साँचे, कुछ मुखौटे दिखलाने की कोशिश भर की है. इस भरोसे और विश्वास के साथ कि इसकी बची हुई संभावनाओं और जरूरतों पर आगे बहस-विमर्श हो सके. इस दृष्टि से उन सब समानधर्माओं के लिए यह एक प्रस्तावना भर है, जो सोचने और पूछने में विश्वास करते हैं . क्योंकि सोचने और पूछने से बहुत कुछ बदल जाता है :
सोचो
जहाँ खड़े हो, वहीं से सोचो
चाहे राख़ से ही शुरू करो
मगर सोचो.
(केदारनाथ सिंह : ‘पानी एक रोशनी है’)
_______________
मगर पूछो
क्योंकि पूछने से पृथ्वी पर
बनने लगता है समय
पूछो कि पूछने से
भाषाएँ ज़िंदा रहती हैं.
(केदारनाथ सिंह : ‘प्रश्नकाल’)
संदर्भ और टिप्पणियाँ
[1] https://en.wikipedia.org/wiki/Cold_war_(general_term)
[2] Orwell, George: You and the Atomic Bomb, Tribune (London), 19 October, 1945.
[3] साही, विजयदेव नारायण : मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति, छठवाँ दशक, हिंदुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद, 1987, पृ.- 49.
[4] सिंह, नामवर : समाज, साहित्य और लेखक का व्यक्तित्व, इतिहास और आलोचना, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, 1962, पृ.- 46
[5] वाजपेयी, अशोक : आलोचना है आलोचक नहीं, पूर्वग्रह (अंक : 78-79, जन.-अप्रैल, 1987), पृ. 12-13.
[6] Hobsbawm, Eric: Fractured Time: Culture and Society in 20th Century, The New Press, London.
[7] जोशी, राजेश : वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, सेतु प्रकाशन, गाज़ियाबाद, पृ. – 12-13.
[8] Caldwell, Christopher: The age of Entitlement, Simon and Shuster, New Delhi
[9] शर्मा, रमविलास : निराला की साहित्य साधना : भाग -1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. – 306-07.
[10] मुक्तिबोध, गजानन माधव : मुक्तिबोध रचनावली : खंड – 5 (संपा. : नेमिचंद्र जैन), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 188.
[11] त्रिलोचन, काव्य और अर्थबोध (संपा. : अवधेश प्रधान), साहित्यवाणी प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.-50, 53
[12] Dimitrov, Georgi: Selected Speeches and Articles, Lawrence & Wishart, 1951.
[13] लूकाच, जॉर्ज : कला और साहित्य चिंतन : कार्ल मार्क्स (संपा. : नामवर सिंह, अनु. : गोरख पांडेय), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. – 31.
[14] जोशी, मनोहर श्याम, ग्लोबल गाँव में सांस्कृतिक संकट (लेख), वैश्वीकरण के दौर में (संपा.) – रामशरण जोशी, समयांतर प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ.- 160
[15] सच्चिदानंदन, के. और सिंह, केदारनाथ : ताना-बाना, राजकमल प्रकाशन, नई दिली, पृ. – 10.
[16] जोशी, राजेश : वह हँसी बहुत कुछ कहती थी, सेतु प्रकाशन, गाज़ियाबाद, पृ. – 144-45.
[17] सईद, एडवर्ड : ‘दि वर्ल्ड, दि टेक्स्ट एंड दि क्रिटिक’ : वर्चस्व और प्रतिरोध (संपा. : रामकीर्ति शुक्ल), नई किताब, दिल्ली, पृ. – 31.
[18] चौहान, शिवदान सिंह : हिन्दी गद्य साहित्य, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1965, पृ. – 57-58
[19] आलोचना मुख्यतः बौद्धिक व्यवसाय है और हमारे देश का बौद्धिक स्तर कैसा है, शायद यह कहने की आवश्यकता नहीं |…इस बौद्धिक तैयारी का असर आलोचना पर भी पड़ता है और रचना पर भी – पर आलोचना में वह बहुत प्रत्यक्ष होता है और रचना में तनिक भीतरी – जिसका कि उद्घाटन करना पड़ता है |” – रचना और आलोचना, देवीशंकर अवस्थी, दि मैकमिलन कम्पनी आफ इंडिया लिमिटेड, नयी दिल्ली, 1979, पृ. – 24.
[20] मुक्तिबोध रचनावली – खंड : 5, पेपर बैक, नेमिचंद्र जैन (सं.) राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1985, पृ. – 83.
[21] साही, विजयदेव नारायण : तीसरा सप्तक, पेपर बैक, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2000, पृ. – 183.
[22] पूर्वग्रह, 78-79 (जनवरी-अप्रैल,1987) – राममूर्ति त्रिपाठी का लेख, सं. – अशोक वाजपेयी, भारत भवन, शामला हिल्स, भोपाल, पृ. – 120.
[23] स्वामी मित्रं च मंत्री च शिष्यश्चाचार्य एव च
कवेर्भवति हि चित्रं किं हि तद्यन्न भावकः || – रामशंकर त्रिपाठी (हिंदी अनुवाद एवं टीका), काव्य-मीमांसा, मोतीलाल बनारसीदास प्रा. लिमिटेड, दिल्ली, पृ. – 52.
[24] The task of the Critique, Terry Eagleton and Matthew Beaumont, Verso, London, 2009, p.132
[25] ‘रचना की सांसारिकता’ यह पद एडवर्ड सईद का है | देखें – Edward W. Said, The World, The Text and the Critique, Harvard University Press, Cambridge, 1983, पृ. – 81.
[26] पूर्वग्रह, 78-79 (जनवरी-अप्रैल,1987) नामवर सिंह का लेख, सं.- अशोक वाजपेयी, भारत भवन, शामला हिल्स, भोपाल, पृ. – 42.
[27] वही, पृ. – 42.
[28] Miller, David: ‘Propaganda-managed democracy: the UK and the lessons of Iraq’ : Socialist Register : Vol. 42, 2006.
विनोद तिवारी अध्यापक, आलोचक और संपादक.इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिन्दी का अध्यापन. दो वर्षों तक अंकारा विश्वविदयालय, अंकारा (तुर्की) में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे. अब तक, ‘परम्परा, सर्जन और उपन्यास,’ ‘नयी सदी की दहलीज पर’, ‘विजयदेव नारायण साही (साहित्य एकेडेमी के लिए मोनोग्राफ)’, ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’, ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’, ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध’, ‘कथालोचना : दृश्य-परिदृश्य’, ‘उपन्यास : कला और सिद्धान्त ( दो खंड ), ‘नाज़िम हिकमत के देश में’ (तुर्की पर यात्रा-संस्मरण), ‘आलोचना की पक्षधरता’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’, ‘विचार के वातायन’, नलिन विलोचन शर्मा रचनावली (5 खंड), जैसी पुस्तकों का लेखन और सम्पादन कर चुके हैं. बहुचर्चित और हिन्दी जनक्षेत्र की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पक्षधर’ का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं. आलोचना के लिए देश भर में प्रतिष्ठित ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान – 2013’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान – 2016’ से सम्मानित. संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्रोफ़ेसर. |
विनोद तिवारी के संदर्भ प्रथम कोटि के हैं। सोच समझ कर लिखा है। और हमारे पास बचा ही क्या है। कुछ सवालात। कुछ डर। कुछ आशा। क्या आशा रूमानी है ? एक सांस में पढ़ कर यह आलोचना की आलोचना जो कह रही है। कौन पढ़ेगा, गुनने की बात तो दूर। कभी कहा गया था विश्वविद्यालयीय कवि और ज्ञान के उत्पादक। यह व्यंग्य था जिन्हें मान्यता देने में गर्व खर्व होता था। सदा नहीं, यदा कदा, कतिपय इमारती विद्वानों का। अब तो भाई संस्थाओं पर काबिज एनिमल फार्म को पुनः पुनः दोहराते रहेंगे, बिना पढ़े। पढ़ने का कष्ट उठाने वाले धीरे धीरे घाट पकड़ रहे हैं। एक बात और यह जो कुछ जनेरेट किया जा रहा है, न पल्प है न लिटरेचर। लिटरेचर ही जब गुम है तो आलोचना किसकी? आलोचना की स्वतंत्र विधा पुनर्नवा है क्या?
बहसतलब सुचिंतित आलेख के लिए विनोद जी को साधुवाद.
हमारे ज़माने में श्रेष्ठ रचना और आलोचना की कमी नहीं है.
यह अलग बात है कि सोशल मीडिया के इस दौर में मात्रात्मक दृष्टि से औसत से कम या नज़रअंदाज़ कर देने योग्य तथाकथित रचना एवं आलोचना की भरमार है.
जो रचनाकार आलोचना में केवल अपना नाम या अपनी रचनाओं के उद्धरण खोजने के अभ्यस्त हैं उन्हें आलोचना रसातल में जाती हुई दिखाई देती है. आलोचकों को पानी पी -पीकर कोसने के बजाय इन लोगों को निराला की तरह ‘मेरे गीत,मेरी कला’ की तरह कुछ सार्थक लिखकर अपनी रचनाओं की विशेषताओं को सामने लाना चाहिए.
आलोचत्मक लेखन ज़रूरत भर रचना- सापेक्ष होने के बावजूद एक स्वतंत्र अनुशासन है. साही ने ठीक ही आलोचना को साहित्य का दर्शनशास्त्र कहा है.